बिहारः खेत में जुताई के दौरान मिली तथागत बुद्ध की प्राचीन मूर्ति

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नवादा। नवादा के अकबरपुर प्रखंड के राजादेवर गांव में खेत में जुताई के दौरान तथागत बुद्ध की प्राचीन मूर्ति मिली है. शुरुआत में ग्रामीणों ने उसे पत्थर का टुकड़ा समझ कर खेत में छोड़ दिया लेकिन बाद में उसकी धुलाई करने पर पता चला कि वह तथागत बुद्ध की मूर्ति है, तभी से ग्रामीण मूर्ति की पूजा अर्चना करने में जुट गए हैं. ग्रामीणों के अनुसार अनुल महतो के खेत में ट्रैक्टर से जुताई का काम चल रहा था. इस दौरान ट्रैक्टर का फाड़ फंस गया और पता चला कि कोई पत्थर है, तो  तभी उसे खेत के किनारे ही रख दिया. ग्रामीणों के अनुसार यह पहला मौका है जब इस प्रकार की कोई प्राचीन मूर्ति मिली है. फिलहाल ग्रामीण मूर्ति मिलने के बाद उसकी पूजा में लग गए हैं और सभी ग्रामीण मिलकर एक स्थान बना कर उसकी स्थापना करना चाहते है और खेत का मालिक जमीन भी देने को तैयार है.

सवर्णवादी इतिहासकारों का शिकार हुआ तथागत बुद्ध और अशोक महान का इतिहास

संघ से जुड़े राष्ट्रीय वनवासी कल्याण परिषद की पत्रिका के मई 2016 के अंक में एक लेख छपा है कि सम्राट अशोक के हिन्दू से बौद्ध बनने और अहिंसा के प्रचार करने की वजह से विदेशी आक्रमणकारियों के लिये भारत की सीमायें खुली थीं. अशोक के वक्त बौद्ध बनने वाले उनके अनुयायियों ने ग्रीक आक्रमणकारियों की सहायता करके देशद्रोह का काम किया था. इन आक्रमणकारियों ने वैदिक धर्म को नुकसान पहुंचाकर बौद्ध धर्म के लिये मार्ग प्रशस्त किया था. तरस आता है कि भारत में ऐसे इतिहासकार हो गये, तो भावी पीढियां क्या इतिहास पढ़ेंगी? सर्वप्रथम तो मैं इस बात का खण्डन करता हूं कि अशोक के काल में भारत में हिन्दू जैसा कोई शब्द था. आरएसएस का कोई भी इतिहासकार या इस लेख के लेखक, अगर यह सिद्ध करना चाहें कि अशोक के काल में भारत में हिन्दू शब्द था भी, तो इसे प्रमाण सहित प्रस्तुत करें कि किस ग्रंथ में कहां पर यह वाक्य आया है? हिन्दू तो शब्द ही फारसी भाषा का है जिसका जो अर्थ है वह लेखक किसी भी फारसी के विद्वान या सच्चे आर्य समाजी से मालूम कर सकते हैं. मैं लिखूंगा तो मानेंगे नहीं. जिन पुस्तकों को लेखक ने पढ़ा होगा और और जहां से सन्दर्भ लिये होंगे, वे आरएसएस के लेखकों की ही लिखी होंगी, तभी ऐसी ऊटपटांग बातें लिखी हैं. अन्यथा रोमिला थापर, नीलकण्ठ शास्त्री, डॉ. राधाकमल मुकर्जी और अन्य जितने भी नामी-गिरामी इतिहासकार हैं, किसी ने सम्राट अशोक के बारे में ऐसा नहीं लिखा है. सबसे पहले यह जान लेना जरुरी है कि अशोक के जीवन में अहिंसा का क्या स्थान था? प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर के अनुसारः- “अहिंसा धम्म का एक बुनियादी सिद्धान्त था. अहिंसा का तात्पर्य था युद्ध तथा हिंसा द्वारा विजय-प्राप्ति का त्याग और जीव हत्या का निरोध. लेकिन यह पूर्ण अहिंसा के लिये आग्रहशील नहीं था. वह मानता था कि ऐसे अवसर होते है जब हिंसा अपरिहार्य होती है, उदाहरण के लिये वन्य आदिवासियों के उत्पीड़क हो उठने पर…. वह यह भी कहता है कि उसके उत्तराधिकारी शक्ति के बल पर विजय प्राप्त न करें तो बेहतर होगा, किन्तु यदि उन्हें ऐसा करना ही पड़े तो वह आशा करता है कि इस विजय का संचालन अधिकतम दया और सहृदयता के साथ किया जायेगा…. अशोक ने सैंतीस वर्ष शासन किया और 232 ई.पू. में उसकी मृत्यु हो गई… यह भी कहा गया है कि अहिंसा के प्रति उसके मोहावेष ने सेना को कायर बना दिया था, जिससे बाहरी शक्तियों के लिये आक्रमण करना सरल हो गया था. किन्तु उसकी अहिंसा ऐसी अवास्तविकतावादी नहीं थी, और न ही उसकी राजविज्ञप्तियों से यह ध्वनित होता है कि उसने सेना को कमजोर बना दिया था.” बुद्ध कहते हैं कि जीवों पर दया करो, हिंसा मत करो. विस्तार में न जाकर मैं मात्र इतना कहना चाहता हूं कि यह अहिंसा जैन धर्म की अहिंसा से अलग है. जैन धर्म में हर वक्त यह ध्यान रखा जाता है कि कोई जीव हिंसा न हो जाये. यहां तक कि जैन मुनि हर वक्त मुंह पर पट्टी लगाये रहते हैं ताकि मुंह से निकलने वाली सांस से भी कोई सूक्ष्म जीव न मरे. लेकिन बौद्ध धर्म में ऐसा नहीं है. जान-बूझकर किसी को दुख मत दो, किसी जीव को मत मारो, जीवों पर दया करो, बस इतना ही पर्याप्त है. इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि कोई आपको मारे, आपका नुकसान करे या आपके देश पर आक्रमण करे तो उसका विरोध न करें. उसका विरोध अवश्य करो और इस कार्य में अगर हिंसा होती भी है तो वह जायज है, मान्य है. बौद्ध धर्म नपुंसकों की अहिंसा को कायरता कहता है. इसके प्रमाण हैं जापान, चीन और दुनिया के वे देश जहां बौद्ध धर्म भारत से अधिक फल-फूल रहा है. इन देशों में न केवल सशस्त्र सेनायें हैं, बल्कि इनकी सेनाओं ने अपनी शक्ति का लोहा भी मनवाया है. याद कीजिये, द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की ताकत और इसी जापान ने शक्तिशाली कहे जाने वाले रूस को हराया था. युद्ध में हिंसा भी हुई, पर कहीं बुद्ध या बौद्ध धर्म की ओर से रोक-टोक नहीं हुई. आज ताकत के बल पर ही चीन भारत से अधिक शक्तिशाली है और वहां भारत से अधिक बौद्ध धर्मावलम्बी हैं. मैं “समय के साथ आरएसएस कैसे जबान बदलता है” इसका खुद पर घटित एक उदाहरण देता हूँ जो कि यहां प्रासंगिक है. सन 1988 में जब मैंने दसवीं पास की, उसी वर्ष आरएसएस द्वारा दौसा में आयोजित प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग में भाग लिया. किसी सत्र के दौरान एक वक्ता ने जापान की देशभक्ति का उदाहरण देते हुए कहा था कि जापान के एक बौद्ध बालक से पूछा गया कि अगर स्वयं भगवान बुद्ध भारत से सेना लेकर जापान पर आक्रमण कर दें तो आप क्या करोगे? बालक का जवाब था, “मैं भगवान बुद्ध का सिर काट दूंगा.” आरएसएस के ही शिविर में 28 साल पहले दिये गये इस उदाहरण को संघी आज कैसे भूल गये? देश पर आँच आने पर एक बालक जब अपने धर्म के प्रर्वतक का सिर काटने का जज्बा रखता हो, उस धर्म की वह कौनसी अहिंसा नीति है जिसके चलते देश कमजोर हो गया? वह धर्म या उसके अनुयायी राजा देश की रक्षा को लेकर कैसे इतनी बड़ी चूक कर सकते हैं? अतः यह बात निरर्थक साबित होती है कि भारत के पतन के लिये बौद्ध धर्म की अहिंसा नीति या सम्राट अशोक की अहिंसा नीति जिम्मेदार है. अशोक के पश्चात् भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों की विजय का जो कारण समझ में आता है, वह है- एक केन्द्रीय शासन का अभाव, स्थानीय स्वतंत्रता की भावना, आवागमन के साधनों की कमी, प्रान्तीय शासकों का अत्याचार पूर्ण व्यवहार और विद्रोही प्रवृति, महल के षडयंत्र, अधिकारियों की धोखेबाजी. अशोक के वंशज ब्रहद्रथ की हत्या उसी के मंत्री ने कर दी थी, परन्तु इतने बड़े साम्राज्य को वह संभाल नहीं पाया और राजा, जो कमजोर शासन व्यवस्था के चलते विद्रोह करते ही रहते थे, धीरे-धीरे स्वतन्त्र होने लगे. अगर आरएसएस के इन लेखक महोदय ने भारत का इतिहास पढ़ा हो तो इनको ज्ञात होगा कि यहां के छोटे-छोटे हिन्दू राजा, रजवाड़े, ठाकुर, जमींदार अपने आपको दूसरों से इतना ऊंचा समझते थे कि युद्ध के मैदान में भी इनका खाना अलग-अलग बनता था, जिसे देखकर एक बार किसी मुस्लिम शासक ने अपने मंत्री से पूछा था कि क्या दुश्मन के शिविरों में आग लग गई है जो इतना धुंआ उठ रहा है? मंत्री ने कहा कि आग नहीं लगी है, ये सभी एक साथ खाना नहीं खाते हैं अतः अलग-अलग खाना बन रहा है. तब उस शासक ने कहा कि जब इनमें इतनी भी एकता नहीं है तो ये क्या खाकर हमसे लड़ेंगे? और अगली ही लड़ाई में मुस्लिमों ने हिन्दुओं को परास्त कर दिया.   दरअसल हर काल में भारत की हार का कारण आन्तरिक फूट ही रही है. पर इसे हिन्दूवादी लेखक स्वीकार नहीं करते और लीपापोती करने में लगे रहते हैं. इनकी परेशानी यह है कि अगर इस सत्य को स्वीकार कर लें तो फिर किस मुंह से हिन्दू राजाओं को महान बतायेंगे और अपने आकाओं को खुश रखेंगे? रही बात बौद्ध भिक्षुओं द्वारा भारत विरोधी यूनानियों का साथ देने की, तो यह यह नया शोध है जिस पर लेखक को किसी हिन्दूवादी विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट मिलनी चाहिये, क्योंकि कभी किसी इतिहासकार की पुस्तक में ऐसा पढ़ने को नहीं मिला! पहली बात तो यह कि यूनानी बौद्ध धर्मावलम्बी नहीं थे, जो भिक्षु उनके लिये ऐसा घृणित कार्य करते. दूसरे, घर-बार, धन-सम्पत्ति, मोह-माया सब छोड़कर जो भिक्षु बने, वे क्योंकर देशद्रोह का कार्य करते?   वास्तव मे बौद्ध धर्म की सरलता, अहिंसा और जटिलता रहित जीवन बुद्ध के समय से ही हिन्दू धर्म के ठेकेदारों के लिये परेशानी का कारण रहा है. बौद्ध धर्म की स्थापना से हिन्दू धर्म की चूलें हिल गई थीं, क्योंकि उस समय हिन्दू धर्म में जो कुप्रथायें (बलि, देवदासी,सती आदि) थीं उनका जमकर विरोध हो रहा था और तथागत बुद्ध के सरल मार्ग ने सबको आकर्षित किया था. तथाकथित हिन्दू, वैदिक या सनातन धर्म (सब एक ही हैं) में नरमेघ, गौमेघ, अश्वमेध और न जाने कितने प्रकार यज्ञ प्रचलित थे और उनमें बलियां दी जाती थीं. आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म, पाखण्ड, मूर्तिपूजा आदि ने साधारण व्यक्ति का जीना हराम कर रखा था. फायदे में अगर कोई था तो सिर्फ ब्राह्मण वर्ग था. बौद्ध धर्म के 22 सिद्धान्तों में भी कहा गया है कि यह धर्म ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक, पाखण्ड और धर्म के नाम पर दिखावे तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश आदि किसी भी हिन्दू देवी-देवता को नहीं मानता है और न ही यह मानता है कि बुद्ध विष्णु के दसवें अवतार थे. बाबा साहेब ने भी लिखा है कि बौद्ध धर्म के उत्थान से तथाकथित वैदिक धर्म/ब्राह्मण धर्म/हिन्दू धर्म को अवर्णनीय क्षति हुई थी और ब्राह्मणों ने राजसत्ता प्राप्ति के लिये भगवद गीता की रचना की.   अन्तिम मौर्य सम्राट ब्रहद्रथ के हत्यारे उसी के मंत्री रहे पुष्यमित्र शुंग (187-75 ई. पू. भारद्वाज ब्राह्मण) ने शासक बनते ही इनाम घोषित किया कि जो एक बौद्ध भिक्षु का सिर काट कर लायेगा, उसे स्वर्ण मुद्रा दी जायेगी. बाद में किसी भी राजा का संरक्षण बौद्ध धर्म को नहीं मिला और धीरे-धीरे भारत से यह लुप्त प्रायः हो गया. आजादी के बाद भी भारत में कहने को तो धर्मनिरपेक्ष और पंथनिरपेक्ष सरकारें बनीं, पर लागू हिन्दूवादी कानून ही रहे. मिसाल के तौर पर विद्यालयों में, जहां देश की भावी पीढ़ी तैयार की जाती है, प्रार्थना, भोजन मंत्र आदि बुलाये जाते है, सरस्वती पूजा, विश्वकर्मा पूजा आदि कराई जाती है, सार्वजनिक समारोहों में पूजायें कराई जाती हैं, तिलक लगाये जाते हैं, दशहरा, दीपावली आदि की लम्बी छुट्टियां की जाती हैं जो सभी हिन्दू संस्कृति के अंग व इसी के अनुरूप हैं, जिनका बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई, पारसी और मुस्लिम धर्म से कोई वास्ता नहीं है. इसी प्रकार आज भी सरकारी दफ्तरों और कॉलोनियों में मंदिर देखे जा सकते हैं, जो कि धर्म निरपेक्षता की पोल खोलते हैं. कहीं कोई मस्जिद, गुरुद्वारा, मठ या चर्च नहीं होता है. अब, जबकि हिन्दूवादी पार्टी का राज है तो यह अपने घोषित एजेण्डे त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयं और समर्था भवत्वा षिषाते भृषम के अनुसार भारत भूमि को पूर्ण रूप से हिन्दू भूमि बनाने में जुटी हुई है. संघ से जुड़े राष्ट्रीय वनवासी कल्याण परिषद की पत्रिका के मई 2016 के अंक में छपा लेख इसी की एक कड़ी के रूप में बौद्ध धर्म और अशोक पर किया गया. हमला है. इन्हें कोई दूसरा धर्म और धर्मावलम्बी पसन्द ही नहीं है. मुस्लिमों और ईसाइयों के प्रति इनकी भावना जगजाहिर है. अब बौद्ध धर्म और अशोक के पीछे पड़े हैं, जो भारत में उतना सशक्त नहीं है कि इनका विरोध कर सके. जब राज सत्ता में रहते 10-15 साल हो जायेंगे, तो ये जैन और सिख धर्म में मीन-मेख निकालेंगे. अन्यथा सम्राट अशोक साल-दो साल पहले की उपज नहीं है, उनके गुण-दोष तो आज के हजार साल पहले भी वही थे. सिर्फ दृष्टि का फेर है जो संघ के पास 2014 के चुनावों के बाद आई. इसी के फलस्वरुप इससे जुड़े इतिहासकारों की पौ-बारह हो गई है, नये-नये इतिहास लिखे जा रहे हैं, छोटे-मोटे राजे-रजवाड़े अब महान हैं, जिन्होंने पूरे देश को एक कर राज किया वे नगण्य हैं, क्योंकि वे हिन्दू नहीं थे. अब पाठ्य-पुस्तकों में हिन्दूवादी प्रतीक ही रहेंगे, कबीर, नानक, जायसी, रहमान, रसखान, बुद्ध, महावीर स्वामी, ईसा मसीह, पैगम्बर मोहम्मद आदि के पाठ हटा दिये जायेंगे. अकबर का हाल देख चुके हैं, अशोक को दोषी साबित किया जा रहा है, बाकी लाईन में हैं. तब कुतुबुद्धीन ऐबक, इल्तुतमिश, बलबन, रजिया, खिलजी, बाबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ, शेरशाह सूरी आदि की क्या बिसात ? ये सब इतिहास से लापता कर दिये जायेंगे और छोटे-मोटे राजे-रजवाड़े ही पढ़ाये जायेंगे जो हिन्दू थे और जिन्होनें लड़ने में (चाहे लड़ाई अपने भाई के ही खिलाफ क्यों न हो) कोई कसर नहीं छोड़ी. उनकी ही वीरता से पृष्ठ रंगे जायेंगे. यहां प्रत्येक धर्म और उसकी संस्कृति फली-फूली और उसका यहां के इतिहास में योगदान रहा है. पजामा शकों की देन है तो पेंट अंग्रेजों की. दोनों बाहरी हैं. अगर विदेशियों से इतनी ही घृणा है तो छोड़ दीजिये दोनों को और धोती में रहिये. पंखा, टीवी, कूलर, फ्रीज, तमाम मोटर गाडियां, हवाई जहाज, ट्रेन आदि सब तो विदेशियों के अविष्कार हैं, क्यों काम लेते हैं? इन सब को छोड़कर फिर गर्व से कहिये, मैं हिन्दू हूं. सरकारों के बदलने पर उनकी सुविधा के अनुसार पाठ्यक्रम में बदलाव करना शैक्षणिक जगत के लिये बहुत बुरा है. अगर इस प्रकार होता है तो ज्योंही सत्ताधारी पार्टी की सरकार हटी, ये पाठ्य-पुस्तकें रद्दी हो जायेगी. इसके अलावा यह भी समस्या रहेगी कि प्रमाणिक किसे मानें? इस प्रकार लिखा जाने वाला इतिहास, इतिहास न होकर कबाड़ अधिक होगा. क्या भविष्य में इसी प्रकार का इतिहास पढ़ाने की योजना है? तब कांग्रेस के शासन काल में प्रश्नों के अलग उत्तर होंगे तो भाजपा के में अलग. कांग्रेस के शासन काल अकबर महान होगा तो भाजपा के में राणा प्रताप. यह एक खतरनाक साजिश है. देश के इतिहास को अपनी सोच के अनुसार काट-छांट कर लिखा गया तो देश का आधार ही नष्ट हो जायेगा. जैसा कि ये लोग कहते हैं “अंग्रेजों ने इतिहास तोड़-मरोड़कर लिखा,” लेकिन आप जो लिख रहे हो, वह क्या है? देश का इतिहास प्रागैतिहासिक काल, सिन्धु घाटी और हड़प्पा सभ्यता, वैदिक सभ्यता, जैन, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई और आधुनिक युग तक का सफर तय करता है. क्या नवोदित इतिहासकार प्रत्येक युग को उचित स्थान दे पायेंगे? अतः देशवासियों का कर्तव्य हो जाता है कि वे इस प्रकार की साजिश को कामयाब नहीं होने दें ताकि हमारे देश की पहचान और गरिमा बनी रहे. यह देश सबके लिये अमन और शांति का स्थान बना रहे किसी की बापौती बन कर नहीं रह जाये. श्याम सुन्दर बैरवा सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

