हरामी व्यवस्थाः गेहूं काटने से मना करने पर नोच डाली मूंछें

बदायुं। उत्तर प्रदेश के भाजपा शासनकाल में जातिवादियों का मन बढ़ता जा रहा है. एक नए मामले में दलित समाज के एक व्यक्ति द्वारा गेहूं काटने से इंकार करने पर उसकी मूंछे नोच दी गई. घटना बदायुं जिले के आजमपुर बिसौरिया गांव की है. इंकार के बाद न सिर्फ मजदूर की मूंछ नोची गई बल्कि उसे पेड़ से बांधकर बुरी तरह पीटा गया. पीड़ित का नाम सीताराम है जो खेतिहर मजदूर है.

अभी रुकिए. खबर में अत्याचार की और कहानी बाकी है. पीड़ित सीताराम ने अपने साथ हुए अत्याचार की शिकायत जब पुलिस से की तब पुलिस ने शुरुआत में इस मामले पर कोई कार्रवाई नहीं की. घटना के करीब एक हफ्ते बाद सिटी एसपी जितेंद्र कुमार श्रीवास्तव के आदेश पर इस मामले में आरोपियों के खिलाफ शिकायत दर्ज की गई. अपनी शिकायत में सीताराम ने गांव के ठाकुर समेत अन्य व्यक्तियों के ऊपर मारपीट करने का आरोप लगाया है.

 मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक यह घटना 23 अप्रैल की है. घटनाक्रम के मुताबिक जब गांव के ठाकुर विजय सिंह, विक्रम सिंह, शैलेंद्र और पिंकू सिंह ने जब सीताराम को खेत पर गेहूं काटने को कहा, तब दलित मजदूर ने कहा कि वह दो दिन बाद यह काम करेगा. सीताराम द्वारा इनकार करने पर वे सभी इतने नाराज हो गए कि उन्होंने मजदूर की पिटाई कर दी. सभी लोग मिलकर पहले तो सीताराम को चौपाल तक लेकर गए, जहां उसे एक पेड़ से बांधा गया और जमकर पीटा गया. उसके बाद भड़के हुए लोगों ने गुस्से में उसकी मूंछ तक नोंच डाली.

उल्लेखनीय है कि जब देश मजदूर दिवस मना रहा है और मजदूरों के हक की बात कर रहा है, ऐसे में एक मजदूर द्वारा अपनी मर्जी से काम नहीं कर पाने की स्वतंत्रता का यह मामला सामने आया है.

श्रमिकों के बारे में क्या सोचते थे डॉ. आंबेडकर?

आज 1 मई को अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस है. भारत के श्रमिक वर्ग के शत्रु कौन हैं और श्रमिक वर्ग की मूल समस्या क्या है? इस बारे में डॉ. आंबेडकर ने कहा है कि “मेरी मान्यता यह है कि इस देश में कामगारों को दो शत्रुओं का मुकाबला करना है. वे दो शत्रु हैं, ‘ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद.’ भारत के वामपंथी पूंजीवाद को तो भारतीय श्रमिकों का शत्रु मानते रहे, लेकिन उन्होंने ब्राह्मणवाद को भारतीय श्रमिकों का शत्रु नहीं माना. भारतीय श्रमिक आंदोलन की पराजय का यह एक महत्वपूर्ण कारण रहा.

 आंबेडकर ने भारतीय कामगारों को इन दो शत्रुओं को आज के करीब 100 वर्ष पहले चिन्हित कर लिया था. 12-13 फरवरी 1938 को उन्होंने मुम्बई में ‘क्या हमारी ट्रेड यूनियन होनी चाहिए?’ इस विषय पर श्रमिकों को संबोधित करते हुए यह बात कही थी. इस भाषण में उन्होंने कामगारों का आह्वान किया था कि “अगर हमें संपू्र्ण कामगार आंदोलन को एकता के सूत्र में बांधना है, तो असमानता के जनक, ब्राह्मणवाद को हमें जड़ से उखाड फेंकना होगा.” इसी भाषण में उन्होंने यह भी कहा कि ‘ब्राह्मणवाद कामगार आंदोलन को ध्वस्त करने का मूल कारण है, उसे खत्म करने के प्रामाणिक प्रयत्न कामगारों को करना चाहिए. उसे अनदेखा करने से या चुप बैठने से यह संक्रामक रोग जानेवाला नहीं है. उसका निश्चित पीछा करना होगा और उसे खोदकर, जड़ से मिटाना होगा. उसके बाद ही कामगारों की एकता का मार्ग सुरक्षित होगा.’

अपनी प्रसिद्ध किताब ‘जाति का विनाश’ में इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि ‘जाति केवल श्रम विभाजन की व्यवस्था नहीं है, यह श्रमिकों का भी विभाजन है.” भारतीय वामपंथ ब्राह्मणवाद से संघर्ष से मुंह चुराता रहा है, अब कुछ वामपंथी संगठन यह स्वीकार करने लगे हैं कि पूंजीवाद के साथ ही ब्राह्मणवाद भी कामगारों का उतना ही बड़ा शत्रु है. इस नई पहलकदमी का स्वागत करना चाहिए, लेकिन ऐसा करने में 100 साल लग गए. श्रमिकों के बीच जातीय विभाजन को खत्म किए बिना और ब्राह्मणवाद एवं पूंजीवाद को कामगारों का दो बराबर का शत्रु माने बिना भारतीय श्रमिक आंदोलन को सफलता नहीं मिल सकती.

  • लेखक- सिद्धार्थ रामू

सौरभ गांगुली ने लांच की ऑटोबायोग्राफी, मौके पर मौजूद सहवाग, युवराज और गांगुली ने सुनाए कई किस्से

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नई दिल्ली। भारतीय क्रिकेट टीम के सफल कप्तानों में से एक सौरव गांगुली की ऑटोबायोग्राफी ‘ए सेंचुरी इज नॉट इनफ’ का विमोचन कार्यक्रम दिल्ली में 30 अप्रैल को हुआ. इस दौरान गांगुली के साथ क्रिकेट धुरंधर वीरेन्द्र सहवाग और युवराज सिंह भी मौजूद थी. इस मौके पर तीनों ने एक-दूसरे के बारे में कई कहानियां साझा की. इस मौके पर जब पत्रकारों ने सहवाग से सौरभ गांगुली के बीसीसीआई के अध्यक्ष बनने की संभावनाओं पर सवाल किया गया तो सहवाग ने कहा,” दादा (सौरभ गांगुली) 100 फीसदी एक दिन पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनेंगे. लेकिन वह दिन आने से पहले दादा बीसीसीआई के प्रेसिडेंट बनेंगे.” तीनों क्रिकेट खिलाड़ियों ने अपने बीते दौर की मैदान और निजी जिन्दगी की मनोरंजक यादों को साझा किया. सहवाग ने बताया, दादा मैच के बाद अक्सर हमारी तरफ आते और हमसे अपनी किट बैग को पैक करने के लिए कहते थे. उन्हें मैच के बाद तुरंत ही प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए भागना होता था, इसलिए वह हमसे ये काम करवाया करते थे. इस बात पर युवराज ने भी स​हमति जताई. लेकिन गांगुली ने इस कहानी में थोड़ा सुधार करते हुए अलग ही बात बताई. गांगुली ने कहा, ये कहानी पूरी तरह से सही नहीं है. दरअसल मुझे प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए भागना होता था और युवराज को नाइट आउट के लिए भागना होता था. वह उसमें जरा भी लेट नहीं होना चाहता था. इसलिए युवराज खेल खत्म होने के बाद बाकी किसी भी खिलाड़ी से पहले मेरी किट को पैक कर देता था. जैसे ही गांगुली ने ये बात कही, पूरा हॉल ठहाकों से भर गया. इस दौरान वीरू और युवराज ने उन दिनों को भी याद किया, जब वह टीम में नए थे और गांगुली ने उन दिनों में उनका समर्थन किया था. युवराज ने कहा कि, जब मैं टीम में शामिल हुआ तो दादा ने कहा कि बड़े दिनों के बाद इंडियन टीम में कोई अच्छा फील्डर आया है. दो-तीन मैच के बाद मैं अगली इनिंग्स में अच्छा नहीं खेल पाया और स्पिन गेंदबाजी से जूझने लगा, लेकिन दादा ने मुझे सहारा दिया क्योंकि वो जानते थे कि मैं मैच जिताने वाला खिलाड़ी हूं. गांगुली ने कहा, कि मैं हरभजन, युवराज और वीरू जैसे खिलाड़ियों को सिर्फ इसीलिए सहारा देता था क्योंकि ये बेहद प्रतिभाशाली खिलाड़ी थे और मैं ये बात जानता था. सबसे पहले मैंने उनके दिमाग से टीम से निकाले जाने का डर हटा दिया.

