सतगुरु रैदासः महान संत के महान विचार, जो आज भी प्रासंगिक है

रेल मंत्रालय में साल दर साल फ़रवरी के महीने में वाराणसी जाने के लिए स्पेशल ट्रेन बुक कराने के प्रार्थना पत्र आते हैं। इनमे से ज़्यादातर प्रार्थना पत्र पंजाब, हरियाणा और राजस्थान से आते हैं, और गंतव्य स्टेशन होता हैं मंडुवाडीह। प्रार्थना पत्र नवम्बर में ही आने शुरू हो जाते हैं और दिसम्बर- जनवरी तक आते ही रहते हैं। बुक कराने वाले पूरा किराया तो देते ही हैं, स्पेशल ट्रेन का एक्सट्रा चार्ज भी देते हैं। अवसर होता है संत शिरोमणि गुरु रविदास की जयंती का, जो हर साल माघ पुर्णिमा को मनाई जाती है। संत रविदास का जन्म सन 1398 माघ पूर्णिमा को वाराणसी उत्तर प्रदेश के निकट मण्डुवाडीह में हुआ था। गुरू रविदास ने अपने पदो के माध्यम से समाज में फैले मिथ्याचार आडंबर और रूढ़िवादिता पर प्रहार किया।

गुरू रविदास का अधिकांश समय भारत के विभिन्न प्रदेशों के भ्रमण में बीता। संबंधित प्रदेशों की बोली भाषा के अनुरूप इन्हें विभिन्न नामों से ख्याति प्राप्त हुई जैसे- पंजाब में रैदास, बंगाल में रूईदास, महाराष्ट्र में रोहिदास, राजस्थान में रायदास, गुजरात में रोहिदास अथवा रोहितास, मध्य प्रदेश में रविदास।

गुरू ग्रंथ साहिब में रविदास के उल्लिखित चालीस पदों में अधिकांशतया ”रैदास” नाम का ही वर्णन आया है। संत रविदास गुजरात, उत्तरी भारत, पूर्वी भारत, पश्चिमी भारत और मध्य भारत के एक सर्वमान्य संत थे। उन्होंने सार्वजनीन भ्रातृत्व की बात की और सभी के प्रति प्रेम व स्नेह व्यक्त किया। उन्होंने श्रमण अथवा अपनी आजीविका स्वयं अर्जित करने का संदेश प्रचारित किया।

गुरू रविदास महान सामाजिक व धार्मिक क्रातिकारी थे। उन्होंने अपने कार्यों द्वारा तत्कालीन भारत में सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया। उस समय ये माना जाता था कि सन्यासी जीवन 75 वर्ष की उम्र पार करने के बाद बिताया जाता है। लेकिन गुरू रविदास ने दुनिया को यह दिखा दिया कि गृहस्थ जीवन में भी मोक्ष संभव है। उनकी पत्नी लोना देवी भी अध्यात्त्मिक रुप से उच्च अवस्था को प्राप्त थीं। गुरू रविदास ने आत्म-सम्मान, आत्मबल और आत्म-सहायता पर जोर दिया। सतगुरू रविदास ने न सिर्फ जातीय वर्चस्व को चुनौती दी बल्कि समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व व न्याय उनके सामाजिक परिवर्तन के मुख्य स्तंभ थे। गुरू रविदास भारतवर्ष के कोने-कोने में गये और समानता, भ्रातृत्व व सार्वजनीन एकात्मता का संदेश फैलाने के लिए कार्य किया। वे समतावादी समाज की बात करते थे। उनकी दृष्टि एक ऐसे समाज के निर्माण की थी, जहां भूख, गरीबी और दरिद्रता न हो।

गुरू रविदास कहते हैं:

ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिलै सबन को अन्न। छोट बड़त सब सम बसै, रैदास रहे प्रसन्न।

मैं ऐसा शासन चाहता हू¡ जिसमें सबको भर पेट भोजन मिले। मुझे तभी खुशी होगी, जब उच्च या निम्न जाति को भुलाकर सबके साथ समानता का व्यवहार किया जाए।

संत् रविदास ने एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थी जहां कोई भूखा और गरीब नहीं होगा, रोगी और दु:खी नहीं होगा, असमानता और शोषण का अभाव होगा और लोगों में प्रेम और सौहार्द की भावना होगी। ऐसे राष्ट्र  को संत रविदास ने बेगमपुरा नाम दिया था।

संत् रविदास ने जाति, रंग या नस्ल पर आधारित लोगों के अत्याचारों का विरोध किया।  समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, समानता व भ्रातृत्व का संदेश फैलाकर संत रविदास ने कहा कि किसी मानव की पहचान उसके जन्म से नहीं बल्कि कर्म से होती है।

गुरू रविदास कहते हैं:

रविदास सुकरमन करन सो नीच ऊँच हो जाये, करही कुकर्म ऊँच भी, तो महा नीच कहलाय ।

अच्छे कर्म करके निम्न जाति में जन्मा व्यक्ति भी उच्च हो जाता है। गलत काम करके उच्च जाति में जन्मा व्यक्ति भी निंदनीय अथवा निम्न हो जाता है।

रविदास जनम के कारने, होत न कोई नीच, नर कू नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच ।

जन्म से कोई ऊँचा-नीचा नहीं होता, केवल बुरे कर्म अर्थात् गलत कार्य ही मानव को ऊँचा-नीचा बनाते हैं।

संत रविदास के समय के भारत में महिलाओं को सामान्यतया दीक्षा नहीं दी जाती थी। संत रविदास ने उस परंपरा को तोड़ा और अनेकों महिलाओं को दीक्षा देकर महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक क्रातिकारी काम किया। उनकी प्रमुख महिला शिष्यों में मीराबाई व चित्तौड़ की रानी झालीबाई सहित अनेक राजकुमारियां शामिल थी।

मीराबाई ने अपने पदों में कहा है कि ‘गुरू मिल्या रविदास जी’।

मीराबाई पहले अनेकों संतों के पास गई थी लेकिन किसी ने परंपरा को तोड़कर एक महिला को दीक्षा देने की हिम्मत नहीं जुटाई। लेकिन संत रविदास ने केवल मीराबाई को ही दीक्षा नहीं दी, बल्कि अनेकों महिलाओं को दीक्षा देकर ये सिद्ध किया कि अघ्यात्म के मार्ग पर चलने का अधिकार महिलाओं का भी उतना ही जितना कि पुरूषों का।

संत रविदास ने इस बात पर जोर दिया कि पुत्री भी पुत्र के समान होती है और महिलाएं किसी भी तरीके से पुरूषों से कम नहीं होती हैं। आज जब देश के कई भागों में महिलाओं पर जघन्य अपराध हो रहा है ऐसे में संत रविदास की शिक्षाएं और भी प्रासंगकि हो जाती हैं। गुरू रविदास समानता, भ्रातृत्व, प्रेम व स्नेह को मानते थे और उसी का प्रचार-प्रसार करते थे। इसलिए गुरू रविदास को श्रमण परंपरा का अग्रवाहक माना जाता है।

गुरू रविदास कहते हैं: मन ही पूजा मन ही धूप, मन ही सेवा सहज सरूप। पूजा अर्चना ना जानू तोरी, कह रविदास कौन गति मोरी।

आज जब देश के बिभिन्न भागों में जात- पांत के नाम पर हिंसक घटनाएं हो रही हैं संत रविदास की शिक्षाएं और भी प्रासंगकि हो जाती है

श्रावस्ती में जेतवन विहार में एक कुंए का नाम उनकी पत्नी लोना माई के नाम पर है। ऐसा प्रतीत होता है कि संत रविदास और उनकी पत्नी लोना देवी को आध्यात्मिक शक्तियां और रिद्धियां-सिद्धियां प्राप्त रही होंगी जिससे स्थानीय लोग प्रभावित हुए होंगे और इसीलिए कुएं का नाम लोना माई के नाम पर रखा गया होगा। जेतवन में उनके नाम पर कुएं का मौजूद होना यह सिद्ध करता है कि वे श्रावस्ती जैसे बौद्ध स्थलों पर अनेक बार गए होंगे।

रैदास की सबसे बड़ी विशेषता भक्ति साधना के साथ-साथ श्रम साधना भी है। संत रैदास के पदों से और विभिन्न जनश्रुतियों से पता चलता है कि अपनी प्रशिद्धि के चरम  दिनों में भी संत रैदास जूते बनाने का अपना व्यवसाय किया करते थे और एक जोड़ी जूता प्रतिदिन दान में दिया करते थे। रैदास ने श्रम को ईश्वर कहा है।

