जेएनयू में लेफ्ट की जीत के मायने

JNUSU के चुनाव में यूनाइटेड लेफ्ट ने भारी बहुमत से विजय हासिल है. इस बार चुनाव में चार लेफ्ट पार्टी साथ में थी, इनके बीच गठबंधन था . ये चार लेफ्ट पार्टी हैं – AISA , DSF . SFI और AISF . पिछले साल भी तीन लेफ्ट पार्टी मिलकर चुनाव लड़ी थी – AISA , SFI , और DSF . इस चुनाव में AISF भी इस गठबंधन में शामिल हो गया है. पिछले साल AISF ने अलग रहकर चुनाव लड़ा था.

पिछले साल चुनाव में जब तीन लेफ्ट पार्टी साथ में थी, अध्यक्ष पद पर यूनाइटेड लेफ्ट को 1506 मत मिले थे . ABVP दुसरे और बापसा तीसरे स्थान था. ABVP को 1042 और बापसा ( बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन ) को 935 मत मिले थे. वाइस – प्रेसीडेंट, जनरल सेक्रेटरी और जॉइंट सेक्रेटरी सभी पद पर भी ABVP दूसरे स्थान और बापसा तीसरे स्थान पर था. इस साल प्रेसीडेंट पद पर यूनाइटेड लेफ्ट को 2151 मत मिले हैं, उसके मतो में भारी बढ़ोतरी हुयी हैं, वही ABVP और बापसा दोनों में मतों में कमी आयी है. ABVP को 972 और बापसा को 675 मत मिले हैं.

चुनाव से पहले ऐसा महसूस हो रहा था कि JNU छात्र समुदाय परिवर्तन चाहता है. इसलिए दूसरी पार्टियों को अपने पक्ष में सकारात्मक बदलाव की उम्मीद थी. अधिकतर छात्रों का मानना था कि ABVP सेंट्रल पेनल में कोई न कोई सीट जीतेगा. दूसरी तरफ, बापसा को भी उम्मीद थी कि वह पिछली साल की तुलना में और भी अच्छा प्रदर्शन करेगा . याद रहे कि बापसा पिछले दो सालो से अच्छा प्रदर्शन कर रहा है. NSUI को भी उम्मीद में था कि उसके साथ मुस्लिम ज्यादा जुड़े हैं, इसलिए वह पिछले सालो की बजाय बेहतर प्रदर्शन करेगा.

लेकिन चुनाव परिणाम ने सारे पूर्वानुमान को धता बता दी और यूनाइटेड लेफ्ट को भारी बहुमत मिला. इस बार मतदान 68 % रहा जो कि पिछली कई सालो में सर्वाधिक है. याद रहे कि 2017 में मतदान का प्रतिशत 59 % था. JNU में आमतौर मतदान 60 % से कम ही रहता है. मतदान का प्रतिशत अधिक होने से लग रहा था कि छात्र कुछ नया परिणाम देगा और वैसा ही हुआ.

समुदाय के सामने सबसे अहम मुद्दा था – ABVP को रोकने के लिए वह किस दल को चुने. ऐसे में यूनाइटेड लेफ्ट के अतिरिक्त एक विकल्प बापसा था. किन्तु बापसा के प्रेसिडेंट पद के उम्मीदवार प्रवीण थलाप्पली अपने भाषण से किसी को ज्यादा आकर्षित नहीं कर पाए. उनका भाषण और प्रश्न – उत्तर दोनों का सेशन भी बहुत साधारण रहा. वह बापसा की विचाधार को सही ढंग से छात्र समुदाय के सामने पेश नहीं कर पाए. इसका कारण यह हो सकता है कि प्रवीण थल्लापेली ने हिंदी में भाषण दिया और वेनॉन- हिंदी पृष्ठ भूमि से आते हैं. धयान रहे कि प्रेसिडेंटि अलडिबेट की स्पीच निर्णायक होती है जिसको सुनने ढेर सारी भीड़ आती है. इसका खामियाजा बापसा के अन्य उमीदवारो को भी झेलना पड़ा. प्रेसिडेंटिअल डिबेट का दिन ही चुनाव प्रचार का अंतिम दिन होता है. दूसरी तरफ, इस चुनाव में एक नई पार्टी छात्र राजद भी था जिसके उम्मीदवार जयंत कुमार थे. उन्होंने भी अपने को दलित–बहुजन राजनीति के उत्तराधिकारी रूप में पेश किया और फुले-अम्बेडकर-पेरियार–सहित सभी बहुजन आइकन का नाम लिया. उन्होंने भी छात्र समुदाय का एक बड़ा मत प्राप्त किया किन्तु वे जीतने से बहुत दूर रहे.

प्रेसिडेंटिअल डिबेट के समय ABVP के लोगो ने उस समय हो-हल्ला मचाया जब यूनाइटेड लेफ्ट के उम्मीदवार ने स्पीच देना शुरू किया जिससे कई बार डिबेट में व्यवधान पड़ा. ध्यान रहे कि कैंपस में ABVP ने कई बार हिंसा की है. जिससे छात्र समुदाय की नजर में ABVP की छवि ख़राब है. इस हिंसा का फायदा यूनाइटेड लेफ्ट को मिला. छात्र समुदाय ने सोचा कि यदि ABVP यूनियन में आ गया तो और ज्यादा हिंसा करेगा. इसलिए ABVP को रोकने के लिए यूनाइटेड लेफ्ट को ही मत दिया जाये.

ABVP की हिंसा, जयंत कुमार की दावेदारी और बापसा उम्मीदवार की साधारण स्पीच से छात्र समुदाय ने मन बना लिया कि यूनाइटेड लेफ्ट को ही मत दिया जाये. इन्ही सब कारणों से छात्र समुदाय ने यूनाइटेड लेफ्ट को ही मत देकर भारी बहुमत से विजयी बनाया.

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