मैं अस्थायी बदलाव नहीं चाहता- कांशीराम

आज जब देश में राष्ट्रवाद पर बहस छिड़ी हुई है, कांशीराम जी द्वारा दिए गए राष्ट्रवाद की परिभाषा गौर करने लायक है. मान्यवर कांशीराम दो राष्ट्रवाद के सिद्धान्त की बात कहते थे. एक वो जो सताए जाते हैं उनका राष्ट्रवाद और दूसरे जो सताते हैं, उनका राष्ट्रवाद. उनका मानना था कि अत्याचार करने और सताने वाले के लिए राष्ट्रवाद की परिभाषा सामंतवाद है, जबकि मेरे लिए राष्ट्रवाद भारत की जनता है. 8 मार्च, 1987 को कांशीराम जी द्वारा इलस्ट्रेटिड वीकली के संवाददाता निखिल लक्ष्मण को दिए साक्षात्कार के जरिए हम मान्यवर को आपके सामने रखने की कोशिश कर रहे हैं. तकरीबन तीन दशक बाद भी वह इंटरव्यू बहुजन समाज को दिशा देने में सक्षम है. प्रश्न- आप सभी राजनीतिक दलों के प्रति इतने विरोधी क्यों हैं, विशेषकर कम्युनिस्टों के? उत्तर- मेरे विचार में सभी पार्टियां यथास्थिति की पोषक हैं. हमारे लिए राजनीति है बदलाव की राजनीति. मौजूदा पार्टियां यथास्थिति को बने रहने का कारण है. यही कारण है कि पिछड़ी जातियों को आगे बढ़ाने का काम नहीं हुआ है. कम्युनिस्ट पार्टियां इस मामले में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हुई हैं. वे परिवर्तन की बात करती हैं लेकिन काम यथास्थिति के लिए करती हैं. बीजेपी बेहतर है कम-से-कम यह बदलाव की बात कभी नहीं करते, इसलिए लोग धोखे में नहीं रहते. कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां गरीबी दूर करने की बात करती हैं लेकिन काम गरीबी बनाये रखने का करती हैं. यदि गरीब, गरीब नहीं रहेगा तो ये लोग (यथास्थितिवादी) गद्दी पर नहीं बैठ पाएंगे. प्रश्न- आपका कैडर महात्मा गांधी का इतना विरोधी क्यों है? उत्तर- गांधी सभी बुराइयों की जड़ हैं। मैं बदलाव चाहता हूं। डॉ. अम्बेडकर बदलाव चाहते थे लेकिन गांधी यथास्थिति के रखवाले थे. वह शूद्रों को हमेशा शूद्र बनाए रखना चाहते थे. गांधी ने राष्ट्र को बांटने का काम किया लेकिन हम राष्ट्र को संगठित करने का कार्य कर रहे हैं, हम सभी बनावटी बंटवारों को मिटा देंगे। प्रश्न- आप जातिवादी संगठन खड़ा करके जातिवाद को कैसे मिटा सकते हैं? उत्तर- बीएसपी जातिवादी पार्टी नहीं है. यदि हम 6000 जातियों को जोड़ रहे हैं तो हम जातिवादी कैसे हो सकते हैं? प्रश्न- मुझे लगता है कि उच्च जातियों के लिए आपकी पार्टी के दरवाजे बन्द हैं? उत्तर- उच्च जातियां कहती हैं कि आप हमें शामिल क्यों नहीं करते. मैं कहता हूं कि आप सभी पार्टियों का नेतृत्व कर रहे हैं. यदि आप हमारी पार्टी में शामिल होंगे तो आप यहां भी बदलाव रोक दोगे. उच्च जातियां हमारी पार्टी में शामिल हो सकती हैं लेकिन वे इसके नेता नहीं हो सकते. नेतृत्व पिछड़ी जातियों के हाथों में ही रहेगा. मुझे डर है कि जब उच्च जातियों के लोग हमारी पार्टी में आएंगे तो वे बदलाव की प्रक्रिया को रोकेंगे. जब यह डर समाप्त हो जाएगा तो वे हमारी पार्टी में शामिल हो सकते हैं. प्रश्न- जिन राजनीतिज्ञों से हमने दिल्ली में बात की वे कहते हैं कि यदि बीएसपी ने अपना ज्यादा लड़ाकूपन दिखाया तो वे राजनीति में खत्म कर देंगे। उत्तर- हम उनको खत्म कर देंगे. क्योंकि जब इन्दिरा एक चमार के द्वारा खत्म की जा सकती है तब ये क्या बच सकते हैं. जब हम सशस्त्र सेनाओं में 90 फीसदी हैं, बीएसएफ में 70 फीसदी हैं, 50 फीसदी सीआरपीएफ और पुलिस में हैं तो हमारे साथ कौन अन्याय कर सकता है. एक जनरल के लिए जवानों की तुलना में कम गोलियां चाहिए. उनके पास जनरल हो सकते हैं, जवान नहीं. प्रश्न- इसका अर्थ है आप हिंसा का प्रचार कर रहे हैं? उत्तर- मैं शक्ति का प्रचार कर रहा हूं। हिंसा को रोकने के लिए मेरे पास शक्ति होनी चाहिए. उदाहरण के लिए, मेरे अलावा शिवसेना को कोई नहीं पछाड़ सकता, जब कभी मैं महाराष्ट्र आऊंगा मैं उनको खत्म कर दूंगा. शिवसेना की हिंसा खत्म हो जाएगी. प्रश्न- आप ऐसा किस प्रकार करेंगे? उत्तर- शिवसेना में कौन लोग हैं जो आग लगाते हैं और तोड़-फोड़ करते हैं. वे चार जातियां हैं-; अगाड़ी, भण्डारी, कोली और चमार. ये अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग के लोग हैं. जब मैं महाराष्ट्र आऊंगा ये लोग मेरे पास आ जाएंगे. प्रश्न- आप कैसे मानते हैं कि यूपी में बीएसपी का हश्र आरपीआई की शासक पार्टियों के साथ सौदेबाजी की ताकत की तरह खात्मा नहीं होगा? उत्तर- आरपीआई ने कभी सौदेबाजी नहीं की. यह तो मांगने वाली पार्टी थी. यह सौदेबाजी करने के स्तर तक कभी नहीं पहुंची. मुझे याद है 1971 के आम चुनावों में 521 सीटों के लिए चुनावी समझौता हुआ, जिसमें 520 सीटों पर कांग्रेस चुनाव लड़ी तथा बाकी एक पर आरपीआई. मुझे आरपीआई प्यारी है लेकिन इससे तुलना करने में मुझे घृणा है. यह एक ऐसी वेश्या है जो कौड़ियों में बिकती है. जब तक मैं जिन्दा हूं ऐसा बीएसपी के साथ कभी नहीं होगा. हम बदलाव चाहते हैं. हम यथास्थिति वाली ताकतों से गठजोड़ नहीं चाहते. यदि सरकार हमारे सहयोग के बगैर नहीं बन सकती तो बदलाव की हमारी अपनी शर्तें होंगी. हम आधारभूत तथा ढांचागत बदलाव चाहते हैं बनावटी नहीं. प्रश्न- आपके फंड के स्रोत के पीछे कुछ रहस्य है? उत्तर- मेरे पास फंड विभिन्न स्रोतों से आते हैं जो कभी खत्म नहीं होंगे. मेरा फंड ऐसे लोगों से आता है जो दौलत पैदा करते हैं. बहुजन समाज दौलत पैदा करता है. मैं उन्हीं से पैसा लेता हूं. लाखों लोग त्योहारों जैसे कुम्भ मेला इत्यादि पर करोड़ों रुपये खर्च करते हैं, केवल अगला जन्म संवारने के लिए. कांशीराम उनको बताता है कि मैं अगले जन्म के बारे में कुछ नहीं जानता लेकिन मैं वर्तमान जीवन का विशेषज्ञ हूं. मैं कहता हूं जिनको अगला जन्म संवारना है वे गंगा के किनारे ब्राह्मणों के पास जाओ, जिनको वर्तमान जीवन सुधारने में रुचि है वे मेरे पास आएं. इसलिए वे मेरी मीटिंगों के लिए दौड़ते हैं. प्रश्न- वे कहते हैं कि आपने लखनऊ रैली पर बहुत पैसा खर्च किया है। उत्तर- केवल बसों को किराये पर लेने के लिए ही 22 लाख रुपये खर्च किये गये. लेकिन मैं नाराज हूं. ये 22 करोड़ होने चाहिए थे. एक समय आएगा जब मेरे आह्वान पर 22 करोड़ तक लोग खर्च करेंगे. मेरे लिए पैसों की कोई कमी नहीं है. यदि खजाने से पैसा आता तो ये खाली हो जाता, मैं लगातार चलने वाले स्रोत से पैसा ले रहा हूं. मुझे सभी 542 लोकसभा की सीटों को जीतने के लिए केवल 1 करोड़ रुपया चाहिए. एक दिन वोटर कांशीराम को पैसा देने के लिए लाइन में खड़े होंगे, अगले दिन वे कांशीराम को वोट देने के लिए लाइन लगाएंगे. प्रश्न- आपकी पार्टी से कुछ लोग पार्टी छोड़कर चले गए? उत्तर- आप सभी लोगों को एक साथ नहीं रख सकते। कुछ लोग थक सकते हैं. कुछ को खरीदा जा सकता है. कुछ डर सकते हैं ऐसा लगातार चलता रहेगा. इससे हम हतोत्साहित नहीं होंगे. मैंने एक ऐसा तरीका ईजाद (ढूंढा) किया है कि यदि किसी समय पर 10 आदमी छोड़कर जाते हैं तो हम उसी स्तर के 110 लोग तैयार कर लेंगे. जिनको हमने ‘डेडवुड’ (मृतकाठ) करके अलग किया है, उसी ‘मृत काठ’ को दूसरे जलाकर कुछ आग पैदा कर रहे हैं. वे उनको हमारे विरुद्ध प्रयोग करने की कोशिश कर रहे हैं. प्रश्न- आप किस प्रकार के बदलाव की ओर देख रहे हैं? उत्तर- मैं अस्थायी बदलाव नहीं चाहता. मैं ऐसा कुछ नहीं चाहता जो टिकाऊ न हो. हम जो कर सकते हैं करेंगे लेकिन ये बरकरार रहना चाहिए और स्थायी बदलाव के द्वारा बरकरार रहना चाहिए. अनुवाद- बिजेन्द्र सिंह विक्रम

वाल्मीकि ने राम को कठघरे में खड़ा किया- दर्शन रत्न ‘रावण’

