क्या ‘जय श्री राम’ की राजनीति का उत्तर ‘जय भीम’ का नारा है?

भारतीय जनमानस पर कथित धर्म और उनके आदर्शोने निसंशय रूप से अपनी अमिट छाप छोड़ी है. केवल किसी एक व्यक्ति, संस्था, समाज एवं प्रदेश ही नहीं बल्कि भारत के समस्त लोकजीवन को बदलने वाली राजनीति धर्माधिष्ठित है. सन नब्बे के दशक में देश में उभरे राम मंदिर आन्दोलन से देश में निर्मित वातावरण को समकालीन वास्तविकता में भी महसूस किया जा सकता है. क्या राम नाम की राजनीति ही इस देश का भवितव्य है ? नि:संशय भारत जैसे बहुलतावादी देश में कोई भी एक धर्मीय राजनीति सर्वांगीन कटुता को जन्म देने में कारीगर साबित होगी. मात्र, क्या धर्मवादी राजनीति का कोई पर्याय हो सकता है? अर्थात जरुर हो सकता है.

खैर, मूलतः देखे तो केवल हमारे देश में कानूनी तौर पर तो जाती-धर्म के नाम पर ‘वोट’ नहीं मांगे जा सकते. लेकिन हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनाव को देखे तो अनेक पार्टीयों के नेताओं को इसका धड़ल्ले से उलंघन करता पाया गया. यही नहीं बल्कि लोकसभा चुनाव के पश्चात सांसदों के शपथग्रहण समारोह में भी इस तरिके की नारेबाजी जोर शोर से चलती रही. इसी बिच देखने को मिले एक वाकिये ने सबका ध्यान अपनी और आकर्षित किया है. जो की निश्चित ही अधोरेखित करने लायक है. किस्सा यह था की, देश में मुस्लिम अल्पसंख्यांक समाज की राजनीति का चेहरा समझे जाने वाले ‘मजलिस-ऐ-इत्तिहादुल मुसल्लमिन’ के नेता असदुद्दीन ओवेसी, जैसे ही संसद में शपथ ग्रहण के लिए उठे वैसे ही कुछ सांसदों ने ‘वन्दे मातरम्’ और ‘जय श्री राम’ के नारे लगाना शुरू किया. इसी बिच ओवेसी जी उपरोधकता से इशारों में ही ज़रा और जोर से नारे लगाने को कहते रहे. नारे चलते रहे और शपथ भी. मात्र, अपने शपथग्रहण समाप्ति के उपरांत ओवेसी जी ने जो ‘जय भीम’ का नारा बुलंद किया वह भी उल्लेखनीय है. किन्तु क्या केवल सर्वसामान्य दृष्टिकोण से इस घटना को देखा जा सकता है ? और क्या देखा जाना चाहिए ?

मूलतः भारतीय संविधान के अनुच्छेद ९९ में ‘संसद के प्रत्येक सदन का प्रत्येक सदस्य अपना स्थान ग्रहण करने से पहले राष्ट्रपति या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूप के अनुसार शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर हस्ताक्षर करेगा’ यह नवनिर्वाचित सांसदों के शपथ ग्रहण के लिए निर्देशित है. संविधान का संबंधित अनुच्छेद तथा तीसरी अनुसूची में निर्देशित शपथ का प्रारूप अत्यंत महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रक्रिया को अधोरेखित करता है.

सामान्यतः, संसदीय मर्यादा तथा गांभीर्य का पालन करते हुवे निसंशय सांसदों को आपने विवेक को उजागर रखना चाहिए. मात्र लोकतंत्र का सर्वोच्य अधिष्ठान कहे जाने वाले संसद सभागार में अगर ‘जय श्री राम’ की नारे लगने लगे तो मूलतः सामजिक विकास और स्तरीय ढाचे में सबसे निचे नरंतर वंचितता और पिछड़ेपन के साथ ही नकार और वृथा संशय का शिकार होता दलित, बहुजन, आदिवासी, मुस्लिम तथा अन्य अल्पसंख्यांक समाज किस जगह अपनी गुहार लगाए ? और कोनसी शासकीय प्रणाली पर अपना विशवास रखे ? भारतीय राज्यघटना जहा ऐसे दबे-कुचले समुदाय को स्वातंत्र्य, समता, न्याय और बंधुता का अधिकार देती हो वही धर्म विशेष की थोती राजनीति उन्ही संविधानिक मूल्यों को ध्वस्त करने में साबित ना हो.

निसंशय, संसद में गूंजे ‘जय श्री राम’ के नारे जहा देश भर के दलित, बहुजन, आदिवासी और अल्पसंख्यांक तबके में नकारात्मकता का भाव पैदा करेंगे वहि उसी वक्त ‘जय भीम’ का नारा संविधान के मार्ग पर चलने को प्रोत्साहित करता रहेगा. लेकिन नारों के बदले नारों की राजनीति जबतक सकल समाज के विकास की कांक्षा में नहीं बदलती तब तक देश के संविधानकर्ताओं का सपना साकार हुवा ऐसा हमें नहीं मानना चाहिए.

अर्थात जब भी आप और हम ‘जय भीम’ का नारा लागाते है, तब आत्यंतिक नैसर्गिक रूप से शोषणाधिष्टित धर्म और उसका थोता तत्वज्ञान और उसके द्वारा बनाई हुई अनैसर्गिक समाजरचना के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर उजागर करते है. अर्थात इस नारे के बाद हमें अन्य किसी नारे तथा घोषणापत्र देने की जरुरत नहीं. लेकिन नि:संशय नारे भी जहा हमारी राजनीति है वहि राजनीति केवल नारों तक सिमित न रहे.

कुणाल रामटेके

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