​सुंदर पिचाई पर कोई क्यों नहीं बनाता फिल्म…!!

अस्सी के दशक में एक फिल्म आई थी, नाम था लवमैरिज. किशोर उम्र में देखी गई इस फिल्म के अत्यंत साधारण होने के बावजूद इसका मेरे जीवन में विशेष महत्व था. इस फिल्म के एक सीन से मैं कई दिनों तक रोमांचित रहा था. क्योंकि फिल्म में चरित्र अभिनेता चंद्रशेखर दुबे एक सीन पर मेरे शहर खड़गपुर का नाम लेते हैं. पैसों की तंगी और परिजनों की डांट – फटकार की परवाह किए बगैर सिर्फ अपने शहर का नाम सुनने के लिए मैने यह फिल्म कई बार देखी थी. क्योंकि इससे मुझे बड़ा सुखद अहसास होता था. वैसे मैने सुन रखा था कि महान फिल्मकार स्व. सत्यजीत राय समेत कुछ बांग्ला फिल्मों में खड़गपुर के दृश्य फिल्माए जा चुके हैं. लेकिन तब मैने सोचा भी नहीं थी कि कालांतर में मेरे शहर को केंद्र कर कभी कोई फिल्म बनेगी और उसकी यहां शूटिंग भी कई दिनों तक चलेगी. भारतीय क्रिकेट टीम के सबसे सफल कप्तान माने जाने वाले महेन्द्र सिंह धोनी पर बन रही फिल्म की शूटिंग देख हजारों शहरवासियों के साथ मुझे भी सुखद आश्चर्य हुआ. बेशक उस कालखंड का गवाह होने की वजह से मैं मानता हूं कि धोनी की फर्श से अर्श तक पहुंचने की कहानी बिल्कुल किसी परीकथा की तरह है. कहां लेबर टाउन कहा जाने वाला खड़गपुर जैसा छोटा सा कस्बा और कहां क्रिकेट की जगमगाती दुनिया. एक नवोदित क्रिकेट खिलाड़ी के तौर पर उनके रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शहर आने से लेकर कुछ साल के संघर्ष के बाद टीम में चयन और सफलता के शिखर तक पहुंचने का घटनाक्रम काफी हैरतअंगेज है. जिसकी वजह से धौनी व्यक्ति से ऊपर उठ कर एक परिघटना बन चुके हैं. उन पर बन रही फिल्म के बहाने जीवन में पहली बार किसी फिल्म की शूटिंग देख मेरे मन में दो सवाल उठे. पहला यही कि किसी फिल्म को बनाने में बेहिसाब धन खर्च होता है. जितने की कल्पना भी एक आम – आदमी नहीं कर सकता. दूसरा यह कि अपने देश में राजनीति , फिल्म और क्रिकेट के सितारे ही रातों-रात प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंच कर वह सब हासिल करने में सक्षम हैं, जिसकी दूसरे क्षेत्रों के संघर्षशील लोग कल्पना भी नहीं कर सकते. मेरे मन में अक्सर सवाल उठता है कि क्या वजह है कि मेरे शहर के वे खिलाड़ी हमेशा उपेक्षित ही रहे, जो अपने-अपने खेल के धोनी है. क्रिकेट की बदौलत जीवंत किवंदती बन गए धोनी के आश्चर्यजनक उड़ान पर हैरान होते हुए मैं अक्सर सोच में पड़ जाता हूं कि यदि बात सफलता की ही है तो उन सुंदर पिचाई पर कोई फिल्म क्यों नहीं बनाता जो इसी शहर के आईआईटी से पढ़ कर आज इस मुकाम तक पहुंचे हैं. जबकि उनकी उपलब्धि का दायरा कहीं अधिक व्यापक है. बेशक किसी की उपलब्धि को कम करके आंकना मेरा मकसद नहीं लेकिन यह सच है कि देश के लिए खेलने के बावजूद एक खिलाड़ी की उपलब्धियां काफी हद तक व्यक्तिगत ही होती है, जबकि इंटरनेट जैसे वरदान ने आज छोटे-बड़े और अमीर-गरीब को एक धरातल पर लाने का काम किया है. आईआईटी कैंपस जाने का अवसर मिलने पर मैं अक्सर ख्यालों में डूब जाता हूं कि इसी कैंपस में रहते हुए सुंदर पिचाई जैसे आईआईटीयंस ने पढ़ाई पूरी की होगी. जीवन के कई साल इसी शहर में उन्होंने गुजारे होंगे. कोई नीरज उनकी सफलता को अनटोल्ड स्टोरी के तौर पर रुपहले पर्दे पर उतारने की क्यों नहीं सोचता.

गिर-सोमनाथ के डीएम की लापरवाही से हुआ दलितों पर हमला

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उना। गुजरात के उना में प्रस्तावित ‘दलित अस्मिता रैली’ में हिस्सा लेने गए लोगों पर स्थानीय जिलाधिकारी की लापरवाही से हमले होने की खबर सामने आई है. रैली की रिपोर्टिंग करने पहुंचे वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक रंजन सिंह ने इस तथ्य को उजागर किया है. बकौल अभिषेक, “उना (गुजरात) में गिर सोमनाथ के ज़िलाधिकारी डॉ. अजय कुमार से 15 अगस्त को होने वाली दलित अस्मिता रैली के संबंध में कई बातें हुईं. बातचीत के क्रम में कलेक्टर साहब से मैंने सवाल किया कि प्रस्तावित इस रैली को लेकर इलाक़े में काफ़ी तनाव है. ख़ासकर काठ दरबार (राजपूत) बहुल गांवों में लोग जत्थे बनाकर हमला कर सकते हैं, जिसकी जानकारी प्रशासन को भी है. ऐसे में क्या आपने निर्गत किए गए लाइसेंसी बंदूकें/ राइफल जो यहां के लोगों के नाम पर हैं, क्या उसे हालात सुधरने तक गन हाउस में जमा कराने का आदेश दिया है?” इस गंभीर सवाल पर कलेक्टर डॉ. अजय कुमार का कहना था कि यह गुजरात और गांधी की धरती है, यहां उत्तर प्रदेश और बिहार की तरह हिंसक वारदातें नहीं होती हैं. इस ज़िले में केवल 800 लोगों के पास लाइसेंसी हथियार हैं. इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है, लेकिन स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर उना में रैली से लौट रहे दलितों के ऊपर दरबार (राजपूत) बहुल अति संवेदनशील सामेतर गांव के लोगों ने फायरिंग की, जिसमें 11 लोग गंभीर रूप से ज़ख्मी हुए हैं. सभी घायलों का इलाज़ उना के सरकारी अस्पताल में चल रहा है. इस घटना के बाद कस्बाई शहर उना में पुलिस चौकसी बढ़ा दी गई है. अभिषेक के मुताबिक, इस हिंसक घटना के जितने ज़िम्मेदार सामेतर गांव के लोग हैं, उतने ही ज़िम्मेदार ज़िलाधिकारी भी हैं, क्योंकि उन्हें यह बखूबी पता था कि उना में पिछले कई दिनों से तनावपूर्ण स्थिति है, बावजूद इसके उन्होंने लाइसेंसी हथियारों को ज़ब्त करने का आदेश नहीं दिया. यह एक बड़ी प्रशासनिक भूल है, जो उना के हालात के लिए सही नहीं है. इसी वजह से दलितों पर हमलों को रोका नहीं जा सका.

राजस्थानः दलित सिख से मारपीट, पगड़ी फाड़ कर बाल भी खींचें

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अलवर। अलवर में नाकाबंदी के दौरान एक एएसआई ने दलित सिख युवक से मारपीट की. पुलिस ने उसके बाल खींचे और पगड़ी भी फाड़ दी. इस घटना की सिख समुदाय के लोगों ने निंदा की और एएसआई के खिलाफ मामला दर्ज कर दण्ड देने की मांग की. जानकारी के अनुसार रविवार रात्रि को नाकाबंदी के दौरान जब वहां से दलित सिख युवक अपनी बाइक से गुजर रहा था तो एएसआई दिनेश मीणा ने उसे रोकने का इशारा किया. इस पर युवक रुक गया तो एएसआई ने उससे सुविधा शुल्क देने की मांग की. इस पर युवक ने सुविधा शुल्क देने से इनकार कर दिया तो एएसआई ने उसके साथ मारपीट की और उसे बंद कर दिया. युवक ने आरोप लगाया कि मारपीट के दौरान एएसआई ने उसके केश खींचे और पगड़ी फाड़ कर दूर फेंक दी. जब युवक की मां अपने बेटे को छुड़ाने के लिए थाने पहुंची तो उसके साथ भी मारपीट की. इस पर परिजनों ने सिख समुदाय को इस घटना से अवगत कराया तो सभी लोग सोमवार को अरावली विहार थाने पहुंचे और थानेदार पर आरोप लगाते हुए मामला दर्ज करने की मांग की. बाद में पुलिस ने युवक को जमानत पर रिहा कर दिया.

गौरक्षकों का आतंकः उना रैली में शामिल होने जा रहे लोगों पर किया हमला

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उना। उना भावनगर रोड पर रविवार को समढियाला रोड पर गौरक्षकों ने उना रैली में शामिल होने जा रहे बहुजन लोगों की पिटाई कर दी. गौरक्षकों ने दलितों की तीन औऱ एक गाड़ी जिसपर अशोक चक्र बना हुआ था, जला दी. इस घटना में कई लोग घायल हो गए हैं. एक दलित घायल ने पूरी घटना की जानकारी दलित दस्तक को दी.  उन्होंने बताया की रात के अाठ बजे जब वे लोग रैली में शामिल होने के लिए जा रहे थे तो लगभग 100 गौरक्षकों ने उनकी रैली को रोका. उन्होंने रैली को रोकने के लिए पत्थर के बेरीक्रेड्स लगाए. फिर हम लोगों से मारपीट की और हमारी मोटरसाइकिल और गाड़ी भी जला दी. उन्होंने यह भी बताया की घटना के समय पुलिस वहां पर थी लेकिन पुलिस ने हमें बचाने की कोई कोशिश नहीं की और न ही गौरक्षकों को पकड़ने का प्रयास किया. अब भी कई दलित अस्पताल में भर्ती है पुलिस उन्हें न तो रैली में जाने दे रही थी और न ही उनके गांव थानगढ़ जाने दे रही है. घायल लोग पुलिस से पूरी सुरक्षा के बीच अपने गांव या फिर रैली तक जाना चाहते हैं लेकिन पुलिस उनके साथ भेदभाव कर सख्ताई से पेश आ रही है.

”दलित दस्तक” स्पेशलः आजादी की लड़ाई के बहुजन नायक

तमाम मामलों में एक सोची-समझी साजिश के तहत दलितों के इतिहास को नजर अंदाज कर दिया गयाया फिर उसे मिटाने की कोशिश की गई. आजादी के आंदोलन में भी यही हुआ है. इतिहासकारों ने दलितों के योगदान को नजर अंदाज कर अपने समाज (कथित तौर पर सामंती समाज) के योगदान को ही बढ़ा-चढ़ाकर लिखा. इसकी मुख्य वजह यह रही कि लेखनी पर जिनका एकाधिकार रहा उन्होंने मनचाहे तरीके से इतिहास को ही तोड़मरोड़ दिया. दलितों-बहुजनों को नजर अंदाज करने का कारण स्पष्ट है कि इस समाज के बच्चे अपने पूर्वजों से प्रेरणा लेकर और संगठित होकर मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष न कर शुरू कर देंजिससे शासन सत्ता पर मौज कर रहे लोगों को खतरा पैदा हो.

अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद कराने में नजाने कितने दलितों और आदिवासियों ने जान की बाजी लगा दी अपना लहू बहाया और शहीद हो गए. लेकिन इतिहास में दलित समाज की भूमिका को एक सोची समझी साजिश के कारण लिपिबद्ध नहीं किया गया. दलित चिंतकों और क्रांतिकारियों को इतिहास में पूरी तरह हाशिए पर रखा गया. परिणाम स्वरूप साधारण जनता आजादी के आंदोलन में दलित समाज के देश भक्तों की भूमिका से अनजान ही रही. लेकिन अब यह सच्चाई सामने आने लगी है. यह रिपोर्ट “दलित दस्तक” की एक कोशिश है कि जिसे सामंती इतिहासकारों ने नजर अंदाज कर दिया, उस पर भी रौशनी डाली जाए और स्वतंत्रता संग्राम में दलितों के योगदान का स्वरूप सामने आए. हो सकता है कुछ नाम छूटे रह जाएं लेकिन जिनके बारे में हमें जानकारी मिल सकी, इतिहास के धुंधले पन्नों और इतिहासकारों को कुरेदने के बाद हम जिन्हें ढ़ूंढ़ सके, उनके योगदान को हम इस रिपोर्ट के माध्यम से सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं….

वैसे तो देश की आजादी का पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 का माना जाता है लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल 1780-84 में ही बिहार के संथाल परगना में तिलका मांझी की अगुवाई में शुरू हो गया था. तिलका मांझी युद्ध कला में निपुण और एक अच्छे निशानेबाज थे. इस वीर सपूत ने ताड़ के पेड़ पर चढ़कर तीर से कई  अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया था. इसके बाद महाराष्ट्र, बंगाल और उड़ीसा प्रांत में दलित-आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत शुरू कर दी. इस विद्रोह में अंग्रेजों से कड़ा संघर्ष हुआ जिसमें अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी. सिद्धु संथाल और गोची मांझी के साहस और वीरता से अंग्रेज कांपते थे. बाद में अंग्रेजों ने इन वीर सेनानियों को पकड़कर फांसी पर चढ़ा दिया.

उदईया

इसके बाद अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल 1804 में बजा. छतारी के नवाब नाहर खां अंग्रेजी शासन के कट्टर विरोधी थे. 1804 और 1807 में उनके पुत्रों ने अंग्रेजों से घमासान युद्ध किया. इस युद्ध में जिस व्यक्ति ने उनका भरपूर साथ दिया वह उनका परम मित्र उदईया था, जिसने अकेले ही सैकड़ों अंग्रेजों को मौत के घाट उतारा. बाद में उदईया पकड़ा गया और उसे फांसी दे दी गई. उदईया की गौरव गाथा आज भी क्षेत्र के लोगों में प्रचलित हैं.