  आमतौर पर ‘वाल्मीकि’ को लेकर दलित समाज दो धड़ों में बंटा नजर आता है. सफाई कर्मचारियों का एक तबका वाल्मीकि को ‘भगवान’ का दर्जा देता है तो वहीं अन्य तबका यह सवाल उठाता नजर आता है कि वाल्मीकि दलित नहीं थे. दर्शन रत्न ‘रावण’ का मानना है कि लोगों ने वाल्मीकि को ठीक से समझा ही नहीं. वह वाल्मीकि को रामायण के जरिए राम की बखिया उधेड़ने वाले के तौर पर देखते हैं. 20 साल की उम्र से सफाई कर्मचारी वर्ग के बीच काम करने वाले ‘रावण’ आधस नाम के संगठन के जरिए इस समाज में फैली अशिक्षा और गंदगी दूर करने निकले हैं. साथ ही वाल्मीकि और अंबेडकर को एक मंच पर स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. फिलवक्त जब देश भर में ‘रामलीला’ की धूम मची है, रावण के जरिए वाल्मीकि के संदर्भ में राम को समझना जरूरी है. पिछले दिनों दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने दर्शन रत्न रावण से उनके दिल्ली प्रवास के दौरान विस्तार से चर्चा की. आप क्या कर रहे हैं, कब से कर रहे हैं और क्यूं कर रहे हैं? – हम देश में सफाई मजदूर जातियों; जिन्हें उत्तरी भारत में वाल्मीकी कहते हैं, उनके लिए काम कर रहे हैं. और इसलिए कर रहे हैं क्योंकि दलित समाज और इससे पहले लेफ्ट फ्रंट के मूवमेंट से जुड़े लोगों ने वाल्मीकी समाज की एक नाकारात्मक छवि बना ली कि यह समाज नहीं बदल सकता. उन्होंने इसका प्रचार किया और इतना किया कि वह दुष्प्रचार हो गया. लेकिन जब मैं उन्हीं लोगों से यह पूछता हूं कि उन्होंने धरातल पर क्या किया, तो उधर से कोई जवाब नहीं मिलता. उन्होंने केवल भाषण दिए हैं. वो बड़ी बड़ी बातें करते हैं, अपनी जीवनियां लिखते हैं, उसमें मां-बाप, दादा-दादी और खुद के दुख भोगने की बात लिखते हैं. मैं कहता हूं कि दुख तो सभी दलितों ने भोगे हैं. मुसहर समाज को ही देखिए, वो आज भी चूहा खा रहा है. वाल्मीकि समाज को लेकर एक आम धारणा है कि वह बाबासाहेब से दूर रहा है. आखिर यह स्थिति क्यों हो गई है और क्या आपने इसे पाटने की कोशिश की है? – अब यह स्थिति नहीं है. हमने जहां जहां काम किया है आप वहां चलिए. हमारे काम करने के बाद वाल्मीकि समाज में बाबासाहेब के प्रति सोच बदली है. हमलोगों ने डॉ. अम्बेडकर को वाल्मीकि समाज के साथ लाने का काम किया है. मैंने 1989 में पहली बार 14 अप्रैल का कार्यक्रम रखा. आप आज पंजाब चले जाएं, हरियाणा में चले जाएं, उत्तर प्रदेश की वाल्मीकि बस्तियों में चले जाएं वहां अब स्थिति बदली है. वहां आपको बाबासाहेब और वाल्मीकि का चित्र एक साथ मिलेगा. आप जो बाबासाहेब से वाल्मीकि समाज के दूर होने की बात कर रहे हैं तो वाल्मीकि समाज को बाबासाहेब से दूर   करने वाले भगवान दास जैसे लोग थे, आर. सी संदर जैसे लोग थे जो जीवन में कभी कामयाब नहीं हुए. दिल्ली में रहते हुए किसी एक बस्ती को टारगेट कर के इन्होंने काम किया हो तो बताएं. मैं कभी कभी जब इनकी जीवनियां पढ़ता हूं कि मां के सर पर गंदगी की टोकरी थी तो मुझे लगता है कि मां के दुख को बेच रहे हैं. ठीक है कि मां के सर पर टोकरी थी लेकिन आने वाली बेटी के भविष्य के लिए इन्होंने क्या किया, ये बताएं? जरूरी यह था कि किसी बेटी के सर पर वो टोकरी ना आए इसके लिए काम किया जाए. वो ज्यादा जरूरी था लेकिन यह काम नहीं हुआ. 6 दिसंबर को आप लोग परिनिर्वाण दिवस कहते हो मैं बलिदान दिवस कहता हूं. हम इसका पोस्टर भी निकालते हैं हर साल. वाल्मीकि समाज के लिए तमाम लोग काम कर रहे हैं. आप उनसे कितने जुड़े हुए हैं? –  बेजवाड़ा विल्सन के साथ हमारी यहीं (पंजाब भवन) बात हुई थी. हमने उनसे कहा कि आप कहते हो कि सर पर मैले की टोकरी नहीं होनी चाहिए, हमने कहा कि ठीक बात है, नहीं होनी चाहिए. ये तो हर दलित कहेगा. इस पर काम करो. लेकिन इसके आगे क्या होना चाहिए? केवल सरकार की स्कीम का पैसा एक परिवार को दिला दें उससे काम नहीं होने वाला. उससे आगे सामाजिक परिवर्तन कैसे आएगा इस पर सोचना होगा. मैंने कहा कि लोगों को बाबासाहेब के उन चार बच्चों के नाम याद दिलाओ जो आंदोलन की भेंट चढ़ गए. विल्सन के साथ पॉल दिवाकर भी आए थे. लेकिन उस दिन बात करने के बाद दोनों ने मेरा फोन लेना बंद कर दिया. हालांकि विल्सन ने समाज के लिए काफी काम किया है. बाकी ज्यादातर लोग मंच के लोग हैं. वो सिर्फ भाषण दे रहे हैं. वाल्मीकि समाज और दलित समाज का जो अन्य तबका है, इनको आपस में जोड़ने के लिए आपने क्या काम किया है? – हम वाल्मीकि समाज को यह बताने में कामयाब हो रहे हैं कि गांधी की वजह से आपको पैंट कमीज नहीं मिली है. गांधी की वजह से आपको वोट या पंच बनने का अधिकार नहीं मिला है, बल्कि ये अधिकार बाबासाहेब की वजह से मिला है. हम लोगों तक यह बात पहुंचाने में सफल रहे हैं. हम महात्मा रावण को लेकर कार्यक्रम कर रहे हैं. मैंने फेसबुक पर देखा कि कुछ लोग महिषासुर की बात कर रहे हैं. मुझे लगता है कि महिषासुर अभी आम लोगों से जुड़े नहीं हैं. पहले रावण पर काम करना चाहिए था, उसमें बाद में महिषासुर आ जाते. हम अपने हर मंच से वाल्मीकि और बाबासाहेब की बात एक साथ करते हैं. मेरा मानना है कि बिना रूके लगातार काम करते रहने से नतीजे निकलते हैं. लोगों में सकारात्मक बदलाव आ रहा है. ‘भगवान वाल्मीकि’ को लेकर अक्सर दलित समाज के तमाम लोगों के बीच एक द्वंद की बात सामने आती है. सवाल यह भी उठता है कि वाल्मीकि दलित समाज से थे या नहीं थे. दूसरा सवाल यह भी उठता है कि जब वाल्मीकि ने उस वक्त में रामायण लिखा तो फिर उनके वंशजों के हाथ में कलम की जगह झाड़ू कैसे आ गया? – वंशज तो हम एकलव्य के भी हैं; तब भी हमारे हाथ में झाड़ू है. वंशज हम बाबा जीवन सिंह के भी हैं; तब भी हमारे हाथ में झाड़ू है. ये उससे कंपेयर नहीं होता. मेरा मानना है कि वाल्मीकि को पेरियार से लेकर बाद के अन्य किसी ने भी स्टडी किया ही नहीं है. इनलोगों ने वाल्मीकि को ऊपर ऊपर से समझा है. मोटे-मोटे संदर्भ उठा लिए हैं जिनको इस्तेमाल किया जा सके. अब पेरियार क्या कहते हैं? पेरियार लिखते हैं कि रामायण मिथक है. फिर लिखते हैं कि रावण हमारा बड़ा योद्धा था. दोनों बातें एक साथ कैसे संभव हो सकती है? पेरियार की किताब को ललई सिंह यादव ट्रांसलेट करते हैं और जब इलाहाबाद हाई कोर्ट में उस पर स्टे आ जाता है तो फिर वहां वाल्मीकि रामायण पेश करते हैं. मैं कहता हूं कि जब दलितों का एक बड़ा हिस्सा यह समझता है कि उसे वाल्मीकि को नहीं मानना है तो फिर वाल्मीकि की किताब को सबूत के तौर पर क्यों इस्तेमाल करते हो? उसकी कोई भी चीज क्यों इस्तेमाल करते हो?   कानपुर देहात में रावण मेला होता है. मुझे वहां दो बार बुलाया जा चुका है. मैंने वहां कहा कि एक तरफ आप सारा दलित साहित्य रख लिजिए जिसमें आप महामुनि शंबूक भी बात करते हैं, राम के उनके कातिल होने की बात करते हैं और दूसरी तरफ एक कागज पर वाल्मीकी नाम लिख कर के उसे कैंसिल कर दीजिए. आपका सारा साहित्य कूड़ा हो जाएगा क्योंकि फिर राम द्वारा शूंबूक के मारे जाने की बात का कोई एविडेंस ही नहीं बचता. एविडेंस वाल्मीकी से ले रहे हो और उन्हीं को काट रहे हो. ये एक बड़ी साजिश है, जिसका हम शिकार हैं. वो साजिश यह है कि दलित दलित इकट्ठा नहीं होनी चाहिए. हो सकता है कि यह साजिश गांधी ने डाली हो और एक तबके को खड़ा किया हो कि आप वाल्मीकी के खिलाफ बोलो. यह ध्यान देना होगा कि गांधी ने बाबासाहेब को सपोर्ट नहीं किया बल्कि जगजीवन राम को किया. हो सकता है कि उन्होंने   जगजीवन राम या फिर किसी और के माध्यम से यह बात फैलाई हो. मगर मैं जिस रूप में देखता हूं और अन्य दलित साहित्यकार लिखते हैं, रामायण का पहला हिस्सा है बाल कांड. बाल कांड में ही दलित साहित्यकार यह बात उठाते हैं कि राम दशरथ की औलाद नहीं है. मगर यह मूल तो वाल्मीकि का लिखा हुआ है. और जो व्यक्ति यह लिखे कि राम अपने पिता की औलाद नहीं है यह बताइए कि वह उसकी एडवोकेसी कर रहा है या फिर उसे नंगा कर रहा है. थोड़ा सा और आगे बढ़ते हैं. राम जब वनवास जाते हैं तो अपनी तीनों माताओं से मिलने के बाद सीता से भी बात करते हैं. वह सीता से कहता है कि यह महल और सुख सुविधाएं भरत और शत्रुध्न के हिस्से में चले गए हैं. मुझे वनवास मिला है. और अगर तुझे इन सब चीजों की जरूरत है तो तू उनकी शरण में चली जा. सीता वहां जो कहती है उसको दलित सहित्यकार खूब इस्तेमाल करते हैं. सीता कहती है कि “मेरे पिता को अगर पता होता कि तू पुरुष के भेष में नारी है तो मेरे पिता कभी मेरे हाथ में तुम्हारा हाथ न देते.” अब ये वाल्मीकि रामायण में है. वाल्मीकि रामायण कहती है कि महामुनि शंबूक को उल्टा लटका कर कत्ल किया गया. तो वाल्मीकि तो ये सारी बातें लिखकर हमें बता रहे हैं. तो फिर वाल्मीकी दोषी कैसे होते हैं. वाल्मीकि जी की एक और किताब है ‘योग विशिष्ट’. इस किताब में वो ब्राह्मणवाद के खिलाफ खूब लिखते हैं. इसकी एक लाइन है- तप, दान और तीरथ से भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, मोक्ष की प्राप्ति केवल ज्ञान से होती है. अब ये एक लाइन कितनी बड़ी है. अब आप देखिए कि सारा ब्राह्मणवाद तप, दान और तीरथ को ही महत्व देता है और उसी को मोक्ष का उपाय मानता है लेकिन वाल्मीकि इसकी खिलाफत करते हैं. तो वह ब्राह्मणवाद के समर्थन में कहां लिख रहे हैं? श्राद्ध के बारे में वाल्मीकि लिखते हैं कि अगर श्राद्ध करने से परलोक गए लोगों तक खाना पहुंचता है तो फिर यात्रा पर गए लोगों का भी श्राद्ध कर दिया करो. अब ब्राह्मण वाल्मीकि के साथ कहां खड़ा है, इस पर भी किसी का अध्ययन नहीं है. दिल्ली के चुनाव में एक साध्वी ने रामजादे की बात कही. उस पर रवीश कुमार ने अपने चैनल पर डिबेट किया. मैंने उन्हें फोन किया. मैंने कहा कि डिबेट अधूरा था. मैंने कहा कि आप मुझे राम का कोई भी मंदिर दिखा दो जहां राम परिवार है और उसके साथ उसके बच्चे भी हैं. बिना बच्चों के परिवार कैसे हो सकता है? और पहले रामजादे तो लव और कुश हैं. कौन सा ब्राह्मण, कौन सा ठाकुर, कौन सा बनिया उन दोनों को मानता है? यानि ब्राह्मण वाल्मीकि से इतना दूर है कि वह राम के बच्चों को इसलिए स्वीकार नहीं करता क्योंकि वह वाल्मीकि आश्रम में, वाल्मीकि की शिक्षा में, उनके सानिध्य में पले. दर्शन रत्न ‘रावण’ का साक्षात्कार लेते हुए ””””दलित दस्तक”””” पत्रिका के संपादक अशोक दास. बुद्ध को आप कैसे देखते हैं? – बुद्ध को हम बहुत अच्छे रूप में देखते थे, जब पढ़ते थे. जहां बुद्ध यह कहते हैं कि किसी शास्त्र को इसलिए ना मानों क्योंकि वह बहुत पुराने हैं. बहुत शानदार विचार थे. इसको हमने अपनी डायरी में नोट किया था. लेकिन जब दलित बुद्ध को लेकर हमारे पास आएं तो उन्होंने हमें बुद्ध से दूर कर दिया. बुद्ध तर्क को प्रधानता देते हैं लेकिन यह बात अनपढ़ लोगों को नहीं समझाया जा सकता. तो पहले उनको उस लेवल पर लेकर आना पड़ता है फिर ज्ञान की बात बतानी पड़ती है. जो बुद्ध वाले लोग वाल्मीकि बस्तियों में आएं उनके पास अन्य धर्मों की आलोचना के सिवा कुछ नहीं था. इनका बुद्ध तर्क और विचार वाला बुद्ध नहीं था. इनका बुद्ध गाली वाला बुद्ध था. इससे लोग उन्हें दुर से देखकर ही चिढ़ने लगे. और इस तरह उन्होंने बाबासाहेब को भी अपना विरोधी मान लिया. बुद्ध को नाम पर वो दीवाली करते हैं क्या ये ब्रह्मणीकरण नहीं है. बुद्ध के चार सत्यों को आर्य सत्य कहते हैं. उसको मानवीय सत्य क्यों नहीं कहते, आर्य सत्य ही क्यों कहते हैं? हां, बाबासाहेब जिस बुद्धिज्म को ग्रहण करते हैं उसको मैं दूसरे रूप में देखता हूं. बाबासाहेब बुद्धिज्म को अध्यात्मिक रूप में लेते ही नहीं है, मेरा मानना है कि बाबासाहेब बुद्धिज्म को राजनैतिक तौर पर ले रहे हैं कि हमें सिर्फ हिन्दू से अलग होना है. हिन्दू से अलग होने की तो जरूरत ही नहीं है क्योंकि जब बाबासाहेब यह लिखते हैं कि ‘अछूत कौन और कैसे’? वहीं साबित हो जाता है कि हम हिन्दू से अलग हैं. कहीं भी हम हिन्दू हैं ही नहीं फिर अलग होने की बात ही बेमानी है. हिन्दू से अलग होने की बात संस्कारों में आती है कि हमारा बच्चा हो तो हम पंडित से नाम ना निकलवाएं. हम पंडित से कोई अन्य काम ना करवाएं वो बात आती है. लेकिन जब बाबासाहेब 22 प्रतिज्ञाओं की बात करते हैं वहां बुद्धिज्म कहीं नहीं आता. वहां बुद्ध का शील नहीं आता. मैं हिन्दू-हिन्दू करता रहूं इसका मतलब मैं उसका प्रचार ही कर रहा हूं. तो पढ़ाई के दौरान हमने जिस बुद्ध को समझा और माना था, आलोचना वालों ने उस बुद्ध को हमसे दूर कर दिया. लेकिन आप जिस बुद्ध से दूर हैं उसे तो आपके पास लोग लेकर आए ना, बुद्ध तो वही हैं. फिर बुद्ध को कैसे खारिज किया जा सकता है? – मैं खारिज नहीं कर रहा हूं. मैं बस इतना कह रहा हूं कि एक जो हमने पढ़ते हुए बुद्ध को समझा और दूसरा जो हमारे पास बुद्ध को जिस रूप में लेकर आया तो हम पहले जिस बुद्ध को मानते थे, हमें उससे भी दूर हटना पड़ा. दूसरी बात, मैं सोचता हूं कि हमें ना बुद्ध बनने की जरूरत है और न ही जैन बनने की जरूरत है. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के सामने यह मजबूरी थी, और यह वाजिब और जरूरी मजबूरी थी. क्योंकि मेरा मानना है कि इतना बड़ा विद्वान गलती नहीं कर सकता. एक दूसरे तरह कि मजबूरी थी. एक वर्ष से ज्यादा हो गए जब राजेन्द्र यादव की मृत्यु हुई. सारी उमर वह ब्राह्मणवाद को कोसते रहे. मरे तो सारे संस्कार ब्राह्मण ने किए. इंदिरा गांधी की मृत्यु हुई. उसका लड़का विदेश में पढ़ा. विदेशी औरत से शादी की लेकिन जब पंडित ने कहा कि कमीज उतारो और जनेऊ पहनों तो उसने जनेऊ पहन लिया. मैं सोचता हूं कि यही मजबूरी बाबासाहेब के सामने थी और यह जायज मजबूरी थी. उन्होंने शायद धर्म परिवर्तन यह सोच कर किया कि मेरे अंतिम संस्कार पर कोई ब्राह्मण ना आ जाए. क्योंकि अगर वो ना करते तो हम सब तब ब्राह्मणवाद की ओर चले जाते. मगर जिसे हम आदि संस्कृति कहते हैं वो इन सबमें कहां आती है? मुझे इसमें वो नहीं दिखता. इसमें शंबूक बुद्ध से बड़े नहीं होते. और जब मैं चैत्य भूमि जाता हूं जो कि बाबासाहेब की याद में है तो वहां देखता हूं कि बाबासाहेब की प्रतिमा काले रंग में नीचे पड़ी है और बुद्ध की प्रतिमा सवर्ण रंग में ऊपर है. हम कहीं न कहीं वहीं खड़े हैं. इसमें हम अपना क्या पैदा कर पाएं? सिक्खों के ग्रंथ में चार हजार बार राम का नाम आया है लेकिन आप किसी गुरुद्वारे में राम का नाम ऊपर ढ़ूंढ़ कर बता दो. किसी ने यह हिमाकत नहीं कि लेकिन हमारे यहां यह हो रहा है. अगर बुद्ध हैं भी तो उनकी बात तमाम अन्य दलित महापुरुषों जिनकी बात बाबासाहेब अछूत कौन और कैसे में करते हैं उनके बाद होनी चाहिए. लेकिन आज देखा यह जा रहा है कि दलितों का एक बड़ा तबका सिर्फ बुद्ध को स्थापित करने में लगा है, बल्कि बाबासाहेब भी उससे कहीं पीछे छूट गए हैं. आधस की परिकल्पना कैसे की. कब आपको लगा कि आपको वाल्मीकि समाज के बीच काम करना है? – ऐसा नहीं था कि हमें बचपन से ही जातिवाद झेलना पड़ा. शहर में जन्म हुआ, पब्लिक स्कूल में पढ़े तो भेदभाव जैसा कुछ नहीं हुआ. कॉलेज में आने पर बातें समझ में आने लगी और वो भी खबरों को पढ़कर. लेनिन और मार्क्स को पढ़कर आग लगना शुरु हो गया. जब दलित साहित्य को पढ़ा तो लगा कि यहां काम करने की जरूरत है. जब बाबासाहेब को पढ़ा तो उनकी एक लाइन से यह साफ हो गया कि कम्यूनिज्म भारत के लिए नहीं है. कम्यूनिज्म वहां के लिए हैं, जहां क्लास (वर्ग) है, भारत में कॉस्ट (जाति) है. 24 सितंबर, 1994 में आदि धर्म समाज (आधस) की स्थापना तब की जब हमने मान लिया कि हमें हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन इन सबसे हटकर आदि धर्म की कल्पना करनी है, इसके लिए काम करना है. सिक्खों के दस गुरू हैं उनका इतिहास छोटा है. हमारा इतिहास बहुत बड़ा है, हम अपने सौ गुरुओं की श्रृंखला बनाकर आदि धर्म बनाएंगे. इस श्रृंखला में कौन-कौन है? – पहले वाल्मीकि, दूसरे शुक्राचार्य फिर रावण, महामुनि शंबूक, महामुनि मतंग, मां शबरी, मां कैकसी (रावण की माता) और ऐसे ही हम रविदास और कबीर तक आते हैं. इन सबके पीछे आपका उद्देश्य क्या है? – उद्देश्य यही है कि दलित समाज की अपनी पहचान होनी चाहिए. हम भले ही नारा देते रहें कि जातियां तोड़ो, यह नहीं टूटने वाली. राजनैतिक दलों से तो बिल्कुल नहीं टूटने वाली. जब हम आदिधर्म की परिकल्पना करेंगे और जब वाल्मीकि, रविदास और कबीर को एक ही स्थान देंगे तो जातियां अपने आप टूटने लगेगी. ये कल्पना है हमारी. ​

स्वामी प्रसाद मौर्य ने बसपा के साथ-साथ मौर्य समाज से भी घात किया है- पारसनाथ मौर्य

स्वामी प्रसाद मौर्य के बहुजन समाज पार्टी से अलग होने के बाद मौर्या समाज को बसपा में जोड़े रखने की जिम्मेदारी फिर से पूर्व मंत्री पारसनाथ मौर्या पर आ गई है. स्वामी प्रसाद मौर्य के जाने के बाद बसपा के भीतर और मौर्य समाज में क्या प्रभाव पड़ा है, इसको जानने के लिए पारसनाथ मौर्या से बात की सतनाम सिंह ने.

स्वामी प्रसाद मौर्य के बहुजन समाज पार्टी छोड़ने पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

– उसने पार्टी साथ के भी घात किया है और अपने साथ भी घात किया है. उसने साथ ही साथ अपने मौर्य समाज के साथ भी घात किया है. इसलिए की मानववादी महापुरुषों के विचारों को जमीन पर उतारने का कार्य यदि किसी ने किया है तो वह बहन मायावती जी ने किया है. बहन जी ने मान्यवर कांशीराम जी के संघर्ष को आगे बढ़ाया. बाबासाहेब के मिशन को आगे बढ़ाया. इसके लिए बहन जी का बहुत बड़ा संघर्ष है. इसके लिए कहीं भी वो थकी नहीं, झुकी नहीं. आगे बढ़ती ही गईं. नोएडा से लेकर कुशीनगर तक स्मारकों की दुनिया बसाने का काम बहन जी ने किया, जिससे हमको बहुत प्रेरणा मिली है. काश स्वामी प्रसाद मौर्य भी उनसे प्रेरणा ले पाते.

मौर्य समाज में इसको लेकर क्या प्रतिक्रिया है?

– मौर्य समाज इस घटना से रत्ती भर विचलित नहीं हुआ है. देखिए जब तक जाति के नाम पर सोच है. तब तक तो भावावेश में कुछ लोग उनका नाम ले सकते हैं. सेंटिमेंट में आपत्ति कर सकते हैं, लेकिन जब इसके बारे में गंभीरता से सोचेंगे तो यह तय है कि शाक्य, मौर्य, कुशवाहा, सैनी, समाज का कोई भी व्यक्ति इधर-उधर जाने के बारे में नहीं सोचेगा. इस समाज का व्यक्ति बहन कुमारी मायावती जी और उनके नेतृत्व को समर्थन देगा. हर जगह संगठन के लोग भी बहन कुमारी मायावती के साथ हैं. पूरा मौर्य समजा बसपा से जुड़ा हुआ है. स्वामी प्रसाद मौर्य के चले जाने से बहुजन समाज पार्टी के वोट बैंक पर कोई असर नहीं पड़ेगा, बल्कि आम जनता में पार्टी की साख बढ़ी है कि बसपा किसी भी कीमत पर परिवारवाद को तरजीह नहीं देती.

स्वामी प्रसाद मौर्य ने मायावती जी को दौलत की बेटी कहा था, इस पर आप क्या कहेंगे?

– कोई कहने के लिए कुछ भी कह ले लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य ने यह सब अभी तक क्यों नहीं कहा था? ठीक उसी दिन ही क्यों कहा? अभी तक दूसरों के लिए क्यों नहीं सिफारिश किया. दूसरे तमाम सीनियर लोग थे. तमाम एक से एक मिशनरी थे. लेकिन उनके लिए भी वे कभी नहीं बोले. जब तक उनकी शर्तें मानी जाती रहीं तब तक तो मायावती जी दलित की बेटी थी जब उनकी शर्तें नहीं मानी गईं तब वही बहन मायावती उनके लिए दौलत की बेटी हो गईं.

स्वामी जी ने आरोप यह भी लगाया था कि बसपा में पैसे लेकर टिकट दिया जाता है?

– यह उन्होंने क्यों नहीं सोचा की बड़ी पार्टियां बड़े उद्योगपति घरानों से पैसा लेती हैं. समाचारों में स्पष्ट आया की केवल बसपा ही एक मात्र पार्टी ऐसी है जो किसी भी उद्योगपति से एक भी पैसा नहीं लेती. तो इस पर स्वामी प्रसाद मौर्य ने क्यों नहीं सोचा. पार्टी फण्ड के लिए चन्दा कौन पार्टी नहीं लेती. फिर यह आरोप भी उन्होंने पहले कभी क्यों नहीं लगाया? अभी ही क्यों लगाया?

क्या स्वामी प्रसाद मौर्य जी सच में अपने बेटे-बेटी को टिकट दिलाने के लिए अड़े हुए थे?

– अड़े हुए तो थे ही. यह तो जगजाहिर है. वे पहले से ही लड़ रहे थे. मुख्य बात यह है कि वे अपने लिए भी वो सीट मांग रहे थे जो बहन जी उन्हें नहीं देना चाहती थीं. जब मना कर दिया तो आपको मानना चाहिए अपने नेता की बात. जब 1999 में बहन जी ने हमें पार्लियामेंट्री सीट से लड़ने के लिए कहा जहां हमारे खिलाफ सोनिया गांधी आ गईं तो उसके लिए तो स्वामी प्रसाद ने हमें राय दिया की आप मना मत कीजिए स्वीकार कर लीजिए तो आपने अब अपनी सीट के लिए स्वीकार क्यों नहीं किया? जो राय हमें दी थी वो अपने लिए क्यों नहीं मानी. जब हमें अमेठी लड़ाया तो हमारे लिए राय दे दिया और खुद अब बहन जी की बात नहीं मान करके सीधे मुकर गए. ये तो दोहरी बात हो गई.

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य हैं. वह मौर्य समाज को भाजपा से कितना जोड़ पाएंगे?

– उसका तो मैं नाम ही नहीं लूंगा. उसका कोई नाम ही नहीं है. कोई जिक्र नहीं है. कोई आधार नहीं है. उसे कोई नहीं जानता. उसे तो जबरन थोपा गया है. जिसका समाज के बीच कोई वजूद ही नहीं है उसकी बात क्या करें?

ऐसे खबरें आ रही है कि स्वामी प्रसाद भाजपा के संपर्क में थे?

– अभी हम इसे नहीं बता सकते कि कौन किसके साथ मिल रहा है. मैं इस बारे में नहीं बता सकता कि पहले से ही वह भाजपा के संपर्क में था या नहीं.

जब स्वामी प्रसाद ने पार्टी छोड़ने के लिए प्रेस कांफ्रेंस की तब तो आप भी उनके साथ ही बैठे थे?