अलीगढ़ मुस्लिम विवि में जिन्ना की तस्वीर को लेकर बवाल

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अलीगढ़। मुस्लिम समाज के लिए देश की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) में पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लेकर हंगामा मच गया है. अलीगढ़ से भाजपा सांसद सतीश गौतम ने एएमयू में पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर लगाए जाने को लेकर वाइस चांसलर (वीसी) तारिक मंसूर से सफाई मांगी है. भाजपा सांसद द्वारा लिखे गए खत में पूछा गया है कि ऐसी क्या मजबूरी हो गई थी कि जिन्ना की तस्वीर लगानी पड़ गई. गौतम का कहना है कि भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान के संस्थापक की तस्वीर लगाए जाने का कोई औचित्य नहीं है. उन्होंने कहा, ‘अगर वह सच में किसी की तस्वीर लगाना चाहते हैं तो उन्हें महान इंसान महेंद्र प्रताप सिंह की तस्वीर लगाना चाहिए, जिन्होंने इस यूनिवर्सिटी के लिए जमीन दान की थी.’ गौतम के खत पर यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष फैजल हसन ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में जिन्ना के बारे में न तो आज तक पढ़ाया गया है और न ही उनसे संबंधित कोई चैप्टर है.

उन्होंने कहा कि अगर तस्वीर की बात है तो जिन्ना की फोटो यूनिवर्सिटी में साल 1938 से यानी विभाजन से पहले से ही लगी हुई है. इसके अलावा उन्होंने सांसद से ही उलटा सवाल कर दिया कि अभी तक पार्लियामेंट में से जिन्ना की तस्वीर क्यों नहीं हटाई गई है? वहीं छात्रसंघ के वर्तमान अध्यक्ष मशकूर अहमद उस्मानी ने जिन्ना को अविभाजित भारत का हीरो बताया. उन्होंने कहा कि साल 1947 से पहले ही जिन्ना को आजीवन सदस्यता दे दी गई थी, इसलिए उनकी तस्वीर अभी तक यूनिवर्सिटी में लगी हुई है. उस्मानी ने कहा कि इस मामले में विश्वविद्यालय के वीसी को खत न लिखते हुए गौतम को छात्रसंघ को तलब करना चाहिए था, क्योंकि जिन्ना की तस्वीर एएमयू के स्टूडेंट हॉल में लगी हुई है.

 

रांची जा रहे लालू की ट्रेन में हालत बिगड़ी, पढ़िए फिर क्या हुआ

नई दिल्ली। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद अध्यक्ष लालू यादव की दिल्ली से रांची जाने के दौरान रास्ते में ही तबियत खराब हो गई. पूर्व रेल मंत्री का तबियत बिगड़ने के बाद हंगामा मच गया. ट्रेन के कानपुर पहुंचने पर लालू दो डॉक्टरों ने लालू को इंजेक्शन लगाया, तब जाकर उनकी हालत में सुधार हुआ. इस दौरान ट्रेन 15 मिनट तक कानपुर स्टेशन पर रुकी रही. लालू 30 अप्रैल को दिल्ली के एम्स से डिस्चार्ज होने के बाद राजधानी एक्सप्रेस से रांची के रिम्स जा रहे थे. ताजा सूचना के मुताबिक लालू यादव 1 मई को रांची पहुंच गए हैं.

राजधानी के कानपुर पहुंचने पर आनन-फानन में दो डॉक्टरों ने उनकी जांच की तो पता चला कि उनका शूगर लेवेल बढ़कर 200 हो गया है. इसके बाद उन्हें इन्सूलिन का इंजेक्शन लगाया गया, तब जाकर उनकी हालत सुधरी. लालू यादव फर्स्ट क्लास कोच एच-1 में सफर कर रहे थे.

इससे पहले ट्रेन जैसे ही कानपुर स्टेशन पहुंची, ट्रेन को पुलिस ने चारों ओर से घेर लिया. कानपुर पहुंचने पर मीडिया का भी जमावड़ा लग गया लेकिन किसी को भी ट्रेन में घुसने की इजाजत नहीं दी गई. बता दें कि डिस्चार्ज की खबर सुनते ही लालू ने एम्स प्रशासन को चिट्ठी लिखकर कहा था कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है. उन्हें अभी चक्कर आता है, बाथरूम में भी गिर चुके हैं लेकिन एम्स में डॉक्टरों के पैनल ने उन्हें दुरुस्त बताते हुए रिम्स रेफर कर दिया. लालू ने इसे साजिश बताया है. उन्होंने अपने पत्र में ये भी लिखा था कि अगर उन्हें कुछ होता है तो इसकी जिम्मेदारी एम्स की होगी.

 

सवर्ण लड़की और दलित युवक के प्रेम प्रसंग पर दलितों के घरों पर हमला

प्रतीकात्मक चित्र

यमुनानगर। एक सवर्ण लड़की के एक दलित युवक के साथ चले जाने के बाद हरियाणा के यमुनानगर स्थित करहरा गांव में बवाल मच गया है. घटना से गुस्साए राजपूत समाज के लोगों ने दलितों के घरों में शनिवार को जमकर तोड़-फोड़ की, जिसके बाद पुलिस ने उनके खिलाफ मामला दर्ज कर लिया है.

मामला यह है कि 19 साल की एक सवर्ण लड़की को 21 साल के एक दलित युवक से प्यार हो गया. चर्चा है कि दोनों के बीच प्रेम प्रसंग था और वो अपनी मर्जी शादी करना चाहते थे. पिछले दिनों दोनों साथ ही गायब हो गए. इससे खार खाए राजपूत समाज के लोगों ने रात को नौ बजे अचानक दलित बस्ती पर हमला कर दिया.

इस मामले में 30 लोगों को आरोपी बनाया गया है. रविवार को हरियाणा पुलिस ने इस मामले में 18 युवकों को गिरफ्तार किया. इनमें से अधिकतर राजपूत समुदाय से हैं. गांव के दलित परिवारों का कहना है कि “यह महज एक लड़का-लड़की का मसला था. इसमें हमारी क्या गलती थी? हमारे घर क्यों तोड़ दिए गए?”

वहीं, गांव वालों ने इस मसले को हल करने के लिए दोनों समुदाय के लोगों को बुलाकर पंचायत की गई, लेकिन कोई हल नहीं निकला. शनिवार की घटना पर डीएसपी राणा ने कहा, “गांव के दलितों को डराने के लिए यह किया गया. आरोपी दलितों के घर गए और उनकी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया.” घटना के प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि रात 9 बजे अपने घर के सामने बैठे हुए थे कि वे अचानक हाथों में डंडे लेकर आए और हम पर हमला कर दिया. हम बचने के लिए भागे. यह अचानक किया हमला हमला था, वर्ना जरूर संघर्ष करते.”