मातादीन

अगर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की बात करें तो इसकी शुरूआत मूलत: मातादीन भंगी के उद्गारों से होती है. दरअसल 1857 के सिपाही विद्रोह” जिसके नायक के रूप में मंगल पांडे को माना जाता है, वह अंग्रेजी सेना के सिपाही थे. मातादीन छावनी की कारतूस फैक्ट्री में सफाई कर्मचारी थे. एक दिन मातादीन ने मंगल पांडे से पानी पीने के लिए लोटा मांगा तो मंगल पांडे ने साथ काम कर रहे दलित सिपाही को लोटा देने से मना कर दिया. तब अपमानित मातादीन ने फटकारते हुए कहा,  बड़ा आया है ब्राह्मण का बेटा…. जिन कारतूसों का तुम उपयोग करते हो उन पर गाय और सूअर की चर्बी लगी होती है. जिसे तुम अपने दांतों से तोड़ कर बंदूक में भरते हो…. क्या उस समय तुम्हारा धर्म भ्रष्ट नहीं होताÓ. इस तंज का मंगल पांडे के दिमाग पर गहरा असर पड़ा. अंग्रेजों की इस करतूत को मंगल पांडे ने हिन्दू और मुस्लिम सिपाहियों की बैठक में बड़ी गंभीरता के साथ उठाया. मातादीन के इसी तंज ने सिपाहियों को जगा दिया. यहीं से अंग्रेजों के प्रति सिपाहियों में नफऱत पैदा होने लगी. सैनिकों ने कारतूस को दांत से खींचने से मना कर दिया. अंग्रेज इस बात से बौखला गए, जिससे दलित मातादीन और मंगल पांडे को पकड़ कर फांसी दे दी गई. इससे बढ़कर विडंबना और क्या हो सकती है कि इतिहास में मंगल पांडे का नाम शहीदों में सबसे ऊपर है लेकिन आजादी का मंत्र फूंकने वाले मातादीन भंगी को हिन्दू इतिहास में कहीं स्थान नहीं मिल सका, क्योंकि वह दलित क्रांतिकारी योद्धा था.

चेतराम जाटव और बल्लू मेहतर

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शहीद होने वाले चेतराम जाटव और बल्लू मेहतर को इतिहासकारों ने भुला दिया. उन्होंने आजादी के लिए न केवलफिरंगियों से टक्कर ली बल्कि देश की आन-बान और शान के लिए कुर्बान हो गए. क्रांति का बिगुल बजते ही देश भक्त चेतराम जाटव और बल्लू मेहतर भी 26 मई 1857 को सोरों (एटा) की क्रांति की ज्वाला में कूद पड़े. वे इस क्रांति की अगली कतार में खड़े रहे. फिरंगियों ने दोनों दलित क्रांतिकारियों को पेड़ में बांधकर गोलियों से उड़ा दिया और बाकी लोगों को कासगंज में फांसी दे दी गई. इतना ही नहीं, 1857 की जौनपुर क्रांति असफल नहीं होने पर जिन 18 क्रांतिकारियों को बागी घोषित किया गया उनमें सबसे प्रमुख बांके चमार था, जिसे जिंदा या मुर्दा पकडऩे के लिए ब्रिटिश सरकार ने उस जमाने में 50 हजार का इनाम घोषित किया था. अंत में बांके को गिरफ्तार कर मृत्यु दंड दे दिया गया.

वीरांगना झलकारी बाई

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं ने भी न केवल बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया बल्कि प्राणों की आहुति भी दी. वीरांगना झलकारी बाई का नाम हमेशा इतिहास में अंग्रेजों से लोहा लेने और शहीद होने वालों में याद किया जाता रहेगा. वीरांगना झलकारी बाई के पति पूरन कोरी राजा गंगाधर राव की सेना में मामूली सिपाही थे. झांसी में जब सिपाही क्रांति हुई तो उसका संचालन पूरन कोरी ने ही किया. साहित्य से यह स्पष्ट है कि झलकारी बाई और लक्ष्मीबाई की सकल-सूरत एक दूसरे से काफी मिलती जुलती थी, इस लिए अंग्रेजों ने झलकारीबाई को ही रानी लक्ष्मीबाई समझकर काफी देर तक लड़ते रहे. बाद में झलकारीबाई शहीद हो गईं लेकिन इतिहासकारों ने झलकारीबाई के योगदान को हाशिए पर रखकर रानी लक्ष्मीबाई को ही वीरांगना का ताज दे दिया.

ऊदादेवी पासी

वीरांगना ऊदादेवी के संघर्ष और बलिदान को देखें तो उनसे संबंधित समूचा घटनाक्रम अधिक अर्थपूर्ण लगता है तथा उसके नए आयाम उभर कर सामने आते हैं. बहुत से लोगों के लिए यह रोमांचक बलिदान इस कारण महत्वपूर्ण हो सकता है कि ऐसा साहसिक कारनामा एक स्त्री ने किया. बहुत से लोग केवल इस कारण गर्व से मस्तक ऊंचा कर सकते हैं कि उस बलिदानी, दृढ़ संकल्पी महिला का सम्बन्ध दलित वर्ग से था. दूसरे लोग मात्र इसी कारण इस महाघटना के अचर्चित रह जाने को बेहतर मान सकते हैं. वे इसके लिये ठोस प्रयास भी करते रह सकते हैं,बल्कि किया भी है. 16 नवम्बर1857 को लखनऊ के सिकन्दरबाग चौराहे पर घटित इस अपने ढंग के अकेले बलिदान तथा इसकी पृष्ठभूमि में सक्रिय अभिन्न पराक्रम को इस कारणअधिक महत्वपूर्ण माना जा सकता है कि इस घटना मात्र से समूचे प्रथम स्वाधीनता संग्राम को न केवल नयी गरिमा मिलती है बल्कि उसके अपेक्षितविमर्श से वंचित रह गये कुछ पक्षों पर व्यापक विचार के अवसर भी उपलब्ध होते हैं.

ऊदादेवी को इतिहास के पन्नों से दूर ही रखा गया. वीरांगना ऊदादेवी का इतिहास सामने लाने का काम पासी रत्न कहे जाने वाले राम लखन ने किया. कई सालों के शोध और इतिहासकारों से संपर्क के बाद वीरांगना ऊदादेवी का इतिहास उभर कर सामने आया. शहीद वीरांगना ऊदादेवी के संदर्भ में सबसे पहले लंदन की इंडियन हाऊस लाइब्रेरी में 1857 के गदर से संबंधित कुछ दस्तावेज व अंग्रेज लेखकों की पुस्तकें प्राप्त हुईं जिसके अनुसार ऊदादेवी नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल की महिला सैनिक दस्ते की कप्तान थीं. इनके पति का नाम मक्का पासी था. जो लखनऊ के गांव उजरियांव के रहने वाले थे. अंग्रेजों ने लखनऊ के चिनहट में हुए संघर्ष में मक्का पासी और उनके तमाम साथियों को मौत के घाट उतार दिया था. पति की मौत का बदला लेने के लिए वीरांगना ऊदादेवी 16 नवंबर 1857 सिकंदर बाग (लखनऊ) में एक पीपल के पेड़ पर चढ़कर 36 अंग्रेज फौजियों को गोलियों से भून दिया था और बाद में खुद भी शहीद हो गईं थीं. इस घटना का पूरा उल्लेख ब्रिटिश फौज के सार्जेंट फोवेंस ने अपनी पुस्तक में किया है. वीरांगना ऊदादेवी का इतिहास लखनऊ के एटलस और एनबीआरआई के म्यूजियम में तस्वीरों के माध्यम से आज भी देखा जा सकता है. वीरांगना ऊदादेवी विश्व की पहली महिला हैं जिन्होंने 36 अंग्रेज सैनिकों को मार डाला था लेकिन इतिहासकारों ने ऐसी विश्व स्तरीय शहीद दलित महिला को नजर अंदाज कर दिया.

महाबीरी देवी वाल्मीकि

दलित समाज की महाबीरी देवी भंगी को तो आज भी बहुत कम लोग जानते हैं. मुजफ्फरपुर की रहने वाली महाबीरी को अंग्रेजों की नाइंसाफी बिलकुल पसंद नहीं थी. अपने अधिकारों के लिए लडऩे के लिए महाबीरी ने 22 महिलाओं की टोली बनाकर अंग्रेज सैनिकों पर हमला कर दिया. अंग्रेजों को गांव देहात में रहने वाली दलित महिलाओं की इस टोली से ऐसी उम्मीद नहीं थी. अंग्रेज महाबीरी के साहस को देखकर घबरा गए थे. महाबीरी ने दर्जनों अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया और उनसे घिरने के बाद खुद को भी शहीद कर लिया था.

चौरी-चौरा का इतिहास

5 फरवरी 1922 को गोरखपुर के गांव चौरी-चौरा में दलित समाज की एक सभा चल रही थी. इस सभा में स्वराज पर ही मंथन चल रहा था. तभी वहां से गुजर रहे एक सिपाही ने जोशीला भाषण कर रहे रामपति (दलित) पर अपमान सूचक शब्दों की बौछार कर दी. सिपाही के दुर्व्यवहार से लोग उत्तेजितहो गए और देखते ही देखते ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ नारे लगाने लगे. पुलिसवालों ने नारेबाजी कर रहे लोगों के साथ दुर्व्यवहार किया जिससे नाराजलोगों ने पुलिस पर हमला बोल दिया और सिपाहियों को भाग कर थाने में छुपना पड़ा. क्रांतिकारियों ने पुलिस चौकी में ही आग लगा दी और जो सिपाही बाहर निकला उसे भी मार डाला और आग के हवाले कर दिया. इस काण्ड में कुल 22 पुलिसवाले मारे गए. दलित समाज के कई लोगों की गिरफ्तारियां हुईं, मुकदमें चले जिसमें से 15 लोगों को फांसी दे दी गई. 14 लोगों को कालापानी की सजा और बाकी लोगों को आठ-आठ साल और पांच-पांच साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई. इस क्रांति ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी थी.

जिस समय चौरी-चौरा काण्ड हुआ उस समय देश में असहयोग आंदोलन चल रहा था. तब मोहनदास गांधी ने 12 फरवरी 1922 को आंदोलन समाप्त करने की घोषणा की थी. इस संबंध में गांधीजी का तर्क था कि चौरी-चौरा काण्ड उनके अहिंसक सिद्धांत के विरुद्ध था. गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भी दलित वर्गों के देशभक्तों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और पूरे देश में अपनी गिरफ्तारियां दी. इन देश भक्तों में गोरखपुर का मिठाई, ठेलू, गजाधर,और कल्लू. सीतापुर के दुर्जन और चौधरी परागी लाल, आजमगढ़ के राम प्रताप, सुल्तानपुर के सूरज नारायण और लखनऊ के सीताराम और जोधा प्रमुख थे.

नमक सत्याग्रह का आंदोलन

स्वतंत्रता संग्राम के नमक सत्याग्रह आंदोलन में दलित वर्ग के लोगों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. यह आंदोलन गांधीजी ने 12 मार्च 1930 को साबरमती आश्रम से शुरू किया था. इस आंदोलन में दलित वर्ग से भी तमाम लोग शामिल हुए. इसमें मुख्य रूप से बलदेव प्रसाद कुरील थे, जिन्होंने कोतवाली में 1932 में धरना दिया. धरना देने पर पुलिस ने उनपर गोली चला दी और वे शहीद हो गए. इसके अलावा लाल कुआं लखनऊ के रहने वाले सुचित राम को भी धरना देने की वजह से पुलिसवालों ने गोली मार कर मौत के घाट उतार दिया. नमक सत्याग्रह आंदोलन में ही 103 दलितों पर सजा के साथ आर्थिक दंड लगाया गया. 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने अंग्रेजों भारत छोड़ों का प्रस्ताव पास किया. 9 अगस्त 1942 की सुबह गांधी समेत कई कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तार लोगों में जवाहर लाल नेहरू, बाबू जगजीवन राम, जय प्रकाश नारायण भी शामिल रहे. अंग्रेजों की इस दमनकारी नीति से लोगों में आक्रोश पैदा हुआ. आंदोलन उग्ररूप अख्तियार करने लगा. अंग्रेजों ने दमकारी नीति के तहत कई जगह गोलियां और लाठियां चलाईं. इस आंदोलन में अमर शहीद और क्रांतिवीरों में अछूत समाज के लोगों की संख्या सबसे अधिक थी. यूपी के कईजिलों से 93 दलितों ने अपनी कुर्बानी दी. जिनका नाम व पतद्ग आज भी सरकारी अभिलेखों में दर्ज है.

नेता जी के साथ चमार रेजीमेंट

ब्रिटिश सरकार को खदेडऩे के लिए नेता जी सुभाष चंद बोस ने 26 जनवरी 1942 को आजाद हिन्द फौज बनाई. उन्होंने जनता से अपील करते हुए कहा कि तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दुंगा. इस अपील से हजारों की संख्या में भारतीय सैनिक देश की आजादी के लिए आजाद हिन्द फौज में भर्ती हो गए. इस फौज में कैप्टन मोहन लाल कुरील की अगुवाई में हजारों दलित भी फौज में शामिल हो गए. यहां तक की चमार रेजीमेंट पूरी तरह आजाद हिन्द फौज में विलीन हो गई. चमार रेजीमेंट ब्रिटिश भारतीय सेना की महत्वपूर्ण रेजीमेंट थी. दलित परिवार के हजारों युवा देश की आजादी के लिए इस फौज में शामिल हो कर अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए शहीद हुए.

शिड्यूल्ड कॉस्ट फेडरेशन की भूमिका

बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की भूमिका का जिक्र करना भी जरूरी होगा. सन 1940 में डॉ. अम्बेडकर ने शिड्यूल्ड कॉस्ट फेडरेशन की स्थापना की थी. इस फेडरेशन का मुख्य उद्देश्य अछूतों की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनैतिक शोषण, अन्याय व अत्याचार के खिलाफ संघर्ष करना था. यह फेडरेशन अछूतों की सुरक्षा एवं अधिकार मात्र के लिए नहीं थी, बल्कि आजादी के लिए मर मिटने को भी तैयार थी. इस फेडरेशन ने 1946-47में देश व्यापी आंदोलन छेड़ा.  इस आंदोलन का नारा था, “अधिकारों के लिए लडऩा होगा…जीना है तो मरना होगा”. देश भर की जेलों में लगभग 25हजार दलित सत्याग्रही जेल गए. जिसमें अमर शहीद दोजीराम जाटव भी थे जो हाथरस के निवासी थे. देश की आजादी के लिए हजारों लाखों लोग शहीद हो गए. लेकिन कुछ लोगों का नाम ही इतिहास के पन्नों में प्रमुखता से दर्ज हो पाया बाकी हाशिए पर चले गए. इसी तरह दलित/आदिवासी समाज के तमाम और यक हैं, जिनके बलिदान को इस देश ने भुला दिया. सभी दलित/आदिवासी/मूलनिवासी शहीदों को दलित दस्तक का नमन।

उना में जो हुआ उसने पूरे दलित समाज के आत्म सम्मान और इज्जत को छीन लिया था- जिग्नेश मेवाणी