– उन्होंने मुझसे घात किया. बसपा का विधानमण्डल दल का कार्यालय था. अब कार्यालय में जाकर बैठेंगे तो मालूम होगा कि बहन जी का कोई संदेश हो उसी मुद्दे पर बात करेंगे शायद. इसलिए हम लोग तमाम लोग बैठ गए थे. एक मैं ही नहीं. यह सुनने के लिए की बहन जी ने क्या कहा है तमाम लोग बैठ गए थे और इन्होंने घात करके अपनी पार्टी के कार्यालय में ही नैतिकता का सत्यनाश कर दिया. बताइए इनका नैतिक दायित्व कहां गया? ये समाज में जाकर कैसे बात करने लायक हैं.

इस बार बहुजन समाज पार्टी विधानसभा चुनावों में कितनी सीटें जीत पाएगी, क्या अनुमान है?

देखिए ऐसा है मैं काउंट करके नहीं बता सकता. न मैं ज्योतिषाचार्य हूं और न ज्योतिष में विश्वास करता हूं. न तो मैं अटकलों पर ही यकीन करता हूं. मैं विश्वास करता हूं अपनी मेहनत पर. कितना हम दौड़ सकते हैं, कितना हम कर सकते हैं. कितने लोगों को हम सम्यक रीति से अपना बना सकते हैं. जब हम यह बात करने के लिए आगे चल रहे हैं. हमारा विचार बढ़ता जा रहा है. मैं तो इतना जानता हूं कि बसपा की सरकार बनेगी और इसको कोई रोक नहीं पाएगा. इसलिए की हमेशा परिवर्तन होता रहता है. परिवर्तन जब-जब होगा तब-तब उपेक्षितों का भला होगा. सरकार हमारी ही बनेगी. बहुमत आएगा ही. सीट कितनी मिलेगी यह आप प्रेस के लोग सोचिए.

भाजपा वाले कह रहे हैं कि हम 60 प्रतिशत सीटें जीतेंगे?

– उनका तो यही धंधा है. गणित लगाना. गलत-सलत प्रचार करना. ये खाली प्रचार-तंत्र बनाते हैं; प्रजातंत्र नहीं बनाते. इनके यहां कोई विचार है ही नहीं और न ही प्रजातंत्र है बस प्रचार-तंत्र है. ये झूठा ढोल पीट रहे हैं.

आप कांशीराम जी के साथ रहे हैं, क्या मायावती जी साहब कांशीराम जी की विचारधारा को आगे बढ़ा रही हैं?

– हमारी नेता बहन कुमारी मायावती जी मान्यवर की विचारधारा को लेकर बखूबी आगे बढ़ रही हैं. यह जानने के लिए मूल बात यह है कि बहुजन जाग रहा है कि नहीं. बहुजन बढ़ रहा है कि नहीं. आज बहन मायावती जी अपने गुरु साहब कांशीराम जी के आंदोलन को बहुत ही कुशलता से आगे बढ़ा रही हैं.

लोग ऐसा आरोप लगाते हैं कि बहन जी ने साहब कांशीराम जी के समय के सभी सीनियर लोगों को किनारे कर दिया है?

देखिए, ये रणनीति होती है कि कैसे हम असली लोगों को बचाते रहें और जो नकली लोग हैं उनको निकालना ही पड़ता है. तथा जो काबिल लोग हैं उन्हें सत्ता का आश्रय देकर आगे लाना ही पड़ता है. जो ज्ञानी हैं वो ज्ञान की ही बात करेगा जो अज्ञानी है वह अज्ञान की ही बात करेगा. गहराई में डुबकी लगाकर कोई ज्ञानी ही जानता है कि किस सकारात्मक रणनीति के तहत बसपा में फेर बदल किए गए हैं. बहन जी बखूबी जानती हैं कि समाज हित में उन्हें क्या करना है और वे जो भी फेर बदल करती हैं सब बसपा के हित में करती हैं. बहुजन समाज के हित में करती हैं. पूरे प्रजातांत्रिक तरीके से ही निर्णय लेती हैं.

जैसे की आपने बताया की आप बसपा बनने से पहले से ही साहब कांशीराम के संपर्क में थे तो क्या आप बसपा में अपनी स्थिति से संतुष्ट हैं?

मैं तो संतुष्ट हूं ही इसलिए कि मैं तो केवल विचार को ही देख रहा हूं कि विचार आगे बढ़ रहा है. हर पल दिन और रात बहुजन समाज का निर्माण हो रहा है. विस्तार हो रहा है क्षण-क्षण हो रहा है. इसलिए मैं संतुष्ट हूं. मैं गदगद हूं. पार्टी की विचारधारा की उन्नति से. मैं पूरी तरह से संतुष्ट हूं बसपा में अपनी स्थिति से.

यदि चुनाव में कांग्रेस प्रियंका गांधी को आगे कर देती है तो क्या बसपा पर इसका असर पड़ेगा?

बड़ी-बड़ी ऊख में लवाही (कहावत). लवाही किसे कहते हैं जो जला हुआ है. मरा हुआ है. यह बड़ी-बड़ी ऊख में लवाही वाली बात है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का क्या वजूद है? कौन जानता है उसे? प्रियंका का कोई असर नहीं होने वाला. भाई ने दलितों के घरों में रहकर देख लिया कोई असर नहीं हुआ. अब बहन भी आगे आकर देख लें, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. यू.पी. में बहन कुमारी मायावती के कद का कोई चेहरा ही नहीं है. सभी बौने हैं.

बुद्ध ने सिखाई आत्मनियंत्रण की कला

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एक लड़का अत्यंत जिज्ञासु था. जहां भी उसे कोई नई चीज सीखने को मिलती, वह उसे सीखने के लिए तत्पर हो जाता. उसने एक तीर बनाने वाले से तीर बनाना सीखा, नाव बनाने वाले से नाव बनाना सीखा, मकान बनाने वाले से मकान बनाना सीखा, बांसुरी वाले से बांसुरी बनाना सीखा. इस प्रकार वह अनेक कलाओं में प्रवीण हो गया. लेकिन उसमें थोड़ा अहंकार आ गया. वह अपने परिजनों व मित्रों से कहता- ‘इस पूरी दुनिया में मुझ जैसा प्रतिभा का धनी कोई नहीं होगा.’ एक बार शहर में तथागत बुद्ध का आगमन हुआ. उन्होंने जब उस लड़के की कला और अहंकार दोनों के विषय में सुना, तो मन में सोचा कि इस लड़के को एक ऐसी कला सिखानी चाहिए, जो अब तक की सीखी कलाओं से बड़ी हो. वे भिक्षा का पात्र लेकर उसके पास गए. लड़के ने पूछा- ‘आप कौन हैं?’ बुद्ध बोले- ‘मैं अपने शरीर को नियंत्रण में रखने वाला एक आदमी हूं’ लड़के ने उन्हें अपनी बात स्पष्ट करने के लिए कहा. तब उन्होंने कहा- ‘जो तीर चलाना जानता है, वह तीर चलाता है. जो नाव चलाना जानता है, वह नाव चलाता है, जो मकान बनाना जानता है, वह मकान बनाता है, मगर जो ज्ञानी है, वह स्वयं पर शासन करता है.’ लड़के ने पूछा- ‘वह कैसे?’ बुद्ध ने उत्तर दिया- ‘यदि कोई उसकी प्रशंसा करता है, तो वह अभिमान से फूलकर खुश नहीं हो जाता और यदि कोई उसकी निंदा करता है, तो भी वह शांत बना रहता है और ऐसा व्यक्ति ही सदैव आनंद में रहता है.’ लड़का जान गया कि सबसे बड़ी कला स्वयं को वश में रखना है. कथा का सार यह है कि आत्मनियंत्रण जब सध जाता है, तो सम्भाव आता है और यही सम्भाव अनुकूल-प्रतिकूल दोनों स्थितियों में हमें प्रसन्न रखता है.

क्रिसमस पर विशेषः सलीब पर टंगी भारतीय दलित ईसाईयों की जिंदगी

कैथलिक चर्च ने अपने ‘पॉलिसी ऑफ दलित इम्पावरन्मेंट इन द कैथलिक चर्च इन इंडिया’रिपोर्ट में यह मान लिया है कि चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है इसे जल्द से जल्द खत्म किए जाने की जरूरत है.’ हालांकि इसकी यह स्वीकारोक्ति नई बोतल में पुरानी शराब भरने जैसी ही है. फिर भी दलित ईसाइयों को उम्मीद है कि भारत के कैथलिक चर्च की स्वीकारोक्ति के बाद वेटिकन और संयुक्त राष्ट्र में उनकी आवाज़ सुनी जाएगी. आज क्रिसमस सबसे बड़ा ग्लोबल त्योहार बन गया है. क्या यह भी अब एक खोखला आयोजन बन कर नहीं रह गया है? ईसा मसीह ने दुनिया को शांति का संदेश दिया था. लेकिन गरीब ईसाइयों के जीवन में अंधेरा कम नहीं हो रहा. अगर समुदाय में शांति होती तो आज दलित-आदिवासी ईसाई की स्थिति इतनी दयनीय नहीं होती. आज झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम के आदिवासी अन्य जाति-समुदायों से काफी पिछड़े और उपेक्षित हैं. लाखों की संख्या में आदिवासी युवक-युवतियां दिल्ली और मुंबई में घरेलू नौकर-नौकरानी अथवा आया का काम कर रही हैं. केवल दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में ही आया का काम करने वालों में 92 प्रतिशत महिलाएं- युवतियां ईसाई हैं, जबकि गैर ईसाई आदिवासी यानी सरना महिलाओं की संख्या मात्र 2 प्रतिशत है इसका मतलब यह है कि ईसाई चर्च/ मंडली की व्यवस्था व प्रणाली से आदिवासियों को पूरी तरह आर्थिक एवं शैक्षणिक लाभ नहीं मिल रहा है जिसके कारण उन्हें शहरों की ओर जाना पड़ रहा है. अगर छोटानागपुर क्षेत्र में आदिवासियों के लिए रोजगार नहीं है और वे सुविधाविहीन हैं तो इसके लिए केवल सरकार और राजनेताओं को दोष नहीं दिया जा सकता. ईसाई धर्म विशेषकर कैथलिक चर्च के अधिकारियों की जिम्मेदारी बनती थी कि वे अपने धर्म के सदस्यों के लिए आर्थिक सुविधाओं के साथ मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था करते, लेकिन यह जिम्मेदारी उन्होंने ढंग से नहीं निभाई. सच कहा जाए तो दलित – आदिवासियों को विकास की राह पर लाने में चर्च के अधिकारी पूरी तरह असफल रहे हैं. चर्च का उद्देश्य सिर्फ ईसाइयों की संख्या बढ़ाना नहीं होना चाहिए. भारत में सदियों से ऊंच-नीच, असमानता और भेदभाव का शिकार रहे करोडों दलितों आदिवासियों और सामाजिक हाशिए पर खड़े लोगों ने चर्च / क्रूस को चुना है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि चर्च उनके जीवन स्तर को सुधारने की जगह अपने साम्राज्यवाद के विस्तार में व्यस्त है. विशाल संसाधनों से लैस चर्च अपने अनुयायियों की स्थिति से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें सरकार की दया पर छोडना चाहता है. दरअसल चर्च का इरादा एक तीर से दो शिकार करने का है. कुल ईसाइयों की आबादी का आधे से ज्यादा अपने अनुयायियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखवा कर वह इनके विकास की जिम्मेदारी सरकार पर डालते हुए देश की कुल आबादी के पाचवें हिस्से हिन्दू दलितों को ईसाइयत का जाम पिलाने का ताना-बाना बुनने में लगा है. यीशु के सिद्धांत कहीं पीछे छूट गए हैं. चर्च आज साम्राज्यवादी मानसिकता का प्रतीक बन गया है आैर आज उनका जीवन क्रूस पर टंगा हुआ है. आज भारत में कैथोलिक चर्च के 6 कार्डिनल है पर कोई दलित नहीं, 30 आर्च बिशप में  कोई दलित नहीं, 175 बिशप में केवल 9 दलित है. 822 मेजर सुपिरयर में 12 दलित है, 25000 कैथोलिक पादरियों में 1130 दलित ईसाई है. इतिहास में पहली बार भारत के कैथलिक चर्च ने यह स्वीकार किया है कि जिस छुआछूत और जातिभेद के दंश से बचने को दलितों ने हिंदू धर्म को त्यागा था, वे आज भी उसके शिकार हैं. वह भी उस धर्म में जहां कथित तौर पर उनको वैश्विक ईसाईयत में समानता के दर्जे और सम्मान के वादे के साथ शामिल कराया गया था. कैथलिक चर्च ने अपने ‘पॉलिसी ऑफ दलित इम्पावरन्मेंट इन द कैथलिक चर्च इन इंडिया’ रिपोर्ट में यह मान लिया है कि चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है इसे जल्द से जल्द खत्म किए जाने की जरूरत है.’ हालांकि इसकी यह स्वीकारोक्ति नई बोतल में पुरानी शराब भरने जैसी ही है. फिर भी दलित ईसाइयों को उम्मीद है कि भारत के कैथलिक चर्च की स्वीकारोक्ति के बाद वेटिकन और संयुक्त राष्ट्र में उनकी आवाज़ सुनी जाएगी. कुछ समय पहले दलित ईसाइयों के एक प्रतिनिधिमंडल ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून के नाम एक ज्ञापन देकर आरोप लगाया कि कैथोलिक चर्च और वेटिकन दलित ईसाइयों का उत्पीड़न कर रहे है. जातिवाद के नाम पर चर्च संस्थानों में दलित ईसाइयों के साथ लगातार भेदभाव किया जा रहा है. कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ऑफ इंडिया और वेटिकन को बार बार दुहाई देने के बाद भी चर्च उनके अधिकार देने को तैयार नहीं है. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून को दिए ज्ञापन में मांग की कि वह चर्च को अपने ढांचे में जातिवाद के नाम पर उनका उत्पीड़न करने से रोके और अगर चर्च ऐसा नही करता तो संयुक्त राष्ट्र में वेटिकन को मिले स्थाई अबर्जवर के दर्जें को समाप्त कर दिया जाना चाहिए. अब चर्च के लिए आत्ममंथन का समय आ गया है. चर्च को भारत में अपने मिशन को पुनर्परिभाषित करना होगा. भारत में चर्च को जितनी सुविधाएं प्राप्त है, उतनी तो उन्हें यूरोप तथा अमेरिका में भी नहीं मिलतीं. विशेष अधिकार से शिक्षण संस्थान चलाने, सरकार से अनुदान पाने आदि  वे सहूलियतों शामिल हैं. आज देश की तीस प्रतिशत शिक्षा एवं बाईस प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर चर्च का अधिकार है. भारत सरकार के बाद चर्च के पास भूमि है और वह भी देश के पाश इलाकों में. सरकार के बाद चर्च रोजगार उपलब्ध करवाने वाला सबसे बड़ा संस्थान है इसके बावजूद उसके अनुयायियों की स्थिति दयनीय बनी हुई है. ईसाइयों को धर्म और सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति एक स्पष्ट समझ बनाने की आवश्यकता है. ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, गुजरात, बिहार, झारखंड़,कर्नाटक,आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पूर्वी राज्य या यो कहे कि पूरे भारत में ईसाइयों के रिश्ते दूसरे धर्मों से सहज नहीं रहे हैं. धर्मांतरण को लेकर अधिकतर राज्यों में दोनों वर्गों के बीच तनाव पनप रहा है और चर्च का एक वर्ग इन झंझावतों को समाप्त करने के स्थान पर इन्हें विदेशों में हवा देकर अपने हित साध रहा है. शांति के पर्व क्रिसमस पर ईसाइयों को अब इस बात पर आत्ममंथन करने की जरुरत है कि उनके रिश्ते दूसरे धर्मों से सहज कैसे बने रह सकते हैं और भारत में वे अपने अनुयायियों के जीवन स्तर को कैसे सुधार सकते हैं. संसाधनों के बल पर चर्च ने भले ही सफलता पा ली हो, लेकिन ईसा मसीह के सिद्धांतों से वह दूर हो गया है. आज चर्च की सफलता और ईसा के सिद्धांत दोनों अलग-अलग कैसे हो गये हैं. यह ठीक उसी प्रकार से जैसे कि भले समारितान की कथा में प्राथमिकता में आये पुरोहित ‘पादरी’ ने डाकूओं से लूटे-पीटे गये घायल व्यक्ति यहूदी भाई को नजर अंदाज कर दिया था. यीशु ने मनुष्य को जगत की ज्योति बताया है. उन्होंने कहा कि कोई दीया जलाकर पैमाने के नीचे नहीं बल्कि दीवार पर रखते है ताकि सबको प्रकाश मिले. इसका अर्थ है कि हम अपनों को नजरअंदाज न करें. आज चर्च में भले ही विश्वव्यापी सफलता पा ली हो, पर वह अपने ही घर में वंचितों की सुध लेने में असफल रहा है, क्योंकि वह अपने व्यापार में व्यस्त है. लेखक पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट के अध्यक्ष हैं.

विश्व पुस्तक मेला में लगेगा ”दलित दस्तक” का स्टॉल

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नई दिल्ली। दिल्ली में 7 जनवरी 2017 से विश्व पुस्तक मेले की शुरूआत होगी. इस विश्व पुस्तक मेले में “दलित दस्तक” पत्रिका का स्टॉल भी लगाया जाएगा. यह पुस्तक मेला 15 जनवरी तक चलेगा. दलित दस्तक पत्रिका का स्टॉल हाल नंबर 12A  में लगेगा जिसका स्टॉल नंबर 83 है. दलित दस्तक के स्टॉल से आप लोग पुस्तकें और पत्रिका खरीद सकते हैं. दलित दस्तक के स्टॉल से आप दलित मुद्दों से जुड़ी किताबें और बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर पर आधारित पुस्तकें खरीद सकते हैं. दलित दस्तक के “दास पब्लिकेशन” द्वारा प्रकाशित कई पुस्तके हैं जिनमें मुख्य रूप से “राष्ट्र निर्माता बाबासाहेब अम्बेडकर”, “दलित एजेंडा 2050”, “एक मुलाकात दिग्गजों के साथ” और “50 बहुजन नायक” उपलब्ध रहेगी. इसके अतिरिक्त दलित दस्तक पत्रिका भी स्टॉल से खरीदी जा सकती है.

मिड डे मील बनाने वाली दलित महिला ने कहा, गांव गई तो मार देंगे ऊंची जाति के लोग

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सागर। मध्यप्रदेश के सागर जिले में मानवता को शर्मसार कर देने वाला मामला सामने आया है. एक दलित महिला को उच्च जाति के लोगों ने बेरहमी से पीट डाला, महिला का कसूर सिर्फ इतना था कि वो दलित समुदाय की है और स्कूल में मध्यांन भोजन बनाती है. जोकि उच्च जाति के लोगों को पसंद नहीं. पीड़ित महिला ने इसकी शिकायत थाने में की तो उच्च जाति के लोगों ने एक बार फिर उसके साथ मारपीट कर दी. पीड़िता ने न्याय की गुहार लगाई है जिसके बाद एसपी ने मामले में कार्रवाई के निर्देश दिया है. प्राप्त जानकारी के अनुसार, जिला मुख्यालय से 42 किलोमीटर दूर स्थित राहतगढ़ थाना के गुमरिया गांव में पीड़ित रामवती अहिरवार की इसी गांव के उच्च जाति के लोगों ने बेरहमी से पिटाई कर दी. महिला का कसूर सिर्फ इतना था कि वो मिड डे मील का खाना बनाने स्कूल जाती थी. इसलिए छुआछूत के चलते उच्च जाति के लोगों ने पहले पीड़ित को खाना बनाने से रोका. जब महिला ने उनकी बात की अनसुनी की तो राकेश यादव, ह्रदेश यादव, अखिलेश यादव और रीना यादव ने उसके साथ मारपीट किया. पीड़िता ने इस बात की शिकायत राहतगढ़ थाने में दर्ज करवाई, तो आरोपियों ने महिला को फिर बेरहमी से मारा-पीटा और गांव से निकल जाने का फरमान सुना दिया. डरी सहमी पीड़िता दो दिन से अपने पति के साथ अपने बच्चों को छोड़कर सागर में है, उसका कहना है कि अगर वह गांव गई तो आरोपी उसे जान से मार देंगे. उसने इस मामले की शिकायत एसपी से कर न्याय की गुहार लगाई है. फिलहाल एसपी सचिन अतुलकर ने स्थानीय थाने को निर्देश दिया है कि वह आरोपियों को तत्काल गिरफ्तार करें.