 

राजनीति में भाषाई हिंसा का दौर

आज मुझे राजनीति का पुराना चलन याद आ रहा है, जब सत्ता पक्ष और विपक्ष के सदस्य सदन में एक दूसरे का वैचारिक आधार पार जमकर विरोध करते थे किंतु उनमें पारस्परिक वैमनस्य दूर-दूर तक नहीं पनप पाता था. आपसी सदभाव देखने को मिलता था. चुनावी मैदान में भी एक दूसरे के प्रति अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता था. पक्ष-विपक्ष सार्वजनिक जीवन में अपरिपक्वता का परिचय कतई नहीं देते थे. एक दूसरे के सामाजिक व पारस्परिक उत्सवों में विना किसी दुराव के सामिल हुआ करते थे. बेशक उनके राजनीतिक हित आपस में टकराते थे किंतु सामाजिक समंव्यता बनी रहती थी.

किंतु आज का राजनीतिक अपरिपक्वता के इस दौर में अपशब्दों का प्रयोग राजनीति का अभिन्न अंग बन गया है. आज राजनीति की परिभाषा ही बदल गई है. अशिष्ट शब्दों का प्रयोग, झूठ बोलना, धोखा देना, पीठ में चाकू मारना, एक दूसरे की टांग खीचना जैसे राजनीति का मुख्य आचरण हो गया है. भाजपा का सत्ता में आने के बाद से विरोधियों से गालियों के साथ बात करने का चलन बढ़ा है. भाजपा के छोटे से बड़े नेता तक भाषाई और सामाजिक स्तर पर बेलगाम देखे जा रहे हैं. इस नैतिकता और जीवनमूल्य विहीन राजनीति से देश को जो दिशा मिल रही है, वह हमें सभ्य और कर्तव्य पारायण नहीं बना पा रही. भाजपा के नेताओं के इस रवैये के चलते कांग्रेस के स्वर भी कड़वाहट की चाशनी में पगने को मजबूर हो गए. इस प्रकार हमारे राजनेताओं ने सभी सामाजिक मापदंडों को जैसे कूड़े में फेंक दिया है. राजनीति की भाषा निरंतर हिंसक होती जा रही है. राजनेताओं की लगातार जहरीली होती भाषा देश के लिए चिंता का विषय है.

असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है. (https://www.indiatoday.in/fyi/story/bjp-has-most-number-of-lawmakers-booked-for-hate-speeches-adr-report-1220013-2018-04-25) कि 58 सांसदों और विधायकों ने बतौर उम्मीदवार की जाने वाली अपनी घोषणा में यह बताया है कि उनके खिलाफ नफरत फैलाने वाले भाषण देने के लिए मुकदमे दर्ज हैं. बीजेपी नेताओं की संख्या इनमें सबसे अधिक है. रिपोर्ट के अनुसार केंद्रीय पेयजल और स्वच्छता मंत्री उमा भारती ने भी अपने खिलाफ ऐसा मामला दर्ज होने का जिक्र किया है. इसके अलावा आठ राज्य मंत्रियों के खिलाफ हेट स्पीच को लेकर केस दर्ज है. पिछले कुछ वर्षों में अपने विरोधियों के खिलाफ आपत्तिजनक बयान देना, उनका मजाक उड़ाना, जाति और समुदाय को लेकर अनाप-शनाप बातें करना राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बनता गया है. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि प्रधान सेवक न केवल चुनावी भाषणों में अपितु प्रधान सेवक बनने के बाद भी अशिष्ट भाषा का प्रयोग करने में अन्य नेताओं के अगुआ रहे हैं.

यह चलन न्यूज चैनलों के प्रचार-प्रसार के साथ भी बढ़ा है लेकिन सोशल मीडिया के आने के बाद इसमें जबर्दस्त तेजी आई है. भाजपा और कांग्रेस के अपने – अपने आई टी सेल हैं जो फेक न्यूज के जरिए बिना सिर-पैर की खबरें फैंककर हिन्दू और मुसलमान का खेल खेल रहे हैं. धार्मिक शतरंज पर अपने-अपने मोहरे बैठाने में तत्पर हैं. एक अध्ययन के मुताबिक मई 2014 से लेकर अब तक 44 अति विशिष्ठ नेताओं ने 124 बार हेट स्पीच दी, जबकि यूपीए-2 के दौरान ऐसी बातें सिर्फ 21 बार हुई थीं. इस तरह मोदी सरकार के दौरान वीआईपी हेट स्पीच में 490 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है. वर्तमान सरकार के दौरान हेट स्पीच देने वालों में 90 प्रतिशत बीजेपी नेता हैं. यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि नेताओं के बयानों का लोगों पर सीधा असर होता है. कई जगहों पर इनके आक्रामक बयानों से हिंसा भड़क उठती है और जानमाल का नुकसान होता है, लेकिन नेताओं का कभी बाल भी बांका नहीं होता. लीडर किसी भी पार्टी के हों, गाली देकर या अभद्र टिप्पणी करके प्राय: माफी मांग लेते हैं. पार्टी आलाकमान अपने नेता की बात को उसका निजी बयान बताकर मामले से पल्ला झाड़ लेता है. जब तक चुनाव में नुकसान की आशंका न हो, तब तक शायद ही किसी नेता पर कार्रवाई होती हो. कभी ऐसी कोई नौबत आ भी जाए तो थोड़े समय बाद सब कुछ भुला दिया जाता है. पार्टियां अपने ऐसे बदजुबान नेताओं को टिकट देने में कोई कोताही नहीं बरततीं. इधर कुछ समय से चुनाव आयोग इस मामले में सचेत हुआ है पर उसकी अपनी सीमा है. इस बारे में सख्त नियम बनाने का काम जन प्रतिनिधियों का है, पर वे अपने ही खिलाफ नियम क्यों बनाने लगे! सबसे बड़ी बात है कि अब लोग ऐसे भाषणों को नियति की तरह स्वीकार करने लगे हैं और इन्हें पॉलिटिक्स का एक जरूरी अंग मानने लगे हैं. नेताओं को समझना चाहिए कि उनकी देखादेखी सामान्य लोगों की बोलचाल में भी आक्रामकता चली आती है, जिससे कटुता फैलती है. इससे विरोध और असहमति की जगह कम होती है और लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर पड़ती है. ऐसी भाषा के प्रति सभी दलों को सख्ती बरतनी चाहिए.