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गुजरात के उना में  देश भर से लोग ””आजादी का जश्न”” मनाने इकट्ठा हो रहे हैं. गुजरात में चल रहे मौजूदा दलित आंदोलन को जिग्नेश मेवाणी ने एक शक्ल और एक दिशा दी है. भले ही वे इसके अकेले नेता नहीं हैं, लेकिन वे इस आंदोलन का चेहरा और दिमाग दोनों हैं. मौजूदा आंदोलन की रीढ़ ‘उना दलित अत्याचार लड़त समिति’ उन्हीं की पहल पर बनी और वे इसके संयोजक हैं. 35 वर्षीय जिग्नेश एक वकील, आरटीआई कार्यकर्ता और दलित अधिकार कार्यकर्ता रहे हैं. राज्य में वे दलितों के जमीन पर अधिकार के मुद्दों पर अथक लड़ाई लड़ने वाले एक कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते रहे हैं.स्वतंत्र पत्रकार सुरभि वाया ने जिग्नेश मेवाणी से बातचीत की है. उना की घटना में आपकी समझ से ऐसा क्या था जिसने इस विद्रोह की शुरुआत की? क्यों यह एक चिन्गारी बन गया? – जिस तरह उना की घटना का वीडियो वायरल हुआ, इसे व्हाट्सएप पर भेजा जा रहा था, जिसमें दिन दहाड़े सब देख सकते थे कि उना कस्बे में आप चार दलित नौजवानों को पीट रहे हैं, एक तरह से उनकी खाल उधेड़ रहे हैं… इस विडियो ने पूरे दलित समाज के आत्म सम्मान और इज्जत को छीन लिया था. आपने एक इंसान और एक समुदाय के आत्म सम्मान को दिन दहाड़े सबकी आंखों के सामने कुचल कर रख दिया. जिस तरह इसे मीडिया ने उठाया और एक राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाया, उसने भी आंदोलन को मजबूती दी. लेकिन यह तो होना ही था. अब मोदी केंद्र में हैं, क्या इस वजह से गुजरात के हिंदू गिरोहों का चरित्र बदला है? – एक बड़ी सावधानी से सोची-समझी रणनीति के तहत संघ परिवार और भाजपा ने पूरे देश में दलितों के भगवाकरण की परियोजना शुरू की थी. उन्होंने गुजरात में भी इसको आजमाया. लेकिन मुख्यत: जन विरोधी, गरीब विरोधी गुजरात मॉडल में दलितों के लिए अपनी हार और अपने शोषण के अलावा और कुछ नहीं रखा था. एक ऐसा दौर था जब वे हिंदुत्व की विचारधारा के साथ चले गए थे, लेकिन वह दौर अब खत्म हो रहा है और वे अब इसको पहचान सकते हैं कि ये लोग असल में कैसे हैं. जब आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है और दूसरी तरफ वे “वाइब्रेंट” और “गोल्डेन गुजरात” जैसी बड़ी बड़ी बातों का जाप सुन रहे हैं. “सबका साथ सबका विकास” जैसी बातों के नारे लगाए जा रहे हैं, लेकिन इसमें लगता है कि दलित इससे बाहर हैं. इसलिए दलित भी इसको महसूस करने लगे हैं कि उनको इस गुजरात मॉडल में क्रूरता और हिंसा के अलावा और कुछ नहीं मिलने वाला है. आनंदीबेन पटेल और नरेंद्र मोदी सरकार में आपने क्या फर्क देखा? – कोई फर्क नहीं है. मोदी हुकूमत के दौरान एससी, एसटी या ओबीसी के बीच जमीन बांटने के बजाए इसको अडाणी, अंबानी और एस्सार को दिया गया. आनंदीबेन ने भी यही मॉडल आगे बढ़ाया. इसके अलावा, चूंकि मोदी दिल्ली पहुंच गए थे इसलिए आनंदीबेन की हुकूमत में एग्रीकल्चल लैंड सीलिंग एक्ट में भी फेर-बदल किया गया, जो भूमिहीनों को जमीन देने के प्रावधान वाला एक प्रगतिशील कानून था. इनमें से किसी भी हुकूमत ने जातीय हिंसा और दलित अधिकारों के मुद्दों पर कोई काम नहीं किया है. गुजरात में दलितों और दलित आंदोलनों के इतिहास पर क्या कहेंगे? – 1980 के दशक में अनेक गैर दलित भी (दलित) आंदोलन का हिस्सा बने. दलित पैंथर्स का हमेशा ही एक बहुत रेडिकल, प्रगतिशील एजेंडा और घोषणापत्र था. दलित आंदोलन का यह एक पहलू है. इसकी वजह से एक जुझारू मानसिकता विकसित हुई.  मतलब अगर रूढ़िवादी उनसे अच्छे से पेश नहीं आए तो फिर हिंसक प्रतिक्रिया होगी. संदेश साफ था, कि वे अपने अधिकारों के लिए अथक रूप से लड़ सकते हैं. [दलित पैंथर] के घोषणापत्र में दिए गए कार्यक्रम में मजदूर संघ बनाने, बुनियादी अधिकारों के लिए लड़ने, जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ लड़ने जैसी बातें शामिल थीं. लेकिन ये साकार नहीं हो सकीं. सिर्फ घोषणापत्र का नाम बदल दिया गया. दूसरी तरफ गुजरात में बहुत थोड़ी प्रगतिशील ताकतें रही हैं जो दलितों की स्वाभाविक सहयोगी बन सकती थीं. इसके साथ साथ जब वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियां आईं तो पहचान की राजनीति भी एक बड़ा फैक्टर बनी. भारत भर में दलित आंदोलन इस राजनीति की गिरफ्त में आ गए. 1990 के दशक के बाद दलित आंदोलन जातिवाद से लड़ने, मनुवाद मुर्दाबाद की जुमलेबाजी में फंस गया और इसने इन मुद्दों को नहीं उठाया कि दलितों के पास रोटी, छत और घर जैसी बुनियादी चीजें हासिल हों. हमेशा ही ऐसे संगठन, लोग और संस्थान रहे हैं जिन्होंने दलितों के मुद्दों को उठाया, खास कर अत्याचारों और जमीन के संघर्ष को उठाया. लेकिन एक ऐसा मंच अभी बनना बाकी है जो इन सभी विचारों को एक साथ ला सके और मुद्दों के सामने रख सके. गुजरात में जहां तक दलित आंदोलनों की बात है पिछले दो या तीन दशकों में मैं बस यही देख सकता हूं कि ऐसे लोग हैं जो काम करना चाहते हैं और अच्छा काम कर रहे हैं. ऐसा जज्बा है कि अन्याय को रोकने के लिए काम किया जाए, लेकिन इसके लिए मिलजुल कर एक वैचारिक नजरिया नहीं बनाया जा सका और जमीन पर काम करने वाले लोग दीर्घ कालिक बदलाव लाने के लिए दूसरों के साथ एकजुट नहीं हो सके. इसलिए एक बड़े दलित आंदोलन के खड़े होने की जो उम्मीद थी वो पूरी नहीं हो सकी. दूसरी तरफ पहचान की राजनीति की वजह से, खास कर मोदी की हुकूमत के दौरान, एक तरफ तो उनका एजेंडा सांप्रदायिक फासीवाद का एडेंडा था और दूसरी तरफ यह वैश्वीकरण का एजेंडा है, भौतिक विरोधाभास बढ़े हैं, गरीबों और अमीरों के बीच गैरबराबरी बढ़ी है, निचली जातियों, निचले वर्गों को काफी भुगतना पड़ा है. उना का मुद्दा इतना बड़ा क्यों बन गया? इसलिए क्योंकि अब पानी के सिर के ऊपर से बहने का इंतजार नहीं करना था. ऐसा होना ही था, क्योंकि गुजरात में ज्यादातर दलित भूमिहीन हैं. यहां गहरा खेतिहर संकट है. ग्रामीण इलाकों में दलित वर्ग का भारी शोषण होता रहा है. शहरों में रहने वाला दलित मुख्यत: औद्योगिक मजदूर है, निजी कंपनियों के लिए काम करता है… क्या टेक्सटाइल मिल मजदूरों की तरह जिन्होंने 1980 के दशक में यूनियन बनाने की मांग की थी? – हां, लेकिन कारखाने के मजदूरों और खेतिहर मजदूरों में एक फर्क है. दलित कारखाना मजदूरों के वक्त उम्मीद थी, संघर्ष की बड़ी चाहत खेतिहर मजदूरों में जिंदा थी. इसलिए तब एक बार्गेनिंग पावर थी. कारखानों के आसपास कारखाना मालिकों ने शेल्टर बनाए जहां मजदूरों को रहने के लिए घर दिए. इसलिए एक तरह की एकता थी. लेकिन जो लोग मॉलों में या निजी कॉरपोरेट घरानों में काम करने गए वो बिखरे हुए हैं. उनके बीच का संपर्क भी बहुत कमजोर है. अगर मोदी सरकार उन्हें 4000 रुपए माहवार की नौकरी देना जारी रखती है तो हम औद्योगिक मजदूरों के हालात का अंदाजा लगा सकते हैं. इस तरह एक शहर के औद्योगिक इलाकों में काम करने वाले दलित और भूमिहीन ग्रामीण दलित, इन दोनों ही समूहों का शोषण पिछले 12 से 15 बरसों में बहुत खराब हुआ है. इनके अलावा अत्याचारों के मामले भी बढ़े हैं. प्रदेश में मोदी सरकार के दौरान 2003 से 2014 तक 14,500 मामले दर्ज किए गए थे. 2004 में 34 अनुसूचित जाति की महिलाओं का बलात्कार हुआ था, जो 2014 में बढ़कर 74 तक पहुंच गया. 2005 से 2015 के बीच 55 गांवों से दलितों को हिंसक तरीके से बाहर किया गया है. उन्हें वो गांव छोड़ने पड़े जहां वे रहते थे. 55,000 से ज्यादा सफाई कर्मी हैं जो मैला साफ करते हैं. करीब एक लाख सफाई कर्मी हैं जो नगर निगमों में बरसों से न्यूनतम मजदूरी पर काम करते आ रहे हैं और अभी भी स्थायी नौकरी पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इस तरह एक ओर तो भारी आर्थिक शोषण है और दूसरी तरफ जाति के आधार पर उन्हें जीवन के हर पहलू में दबाया जाता है. 2012 में राज्य पुलिस ने 16, 17 और 21 साल के तीन दलित नौजवानों को इतने बुरे तरीके से पीटा कि एक तरह से उनकी खाल उधड़ गई थी, और बाद में उन्हें एके-47 से गोली मारी गई क्योंकि वे एक दिन पहले हुए अत्याचार के एक मामले में रिपोर्ट दर्ज कराने जा रहे थे. चार बरसों के बाद भी इस मामले में कोई इंसाफ नहीं हुआ है. दलित अत्याचारों के मामलों में गुजरात में कसूर साबित होने की दर महज तीन फीसदी है – 97 फीसदी लोग बस तोड़ दिए जा रहे हैं. उनके लिए गुजरात में कोई इंसाफ नहीं है. यह बात अरसे से मन में जमा होती रही है. जिसने अब एक आंदोलन का शक्ल लिया है. 2015 में आपने एक आरटीआई दायर किया था जिसमें आपने गुजरात में दलितों के बीच जमीन के बंटवारे के बारे में कुछ दिलचस्प संख्याएं शामिल की थीं. – आरटीआई को लेकर मेरे काम का मुख्य सरोकार भूमिहीन खेतिहर मजदूरों और दलितों से रहा है, खास कर जमीन के अधिकार से. भारत ऊंची जातियों, ऊंचे वर्गों का एक जमावड़ा है, है न? अगर आप ऑब्जेक्टिवली देखें तो राज्य के सभी अंगों पर ऊंची जातियों और ऊंचे वर्ग की इस जोड़ी का कब्जा है. उत्पादन के सभी साधन उनके हाथों में हैं और खास कर उनका जमीन पर कब्जा है. देहाती इलाकों में ऊंची जातियों का दबदबा खास कर उनके द्वारा जमीन पर कब्जे की वजह से ही है. इसलिए भूमि सुधार बेहद जरूरी हैं. गुजरात में, खास कर हरेक जिले में, दलितों को हजारों एकड़ जमीन दिया जाना एक मजाक है. यह सिर्फ कागज पर ही हुआ है. मिसाल के लिए, आप कल्पना करें कि मुझे जमीन का मालिकाना दिया गया है. मुझे कागज का एक पर्चा मिलेगा जिसमें लिखा होगा, मैं, जिग्नेश मेवाणी, मेरे पास सर्वे नंबर है जो इसका सबूत है कि मेरे पास एक निश्चित गांव में छह बीघे जमीन है. लेकिन जमीन पर असली कब्जा हमेशा ही ऊंची और प्रभुत्वशाली जातियों का बना रहेगा. इसका मतलब है कि उनको [दलितों को] 1000 एकड़ जमीन मिली है लेकिन सिर्फ कागज पर. असली, जमीनी कब्जे की गारंटी कभी नहीं दी गई. मेरे मां-बाप बताते हैं कि जब वे सबसे पहले अहमदाबाद रहने आए तो यहां घेट्टो (छावनी) नहीं थे और ये बस हाल की परिघटना है. – यह मोदी मैजिक है. [2002] दंगों में नरोदा पाटिया, नरोदा गाम, गुलबर्ग, सरदारपुरा और बेस्ट बेकरी में जिस तरह मुसलमानों को मारा गया, इसके बाद उनके पास कोई और विकल्प नहीं था. वे हिंदू इलाकों में किस तरह रहेंगे? वे अपना धर्म नहीं छोड़ना चाहते और रहने का ठिकाना खोज रहे हैं. आनंदीबेन मेहसाना से आती हैं, प्रधानमंत्री मोदी भी वहीं से आते हैं और राज्य के गृह मंत्री भी वहीं से आते हैं. उसी मेहसाना जिले में पिछले तीन महीनों में, चार गांवों में दलितों का सामाजिक बहिष्कार हुआ है और उन्हें उनके घरों से निकाल दिया गया है. दंगों के नतीजे में मुसलमान भारी तादाद में उन जगहों से उजड़ गए जहां वे पले-बढ़े थे और इन घेट्टो (छावनी) में चले आए. उसी तरह ये मनुवादी ताकतें दलितों को उनके गांवों से जबरन खदेड़ रही हैं. दलित-मुसलमान एकता के हालिया आह्वान पर आप क्या सोचते हैं? – यह सचमुच एक अच्छी बात है. मैंने मुकुल सिन्हा और निर्झरी सिन्हा के साथ करीब 8 बरसों तक काम किया है. मुकुल सिन्हा एक जाने माने एक्टिविस्ट और मानवाधिकार वकील थे. वो और उनकी पत्नी निर्झरी सिन्हा गुजरात में मोदी सरकार के मुखर विरोधी थे. निर्झरी अभी जन संघर्ष मंच चलाती हैं, जो उन्होंने शुरू किया था. मैंने 2002 दंगों के बाद होने वाली घटनाओं पर नजर रखी है और मैंने राज्य में मुठभेड़ों में की जानेवाली हत्याओं में अमित शाह और नरेंद्र मोदी की भूमिका पर भी नजर रखी है. इन मुद्दों से मेरा सरोकार ठीक उन्हीं वजहों से था और मैं उन मुद्दों में पड़ा, जिन वजहों से मैंने दलित अधिकारों के लिए काम शुरू किया. इसलिए मैं हमेशा ही चाहता रहा हूं कि एक दलित-मुसलमान एकता का आह्वान किया जाना चाहिए, उन्हें एक मंच पर लाया जाना चाहिए. आने वाले दिनों में इन दोनों समूहों को एकजुट करने के लिए ज्यादा ठोस कदम उठाए जाएंगे. तो बाकी के देश में हिंदू गिरोहों के सिलसिले में जो हो रहा है उसमें और गुजरात के हालात में आप क्या संबंध और फर्क देखते हैं? – जबसे मोदी केंद्र में गए हैं, संघ परिवार के छुटभैए समूह ज्यादा सक्रिय हो गए हैं. भ्रष्टाचार, कॉरपोरेट लूट और हिंदुत्व एजेंडा को आगे बढ़ाना भाजपा सरकार का भी मुख्य मुद्दा रहा है. एक बड़ा फर्क यह रहा कि आनंदीबेन आतंक के उस राज को जारी नहीं रख सकीं.

शर्मनाकः विदेशों में भारत को मिला ‘ATROCITY NATION’ का खिताब

भारत जब आजादी की तैयारियों में मशगूल है, उसी दौरान विदेशों से भारत के लिए एक शर्मनाक खबर आई है. गुजरात के उना में दलितों पर हुए जुल्म को लेकर भारत से बाहर भी विभिन्न देशों में विरोध प्रदर्शन किए जा रहे हैं. अमेरिका के विभिन्न शहरों में सिलसिलेवार रूप से विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया जा रहा है. देश के लिए शर्मनाक बात यह है कि विरोध प्रदर्शन के दौरान प्रदर्शनकारियों ने भारत के लिए ‘Atrocity Nation’ जैसे शब्द का इस्तेमाल किया है. अमेरिका सहित कुछ अन्य देशों के विभिन्न शहरों में 12 अगस्त से ही विरोध प्रदर्शनों का दौर शुरू है. भारत में दलितों के मानवाधिकार और उन पर हो रहे जुल्म के खिलाफ इस प्रदर्शन की शुरुआत 12 अगस्त को बोस्टन में हुई. इसके बाद 13 अगस्त को न्यू जर्सी एवं सन फ्रांसिस्को और 14 अगस्त को फिलाडेल्फिया में लोग दलितों पर ज्यादती के खिलाफ सड़कों पर उतरें. 16 अगस्त को टोकियो में विरोध प्रदर्शन के लिए लोग घरों से बाहर निकलेंगे. यह प्रदर्शन 20 अगस्त तक लगातार होंगे. लंडन और कनाडा में 20 अगस्त को प्रदर्शन आयोजित किया गया है, जबकि आने वाले दिनों में जर्मनी, आस्ट्रेलिया, टोरंटो, स्विटजरलैंड और पोलैंड के लोग भी भारत में दलितों के सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने और मानवाधिकार दिए जाने की मांग करेंगे. यह विरोध प्रदर्शन AIM, AANA और AIC द्वारा संयुक्त रुप से आयोजित किया गया है. इन संगठनों ने भारत में दलितों पर हुए अत्याचार को शर्मनाक बताया है.

सांसदों के पास दलितों के लिए वक्त नहीं!