संत रैदास का जीवन अत्यंत सादगी से भरा और किसी भी प्रकार के लोभ, मोह, भय आदि से मुक्त था। उनकी पंक्तियों में काम, क्रोध्, मद, लोभ, मोह आदि कुसंस्कारों के त्याग का आग्रह है। व्यक्तिगत गुणों से परिपूर्ण संत रैदास की मुक्ति मार्गी भूमिका उन्हें अस्मिता बोध् आंदोलनों के एक बड़े प्रणेता और प्रेरक के रूप में प्रस्तुत करती है। उनके व्यक्तित्व की महानता का प्रतीक उनके मार्ग का व्यापक प्रसार भी है और सदियों तक उन्हें कालजयी भी बनाता है।

संत रविदास की लोकप्रियता का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उनकी जन्म-जयंती माघ पूर्णिमा के दिन देश-विदेश से लाखों लोग उनकी जन्मस्थली मडुआडीह पहुंचते है और संत रविदास के प्रति अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर उनके जीवन से प्रेरणा लेते हैं।

संत रैदास की बेगमपुर की अवधारणा की वर्तमान प्रासंगिकता

संत रैदास जी की वाणी में से कुछ महत्वपूर्ण निम्नलिखित हैं-

 ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन को अन्न। छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न।।

जात-जात में जात हैं, जों केलन के पात। रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जात न जात।।

रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं। तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।

हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा। दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।

रैदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच। नर कूँ नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।।

बेगमपुरा सहर को नाउ, दुखु-अंदोहु नहीं तिहि ठाउ। ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफुन खता न तरसु जुवालु। अब मोहि खूब बतन गह पाई, ऊहां खैरि सदा मेरे भाई। काइमु-दाइमु सदा पातिसाही, दोम न सोम एक सो आही। आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहि मामूर। तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै, महरम महल न को अटकावै। कह ‘रविदास’ खलास चमारा, जो हम सहरी सु मीतु हमारा।

बेगमपुरा पद के बारे में दलित लेखक कंवल भारती लिखते हैं कि ‘यह पद डेरा सच्चखंड बल्लां, जालंधर के संत सुरिंदर दास द्वारा संग्रहित ‘अमृतवाणी सतगुरु रविदास महाराज जी’ से लिया गया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि असल नाम ‘रैदास’ है, ‘रविदास’ नहीं है। यह नामान्तर गुरु ग्रन्थ साहेब में संकलन के दौरान हुआ। जिज्ञासु जी ने इस संबंध में लिखा है, ‘यह पता नहीं चल सका कि गुरु ग्रन्थ साहेब में संत रैदास जी के जो 40 पद मिलते हैं, वे किसके द्वारा पहुंचे और उनमें रैदास को रविदास किसने किया? यह बात विचारणीय इसलिए है, क्योंकि ‘रैदास’ का ‘रविदास’ किया जाना संत प्रवर रैदास जी का ब्राह्मणीकरण है; जो रैदास-भक्तों में सूर्या उपासना का प्रचार है। अन्य संग्रहों में रैदास साहेब का यह पद कुछ पाठान्तर के साथ मिलता है और उसमें ‘रैदास’ छाप ही मिलती है। जिज्ञासु जी के संग्रह में इस पद के आरंभ में यह पंक्ति आई है- ‘अब हम खूब वतन घर पाया, ऊँचा खैर सदा मन भाया।‘

इस पद में रैदास साहेब ने अपने समय की व्यवस्था से मुक्ति की तलाश करते हुए जिस दुःख विहीन समाज की कल्पना की है; उसी का नाम बेगमपुरा या बेगमपुर शहर है। रैदास साहेब इस पद के द्वारा बताना चाहते हैं कि उनका आदर्श देश बेगमपुर है, जिसमें ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और छूत-छात का भेद नहीं है। जहां कोई टैक्स देना नहीं पड़ता है; जहां कोई संपत्ति का मालिक नहीं है। कोई अन्याय, कोई चिंता, कोई आतंक और कोई यातना नहीं है। रैदास साहेब अपने शिष्यों से कहते हैं- ‘ऐ मेरे भाइयो! मैंने ऐसा घर खोज लिया है यानी उस व्यवस्था को पा लिया है, जो हालांकि अभी दूर है; पर उसमें सब कुछ न्यायोचित है। उसमें कोई भी दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक नहीं है; बल्कि, सब एक समान हैं। वह देश सदा आबाद रहता है। वहां लोग अपनी इच्छा से जहां चाहें जाते हैं। जो चाहे कर्म (व्यवसाय) करते हैं। उन पर जाति, धर्म या रंग के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं है। उस देश में महल (सामंत) किसी के भी विकास में बाधा नहीं डालते हैं। रैदास चमार कहते हैं कि जो भी हमारे इस बेगमपुरा के विचार का समर्थक है, वही हमारा मित्र है।’)

‘ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन को अन्न। छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न।।’

रैदास जी जन साधारण के राज की बात करते हैं। एक ऐसे लोकतांत्रिक गणराज्य की जिसमें जनता की भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सभी जरूरतें पूरी हों। यह रचना लगभग छः सौ साल पहले की है। फिर भी उन्होंने किसी राजा-रानी, नवाब या बादशाह के राज की वकालत नहीं की है, यहां तक कि उन्होंने किसी राम राज्य की बात भी नहीं की है। बहुत मुश्किल से दुनिया के इतिहास में किसी संत कवियों की रचना में इस तरह के लोक कल्याणकारी राज्य के विचार मिलते हैं। यहां तक कि राजनीतिक इतिहास में भी यह दुर्लभ है।

रैदास की बेगमपुरा रचना प्लेटो, थामस मूर के विचार की तरह यूटोपियन नहीं है, यह ठोस व व्यावहारिक है तथा लोगों की आवश्यकता के अनुरूप है। यह रचना उदात्त है और छोटी होते हुए भी जनराजनीति के राज्य का आज भी एक प्रामाणिक दस्तावेज है। यह एक पुख्ता प्रमाण है कि हमारे संविधान की प्रस्तावना की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय की संकल्पना किसी पश्चिम की नकल नहीं है, यह भारतीय भूमि की ही पैदाइश है जो विभिन्न रूपों में संघर्ष की धारा के बतौर आज भी मौजूद है।

बेगमपुरा में किसी मूर्ति-मंदिर की राजनीतिक संस्कृति कहीं भी नहीं दिखती है। आजकल कुछ लोग भारतीय संस्कृति को एकांगी बनाकर दलितों, आदिवासियों और आम नागरिकों के सहज मानव प्रेम, मानव मुक्ति की भावना को नष्ट करने में लगे हुए है। यही नहीं हिन्दू परम्परा में भी जो ग्राहय है उसको भी वे नष्ट करने पर तुले हुए हैं। आखिर स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती जैसे बड़े संतों ने भी सदैव मूर्ति-मंदिर की राजनीतिक संस्कृति का विरोध ही किया, उनसे बड़ा वैदिक धर्म का ज्ञानी हिन्दुत्व की वकालत करने वाले लोगों में कौन है? गोलवरकर जो हिटलर को अपना आदर्श मानते थे या मोदी सरकार, जो जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई से खड़ी हुई जनसम्पत्ति को देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हाथ कौड़ी के मोल बेच रही है, विदेशी ताकतों की सेवा में दिन रात लगी हुई है।

बहुलता को कमजोरी और धर्म निरपेक्षता को जो लोग विदेशी मानते हैं, वे भारतीय संस्कृति को वास्तविक अर्थों में ना जानते हैं, न मानते हैं। भारत ने विश्व को बहुत कुछ दिया है, और विश्व से बहुत कुछ लिया भी है। हमने यूनान, मिस्र, अरब, चीन जैसी सभ्यताओं को दिया भी और लिया भी।

शर्म आनी चाहिये उन लोगों को, जिनके श्लाघा पुरुष हिटलर, मुसोलिनी, तोजो जैसे तानाशाह हैं। शर्म आरएसएस करे, भाजपा करे जो हमारे सांस्कृतिक जीवन में रचे – बसे बहुलता व धर्म निरपेक्षता को खारिज करने में लगे हैं। धर्मनिरपेक्षता के विचार के विदेशी होने के तर्क को यदि मान भी लें तो भी क्या ? सत्य – शिव – सुंदर तो मानव जाति की आत्मा है, अगर कहीं भी सत्य है, तो वह ग्राह्य है ।

रैदास सामाजिक सच्चाइयों से भी रूबरु हो कर ही कहते हैं:

छोट बड़ो सब सम बसे, रैदास रहे प्रसन्न।

समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय की भावना कितनी गहरी है उनके अंदर यह उनके इसी पद से समझ सकते हैं। वर्ण व्यवस्था और जाति के जंजाल के भार से दबी मानवता की मुक्ति की भावना, जो बाद में जोतिबा फुले, पेरियार और डाक्टर अंबेडकर के संघर्षों में दिखती है उसकी जमीन रैदास जी जैसे संत कवि ही बनाते हैं।

समता की यही संकल्पना, आधुनिक भारत के संविधान की संकल्पना है और न्याय की चाह है।

राहुल गांधी ने एक बड़ी बाधा पार कर ली है, क्या दो अन्य बाधाओं को तोड़ पाएंगे?