कुरूपताओं से भरा शरीर इत्र छिड़कने से नहीं होता सुंदरः बुद्ध

शरीर मे बत्तीस कुरूपताओं की हमेशा स्मृति रखने का नाम कायगता-स्मृति है. बुद्ध कहते हैं- अपने शरीर में इन विषयों की स्मृति रखें-केश, रोम, नख, दांत, त्वचा, मांस, स्नायु, अस्थि, अस्थिमज्जा, यकृत, क्लोमक, प्लीहा, फुस्फुस, आत, उदरस्थ मल-मूत्र, पित्त, कफ, रक्त, पसीना, चर्बी, लार आदि. यह शरीर इन सब चीजों से भरा हुआ है, भला इसमें सौंदर्य कैसे हो सकता है! सौंदर्य तो सिर्फ चेतना का होता है. देह तो मल-मूत्र का घर है. देह तो धोखा है. देह के धोखे में मत पड़ना. बुद्ध कहते हैं- इस बात को स्मरण रखना कि इस पर तुम चाहे कितने ही इत्र से छिड़को, तो भी इसकी दुर्गंध नहीं जाती. चाहे इसे कितने ही महंगे सुंदर वस्त्रों में ढकों, तो भी इसका असौंदर्य नहीं छुपता है. और चाहे कितने ही सोने के आभूषण पहनो, हीरे जवाहरात सजाओ, तो भी तुम्हारे भीतर की मांस मज्जा वैसी की वैसी ही रहेगी. जिस दिन चेतना का पक्षी उड़ जाएगा, इस देह को कोई दो कौड़ी में खरीदने को राजी न होगा. जल्दी से लोग ले जाएंगे, मरघट पर जला, दफना आएंगे. जल्दी समाप्त करेंगे. घड़ी दो घड़ी रुक जाएगी देह तो बदबू आएगी. यह तो रोज नहाओ, धोओ, साफ करो, तब किसी तरह तुम बदबू को थोड़ी छिपा पाते हो. लेकिन बदबू तो लगातार बह रही है. बुद्ध कहते हैं, शरीर तो कुरूप है. सौंदर्य तो सिर्फ चेतना का होता है. और सौंदर्य चेतना का जानना हो तो ध्यान मार्ग है. और शरीर का सौंदर्य मानना हो तो ध्यान को भूलने  मार्ग है. ध्यान से ही पता चलेगा कि इस शरीर में यही सब कुरूपताएं ही तो भरी हुई है. इसमें तो और कुछ भी नहीं है. कभी जाकर अस्पताल में टंगे अस्थिपंजर को देख आना, कभी जाकर किसी मुर्दे का पोस्टमार्टम होता हो तो जरूर देख आना, देखने योग्य है, उससे तुम्हें थोड़ी अपनी स्मृति आएगी कि शरीर दशा क्या है. किसी मुर्दे का पेट कटा हुआ देख लेना, तब समझ में आएगा कि शरीर मे कितना मलमूत्र भरे हुए हम चल रहे हैं. बुद्ध कहते हैं- इस स्थिति का बोध रखो. यह बोध रहे तो धीरे-धीरे शरीर से तादात्म्य, झूठा मोह टूट जाता है और तुम उसकी तलाश में लग जाते हो जो शरीर के भीतर छिपा है, जो परमसुंदर है. उसे सुंदर करना नहीं होता, वह तो स्वयं ही सुंदर है. उसे जानते ही सौंदर्य की वर्षा हो जाती है जबकि शरीर को नहला कर इत्र, वस्त्रों, गहनो से सजाकर सुंदर करने की कोशिश करते हो क्योंकि शरीर सुंदर नहीं है यह तो बनाने से भी सुंदर नहीं होता है. कभी नहीं हुआ है और कभी हो भी नहीं सकेगा. इसलिए शरीर व मन को सुंदर व निर्मल करने एक मात्र उपाय है ध्यान, ध्यान और सिर्फ ध्यान …विपश्यना, यह तो जीवन जीने की कला है.

उत्तराखंड सरकार का स्पेशल ब्रेक एक सांप्रदायिक फैसला

उत्तराखंड की सरकार ने एक अजीब और विवादित निर्णय लिया है. उसने प्रदेश के सभी कार्यालयों में मुस्लिम कर्मचारियों के लिए शुक्रवार के दिन दोपहर में जुमा की नमाज अदा करने के लिए कुछ समय का ब्रेक देने का फैसला किया है. शुक्रवार को दोपहर में जुमा की नमाज पढ़ी जाती है और इसे सामूहिक रूप से जिन मस्जिदों में पढ़ी जाती है उसे जामा मस्ज़िद कहते हैं. हर व्यक्ति को उपासना की स्वतंत्रता देश का संविधान देता है. लेकिन यह स्वतंत्रता भी अबाध नहीं है. सरकारी दफ्तरों का एक अनुशासन है और हर सरकारी कर्मचारी जो किसी भी जाति या धर्म का हो, वह उन नियमों और व्यवस्थाओं से बंधा होता है. कर्मचारी को जिसने भी संविधान की शपथ ली है उसे उन नियमों और व्यवस्था के अंतर्गत काम करना पड़ता है. उत्तराखंड के संदर्भ में यह तर्क दिया जा सकता है कि, वहां मुस्लिम आबादी कम हैं और कर्मचारी भी कम हैं और इनमें से कुछ अगर दोपहर के समय घंटे डेढ़ घंटे के लिए नमाज़ के लिए कार्यालय से चले भी जाते हैं तो, क्या फर्क पड़ता है? यह मान भी लिया जाय कि कोई फर्क नहीं पड़ता है तो भी यह निर्णय अनेक समस्याओं को जन्म देगा और विवाद भी बढ़ाएगा. 1. इस निर्णय का सबसे पहला दुष्परिणाम यह होगा कि, कार्यालय में सीधे तौर पर धर्म के आधार पर कर्मचारियों में मानसिक बंटवारा होगा. 2. कार्यालय के अन्य कर्मचारी भी धर्म के आधार पर ही अपनी अपनी उपासना पद्धति के अनुसार अपने अपने लिए पूजा पाठ हेतु ब्रेक मांगने लगेंगे. जैसे किसी को शिव मंदिर जाना है तो सोमवार को, किसी को बजरंग बली का दर्शन करना है तो मंगलवार या शनिवार को या दोनों दिन ही, या किसी को गणपति का दर्शन करता है तो बुधवार को, आदि आदि, सभी अपनी सुविधा के अनुसार घंटा दो घंटा का ब्रेक मांगने लगेंगे और न मिलने पर विवाद होगा जिसका प्रभाव कार्यालय के सद्भाव और अनुशासन पर पड़ेगा. 3. अचानक धार्मिक कर्मचारियों की संख्या बढ़ जायेगी. जिसने कभी भी नियमित जुमा की नमाज भी न पढ़ी हो, और जिसने कभी शिव, हनुमान, और गणपति का दर्शन भी सोम, मंगल, शनि और बुध को न किया हो, वह भी परम आस्तिक भाव से उन घंटे दो घण्टों के लिए कार्यालय से बाहर रहेगा, जिसका असर कार्यालय की गुणवत्ता और काम काज पर पड़ेगा. 4. यह फैसला भी संविधान के समानता के अधिकार की भावना के सर्वथा विपरीत है. धर्म और जाति के आधार पर कोई भी भेदभाव नहीं किया जा सकता है. 5. अगर सेवा, आवश्यक हुई तो इसका और भी विचित्र हाल होगा. चिकित्सा, बिजली, पुलिस आदि सेवाओं में पता लगा कि कोई जरूरी काम हो रहा है तभी किसी के नमाज़ का वक्त हो गया तो, उस काम का क्या होगा? यह सम्भावना भी अकल्पनीय नहीं है. यह तर्क दिया जा सकता है कि अगर कोई आपात स्थिति है तो कार्यालयाध्यक्ष ब्रेक रद्द कर सकता है. पर जहां अनुशासन का बुरा हाल होगा वहां तो लोगों की धार्मिक भावनाएं बहुत ही जल्दी आहत होने लगेंगी! इसके अतिरिक्त हो सकता है, अन्य समस्याएं भी उत्पन्न हो जाएं जिसका अनुमान मैं अभी नहीं लगा पा रहा हूं. 1947 में धर्म के आधार पर भारत बंटा जरूर था, पर हमने धर्म के आधार पर देश के शासन की पद्धति नहीं चुनी थी. पाकिस्तान ने इस्लामी गणराज्य का मार्ग चुना था, हमने नहीं. हमने एक धर्म निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य का मार्ग चुना था. तमाम विरोधों के बावज़ूद भी हम उन्हीं मूल्यों पर टिके हुए हैं. मूल संविधान की प्रस्तावना में धर्म निरपेक्ष शब्द का समावेश न होने पर भी संविधान पूरी तरह धर्म निरपेक्ष मूल्यों पर ही आधारित है. यह आदेश इस मूल भावना के विपरीत ही नहीं बल्कि प्रत्यक्षतः सांप्रदायिक है और तुष्टिकरण की ओर स्पष्ट संकेत करता है. इस आदेश से चुनाव की प्रतिध्वनि भी आप सुन सकते हैं. यह आदेश वापस होना चाहिए और उत्तराखंड के वरिष्ठ अधिकारियों को इस आदेश के संभावित खतरे और परिणामों की ओर भी सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहिए. धर्म निरपेक्ष अगर हैं तो धर्म निरपेक्ष दिखना भी चाहिए. यह फैसला निंदनीय है.

दलित छात्र को प्रोफेसर ने कहा जातिसूचक शब्द, छात्रों ने ‘बाबासाहेब’ के सामने कान पकड़कर मंगवाई माफी

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महू। दलितों के हक और समाज में समानता के लिए पूरी जिंदगी लडऩे वाले बाबासाहेब अम्बेडकर की जन्मस्थली पर एक दलित छात्र को प्रोफेसर द्वारा जातिसूचक शब्द कहने का मामला सामने आया है. मामले के मुताबिक महू के एडवांस टेक्निकल कॉलेज में प्रोफेसर विक्रम सिंह ठाकुर ने एक दलित छात्र के लिए जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल किया. प्रोफेसर द्वारा जातिसूचक शब्द के इस्तेमाल का छात्रों ने विरोध किया और पुलिस में शिकायत दर्ज कराई. लेकिन बाद में छात्र नेता प्रोफेसर ठाकुर के खिलाफ शिकायत इस शर्त पर वापस लेने के तैयार हो गए कि वो बाबासाहेब अम्बेडकर की जन्मस्थली पर जाकर उनकी प्रतिमा के सामने कान पकड़कर माफी मांगेंगे. छात्रों ने प्रोफेसर ठाकुर से बाबसाहेब अम्बेडकर की प्रतिमा के सामने भविष्य में ऐसी हरकत न करने की शपथ भी दिलवाई. भारतीय संविधान के अनुसार अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए जाति सूचक शब्द का प्रयोग दंडनीय अपराध है. द शेड्यूल कास्ट्स एंड ट्राइब्स (प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज) एक्ट के तहत छुआछूत दूर करने के लिए एससी/एसटी के तहत आने वाली जातियों के लिए जाति सूचक शब्दों के प्रयोग पर प्रतिबंध है.

