Wednesday, February 12, 2025
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सवर्णवादी इतिहासकारों का शिकार हुआ तथागत बुद्ध और अशोक महान का इतिहास

संघ से जुड़े राष्ट्रीय वनवासी कल्याण परिषद की पत्रिका के मई 2016 के अंक में एक लेख छपा है कि सम्राट अशोक के हिन्दू से बौद्ध बनने और अहिंसा के प्रचार करने की वजह से विदेशी आक्रमणकारियों के लिये भारत की सीमायें खुली थीं. अशोक के वक्त बौद्ध बनने वाले उनके अनुयायियों ने ग्रीक आक्रमणकारियों की सहायता करके देशद्रोह का काम किया था. इन आक्रमणकारियों ने वैदिक धर्म को नुकसान पहुंचाकर बौद्ध धर्म के लिये मार्ग प्रशस्त किया था. तरस आता है कि भारत में ऐसे इतिहासकार हो गये, तो भावी पीढियां क्या इतिहास पढ़ेंगी? सर्वप्रथम तो मैं इस बात का खण्डन करता हूं कि अशोक के काल में भारत में हिन्दू जैसा कोई शब्द था. आरएसएस का कोई भी इतिहासकार या इस लेख के लेखक, अगर यह सिद्ध करना चाहें कि अशोक के काल में भारत में हिन्दू शब्द था भी, तो इसे प्रमाण सहित प्रस्तुत करें कि किस ग्रंथ में कहां पर यह वाक्य आया है? हिन्दू तो शब्द ही फारसी भाषा का है जिसका जो अर्थ है वह लेखक किसी भी फारसी के विद्वान या सच्चे आर्य समाजी से मालूम कर सकते हैं. मैं लिखूंगा तो मानेंगे नहीं. जिन पुस्तकों को लेखक ने पढ़ा होगा और और जहां से सन्दर्भ लिये होंगे, वे आरएसएस के लेखकों की ही लिखी होंगी, तभी ऐसी ऊटपटांग बातें लिखी हैं. अन्यथा रोमिला थापर, नीलकण्ठ शास्त्री, डॉ. राधाकमल मुकर्जी और अन्य जितने भी नामी-गिरामी इतिहासकार हैं, किसी ने सम्राट अशोक के बारे में ऐसा नहीं लिखा है.

सबसे पहले यह जान लेना जरुरी है कि अशोक के जीवन में अहिंसा का क्या स्थान था? प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर के अनुसारः- “अहिंसा धम्म का एक बुनियादी सिद्धान्त था. अहिंसा का तात्पर्य था युद्ध तथा हिंसा द्वारा विजय-प्राप्ति का त्याग और जीव हत्या का निरोध. लेकिन यह पूर्ण अहिंसा के लिये आग्रहशील नहीं था. वह मानता था कि ऐसे अवसर होते है जब हिंसा अपरिहार्य होती है, उदाहरण के लिये वन्य आदिवासियों के उत्पीड़क हो उठने पर…. वह यह भी कहता है कि उसके उत्तराधिकारी शक्ति के बल पर विजय प्राप्त न करें तो बेहतर होगा, किन्तु यदि उन्हें ऐसा करना ही पड़े तो वह आशा करता है कि इस विजय का संचालन अधिकतम दया और सहृदयता के साथ किया जायेगा…. अशोक ने सैंतीस वर्ष शासन किया और 232 ई.पू. में उसकी मृत्यु हो गई… यह भी कहा गया है कि अहिंसा के प्रति उसके मोहावेष ने सेना को कायर बना दिया था, जिससे बाहरी शक्तियों के लिये आक्रमण करना सरल हो गया था. किन्तु उसकी अहिंसा ऐसी अवास्तविकतावादी नहीं थी, और न ही उसकी राजविज्ञप्तियों से यह ध्वनित होता है कि उसने सेना को कमजोर बना दिया था.”