यह अजीब विडंबना है कि एक चपरासी पद पर तैनात सरकारी कर्मचारी के लिए आचरण संहिता बनी हुई है. यह नियमावली ब्रिटिश सत्ता के हितों की हिफाजत के लिए बनी थी, जो आज तक कायम है. अगर चपरासी कारण-अकारण भी गैर-कानूनी काम करता है या चौबीस घंटे से अधिक जेल में डाल दिया जाता है, तो उसे तुरंत निलंबित कर दिया जाता है. उसकी सी आर खराब कर दी जाती है. सरकारी कर्मचारियों के लिए प्रतिबंधों की लंबी सूची है. उनकी सेवा निवृत्ति की उम्र भी निर्धारित है. मगर खेद है कि देश चलानेवाले राजनेताओं के लिए आचरण की ऐसी कोई भी नियमावली तय नहीं है. वे स्वतंत्र और बेलगाम हैं. नेताओं के लिए सौ खून माफ हैं. दर्जनों आपराधिक मुकदमे दर्ज होने या वर्षों जेल में बिताने के बाद भी वे माननीय हैं. केवल राजनीतिक नफा-नुकसान का ध्यान रख कर ही, कभी-कभार पार्टियां कुछ नेताओं के विरुद्ध कड़े कदम उठाने को बाध्य होती हैं, अन्यथा नहीं. अमानवीय आचरण के कारण कभी किसी नेता को चुनाव लड़ने से रोक दिया गया हो, देखने को नहीं मिलता. आजकल तो राजनीतिज्ञों द्वारा महिलाओं के प्रति अत्याचार की जितनी घटनाएं घट रही हैं, उतनी पहले शायद ही कभी घटी हों. हर कदम पर बेटियों को भी अपमानित होना पड़ रहा है. वे क्या खायें, क्या पहनें, क्या बोलें, सब पर हमारे राजनेताओं सवाल खड़े करते ही रहते है. इस प्रकार की गाली गलोज करना राजनीति की मुख्यधारा का अंग बन चुका है. अब तो राजनीतिक साधु-साध्वियों के मुंह से भी अशोभनीय शब्द निकलने लगे हैं. हाशिये के समाज के प्रति अपशब्दों की तो परंपरा ही रही है. अल्पसंख्यक, महिलाएं, दलित और आदिवासी तो हमेशा से ही सबसे ज्यादा निशाने पर रहे हैं. अब जूता या स्याही फेंकना, पोस्टरों पर कालिख पोतना, हाथापाई पर उतर आना, सदन में कपड़े फाड़ देना, महापुरुषों की मूर्तियों को नुकसान पहुँचाना जैसी घटनाएं आम हो गई हैं. विगत कुछ सालों में राजनेताओं ने अपने विरोधियों के लिए बहुत ही घिनौने और स्त्रीजनित अपशब्दों का इस्तेमाल किया है. इसे राजनीति में भाषाई स्खलन अथवा हिंसा भी कहा जा सकता है.

अब सवाल यह है कि क्या इस भाषायी अराजकता और असभ्यता को रोकने के लिए कोई आचरण नियमावली बनायी जानी चाहिए या इसे यूं ही छोड़ दिया जाना चाहिए? यूँ आज समय की मांग है कि राजनीति की भाषा और आचरण को नियंत्रित करने के लिए आचरण नियमावली का निर्माण किया जाये और उसके उल्लंघन पर राजनीतिज्ञों को राजनीति से निलंबित करने की प्रक्रिया निर्धारित हो. आज जब राजनीति में अपराधी और गुंडे किस्म के नेताओं का दबदबा लगातार बढ़ता जा रहा है, तब इसे बेलगाम छोड़ने का मतलब मेरे ख्याल में लोकतंत्र को खत्म करना होगा. किंतु भाषायी अराजकता और असभ्यता को रोकने के लिए कोई आचरण नियमावली आखिर बनाएगा कौन?

बुद्ध के कितना करीब हैं मायावती

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नई दिल्ली। बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर सभी देशवासियों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं दी हैं. मायावती ने सोमवार को जारी संदेश में कहा कि गौतम बुद्ध का शांति, इंसानियत और भाईचारे का संदेश आज की परिस्थितियों में और भी ज्यादा प्रासंगिक है. देश में इसकी जरूरत महसूस की जा रही है.

उन्होंने कहा कि बुद्ध के संदेश के संबंध में प्रवचनों और राजनीतिक बयानबाजियों से कहीं ज्यादा उन्हें राष्ट्रजीवन में उतारने की सख्त जरूरत है. दरअसल बुद्ध पूर्णिमा की बधाई देना बसपा प्रमुख के लिए महज औपचारिकता भर नहीं है, बल्कि वह बुद्ध के संदेश को अपने जीवन में भी उतारती हैं.

गौतम बुद्ध के विचारों के प्रचार-प्रसार में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम जी और मायावती का काफी योगदान रहा है. खासतौर पर उत्तर प्रदेश में बुद्ध के विचारों को चिरस्थायी बनाने के लिए बसपा की सरकार ने कई ऐतिहासिक काम किए. उनके नाम से भव्य पार्कों, संग्रहालयों, स्थलों, विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों के निर्माण कराए गए. साथ ही जनहित की कई योजनाओं व नए जिले स्थापित किए गए.

मायावती के शासनकाल में ही तथागत बुद्ध की माता के नाम पर महामाया नगर जिले की स्थापना हुई. तो वहीं पंचशील नगर और प्रबुद्ध नगर जैसे नाम भी बुद्ध के विचारों को ही बढ़ाने वाले थे. नोएडा और ग्रेटर नोएडा जो गौतम बुद्ध नगर के तहत आते हैं, उसकी चर्चा तो देश के तमाम हिस्सों में है. गौतम बुद्ध नगर में घूमने पर एकबारगी बुद्धकालीन समय में होने का अहसास होता है.

इसी तरह मायावती के शासनकाल में गौतम बुद्ध नगर में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना एक बड़ा ऐतिहासिक कदम था. इसी जिले में स्थित बुद्धा सर्किट की ख्याति तो देश की सीमा पार कर चुकी है. भारत में यह इकलौता बड़ा केंद्र है, जहां फार्मूला वन रेसिंग का आयोजन होता है. बौद्ध धर्म के हृदयस्थल उत्तर प्रदेश में बौद्ध परिपथ का विकास भी एक बड़ा काम था, जो बसपा के शासनकाल में हुआ. लखनऊ में बौद्ध विहार शांति उपवन, बौद्ध स्थल का निर्माण भी उल्लेखनीय है.

अगर यह कहा जाए कि अशोक के शासनकाल के बाद भारत में बौद्ध धम्म के प्रचार-प्रसार के लिए सबसे ज्यादा काम बसपा प्रमुख मायावती ने किया तो गलत नहीं होगा.

मध्यप्रदेश में जातिवाद की इंतहा, परीक्षार्थियों के सीने पर SC-ST लिखा

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ध्य प्रदेश के धार जिले से एक चौंकाने वाली खबर आई है. इस खबर से पता चलता है कि जातिवादियों की सोच कितनी घटिया है. जिले में पिछले दिनों पुलिस कॉन्सटेबल की भर्ती का अभियान चलाया गया और इन दिनों उनका स्वास्थ्य परीक्षण चल रहा है. जिसमें सामान्य और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये 168 सेमी. और एससी-एसटी के लिये 165 सेमी. लंबाई तय है.

यहां आए उम्मीदवारों की पहचान के लिए जिला अस्पताल ने एक अनोखा तरीका अपनाया. उम्मीदवारों के मेडिकल टेस्ट के दौरान उनके सीने पर एससी-एसटी लिख दिया गया. इस मामले के तूल पकड़ने के बाद अब गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह ने जांच के आदेश दिये हैं.

मामले सामने आने के बाद पुलिस महानिदेशक ऋषि कुमार शुक्ला लीपापोती में लग गए हैं. उनका कहना है कि हर वर्ग के लिए शारीरिक माप के मापदंड अलग-अलग होते हैं, इसलिए ऐसी पहचान करना होती है. पन्ना जिले में एक आरक्षित वर्ग की महिला प्रत्याशी की माप में गड़बड़ी हो गई थी इसलिए एहतियात के तौर पर यह कदम उठाया गया था. हालांकि उन्होंने मामले की जांच के आदेश देकर इसे शांत करने की कोशिश शुरू कर दी है.

दूसरी ओर मामले के तूल पकड़ने के बाद अब इससे जुड़े लोगों ने एक-दूसरे पर आरोप मढ़ने शुरू कर दिए हैं. टेस्ट के दौरान मौजूद टीआइ नानूराम वर्मा ने कहा कि मेडिकल बोर्ड के सदस्य डॉ. जितेंद्र चौधरी के कहने पर इस तरह का कदम उठाया गया, जबकि जितेन्द्र चौधरी इससे इंकार कर रहे हैं.

इस मुद्दे को लेकर कुछ सामाजिक संगठनों ने भी मोर्चा खोल दिया है. कुल मिलाकर इस घटना ने यह साफ कर दिया है कि समाज में हर स्तर पर लोगों के मन में जाति व्यवस्था किस कदर कायम है.