नोटबंदी से आम जनता त्रस्त

जनसंख्या की दृष्टि से विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र की राजधानी दिल्ली के आसमानों में मानव जीवन के लिए हानिकारक कणों की धुंध जमी हुई थी. पर्यावरण विशेषज्ञ और सरकारी प्राधिकरण के अधिकारी जनता को घर से न निकलने की सलाह दे रहे थे. बच्चे घर से बाहर न निकलें इसलिए स्कूल बन्द कर दिये गये थे, लोगों को मास्क पहनकर बाहर निकलने की हिदायत दी जा रही थी, इसी  बीच लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री के 08 नवम्बर 2016 रात्रि 08 बजे के एक ऐलान ने न केवल दिल्ली की जनता को बल्कि पूरे देश की जनता को अचानक घर से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया. यह ऐलान था 500 और 1000 रुपये मूल्य के नोटों के चलन पर पूर्णतः रोक लगाना. यह ऐलान काला धन, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के उद्देश्य से किया गया. जैसा कि प्रधानमंत्री व भाजपा सरकार की तरफ से यह बताया गया है कि कालाधन व भ्रष्टाचार ही भारत की आम जनता की बदहाली का मुख्य कारण है. प्रधानमंत्री ने तो 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां तक कहा है कि विदेशों में हमारे देश का इतना कालाधान जमा है कि यदि उसे वापस लाकर भारत की 125 करोड़ जनता में बराबर-बराबर बांटा जाय तो प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में 15-15 लाख रूपये आयेंगे. इसे वापस लाने का उन्होंने वादा भी किया है. हालांकि इस पर उन्होंने अभी तक कोई कदम नहीं उठाया है. यह कदम तो केवल देश के अन्दर नोटों के रूप में रखे गये कालेधन को बाहर निकालने के लिए उठाया गया है जो विशेषज्ञों के अनुसार कुल कालाधन का केवल 8-10 प्रतिशत है. 90 प्रतिशत कालाधन तो देश के अन्दर भी सोना, हीरा, रियल एस्टेट आदि के रूप में छुपाया गया है. अर्थात् प्रधानमंत्री द्वारा उठाया गया यह कदम कालेधन के 10 प्रतिशत हिस्से को बाहर लाने के लिए उठाया गया है जो अपने ही देश में 500 व 1000 रूपये के नोटों के रूप में लोगों ने अपने घरों में छुपाकर रखा हुआ है. देश में रखे गये 90 प्रतिशत और विदेशों में रखे गये कुल कालेधन से इस नोटबंदी की कार्यवाही का कुछ भी लेना-देना नहीं है. यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब कुल काले धन के एक छोटे से हिस्से, जो देश के अन्दर ही है, को निकालने के लिए की गयी कार्यवाही से बाजार बन्द हो गये, आम जनजीवन ठप सा हो गया, बुआई के समय में किसान बीज, खाद व डीजल नहीं खरीद पा रहे हैं. मरीज का इलाज मुश्किल से हो पा रहा है, लोगों के खर्च को नियंत्रित कर दिया गया है, दिहाड़ी मजदूरों को काम नहीं मिल रहा है. जिनके पास रूपये हैं, वे बैंको की लाइन में खड़े हैं, शादी विवाह स्थगित हो गये हैं, तो कुल कालेधन के लिए यदि यही तरीका अपनाया गया तो जनता को आपातकाल जैसी स्थिति झेलनी पड़ सकती है, जिसका संकेत भी प्रधानमंत्री 13 नवम्बर को गोवा में दे चुके हैं. देश में कुल कितना कालाधन है, देश के बाहर कितना कालाधन है, कालाधन कितना आयेगा, भ्रष्टाचार रूकेगा या नहीं, इन मुद्दों पर बहस हो सकती है लेकिन जिस तरीके व तेवर के साथ प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का निर्णय लिया उससे यह स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक ढंग से चुने गये प्रधानमंत्री ने लोकतंत्र का गला घोंट दिया. लोकतांत्रिक मूल्यों की ऐसी-तैसी कर दी. लोकतंत्र की सर्वाधिक लोकप्रिय परिभाषा है ‘जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन’. इस परिभाषा में स्पष्ट किया गया है कि ऐसी शासन व्यवस्था जिसके केन्द्र में ‘जनता’ रहती है या जनता के हित के लिए चलाये जाने वाली शासन व्यवस्था. इस परिभाषा की कसौटी पर यदि नोट बंदी के निर्णय को कसा जाय तो यह निर्णय पूर्णतः गैर लोकतांत्रिक सिद्ध हेागा, न केवल तौर तरीके में बल्कि जनहित की दृष्टि से भी. जिस आम जनता, मजदूर और किसान के जीवन को बेहतर बनाने के नाम पर यह निर्णय लिया गया है, उन्हीं के लिए सबसे अहितकर साबित हुआ. सभी को पता है कि किसानों के लिये यह समय खरीफ की फसल की कटाई एवं रबी की फसल की बुआई का है. खरीफ की फसल बेचकर जो रूपये किसान अपने घरों में रखे हुए हैं, नोटबंदी के कारण उनके अपने रूपये बेकार हो गये हैं. यदि प्रधानमंत्री के शब्दो में कहे तो ‘अवैध मुद्रा’ हो गये हैं. उससे वे रबी की फसल के लिए खाद, बीज व डीजल नहीं खरीद सकते हैं. यदि बैंको से 15 दिन के अन्दर नई नोट नहीं मिली तो वे रबी की फसल की बुआई समय से नहीं कर पायेंगे जिसका नकारात्मक प्रभाव अन्न उत्पादन पर पड़ेगा. और जिस तरह से बैंकों में भीड़ जुट रही है और लोग खाली हाथ लौट कर आ रहे हैं ऐसे में किसानों का एक-एक दिन भारी बीत रहा है. सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री ने यह सोचा कि खेती की दृष्टि से महत्वपूर्ण इस समय में नोटबंदी के निर्णय से किसान और खेती तबाह हो सकती है? निश्चित रूप से नहीं सोचा. यदि सोचते तो वे देश की इन्हीं आम जनता से 50 दिन और नहीं मांगते. मोदी जी जिन मजदूरों के हितों के नाम पर अपनी कार्यवाही को उचित ठहराने में लगे हुए हैं उनकी हालत तो और बद्तर हो गयी है. भारत में मजदूरी करने वाले का 80-85 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र में है जिनमें से ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर हैं, जो निर्माण क्षेत्र में गिट्टी-बालू का काम, बाजारों में सामान उतरवाने-चढ़वाने व सामान ढुलाई का काम करते हैं. ये रोज कमाते और खाते हैं. नोट बंदी की घोषणा के बाद से इनको काम मिलना बन्द हो गया है. दुकानों में काम करने वाले मजदूरों को भी काम नहीं मिल रहा है. ये लोग व इनका परिवार सीधे भुखमरी की चपेट में आ गये है. समाज के निचले पायदान पर स्थित जनता का एक बड़ा हिस्सा रेहड़ी व पटरी व्यवसायी के रूप में स्वरोजगार में लगा हुआ है. इनका ग्राहक निम्नवर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग हैं. निम्न मध्यम वर्ग दिन भर बैंक की कतार में हैं तथा निम्न वर्ग भुखमरी के कगार पर, इसलिए पटरी व रेहड़ी व्यवसायी भी नोटबंदी के कारण मक्खी मार रहे हैं. स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था में निचले पायदान पर स्थित किसान, मजदूर की हालत नोटबंदी के पश्चात् बद से बदतर हो गयी है. प्रधानमंत्री की तरफ से इनको प्रत्यक्ष सहयोग का कोई आश्वासन भी नहीं मिला है. निश्चित रूप से नोट बंदी का निर्णय लेते समय प्रधानमंत्री ने देश की 90 प्रतिशत आबादी के समक्ष आने वाली समस्याओं पर थोड़ा सा भी विचार नहीं किया. एक सप्ताह के अन्दर लगभग 30 से अधिक लोग रूपये निकालने के लिए लाइन में तबियत खराब होने और नोटबंदी के कारण अन्य नुकसान के कारण अपनी जान गंवा चुके हैं. न जाने कितने लोग समय से पैसा न मिलने के कारण अस्पताल नहीं जा सके या अस्पताल में भी दवा न मिलने के कारण दम तोड़ दिये. क्या इस निर्णय से जीवन का मौलिक अधिकार प्रभावित नहीं हुआ है. उत्तर होगा बिल्कुल हुआ है. एक व्यक्ति मोदी जी व उनके भक्तों के लिए केवल एक नम्बर हो सकता है, एक वोट हो सकता है लेकिन अपने परिवार के लिए वह पूरी दुनिया है. क्या मोदी जी ऐसे मृतकों के परिजनों के लिए किसी भी तरह की कोई सहायता देंगे? 80 प्रतिशत आबादी के सामने प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित हुए आपातकालीन व अमानवीय परिस्थितियों पर दृष्टिपात करने के पश्चात् कालेधन से संबंधित कुछ तथ्यों का उल्लेख आवश्यक प्रतीत हो रहा है. अनुमानों के अनुसार देश में कुल कालाधन 30 लाख कराड़ रूपये मूल्य का है जिसमें से 8-10 प्रतिशत नकदी के रूप में है. शेष सोना, हीरे व रियल एस्टेट के रूप में है. अर्थात् मात्र 3 लाख करोड़ रूपये को बैंक में जमा कराने के नाम पर देश में आर्थिक अराजकता पैदा कर दी गयी. यह रकम कितनी कम है इसका अंदाज सरकार के कुछ और फैसले से इसकी तुलना कर के लगाया जा सकता है. मोदी सरकार ने पूँजीपतियों पर लगने वाले उत्पाद शुल्क को 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत कर दिया है. सरकार के इस निर्णय से प्रत्येक वित्तीय वर्ष में उद्योगपतियों को 2 लाख करोड़ रूपये की छूट प्राप्त होगी. पिछले दो वित्तीय वर्षो में भारतीय उद्योगपतियों को 04 लाख करोड़ रूपये टैक्स में छूट दी गयी जो देश में नकदी के रूप में जमा कालेधन से एक लाख करोड़ रूपये अधिक है. मामला यहीं तक नहीं है सरकारी बैंको का उद्योगपतियों के ऊपर 6 लाख करोड़ रूपये से अधिक कर्ज बकाया है जिसे भारतीय देशप्रेमी उद्योगपति अपनी फैक्ट्री चलाने के लिए थे और अब लौटा नहीं रहे हैं. इस कर्ज को अर्थशास्त्र की भाषा में एन0पी0ए0 कहते हैं. देश प्रेमी उद्योगपति सरकारी बैंकों से लिए कर्ज का ब्याज कौन कहे मूलधन भी लौटाने को तैयार नहीं हैं, जबकि कर्ज देने वाले बैंक लगातार घाटे में चल रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट की फटकार लगाने के बावजूद भी मोदी जी की सरकार इन कर्जखोर उद्योगपतियों का नाम सार्वजनिक करने को तैयार नहीं है. कहने का अर्थ यह है कि जितनी रकम (कालेधन) 3 लाख करोड़ रूपये के लिए सरकार ने पूरे देश को वित्तीय अराजकता में ढकेल दिया, उससे दूनी रकम 6 लाख करोड़ रूपये पूंजीपतियों ने अपने पास दबाकर रखा है तथा उससे सवा गुनी रकम 4 लाख करोड़ रूपये मोदी सरकार पिछले दो वर्षों में पूंजीपतियों को टैक्स छूट के रूप में दे चुकी है. क्या यह 10 लाख करोड़ रूपया देश का नहीं है? क्या यह रकम देश के विकास में नहीं लगनी चाहिए? इस दिशा में तो सरकार कोई कदम नहीं उठा रही है न ही उठाने का कोई इरादा ही व्यक्त कर रही है. आइये अब कालेधन की परिभाषा क्या है तथा यह धन किसके पास है इस पर थोड़ा विचार करें. सामान्यतया ऐसे धन को कालाधन कहा जाता है जिस पर सरकार को टैक्स नहीं मिलता है. इस प्रकार का धन सभी सरकारी कर्मचारियों अर्थात् चपरासी, बाबू, बड़े बाबू से लेकर सचिवों तक के पास है जो रिश्वत लेते हैं. छोटे से लेकर बड़े व्यापारियों के पास है जो अपनी वास्तविक आमदनी सरकार को नहीं बताते तथा कर की चोरी करते हैं. गांव, कस्बे व शहरों के दुकानदारों के पास है जो टैक्स रिटर्न नहीं भरते हैं. छोटे-बड़े ठेकेदारों के पास है तथा राजनेताओं के पास है. इनकी आबादी देश की कुल आबादी की 10 प्रतिशत है. इन्हीं के पास 3 लाख करोड़ रूपये का कालाधन नकदी के रूप में देश के अन्दर छुपाकर रखा गया है. यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि 10 प्रतिशत आबादी के पास देश की 76 प्रतिशत सम्पत्ति है. इस 10 प्रतिशत में देश के छोटे से लेकर बड़े उद्योगपति शामिल हैं. अकेले अंबानी के पास 1.56 लाख करोड़ की सम्पत्ति है. वे यदि एक करोड़ प्रतिदिन खर्च करें तो उनकी सम्पत्ति 427 वर्षों में खर्च होगी. दिलचस्प यह कि अंबानी के पास जो सम्पत्ति है उसमें एक प्रतिशत भी कालाधन नहीं है. विजय माल्या के पास जो सम्पत्ति है, उसमें एक रूपया भी कालाधन नहीं है, जबकि रिलायन्स नामक कंपनी ने 1996 तक सरकार को एक रूपये भी टैक्स नहीं दिया था. आइये अब मोदी जी के ऐतिहासिक और साहसिक फैसलों की पड़ताल करते हैं. ऊपर के 20 प्रतिशत आबादी जिसमें उच्च वर्ग, उच्च मध्यम वर्ग आते हैं, के पास देश की 85-90 प्रतिशत सम्पत्ति है. देश की 80 प्रतिशत आबादी को पिछले पचीस वर्षों में अर्थव्यवस्था के हाशिये पर ढकेल दिया गया है. नई आर्थिक नीति ने इनसे सब कुछ छीन लिया है. इनके पास न शिक्षा है, न स्वास्थ्य है न ही कोई सपना है. ऊपर की 20 प्रतिशत आबादी जिसमें उद्योगपति तथा राजनेता सहित सरकार चलाने वाली मशीनरी के लोग शामिल हैं, ने मिलकर पिछले 25 वर्षों में 80 प्रतिशत देशवासियों का निर्मम शोषण किया. अब इन 80 प्रतिशत आबादी के पास कुछ भी बचा नहीं है, जिसके शोषण से इस पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था को चलाया जा सके. इस व्यवस्था को चलाने के लिए अब आवश्यक हो गया है कि नौकरशाहों, राजनेताओं, ठेकेदारों, व्यापारियों, ट्रांसपोर्टरों आदि के पास जो सम्पत्ति है, उसका मालिकाना हक उद्योगपतियों के हाथ में सौंपा जाय अर्थात् देश की अर्थव्यवस्था का निगमीकरण किया जाय. लेकिन यह कार्य इतना आसान नहीं था जितना आसान 80 प्रतिशत जनता की सम्पत्ति को पूंजीपतियों को सौंपना था. इसलिए इसकी लम्बे समय से तैयारी की जा रही थी. राजनेताओं, नौकरशाहों, ठेकेदारों, व्यापारियों, ट्रांसपोर्टरों आदि को सुनियोजित ढंग से भ्रष्टाचारी व 80 प्रतिशत जनता का असली दुश्मन घोषित किया गया. चूंकि इस तबके में दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों के बीच के कुछ नेता, नौकरशाह व व्यापारी भी शामिल हैं जिनकी सम्पत्ति इन पच्चीस वर्षों में बढ़ी है, इसलिए आसानी से सवर्ण हिन्दुओं के अन्दर जातिगत व धार्मिक घृणा की भावना को भड़काया गया. आज सवर्ण हिन्दू इसलिए नहीं खुश है कि कालाधन जो सरकार के खजाने में जमा होगा, उसमें से उन्हें कुछ हिस्सा मिलेगा, बल्कि इसलिए खुश है कि नोट बंदी की कार्यवाही से मुलायम, मायावती कंगाल हो जायेंगे. सवर्ण हिन्दू लोकतंत्र, समानता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व, न्याय जैसे आधुनिक मूल्यों में विश्वास नहीं करते हैं तथा इन मूल्यों को विदेशी मूल्य मानते हैं. इसलिए ये संविधान को भी हृदय से अंगीकार नहीं करते हैं. आर.एस.एस व भाजपा इस विचारधारा को संपोषित करते हैं. इन्हीं के बदौलत नरेन्द्र मोदी इतना साहसिक और ऐतिहासिक कदम उठाने की हिम्मत कर बैठे, जो न केवल लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों के विरूद्ध है बल्कि 90 प्रतिशत आबादी की आर्थिक नाकेबंदी भी है. प्रधानमंत्री जी इस कदम को इस समय उठाने के लिए एक और कारण से भी उत्साहित हुए होंगे. वह महत्वपूर्ण कारण है छः राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव. नरेन्द्र मोदी किसी भी कीमत पर इन सभी राज्यों में विधानसभा का चुनाव जीतना चाहते हैं. इन राज्यों में सबसे महत्वपूर्ण राज्य है उत्तर प्रदेश. उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतना भाजपा के लिए इसलिए आवश्यक है कि वह राज्यसभा में अपना बहुमत स्थापित कर सके. क्योंकि राज्यसभा में बहुमत के बगैर भारत में हिन्दु राज स्थापित नहीं हो सकता, जिसके लिए नरेन्द्र मोदी के अनुसार पांच पीढ़ियों से संघर्ष जारी है. उत्तर प्रदेश में मुलायम और मायावती, भाजपा के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है. इन दोनों दलों का सामाजिक और आर्थिक आधार भी काफी मजबूत है. मोदी ने यह कदम मुलायम, मायावती को आर्थिक रूप से कमजोर करने के लिए उठाया, जिससे उ.प्र. चुनाव में भाजपा की जीत की राह आसान हो सके. सामान्य जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति भली-भांति समझ सकता है कि मात्र नोटबंदी की सीमित कार्यवाही से कालाधन व भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता है. सरकार की दलीलें एकदम बचकाना हैं. यदि बचत खाते में ढाई लाख रूपये से ऊपर नकदी जमा करने वालों से पूछताछ होगी, तो कालाधन नकदी के रूप में अपने खाते में कोई महामूर्ख ही जमा करेगा. इससे अच्छा होगा कि वह रूपयों को नष्ट कर दे, एक दूसरा रास्ता भी है इस वित्तीय वर्ष का आयकर रिटर्न मार्च 2017 के बाद भरा जायेगा. नकदी के रूप में रखे काले धन को कोई भी व्यापारी इस वित्तीय वर्ष में अर्जित आय दिखाकर आसानी से बैंक में जमा कर सकता है. फिर सरकार के हाथ क्या आयेगा? स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री मोदी जी के नोट बंदी के निर्णय से कालेधन का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है. वे 90 प्रतिशत जनता के पास नकदी के रूप में रखे धन को बैंक में जमा कराना चाहते हैं जिससे उद्योगपतियों को कर्ज के रूप में दिया जा सके तथा उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा को आर्थिक रूप से कमजोर करना चाहते हैं जिससे भाजपा की जीत आसान हो सके. अपने इन्हीं दोनों उद्देश्यों, जो पूर्णतयाः अमानवीय और जनविरोधी है, को पूरा करने के लिए मोदी जी ने संवैधानिक गरिमा को धता बताते हुए अपने पद का दुरूपयोग किया है. उनके इस कदम से देश में आर्थिक अराजकता का माहौल पैदा हो गया है. 50 से अधिक लोगों की जाने जा चुकी है. दिल्ली की जनता को जान हथेली पर रखकर घरों से बाहर निकलने पर बाध्य होना पड़ा. पता नहीं दिल्ली के आसमानों में जमी जहरीली धुंध से कितने लोगों का जीवन प्रभावित हुआ. प्रधानमंत्री के इस कदम को तानाशाही की शुरूआत के रूप में देखा जाना चाहिए. यदि इस खतरे का संज्ञान नहीं लिया गया तो न लोकतन्त्र बचेगा न ही संविधान.

जालियाँवाला बाग जैसा था भागलपुर कांड

वैसे तो पूरे भारत देश में ही सामंतों का शासन है, मगर विहार (बिहार) राज्य इसमें दो कदम आगे है. पूरे देश में भूमिहीन परिवारों की संख्या सबसे ज्यादा विहार में है. विहार राज्य में भूमिहीनों को जमीन देने के चार कार्यक्रम चलाये गये हैं. एक, बासगीत जमीन का परचा देना इसका मतलब जिस जमीन पर भूमिहीन परिवार झोपड़ी बनाकर रह रहे हैं, उस जमीन का मालिकाना हक गरीबों को देना. भूमिहीन परिवार कहीं सरकारी जमीन पर तो कहीं किसी भूधारी की जमीन पर वर्षों से झोपड़ी बना कर रह रहे हैं. बासगीत जमीन के मालिकाना हक का परचा बेशुमार भूमिहीनों को आजतक नहीं मिला है. दूसरा कार्यक्रम है सरकारी जमीन का परचा. जिस जमीन पर वर्षों से भूमिहीन परिवार दखल कब्जा कर अपने जीने के लिए थोड़ा बहुत अन्न उपजा लिया करते हैं, उन्हें इस श्रेणी में रखा जाता है. इसी क्रम में तीसरे कार्यक्रम विहार भूहदबन्दी अधिनियम  कानून के तहत अतिरिक्त घोषित जमीन जिसका वितरण बाजाप्ता ढोल पीटकर कैम्प लगाकर सूबे के मुख्यमन्त्री, राजस्व मंत्री, कमीश्नर, कलेक्टर किया करते हैं. और चौथा कार्यक्रम है भूदान कानून के तहत अर्जित और विधिवत वितरित की गयी जमीन. विहार राज्य के भागलपुर जिला में भूमिहीनों के बीच उपरोक्त चारों तरह के भूमि वितरण और उसपर दखल कब्जा को लेकर भीषण समस्या है. भागलपुर के भूमिहीन वर्षों से बासगीत और परती सरकारी भूमि का परचा देने तथा भूहदबन्दी कानून, भूदान कानून के तहत अतिरिक्त घोषित भूमि का परचा  भूमिहीनों को देने के लिए कलक्टर के यहां आवेदन देकर उनके दफ्तर से लेकर कैम्प कोर्ट तक लगातार दौङ लगा रहे थे. जिला कलेक्टर भागलपुर अतिरिक्त भूमि का भूमिहीनों के बीच सरकारी जमीन को वितरण करने तथा पहले से वितरित जमीन पर दखल कब्जा देने का झूठा भरोसा देते रहे. निराश होकर भूमिहीनों ने दिसम्बर 2016 के प्रथम सप्ताह में भागलपुर कलेक्टरी में सरकारी जमीन का परचा देने तथा पहले से बांटी गयी जमीन पर दखल कब्जा देने के लिए धरना दे दिया. विहार में सरकारी जमीन का हस्र यह है कि बड़े-बड़े भू-धारी सरकारी जमीन पर जबरदस्ती कब्जा किये हुए हैं. और अनुमण्डल के एस.डी.ओ सहित जिला के एडिशनल कलक्टर और कलक्टर तक इस सरकारी जमीन पर से बड़े भू-धारियों को बेदखल कर जरूरतमंद भूमिहीनों के बीच जमीन का वितरण करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. कारण सभी बड़े भू-धारी किसी न किसी राजनीतिक दल के अगुआ या पिछुआ बने हुए रहते हैं. राजनीतिक दल चाहे वे सत्ताधारी पक्ष हो या विपक्ष हो सरकारी जमीन वितरण के सबसे बाधक तत्व बने हुए हैं. हां यही लोग मंचों पर राजनीतिज्ञ बेशर्मी से सरकारी जमीनों का भूमिहीनों के बीच वितरण करने और दखल कब्जा देने का भाषण गला फाड़-फाड़ कर करते रहते हैं. दिसम्बर 2016 के पहले सप्ताह में मौसम इतना सर्द हो गया कि पारा 12 डिग्री सेल्सियस पर आ गया था. भागलपुर कलेक्टरी में सरकारी जमीन का परचा देने, भूहदबन्दी और भूदान कानून के तहत वितरित जमीन पर दखल कब्जा देने के लिए जीर्ण-शीर्ण कपड़ों में धरणा-प्रदर्शन कर रहे गरीबों की फरियाद सुनने कोई मनहूस पदाधिकारी तक नहीं आया, कलक्टर के खुद आकर उनसे मिलने और उन्हें भरोसा देना तो दूर की बात है. आलम यह है कि विहार में बिना भारी दान दक्षिणा दिये किसी शख्स की एस.पी. या कलक्टर के पद पर पोस्टिंग नहीं होती है. ऐसे धरना प्रदर्शन के मामले में एस.पी.,कलेक्टर सूबे के आका से कार्रवाई का सिग्नल मांगते हैं. भागलपुर के प्रदर्शनकारियों के विरूद्ध नकारात्मक सिग्नल मिलते ही भागलपुर के कलक्टर और एस.डी.ओ. ने  8 दिसम्बर 2016 को बर्बर लाठीचार्ज करवाकर दर्जनों औरतों, वृद्धों और बच्चों को लहू लूहान करवा दिया. सरकारी महकमों के द्वारा सर्द भरे दिन में लाठी चार्ज करके लहू लुहान करवाना जालियाँवाला बाग को दुहरा गया. भागलपुर जिला सामंतों का गढ़ है. सबके सब सामंत बड़े भू-धारी हैं. इन भू-धारियों की अतिरिक्त भूमि को राजस्व अधिकारियों ने जान पर जोखिम डालकर अतिरिक्त घोषित करके भूमिहीनों के बीच वितरित कर दिया है. जिन गरीबों को भूहदबन्दी कानून के तहत पर्चा मिला है, वे वितरित जमीन पर दखल कब्जा नहीं कर पाये. इसके कई कारण रहे. पहला पर्चाधारियों को जमीन पर विधिवत दखल कब्जा अंचल अधिकारियों ने दिलाया ही नहीं. दूसरा भूहदबन्दी कानून के तहत जमीन सरकारी रेकर्ड में अतिरिक्त घोषित तो हुई, मगर दबंग भूधारियों ने उस जमीन पर से अपना कब्जा छोड़ा ही नहीं. तीसरा भूधारियों ने भूहदबन्दी कानून के तहत अपनी अतिरिक्त घोषित जमीन के आदेश के विरूद्ध उच्च न्यायालय में मनगढंत दावा दिखलाकर रिट दायर कर दिया. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भूहदबन्दी कानून के तहत अतिरिक्त घोषित जमीन के वितरण के सबसे बाधक तत्व होते रहे हैं. वे ऐसे हर रिट में आँख मून्दकर स्टे देकर अपना न्यायिक टैलेन्ट दिखला देते हैं. सरकार सामंतों की और न्यायालय भी सामंतों की. गरीब भूमिहीनों के जिम्में सिर्फ उद्दंड पुलिस की बेगिनती की लाठियां. भूदान आन्दोलन तो साफ तौर पर ठग आन्दोलन साबित हुआ. बड़े भूधारियों ने भूदान आन्दोलन में अपनी जमीन दान देने का नाटक भर किया. तब की बेशर्म कांग्रेस सरकार ने भूदान में भूधारियों से जमीन का दान लिया कागज में, उन जमीनों की सम्पुष्टि भी किया कागज में और उन जमीनों का वितरण भी गरीबों के बीच कर दिया सिर्फ कागज में. कहा जाय तो भूदान आन्दोल शत प्रतिशत बेशर्मों का सरकारी आन्दोलन साबित हुआ. 8 दिसम्बर को भागलपुर कलेक्टरी में यही हुआ.  सरकार द्वारा वितरित भूमि पर दखल कब्जा मांगने के लिए सरकार ने गरीबों के सर और शरीर पर लाठियां बरसा दी. भूखे-प्यासे गरीबों पर लाठियां. औरतों, वृद्धों, बच्चों पर लाठियां. हक मांगने पर लाठियां, हिस्सा मांगने पर लाठियां. बेशर्म सरकार, बेदर्द कार्रवाई. घोषणाओं में लगातार सुशासन का ढोल पीटने वाली इस सामंती सरकार को हक मांगते गरीबों पर लाठियां बरसाते जरा भी शर्म नहीं आई. अगर विहार सरकार के आका के दिल में जरा भी दर्द हो और मन में ईमान हो तो भागलपुर के कलक्टर को तत्काल सस्पेन्ड करके उसके विरूद्ध आरोप तय कर उसे दण्डित करने की कार्रवाई करे. चुनाव के वक्त यही बेशर्म सरकार उन गरीबों के दरवाजे पर चुनाव के समय  वोट मागने जायगी. जैसे हक मांगने पर सरकारी पुलिस ने उनपर लाठियां बरसायी है, वैसे ही ये लोग इस सरकार के दल के लोगों के सर पर वोट मांगते समय जूते बरसाएं तब जाकर उनके दुख और अपमान का हिसाब चुकता होगा. तब हिसाब बराबर होगा. – लेखक अम्बेडकर मिशन पत्रिका के संपादक हैं।