आरएसएस-भाजपा के चंगुल से भारतीय लोकतंत्र को निकालने के मार्ग की एक पहली बाधा राहुल गांधी पार करते हुए दिख रहे हैं। पहली चीज यह समझनी और कहनी थी कि आरएसएस-भाजपा से संघर्ष सामान्य राजनीतिक संघर्ष नहीं है, जिसमें एक पार्टी सत्ता में आती है और दूसरी पार्टी उसे चुनावों में सत्ता से बेदखल कर देती है। कमोबेश जैसी राजनीति नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के केंद्रीय सत्ता पर कब्जा करने से पहले थी, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के सत्ता पर कब्जा करने के बाद स्थिति गुणात्मक तौर पर बदल गई थी। यह पिछले 10 सालों में और साफ हो गया है।

भाजपा ने सरकार नहीं बनाई है, बल्कि भारत की सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर आरएसएस-भाजपा ने कब्जा कर लिया है। इन संस्थाओं में न्यायपालिका, स्थायी कार्यपालिका (नौकरशाही), मीडिया और राज्य की अन्य संस्थाएं शामिल हैं। इसमें वौद्धिक विचार-विर्मश के केंद्र उच्च शिक्षा-संस्थाएं और इस तरह की अन्य संस्थाएं भी शामिल हैं। सीबीआई, ईडी आदि की बात छोड़ दीजिए। सेना और अर्द्धसैनिक और पुलिस व्यवस्था तक का काफी हद तक हिंदुत्वादीकरण कर दिया गया है।

राजनीतिक लोकतंत्र निष्पक्ष, पारदर्शी और स्वतंत्र चुनावों पर निर्भर करता है। जिसकी पूरी जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर होती है। चुनाव आयोग भाजपा की कठपुतली बन चुका है। कार्पोरेट के धन, द्विज-सवर्ण कार्पोरेट मीडिया और चुनाव आयोग ने चुनाव को भाजपा के पक्ष में करीब-करीब मोड़ दिया है। कार्पोरेट धन से सरकारे गिराई और बनाई जा रही हैं और बनाई जा सकती हैं। इस स्थिति में आरएसएस-भाजपा के चंगुल से भारतीय लोकतंत्र को निकालने की तीन शर्तें थीं- 1- इनके खिलाफ वैचारिका संघर्ष शुरू करना और इस संघर्ष में दोस्त-दुश्मन शक्तियों की पहचान करना। 2- कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे को इस वैचारिक संघर्ष के अनुकूल बनाना। 3- इस देश के लोकतंत्र और संविधान की दुश्मन शक्तियों के खिलाफ व्यापक जन गोलबंदी करना,सिर्फ वोट के लिए नहीं, बल्कि बड़े पैमाने के जन-संघर्ष के लिए। राहुल गांधी ने आरएसएस-भाजपा और उसके वैचारिक संगठन और उनके साथ मुट्ठी भर कार्पोरेट का गठजोड़ इस देश के संविधान, लोकतंत्र और व्यापक जन का दुश्मन है, इसे काफी हद चिन्हित कर लिया है। वे इसे बार-बार सीधे, साफ लफ्जों में साहस के साथ कह रहे हैं। संघर्ष मनुवाद और संविधान के बीच है, यह बोल रहे हैं।

इसके साथ ही उन्होंने यह ठीक से पहचान लिया है कि इस देश के दलित,आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक (देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी) संविधान और लोकतंत्र के साथ हैं। राहुल गांधी ने इसे चिन्हित भी कर लिया है। संविधान, जाति आधारित आर्थिक-सामाजिक जनगणना और आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी जैसे शब्दों में इसे अभिव्यक्त कर चुके हैं।

इस तरह उन्होंने आरएसएस-भाजपा की वैचारिकी और उसके मनुवाद और कार्पोरेट परस्त एजेंडे को संविधान, लोकतंत्र और व्यापक जनता के लिए सबसे बड़ा खतरा बता रहे हैं, जो सच है। वे साफ शब्दों में कह रहे हैं और सही कह रहे हैं कि आज का संघर्ष वैचारिक संघर्ष हैं यह सिर्फ सरकार के बदलाव का संघर्ष नहीं है, यहां तक वे यह भी कह रहे हैं कि यह इंडियन स्टेट के खिलाफ संघर्ष है। इंडियन स्टेट से उनका साफ मतलब है, भारतीय राज्य की संस्थाएं, जो आरएसएस-भाजपा चंगुल में चली गई हैं। अब राहुल गांधी के सामने दो बड़ी चुनौतियां है- 1-पहला यह है कि द्विज-सवर्णों और कार्पोरेट के स्वार्थों और हितों के पूर्ति के लिए बने कांग्रेस के संगठन को दलितों, आदिवासियों, पिछड़े और पसमांदा मुसलमानों के लिए हितों के लिए काम करने वाले संगठन में बदलना, यह तभी संभव है, जब ऊपर से नीचे तक कांग्रेस के संगठन में नेतृत्व मुख्य रूप में इस बहुसंख्यक समूहों के हाथ में हो। 2- इस कांग्रेस को बदलने से काम नहीं चलेगा, देश व्यापक जनमानस को संघर्ष और बदलाव के लिए तैयार करना पड़ेगा। इसके लिए संविधान, लोकतंत्र और जाति जनगणना के मुद्दे के साथ ही जनता के अन्य बुनियादी मुद्दों पर व्यापक जन गोलबंदी करनी पड़ेगी। इन मुद्दों में लोकतांत्रिक-संवैधानिक मुद्दों के साथ और समान रूप ही आर्थिक सवालों को उठाना पड़ेगा। विभिन्न सवालों पर किसान आंदोलन जैसे बड़े आंदोलन की जरूरत है। सही यह है कि देश की दूसरी आजादी का आंदोलन होगा, तभी लोकतंत्र-संविधान की रक्षा की जा सकती है और व्यापक जनता ही हित में देश को चलाने के बारे सोचा जा सकता है।

दिल्ली चुनाव खत्म, एग्जिट पोल में भाजपा की जीत की आहट

नई दिल्ली। दिल्ली विधानसभा चुनाव की 70 सीटों पर 5 जनवरी को मतदान हो चुका है। चुनाव के बाद जो एग्जिट पोल हुए हैं; उसमें भाजपा सरकार बनाती हुई दिख रही है। दिल्ली चुनाव के अनुमानित नतीजों को लेकर हुए ग्यारह प्रमुख एक्जिट पोल में से 9 पर भाजपा को बहुमत मिलता दिखाया जा रहा है। अगर ऐसा होता है तो 1993 के बाद भाजपा सत्ता में लौटेगी। एग्जिट पोल में भाजपा को 35 से 50 सीटें मिलती बताई जा रही है। जबकि आम आदमी पार्टी को 20 से 30 सीटें मिलने का अनुमान जताया जा रहा है। कांग्रेस की स्थिति बेहद खराब है और हर एक्जिट पोल में उसको जीरो से 3 सीटें मिलने का अनुमान है।

बता दें कि दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों पर बुधवार शाम 5 बजे तक 58 फीसदी वोटिंग की खबर है। आखिरी आंकड़े आने बाकी हैं। चुनाव के नतीजे 8 फरवरी को घोषित होंगे। सरकार बनाने के लिए 36 सीटों की जरूरत है। बता दें कि 2020 के विधानसभा चुनाव में 62.55 फीसदी मतदान हुआ था। फिलहाल एग्जिट पोल सामने आने के बाद भारतीय जनता पार्टी और उसके समर्थकों में खुशी की लहर है।