देश भर में दलितों पर हो रहे हमलों के विरोध में तमाम राजनीतिक पार्टियां संसद से बाहर दलित हितैषी होने का दावा करती है. सारे राजनेता दलितों के सबसे बड़े हमदर्द बनने की कोशिश करते हैं. लेकिन असलियत हैरान करने वाली है. संसद के बाहर मीडिया के सामने चिल्लाने वाले यही नेता उस दौरान संसद में मौजूद रहना भी जरूरी नहीं समझते, जब दलितों के मुद्दे पर चर्चा हो रही होती है. उना में दलितों पर हुए अत्याचार के बाद देश भर में बवाल मचा हुआ था. संसद के भीतर भी यह मुद्दा जोर-शोर से उठा था. संसद के भीतर इस पर बहस करने की मांग की गई. आखिरकार लोकसभा में चर्चा के लिए 11 अगस्त (गुरुवार) का दिन तय किया गया. सबकी नजरें लोकसभा में होने वाली चर्चा पर थी. लेकिन लंच के बाद जब इस मुद्दे पर बहस के लिए लोकसभा की कार्रवाई शुरू हुई तो लोकसभा की आधे से ज्यादा सीटें खाली पड़ी थी. संख्या इतनी कम थी कि उससे चर्चा के लिए जरूरी कोरम भी पूरा नहीं हो पा रहा था. नियम के मुताबिक किसी भी मुद्दे पर चर्चा के वक्त सदन में 15 प्रतिशत सांसदों का मौजूद होना जरूरी होता है. ये हाल सिर्फ सत्ता पक्ष का नहीं था. दलितों के मुद्दे पर संसद के बाहर मोदी को ललकारने वाली कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी जैसे बड़े विपक्षी नेता भी सदन से गायब थे. चर्चा की शुरूआत में मौजूद कुल 70 सांसदों में से विपक्ष के महज 38 सांसद ही सदन में थे, जो अपनी हाजिरी लगवाने आए थे. जब केरल के अलपुर से माकपा के सांसद परयमपरनबिल कुट्टप्पन बीजू ने लोकसभा में दलितों पर बढ़ रहे अत्याचारों के बारे में बोलना शुरू किया तो सदन में ऐसा लग ही नहीं रहा था कि किसी बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा हो रही है. सड़क पर दलित-दलित करने वाले सांसद जाने कहां थे. क्या इसका मतलब ये है कि दलितों पर हो रही क्रूरता की किसी को नहीं पड़ी? आजादी की 70वीं वर्षगांठ पर अगर दलितों का दर्द लोकतंत्र के ‘मंदिर’ में बैठे सांसदों को परेशान तक नहीं करता तो इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी? क्या दलित सिर्फ वोट बैंक हैं? चुनाव के समय हर कोई दलितों की झोपड़ी में खाना खाता है, अपने आपको पिछड़ों का हितैषी बताता है लेकिन अब क्या हुआ? गृहमंत्री ने तो जवाब में कह दिया कि हमारी सरकार में दलितों पर अत्याचार के कम मामले दर्ज हुए हैं और विपक्ष ने मान भी लिया. ये तो शुक्र है कि बाबासाहेब ने विधानसभा और संसद में दलित लोगों के लिए सीटें आरक्षित करा दी थी वरना दलितों के प्रतिनिधित्व की कोई गारंटी नहीं होती. तेलुगु देशम पार्टी के रविंद्र बाबू पांडूला ने सही कहा कि क्यों दलितों की लड़ाई सिर्फ दलितों को ही लड़नी पड़ रही है? उदित राज जैसे बीजेपी के दलित सांसद भी सरकारी बाबू की तरह बात कर रहे हैं. मोदी जी कहते हैं कि दलित को गोली मारनी है तो पहले मुझे गोली मारो लेकिन करते कुछ नहीं. उनकी पार्टी के सांसद-विधायक कथित गौ-रक्षकों की पैरवी करते हैं और दलितों पर हुए अमानवीय अत्याचारों को जायज ठहराते हैं. अंबेडकर की विरासत को हथियाने के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रम करने वाली राजनीतिक पार्टियां दलितों के मुद्दों पर इतनी असंवेदनशील कैसे हो सकती हैं? हकीकत तो यही है कि दलितों की किसी को पड़ी ही नहीं है वरना संसद की कुर्सियां यूं खाली नहीं पड़ी होती. – लेखक पत्रकार हैं, इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुड़े हैं।

गुजरात से बदलाव की बयार…

gujratगुजरात के उना में मर चुकी गाय की खाल उतारने को लेकर दलित जाति के युवकों की पिटाई पर पूरा गुजरात उबल गया है. राज्य में घटी दलित उत्पीड़न की इस विभत्स घटना पर देश भर के दलितों में रोष है. इसने गुजरात में कोढ़ की तरह रिस रहे जातिवाद के सच को भी सामने ला दिया है. असल में गुजरात की सड़कों पर उतरे दलितों का यह गुस्सा एक दिन का गुस्सा नहीं है, बल्कि सालों से दलितों पर हो रहे अत्याचार की इंतहा हो जाने पर प्रदेश का सारा दलित समाज एक साथ सामने आ गया है. गुजरात में दलितों की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां के 116 गांवों में रहने वाले दलित समाज के लोग पुलिस प्रोटेक्शन में हैं. वजह, इन गांवों के दलितों को वहां के जातिवादी गुंडों से खतरा है. उना की घटना ने गुजरात के साथ ही देश भर में हो रहे दलित उत्पीड़न की घटनाओं को बहस के केंद्र में लाकर रख दिया है. उना में कथित गौरक्षकों द्वारा दलित युवकों की पिटाई के बाद फिर यह सवाल उठाया जा रहा है कि आखिर दलित समुदाय के खिलाफ उत्पीड़न के मामले क्यों नहीं रुक रहे हैं? देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिन्होंने लोकसभा चुनावों के समय अपने आप को ””अछूत”” बताया था, आज उनके राज्य में ही दलितों-अछूतों को भरे बाजार में पुलिस के सामने पीटा गया. इन्हें आसानी से न्याय भी नहीं मिल पाया जिसके बाद न्याय के लिए इन्हें आंदोलन करना पड़ा. पीड़ित युवकों का कहना है कि गाय मर चुकी थी और उसके मालिक ने उन्हें गाय को ले जाने के लिए बुलाया था, जिसके बाद दलित युवक वहां पहुंचे थे. मरी हुई गाय के मालिक ने भी इस बात की पुष्टी की थी. बावजूद इसके समाज के ठेकेदार और हिन्दू राष्ट्र की रक्षा करने को आतुर गुंडों ने पीड़ित युवकों की एक न सुनी और उन्हें बुरी तरह से पीटा. इस घटना को लेकर भी पुलिस की नींद तब टूटी जब इस घटना का विडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. सरेआम घटी इस घटना के बाद भी पुलिस ने एक सप्ताह बीत जाने के बाद तक सिर्फ 6 आरोपियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी. जबकि स्थानीय लोग 30-40 आरोपी के होने की बात कह रहे हैं. इस घटना से स्थानीय लोग इतने आहत हो गए कि दो दर्जन से ज्यादा युवकों ने इंसाफ मिलने में देरी के कारण जहर खाकर जान देने की कोशिश की जबकि एक युवक ने खुद को आग लगा ली. पूरे प्रदेश में बंद का ऐलान किया गया और पत्थरबाजी की गई. दलित समाज के लोग इस घटना से इतने आहत थे कि उन्होंने ट्रकों में मरी हुई गायों को भरकर शहरों में फेंक दिया. यहां तक की सुरेन्द्र नगर कलेक्ट्रेट में इन गायों को उतार दिया गया और लोगों ने इसे नहीं उठाने की कसम खाई. मीडिया में मामला आने के बाद भी स्थानीय नेता और सांसद ने भी पीड़ित दलितों की सुध नहीं ली. हैरानी की बात यह थी कि इस घटना के दौरान ही संसद का मानसून सत्र शुरू हुआ. लेकिन बहुजन समाज के तकरीबन 250 सांसदों में से किसी के खून में उबाल नहीं आया. तब बसपा प्रमुख मायावती ने अकेले ही इस मामले पर सरकार से मोर्चा लिया और मामले को राज्य सभा में जोर शोर से उठाया. बसपा के विरोध के बीच इस मुद्दे पर लगातार संसद की कार्रवाई रोकनी पड़ी. लेकिन अन्य दलों के दलित सांसदों की चुप्पी चुभने वाली रही. अनुसूचित जाति आयोग ने भी घटना को गंभीरता से लिया और गिर-सोमनाथ जिले के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक को फैक्स भेज कर घटना की शीघ्रता से जांच की मांग की. हालांकि देश भर में समरसता का संदेश देने वाले प्रधानमंत्री मोदी इस पर चुप ही रहे. ना कोई ट्विट ना कोई बयान. बाबासाहेब के इस स्वघोषित ‘भक्त’ को एक बार भी बाबासाहेब के लोगों का दर्द नहीं दिखा. क्यों मारा गया दलित युवकों को गुजरात के उना के समढ़ियाला गांव में बड़ा बाबूलाल सरवैया का परिवार रहता है, जोकि समाज द्वारा थोपे गए पेशे के मुताबिक पारंपरिक तरीके से मरे हुए पशु के चमड़े उतारने का काम करते हैं. 11 जुलाई को बाबूलाल सरवैया को फोन आया की पास के गांव में रह रहे नाजाभाई अहिर की गाय को शेर ने मार दिया है तो उसे ले जाए और अंतिम क्रिया कर दे. फोन के बाद बाबूलाल ने अपने बेटे और अन्य 3 लोगों को मरी हुई गाय को ले आने के लिए बोला. उनके बेटे सहित अन्य तीन युवक जब अपने गांव से दूर सुनसान इलाके में मरी हुई गाय का चमड़ा निकाल रहे थे; तब चार गाड़िया मौके पर आई. गाड़ी में से कुछ लोग उतरे और चिल्ला कर उन्हें गलियां देने लगे. उस समय चमड़ा निकाल रहे वशराम, रमेश, बेचर और अशोक को ये बोल कर मारना चालू किया की ””सालों तुम लोग जिंदा गाय काट रहे हो””? उसके बाद धर्म के स्वघोषित ठेकेदारों ने पाईप और लकड़ियो से चारों युवकों को बेरहमी से पीटना शुरू कर दिया. दलितों ने गौरक्षक दल को बहुत बार बताया कि गाय पहले से ही मरी हुई है और गाय के मालिक ने हमें फोन करके के बुलाया है, लेकिन गौरक्षक दल ने उनकी कोई बात नहीं सुनी. पिटाई के कारण दो दलित व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो गए और अन्य दो लोगों को भी काफी चोटें आयी. पुलिस स्टेशन पर पुलिस वालों के सामने पिटाई होती रही, पर पुलिस नहीं आई मनुवादी गुंडों का आतंक यहीं नहीं रुका. ये लोग चारों युवकों को ””गौरक्षक गिर-सोमनाथ जिला शिव सेना- प्रमुख”” लिखी हुई कार से बांधकर उना शहर में ले गए और पुलिस थाने के सामने पुलिस के सामने ही उनको लगभग 30 लोगों ने मारना शुरू कर दिया. दलित युवक रोते रहे और हाथ-पैर जोड़ते रहे लेकिन फिर भी बारी-बारी से लोग उनको पीट रहे थे. वहां पुलिस थाना था, पुलिस थी लेकिन कोई बाहर नहीं आया और किसी ने युवकों को नही बचाया. ये घटना मोबाईल के कैमरे में रिकार्ड हुई और वायरल हुई. घटना जैसे ही मीडिया तक पहुंची तब जाकर लोग इन युवकों को बचाने के लिए दौड़े. इस दलित दमन के विरोध में उना और गुजरात के कई क्षेत्रों में रैलिया और प्रदर्शन हुए तब जाकर पुलिस ने 6 लोगों को गिरफ्तार किया. अनुसूचित जाति आयोग को फैक्स के बाद सरकार ने पीड़ितों को मुआवजे का चेक दिया और राज्य सभा के दलित सांसद ने पीड़ितों से मुलाकात की. अनुसूचित जाति आयोग के सदस्य राजू परमार का कहना है कि राज्य सरकार दलितों पर हो रहे अत्याचार को लेकर गंभीर नहीं है, इसी कारण राज्य में आए दिन दलितों पर अत्याचार बढ़ रहे हैं. दलित युवकों ने बताया की जब हमें गाड़ी से बांधकर ले जा रहे थे तब पुलिस की एक गाड़ी रास्ते में मिली और पूछने के बाद भी उन्होंने आरोपियों को कुछ नहीं बोला औऱ न ही हमारी मदद की. जब इन्हें आरोपी पुलिस थाने के बाहर डंडों और पट्टे से पीट रहे थे, तब भी पुलिस खामोश रही. पीड़ित युवक के चाचा ने जब 100 नंबर पर पुलिस को फोन किया तब भी पुलिस घटना स्थल पर समय से नहीं पहुंची और इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई. इस दुर्घटना की जिम्मेदार पुलिस प्रशासन और राज्य सरकार भी है. समढ़ियाला गांव में मंदिर में नहीं जा सकते दलित  गुजरात के समढ़ियाला गांव में तीन हजार लोग रहते हैं, जिसमें 250 पाटीदार परिवार और 25 दलित परिवार के लोग हैं, जबकि अन्य संख्या दूसरे अन्य समुदाय के लोगों की है. गांव में दलित मुख्य रूप से मजदूरी का काम करते हैं. गांव का सरपंच जोकि अन्य समुदाय का है उसने बाबूलाल सरवैया को छह महीने पहले भी धमकी दी थी. समढ़ियाला गांव की पंचायत में दलितों को कोई न्याय नहीं मिलता हैं. इस गांव में दलितों का मन्दिर में प्रवेश वर्जित है. यहां दलित किसी भी सार्वजनिक जगह का उपयोग भी नहीं कर सकते. इस गांव में दलितों की स्थिति अत्यंत दयनीय है, लेकिन दलित होने के कारण अन्य जाति का सरपंच भेदभाव कर के बीपीएल आदि में दलितों का नाम भी नहीं रख रहा और मोदी जी का हर घर शौचालय सपना इन पीड़ित दलितों के घर भी नहीं पहुंच सका है. गुजरात में 13 विधायक और तीन सांसद दलित हैं. एक राज्यसभा और दो लोकसभा से सांसद हैं लेकिन एक भी दलित नेता बाहर नहीं आया और उसने घटना का विरोध नहीं किया. किसी ने भी अपने मुंह से ये नहीं बोला कि युवकों को गाड़ी से बांधकर पीटा गया वो गलत हैं. और न ही उन्होंने कसूरवार लोगों को सजा दिलाने की बात की. गुजरात के दलितों का हाल बेहाल गुजरात के उना में हुई दलित अत्याचार की घटना ने पूरे देश में गुजरात की सुरक्षित राज्य की प्रतिष्ठा की पोल खोल दी है, क्योंकि जिस राज्य में दलितों को खुले आम पुलिस थाने के सामने बिना किसी कसूर के पीटा जाए और पुलिस तमाशा बनी देखती रहे; उस राज्य में दलित और गरीब कैसे चैन से रहते होंगें और उनकी हालत क्या होगी? उना की घटना महज एक उदाहरण भर है. ऐसे दर्जनों अत्याचार गुजरात के अलग-अलग जिलों में हर रोज हो रहे हैं. सरकारी आंकडों के मुताबिक गुजरात में हर साल एक हजार दलित अत्याचार का शिकार हो रहे हैं. साल में औसतन 20 हत्या हो रही है तो 45 दलित महिलाओं से दुष्कर्म की घटनाएं हो रही है. ये तथ्य आरटीआई से मिले हैं. बीते दस वर्ष (2006-2015) में दलितों पर हुए अत्याचार की दर्जनों घटनाओं के आंकड़ें मौजूद हैं. यही कारण है की आज गुजरात का हर दलित सड़क पर आकर अपनी सुरक्षा के लिए विरोध कर रहा है. जब दलित सड़कों पर आये तब राज्य की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल उना में पीड़ितों का हालचाल पूछने के लिए घटना के नौ दिन बाद पहुंची. वो भी तब जब राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल ने उना जाने की घोषणा कर दी थी. गुजरात में हर चौथे दिन एक दलित महिला बलात्कार की शिकार होती है. क्यों जोर पकड़ा आन्दोलन ने उना की घटना का विरोध करते हुए दलित समाज के हजारों लोगों ने नगरपालिका और सुरेन्द्रनगर डिप्टी कलेक्टर के ऑफिस को घेर लिया और मृत पशुओं के शव पालिका के ऑफिस में घुसकर टेबल पर रख दिए. इसके अलावा गुस्साए लोगों द्वारा मृत पशुओं के शव ट्रॉली में भरकर जिले के विभिन्न सरकारी कार्यालयों में भी फेंके गए. दलित समाज ने हुंकार किया की गौरक्षक अब करें इन मृत गायों का अंतिम संस्कार. अब हम नहीं करेंगें ये काम. इसके अतिरिक्त दलित उत्पीड़न के विरोध में 25 लोगों ने कीटनाशक दवाई पीकर आत्महत्या करने का प्रयास किया. 20 जुलाई को विरोध प्रदर्शन में शामिल एक प्रदर्शनकारी ने खुद को आग लगा ली, जिसमें वह 40 फीसदी तक जल गया. घटना बोटाड जिले की है. प्रदर्शनकारी दलित समाज के युवकों पर हुए अत्याचार को लेकर इतना क्रोध्रित था कि उसने खुद को आग लगा ली. विरोध प्रदर्शन में बसें फूंकी गई और चक्का जाम किया गया. गुजरात में दलित समाज का आंदोलन उग्र रूप ले चुका है और अन्य राज्यों के दलित गुजरात के इस दलित आंदोलन से जुड़ रहे हैं. इस लड़ाई में दलितों के साथ कुछ ओबीसी नेताओं ने भी विरोध किया और अहमदाबाद में मुस्लिम युवाओं ने भी आवेदन पत्र देकर अपनी हमदर्दी व्यक्त की लेकिन सवर्ण समाज से दलितों के पक्ष में कोई नहीं आया. जांच के आदेश मामले में चारो ओर से फजीहत होने के बाद गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने इस घटना की जांच करने का आदेश सीआईडी को दे दिया है, लेकिन जांच कब तक पूरी होगी इसका कोई अनुमान नहीं है. सरकार मामला शांत कराने के लिए जांच के आदेश तो दे देती है लेकिन डेढ़-दो महीने में पोथी बना कर फेंक देती है. वैसे भी देश में ज्यादातर सीबीआई और सीआईडी जांच का यही हश्र होता है. सवाल उठता है कि आखिर जब घटना का विडियो मौजूद है और तमाम आरोपी चिन्हित किए जा चुके हैं तो ऐसे में उनके खिलाफ जल्द से जल्द कार्रवाई कर दलितों को इंसाफ क्यों नहीं दिलाया जा सकता? पहले भी हुई है इस तरह की घटना उना से पहले भी गुजरात के राजुला में दलितों को इसी तरह पीटा गया था. कथित गौभक्तों ने दलितों को लोहे की रॉड से बुरी तरह से मारा था. इस पूरे मामले में पीड़ितों द्वारा कथित गौभक्तों पर कार्रवाई करने के लिए आवेदन किया, लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई. इस घटना का ऑडियो-वीडियो भी जारी हुआ था. इस मामले में कथित गौरक्षक राजुला में दस से अधिक काठी कौम के स्वघोषित गौरक्षक गाड़ी से पहुंचे थे. वो दलितों को बुरी तरह से मार कर उन्हें पुलिस स्टेशन ले गए. उन्हें झूठे मामले में फंसा देने की धमकी दी. दलित समाज की गुहार के बाद भी पुलिस ने कोई कदम नहीं उठाया. मामला अभी तक ठंडे बस्ते में है. सौराष्ट्र में दलितों पर अत्याचार अभी तक दलितों को मार डालने से लेकर उन्हें घायल करने तक के मामले अमरेली, पोरबंदर, सुरेंद्र नगर, गिर-सोमनाथ समेत सौराष्ट्र के कई जिलों में हुए हैं. इस मामले में अभी तक कोई सख्त कार्रवाई नहीं हुई है. पोरबंदर के सोढाणा में तो सरपंच समेत 40 लोगों के दल ने जुलाई की शुरुआत में दलितों पर एक जमीन के मामले में हमला बोल दिया था, जिसमें शींगरखिया नाम के दलित समुदाय के व्यक्ति की मौत हो गई थी. थानगढ़ में पुलिस ने 3 दलितों को गोली मार दी थी! 22-23 सितम्बर 2012 को सुरेंद्रनगर के थानगढ़ में पुलिस फायरिंग में 26 साल के युवा पंकज अमरसिंह सुमरा, 16 साल के मेहुल वालजीभाई राठौर और 15 वर्षीय प्रकाश बाबुभाई परमार की मौत हो गई थी. स्थानीय लोगों का आरोप है कि पुलिस ने इन्हें जानबूझ कर मार डाला था. मृतक परिवार को अभी तक न्याय नहीं मिला है. कई गांवों से दलितों ने किया है पलायन – पोरबंदर के विंजराणा गांव के अनुसूचित जाति के लोगों पर स्थानीय लोगों ने हमला किया, जिसके बाद वह गांव से पलायन कर गए. फिलहाल वो पोरबंदर एयरपोर्ट के पास सीतानगर की एक झोपड़ी में रहने को विवश हैं. – पोरबंदर के कुतियाणा के भोडदर में कुछ उग्र लोगों ने दलित परिवार के चार मकानों को तोड़ दिया और फसल को भी नुकसान पहुंचाया. कुछ दिन तो पुलिस सुरक्षा मिली लेकिन बाद में पुलिस द्वारा दिए गए संरक्षण को वापस ले लिया गया. पूरा परिवार गांव से पलायन कर गया. – ऊना तहसील के आकोलाणी गांव में एक दलित युवा को जिंदा जला दिया गया. इस घटना के बाद दलित परिवार के 14 सदस्यों ने वहां से पलायन कर दिया. -डीसा के घाडा के दलित युवा को ट्रैक्टर से रौंद कर मारा डाला गया. इसके बाद डरे हुए 27 दलित परिवार गांव से पलायन कर गए. -पाटण की मीठीवावड़ी में दलितों के साथ झगड़ा होने पर स्थानीय ग्रामवासियों ने उनका सामाजिक बहिष्कार किया था, जिससे दो दलित परिवार पाटण से पलायन कर गए। -पाटण के बावरडा में दलितों पर हमला कर उग्र तत्वों ने जमीनें हथिया ली. इस समय वह परिवार कच्छ के गांधीधाम में अपना जीवन गुजार रहा है. – साणंद के कुंडल में दलितों को स्थानीय शिवमंदिर में जाने की इजाजत नहीं थी. दलितों ने इसकी शिकायत पुलिस से की. लेकिन गांव के आतंकी गुंडों को इसकी जानकारी मिल गई और उन्होंने दलितों को धमकाया. इससे डर कर दलित परिवारों को वहां से पलायन करना पड़ा. “दलित दस्तक” मासिक पत्रिका की यह कवर स्टोरी है।