बुद्ध कहते हैं कि जीवों पर दया करो, हिंसा मत करो. विस्तार में न जाकर मैं मात्र इतना कहना चाहता हूं कि यह अहिंसा जैन धर्म की अहिंसा से अलग है. जैन धर्म में हर वक्त यह ध्यान रखा जाता है कि कोई जीव हिंसा न हो जाये. यहां तक कि जैन मुनि हर वक्त मुंह पर पट्टी लगाये रहते हैं ताकि मुंह से निकलने वाली सांस से भी कोई सूक्ष्म जीव न मरे. लेकिन बौद्ध धर्म में ऐसा नहीं है. जान-बूझकर किसी को दुख मत दो, किसी जीव को मत मारो, जीवों पर दया करो, बस इतना ही पर्याप्त है. इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि कोई आपको मारे, आपका नुकसान करे या आपके देश पर आक्रमण करे तो उसका विरोध न करें. उसका विरोध अवश्य करो और इस कार्य में अगर हिंसा होती भी है तो वह जायज है, मान्य है. बौद्ध धर्म नपुंसकों की अहिंसा को कायरता कहता है. इसके प्रमाण हैं जापान, चीन और दुनिया के वे देश जहां बौद्ध धर्म भारत से अधिक फल-फूल रहा है. इन देशों में न केवल सशस्त्र सेनायें हैं, बल्कि इनकी सेनाओं ने अपनी शक्ति का लोहा भी मनवाया है. याद कीजिये, द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की ताकत और इसी जापान ने शक्तिशाली कहे जाने वाले रूस को हराया था. युद्ध में हिंसा भी हुई, पर कहीं बुद्ध या बौद्ध धर्म की ओर से रोक-टोक नहीं हुई. आज ताकत के बल पर ही चीन भारत से अधिक शक्तिशाली है और वहां भारत से अधिक बौद्ध धर्मावलम्बी हैं.

मैं “समय के साथ आरएसएस कैसे जबान बदलता है” इसका खुद पर घटित एक उदाहरण देता हूँ जो कि यहां प्रासंगिक है. सन 1988 में जब मैंने दसवीं पास की, उसी वर्ष आरएसएस द्वारा दौसा में आयोजित प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग में भाग लिया. किसी सत्र के दौरान एक वक्ता ने जापान की देशभक्ति का उदाहरण देते हुए कहा था कि जापान के एक बौद्ध बालक से पूछा गया कि अगर स्वयं भगवान बुद्ध भारत से सेना लेकर जापान पर आक्रमण कर दें तो आप क्या करोगे? बालक का जवाब था, “मैं भगवान बुद्ध का सिर काट दूंगा.” आरएसएस के ही शिविर में 28 साल पहले दिये गये इस उदाहरण को संघी आज कैसे भूल गये? देश पर आँच आने पर एक बालक जब अपने धर्म के प्रर्वतक का सिर काटने का जज्बा रखता हो, उस धर्म की वह कौनसी अहिंसा नीति है जिसके चलते देश कमजोर हो गया? वह धर्म या उसके अनुयायी राजा देश की रक्षा को लेकर कैसे इतनी बड़ी चूक कर सकते हैं? अतः यह बात निरर्थक साबित होती है कि भारत के पतन के लिये बौद्ध धर्म की अहिंसा नीति या सम्राट अशोक की अहिंसा नीति जिम्मेदार है.

अशोक के पश्चात् भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों की विजय का जो कारण समझ में आता है, वह है- एक केन्द्रीय शासन का अभाव, स्थानीय स्वतंत्रता की भावना, आवागमन के साधनों की कमी, प्रान्तीय शासकों का अत्याचार पूर्ण व्यवहार और विद्रोही प्रवृति, महल के षडयंत्र, अधिकारियों की धोखेबाजी. अशोक के वंशज ब्रहद्रथ की हत्या उसी के मंत्री ने कर दी थी, परन्तु इतने बड़े साम्राज्य को वह संभाल नहीं पाया और राजा, जो कमजोर शासन व्यवस्था के चलते विद्रोह करते ही रहते थे, धीरे-धीरे स्वतन्त्र होने लगे. अगर आरएसएस के इन लेखक महोदय ने भारत का इतिहास पढ़ा हो तो इनको ज्ञात होगा कि यहां के छोटे-छोटे हिन्दू राजा, रजवाड़े, ठाकुर, जमींदार अपने आपको दूसरों से इतना ऊंचा समझते थे कि युद्ध के मैदान में भी इनका खाना अलग-अलग बनता था, जिसे देखकर एक बार किसी मुस्लिम शासक ने अपने मंत्री से पूछा था कि क्या दुश्मन के शिविरों में आग लग गई है जो इतना धुंआ उठ रहा है? मंत्री ने कहा कि आग नहीं लगी है, ये सभी एक साथ खाना नहीं खाते हैं अतः अलग-अलग खाना बन रहा है. तब उस शासक ने कहा कि जब इनमें इतनी भी एकता नहीं है तो ये क्या खाकर हमसे लड़ेंगे? और अगली ही लड़ाई में मुस्लिमों ने हिन्दुओं को परास्त कर दिया.