अयोध्या में दलित युवती के साथ हैवानियत पर भड़के आकाश आनंद और चंद्रशेखर, यूपी पुलिस का नकारापन उजागर

अयोध्या, यूपी। उत्तर प्रदेश के अयोध्या में दलित युवती के साथ हुई हैवानियत से दलित समाज में जबरदस्त उबाल है। दलित समाज के लोगों के साथ ही नेताओं ने भी इस घटना पर यूपी की योगी सरकार और यूपी पुलिस पर गंभीर आरोप लगाए हैं। बसपा अध्यक्ष सुश्री मायावती के साथ बसपा के नेशनल को-आर्डिनेटर आकाश आनंद ने यूपी सरकार और खासकर यूपी पुलिस पर जमकर हमला बोला है। सोशल मीडिया एक्स पर आकाश आनंद ने लिखा है-

अयोध्या के सहनवां में एक दलित बेटी 3 दिन से गायब थी। लेकिन यूपी की नाकारी पुलिस ने इसकी सूचना मिलने के बाद सही से कार्रवाई तक नहीं की। अगर सही वक़्त पर पुलिस हरकत में आ जाती तो शायद ये बेटी बच जाती। इस जघन्य हत्याकांड के आरोपियों के साथ दोषी पुलिसवालों के ख़िलाफ़ भी कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। दरअसल वीवीआईपी सेवा में व्यस्त उत्तर प्रदेश पुलिस इतनी नकारा हो चुकी है कि अब गरीब, शोषित, वंचित समाज की जान की उसके लिए कोई कीमत ही नहीं है।

हमारे समाज की इस बेटी के साथ जो अमानवीय हरकत हुई है उसके बाद उत्तर प्रदेश पुलिस और यहां की भाजपा सरकार को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। महिलाओं के खिलाफ अपराध में यूपी नंबर वन हो गया है और यही है यहां की भाजपा सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि। भाजपा के जंगल राज ने अब समाजवादी पार्टी के जंगल राज को भी पीछे छोड़ दिया है। सूबे के मुखिया और उनका पूरा तंत्र अभी इसी में व्यस्त है कि कुंभ की मौतों का आंकड़ा कैसे छिपाया जाए। योगी जी आप और आपका प्रशासन अगर गरीब, मजलूमों, दलितों को सुरक्षा नहीं दे सकता है तो आपको तुरंत मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। साथ ही समाजवादी पार्टी के नेता और अयोध्या क्षेत्र के सांसद अवधेश प्रसाद जी को घड़ियाली आंसू ना बहाकर सोचना चाहिए कि पिछले तीन दिन से वो कहां थे। संसद में महाकुंभ पर चर्चा की मांग करने वाले सांसद जी के पास इस बेटी को न्याय दिलाने का वक्त नहीं था तो अब मीडिया के सामने रोने का नाटक कर रहे हैं।

बसपा सुप्रीमों सुश्री मायावती ने भी इस घटना पर रोष जताते हुए प्रदेश सरकार से दलितों की सुरक्षा की मांग की है। उन्होंने एक्स पर लिखा- उत्तर प्रदेश के जिला अयोध्या के सहनवां में दलित परिवार की बेटी का शव निर्वस्त्र अवस्था में मिला है, उसकी दोनों आँखें फोड़ दी गई हैं तथा अमानवीय व्यवहार भी हुआ है, यह बेहद दुःखद व अति गम्भीर मामला है। सरकार सख्त कदम उठाये, ताकि ऐसी घटना की पुनरावृत्ति ना हो।

बता दें कि इस घटना को लेकर प्रेस कांफ्रेस करते हुए स्थानीय सपा सांसद अवधेश प्रसाद रो पड़े थे, जिसका वीडियो जमकर वायरल हुआ था।

दूसरी ओर आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और नगीना से सांसद चंद्रशेखर आजाद ने भी इस मामले में यूपी सरकार को घेरा है। चंद्रशेखर ने एक्स पर लिखा-

उत्तर प्रदेश के जिला अयोध्या के कोतवाली क्षेत्र में 22 वर्षीय दलित युवती के साथ हुई निर्मम हत्या ने न केवल कानूनी व्यवस्था की विफलता को उजागर किया है, बल्कि यह समाज में व्याप्त असुरक्षा और अमानवीयता को भी खौ़फनाक तरीके से सामने लाया है। परिजनों के अनुसार “युवती के साथ गैंगरेप हुआ, उसके शरीर पर कपड़े नहीं थे, दोनों आंखें फूटी हुई थीं, और पैर भी टूटे हुए थे। सिर और चेहरे पर गंभीर चोटें थीं, और पूरे शरीर पर गहरे जख्म थे। हाथ-पांव रस्सी से बंधे हुए थे। यह घटना किसी भी सभ्य समाज के लिए घोर शर्मनाक और अविश्वसनीय है।”

बता दें कि परिजनों का आरोप है कि 30 तारीख की रात से युवती के लापता होने के बावजूद पुलिस ने मामले की गंभीरता को नज़रअंदाज़ किया और केवल खानापूर्ति करती रही। यह न सिर्फ पुलिस प्रशासन की लापरवाही है, बल्कि पूरे सिस्टम की विफलता को भी दिखाता है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या उत्तर प्रदेश की सरकार और उसके मुखिया योगी आदित्यनाथ इस दलित परिवार को न्याय दिलाएंगे?

विश्व पुस्तक मेला 2025 शुरू, दलित दस्तक-दास पब्लिकेशन का भी स्टॉल लगा

 विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में दलित दस्तक-दास पब्लिकेशन का स्टॉलनई दिल्ली। विश्व पुस्तक मेला 2025 शुरू हो गया है। गणतंत्र के 75वें वर्ष में भारत के पहुंचने के कारण इस बार विश्व पुस्तक मेले की थीम रिपब्लिक@75 रखा गया है। दिल्ली के प्रगति मैदान के भारत मंडपम में पुस्तक मेला 1-9 फरवरी तक चलेगा। एक फरवरी को मेले का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने किया। इस बार पुस्तक मेले में 2000 से ज्यादा प्रकाशक हिस्सा ले रहे हैं। दलित/अंबेडकरी साहित्य की बात करें तो हर बार की तरह सम्यक प्रकाशन और गौतम बुक सेंटर के अलावा दलित दस्तक और उसके प्रकाशन दास पब्लिकेशन का स्टॉल भी लगा है।

दलित दस्तक-दास पब्लिकेशन की बात करें तो यह हॉल नंबर 2 में स्टॉल नंबर 40 है। इस बार हमारा प्रकाशन तीन नई किताबें लेकर आया है। इसमें से एक दिवंगत साहित्यकार सूरजपाल चौहान का कविता संग्रह ‘यह दलितों की बस्ती है’ जबकि अंबेडकरी पत्रकारिता पर ‘अंबेडकरी पत्रकारिता के 100 साल’ नाम से पुस्तक भी लाया गया है। 50 बहुजन नायक की पाठकों के बीच मांग बढ़ने से अब इस पुस्तक को अंग्रेजी में 50 Bahujan Heroes भी प्रकाशित किया गया है। इसको मिशन जय भीम से जुड़े भगवान सिंह ने ट्रांसलेट किया है। जबकि हिन्दी में 50 बहुजन नायक का 6वां संस्करण प्रकाशित हुआ है, जिसमें पुस्तक मे कुछ अन्य नायकों को जोड़कर इसे और समृद्ध बनाया गया है। एक से नौ फरवरी तक दिल्ली चलने वाले एशिया के सबसे बड़े पुस्तक मेला सुबह 11 बजे से शाम 8 बजे तक पाठकों के लिए खुला रहेगा। दलित दस्तक – दास पब्लिकेशन अपने स्टॉल पर आपको आमंत्रित करता है।

मैं चाहता हूँ कि मनुस्मृति लागू होनी चाहिए

फाइल फोटोः प्रतीकात्मक तस्वीर अख़बार में पढ़ा था कि गत दिनों बनारस में कुछ दलित छात्रों ने मनुस्मृति को जलाने का कार्यक्रम किया था, और वे सब जेल में बंद हैं। समझ में नहीं आता कि दलित ऐसी बेवकूफियां क्यों करते हैं? वे डा. आंबेडकर का अनुसरण करते हैं, पर भूल जाते हैं कि उस दौर की परिस्थितियां अलग थीं। डा. आंबेडकर ने मनुस्मृति को हिन्दू अलगाववाद के रूप में देखा था। आज दलित उसे किस रूप में देख रहे हैं? अगर वे अपने आप को हिन्दू समझ रहे हैं तो मनुस्मृति का विरोध क्यों कर रहे हैं? दलितों को मालूम चाहिए कि मनुस्मृति में दलित जातियों अर्थात अछूतों के बारे में कुछ नहीं लिखा है। मनु ने जो प्रतिबंध लगाए हैं, वे शूद्रों और स्त्रियों पर लगाए हैं, वह भी सवर्ण स्त्रियों पर। दलित क्यों बिलबिला रहे हैं।