BBAU में बाबासाहेब की प्रतिमा के लिए संघर्ष करने वाले छात्र पर हमला

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लखनऊ। ​बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ की यह घटना वास्तव में झकझोर देने वाली है क्योंकि विश्वविद्यालय में लगातार अनुसूचित जाति के छात्रों को टारगेट किया जा रहा है. या तो उनको एडमिशन नही होने देते, या तो उनके खिलाफ FIR करवा देते .

28 अप्रैल 2018 की रात्रि 10:30 के लगभग कुछ लोगों ने इतिहास के शोधार्थी बसंत कनौजिया पर हमला किया. जिससे साफ़ जाहिर हो जाता है कि विरोधी लगातार बौखलाए हुए हैं. बसंत के एडमिशन को रोकने के लिए विवि प्रशासन ने पूरा जोर लगा दिया था. जिससे बसन्त कनौजिया ने उच्च न्यायालय में शरण ली थी और विवि प्रशासन ने उच्च न्यायालय की सेकंड बैंच तक मामला लेकर गए थे और विवि प्रशासन ने उ प्र सरकार का सबसे महंगा वकील उक्त छात्र के एडमिशन को रोकने के लिए किया था.

​​बसन्त कुमार कनौजिया विरोधियों के निशाने पर ​इसलिए हैं क्योंकि बंसन्त कनौजिया विवि के अंदर हो रही कई सारी अनियमितताएं, भ्रष्टाचार, sc/st छात्रों के शोषण के खिलाफ लगातार आवाज उठा​ते​​​ र​हे​​​ ​हैं,​ जिसमें अभी हाल में विवि प्रशासन ने बाबासाहेब अम्बेडकर जी की प्रतिमा को ग्रिल या जेल में कैद कर दिया था. 14 अप्रैल को प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जी का प्रोग्राम था. तब 13 अप्रैल को बंसत ने विवि प्रशासन के सामने छात्रों सहित धरने पर बैठ गया था.

विवि प्रशासन ने मुख्यमंत्री के कार्यक्रम को देखते हुए. रातोंरात उस ग्रिल को हटवा दिया था. लेकिन इस धरना धरना प्रदर्शन में विवि प्रशासन ने अपनी नाक का सवाल समझा और आशियाना थाना के एक सब इंस्पेक्टर के माध्यम से बंसन्त को लगातार धमकाया जा रहा था.

अभी कुछ दिन पहले ही छात्रों का आपसी विवाद हो गया था तो उक्त सब इंस्पेक्टर ने पूरे मामले की छानबीन किये बिना बंसन्त कनौजिया को मुख्य आरोपी मानते हुए बंसन्त सहित 8 छात्रों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया. जबकि बंसन्त से उन्होंने कोई जाँच पड़ताल नही की. आग में घी डालने का कार्य विवि प्रशासन ने तुरन्त ही बंसन्त के खिलाफ FiR कर दी.

विवाद करने वाले छात्र आपस के ही थे, लेकिन शक की संभावना से नाकारा नही जा सकता है. क्योंकि एक साल पहले भी विवि के सक्रिय छात्र श्रेयात बौद्ध के ऊपर भी ऐसे कातिलाना हमला हुआ था. जिसमें अपने ही कुछ छात्रों ने मुखबिरी की थी. ​छात्रों का यह भी दर्द है कि ​लेकिन हमारे जितने भी सामाजिक संगठन है वह सिर्फ छात्रों के दिमाग को क्रांति के लिए जगायेंगे लेकिन जब उनके साथ कुछ घटित होता है तो कोई उनका साथ नही देता है.

अपने लोगों पर शक करना जायज है ​क्योंकि​​​ खतरा बाहर के लोगों से नही जितना हमारे खुद के लोगों से है. क्योंकि किसी की प्रसिद्धि और पावर का नियंत्रण अपने लोगों के बीच ही स्वार्थी लोगों को मनमुटाव पैदा कर देता है. जब समाज के लिए दिल से काम करने वाले लोग स्वार्थी इंसानो की पोल खोलता है और उन्हें डाँटता है तो वह फिर अपने लोगों से दुश्मनी मोल ले लेता है.

 बसन्त कुमार कनौजिया, शोधार्थी,                                                                                इतिहास विभाग, बीबीएयू, लखनऊ  

ऊना कांड के पीड़ितों सहित गुजरात में 450 ने अपनाया बौद्ध धर्म

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अहमदाबाद। गुजरात के उना में रविवार 29 अप्रैल को करीब 450 दलितों ने धर्म परिवर्तन कर लिया. बौद्ध धम्म की शरण में जाने वालों में मोटा समाधियाला गांव के करीब 50 दलित परिवारों के अलावा गुजरात के अन्य क्षेत्रों के लोग शामिल है. समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का उपदेश देने वाले बौद्ध धर्म अपनानेव ले उना कांड के वो पीड़ित भी शामिल थे, जिनको गाड़ी से बांधकर पीटने का वीडियो वायरल हुआ था. पीड़ितों बालू भाई सरवैया और उनके बेटों रमेश और वश्राम के अलावा उनकी पत्नी कंवर सरवैया ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली.

बालू भाई के भतीजे अशोक सरवैया और उनके एक अन्य रिश्तेदार बेचर सरवैया भी हिन्दु धर्म छोड़ चुके हैं. ये दोनों भी उन सात लोगों में शामिल थे, जिनकी खुद को गोरक्षक बताने वालों ने कथित तौर पर पिटाई की थी. बौद्ध धर्म अपनाने वालों ने आरोप लगाया कि उन्हें हिंदू नहीं माना जाता, मंदिरों में नहीं घुसने दिया जाता, इसलिए उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया.

रमेश ने कहा कि हिन्दुओं द्वारा उनकी जाति को लेकर किये गए भेदभाव के कारण उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया. उसने कहा, ‘‘हिन्दू गोरक्षकों ने हमें मुस्लिम कहा था. हिन्दुओं के भेदभाव से हमें पीड़ा होती है और इस वजह से हमने धर्म परिवर्तन का फैसला किया. यहां तक कि राज्य सरकार ने भी हमारे खिलाफ भेदभाव किया क्योंकि उत्पीड़न की घटना के बाद जो वादे हमसे किये गए थे, वे पूरे नहीं हुए.’’

खबर यह भी है कि इस धर्म परिवर्तन कार्यक्रम से पहले बीती 25 अप्रैल की शाम को रमेश सरवैया और अशोक सरवैया पर दोबारा हमला हुआ. हमला करने वाला उन्हीं आरोपियों में से एक है, जिन्होंने 2016 में परिवार के चार सदस्यों की सरेआम पिटाई की थी. आरोपी अभी ज़मानत पर बाहर है.

बालुभाई सरवैया अपने परिवार के साथ ऊना से अपने गांव मोटा समढियाला लौट रहे थे, तभी किरनसिंह दरबार ने रमेश और अशोक पर हमला किया और धमकाया गया. धर्म परिवर्तन के लिए जरूरी अनुष्ठान सामग्री खरीदने के लिए परिवार ऊना शहर गया था. जिनमें बालू भाई , अशोक भाई, रमेश भाई, वश्राम और परिवार के अन्य सदस्य शामिल थे.

रमेश और वासराम के चचेरे भाई जीतूभाई सरवैया ने बताया कि परिवार एक गाड़ी में गांव लौट रहा था और अशोक और रमेश बाइक पर आगे चल रहे थे, तभी किरणसिंह दरबार ने देख लिया और दोनों पर हमला कर दिया. ऊना पुलिस स्टेशन के इंस्पेक्टर वीएम खुमान ने घटना की पुष्टि की है.