नोटबंदी पर वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश का खुलासा

नोटबंदी के बाद से भाजपा-नीत सरकार और संघ-परिवार के तमाम नेता, प्रवक्ता या समर्थक सुबह से शाम तक इस बात का प्रचार कर रहे हैं कि नोटबंदी गरीबों और आम लोगों के हक में की गई है. इसका नुकसान सिर्फ बड़े लोगों या पूंजीपति वर्ग को ही उठाना पड़ेगा. कुछेक स्थानों पर कुछ इंजीनियरों-डाक्टरों या अफसरों को अपनी रिश्वत की कमाई बचाने की कोशिश में परेशान देखकर आम आदमी, दलित-उत्पीड़ित समुदाय के व्यक्ति को यह भ्रम भी हो सकता है कि नोटबंदी से असल परेशानी अमीरों को हो सकती है, गरीबों को नहीं! पर यह सच नहीं है. अब तक किस बड़े उद्योगपति या कारपोरेट घराने को सरकार के इस फैसले से परेशानी में देखा गया? परेशान अगर है तो आम आदमी, मजदूर, किसान, दलित-उत्पीड़ित और निम्न मध्यवर्ग! कुछ ही दिनों बाद हालात और खराब होंगे. सरकार और संघ-परिवारी संगठनों का दावा है कि मोदी सरकार ने नोटबंदी के फैसले से कालेधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ दी है. अगर ऐसा है तो हाल ही में एनपीए के तहत विवादास्पद उद्योगपति विजय माल्या सहित देश के 63 बड़े उद्योगपतियों को इतनी बड़ी रियायत क्यों दी गई? एक तरफ 8 नवम्बर को नोटबंदी का ऐलान हुआ तो दूसरी तरफ बड़े सरकारी बैंक ने इन उद्योगपतियों के लगभग 7000 करोड़ के बैंक-कर्ज को बट्टा-खाते(राइट-आॉफ) डालने का फैसला किया. विभिन्न सरकारी बैंकों ने बीते कुछ सालों में साढ़े छह लाख करोड़ से अधिक के कारपोरेट-कर्ज को बट्टा-खाते डाला है. इधर, नोटबंदी के बाद देश में अब तक तीन दर्जन से ज्यादा लोगों की रूपया-निकासी की बैंक-लाइन में लगे-लगे मौत हो गई. कई लोग घर या अस्पताल में मर गये क्योंकि उनके पास इलाज के पैसे नहीं थे. बाजार-कारोबार ठप्प पड़े हैं. दिल्ली-एनसीआर के जिस इलाके में मैं रहता हूं, वहां मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में पूर्वनिर्धारित कई शादियां नगदी के अभाव में स्थगित हो रही हैं पर कर्नाटक की पूर्व भाजपा सरकार में मंत्री रहे एक विवादास्पद कारोबारी के घर में सैकड़ों करोड़ के खर्च से शाही-अंदाज में शादी हुई. देश के कुछ हिस्सों में 8 नवम्बर के ऐन पहले सत्ताधारी पार्टी के नेता करोड़ों की रकम बैंकों में जमा कराते पाये गये. आम लोगों के पास इस वक्त आने-जाने के लिये पर्याप्त पैसे नहीं हैं पर कई दलों की बड़ी बड़ी रैलियां हो रही हैं. लोगों को लाने और छोड़ने के लिये बड़े-बड़े वाहनों का इस्तेमाल हो रहा है. करोड़ों के खर्च वाले क्रिकेट के मैच हो रहे हैं. ये घटनाक्रम सरकार के महत्वाकांक्षी फैसले को संदिग्ध बनाते हैं. सरकार की अपनी विशेषज्ञ टीमों और बड़े अर्थशास्त्रियों का आंकलन है कि देश में जितना भी कालाधन है, उसका महज 6 फीसदी ही नगदी रूप में है. शेष यानी 94 फीसदी कालाधन सोना, रियल एस्टेट, बेनामी खातों, हवाला कारोबार या विदेशी बैंकों के जरिये संचालित है. ऐसे में नोटबंदी के फैसले से कालाधन पर निर्णायक अंकुश लगाने की बात गले नहीं उतरती. अब तक सरकारी योजनाकारों ने देश को बताया भी नहीं कि किस शोध और ऱणनीतिक कार्ययोजना के तहत नोटबंदी का फैसला हुआ. लोकतांत्रिक कामकाज का तकाजा था कि कम से कम 8 नवम्बर के बाद सरकार की तरफ से एक मुकम्मल कार्ययोजना का खाका देश के समक्ष पेश किया जाता. पर सत्ताधारी नेताओं-मंत्रियों की तरफ से तो अब तक सिर्फ जुमले उछाले जा रहे हैं कि ‘देश के लिये जनता को कुछ दिन कष्ट उठाना चाहिये’ या कि ‘50 दिन बाद जनता के सपनों का भारत तैयार मिलेगा!’  मीडिया के बड़े हिस्से, खासकर चैनलों ने शुरूआती दिनों में इसे ‘बड़ी क्रांति’ के रूप में प्रचारित किया. पर अब भ्रांति मिटने लगी है. देश-दुनिया की बड़ी आर्थिक न्यूज एजेंसियां, प्रमुख अखबार और बड़े अर्थशास्त्री अब सवाल उठाने लगे हैं. भारत सरकार के वित्त सलाहकार रह चुके प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री डा.अशोक देसाई, प्रो. रवि श्रीवास्तव, अभिजीत सेन, प्रो. जयति घोष, प्रो. प्रभात पटनायक, प्रो.सीपी चंद्रेशेखर और प्रो.इला पटनायक सहित अनेक अर्थशास्त्री नोटबंदी के नकारात्मक असर पर बोल चुके हैं. दिलचस्प है कि सरकार के अपने अर्थशास्त्री इनके सवालों पर खामोश हैं. रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे रघुराम राजन विमुद्रीकरण-नोटबंदी को कालेधन पर अंकुश की रणनीति के तौर पर पहले से खारिज करते रहे हैं. एनपीए में पिचकती बैंकिंग-व्यवस्था को नोटबंदी से कुछ मदद जरूर मिल सकती है. कुछ काला धन पर पकड़ में आ सकता है. लेकिन उस पर निर्णायक अंकुश तो बिल्कुल ही संभव नहीं. सन् 1978 में 1000, 5000 और 10000 के नोट चंद लोगों के पास हुआ करते थे, जिन्हें मोरारजी की सरकार ने बंद किया था. उससे बिल्कुल अलग आज 500 और 1000 रूपये के नोट ही सर्वाधिक लोक-प्रचलित नोट हैं, जिन्हें आज बंद किया गया है. इससे कुल 15 लाख करोड़ रूपये के नोट चलन से बाहर हुए. कुल मौद्रिक नोटों में ये 86 फीसद हैं. इनके बदले बैंकों से इस वक्त रोजाना बामुश्किल 10-12  हजार करोड़ के नोटों का ही हस्तानांतरण हो रहा है. नोट तो ठीक-ठाक संख्या में छपे हैं पर एटीएम मशीनों का पुनर्संयोजन नहीं किया गया. निकासी मुद्रा की सीमा बहुत कम रखी गयी है. इससे भारी मौद्रिक तंगी पिछले कई दिनों से कायम है. अर्थतंत्र और आम जनजीवन को इससे करारा धक्का लगना लाजिमी है. हिन्दी के कुछ ‘चीखू( टीवी) चैनलों’ और ‘भक्तजनों’ को छोड़कर सभी प्रमुख आर्थिक विशेषज्ञ मान रहे हैं कि सरकार ने जनता को बुरी तरह निराश और परेशान किया है. इससे न तो कालेधन पर अंकुश लगेगा न तो अर्थव्यवस्था को उछाल मिलेगी, उल्टे समस्या बढ़ेगी. जहां तक विपक्ष का सवाल है, उसने भी देश की आम जनता को निराश किया है. इस तरह के अभूतपूर्व संकट पर जिस तरह का राजनीतिक विवेक और साहस उसे साझा तौर पर दिखाना चाहिये था, वह न तो संसद में दिख रहा है, न सड़क पर. -लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्यसभा टीवी (RSTV) के कार्यकारी संपादक रह चुके हैं. संपर्क- urmilesh218@gmail.com

नेतृत्व में आस्था जारी रखिए पासवान जी, शुभकामनाएं

हाजीपुर वाया पटना होते हुए एक खबर दिल्ली पहुंची है. खबर यह है कि ‘हिन्दु ह्रदय सम्राट’ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आस्था रखने वाले और उनके मंत्रीमंडल में शामिल केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने कैशलेस को बढ़ावा देने के लिए अपने कार्ड से हाजीपुर में रविवार को खरीददारी की. उन्होंने एक दुकान से मिठाई खरीदी (जाहिर है अच्छी दुकान में गए होंगे), एक गारमेंट के दुकान से कपड़े खरीदे और एक जगह चाय भी पी. यह सारा कार्यक्रम उन्होंने हाजीपुर के शहरी क्षेत्र में किया. ऐसा कर उन्होंने कैशलेस सिस्टम को बढ़ावा दिया. जाहिर है कि ऐसा कर उन्होंने अपनी सरकार के नेतृत्व में जो कि मोदी जी हैं, आस्था रखते हुए अपना फर्ज निभाया. खबर भी लग गई, फोटो भी छप गया. देखिए मैं भी खबर लिख रहा हूं. लेकिन अगर मैं पटना में होता तो पासवान जी से यह सवाल जरूर पूछता कि क्या वो अपने संसदीय क्षेत्र के, जो कि काफी लंबा-चौड़ा है; किसी ग्रामीण इलाके में गए? क्या उन्होंने गांव के बाजारों का दौरा किया और यह समझने की कोशिश की कि वहां के लोग और दुकानदार किस मुश्किल से जूझ रहे हैं? पासवान द्वारा कैशलेस को बढ़ावा देने का अभियान सफल तब होता जब वो यह खरीददारी ग्रामीण क्षेत्र में करते. वह किसी गांव के बाजार से मिठाई खरीदते, किसी गांव के बाजार से कपड़े खरीदते और किसी हाट पर अचानक रुक कर चाय पीते. वरना केंद्रीय मंत्री को जब किसी मुद्दे को प्रचारित करना हो तो वह सब कैसे होता है, ये सबको पता है. केंद्रीय मंत्री को पता होता है कि किस मिठाई की दुकान पर कार्ड स्वैप होता है औऱ कौन सा चाय वाला पेटीएम से पैसे लेता है. आखिर उनके पीछे चापलूसों की फौज इसीलिए तो घूमती है, जो जाकर पहले ही अपने ‘पसंदीदा’ दुकान वाले को ताकीद कर देता है कि वो तैयार रहे, मशीन-वशीन मंगवा ले, दुकान की सफाई करवा दें, आज उसके ‘भाग्य’ खुलने वाले हैं, आज उनके यहां केंद्रीय मंत्री का आगमन होने वाला है. पासवान उसी वर्ग से ताल्लुक रखते हैं जिसको इस कैशलेस से सबसे ज्यादा दिक्कत है. अच्छा होता कि वह उसकी सही आवाज बनते. लेकिन अब पासवान से इस समाज को भी कोई उम्मीद नहीं रह गई है. नेतृत्व में आस्था जारी रखिए पासवान जी. शुभकामनाएं।