दलितों को मालूम होना चाहिए कि मनुस्मृति का विधान हिन्दुओं के लिए है, और हिन्दुओं में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आते हैं। मनु ने कहा है कि पांचवां कोई वर्ण नहीं है। इसलिए, इस फोल्ड में अछूत नहीं आते, जो आज अनुसूचित जातियों के लोग हैं। फिर दलित क्यों मनुस्मृति को लेकर आपे से बाहर हो जाते हैं? मनुस्मृति के खिलाफ विद्रोह शूद्रों को करना चाहिए, जो आज ओबीसी में हैं, और वे ही आज हिन्दू राष्ट्र के सबसे बड़े समर्थक बने हुए हैं।

दलितों को तो मनुस्मृति को लागू कराने का आन्दोलन चलाना चाहिए। मनुस्मृति को एक बार लागू तो हो जाने दो, जो कभी नहीं होगी, क्योंकि आरएसएस जानता है कि मनुस्मृति को ब्राह्मण खुद स्वीकार नहीं करेंगे।

जिस मनुस्मृति की निन्दा करने पर आज हिन्दुओं की भावनाएँ आहत हो जाती हैं, और निन्दकों को जेल में डाल दिया जाता है, वह मनुस्मृति अगर हिन्दूराष्ट्र बनने के बाद फिर से लागू हो जाए, तो क्या होगा? दो बातें ज़रूर होंगी। एक, उच्च वर्ण की स्त्रियाँ और पुरुष दोनों ही इसके ख़िलाफ़ बग़ावत कर देंगे; और दूसरी, अगर बग़ावत को कुचल दिया गया, और मनु के विधान को बलपूर्वक लागू कर दिया गया, तो हिन्दू समाज रसातल में चला जायेगा।

इसलिए मुझे नहीं लगता कि हिन्दूराष्ट्र की सरकार कभी मनुस्मृति को लागू कर सकेगी। वह इसलिए कि मुसलमानों के खिलाफ जहर फैलाना एक अलग बात है, और मनुस्मृति के अनुसार हिन्दुओं को, खास तौर से द्विजों को हजार साल पीछे ले जाना दूसरी बात है। अगर मनुस्मृति के कानून लागू हुए तो कैथरीन मेयो की किताब ‘देवताओं के गुलाम’ के सारे पात्र जिन्दा हो जायेंगे। कोई भी हिन्दू स्त्री फिर पढ़ नहीं पायेगी। उसे 12-13 साल की उम्र में विवाह करना होगा। वह चौका-बर्तन, और बच्चे पैदा करने के सिवा कोई और काम नहीं कर सकेगी। अगर वह कम उम्र में विधवा होती है, तो उसे या तो सती होना पड़ेगा, या सिर घुटाकर आजीवन सफेद वस्त्रों में जीवन गुजारना होगा। हिन्दू धर्म के सनातन विधान में स्त्री की यही नियति है। क्या आधुनिक भारत की सवर्ण महिलाएं, जो आज पायलट हैं, जज हैं, प्रोफ़ेसर हैं, राजनेता हैं, राजनयिक हैं, कलेक्टर, पुलिस अफसर, कलाकार और पत्रकार हैं, इस नियति को स्वीकार करेंगीं? आरएसएस और भाजपा के लोग एक बार मनुस्मृति का विधान लागू करके तो देखें, सवर्ण हिन्दू तो छोड़िए, देश के ब्राह्मण ही सबसे पहले उसके ख़िलाफ़ विद्रोह करेंगे, क्योंकि कोई भी ब्राह्मण स्त्री अब अशिक्षित बनकर प्रतिबंधों की जंजीरों में बंधकर रहना नहीं चाहेगी। सनातन की आवाज़ उठाने वाले और हिन्दू-हिन्दू चिल्लाने वाले उन सवर्णों की भी, चाहें, वे जज हों, नेता हों, प्रोफ़ेसर हों, वकील हों, अक्ल ठिकाने लग जाएगी, जब लोकतंत्र के स्थान पर मनुस्मृति के विधान के साथ हिन्दू राज्य अस्तित्व में आएगा।

आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत संविधान का विरोध यह कहकर करते हैं कि यह विदेशी विचारों पर बनाया गया है, इसमें भारतीय संस्कृति का कुछ भी अंश नहीं है। वह भारतीय संस्कृति की आड़ में हिन्दू संस्कृति, ख़ास तौर से ब्राह्मण-संस्कृति की बात करते हैं। लेकिन आरएसएस का सौ सालों का इतिहास बताता है कि उसने कभी भारतीय संस्कृति की बात नहीं की, हमेशा ब्राह्मण संस्कृति का ही गुणगान किया है। वह हर क्षेत्र में ब्राह्मण प्रभुत्व और ब्राह्मण-वर्चस्व को ही भारतीय संस्कृति कहता आया हैं। उसकी इस संस्कृति के आदर्श नायक श्रीराम हैं, जिन्होंने ब्राह्मण-रक्षा और ब्राह्मण-राज्य स्थापित करने लिए अवतार लिया था। उन्होंने निम्न वर्गों में फूट, विभाजन और भेदभाव पैदा करके, उन्हीं की सेना बनाकर, उन्हीं के साम्राज्य को नष्ट करके ब्राह्मण-राज्य की विजय-पताका फहराई थी। आरएसएस और भाजपा के नेता श्रीराम के ही पदचिन्हों पर चलते हुए, आज दलित-पिछड़े और आदिवासी समुदायों में फूट, विभाजन और भेदभाव पैदा करके, उनकी शिक्षा बर्बाद करके, और उन बेरोजगारों की रामभक्त सेना बनाकर, उन्हीं के हाथों में हिन्दू राष्ट्र के नाम पर, हर क्षेत्र में ब्राह्मण-प्रभुत्व और वर्चस्व कायम कर रहे हैं। यही उनका एकमात्र एजेंडा है। यही उनका सनातन धर्म है, जिसके केंद्र में मनुस्मृति है।

सनातन धर्म के केंद्र में मनुस्मृति ज़रूर है, परन्तु आरएसएस और भाजपा के नेता सिर्फ सनातन की फ़िज़ा बनाए रखने के लिए उसका समर्थन करते हैं, वे उसे लागू कभी नहीं करेंगे। इसका कारण मनु के वे विधान हैं, जिन्हें अब कोई भी हिन्दू, खास तौर से खुद ब्राह्मण स्वीकार नहीं करेंगे। उनमें से कुछ विधान यहाँ उल्लेखनीय हैं।

मनुस्मृति के तीसरे अध्याय में मनु का विधान है कि ‘गुरु के आश्रम में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए 36 वर्ष तक, या 18 वर्ष तक या 19 वर्ष तक तीनों वेद, या दो वेद या एक वेद पढ़े, उसके बाद ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे।’ कितने हिन्दू इस नियम का पालन करने को तैयार होंगे? क्या आज यह संभव है कि कोई हिन्दू, ख़ास तौर से द्विज वर्ण का व्यक्ति 36, 18 या 19 वर्ष तक सिर्फ वेद पढ़े, और कुछ न पढ़े? क्या सिर्फ वेद पढ़ने भर से वह योग्य हो जायेगा? क्या कोई भी दर्शन, विज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र, वकालत और अंग्रेज़ी पढ़े बिना राष्ट्र और समाज के विकास में योगदान दे पायेगा? आदमी को ज्ञान-विज्ञान से वंचित करने वाला यह विधान आज कौन हिन्दू स्वीकार करेगा?