पीड़ित परिवार के सदस्य पीयूष सरवैया ने बताया, ‘हमने 20 अप्रैल को जिला कलेक्टर को सूचित किया था कि हम 29अप्रैल को बौद्ध धर्म अपनाएंगे और हमने कार्यक्रम के लिए अपने समुदाय और अन्य लोगों से समर्थन मांगा था.’

बुद्ध पूर्णिमा के दिन क्या करते थे बाबासाहब

नई दिल्ली। डॉ. आम्बेडकर ने स्वयं बुद्ध पूर्णिमा के दिन अपने आवास को सजाना आरंभ किया और उत्सव मनाने की परंपरा आरंभ की. विवाह के लिए विवाह विधि का प्रतिपादन किया और बौद्ध चर्या पद्धति तैयार की. बौद्धों में शील और सदाचार का जीवन विकसित करने के लिए ‘बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ इंडिया’ की स्थापना की जिसकी शाखाएं हर प्रदेश में स्थापित की गई. डॉ. आम्बेडकर ने 25 नवंबर, 1956 को सारनाथ के मृगदाय वन में 150 भिक्खुओं के समक्ष भाषण दिया था कि प्रत्येक बौद्ध के लिए अनिवार्य है कि वह हर रविवार को बौद्ध विहार में जाए और वहां उपदेश सुने. यदि ऐसा नहीं होगा तो नव दीक्षित बौद्ध को धम्म की जानकारी नहीं हो सकेगी. प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे बौद्ध विहारों का निर्माण किया जाए जिसमें सभा करने के लिए काफी स्थान रहे. बौद्ध विहारों को सभामंदिर होना चाहिए.

उनका मानना था कि जैसे हर सिक्ख रविवार को अनिवार्य रूप से गुरूद्वारा जाता है, ईसाई चर्च जाते है. हर मुसलमान शुक्रवार की नमाज मस्जिद जाकर अता करता है. बौद्ध समाज के लोगों को भी ऐसी परंपरा डालनी होगी. प्रत्येक रविवार को अपने नजदीकी बौद्ध विहार में जाएं. जहां बौद्ध विहार नहीं है, वहां किसी के घर में और यदि वो भी संभव नहीं है तो किसी पार्क या सार्वजनिक स्थल पर कोई संगोष्ठी करें. ऐसी कोशिश भी की जा सकती है कि जीवन के उत्सव चाहे जन्मदिन का कार्यक्रम हो या सालगिरह, उसे बौद्ध विहार में मनाए. इसके साथ ही अपना जीवन पंचशीलों के अनुसार जीने की कोशिश करें.

बाबासाहब का मानना था कि खास तौर पर बुद्ध पूर्णिमा को पूरे हर्ष उल्लास के साथ मनाना चाहिए. अपने घरों पर रोशनी करनी चाहिए और पड़ोसियों को भी आमंत्रित करना चाहिए. इस पर्व को उत्सव जैसा मनाना चाहिए.

बुद्ध पूर्णिमा का महत्व

बुद्ध पूर्णिमा बौद्धों के लिए सबसे पावन व सबसे महत्वपूर्ण पर्व है. बुद्ध पूर्णिमा अथवा वैशाख पूर्णिमा को त्रिविध पावन माना जाता है, क्योंकि भगवान बुद्ध के जीवन की तीन महत्वपूर्ण घटनाएं जन्म , संबोधी प्राप्ति और महापरिनिर्वाण वैशाख पूर्णिमा के दिन हुई थीं. वैशाख पूर्णिमा, जिसे बुद्ध पूर्णिमा या बुद्ध जयंती भी कहा जाता है, इसी दिन भगवान बुद्ध का लुम्बिनी में जन्म हुआ, बोध गया में उन्हें सम्यक संबोधि प्राप्ति हुई व कुशीनारा में उनका महापरिनिर्वाण हुआ. इन तीनों घटनाओं में सम्यक संबोधि प्राप्ति का सबसे अधिक महत्व है.

जन्म व महापरिनिर्वाण तो मानव मात्र के जन्म व मृत्यु का प्रतीक है, लेकिन सम्य्क संबोधि तो लाखों वर्षों में कहीं एकाध बार ही होती है. कोई आश्चर्य नहीं, वैशाखी पूर्णिमा पर देश-विदेश के लाखों बौद्ध बोधगया मेंभगवान बुद्ध की वज्रासन प्रतिमा की पूजा करते हैं. इस पावन दिन बौद्ध उपासक-उपासिकाएं गरीबों को भोजन कराकर, रोगियों को दवा देकर और चिडि़यों व मछलियों को आजाद करके प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, क्योंकि बौद्ध धर्म में प्रेम व करूणा को ही सर्वोच्च स्थान दिया गया है.

सिद्धार्थ गौतम का जन्म 563 ई. पूर्व वैशाख पूर्णिमा के दिन लुम्बिनी में हुआ था. 16 वर्ष की उम्र में राजकुमारी यशोधरा के संग उनका विवाह हुआ था. 13 वर्ष तक दाम्पत्य जीवन बिताने के बाद और एक पुत्र के पिता बनने के बाद 29 वर्ष की आयु में सत्य की खोज में सिद्धार्थ गौतम ने गृह त्याग कर महाभिनिष्क्रमण किया और 6 वर्षों तक तरह-तरह की कठिन तपस्या करने के बाद अनुभव किया कि शरीर को अत्यधिक कष्ट देने से या विलासिता पूर्ण जीवन से संबोधि प्राप्त नहीं हो सकती इसलिए उन्होंने विपस्सना का मार्ग चुना.

बुद्ध ने विपस्सना साधना करते-करते अणुओं-परमाणुओं का विच्छेंदन, विश्लेाषण-विभाजन करते-करते देखा कि लोग बाहरी कारणों जैसे गरीबी, भुखमरी, असमानता, ऊंच-नीच, बीमारी, बुढ़ापा, मृत्यु , प्राकृतिक आपदाओं से तो दु:खी हैं ही, मनचाहा न होने पर, अनचाहा होने पर, प्रिय लोगों से बिछुड़ने, अप्रिय लोगों से मिलाप जैसी स्थितियों से भी दु:खी होते हैं. बुद्ध ने ध्यान करते-करते खोज निकाला कि हमारे दु:ख का मूल कारण यह है कि हम घटने वाली घटनाओं और स्थितियों के सही स्वभाव से अनजान हैं. दूर से भासमान या प्रत्येक्ष दिखने वाली बस्तुस्थिति को ही हम असली और वास्तविक मान बैठते हैं और उनके प्रति राग-द्वेष-मोह के गहरे-गहरे संखार बनाते जाते हैं. उन्होंने देखा कि जब हमें कुछ अच्छा लगता है तब हमारे शरीर पर सुखद संवेदनाएं प्रकट होती हैं और जब कुछ बुरा लगता है या अच्छा नहीं लगता है तो शरीर पर दु:खद संवेदनाएं पैदा होती हैं.

बुद्ध ने विपस्सना करते-करते शरीर को सूक्म् से सूक्ष्मतर स्तर पर विभाजन-विश्लेषण करते हुए, अणुओं-परमाणुओं का निरीक्षण-परीक्षण करते हुए स्वंयं के प्रत्य क्ष अनुभव से जाना कि संसार में कुछ भी स्थिर नहीं है, सब कुछ परिवर्तनशील है जो हर पल बदल रहा है इसलिए सब कुछ अनित्य है. ऊपर से ठोस दिखने वाले इस शरीर में और इसके साथ जुड़े चित्त में और इन दोनों के मिलने से चलने वाली जीवनधारा में कहीं पर कुछ भी ‘मैं’ नामक चीज नहीं है और न ही इसमें ‘मेरा’ या आत्मा का कोई अस्तित्व है, पूरे अस्तित्व में किसी का भी पृथक और स्वतंत्र अस्तित्वह नहीं है.