 

दरअसल हर काल में भारत की हार का कारण आन्तरिक फूट ही रही है. पर इसे हिन्दूवादी लेखक स्वीकार नहीं करते और लीपापोती करने में लगे रहते हैं. इनकी परेशानी यह है कि अगर इस सत्य को स्वीकार कर लें तो फिर किस मुंह से हिन्दू राजाओं को महान बतायेंगे और अपने आकाओं को खुश रखेंगे? रही बात बौद्ध भिक्षुओं द्वारा भारत विरोधी यूनानियों का साथ देने की, तो यह यह नया शोध है जिस पर लेखक को किसी हिन्दूवादी विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट मिलनी चाहिये, क्योंकि कभी किसी इतिहासकार की पुस्तक में ऐसा पढ़ने को नहीं मिला! पहली बात तो यह कि यूनानी बौद्ध धर्मावलम्बी नहीं थे, जो भिक्षु उनके लिये ऐसा घृणित कार्य करते. दूसरे, घर-बार, धन-सम्पत्ति, मोह-माया सब छोड़कर जो भिक्षु बने, वे क्योंकर देशद्रोह का कार्य करते?

 

वास्तव मे बौद्ध धर्म की सरलता, अहिंसा और जटिलता रहित जीवन बुद्ध के समय से ही हिन्दू धर्म के ठेकेदारों के लिये परेशानी का कारण रहा है. बौद्ध धर्म की स्थापना से हिन्दू धर्म की चूलें हिल गई थीं, क्योंकि उस समय हिन्दू धर्म में जो कुप्रथायें (बलि, देवदासी,सती आदि) थीं उनका जमकर विरोध हो रहा था और तथागत बुद्ध के सरल मार्ग ने सबको आकर्षित किया था. तथाकथित हिन्दू, वैदिक या सनातन धर्म (सब एक ही हैं) में नरमेघ, गौमेघ, अश्वमेध और न जाने कितने प्रकार यज्ञ प्रचलित थे और उनमें बलियां दी जाती थीं. आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म, पाखण्ड, मूर्तिपूजा आदि ने साधारण व्यक्ति का जीना हराम कर रखा था. फायदे में अगर कोई था तो सिर्फ ब्राह्मण वर्ग था. बौद्ध धर्म के 22 सिद्धान्तों में भी कहा गया है कि यह धर्म ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक, पाखण्ड और धर्म के नाम पर दिखावे तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश आदि किसी भी हिन्दू देवी-देवता को नहीं मानता है और न ही यह मानता है कि बुद्ध विष्णु के दसवें अवतार थे. बाबा साहेब ने भी लिखा है कि बौद्ध धर्म के उत्थान से तथाकथित वैदिक धर्म/ब्राह्मण धर्म/हिन्दू धर्म को अवर्णनीय क्षति हुई थी और ब्राह्मणों ने राजसत्ता प्राप्ति के लिये भगवद गीता की रचना की.

 

अन्तिम मौर्य सम्राट ब्रहद्रथ के हत्यारे उसी के मंत्री रहे पुष्यमित्र शुंग (187-75 ई. पू. भारद्वाज ब्राह्मण) ने शासक बनते ही इनाम घोषित किया कि जो एक बौद्ध भिक्षु का सिर काट कर लायेगा, उसे स्वर्ण मुद्रा दी जायेगी. बाद में किसी भी राजा का संरक्षण बौद्ध धर्म को नहीं मिला और धीरे-धीरे भारत से यह लुप्त प्रायः हो गया. आजादी के बाद भी भारत में कहने को तो धर्मनिरपेक्ष और पंथनिरपेक्ष सरकारें बनीं, पर लागू हिन्दूवादी कानून ही रहे. मिसाल के तौर पर विद्यालयों में, जहां देश की भावी पीढ़ी तैयार की जाती है, प्रार्थना, भोजन मंत्र आदि बुलाये जाते है, सरस्वती पूजा, विश्वकर्मा पूजा आदि कराई जाती है, सार्वजनिक समारोहों में पूजायें कराई जाती हैं, तिलक लगाये जाते हैं, दशहरा, दीपावली आदि की लम्बी छुट्टियां की जाती हैं जो सभी हिन्दू संस्कृति के अंग व इसी के अनुरूप हैं, जिनका बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई, पारसी और मुस्लिम धर्म से कोई वास्ता नहीं है. इसी प्रकार आज भी सरकारी दफ्तरों और कॉलोनियों में मंदिर देखे जा सकते हैं, जो कि धर्म निरपेक्षता की पोल खोलते हैं. कहीं कोई मस्जिद, गुरुद्वारा, मठ या चर्च नहीं होता है.

अब, जबकि हिन्दूवादी पार्टी का राज है तो यह अपने घोषित एजेण्डे त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयं और समर्था भवत्वा षिषाते भृषम के अनुसार भारत भूमि को पूर्ण रूप से हिन्दू भूमि बनाने में जुटी हुई है. संघ से जुड़े राष्ट्रीय वनवासी कल्याण परिषद की पत्रिका के मई 2016 के अंक में छपा लेख इसी की एक कड़ी के रूप में बौद्ध धर्म और अशोक पर किया गया.