मनुस्मृति के नवें अध्याय में व्यवस्था दी गई है कि ‘30 वर्ष का पुरुष 12 वर्ष की कन्या से, और 24 वर्ष का पुरुष 8 की कन्या से विवाह करे।’ यदि मनु का क़ानून लागू हो गया, तो कितने हिन्दू अपनी 8 और 12 वर्ष की कन्याओं का विवाह करने को तैयार होंगे? क्या 8 और 12 वर्ष की यौवन-पूर्व आयु में कन्याओं का विवाह उचित है? यह तो बाल-विवाह की ओर लौटना है, और उस युग की ओर लौटना है, जब लड़कियों का पढ़ना वर्जित था, और आठ साल की उम्र में उनकी शादी कर दी जाती थी। ऐसी लड़कियां कई बीमारियों से ग्रस्त होकर समय-पूर्व ही मर जाती थीं। आज स्त्रियाँ हर क्षेत्र में काम कर रही हैं। क्या अपने दमन का यह विधान सवर्ण स्त्रियाँ स्वीकार करेंगी?

मनुस्मृति के पांचवें अध्याय में कहा गया है कि ‘विधवा स्त्री मरते दम तक पुनर्विवाह नहीं करे।’ मनुस्मृति में ‘करे’ शब्द राजा के लिए आदेश है, यानी यह राज्य का दायित्व है कि उसे इस व्यवस्था में समाज को रखना ही है। मनु के ये कानून अगर लागू हो गए, तो हिन्दू समाज उसी अवस्था में पहुँच जायेगा, जहाँ से वह इन तमाम कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष करके यहाँ तक आया है।

पंजाब में बाबासाहेब की प्रतिमा तोड़ने पर भड़के चंद्रशेखर

नई दिल्ली। जहाँ एक ओर देश संविधान लागू होने की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर गौरवान्वित हो रहा है ,वहीं दूसरी ओर अमृतसर में सचखंड श्री हरमंदिर साहिब के पास हेरिटेज स्ट्रीट पर परम पूज्य बाबा साहेब अंबेडकर की प्रतिमा को क्षतिग्रस्त करने और संविधान की प्रति जलाने की घटना ने जातिवादी मानसिकता के नंगे सच को उजागर कर दिया है। यह कृत्य केवल एक प्रतीकात्मक हमला नहीं है, बल्कि एक सुनियोजित प्रयास है। जो समाज के दबे-कुचले वर्गों को उनके अधिकारों और सम्मान से वंचित रखने की घृणित मानसिकता को प्रदर्शित करता है। साथ ही यह घटना इस बात का प्रमाण है कि आम आदमी पार्टी की सरकार इतनी महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक जगह पर भी नागरिकों और प्रतीकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में असफल रही है।

जातिवादी ताकतें, जो सदियों से अपने विशेषाधिकारों को बनाएं रखने के लिए षडयंत्र करती रही हैं, इस तरह के कायरतापूर्ण प्रयासों से यह साबित करती हैं कि वे आज भी बाबा साहेब अंबेडकर द्वारा स्थापित समानता और न्याय की व्यवस्था से भयभीत हैं। संविधान, जिसने भारत को जाति, धर्म और वर्ग से ऊपर उठकर एकता और बंधुत्व का संदेश दिया, उस पर इस प्रकार का हमला दर्शाता है कि कुछ ताकतें अभी भी जातिगत भेदभाव को बनाए रखना चाहती हैं।

बाबा साहेब अंबेडकर की प्रतिमा को तोड़ने और संविधान को जलाने वालों ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वे संविधान के मूल्यों को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हैं। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि यह मानसिकता अब भारत में टिकने वाली नहीं है। ऐसे समय में जब देश संविधान की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है, यह घटना हमें याद दिलाती है कि जातिवाद केवल इतिहास का हिस्सा नहीं है, बल्कि एक जिंदा चुनौती है। इस चुनौती का सामना करने के लिए समाज को संगठित होकर जातिवादी मानसिकता के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी।

@DGPPunjabPolice को चाहिए कि दोषियों पर त्वरित और कठोर कार्रवाई करे, ताकि समाज को यह संदेश मिले कि संविधान की गरिमा और बाबा साहेब के आदर्शों के खिलाफ जाने वाले किसी भी व्यक्ति को कानून के शिकंजे से बचने का अवसर नहीं मिलेगा। अब समय आ गया है जब हम बाबा साहेब के सपनों के भारत को साकार करने के लिए जातिवाद और नफरत की जड़ों को उखाड़ फेंके। संविधान की रक्षा हर नागरिक का कर्तव्य है, और इसकी गरिमा को बनाए रखना हमारा सामूहिक दायित्व। जय भीम, जय भारत, जय संविधान।

  • सोशल मीडिया एक्स पर आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष और नगीना सांसद चंद्रशेखर द्वारा लिखा गया पोस्ट 

इंफोसिस के सह-संस्थापक और IISc के पूर्व निदेशक पर SC-ST Act में मामला दर्ज

नई दिल्ली। इंफोसिस के सह-संस्थापक क्रिस गोपालकृष्णन और भारतीय विज्ञान संस्थान के पूर्व निदेशक बालाराम पर एससी-एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज हुआ है। यह मामला सदाशिव नगर पुलिस स्टेशन में सिटी सिविल और सेशन कोर्ट (CCH) के निर्देशों के आधार पर दर्ज किया गया। मामला दर्ज कराने वाले दुर्गप्पा हैं जो भारतीय विज्ञान संस्थान के फैक्लटी सदस्य हैं।

दुर्गप्पा IISc के सेंटर फॉर सस्टेनेबल टेक्नोलॉजी में फैकल्टी सदस्य थे। बौवी जनजाति समुदाय से आने वाले दुर्गप्पा का आरोप है कि साल 2014 में उन्हें हनी ट्रैप मामले में झूठा फंसाया गया और बाद में सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। दुर्गप्पा ने उन्हें जातिसूचक गालियां और धमकियां देने का भी आरोप लगाया है। उन्होंने गोपालकृष्णन और बालाराम के अलावा 16 अन्य लोगों पर भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया है। इस मामले में अन्य आरोपियों में गोविंदन रंगराजन, श्रीधर वारियर, संध्या विश्वेश्वरैया, हरी केवीएस, दासप्पा, बालाराम पी, हेमलता मिषी, चट्टोपाध्याय के, प्रदीप डी सावकर और मनोहरन शामिल हैं। बता दें कि क्रिस गोपालकृष्णधन भारतीय विज्ञान संस्थान के बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज के सदस्य हैं।

 

डॉ. आम्बेडकर की जन्मस्थली से कांग्रेस का नया अभियान शुरू, दलितों-पिछड़ों पर निशाना

महू, मध्य प्रदेश। देश भर के दलितों को कांग्रेस के पाले में एकजुट करने के लिए कांग्रेस पार्टी और इसके नेता राहुल गांधी ने पूरा जोर लगा दिया है। गणतंत्र दिवस के एक दिन बाद 27 जनवरी को कांग्रेस ने बाबासाहेब आम्बेडकर की जन्मस्थली महू से इसका आगाज कर दिया। महू में जय बापू,जय भीम, जय संविधान रैली को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने केंद्र सरकार, भाजपा और आरएसएस पर जमकर निशाना साधा। राहुल गांधी ने संघ प्रमुख मोहन भागवत पर हमला बोलते हुए कहा कि, वे कहते हैं कि आजादी 15 अगस्त 1947 को नहीं मिली। यह संविधान पर हमला है। भाजपा को निशाने पर लेते हुए राहुल गांधी ने कहा कि भाजपा संविधान खत्म कर देश की संपत्ति को अडानी-अंबानी को देना चाहती है। वंचित समाज को आगाह करते हुए लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कहा कि अगर संविधान खत्म हुआ तो दलित, आदिवासी, ओबीसी के लिए कुछ नहीं बचेगा। तमाम संसाधनों और संस्थानों में दलितों और आदिवासियों की गैर-मौजूदगी का जिक्र करते हुए राहुल गांधी ने कहा कि हमारी सरकार आई तो हम दलितों और आदिवासियों को भागीदारी देंगे और जाति जनगणना करवाएंगे। हम आरक्षण के 50 प्रतिशत कोटे के नियम को बदल देंगे। राहुल गांधी का पूरा भाषण आप यहां वीडियो में सुनिये-

26 जनवरी की झांकी में बुद्ध और बाबासाहेब

नई दिल्ली। भारत के 76वें गणतंत्र दिवस के मौके पर कर्तव्य पथ पर झांकी निकली। इस दौरान भगवान बुद्ध और बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की झांकी भी निकली।