भारतीय लोकतंत्र: एक राजनीति कारोबार

भारतीय राजनीति में विभिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का जन्म यूं ही नहीं हुआ, इसका कारण केवल और केवल यह है कि ब्राह्मणवाद के चलते पहले से ही वर्चस्वशाली राजनीतिक पार्टियां अलोकतांत्रिक होती जा रही हैं. इन वर्चस्वशाली राजनीतिक पार्टियों के गिरते राजनीतिक आचरण के कारण विभिन्न क्षेत्रीय दलों का न केवल जन्म हुआ अपितु उनमें से कई पार्टियां सत्ता तक भी पहुंचीं. वर्तमान राजनीतिक फलक इस बात का साक्षी है. किंतु पिछले छह/सात दशक में पहली बार राजनीतिक अस्मिता खतरे से बाहर नजर नहीं आ रही. राजनीतिक अस्मिता ही नहीं, जातीय अस्मिता,  क्षेत्रीय अस्मिता, परिवार की या कोई और… कुछ भी तो सुरक्षित नहीं है. आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर न केवल अस्मिता की राजनीति को धता बता “आकांक्षा”  की राजनीति को खड़ा करने का सफल प्रयास किया है, अपितु राजनीतिक अस्मिता/राज-धर्म को रसातल में पहुंचा दिया है. इसका अफसोस आज तो नहीं, आगे आने वाले दिनों में मोदी के चहेतों को जरूर होगा, इसमें दो राय नहीं. भाजपा के सत्ता में आने के लगभग दो साल से ज्यादा के शासन में हुए राज्यों के चुनावों में भाजपा की जो फजीहत हुई है, इसके चलते भाजपा और इसके पैत्रिक समर्थक दलों और आर आर एस को यह तो सोचना ही होगा कि लोकसभा के चुनावों में भाजपा के हक में हुआ बदलाव महज एक बार की बात है या फिर स्थाई. असल में सबसे बड़ी चिंता यह जताई जा रही है कि पिछ्ले कुछ दशकों से भारतीय राजनीति एक रोजगार का हिस्सा बनती जा रही है. इसका जीता जागता प्रमाण है… भारतीय राजनीति में जड़ जमाता परिवारवाद/वंशवाद. दरअसल वंशवाद अथवा परिवारवाद शासन की वह प्रणाली है जिसमें एक ही परिवार, वंश या समूह से एक के बाद एक कई शासक बनते चले जाते हैं. यह भाई-भतीजावाद की परिपाटी लोकतंत्र के लिए खतरनाक तो है ही, अधिनायकवाद को जन्म देने वाली हो सकती है. सच तो ये है कि लोकतन्त्र में वंशवाद के लिये कोई स्थान नहीं है किन्तु भारत में लोकतंत्र की शुरुआत से ही परिवारवाद की राजनीति हावी रही. प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए तो वंशवाद/परिवारवाद निम्न स्तर का असंवैधानिक आरक्षण है. इसे राजतंत्र/एकतंत्र का एक सुधरा हुआ रूप कहा जा सकता है. वंशवाद, आधुनिक राजनैतिक सिद्धांतों एवं प्रगतिशीलता के विरुद्ध है. कहना न होगा कि आकांक्षा हो या फिर जातीय/क्षेत्रीय अस्मिता, दोनों ही भावनात्मक छोर की ओर ले जाती हैं. यद्यपि अस्मिता की राजनीति लोगों को ज्यादा गुणकारी लगती हैं, तथापि भारत में जातिवाद और क्षेत्रवाद का भाव लोगों को लामबन्द कर देते हैं. और वोटिंग के समय मतदाता देश तो क्या, यहां तक कि अपने निजी और सामाजिक हितों को भी ताक पर उठाकर रख देते हैं. इसीलिए जैसे-जैसे कांग्रेस राष्ट्रीय दल के रूप में कमजोर होती गई, क्षेत्रीय और जातीय दलों का उभार होने लगा. राज्य से निकलकर क्षेत्रीय दल राजनीतिक गठबंधन के चलते केंद्र की सत्ता में तक पहुंच गए. इस प्रकार कई जातीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का सशक्तीकरण हुआ… यह कोई बुरी बात भी नहीं है क्योंकि राजनीतिक समाज के निचले तबके को रास आने लगी… किंतु दुख की बात तो ये है कि समाज के निचले वर्ग की समस्याएं जहां की तहां हैं… क्योंकि यह राष्ट्रीय दलों की नाकामी रही वे क्षेत्र और जाति की अस्मिता को उचित प्रतिनिधित्व देने में नाकाम रहे. दलित और पिछड़े वर्ग से आए नेता अपने ऐशो-आराम की जिन्दगी जीने के जुगाड़ में मशगूल हैं. कहा जा सकता है कि क्षेत्रीय और जातीय दलों के उभार का सामाजिक स्तर पर इतना तो फायदा तो हुआ कि अब निचली माने वाली जातियां बिना राजनीतिक संरक्षण के भी सरकार के खिलाफ अपने अधिकारों के लिए लामबन्द होने लगी हैं. लेकिन शासन के स्तर पर इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि निचली माने वाली जातियों के राजनेता सत्ता के विमर्श और सामाजिक विकास से जैसे बाहर हो गए… कारण कि वे अपने वर्चस्वशाली राजनीतिक आकाओं के सामने मुंह न खोलने को बाध्य हैं. उसकी कीमत पूरे दलित और पिछड़े समाज को चुकानी पड़ रही है. यहां तक कि उन लोगों को भी जिनके भले के लिए इस राजनीति का दावा किया जा रहा था. हैरत की बात है कि आम मतदाता सत्तारूढ़ दलों और गठबंधन की सरकारों से छुटकारा चाहती है. किंतु धर्म और असामाजिक गतिविधियों से जुड़े लोग अपने मंतव्य को साधने के लिए सामाजिक हितों को सूली पर चढ़ा देते हैं. आज आम मतदाता केवल इस बात से संतुष्ट होने को तैयार नहीं है कि वोट मांगने वाला उसकी जाति, धर्म या क्षेत्र का है. लेकिन राजनीतिक गुंडातत्व जाति, धर्म या क्षेत्र को ज्यादा महत्त्व देता है. आम मतदाता को लगता है कि अस्मिता की राजनीति भूमिगत हो गई है. मतदाता अस्मिता की राजनीति की अपील करता है. वह परिवर्तन के लिए प्रयोग करने को तैयार है. शायद इसलिए कि अस्मिता की राजनीति दिन प्रति दिन खत्म होती जा रही है. आज ये कहना गलत नहीं होगा कि अस्मिता की राजनीति खतरे में है. राजनीति का चक्र अब विकास के नाम पर घूमता हुआ लग रहा है. अस्मिता की राजनीति के साथ ही गठबंधन की राजनीति के दिन भी लदते दिख रहे हैं. उत्तर प्रदेश, पंजाब और अन्य प्रदेशों में होने वाले चुनावों के परिणामों से शायद इसके संकेत देखने को भी मिल जाए. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि भारतीय लोकतंत्र में राजनीति ने एक कारोबार का रूप ले लिया है. राजनीति के गलियारों में परिवारवाद के खिलाफ कितनी ही भी हाय तौबा की जाती हो लेकिन भारतीय राजनीति के व्यवहार/आचरण से परिवारवाद दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है. परिवारवाद की राजनीति से कोई भी राजनीतिक दल अछूता हो, ऐसा नहीं है. नेहरू परिवार की बेशक आज जड़े उखड़ती दिख रही हैं, किंतु दूसरे राजनीतिक दल जो आज तक नेहरू परिवार पर परिवारवाद की राजनीति का आरोप लगाते आ रहे थे, परिवारवाद की राजनीति का खुला खेल रहे हैं. अब चुनाव लोकसभा के हों अथवा राज्यों की विधानसभाओं के धरती-पकड़ नेता अपने परिवार के किसी न किसी सदस्य को आगे लाने में लगे रहते हैं. 2014 के आम चुनावों में कम से कम 15/16 राजनीतिक परिवारों के एक या उससे अधिक सदस्य मैदान में थे. इससे साफ है कि राजनीतिक घरानों के युवा/युवतियां उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी गैर राजनीतिक प्रशासनिक और अन्य क्षेत्रों में विशेषज्ञ बनने के चेष्टा न करके समृद्ध इलाके की राजनीति में अपने परिवार का वर्चस्व बनाये रखने के लिए राजनीतिक  व्यवस्था का अंग बनने/बनाए जाने की राह पर देखे जा सकते हैं. इसी कारण के चलते दशकों से कोई जनप्रिय राजनेता जमीन पर नहीं उभर सका. सच तो ये है आज कोई लाल बहादुर शास्त्री और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे नेता राजनीतिक मैदान में जोर अजमाइश करें भी तो उनकी जमानत जब्त होना इसलिए लाजिम है क्योंकि भारतीय राजनीति में धर्म और धर्म के नाम पर गुण्डागर्दी ने अपने पांव जमा लिए है. हालाँकि सुप्रीम कोर्ट के अनुसार धर्म एक व्यक्तिगत मान्यता का विषय है किंतु धर्म के नाम पर वोट मांगना एक अपराध है. किंतु फिर भी राजनीतिक पार्टियां किसी न किसी बहाने धर्म को चुनाव मुद्दा बना ही लेती हैं. चुनाव आयोग भी इस बारे में कोई खास कदम नहीं उठा पाता. कारण है कि आयोग में भी विभिन्न मत-मतांतरों के लोग ही नियुक्त होते हैं. नई बात जो हुई है वो है कि नेहरू परिवार से समाज के अनुसूचित/जनजातियों और तथाकथित पिछड़े वर्ग से आए राजनेताओं ने भी परिवारवाद की राजनीति में सुचारू रूप से भागेदारी निभाने का हुनर सीख लिया है. उदाहरण के लिए लालू प्रसाद यादव, सिंधिया परिवार, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, देवगौडा, महाराष्ट्र के पंवार, पंजाब के अमरिन्दर सिंह, पंजाब के ही प्रकाश सिंह बादल, छत्तीसगढ़ से अजित सिंह जोगी, मध्य प्रदेश से दिग्विजय सिंह, हरियाणा से  ओम प्रकाश चौटाला, हरियाणा से ही  हुड्डा परिवार, उत्तराखण्ड से हेमवती नन्दन बहुगुणा, रावत परिवार और करूणानिधि आदि नेताओं की परिवारवादी राजनीति दशकों से चल रही है. कुछ परिवार में तो राजनीति करने लायक जितने भी सदस्य हैं वे सभी किसी न किसी पद पर हैं. कुछ परिवारों ने तो 2-2 दलों में अपनी पैठ बना रखी है और हवा के रूख के हिसाब से अपने भविष्य की राजनीति को तय करते हैं. नेहरू परिवार की बहू और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कांग्रेस मे उनके ही परिवार की बहू मेनका गांधी (और उसका बेटा) अपनी जेठानी से अलग भाजपा की राजनीति करती हैं. यह और कुछ नहीं सत्ता में बने रहने का एक नायाब तरीका है. इधर रहो या उधर, रहो सत्ता में. इससे अच्छा और कोई कारोबार कम से कम भारत में तो और कुछ हो ही नहीं सकता. मुलायम परिवार और लालू प्रसाद के परिवार के रिश्तेदार तक किसी न किसी राजनीतिक पद पर हैं. इस बार रामविलास पासवान ने भी अपने बेटे को मैदान में उतारा. उत्तर प्रदेश के गत विधानसभा चुनाव में सपा के सत्तारूढ़ होने पर मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश मुख्यमंत्री बनाए गये. लालू खुद लड़ न सके तो पत्नी को उतारा क्योंकि बिहार के बहुचर्चित चारा घोटाले में सजा के कारण राजद के प्रमुख लालू प्रसाद यादव की लोकसभा की सदस्यता समाप्त हो गयी थी. बिहार में इस बार नितीश कुमार की सरकार बनी तो लालू प्रसाद के बेटे के लिए उप-मुख्यमंत्री का पद इजाद किया गया. शरद पवार राज्यसभा में पहुंचे तो उनकी पुत्री सुप्रिया सुले बारामती से पार्टी की उम्मीदवार रहीं. उनके भतीजे अजीत पंवार पहले से ही मंत्री हैं. इसी तरह पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह अमृतसर में कांग्रेस के उम्मीदवार थे तो  उनकी पत्नी परनीत कौर पटियाला से पार्टी की प्रत्याशी थीं. एक ईमानदार राजनेता चौधरी चरण सिंह के बेटे चौधरी अजीत सिंह….अब अजीत सिंह के बेटे जयंत सिंह… न जाने कितने ही ऐसे उदाहरण हैं, जो राजनीति का हिस्सा न होकर कारोबार का हिस्सा हो गया है. हाँ! बसपा की मायवती अभी तक इस आरोप से बरी ही मानी जाएंगी…. उन्होंने अपने परिवार के किसी भी सदस्य को राजनीतिक मैदान में नहीं उतारा. भाजपा की राजनीतिक ताकत बढ़ी तो उसने भी परिवारवाद का खेल खेलना शुरू कर दिया. अब भाजपा के शीर्ष नेता भी अपने चहेते और बेटा-बेटियों को राजनीति के मैदान में उतारने में पीछे नहीं हैं. वैसे तो समूची भाजपा और आर एस एस जैसे बड़े परिवार का कोई घटक आर एस एस मुखिया के खिलाफ किसी तर्कसंगत बात को भी नहीं पूछ सकते ……मोदी जी तक भी नहीं. और तो और जिस महाराष्ट्र में अस्मिता की राजनीति का एक लम्बा दौर चला किंतु बाल ठाकरे और शरद पवार परिवारवाद की राजनीति के अगुआ बन गए हैं. नतीजा यह हुआ कि परिवार और दल दोनों टूट गए. उद्धव ठाकरे हों या राज ठाकरे राजनीति में उनका अपना अर्जित किया हुआ कुछ नहीं है. दोनों बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत पर दावा कर रहे हैं. हरियाणा तो न जाने कब से अपने राजनीति ‘लालों’ के लिए जाना जाता है. तीनों लाल, यद्यपि देवीलाल, बंसीलाल और भजनलाल अब इस दुनिया में नहीं हैं, तथापि इनकी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए इनके परिवार मौजूद हैं. देवीलाल की तो चौथी पीढ़ी राजनीति से जुड़ी है. देवीलाल और बंसी लाल की पहचान जाट नेता के रूप में रही तो भजनलाल गैर जाट नेता के रूप में स्थापित रहे. सिद्धांत और विचारधारा जैसी चीजों का राजनीति में प्रवेश नितांत  वर्जित है. इसलिए राजनीतिक कारोबार को इस बात में शर्मिंदा होने जैसी कोई वजह नजर नहीं आती. जनता के रुझान को ध्यान में रखते हुए कोई भी राजनेता किसी भी पार्टी में जा सकता है. आजके जनसेवकों/राजनेताओं का यह आचरण किसी से छुपा तो नहीं है? ऐसे हालातों को देखते हुए अब कौन कह सकता है कि आज की राजनीति किसी “कारोबार” से कम है… यदि कोई कहता है कि नहीं… तो सत्ता पाने की इतनी मारामारी क्यों? तमाम के तमाम बड़े राजनीतिक दल राजनीति और धंधा एक साथ करते हैं. माननीय मुलायम सिंह के घर में मचा घमासान इस सच का सटीक प्रमाण है कि लोकतंत्र की राजनीति एक रोजगार बन गई है. स्मरण रहे कि एक समय हुआ करता था कि जब देश की लोकसभा में 75% सांसद ब्राह्मण और बनिया वर्ग के हुआ करते थे, आज लगभग 60% सांसद अनुसूचित /जन जाति और पिछड़े वर्ग से चुनकर लोकसभा की शोभा बढ़ा रहे हैं. किंतु सांसद या मंत्री बनते ही वो ये भूल जाते हैं कि भारतीय समाज के दलित/दमित वर्ग के लिए उनका कोई दायित्व भी है. भारतीय समाज के दलित/दमित वर्ग की कमोबेश आज भी वो ही हालत है जो विगत में थी…..कुछ मोडरेट जरूर हो गई है. भेदभाव के नए तौर-तरीके… अत्याचार के तौर-तरीकों में आया नयापन राजनेताओं को “विकास” नजर आता है. आज के भारत में भाजपा सरकार के चलते जितना हिंसक अत्याचार दलितों और अल्पसंख्यकों पर हो रहा है, शायद ही कभी पहले इस दर्जे की क्रूर क्रियाएं हुई हों. किंतु सत्ता पक्ष में बैठे इस वर्ग से आए सांसदों और मंत्रियों की जुबान को जैसे लकवा मार गया हो, किसी का भी मुंह नहीं खुला. बाबा साहेब अम्बेडकर ने ठीक ही कहा था कि पालतू कुत्ता मालिक की सोटी खाकर भी केवल पूंछ ही हिलाता है… भौंक सकने की ताकत वह खो चुका होता है. संविधान सभा में दिए गए अपने भाषण में डा. अम्बेडकर ने जिस सामाजिक लोकतंत्र की कल्पना की थी, उसे आज पूरी तरह से भुला दिया गया है. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि आज देश की राजनीति पर भाजपा की पैत्रिक संस्था आर एस एस जैसी जड़ यानी परम्परागत संस्कृतिवादी संस्थाओं का कब्जा है. तर्क इनकी समझ से परे है और आस्था इनके खून में. संस्कृति और धर्म की आड़ में समाज विरोधी राजनीति करना इनकी आदत में सुमार है. यद्यपि समाज का बहुसंख्यक वर्ग इनकी विचारधारा को पसंद नहीं करता किंतु आज का टी आर पी पसंद मीडिया और प्रचार के दूसरे माध्यम इनकी राजनीति को शिखर पर ही रखते हैं जिसके चलते धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक मसले प्राय: इनके पक्ष में ही खड़े हो जाते हैं. धर्म और जाति केन्द्रित राजनीति भारतीय समाज के लिए एक कलंक ही है. लेकिन लोकतंत्र में संख्याबल के जो मायने है… उसका जायजा इस बात से लिया जा सकता है कि यदि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक ओर 51 गधे और दूसरी ओर 49 घोड़े जीतकर लोकसभा में पहुँचते हैं तो सरकार 51 गधों की ही बनेगी. इस तर्क के मद्देनजर समाज का दलित/दमित वर्ग अपने आप को वर्चस्वशाली वर्गों जिनपर सवर्णों का कब्जा है और जिनका न्याय, समानता, वर्गहीन समाज और समग्र विकास में साझेदारी जैसे कामों में कोई विश्वास नहीं होता, के साथ स्वार्थपूर्ण गठबन्धन कर उनके हवाले कर देता है. और दलित और दमित समाज के तथाकथित नेता जीतने के बाद उस दलित/दमित समाज की अनदेखी कर देता है जिसके भले की दुहाई देकर वो सत्ताशीन होता है. ऐसे में विचार और सामाजिक परिवर्तन की राजनीति केवल एक सवाल बनकर रह जाती है. लोकतंत्र में जनता को निर्णायक शक्ति माना जाता है, किंतु लोकतंत्र में जनता को अपना अधिकार दिखाने का हक पांच साल में केवल एक दिन मिलता है और राजनेताओं को जनता को लूटने का अधिकार पूरे पाँच साल के लिए मिल जाता है. अब कोई तो बताए कि लोकतंत्र में राजनीति की अस्मिता जनसेवक की नहीं….एक कारोबारी की है. यहाँ यह कहना भी तर्कसंगत ही होगा कि एक बार सत्ता में आने के बाद राजनेता जिस प्रकार जनता के धन का दुरुपयोग करते हैं…. किसी से छुपे नहीं हैं. कोई नेता अपनी औलाद को नोटों के बिस्तर पर सुलाता है, कोई अपने बेटे के द्वारा गलत पार्किंग कराने से रोकने पर पुलिस के कांस्टेबिलों को सस्पेंड करा देता है तो राजसत्ता टी. वी. चेनल पर सचाई दिखाने के लिए किसी चेनल के प्रसारण पर एक दिन के लिए रोक लगा देता है. मेरी समझ से परे है कि एनडीटीवी का प्रसारण नौ नवम्बर को ही बन्द करने के पीछे सरकार का  क्या मकसद रहा है. क्या संघ परिवार के किसी महापुरुष का जन्म दिन है उस दिन? क्या बात है कि जो टीवी चैनल सरकारी हिसाब से कुछ सच्ची… कुछ झूंठी खबरें दिखाए, उसकी वाह-वाह और जो मरने मारने की खबरों का सच उजागर करे… उसका प्रसारण बन्द. क्या खूब है लोकतंत्र की कारोबारी राजनीति. आज के इस राजनीतिक आचरण को आप क्या कहेंगे? क्या इसे अघोषित आपातकाल की संज्ञा देना गलत होगा? लेखक तेजपाल सिंह तेज को हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार और साहित्यकार सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है. इनका संपर्क सूत्र tejpaltej@gmail.com है.

दलित महिला की जलती चिता को उच्च जाति के लोगों ने मिट्टी डालकर बुझाया

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झुंझुनू। राजस्थान के झुंझुनू स्थित सौती गांव में एक दलित परिवार को अपनी मृत मां के शव का दाह संस्कार तक नहीं करने दिया. इतना ही नहीं दाह संस्कार करने से रोकने के लिए गांव के ही कुछ लोगों ने महिला की चिता पर मिट्टी डालकर बुझा दिया. वहीं मृतक महिला के परिजनों के साथ मारपीट तक कर डाली, जिससे गांव में तनाव का माहौल हो गया. गांव के उच्च जाति के लोगों की गुंडई का शिकार हुए दलित परिवार के लोगों ने जिला कलेक्टर और एसपी के पास पहुंचकर गुहार लगाई. इसके बाद प्रशासन और पुलिस की मौजूदगी में दलित वृद्धा का दाह संस्कार हो पाया. गांव के महेंद्र और लीलाधर मेघवाल की मां का देहांत हो गया था. परिजन शव को लेकर गांव के ही जोहड़ में पहुंचे और यहां पर चिता को मुखाग्नि दी. इसके तुरंत बाद गांव के जाट समाज के लोग जोहड़ में पहुंच गए और उन्होंने दाह संस्कार करने से मना कर दिया. गुंडई दिखाते हुए दलित समाज के लोगों से मारपीट करने लगे. फावड़ों से मिट्टी डालकर जलती हुई चिता को बुझा दिया. इसके बाद गांव में माहौल काफी तनावपूर्ण हो गया. इसके बाद दलित समाज के लोग झुंझनू मुख्यालय स्थित कलेक्ट्रेट पर पहुंचे और प्रदर्शन कर जिला कलेक्टर को पूरे प्रकरण से अवगत कराया. कलेक्टर के निर्देश पर पुलिस को घटना स्थल पर भेजा गया, जिसके बाद पुलिस की मौजूदगी में वृद्धा का दाह संस्कार किया गया. गांव के महिपाल, राजेंद्र, जुगलाल, वीरेंद्र, प्रकाश सहित ग्रामीणों व महिलाओं पर आरोप लगाया गया है. सौती गांव में दलित परिवारों की संख्या काफी है. दलितों के पास गांव श्मशान भूमि नहीं है. पहले तो गांव के दलित परिवार बीहड़ में दाह संस्कार किया करते थे. इसके बाद गांव के जोहड़ में दाह संस्कार करना शुरू कर दिया.