सब कुछ, प्रत्येक प्राणी-वस्तु, घटना बहुत सी बातों पर, चीजों पर निर्भर है और सभी कुछ किसी न किसी कारण से उत्पन्न, होता है, विकसित होता है और देखते-देखते किसी नए रूप में परिवर्तित हो जाता है, कुछ भी (बिना किसी अपवाद के), किसी एक मूल स्रोत से उत्पन्न नहीं हुआ है, एक बीज जब जमीन में बोया जाता है तो वह जल, मिट्टी हवा की मिली-जुली मदद से ही अंकुरित हो पाता है और सूर्यप्रकाश की मदद से बड़ा होता है. इस तरह पेड़ की एक पत्ती में पूरे ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व होता है जिसमें जल, वायु, पृथ्वीे, अग्नि सभी कुछ समाया हुआ है.

किसी व्यक्ति का अपना अकेले का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है. वह जीने के लिए पर्यावरण पर, पेड़-पौधों पर, जीव-जंतुओं पर और समाज पर निर्भर है. वह किसी का पुत्र, किसी का भाई, किसी का दोस्तौ और किसी का रिश्तेदार है. अगर वह शील-सदाचार का जीवन जीता है तो अपनी सुख और शान्ति से समाज के अन्य‍ प्राणियों की सुख-शांति में मदद करता है. प्रज्ञा जगाता है, दान-शील और करूणावान बनता है तो दूसरे लोगों के प्रति मंगल मैत्री जगाता है, करूणा जगाता है जिससे समाज में जो भी लोग जिस किसी कारण से दु:खी हैं, उनका दु:ख दूर करने की कोशिश करता है.

बातों से और शब्दों से, सत्य को जो नित्य है, शाश्वत है, अमृत है, बयान नहीं किया जा सकता है. इसे केवल स्वयं के प्रत्यक्ष अनुभव से ही जाना जा सकता है. इससे लोगों को जीवन, घटनाओं, वस्तुओं के सही और वास्तविक स्वभाव से परिवर्तनशील है, हर पल बदलता जा रहा है, को समझने में मदद मिलती है.

इस तरह विपस्सना करते-करते 35 वर्ष की आयु में सन् 528 ई. पूर्व की वैशाख पूर्णिमा को बुद्धत्व‍ प्राप्त कर सिद्धार्थ गौतम सम्यक संबुद्ध बन गए और भगवान बुद्ध तथागत जैसे नामों से जाने गए. 45 वर्षों तक करूण चित्त से गॉंव कस्बों में पैदल जाकर मानव कल्याण के लिए लोगों को धम्म सिखाते रहे.

वैशाख पूर्णिमा के दिन भगवान बुद्ध भिक्खु संघ के साथ कुशीनगर के नजदीक मल्लों के सालवन में पहुंचे. आनंद ने दो सालवृक्षों के बीच बिस्तर बिछा दिया और भगवान उत्तर दिशा की ओर मुंह किए लेट गए. आनंद ने नगर में खबर कर दी कि रात के तीसरे पहर में तथागत महापरिनिर्वाण को प्राप्त होंगे. दर्शनार्थियों का तांता लग गया. उसी समय सुभद्र नाम का परिव्राजक आनंद के पास आया और बुद्ध से धम्म्दीक्षा की जिद करने लगा. आनंद ने उसको कहा कि तथागत थके हैं, विश्राम कर रहे हैं. बुद्ध ने उनका वार्तालाप सुन लिया और सुभद्र को अपने पास बुलाकर धम्म दीक्षा दी.

आनंद के पूछने पर कि महापरिनिर्वाण के लिए उन्होंने कुशीनगर ही क्यों चुना, भगवान बुद्ध ने बताया कि किसी समय वहां महासुदर्शन राजा की राजधानी थी और उस नगरी का नाम केशवती था. भिक्खुओं को अंतिम बार संबोधित करते हुए भगवान बुद्ध ने कहा: ‘’वयधम्मां संखारा, अप्पमादेन सम्पादेथ’’ (भिक्खुओं सुनो, सारे संखार व्ययधर्मा हैं, मरणधर्मा हैं, नष्टधर्मा हैं. जितनी भी संस्कृत अर्थात निर्मित वस्तुएं हैं, व्यक्ति हैं, घटनाएं हैं, स्थितियां हैं, वे सब नश्वर हैं, भंगुर हैं, मरणशील हैं, परिवर्तनशील हैं. यही प्रकृति का कठोर सत्य है. प्रमाद से बचते हुए, आलस्य से दूर रहते हुए, सतत सचेत और जागरूक रहते हुए, प्रकृति के इस सत्य का संपादन करते रहो! इस सत्य से स्थित रहकर अपना कल्याण साधते रहो!)

यह अंतिम उपदेश देकर वैशाख पूर्णिमा की रात के तीसरे पहर में 483 ई.पू. को तथागत महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए. निर्वाण वह अवस्थाा है जहां न तो पृथ्वी है, न पानी, न प्रकाश है, न हवा, न तो अंतरिक्ष है, न ही आकाश, न तो शून्य है, न ही अशून्य है, न तो यह लोक है, न ही अन्ये लोक, ये सूर्य और चंद्र दोनों हैं, यह इन्द्रियातीत अवस्था है. जैसे दीपक की लौ उठकर बुझ जाने के बाद चली जाती है, वैसे ही महापरिनिर्वाण प्राप्ति कर बुद्ध चले जाते हैं.

बौद्ध नगरी भी है मथुरा, जानिए मथुरा में बौद्ध धम्म का इतिहास

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मथुरा संग्रहालय में बुद्ध की प्रतिमा – फोटो- दलित दस्तक

माना जाता है कि किसी शहर का इतिहास जानना हो तो वहां के संग्रहालय को घूम आइए. अगर उस शहर ने ईमानदारी से अपना इतिहास संजोया होगा तो वह वहां के संग्रहालय में जरूर मौजूद होगा. मथुरा के डैंम्पियर नगर में मौजूद राजकीय संग्रहालय बिल्कुल वैसा ही है. यह संग्रहालय विश्व भर में कृष्ण के जन्मस्थान के रूप में मशहूर मथुरा का एक और इतिहास भी बताता है. यह दूसरा इतिहास आपको बुद्ध और बौद्ध धर्म के करीब ले जाता है.

मथुरा संग्रहालय में बुद्ध की प्रतिमा – फोटो- दलित दस्तक

राजकीय संग्रहालय में बुद्ध ही बुद्ध

मथुरा के इस संग्रहालय में आपको तथागत बुद्ध की तमाम मूर्तियां मिल जाएंगी. कह सकते हैं कि सैकड़ों की संख्या में मौजूद प्रतिमाओं में सबसे ज्यादा बौद्ध प्रतिमाएं हैं. संग्रहालय में मौजूद तमाम बौद्ध प्रतिमाओं की बात करें तो पांचवी शती की आदमकद बौद्ध प्रतिमा, कुषाण काल में सिंहासन आरुढ बैठे बुद्ध का अधोभाग और इसी काल में मिला बुद्ध का विशाल मस्तक आपका ध्यान खिंचती है. यहां बुद्ध की मूर्तियां तमाम मुद्राओं में मौजूद है.

मथुरा संग्रहालय में बुद्ध की प्रतिमा – फोटो- दलित दस्तक

तथागत बुद्ध का मथुरा भ्रमण

असल में बौद्ध धर्म को मानने वालों के लिए मथुरा कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भगवान बुद्ध दो बार मथुरा आए थे. इसी तरह एक वक्त में मथुरा में 16 विहार हुआ करते थे. इस वजह से मथुरा बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए काफी महत्वपूर्ण केंद्र था. मथुरा के स्थानीय लोगों को बुद्ध के इतिहास के बारे में भले ही पता न हो, मथुरा पहुंचने वाले तमाम विदेशी सैलानी यहां बुद्ध को ढूंढ़ते हुए जरूर आते हैं. सन् 1860 में मथुरा में ही जमालपुर टीले से बुद्ध की दो आदमकद प्रतिमा मिली है, उसमें से एक संग्रहालय में है, जबकि दूसरा राष्ट्रपति भवन में.