गणतंत्र दिवस पर बसपा सुप्रीमो मायावती ने उठाया बहुजनों का मुद्दा

सुश्री मायावतीनई दिल्ली। जब देश में 76वां गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा था, बसपा सुप्रीमों मायवती ने ऐसा मुद्दा उठाया, जिसका जिक्र अब नहीं होता। देश-विदेश में रहने वाले भारतीयों का गणतंत्र दिवस की शुभकामना देते हुए बहनजी ने कहा कि- भारत के विकास में हर भारतीय का हक है। अतः बड़े-बड़े पूंजीपतियों व धन्नासेठों की संख्या में हो रही वृद्धि से अधिक बहुजन व अन्ततः देशहित में देश की पूंजी में विकास जरूरी। सरकार की नीति आमजनहित को बढ़ावा देने वाली हो तो उचित ताकि अपार गरीबी, बेरोजगारी आदि की समस्याएं दूर हों। देखिए दलित दस्तक की वीडियो रिपोर्ट-

कर्पूरी ठाकुर के 10 फैसले, जिसने बिहार में बदल दी दलितों-पिछड़ों की जिंदगी

24 जनवरी, 1924 को बिहार के समस्तीपुर जिले के पितौझिया को अपने जन्म से धन्य करने वाले कर्पूरी ठाकुर वंचित बहुजन समाज में जन्मे उन दुर्लभ नेताओं में एक रहे, जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में प्रभावी योगदान के साथ स्वाधीन भारत की राजनीति में भी अमिट छाप छोड़ी। उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन से हुई थी।

कर्पूरी ठाकुर ने न सिर्फ सामाजिक न्याय के मोर्चे पर अद्भुत दृष्टान्त स्थापित किया, बल्कि ईमानदारी की भी दुर्लभ मिसाल कायम की। काबिले गौर है कि कर्पूरी उस नाई जाति से थे; जिस जाति का संख्या बल मतदान को प्रभावित करने की स्थिति में कभी नहीं रहा। बावजूद इसके 1952 से लेकर अपने जीवन की शेष घड़ी तक वह विधायक, एक बार सांसद, एक बार उप मुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बने।

कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का साहस दिखाया। 18 महीने बाद ही उन्हें आरक्षण लागू करने के कारण मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। उन्हें अंजाम पता था, बावजूद इसके उन्होंने वंचितों के हित में जोखिम लिया।

मंडल पूर्व युग के महानायक थे कर्पूरी ठाकुर

24 जनवरी, 1924 को बिहार के समस्तीपुर जिले के पितौझिया को अपने जन्म से धन्य करने वाले कर्पूरी ठाकुर वंचित बहुजन समाज में जन्मे उन दुर्लभ नेताओं में एक रहे, जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में प्रभावी योगदान के साथ स्वाधीन भारत की राजनीति में भी अमिट छाप छोड़ी। उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन से हुई थी। इस आन्दोलन को कुचलने के लिए जब अंग्रेजों ने दमनात्मक कार्यवाई की तब युवा कर्पूरी ने गोरिल्ला संघर्ष की नीति का अवलंबन किया। इस क्रम में उन्हें अपनी उच्च शिक्षा बी.ए तृतीय वर्ष में ही समाप्त कर देनी पड़ी। गोरिल्ला संघर्ष के दौरान उन्होंने नेपाल की सरहद से आन्दोलन चलाया। आन्दोलन शांत होने पर वो वापस  पितौझिया लौटे और शिक्षक की नौकरी करने लगे।

उनके शिक्षण कार्य के दौरान ही जब जय प्रकाश नारायण ने हजारीबाग जेल से छूटने के बाद ‘आज़ाद दस्ता ‘गठित किया, विप्लवी कर्पूरी उसके सदस्य बन गए। इस दस्ते से जुड़कर अंग्रेजी शासन के खिलाफ अभियान चलाने के जुर्म में उन्हें 23 अक्तूबर, 1943 को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जेल में उन्होंने अपनी मांगे मनवाने के लिए भूख हड़ताल कर दी, जो 27 दिनों तक चली। इससे जेल में बंद राजनीतिक बंदियों के बीच उन्होंने भारी सम्मान अर्जित कर लिया। तेरह माह बाद जब कर्पूरी ठाकुर जेल से रिहा हुए, तभी कई लोगों ने उनके भविष्य का नेता होने की घोषणा कर दी। मार्च 1946 में उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और 1947 तक वे इस पार्टी के जिला मंत्री रहे। इस दौरान उन्होंने यासनगर और विक्रम पट्टी के जमींदारों के खिलाफ बकारत आन्दोलन चलाकर वंचितों में 60 बीघे जमीन वितरित करवा दिया। बाद में पार्टी में उनका प्रमोशन हो गया और वे 1948 से 1953 तक सोशलिस्ट पार्टी के प्रांतीय सचिव रहकर पार्टी की विचारधारा जन-जन तक पहुंचाते रहे।

  स्वाधीन भारत की राजनीति में सही मायने में उन्होंने अपनी उपस्थिति 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में दर्ज कराया, जब वे ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से सोशलिस्ट पार्टी के प्रार्थी के रूप में चुनाव जीतने में सफल रहे। उसके बाद तो उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कर्पूरी जी 1952 के बाद 1957 और 1962 में भी चुनाव जीतने में सफल रहे। बाद में जब लोहिया ने ‘कांग्रेस हराओ, देश बचाओं’ का नारा उछाला, तब कर्पूरी ठाकुर न सिर्फ एक बार फिर से चुनाव जीते, बल्कि बिहार के महामाया सरकार में उप मुख्यमंत्री भी बने। 1970 का मध्यावधि चुनाव जीतने बाद वह 22 दिसंबर, 1970 को बिहार के मुख्यमंत्री बनें। उनकी जाति को देखते हुए तब यह असंभव माना जाता था, लेकिन उन्होंने यह कारनामा कर दिखाया। खास बात यह रही कि वो कभी रबर स्टाम्प सीएम नहीं रहें, बल्कि जनता के लिए जो बेहतर फैसला था, खुल कर लिया।

1972 में बिहार विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस सत्ता पर पुनः कब्ज़ा जमाने में सफल रही। किन्तु उस प्रतिकूल राजनीतिक हालात के बावजूद कर्पूरी ठाकुर बिहार विधान सभा में पहुचने में सफल रहे। उसके बाद आया 1974 का घटना बहुल दौर। जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 18 मार्च, 1974 को बिहार में छात्र आन्दोलन की शुरुआत की। उनके आह्वान पर जिस शख्स ने सबसे पहले विधान सभा की सदस्यता का परित्याग कर उनके साथ चलने का मन बनाया; वह कर्पूरी ठाकुर रहे।

जेपी का आन्दोलन बड़ी तेजी से विस्तार लाभ करते जा रहा था, जो देश में इमरजेंसी का कारण बना। इस दौरान 26 जून को अधिकांश नेता मीसा में गिरफ्तार कर लिए गए। इस स्थिति में गोरिल्ला संघर्ष के माहिर कर्पूरी फिर नेपाल चले गए और वहां के जंगलों में रहकर आन्दोलनकारी छात्रों और आन्दोलन समर्थक दलों के कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करने लगे। जल्द ही नेपाल की पुलिस को कर्पूरी ठाकुर की भूमिगत गतिविधियों की जानकारी मिल गयी। इसकी भनक लगते ही वे 5 सितम्बर, 1975 को चेन्नई के लिए निकल गए। इस नाजुक दौर में वे तरह-तरह का वेश बदलकर मुंबई, दिल्ली, गोरखपुर, लखनऊ, बनारस इत्यादि जगहों से जेपी आन्दोलन को बल प्रदान करते रहे। आखिरकार आपातकाल का दौर ख़त्म हुआ और जेपी आन्दोलन से जुड़े बहुतों की तरह कर्पूरी ठाकुर को योग्य पुरस्कार मिला।

आपातकाल की समाप्ति के बाद 1977 में लोकसभा चुनाव हुआ जिसमें कई गैर-कांग्रेसी दलों के विलय से बनी जनता पार्टी ने चुनावी सफलता के नए प्रतिमान स्थापित किये। जून 1977 में ही बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ जिसमें जनता पार्टी लोकसभा चुनाव की भांति ही विजयी रही। मुख्यमंत्री पद की दावेदारी सत्येन्द्र बाबू और कर्पूरी ठाकुर के बीच थी, जिसमें कर्पूरी सफल रहे। मुख्यमंत्री बनने के बाद वे फुलपरास उप चुनाव में विजयी होकर एकबार फिर विधायक बने। मुख्यमंत्री बनने के बाद यूँ तो उन्होंने कई बड़े काम किये, किन्तु जिस तरह उन्होंने 1978 में पिछड़ी जातियों और कमजोर वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 26 प्रतिशत आरक्षण लागू किया, वह सामाजिक न्याय के इतिहास में मील का पत्थर बन गया। उस जमाने में कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण लागू कर कितने साहस का काम किया इसका अनुमान वे ही लगा सकते हैं, जिन्होंने मंडल उत्तर काल के इतिहास को चाक्षुष (आंखों से देखा) किया है।