राह दिखाता गुजरात दलित आंदोलन

उना से शुरू होकर पूरे गुजरात में फैल चुके दलित आंदोलन ने न सिर्फ दलितों की मुक्ति की राह दिखाई है, बल्कि यह देश भर में उत्पात मचाने वाले सांप्रदायिक-जातिवादी हत्यारे गिरोहों का एक मुंहतोड़ जवाब भी पेश कर रहा है. यह आंदोलन इसलिए भी अनोखा है कि इसने भारतीय समाज के एक और सबसे सताए हुए समुदाय मुसलमानों को अपने साथ जोड़ा है. दलित-मुस्लिम एकता की यह मिसाल किसी चुनावी फायदे के लिए नहीं है बल्कि यह जुल्म और शोषण से अपनी आजादी के लिए एक शानदार कोशिश है. गुजरात में मोटा समाधियाला गांव और उना कस्बे में हुए अत्याचारों के खिलाफ भड़के दलितों के आंदोलन में दलितों के नए सिरे से जाग उठने का संकेत हैं. 11 जुलाई को यहां एक परिवार और इसके चार दलित नौजवानों को गाय की रक्षा की ठेकेदारी करने वाले गिरोह ने सबकी आंखों के सामने पीटा. 1970 के दशक में दलित पैंथर्स के बाद से कभी भी दलितों ने कभी भी इतने बागी तरीके से और भौतिक सवालों के साथ कोई पलटवार नहीं किया था. यों, देश में दलितों पर अत्याचार हर जगह होते हैं और गुजरात में जो कुछ हुआ, वे उससे कहीं ज्यादा खौफनाक होते हैं. लेकिन दूसरे अत्याचारों और उना में हुए इस अत्याचार में फर्क बस वो दुस्साहस है, जिसके साथ हमलावरों ने अपनी कार्रवाई का वीडियो बना कर इसे सोशल मीडिया पर डाल दिया. इससे जाहिर होता है कि उनको इस बात का पक्का यकीन था कि उन्हें अपने अपराधों के लिए कभी भी सजा नहीं मिलेगी. 2002 में इसी तरह के गौरक्षा के गुंडों ने दुलीना (झज्झर), हरियाणा में पांच दलितों को पीट-पीट कर मार देने के बाद उनमें आग लगा दिया था और इस घटना को छोड़ दें तो ऐसी घटनाओं की कभी भी ऐसी कोई जोरदार प्रतिक्रिया नहीं हुई. खुद गुजरात में ही सितंबर 2009 में सुरेंद्रनगर जिले के थानगढ़ में एक मेले में दलितों और ऊंची जाति के नौजवानों के बीच में एक छोटी सी झड़प में राज्य पुलिस ने तीन दलित नौजवानों को मार डाला था. बेशक, काफी हद तक थानगढ़ और ऐसी ही घटनाओं पर जमा हुए गुस्से और राज्य द्वारा इन अत्याचारों पर कोई भी कार्रवाई नहीं किए जाने से ही वह नाराजगी पैदा हुई है, जो मौजूदा आंदोलन के रूप में सामने आई है. उना पुलिस थाने के करीब, कमर तक नंगे और एक एसयूवी में बंधे चार दलित नौजवानों को लोगों द्वारा सबकी नजरों के सामने बारी बारी से बेरहमी से पीटे जाने का वीडियो वायरल हुआ और इसने सब जगह पर गुस्से की एक लहर दौड़ा दी. शायद रोहिथ वेमुला के नक्शे कदम पर चलते हुए नाराजगी की पहली लहर में राज्य में अलग अलग जगहों पर करीब 30 दलित नौजवानों ने खुदकुशी करने की कोशिश की. इन्हीं में से कीटनाशक पी लेने वाले 23 साल के एक नौजवान योगेश सरिखड़ा की अस्पताल में मौत हो गई. लेकिन जल्दी ही इसके बाद विरोध का एक ऐसा बगावती तेवर सामने आया, जिसे आंबेडकर के बाद दलितों ने कभी भी नहीं आजमाया था. आंबेडकर ने दलितों से कहा था कि वे मवेशियों की लाशों को ढोना बंद कर दें. जब कुछ ब्राह्मणों ने यह दलील दी कि वे दलितों की कमाई का नुकसान कर रहे हैं, तो उन्होंने गुस्से में इसका जवाब देते हुए ऐलान किया था कि अगर दलित ऐसा करेंगे तो वे उन्हें नकद इनाम देंगे. बदकिस्मती से, सारे दलितों ने उनकी सलाह पर अमल नहीं किया और यह प्रथा आज तक चली आ रही है. आंबेडकर ने उन्हें ऐसे सभी पेशों को छोड़ने की सलाह भी दी थी, जो साफ-सुथरे नहीं हैं, लेकिन दलित कुछ तो अपने गुजर-बसर की जरूरतों के लिए और कुछ प्रभुत्वशाली समुदायों के दबाव के तहत उनको अपनाए हुए हैं. आधे पेट खा कर इज्जत के साथ जिंदगी गुजारने के अलावा आंबेडकर ने कोई और विकल्प नहीं पेश किया था. लेकिन गुजरात में चल रहे इस मौजूदा आंदोलन को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि इसने यह वाजिब मांग भी जोड़ी है कि अपने जातीय पेशों को छोड़ने वाले हरेक दलित को खेती लायक पांच एकड़ जमीन दी जाए. इस रूप में दलितों के पास एक मजबूत हथियार तो है ही, उनके पास हिंदुत्व ब्रिगेड का एक मुंहतोड़ जवाब भी है, जिस पर गाय की रक्षा का सनक सवार है. घटना के एक हफ्ते बाद गांवों के बेशुमार दलित मरी हुई गाएं ट्रैक्टरों में भर कर ले आए और उन्हें गोंधल और सुरेंद्रनगर के सरकारी दफ्तरों के सामने डाल दिया. दलितों के इस स्वत:स्फूर्त आंदोलन का संयोजन करने के लिए एक नौजवान दलित कार्यकर्ता जिग्नेश मेवाणी की पहल पर बनी उना दलित अत्याचार लड़त समिति ने ऐलान किया कि दलित मरे हुए मवेशियों को उठाना बंद कर देंगे. उन्होंने सरकार से कहा कि वे शिव सैनिकों और खुद को गौ रक्षक कहने वालों से कहे कि वे सड़ती हुई लाशें उठाएं और उनका संस्कार करें. टाइम्स ऑफ इंडिया (28 जुलाई 2016) ने खबर दी कि कुछ ही दिनों के भीतर सड़ती हुई लाशों की बदबू ने गौरक्षकों और उनके सरपरस्त, राज्य, के होश ठिकाने ला दिए. समिति ने दायरा बढ़ाते हुए मैला साफ करना बंद करने का आह्वान भी किया है, जिसके वजूद को खुद अपनी ही एजेंसियों द्वारा कबूल किए जाने के बावजूद सरकार लगातार नकारती रही है. अगर दलितों ने सामूहिक रूप से अपने दलितपन से जुड़े बस इन दो कामों को छोड़ने का फैसला कर लिया तो जाति के पूरे निजाम को शिकस्त दी जा सकती है. अपनी असुरक्षा और प्रभुत्वशाली समुदायों की तरफ से होने वाले जवाबी हमलों के डर से वे ऐसा करने में नाकाबिल रहे हैं. इन गंदे कामों में लगा दिए गए दलित मुख्यधारा से दूर, अलग-थलग कर दिए जाते हैं, जिनके लिए सामाजिक तौर पर ऊपर उठने की गुंजाइश न के बराबर होती है. गुजरात को हिंदू राष्ट्र की प्रयोगशाला के रूप में लिया जाता रहा है, जहां हम इसके असली चेहरे को साफ-साफ देख पाते हैं. एक तरफ जहां 2002 के कत्लेआम के जरिए मुसलमानों को उनकी हैसियत साफ-साफ बता दी गई कि भारत में रहने का अकेला तरीका यह है कि उन्हें हिंदुत्व की शर्तों पर रहना होगा और इस्लामी हिंदू बनना कबूल करना होगा. वहीं दूसरी तरफ दलितों को अपने साथ मिला कर, इनाम देकर या सजाओं की अनेक तहों वाली तरकीबों के जरिए उलझाए रखा गया. पहले 1981 में और 1985 में फिर से आरक्षण संबंधी दंगों में दलितों को इसी से मिलता-जुलता सबक सिखाया गया था, जो 2002 में मुसलमानों पर हुए हमलों से कहीं ज्यादा व्यापक थे और कहा जाता है कि जिनमें करीब 300 दलितों ने अपनी जान गंवाई थी. बार-बार होने वाले इन हमलों ने पहले से ही कमजोर उनकी चेतना पर अंकुश लगा दिए और जल्दी ही उन्हें 1986 के जगन्नाथ यात्रा जुलूसों में शामिल होते हुए देखा गया. लेकिन उनके दुख-दर्द पर इस मेल-मिलाप का कोई फर्क नहीं पड़ा. इसके उलट उन्होंने पाया कि उनकी बदहाली साल दर साल बढ़ती ही जा रही है, जैसा कि अत्याचारों के आंकड़े इसे उजागर करते हैं. आमफहम धारणा के उलट, दलितों पर अत्याचार करने में गुजरात हमेशा ही सबसे ऊपर के राज्यों में रहा है. भाजपा ने कभी भी यह दावा करने का मौका हाथ से जाने नहीं दिया कि गुजरात दलितों के खिलाफ अपराधों की सबसे कम दरों वाला राज्य है. हाल ही में इसने पिट्ठू ‘दलित नेताओं’ और ‘बुद्धिजीवियों’ का एक जमावड़ा खड़ा किया है, जो इसकी तरफ से यही राग अलापने का काम कर रहा है. मिसाल के लिए उना अत्याचारों के संदर्भ में एनडीटीवी पर एक बहस के दौरान और फिर इसके बाद द वीक (7 अगस्त 2016) में लिखे गए एक लेख में नरेंद्र जाधव ने यह दिखाने की कोशिश की कि गुजरात बड़े अत्याचारी राज्यों में नहीं आता. संघ परिवार के साथ अपने तालमेल के लिए राज्य सभा सीट से नवाजे गए जाधव ने बताया, “2014 में ऊपर के तीन राज्य उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार थे. अब बहस का मुद्दा बने गुजरात में असल में 2014 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपराधों की कहीं कम दर – 2.4 फीसदी – रही है जबकि ऊपर बताए गए राज्यों में यह 17 फीसदी से 18 फीसदी रही है.” उन्होंने जानबूझ कर गलत आंकड़े बताए. क्राइम इन इंडिया 2014 में तालिका 7.1 घटनाओं की दरें मुहैया कराती है, जिनमें गुजरात की दर 27.7 (प्रति लाख एससी आबादी पर अत्याचारों की संख्या) है जो उत्तर प्रदेश के 18.5 से कहीं अधिक है. दिलचस्प बात यह है कि 2014 में गुजरात की हालत बेहतर दिखती है. इसके पहले से बरसों में गुजरात अत्याचारों के मामले में लगातार ऊपर के चार से पांच राज्यों में आता रहा है. 2013 में, जब आने वाले आम चुनावों और प्रधान मंत्री पद के लिए उनकी उम्मीदवारी की ताजपोशी के दौर में नरेंद्र मोदी का वाइब्रेंट गुजरात प्रचार अभियान अपने चरम पर पहुंचा, दलितों के खिलाफ अपराधों की दर इसके पहले वाले साल 2012 के 25.23 से बढ़ कर 29.21 हो गई थी. इसने राज्य को देश का चौथा सबसे बदतर राज्य बना दिया. हत्या और बलात्कारों जैसे बड़े अत्याचारों के मामले में भी गुजरात ज्यादातर राज्यों को पीछे छोड़ते हुए ऊपर बना हुआ है. [देखें मेरा लेख: क्यों भाजपा के खिलाफ खड़े हो रहे हैं दलित] गुजरात में दलितों के आंदोलन ने सीधे-सीधे इन मतलबी दलित नेताओं और बुद्धिजीवियों को किनारे कर दिया है. इसने दिखाया है कि दलितों का सामूहिक आक्रोश खुद ही अपना चेहरा, अपने संसाधन और अपनी विचारधारा हासिल कर लेता है. द्वंद्ववाद का यह अनोखा फेर है कि दलितों की मुसीबतों का हल हिंदू राष्ट्र की प्रयोगशाला में तैयार हो रहा है! आनंद तेलतुंबड़े का लेख. अनुवाद: रेयाज उल हक.