नसबंदी से लेकर नोटबंदी तक- वोट बैंक की प्रयोगशाला बन चुकी है देश की जनता

देशवाशियों को “बंदी” को सहन करना जैसे उनकी आदत में सुमार हो चुका है. नसबंदी, नशाबंदी, नकलबंदी, भारतबंदी और आजकल नोटबंदी, जिसने देश के अब तक के सारे बंदियों और बंदों को पीछे धकेल दिया है. देश का दुर्गभाग्य कहा जाये या अक्लमंदी, जब भी देश में किसी भी प्रकार की बंदी हुई है, उसी का सबसे ज्यादा उल्लंघन या दुरूपयोग हुआ है. जैसे आजकल नोटबंदी के बाद भारी मात्रा में नये नोटों की काला बाजारी हो रही है. जिस मकसद से नोटबंदी की गयी थी, कि काला धन बाहर आयेगा और लोगों के खातों में 15 लाख न सही15 हजार तो जमा हो ही जायेंगे. मगर अब भी प्रधानमंत्री जी के 50 दिन का वायदा पूरा भी नहीं हुआ है. गुलाबी नोटों को काला करने का धंधा युद्ध स्तर पर पूरे देश में शुरू हो गया है. एक मछली पूरे तालाब को गंदा करती है कहावत आज सार्थक प्रतीत होती है. काली कमाई के चंद गुनाहगारों के फेर में आज पूरा देश जैसे खड़े होने की सजा काट रहा है. चाहे बीमार हो या बूढ़ा, महिला हो या मजदूर बैंकों या एटीएम के सामने घंटों योगा करने को मजबूर नहीं तो क्या शौक से खड़ा है? भारत की जनता ने सिकंदर से लेकर गजनवी, हूणों से लेकर मुगलों, गोरखाओं से लेकर पुर्तगालियों और अंत में अंग्रेजों के जुल्मों को सहा है. भुखमरी को सहा है, अकाल को सहा है, सुनामी तथा भूकंप की त्रासदी को सहा है. इतना ही नहीं लोकतांत्रिक देश ने 1975 में आपातकाल के जख्मों को भी सह-सह कर देश के आन-मान और सम्मान को बचाया है. मगर ये कुर्बानी सिर्फ वोटों में तब्दील होकर दफन होती रही है. अगर हम तीन-चार सौ सालों की गुलामी की जंजीरों को सहन कर सकते हैं तो मोदी जी के 50 दिनों की वचनबद्धता को निभाने में क्यों पीछे रहें! अगर 50 दिनों के बाद खुशनुमा अहसास और अच्छे दिनों की बहार आने वाली है तो ये कढ़वी घूंट हर देशवाशी को पीनी ही चाहिए. परिवर्तन प्रकृति का नियम है. प्राचीनकाल में भी शासकों ने कई क्रांतिकारी परिवर्तन के फैसले लिए हैं, कुछ सफल तो कुछ विफल भी रहे है. मुद्रा परिवर्तन का जब भी जिक्र आयेगा इतिहास में मुहम्मद बिन तुगलक का नाम भी जरूर आयेगा. गुलाम भारत में कुछ “बंद” तो भारत की तस्वीर और संस्कृति(मान्यतायें) ही बदल गये. जिनमें सति प्रथा का अंत, बालविवाह का अंत, विधवा विवाह को मान्यता, बलिप्रथा का अंत, साथ ही ठगी प्रथा आदि का अंत. तब देश में लोकतंत्र भी नहीं था और वोटों की चिंता भी नहीं थी. आजादी के बाद संवैधानिक भारत में इन 70 वर्षों में हम पूर्ण रूप से एक भी ऐसी चीज का अंत नहीं कर पाये जो समाज और देश की प्रगति में बाधा हो! संपत्ति का मूल अधिकार समाप्त होने के बाद भी काला धन किस प्रकार जमा हुआ क्या सरकारें अनजान थी? इन 70 सालों में क्या सिर्फ वोट बैंक ही नजर आया नोट बैंक की ओर नजरें फेर दी? अभी भी नोट बंदी देश हित या गरीब हित में होगी तभी पता चलेगा जब इसका चुनावीकरण होगा. भारत अहिंसा परमो धर्मः और वसुधैव कुटम्बकम का राष्ट्र है. इसलिए चाहे आतंकी देश पाकिस्तान हो या काला बाजारी, रिश्वतखोरी, बलात्कारी, शोषणकारी, और भ्रष्टाचार के देशी नायक जिनमें 2 जी, राष्ट्रमंडल खेल,कोल ब्लाक,स्टांप घोटाला,बैंक घोटाला, आईपीएल घोटाला और  वर्तमान में 9 हजार करोड़ की बैंक राशि को हजम कर विजय माल्या ने आज देश की जनता को जैसे फुटपाथ पर लाकर खडा़ कर दिया है.फिर भी सभी हमारे कुटंब के मेहमान बने हुए हैं और आगे भी ऐसे कितने सदस्य इस कुटंब में जुड़ते जायेंगे हैरानी की कोई बात नहीं. लगता है देश भक्ति 15 अगस्त 1947 को आजादी के बाद लगभग खत्म हो गयी. आजादी के बाद पार्टी भक्ति, व्यक्ति भक्ति और सत्ता भक्ति ही राजनीति की प्रमुखता बन चुकी है. बड़ी योजनाओं और क्रांतिकारी परिवर्तन की ओर जरूर विधेयक और कानून पारित हुए हैं मगर वो सिर्फ और सिर्फ वोट की राजनीति का सहारा बनकर रह गयी हैं. शिक्षा समाज के विकास का अहम अंग है मगर आज हम शतप्रतिशत देश को साक्षर नहीं बना सके हैं. रोजगार गारंटी के रूप में मनरेगा लाये वह भी मन का रोग बन कर ही रह गया. शिक्षा का अधिकार अधिनियम का लक्ष्य अभी भी अधूरा ही है. खाद्य सुरक्षा अधिनियम भी लाये हैं मगर देश में भूख से मरने वालों की कमी नहीं है. लू से मरने वालों, ठंड से मरने वालों की कोई गिनती नहीं है. इनको हमने सायद गर्मी और ठंड के पैमाने मान लिए है. अर्थात जिस वर्ष लू से ज्यादा लोग मरें कहें उस साल गर्मी भयानक थी और जिस वर्ष ठंड से ज्यादा जानें जायें कहें कि अमुक वर्ष तापमान सबसे नीचले स्तर पर था. वही इस वक्त भी नोटबंदी के कारण हो रहा है. 1975 के इमरजेंसी में भी गरीब ही ज्यादातर जबरदस्ती नसबंदी के शिकार हुए थे. इस मापदण्ड को अगर हम बंद कर सकें तो तब हम गर्व से वयां कर सकते हैं कि देश अब मंत्रों से यत्रों की ओर अर्थात एनालॉग से डिजिटल की ओर बड़ रहा है. कहने को तो आसान है मेरा देश बदल रहा है मगर इस बदलाव में हमेशा बलि का बकरा गरीब ही बना है. आजादी के बाद के सब नीतियों का विश्लेषण किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलता है कि गरीबी मिटी नहीं, गरीब जरूर मिट रहे हैं, कृषि क्षेत्र में बेहतर बदलाव नहीं हुआ इसलिए किसान आत्महत्या करते रहे. गरीबों की हालत गुलामी के दौर जैसी है. भिखारी तब भी थे और आज भी हैं, कुछ लोगों के पास छत तब भी नहीं थी आज भी नहीं है, कुपोषण तब भी था और आज भी है. कुरीतियां तब भी थीं और आज भी है, भेदभाव असमानता आजादी से पहले भी थी और आज भी है, तो क्या बदला है इन 70 वर्षों में? सिर्फ तकनीक जरूर बदली है, मगर गरीबों, दलितों की तकदीर नहीं बदली. लोग नशबंदी के दौर में मरे थे और आज नोट बंदी के दौर में मर रहे हैं. ये तस्वीर अवश्य ही बदलनी चाहिए. पक्ष तथा विपक्ष के सत्ता के शतरंज के खेल में मात हमेशा देश की जनता को ही मिलती है. लेखक प्रवक्ता (भौतिक विज्ञान) हैं. अल्मोडा़ (उत्तराखण्ड) में रहते हैं. संपर्क- iphuman88@gmail.com

अंधविश्वासों और कर्मकांडों में सिमटे रहना भारतीयों की विशेषता

कल क्रिस्टोफर हिचन्स की विदाई तिथि गुजरी है. रेशनल और वैज्ञानिक सोच का झंडा बुलंद करने के लिए उनका संघर्ष यादगार रहा है. दुर्भाग्य से भारतीय समाज में ऐसे लोग बहुत कम हुए हैं और हुए भी हैं तो उनका आम जन से रिश्ता ही नहीं बनने दिया गया है. भारतीय समाज इतना अंधविश्वासी, कुपढ़ और आत्मघाती है कि उसे बुद्धि ज्ञान और नयेपन से डर लगता है. पुराने अंधविश्वासों और कर्मकांडों की खोल में सिमटे रहना और भविष्य को अतीत की राख में दबाते रहना भारत की विशेषता है. इस मुल्क में परसाई जैसे आलोचक, दाभोलकर जैसे रेशनलिस्ट या प्राचीन चार्वाकों जैसे तार्किकों नास्तिकों की परंपरा ही नहीं बन पाती. हर पीढ़ी में आसाराम, निर्मल बाबा और ओशो जैसे पोंगा पंडित खड़े हो जाते हैं और बुद्ध, चार्वाक, लोकायतों की क्रांति पर मिट्टी डालकर चले जाते हैं. यूरोप इस मामले में भाग्यशाली रहा है. वहां आरम्भ से ही भौतिकवादियों और नास्तिकों तार्किकों की लंबी और समृद्ध परम्परा रही हैं. उसी के परिणाम में वहां पुनर्जागरण और विज्ञानवाद सहित आधुनिकता आई है, जिसका लाभ भारत भी लेता है लेकिन उसे स्वीकार करने में झिझकता है. विज्ञान, तकनीक, शिक्षा, चिकित्सा, शासन-प्रशासन, लोकतंत्र, सभ्यता, भाषा-वूषा और नैतिकता सब यूरोप ने भारत को सिखाई है. उसके बिना ये मुल्क एक मिनट खड़ा नहीं रह सकता लेकिन इसके बावजूद इतना नैतिक साहस नहीं कि इन तथ्यों को स्वीकार कर लें. इसे स्वीकार करना तो दूर उल्टा इन विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल करके इसी विज्ञान और सभ्यता का विरोध किया जाता है. बच्चों को जिस चिकित्सा, शिक्षा और सुविधा की सुरक्षा में पैदा किया जाता है और पाला जाता है, उसका विरोध करते हुये इन्हीं बच्चों को विज्ञान के विरुद्ध खड़ा किया जाता है. बचपन से ही पूजा पाठ यज्ञ कथाएं उनके दिमाग में ठूंस दी जाती हैं. ये सामूहिक आत्मघात है. इसीलिये एशियाई समाज कुछ भी मौलिक नहीं खोज पाते. वे यूरोप के आज्ञापालक ही बने रहते हैं. यूरोप का बुद्धिजीवी वर्ग बहुत पहले ही बाबाओं, गुरुओं और धार्मिक प्रवचनों के घनचक्कर से आजाद हो चूका है. आम जन में थोड़ी सी धर्मभीरुता बची है लेकिन वह उतनी बड़ी और जहरीली नहीं जैसी भारत में है. यहां तो उल्टी गंगा बहती है. यहां का तथाकथित क्रान्तिकारी और प्रगतिशील वर्ग सबसे ज्यादा अंधविश्वासी और धर्मभीरु है. दर्शन, काव्य या हिंदी साहित्य उठाकर देखिये मनु, शक्तिपूजा, महाभारत रामायण के बिंब और मिथकों की गप्पों पर खड़े कथानक पिछली सदी के आधे हिस्से तक मुख्यधारा के साहित्य पर छाये रहे. 1935 तक साहित्य में नायिका विमर्श और नख शिख वर्णन देख लीजिए. लगता ही नहीं कि ये भारत में जन्म लिए पले बढ़े लोगों का साहित्य है. इस साहित्य में देवी देवता, राजे महाराजे, अवतार इत्यादि भरे हुए हैं. आम आदमी, मजदूर किसान या स्त्री का कोई जिक्र ही नहीं. अंग्रेजों के सत्संग में जब यूरोपीय साहित्य, सभ्यता, संस्कृति और दर्शन का दरवाजा भारतीयों के लिए खुला तब राममोहन, केशव, विवेकानन्द जैसों को बड़ी शर्म महसूस हुई कि भारत कैसा समाज है? इसी के परिणाम में सती प्रथा उन्मूलन जैसी सामाजिक सुधार हुए, ईसाई धर्म की सेवा भावना सीखकर धार्मिक सुधार किये गए. इसके बहुत बाद रवीन्द्रनाथ और प्रेमचन्द जैसे शूद्रों/ पिछड़ी जाति के लेखकों का साहित्य देखिये वे ब्राह्मणवाद और अंधविश्वासी शिल्प सौंदर्य को साहित्य और सौन्दर्यशास्त्र के मैदान में आकर ललकार रहे हैं. यूरोप के इसी ज्ञान का बीज फूले, गांधी और अंबेडकर की बुलन्द आवाज में भी पल्लवित हो रहा है. और आज जो कुछ भी थोड़ा सुधार हम देख रहे हैं उसका स्त्रोत सीधे सीधे यूरोप के पुनर्जागरण और सामाजिक क्रांति के दर्शन में है. इस बीच भारतीय पोंगा पंडित क्या कर रहे थे? उन्होंने इस बदलाव पर मिट्टि डालने के लिए धर्म राजनीती और कॉरपोरेट की ज़हरीली त्रिमूर्ति खड़ी की. नई नई कथाएं, पुराण, मिथक, झूठ और अफवाहें खड़ी की. सांप्रदायिक दंगे और मंदिर मस्जिद के बेकार के मुद्दों को राजनीति की धुरी बना दिया. ध्यान, समाधि, अध्यात्म और पूरब पश्चिम के संश्लेषण के नाम पर धर्म और अंधविश्वास की अफीम को फिर से राष्ट्रवाद और देशप्रेम के साथ घोल दिया. नतीजा सामने है. पूरा मुल्क बैंको की कतारों में लगा चिल्लर गिन रहा है. क्या यह अवश्यम्भावी था? ये रोका नहीं जा सकता था? क्या भविष्य को बदला जा सकता है? जरूर बदला जा सकता है. हमारी स्त्रियां और बच्चे अगर इन धार्मिक, बाबाओं, योगियों, कथाकारों की बकवासों से बच सकें या बचाई जा सकें तो हम भी अगली दो पीढ़ियों में भारत में सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र और नैतिकता सहित विज्ञान भी पैदा कर सकते हैं. लेकिन दुर्भाग्य ये कि इन नवाचारों की हत्या करने वाले बाबा, योगी और ओशो जैसे रजिस्टर्ड भगवान इतने धूर्त और होशियार हो गए हैं कि वे क्रान्ति के नाम पर ही अंधविश्वास सिखाने लगते हैं. जहर को दवाई बनाकर पिलाने लगते हैं. और ये अभागा मुल्क उनकी जहरीली खुराकों को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने लगता है. क्या भारतीय समाज नीत्शे, रसल, मार्क्स, कोपरनिकस, गेलिलियो, ह्यूम, डार्विन, आइंस्टीन, डॉकिन्स और हिचिन्स पैदा कर सकता है? या कम से कम निर्मल बाबा और ओशो जैसे पोंगा पंडितों को बीच से हटाकर इन तार्किकों को अपनी अगली पीढ़ियों के प्रति उपलब्ध करवा सकता है? इसी प्रश्न के उत्तर पर निर्भर करेगा कि भारत सभ्य होगा या नहीं होगा.

जो बहन जी की निगाह पर चढ़ गया सो चढ़ गया

तब मायावती यूपी की मुख्यमंत्री थीं और इलाहाबाद के बाहुबली सांसद अतीक अहमद जेल में बंद थे. कहानियों के मुताबिक जेलर को ऊपर से आदेश मिले थे कि अतीक अहमद को उनकी तशरीफ पर रोज सुबह-शाम चार डंडे लगाए जाएं. कहानी के मुताबिक जेलर ये कहते हुए नियम से सुबह और शाम अतीक की तशरीफ पर लाठियां बरसाता था-”अतीक अमहद, उठा अपनी तहमद, क्योंकि मायावती हैं सहमत.” मैं फिर कह रहा हूं कि इस कहानी की सच्चाई का कोई सबूत नहीं है, लेकिन नेताओं, पत्रकारों और पुलिस वालों के बीच ये कहानी सुर्खियों में बनी रही. कुछ ऐसा ही हुआ था राजा भइया के साथ. समाजवादी पार्टी के बाहुबली नेता राजा भइया फतेहगढ़ जेल में बंद थे, गरमी के दिन थे, नियमों के मुताबिक उन्हें कूलर और अखबार की सुविधा मिलनी थी, लेकिन उन्हें कूलर नहीं मिला था. जेलर से शिकायत की, कूलर नहीं मिला. हाईकोर्ट में गुहार लगाई. वहां से अखबार और कूलर की सुविधा देने का आदेश आ गया. अब जेल में राजा भइया को जो कमरा मिला था उसमें कूलर लगा, नीचे जेलर ने उपले सुलगवा दिए. कूलर चालू, भीतर राजा भइया का दम घुटने लगा, बाप-बाप चिल्लाने लगे. जेलर बोला-साहब हमको तो आदेश मिला है अदालत का. अब तो कूलर बंद नहीं होगा. कहते हैं कि जेल में राजा भइया को नानी याद आ गई. रोज कुछ इसी तरह उन्हें भरी दुपहरी और रात में उपलों के धुएं के साथ कूलर सुख मिलता रहा. और हां, अखबार भी उन्हें रोज मिलता था, लेकिन उनके पास जाने से पहले अखबार को पानी में डाला जाता था। अब ये कहने की जरूरत नहीं कि राजा भइया पर ऐसा ऐक्शन लेना कोई हंसी खेल नहीं था. किसी जेलर की इतनी हिम्मत तभी होगी, जब इसके लिए आदेश ऊपर से आए होंगे. मायावती के राज में अपराध होते ही एक्शन होता था. जो मायावती की निगाह में चढ़ गया तो फिर चढ़ गया, उसकी खैर नहीं. विपक्षी तो विपक्षी उनकी अपनी पार्टी के बाहुबली भी मायावती के कोप से सहमे रहते थे. जिस भी विधायक या मंत्री पर आरोप लगा, मायावती ने न सिर्फ उसे बर्खास्त किया, बल्कि जेल में भी भेजा. मेरा एक मित्र शेखर तिवारी औरैया से पहली बार विधायक बना था, मायावती का पसंदीदा था, लेकिन इंजीनियर हत्याकांड के बाद मायावती ने उसे जेल में डलवा दिया, चार महीने से ज्यादा विधायकी का सुख भोग नहीं पायाय आठ बरस से ज्यादा हो गए, वो अभी भी जेल में है, उसे उम्र कैद की सजा हुई है. बीएसपी विधायक गुड्डू पंडित को भी ऐसे ही मायावती ने सीखचों के पीछे भेज दिया था. मायावती ने अपने जिन विधायकों और मंत्रियों को खुद जेल भेजा, उनमें से कई तो आज भी जेल में हैं. ये पोस्ट लिखने का मतलब ये नहीं कि मायावती के शासन की शान में कसीदे काढ़ रहा हूं, लेकिन इलाहाबाद में अतीक अहमद और उनके गुर्गों की गुंडागर्दी की खबर आई तो बरबस ये बातें याद आ गईं. अखिलेश यादव निश्चित रूप से सबसे काबिल मुख्यमंत्री हैं, साढ़े चार साल के उनके कार्यकाल में उन पर एक भी दाग नहीं है, लेकिन उनके खानदान का अपराधियों से प्रेम कम होने का नाम नहीं लेता. मुलायम हों या शिवपाल यादव, अपराधियों से रिश्ते इन्हें सबसे ज्यादा रास आते हैं. डाकू छविराम, अरुण शंकर शुक्ला उर्फ ”अन्ना”, डीपी यादव से लेकर मुख्तार अंसारी तक लंबी फेहरिस्त है. समाजवादी पार्टी की सरकार में गुंडे हमेशा ही भयमुक्त रहे हैं. अखिलेश विकास की जितनी भी बातें कर लें, लेकिन गुंडागर्दी का दाग वे अपनी सरकार के दामन से धो नहीं पा रहे हैं. जब तक ये दाग उनकी पार्टी और सरकार पर हैं, अतीक अहमदों, मुख्तार अंसारियों, राजा भइयों की मनमानी पर कोई रोक नहीं लगा सकता. – विकाश मिश्रा के फेसबुक वॉल से लेखक आज तक में वरिष्ठ पत्रकार हैं.

बाबासाहेब के संविधान सभा में बहस पर आधारित फिल्म ”भारत का संविधान” का ट्रेलर होगा लांच

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नई दिल्ली। संविधान सभा में बाबासाहेब का ऐतिहासिक भाषण 17 दिसंबर को कॉन्सिटट्यूशन क्लब दिल्ली में हुआ था. इसी ऐतिहासिक दिन को याद करने के लिए हिंदी फिचर फिल्म “भारत का संविधान” का ट्रेलर लांच किया जाएगा. यह फिल्म बाबासाहेब के सभा में संविधान निर्माण की बहस पर आधारित है. इस फिल्म में संविधान सभा में शामिल नेताओं की शंकाओं और सवालों का जबाव बाबासाहेब देते हुए दिखाई देंगे. संविधान सभा में कौन-कौन बाबासाहेब के खिलाफ थे और कौन उनसे सहमत थे, उन सब के बारे में भी बताया गया है. फिल्म में तत्तकालिक समय की ओरिजनल क्लिपों (बहस की वीडियो) को भी शामिल किया गया है. यह फिल्म भारत सरकार द्वारा निकाली गई पुस्तक “संविधान सभा डिबेट” पर आधारित है. इस फिल्म में कई जाने मान कलाकारों ने काम किया है. इस फिल्म का निर्देशन नरेंद्र शिंदे ने किया है. लॉर्ड बुद्धा टीवी इसका प्रोड्यूसर है. 17 दिसंबर को फिल्म का ट्रेलर कॉन्सिटट्यूशन क्लब में दोपहर तीन बजे दिखाया जाएगा. इस दौरान भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बाला कृष्णऩ मुख्य अतिथि होंगे. विशिष्ट अतिथि के तौर पर बौद्ध विचारक और चिंतक शांति स्वरूप बौद्ध होंगे. इस फिल्म के अलावा भारत का संविधान के नाम से एक सीरियल का भी निर्माण हो रहा है. यह सीरियल 150 एपिसोड का होगा और लॉर्ड बुद्धा टीवी पर प्रसारित होगा.