 स्मरण रहे 7 अगस्त, 1990 को मंडलवादी आरक्षण की घोषणा के बाद जहां सदियों के परम्परागत रूप से सुविधा संपन्न व विशेषाधिकार युक्त तबके की काबिल संतानों ने आत्म-दाह से लेकर राष्ट्र के संपदा दाह का अभियान छेड़ा, वहीं वर्तमान में देश की सबसे बड़ी पार्टी की ओर से रामजन्म भूमि मुक्ति आन्दोलन छेड़ दिया गया, जिसके फलस्वरूप असंख्य लोगों की प्राण हानि और राष्ट्र की कई हजार करोड़ की संपदा की हानि हुई। बाद में जब 2006 में पिछड़ों के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों के प्रवेश में आरक्षण लागू हुआ। सवर्णों की काबिल संताने सरफरोशी की तमन्ना लिए मंडल-2 के खिलाफ फिर सडकों पर उतर आयीं। उसके बाद 2013 में जब उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में त्रि-स्तरीय आरक्षण लागू हुआ, जिसे यह लेखक मंडल-3 कहता है, सवर्णों का शिक्षित युवा वर्ग फिर सड़कों पर उतर आया।

 साफ है कि सत्तर के दशक में प्रतिकूल स्थिति में कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का साहस दिखाया, उससे समाज को बहुत लाभ मिला लेकिन इस दुस्साहस की उन्हें कीमत भी अदा करनी पड़ी। उनके निर्णय के विरुद्ध सवर्ण सडकों पर उतर आए और कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ जमकर जातिवादी नारे लगाएं। यहां सुनने में वो भले असभ्य लगें लेकिन उसे बताना इसलिए जरूरी है कि आरक्षण के खिलाफ सवर्ण किस तरह वंचित समाज के एक मुख्यमंत्री को खुलेआम भद्दे नारे गढ़ ललकार रहे थे। तब सवर्णों ने नारा लगाया- ‘आरक्षण कहाँ से आई – कर्पूरी की माँ बियाई’, ‘कर्पूरी कर्पूरा-छोड़ गद्दी पकड़ उस्तुरा’। हमेशा की तरह मीडिया भी आरक्षण विरोधी माहौल बनने में जुट गयी। फलस्वरूप 18 महीने बाद ही उन्हें आरक्षण लागू करने के कारण मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। ऐसा नहीं कि कर्पूरी ठाकुर इस अंजाम से नावाकिफ थे। उन्हें अंजाम पता था, बावजूद इसके उन्होंने वंचितों के हित में उस ज़माने में आरक्षण लागू करने का जोखिम लिया। यह बात उन्हें महान और जन नायक बनाती है।

कर्पूरी ठाकुर ने न सिर्फ सामाजिक न्याय के मोर्चे पर अद्भुत दृष्टान्त स्थापित किया, बल्कि ईमानदारी की भी दुर्लभ मिसाल कायम की। काबिले गौर है कि कर्पूरी उस नाई जाति से थे; जिस जाति का संख्या बल मतदान को प्रभावित करने की स्थिति में कभी नहीं रहा। बावजूद इसके 1952 से लेकर अपने जीवन की शेष घड़ी तक वह विधायक, एक बार सांसद, एक बार उप मुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बने। राजनीति की इतनी बुलन्दियाँ छूने के बावजूद कर्पूरी ठाकुर का न तो कोई अपना बंगला-गाड़ी और टेलीफोन रहा और न ही बैंक बैलेंस। रहा तो बस पितौझिया (वर्तमान में कर्पूरी ग्राम) का अपना खपरैल का पुश्तैनी मकान।

 कर्पूरी ठाकुर का बेदाग़ जीवन आज के सामाजिक न्याय के नायक/नायिकाओं के लिए प्रेरणा का एक विराट विषय होना चाहिए। फुले, शाहूजी, पेरियार, बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर, कांशीराम, जगदेव प्रसाद, कर्पूरी ठाकुर जैसों के प्रयास से आज बहुजन समाज में इतनी राजनीतिक चेतना आ गयी है कि उसका उपयोग कर सामाजिक न्याय के नायक/नायिका बड़ी आसानी से केंद्र की सत्ता दखल कर सामाजिक बदलाव का सपना पूरा कर सकते हैं। किन्तु वंचित जातियों के विपुल समर्थन से पुष्ट सामाजिक न्याय के नायक/नायिका घपला-घोटालों में फंसकर अपना तेज खोकर खुद करुणा के पत्र बन चुके हैं। इससे भारत में सामाजिक न्याय का संघर्ष दम तोड़ता नजर आ रहा है। काश! बहुजन समाज के नेता सामाजिक न्याय की राजनीति के पुरोधा व ईमानदारी के एवरेस्ट कर्पूरी ठाकुर का अनुसरण किये होते तो बहुजन आंदोलन आज एक अलग मुकाम पर होता।

गणतंत्र दिवस परेड के लिए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने आदिवासी परिवार को भेजा न्योता

दिल्ली। भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के लिए आदिवासी परिवार को न्यौता भेजा है। जिसके बाद 22 जनवरी को यह परिवार दिल्ली पहुंच चुका है। 26 जनवरी की परेड में शामिल होने के लिए छत्तीसगढ़ के कवर्धा के बैगा आदिवासी परिवारों को राष्ट्रपति भवन की ओर से न्यौता भेजा गया था। बैगा आदिवासी सबसे पिछड़ी हुई आदिवासी जनजाति में से एक हैं। राष्ट्रपति मुर्मू की ओर से जिन तीन परिवारों को निमंत्रण भेजा गया है, इसमें से कई ऐसे हैं जो पहली बार दिल्ली आए हैं।

इस दौरान राष्ट्रपति इनसे मुलाकात करेंगी, साथ ही वो इन मेहमानों के साथ डिनर भी करेंगी। दिल्ली में इन परिवारों को चुनिंदा जगहों को दिखाने का भी प्लॉन है।

राष्ट्रपति द्वारा निमंत्रण मिलने से ये सभी काफी खुश हैं। गणतंत्र और लोकतंत्र की ताकत भी यही है कि जिन जगहों पर दलित औऱ वंचित समाज की इंट्री बैन थी, अब वहां उन्हें आमंत्रित किया जा रहा है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू खुद आदिवासी समाज से आती हैं, ऐसे में निश्चित तौर पर उन्होंने एक उदाहरण पेश किया है।

हालांकि राष्ट्रपति ने जिन आदिवासी परिवारों को दिल्ली बुलाया है, उनसे जुड़ा एक वीडियो सामने आया है, जिसमें न उनके पास ढंग का घर दिख रहा है और न ही घरों तक सड़क ही पहुंच पाई है। ऐसे में क्या राष्ट्रपति के इस निमंत्रण का फायदा इस समाज को मिलेगा, और उनको बुनियादी सुविधाएं मिल पाएंगी? अगर ऐसा होता है तो इस निमंत्रण की सार्थकता है, वरना यह निमंत्रण एक राजनीतिक स्टंट बन कर रह जाएगा और चार दिन की दिल्ली की चांदनी से वापस लौटकर यह परिवार फिर उसी गरीबी और बदहाली में पहुंच जाएगा।

दिल्ली चुनाव में दलितों को रिझाने की भाजपा-कांग्रेस की नई रणनीति

दिल्ली। भारत की राजधानी दिल्ली का विधानसभा चुनाव हमेशा से रोचक रहा है। भले ही दिल्ली सरकार के पास ज्यादा ताकत न हो, लेकिन दिल्ली तमाम दलों के लिए नाक की लड़ाई है। ऐसे में इस बार भी तमाम दल दिल्ली वालों का दिल जीतने निकल पड़े हैं। सबसे अपने वादे और अपने दावे हैं लेकिन दिल्ली की राजनीति के केंद्र में दलित समाज के वोटर हैं। यह प्रदेश की 70 विधानसभा सीटों में से 12 आरक्षित सीटों के अलावा तकरीबन 25 सीटों पर हार-जीत का फैसला करते हैं। उनको लुभाने के लिए तमाम दल तमाम तिकड़म कर रहे हैं। देखिए यह रिपोर्ट-