दीपा कर्मकार हम शर्मिंदा हैं…

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भारत के लिए ओलंपिक में पदक की उम्मीद जगाने वाली दीपा कर्मकार की ओर सारा देश उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है. दीपा 14 अगस्त को फाइनल के लिए उतरेंगी. जाहिर है जब दीपा अपना प्रदर्शन कर रही होंगी तो सारा भारत सांस रोके उनको देख रहा होगा. लेकिन जिस दीपा कर्मकार ने भारत को ओलंपिक पदक की दहलीज पर ला खड़ा किया है, देश भर में हर भारतीय मन ही मन जिस दीपा कर्मकार की सफलता की दुआ कर रहा है…. उसी देश की खेल व्यवस्था ने दीपा के साथ उसके फीज़ियोथेरेपिस्ट को यह कह कर नहीं जाने दिया कि इसकी कोई जरूरत नहीं है. फ़ीजियो को साथ लेकर जाना पैसे की बर्बादी है. भला हो इस देश का जहां ऐसी सड़ांध व्यवस्था में भी खिलाड़ी अपने जज्बे से एक-दो पदक ला कर दे देते हों…. राष्ट्र के नाम पर गर्व करने लायक व्यवस्था तो अपने पास है ही नहीं बाकी जुमलेबाजी सत्ता पक्ष से या विपक्ष से चाहे जितनी हो जाए.

गुजरातः विरोध के लिए उना पहुंचने लगे दलित

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अहमदाबाद।  गुजरात के उना में दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार के विरोध में विगत 5 अगस्त से जारी दलित अस्मिता यात्रा 15 अगस्त को उना पहुंचेगी. इस क्रम में गुजरात के विभिन्न हिस्सों से लोग उना पहुंचने की तैयारी में लग गए हैं. प्रदेश के कई हिस्सों में उत्साही युवा बाइक के जरिए उना पहुंचने की तैयारी में है. गुजरात के भावनगर के युवा 500 मोटरबाईक की रैली लेकर उना पहुंचेंगे. इस रैली में तमाम दलित संगठनों के लोग औऱ दलित अधिकार के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं के साथ ही आमलोग भी शामिल है. यह मोटर रैली 13 अगस्त को भावनगर से निकलेगी और 15 अगस्त को उना पहुंचेगी. गुजरात में दलितों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन 15 अगस्त को उना में समाप्त होगा. उना में ध्वजारोहण तक इस रैली का हिस्सा रहेंगे. इस दौरान यह यात्रा प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से गुजर रही है. यात्रा जहां से भी गुजर रही है, वहां इस यात्रा के अगुवा जिग्नेश मेवाणी दलित समाज के लोगों को मैला नहीं उठाने, सीवर की सफाई नहीं करने और मरे हुए जानवरों की खाल नहीं उतारने की प्रतिज्ञा दिलवा रहे हैं. गौरतलब है 11 जुलाई के दिन तथाकथित गौरक्षकों ने उना के चार दलितों की बेहरमी से पिटाई कर दी थी, जिसके बाद से दलितों में रोष है और सरकार के खिलाफा विरोध प्रदर्शन कर रही हैं.

दलित वीर और वीरंगनाओं पर भी ध्यान दें

भारतीय आजादी के इतिहास को दर्शाने के मौके पर देश के इतिहासकार और लेखक दलित वीर और वीरांगनाओं की कुरबानी एवं उनकी वीर गाथाओं को उजागर करने की बजाय उस पर पर्दा डालने का काम करते रहे हैं. इन वीर और वीरांगनाओं की सूची बहुत लंबी है और उनका इतिहास भी बहुत गौरवशाली रहा है. लेकिन भारतीय इतिहास को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि देश के दलितों व आदिवासियों के गौरवशाली इतिहास को रेखांकित करते समय गैर दलित लेखकों के शब्द चुक जाते हैं या कहें की इनकी कलम की स्याही सूख जाती है. अब तक इनके द्वारा लिखित झूठ एवं भ्रामक तथ्य कदम-कदम पर पकड़ा जाता रहा है. रानी झांसी का किस्सा तो बहुत पहले उजागर हो ही चुका है. अतः कुल मिलाकर गैर-दलित इतिहासकारों की नजरों में कोरी जाति से संबंध रखने वाली महिला झलकारी बाई भला वीरांगना कैसे हो सकती हैं. जलियांवाला बाग घटना की आज भी बड़े जोर-शोर से चर्चा की जाती है और प्रत्येक वर्ष इस घटना को याद किया जाता है. लेकिन सत्य तथ्य को दर्शाने से गैर-दलित बंगले झांकने लगते हैं या फिर चुप्पी साध कर रह जाते हैं. ये आज भी जानबूझ कर सच्चाई को सामने लाना नहीं चाहते, क्योंकि उस जलियांवाला बाग में ब्रिटिश हुकूमत की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले गैर दलित नहीं थे. उस दिन यानि 13 अप्रैल 1919 को आजादी के दीवानों की सभा बुलाने वाला महान क्रांतिकारी दलित योद्धा नत्थू धोबी था. उस दिन उस सभा में भारी संख्या में जुझारू दलित कार्यकर्ता ही शामिल हुए थे. इस बात का सबूत जनरल डायर के वे आंकड़े हैं जो यह दर्शाते हैं कि उस कांड में मारे गए 200 लोगों में से 185 दलित समाज के लोग थे. दिल को दहला देने वाले इस कांड में अंग्रेजी फौज की गोलियों के शिकार हुए दलितों में सभा संयोजक नत्थू धोबी, बुद्धराम चूहड़ा, मंगल मोची, दुलिया राम धोबी आदि प्रमुख अमर शहीद रहे हैं. लेकिन जलियावाला बाग की चर्चा करते हुए इतिहासकार और लेखक इस तथ्य से आंखे मूंदे रहते हैं. 12 अगस्त, 1942 के दिन इलाहाबाद की कोतवाली पर लगे यूनियन जैक झण्डे को उतार कर उसकी जगह भारतीय तिरंगा झण्डा फहराने वाला अमर बलिदानी भारत मां का सपूत ननकू होला था. एक महत्वपूर्ण उदाहरण और भी है. औरंगजेब के कब्जे से सिक्खों के नौवें गुरू तेग बहादुर सिंह का सिर लाने का जौहर दिखाने वाला भाई जैता (जीवन सिंह) के छोटे भाई संगत सिंह ने भी इस आंदोलन में सहयोग देते हुए अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी. गुरु गोविन्द सिंह के लिए उनके आदेश का पालन करते हुए जो पंज-प्यारे बलिदान देने के लिए आगे आएं उनमें से तीन दलित समाज के ही योद्धा थे. चौरी-चौरा कांड को ही लें, इस कांड में क्रांतिवीर रामपति चमार के नेतृत्व में 5 फरवरी, 1922 को ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिला देने वालों में आजादी के दीवाने पांच हजार दलितों की उग्र भीड़ ने थाने में आग लगाकर 23 पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया था. अंग्रेजी गजट में दर्ज इस कांड में 272 लोगों का चालान तथा 228 को सेशन के सुपुर्द कर दिया गया. क्रांतिवीर रामपति चमार, सम्पत चमार, दुधई राज सहित 19 भारत मां के दलित सपूत 2 जुलाई 1923 ईस्वी को फांसी पर झूल कर अमर हो गए, जबकि 14 सपूतों को आजीवन कारावास की सजा मिली. 38 लोग रिहा हुए और शेष को 2 से 8 वर्ष तक की सजा हुई. इन सजा पाने वालों में से भी छोटूराम पासी, अयोध्या चर्मकार, कुल्लु चर्मकार, अलगू पासी, फुलई, बिरजा, गरीबा, रामसरन पासी, जगेसर, नोहर, मड़ी चर्मकार, रघुनाथ पासी, रामजस पासी आदि प्रमुख रहे. इस देश की दलित वीरांगनाएं भी स्वाभिमान की रक्षा एवं देश की आजादी में अपना जौहर दिखाने में पीछे नहीं रही हैं. भारत मां को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए अपने जीवन का बलिदान देने वाली अमर शहीद वीरांगना महाबीरी देवी मेरठ वाली दलित ही थी. महाबीरी देवी अपने नाम के अनुरूप बड़ी निडर एवं साहसी थीं. उसने बर्बर अंग्रेजों की फौज के 18 सैनिकों को मौत के घाट उतारा था, लेकिन कितनी हैरानी की बात है कि वीर योद्धा मातादीन हेला की तरह से वीरांगना महाबीरी देवी को भी इतिहास से बिसरा दिया गया है, जबकि होना यह चाहिए था कि समय-समय पर देश के सभी वीर और वीरांगनाओं को श्रद्धापूर्वक याद किया जाना चाहिए.

जब लड़ने को खड़े हुए, तब ही पीएम मोदी का बयान क्यों आया?

जब तक दलित पिट रहे थे तब तक मोदी का बयान नही आया. जब वो लड़ने उठ खड़े हुये तब मोदी क्यो बोले? क्यों? लड़ने वालो को इस बयान की क्या जरूरत है? अपने बयान से वो दलितो की मदद कर रहे हैं या उन्हे भ्रमित कर भाजपा की मदद कर रहे हैं? मोदी का बयान लड़ने उठ खड़े दलितों को भ्रमित करने का मनिवैज्ञानिक हमला मात्र है. गौरक्षको के हमले का प्लान भी. मुस्लिम तो मारे तक गये, उनके लिये तो अब भी नही बोले. गौर से देखिये मुसलमान लड़ने को नही खड़े हुये तो उनके लिये मोदी ने कुछ नहीं बोला. क्या मोदी जी अपने गौरक्षको को ये कह रहे हैं कि सिर्फ मुस्लिमो पर हमला करो? जाहिर है वो एक रणनीति के तहत फिर से बेईमानी कर रहे हैं जिसकी उनके चरित्र को देखते हुये उनसे उम्मीद की जाती है. लड़ते दलितों को आपके बयान की जरूरत नहीं है मोदी जी. बतौर प्रधानमंत्री अपनी ड्यूटी करिए और कोई एक्शन लेना हो तो लीजिये, उसके लिये एहसान मत दिखाइये. पिटने वाला दलित अब लड़ेगा और बहुजन बनेगा. लड़ाई लड़ने के लिये उठे बहुजनों अपना सशक्तीकरण और देश के दुश्मनो की अपनी समझ को बनाये रखो, आपके शोषण करने वाले इन नफरत से भरे अमानुष देशद्रोही संघियो को आपका अपना बताने कि कोशिश कर भ्रमित करने वाले मक्कारो के बयान आयेंगे. मोदी सिर्फ एक भ्रम पैदा कर रहे हैं कि बहुजनो को खुद लड़ने की जरूरत नही हैं मैं हूँ. ये झूठ है आपकी लड़ाई की प्रेरणा को तोडने के लिये. अपनी समझ बनाये रखो, और उद्देश्य भी.​

गुजरात दलित मार्च को मिला विदेशों से समर्थन, अमेरिका और कनाडा में भी होगा विरोध प्रदर्शन

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कैलिफोर्निया। बाबासाहेब अम्बेडकर को मानने वाले लोग पूरे अमेरिका और कनाडा में “आजादी के लिए गुजरात दलित मार्च” का समर्थन करेंगें और दलितों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करेंगें, 12 अगस्त से इसकी शुरूआत कोपले स्क्वेयर और हारवर्ड स्क्वेयर सहित पूरे विश्व में होगी. सभी अम्बेडकराइट लोग 12 अगस्त से 15 अगस्त तक विश्व की अलग-अलग जगह पर प्रदर्शन करेंगें और इसे सोशल मीडिया के सभी माध्यमों से पब्लिश करेंगें. मुख्यधारा की मीडिया गटर बन गई जो कि सिर्फ ज्योतिष, बॉलीवुड, क्रिकेट, फर्जी बाबाओं के प्रचार और हिंदूत्वादी सीरियल को प्रोमोट करती है. भारत में दलितों पर अत्याचार और मुसलमानों पर ज्यादतियां बढ़ रही हैं. ये लोग जानवरों की सुरक्षा के नाम पर स्वयं जानवर बन रहें हैं. इन्होंने देश को हिंदू तालिबान बना दिया है. अम्बेडकरवादी विचारों को मानने वाले लोग “आजादी के लिए गुजरात दलित मार्च” का समर्थन करने के लिए एक-दूसरे संगठनों से सहमत है. अम्बेडकरवादी भारत के सभी राज्यों और शहरों में 15 अगस्त तक एकजुट होकर दलित मार्च का समर्थन करेंगें. अम्बेडकरवादियों का कहना है कि यह समय करो या मरो का है, अपने बच्चों और पोतों के लिए, भविष्य में हमें बिना जाति के जीना है. अब बर्दाश्त नहीं होगा. अम्बेडकर एशोसिएशन नॉर्थ अमेरिका, अम्बेडकर इंटरनेशनल मिशन, बोस्टन स्टडी ग्रुप, अम्बेडकर इंटरनेशनल सेंटर, अम्बेडकर एसोसिएशन ऑफ कैलिफोर्निया और अन्य प्रगतिशील समूह “आजादी के लिए गुजरात दलित मार्च” का समर्थन करता है और 13 अगस्त को सेन फ्रांसिस्को के बाजार में भी प्रोटेस्ट करेंगे. ये संगठन विदेशों में रहने के बाद भी भारत से अधिक एक्टिव है और भारतीय प्रशासन को हिलाने की क्षमता रखता है.

बिहारः 38 सीटों पर होगा सामान्य वर्ग का कब्जा

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पटना। जातिगत भेदभाव बिहार के शिक्षा संस्थानों में तेजी से बढ़ रहा है. कुछ दिन पहले ही पटना में दलित छात्रों पर पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया था. अब मामला शैक्षणिक संस्था में आरक्षण की नीति में परिवर्तन करने को लेकर उठा है. बिहार के शिक्षामंत्री डॉ. अशोक चौधरी ने आरक्षण विरोधी और संविधान विरोधी निर्देश कॉलेजों को दिया है. उन्होंने आरक्षित सीटों पर सामान्य वर्ग के छात्रों के दाखिला करने के आदेश दे दिए है.  इस चौधरी के इस आदेश की छात्रों ने निंदा की हैं. राज्य के टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेजों में सभी खाली सीटें भरी जाएंगी. इसके लिए सरकार आरक्षण नियम में बदलाव करेगी. इन कॉलेजों में एडमिशन की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है. पांच टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेजों में आरक्षित कोटे की कुछ सीटें खाली रह गई हैं. इन सीटों को भरने के लिए सरकार ने आरक्षण नियमों में संशोधन करते हुए खाली रह गई सीटों पर सामान्य श्रेणी के विद्यार्थियों का एडमिशन लेने पर सहमति दे दी है. सरकार की इस सहमति से दलित वर्ग के छात्र ने इस नीति का विरोध किया है. छात्रों ने मांग की है कि आरक्षित सीटों पर सिर्फ आरक्षण वाले विद्यार्थी ही दाखिला लेंगें.