हमला है. इन्हें कोई दूसरा धर्म और धर्मावलम्बी पसन्द ही नहीं है. मुस्लिमों और ईसाइयों के प्रति इनकी भावना जगजाहिर है. अब बौद्ध धर्म और अशोक के पीछे पड़े हैं, जो भारत में उतना सशक्त नहीं है कि इनका विरोध कर सके. जब राज सत्ता में रहते 10-15 साल हो जायेंगे, तो ये जैन और सिख धर्म में मीन-मेख निकालेंगे. अन्यथा सम्राट अशोक साल-दो साल पहले की उपज नहीं है, उनके गुण-दोष तो आज के हजार साल पहले भी वही थे. सिर्फ दृष्टि का फेर है जो संघ के पास 2014 के चुनावों के बाद आई. इसी के फलस्वरुप इससे जुड़े इतिहासकारों की पौ-बारह हो गई है, नये-नये इतिहास लिखे जा रहे हैं, छोटे-मोटे राजे-रजवाड़े अब महान हैं, जिन्होंने पूरे देश को एक कर राज किया वे नगण्य हैं, क्योंकि वे हिन्दू नहीं थे. अब पाठ्य-पुस्तकों में हिन्दूवादी प्रतीक ही रहेंगे, कबीर, नानक, जायसी, रहमान, रसखान, बुद्ध, महावीर स्वामी, ईसा मसीह, पैगम्बर मोहम्मद आदि के पाठ हटा दिये जायेंगे. अकबर का हाल देख चुके हैं, अशोक को दोषी साबित किया जा रहा है, बाकी लाईन में हैं. तब कुतुबुद्धीन ऐबक, इल्तुतमिश, बलबन, रजिया, खिलजी, बाबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ, शेरशाह सूरी आदि की क्या बिसात ? ये सब इतिहास से लापता कर दिये जायेंगे और छोटे-मोटे राजे-रजवाड़े ही पढ़ाये जायेंगे जो हिन्दू थे और जिन्होनें लड़ने में (चाहे लड़ाई अपने भाई के ही खिलाफ क्यों न हो) कोई कसर नहीं छोड़ी. उनकी ही वीरता से पृष्ठ रंगे जायेंगे.

यहां प्रत्येक धर्म और उसकी संस्कृति फली-फूली और उसका यहां के इतिहास में योगदान रहा है. पजामा शकों की देन है तो पेंट अंग्रेजों की. दोनों बाहरी हैं. अगर विदेशियों से इतनी ही घृणा है तो छोड़ दीजिये दोनों को और धोती में रहिये. पंखा, टीवी, कूलर, फ्रीज, तमाम मोटर गाडियां, हवाई जहाज, ट्रेन आदि सब तो विदेशियों के अविष्कार हैं, क्यों काम लेते हैं? इन सब को छोड़कर फिर गर्व से कहिये, मैं हिन्दू हूं. सरकारों के बदलने पर उनकी सुविधा के अनुसार पाठ्यक्रम में बदलाव करना शैक्षणिक जगत के लिये बहुत बुरा है. अगर इस प्रकार होता है तो ज्योंही सत्ताधारी पार्टी की सरकार हटी, ये पाठ्य-पुस्तकें रद्दी हो जायेगी. इसके अलावा यह भी समस्या रहेगी कि प्रमाणिक किसे मानें? इस प्रकार लिखा जाने वाला इतिहास, इतिहास न होकर कबाड़ अधिक होगा. क्या भविष्य में इसी प्रकार का इतिहास पढ़ाने की योजना है? तब कांग्रेस के शासन काल में प्रश्नों के अलग उत्तर होंगे तो भाजपा के में अलग. कांग्रेस के शासन काल अकबर महान होगा तो भाजपा के में राणा प्रताप. यह एक खतरनाक साजिश है. देश के इतिहास को अपनी सोच के अनुसार काट-छांट कर लिखा गया तो देश का आधार ही नष्ट हो जायेगा. जैसा कि ये लोग कहते हैं “अंग्रेजों ने इतिहास तोड़-मरोड़कर लिखा,” लेकिन आप जो लिख रहे हो, वह क्या है? देश का इतिहास प्रागैतिहासिक काल, सिन्धु घाटी और हड़प्पा सभ्यता, वैदिक सभ्यता, जैन, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई और आधुनिक युग तक का सफर तय करता है. क्या नवोदित इतिहासकार प्रत्येक युग को उचित स्थान दे पायेंगे? अतः देशवासियों का कर्तव्य हो जाता है कि वे इस प्रकार की साजिश को कामयाब नहीं होने दें ताकि हमारे देश की पहचान और गरिमा बनी रहे. यह देश सबके लिये अमन और शांति का स्थान बना रहे किसी की बापौती बन कर नहीं रह जाये.

श्याम सुन्दर बैरवा सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

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