कुश्ती में भारत को कांस्य पदक दिलाने वाले इस ओलंपियन से मिलिए

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आज ओलंपिक में जब मूलनिवासी समाज की दीपा कर्माकर ने भारत के लिए एक उम्मीद जगा दी है, तो ऐसे में महान ओलंपिक खिलाड़ी ‘खाशाबा दादासाहेब जाधव उर्फ के.डी.जाधव’ का जिक्र करना भी जरूरी है. इस महान ओलंपिनय ने 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक के बैंटमवेट वर्ग कुश्ती में कांस्य जीत कर विश्व फलक पर भारत को इज्जत दिलाई थी. भारत के लिये ओलंपिक की व्यक्तिगत खेल स्पर्धा में यह पहला पदक था. लेकिन एक दूसरी सच्चाई यह भी है कि ओलंपिक जैसे मंच पर भारत की नाक ऊंची करने वाले इस खिलाड़ी को भारत का पद्म सम्मान भी नसीब नहीं हुआ. महाराष्ट्र में जन्में के. डी. जाधव को हेलसिंकी ओलंपिक के लिए टीम चयन के दौरान साजिश का सामना करना पड़ा था. हालांकि तमाम मशक्कत के बाद आखिरकार अपनी प्रतिभा साबित कर उन्होंने ओलंपिक में अपनी जगह बना ली थी. तब जाधव के आर्थिक हालात ठीक नहीं थे. उन्होंने सरकार से सहायता मांगी, लेकिन जाधव की आर्थिक मदद की मांग को तात्कालीन सरकारों ने अनसुना कर दिया था. तब उन्होंने गांव में चंदा मांगकर, अपनी सम्पति और घर गिरवी रखकर ओलंपिक जाने के लिये धन जुटाया था. वापस आने पर के. डी ने कई कुश्ती प्रतियोगिताओं को जीतकर लोगों का पैसा वापस कर एहसान चुकाया था. गरीबी एवं संघर्ष के बावजूद खुद्दारी में जीवन जीते हुये के. डी. जाधव की मौत 1984 में सड़क दुर्घटना में हो गई. महज आश्चर्य ही नहीं बल्कि शर्म की बात है कि ओलंपिक पदक के 50वें साल और उनकी मृत्यु के 15वें साल में 2001 में जाकर उन्हें अर्जुन सम्मान मिल सका. इस बीच एक तथ्य यह भी है कि जाधव अकेले ऐसे ओलंपिक पदक विजेता हैं जिनको कोई पद्म सम्मान नहीं दिया गया. एक गरीब परिवार औऱ तमाम संघर्ष से निकलकर दुनिया में भारत का नाम रौशन करने वाले एक गैरद्विज खिलाड़ी की उपेक्षा का यह मामला साधारण नहीं है, बल्कि गंभीर पक्षपात एवं सामाजिक पूर्वाग्रह का मामला भी दिखता है. हालांकि एक तथ्य यह भी है कि ओलंपिक में ज्यादातर बार मूलनिवासी (दलित-आदिवासी-पिछड़े) समाज के प्रतिभाओं ने ही देश का मान रखा है. चाहे वो हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद्र हों, मुक्केबाज मैरीकॉम हो, निशानेबाज दीपीका कुमारी हो या फिर अब दीपा कर्माकर. ‘ध्यानचंद’ के साथ ‘के.डी. जाधव’ को भारत रत्न से सम्मानित कर भारत के माथे पर लगे इस पक्षपात और पूर्वाग्रह के कलंक को धोने का काम वर्तमान या भविष्य की कोई भारत सरकार कब करती है इसका इंतजार रहेगा. स्वतंत्रता दिवस से एक दिन पहले ही 14 अगस्त को के.डी. जाधव की पुण्यतिथि होती है. इस महान ओलंपियन और देश का मान बढ़ाने वाले प्रेरणा पुरुष को नमन. (जन्म: 15 जनवरी, 1926- मृत्यु: 14 अगस्त, 1984)

बहुजन बाला दीपा कर्माकर से गोल्ड मेडल की उम्मीद

ब्राजील के रियो के मशहूर मरकाना स्टेडियम में ‘सांबा’ नृत्य के साथ खेलों के महाकुम्भ ओलम्पिक की शुरुआत हो चुकी है. इसमें हिस्सा ले रहे 209 देशों के 11,000 से अधिक खिलाड़ियों ने अपना जौहर दिखाना शुरू कर दिया है. अमेरिका की युवा निशानेबाज वर्जिनिया थ्रेसर ने रिओ ओलम्पिक का पहला गोल्ड जीत कर गोल्ड मैडल जीतने की होड़ की शुरुआत कर दी है. ओलम्पिक के शुरुआती दो दिनों के मध्य ही अमेरिका के तैराक माइकल फेल्प्स ने तैराकी की चार गुणा 100 मीटर की फ्रीस्टाइल रिले में नया रिकार्ड कायम करते हुए अपने गोल्ड मेडलों की संख्या 19 पर पहुंचाने के साथ कुल 23 पदक जीत कर खुद को ऐसी बुलंदी पर पहुंचा दिया है, जिस पर पहुंचने का सपना देखने का दुस्साहस भविष्य में शायद ही कोई और खिलाड़ी करे. इस बीच नोवाक जोकोविक और महिला टेनिस स्टार वीनस भी अपने एकल मुकाबले से बाहर हो चुके हैं. जहां तक भारत का सवाल है लगता है ओलम्पिक में फिस्सडी साबित होने की परम्परा में बदलाव नहीं होने जा रहा है. टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा और रिकार्ड सातवीं बार ओलम्पिक में भाग ले रहे चिरयुवा लिएंडर पेस पहले ही राउंड अपने-अपने डबल्स मुकाबले हार चुके है. पिस्टल किंग जीतू राइ, जिनसे काफी उम्मीदें थी, भी दस मीटर की एयर पिस्टल मुकाबले से बाहर हो चुके हैं. 2004 में दक्षिण कोरिया को 5-2 से हराने के 12 साल बाद रियो ओलम्पिक में आयरलैंड के खिलाफ 3-2 से जीत दर्ज करने के बाद भारत की पुरुष हॉकी टीम जिस तरह दूसरे मुकाबले में जर्मनी के खिलाफ खेल समाप्त होने के महज 3 सेकेण्ड पूर्व एक और गोल खाकर हार गयी, उससे नहीं लगता कि 36 साल बाद यह गोल्ड जीत कर भारतीयों को मुस्कुराने का अवसर प्रदान करेगी. भारतीय खेल प्रेमियों की उम्मीदों को 2008 के बीजिंग ओलम्पिक गोल्ड विजेता अभिनव बिंद्रा से भी पुरुषों की दस मीटर की एयर राइफल में स्पर्धा से बड़ा धक्का लगा है. लोग उनसे एक और मैडल की उम्मीद लगाये हुए थे, पर वे चौथे स्थान पर रहे. बहरहाल 31वें ओलम्पिक में भारी निराशा के बीच दीपा कर्मकार एक बड़ी उम्मीद बनकर उभरी हैं. उन्होंने जिम्नास्टिक के फाइनल में जगह बनाकर एक इतिहास रचने के साथ ही भारतीयों को निराशा से उबरने का एक बड़ा आधार सुलभ करा दिया है. जहां तक इतिहास रचने का सवाल है 9 अगस्त,1993 को अगरतला के एक बहुजन परिवार में जन्मीं दीपा ने इसी अप्रैल में 31वें ओलम्पिक खेलों की कलात्मक (आर्टिस्टिक) जिम्नास्टिक्स में जगह बनाकर पहले ही एक बड़ा इतिहास रच दिया है. इतिहास रचने के बाद उम्मीदों का पहाड़ सर लिए दीपा रियो पहुंची थीं. किन्तु इस्पाती टेम्परामेंट से पुष्ट दीपा प्रत्याशा के बोझ को दरकिनार के अपना स्वाभाविक खेल दिखाई और 14 अगस्त को होने वाले फाइनल में जगह बना लीं. अब पूरा देश सांसे रोके 14 अगस्त का इंतजार करने लगा है. उधर दीपा के कोच बीएस नंदी तनाव में घिर गए हैं. वह इसलिए कि अप्रैल में ही दीपा ने रियो में आयोजित टेस्ट इवेंट वॉल्ट में स्वर्ण पदक जीता था इसलिए पूरा देश सोच रहा है कि वह स्वर्ण लेकर ही देश लौटेगी. बहरहाल दीपा पदक जीत कर एक और नया इतिहास बना पाती हैं या नहीं, इसका पता तो 14 अगस्त को ही चल पायेगा. किन्तु यदि वह पदक नहीं भी जीत पातीं हैं तो भी जिस तरह उन्होंने ओलम्पिक में फाइनल तक सफ़र तय किया है, उससे प्रेरणा लेकर चाहें तो देश के खेल अधिकारी भारतीय खेलों की शक्ल बदल सकते हैं. काबिले गौर है कि किसी जमाने में राष्ट्र के शौर्य का प्रतिबिम्बन युद्ध के मैदान में होता था, पर बदले जमाने में अब यह खेलों के मैदानों में होने लगा है. 21वीं सदी में विश्व आर्थिक महाशक्ति के रूप में गण्य होने के पहले चीन ने अपना लोहा खेल के क्षेत्र में ही मनवाया था. लेकिन युद्ध हो या खेल, दोनों में ही जिस्मानी दमखम की जरुरत होती है. विशेषकर खेलों में उचित प्रशिक्षण और सुविधाओं से बढ़कर, सबसे आवश्यक दम-ख़म ही होता है. माइकल फेल्प्स, सर्गई बुबका, कार्ल लुईस, माइकल जॉनसन, मोहम्मद अली, माइक टायसन, मेरियन जोन्स, जैकी जयनार, इयान थोर्पे, सेरेना विलियम्स जैसे सर्वकालीन महान खिलाड़ियों की गगनचुम्बी सफलता के मूल में अन्यान्य सहायक कारणों के साथ, प्रमुख कारण उनका जिस्मानी दम-ख़म ही रहा है. दम-ख़म के अभाव में ही हमारे खिलाड़ी ओलम्पिक, एशियाड, कॉमन वेल्थ गेम्स इत्यादि में फिसड्डी साबित होते रहे हैं. जहां तक जिस्मानी दम-ख़म का सवाल है, हमारी भौगोलिक स्थिति इसके अनुकूल नहीं है. लेकिन इससे उत्पन्न प्रतिकूलता से जूझ कर भी कुछ जातियां अपनी असाधारण शारीरिक क्षमता का परिचय देती रही हैं. गर्मी-सर्दी-बारिश की उपेक्षा कर ये जातियां अपने जिस्मानी दम-ख़म के बूते अन्न उपजा कर राष्ट्र का पेट भरती रही हैं. जन्मसूत्र से महज कायिक श्रम करने वाली इन्ही परिश्रमी जातियों की संतानों में से खसाबा जाधव, मैरी कॉम, पीटी उषा, ज्योतिर्मय सिकदार, कर्णम मल्लेश्वरी, सुशील कुमार, विजयेन्द्र सिंह, लिएंडर पेस, सानिया मिर्जा, बाइचुंग भूटिया इत्यादि ने दम-ख़म वाले खेलों में भारत का मान बढाया है. हॉकी में भारत जितनी भी सफलता अर्जित किया, प्रधान योगदान उत्पादक जातियों से आये खिलाडियों का रहा है. यहाँ अनुत्पादक जातियों से प्रकाश पादुकोण, अभिनव बिंद्रा, राज्यवर्द्धन सिंह राठौर, गगन नारंग, गीत सेठी, विश्वनाथ आनंद, सुनील गावस्कर, सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़, सौरभ गांगुली इत्यादि ने वैसे ही खेलों में सफलता पायी जिनमें दम-ख़म नहीं, प्रधानतः तकनीकी कौशल व अभ्यास के सहारे चैंपियन हुआ जा सकता है. जहां तक क्रिकेट का सवाल है, इसमें फ़ास्ट बोलिंग ही जिस्मानी दम-ख़म की मांग करती है. किन्तु दम-ख़म के अभाव में अनुत्पादक जातियों से आये भागवत चन्द्रशेखर, प्रसन्ना, वेंकट, दिलीप दोशी, आर अश्विन इत्यादि सिर्फ स्पिन में ही महारत हासिल कर सके,जिसमें दम-ख़म कम कलाइयों की करामात ही प्रमुख होती है. दम-ख़म से जुड़े फ़ास्ट बोलिंग में भारत की स्थिति पूरी तरह शर्मसार होने से जिन्होंने बचाया, वे कपिल देव, जाहिर खान, उमेश यादव, मोहम्मद शमी इत्यादि उत्पादक जातियों की संताने हैं. आज भारत में बल्लेबाजी को विस्फोटक रूप देने का श्रेय जिन कपिल देव, विनोद काम्बली, वीरेंद्र सहवाग, युवराज सिंह, शिखर धवन इत्यादि को जाता है, वे श्रमजीवी जातियों की ही संताने हैं. ओलम्पिक के जिमनास्ट जैसे खेल के फाइनल के लिए क्वालीफाई कर दीपा कर्मकार ने ,यह सत्य नए सिरे से उजागर कर दिया है कि उत्पादक जातियों में जन्मे खिलाड़ी ही दम-ख़म वाले खेलों में सफल हो सकते हैं. दीपा की सफलता का यही सन्देश है कि हमारे खेल चयनकर्ता प्रतिभा तलाश के लिए पॉश कालोनियों का मोह त्याग कर अस्पृश्य, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों एवं जंगल-पहाड़ों में वास कर आदिवासियों के बीच जाएं, यदि चीन की भांति भारत को विश्व महाशक्ति बनाना चाहते हैं तो वंचित समाजों में जन्मी प्रतिभाओं को इसलिए भी प्रोत्साहित करना जरुरी है क्योंकि दुनिया भर में अश्वेत, महिला इत्यादि जन्मजात वंचितों में खुद को प्रमाणित करने की एक उत्कट चाह पैदा हुई है. वे खुद को प्रमाणित करने की अपनी चाह को पूरा करने के लिए खेलों को माध्यम बना रहे हैं. उनकी इस चाह का अनुमान लगा कर उन्हें दूर-दूर रखने वाले यूरोपीय देश अब अश्वेत खेल-प्रतिभाओं को नागरिकता प्रदान करने में एक दूसरे से होड़ लगा रहे हैं. इससे जर्मनी तक अछूता नहीं है. स्मरण रहे एक समय हिटलर ने घोषणा की थी-सिर के ऊपर शासन कर रहे हैं ईश्वर और धरती पर शासन करने की क्षमता संपन्न एकमात्र जाति है जर्मन, विशुद्ध आर्य-रक्त उनके ही शासन काल में 1936 में बर्लिन में अनुष्ठित हुआ था ओलम्पिक.  हिटलर का दावा था कि सिर्फ आर्य-रक्त ओलम्पिक में परचम फहराएगा. किन्तु आर्य-रक्त के नील गर्व को ध्वस्त कर उस ओलम्पिक में श्रेष्ठ क्रीड़ाविद जेसी ओवेन्स एवरेस्ट शिखर बन कर उभरे. अमेरिका के तरुण एथलीट, ग्रेनाईट से भी काले जेसी ओवेन्स जब बार-बार विक्ट्री स्टैंड पर सबसे ऊपर खड़े हो कर गोल्ड मैडल ग्रहण कर रहे थे, श्वेतकाय लोग छोटे हो जाते थे. जेसी ओवेन्स ने 100 मीटर, 200 मीटर, लॉन्ग जम्प और फिर रिले रेस:ट्रैक फिल्ड से चार-चार स्वर्ण पदक ले जीते थे. हिटलर उनकी वह सफलता बर्दाश्त न कर सके. ओवेन्स को सम्मान देना तो दूर, अनार्य रक्त के श्रेष्ठत्व से असहिष्णु हिटलर मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए. ब्रिटेन के लीवर पूल में जो काले कभी भेंड़-बकरियों की तरह बिकने के लिए लाये जाते थे, उन्हीं में से किसी की संतान जेसी ओवेन्स ने नस्ल विशेष की श्रेष्ठता की मिथ्या अवधारणा को ध्वंस करने की जो मुहीम बर्लिन ओलम्पिक से शुरू किया, परवर्तीकाल में खुद को प्रमाणित करने की चाह में उसे मीलों आगे बढ़ा दिया. गैरी सोबर्स, फ्रैंक वारेल, माइकल होल्डिंग, माल्कॉम मार्शल, विवि रिचर्ड्स, आर्थर ऐश, टाइगर वुड, मोहम्मद अली, होलीफील्ड, कार्ल लुईस, मोरिस ग्रीन, मर्लिन ओटो, सेरेना विलियम्स इत्यादि ने. खेलों के जरिये खुद को प्रमाणित करने की वंचित नस्लों की उत्कट चाह का अनुमान लगाकर ही हिटलर के देशवासियों ने रक्त-श्रेष्ठता का भाव विसर्जित कर देशहित में अनार्य रक्त का आयात शुरू किया. आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि खेलों में सबसे अधिक नस्लीय-विविधता हिटलर के ही देश में है. अब हिटलर के देश में कई अश्वेत खिलाड़ियों को प्रतिनिधित्व करते देखना, एक आम बात होती जा रही है. बहरहाल देशहित में ताकतवर अश्वेतों के प्रति श्वेतों, विशेषकर आर्य जर्मनों में आये बदलाव से प्रेरणा लेकर भारत के विविध खेल संघों के प्रमुखों को भी वंचित जातियों के खिलाड़ियों को प्रधानता देने का मन बनाना चाहिए. हालांकि खेल संघों पर हावी प्रभु जातियों के लिए यह काम आसान नहीं है. इसके लिए उन्हें राष्ट्रहित में उस वर्णवादी मानसिकता का परित्याग करना पड़ेगा जिसके वशीभूत होकर इस देश के द्रोणाचार्य, कर्णों को रणांगन से दूर रख एवं एकलव्यों का अंगूठा काट कर, अर्जुनों को चैंपियन बनवाते रहे हैं. अगर 21वीं सदी में भी खेल संघों में छाये द्रोणाचार्यों की मानसिकता में आवश्यक परिवर्तन नहीं आता है तो भारत क्रिकेट, शतरंज, तास, कैरम बोर्ड, बिलियर्ड इत्यादि खेलों में ही इतराने के लिए अभिशप्त रहेगा और ओलम्पिक मैडल देश के लिए सपना बनते जायेगा. लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. बहुजन डायवर्सिटी मिशन के अध्यक्ष हैं. उनसे संपर्क उनके मोबाइल नंबर 09313186503 पर किया जा सकता है.