मथुरा संग्रहालय में बुद्ध के बारे में लिखा विवरण – फोटो- दलित दस्तक

मथुरा का बौद्ध इतिहास

कृष्ण और राधा के आभामंडल से निकलकर अगर मथुरा के इतिहास की बात करें तो यहां नन्द, मौर्य, शुंग, क्षत्रप और कुषाण वंशों का शासन रहा. इस दौरान विभिन्न धर्मों से संबंधित सैकड़ों मूर्तियां यहां बनीं. बाद के दिनों में ये उपासना स्थल टीलों में परिवर्तित हो गए. आज मथुरा इन्हीं टीलों पर बसा है. 1874 में तत्कालीन कलेक्टर एफ. एस. ग्राउज ने इन्हीं मूर्तियों को सहेजने के लिए संग्रहालय की नींव रखी थी.

बुद्ध पूर्णिमा विशेषः भारत में धम्म कारवां की दिशा

buddhismधम्म कारवां आज काफी फल-फूल चुका है. 1956 में पांच लाख लोगों की संख्या करोड़ों में पहुंच गई है. अंग्रेजी अखबार द टाईम्स ऑफ इंडिया (नई दिल्ली संस्करण, 10 नवंबर 2006) में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत वर्ष में सन 2006 तक 30 लाख लोगों ने बौद्ध धम्म की दीक्षा ली थी. 2001 की जनगणना के वक्त बढ़कर यह लगभग 81 लाख हो चुकी थी, जो कि 2011 की आखिरी जनगणना के प्रारंभिक अनुमानों के अनुसार 97 लाख पहुंच गई हैं. हालांकि कुछ विशेषज्ञ भारत में बौद्धों की संख्या 3 करोड़ 50 लाख से भी अधिक मानते हैं. उनका मानना है कि जनगणना में वास्तविक संख्या इसलिए सामने नहीं आ पाती हैं क्योंकि काफी लोग बौद्ध होते हुए भी अपने को आधिकारिक दस्तावेजों में बौद्ध नहीं घोषित करते.

सांस्कृतिक रूप से देखा जाए तो लगभग सभी प्रदेशों में बौद्ध अनुयायियों ने अनेकों बौद्ध विहारों का निर्माण करवाया है. पंजाब में 22 बुद्ध विहार निर्मित किए गए हैं. गुजरात में कई जगहों पर बुद्ध अनुयायियों ने बुद्ध विहारों का निर्माण करवाया है. यू.पी, बिहार, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक सहित देश के तमाम प्रदेशों में अनेकों बुद्ध विहारों का निर्माण करवाया जा चुका है. ऐसे में जब भारत में धम्म दिनों दिन फैल रहा है, यह सोचना भी जरूरी है कि धम्म कारवां की दिशा क्या हो और उसमें हमारी भूमिका क्या हो? उसके लिए कुछ जरूरी बिंदुओं पर ध्यान देना जरूरी है.

बौद्धों का जीवन

 बौद्धों को अपना जीवन और दैनिक क्रियाकलाप बौद्धधम्म की शिक्षाओं के अनुरूप जीना चाहिए. इसके लिए सबसे आवश्यक है कि देवी-देवताओं की पूजा का मोह त्यागना होगा. धम्म वंदना और दीक्षा प्रतिज्ञा गाथा के उस पालि सुत्त की बातें जीवन में उतारनी होगी जिसमें कहा गया है कि… ‘मैं भगवान बुद्ध के अलावा (बुद्ध मार्ग) अन्य किसी की भी शरण नहीं जाऊंगा. इस सत्य वचन से मेरा कल्याण हो. मैं धम्म के अलावा अन्य किसी की भी शरण नहीं जाऊंगा. धम्म ही मेरा श्रद्धा स्थान हैइस सत्य वचन से मेरा कल्याण हो. भिक्खु संघ के अलावा मैं अन्य किसी की भी शरण नहीं जाऊंगा; इस सत्य वचन से मेरा कल्याण हो.

संस्कृति

बौद्धों को एक ऐसी संस्कृति का विकास करना चाहिए जिसमें प्रत्येक देशवासी को एक सम्मानित नागरिक माना जाए और प्रत्येक नागरिक की मानवीय गरिमा और आत्मसम्मान के साथ जीने का अवसर सुनिश्चित हो. देश में परस्पर भाईचारे के साथ प्रेम और सौहार्द की भावना हो. डॉ. आम्बेडकर का कहना था कि राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग का अंतर भुलाकर उनमें सामाजिक-भ्रातृत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाए… लेकिन इस भावना के विकास में जाति सबसे बड़ी बाधा है. डॉ आम्बेडकर का निष्कर्ष था कि जाति की प्रकृति ही विखण्डन और विभाजन करना है. जाति का यह अभिशाप है. जाति भावनाओं से आर्थिक विकास रूकता है. इसलिए डॉ. अंबेडकर का लगातार यह प्रयत्न रहा कि भारत में एक ऐसी सांझी संस्कृति का निर्माण हो जिसमें जात-पात के आधार पर लोगों के साथ अन्याय और शोषण न हो और हर नागरिक अपनी क्षमताओं के अनुसार राष्ट्र निर्माण में योगदान दे सके. आपस में उपजातिवाद छोड़कर एक साझा पहचान जो बौद्ध पहचान है उसको अपनाना चाहिए और आपस में रोटी-बेटी का संबंध कायम करना चाहिए, जिससे कि राष्ट्रीय एकता के विकास में सहायता मिले. डॉ. आम्बेडकर चाहते थे कि समाज के सभी वर्गों में खान-पान का संबंध विकसित हो. जो लोग धम्म दीक्षा लेने के बाद भी जाति और उप-जाति बनाए रखना चाहते हैं या जाति-पात में विश्वास करते हैं वो बौद्ध धर्म का बहुत बड़ा नुकसान कर रहे हैं क्योंकि इससे बौद्ध धर्म में भी जाति का जहर फैल जाएगा.

buddhismविपस्सना

एक अन्य चर्चा विपस्सना को लेकर है. बहुत लोगों को यह गलतफहमी है कि विपस्सना लोगों को निष्क्रिय कर देती हैं, उनका क्रोध समाप्त हो जाता है जबकि दलित समाज को आंदोलित रखने के लिए क्रोध की आवश्यकता है और विपस्सना से समाज सेवा की भावना कम हो जाती है. इन सब मिथ्या प्रचार को हमें दूर करना होगा. गौतम बुद्ध ने छः वर्षों तक ध्यान साधना किया और विपस्सना का आविष्कार किया. विपस्सना करते-करते 35 वर्ष की उम्र में बुद्धत्व को प्राप्त किया. बुद्धत्व प्राप्त करने के पश्चात 45 वर्षो तक शहरों, गांवों, कस्बों में जा-जाकर धम्म का प्रसार किया. यदि भगवान बुद्ध निष्क्रिय नहीं हुए तो फिर उनकी खोजी हुई विपस्सना करने से उनके अनुयायी कैसे निष्क्रिय हो सकते हैं?

भिक्खुओं द्वारा खुद पहल कर लोगों से नहीं मिलना भी एक समस्या है. बहुत से भिक्खु इस आशा में रहते हैं कि जब कोई बुद्ध विहार में आएगा तभी वो धम्म दीक्षा की बात करेंगे. इस बारे में भगवान बुद्ध का उदाहरण हमारे सामने है. भगवान बुद्ध बोधगया से चलकर सारनाथ आए थे और धम्मचक्र प्रवर्तन किया था. वह इस भरोसे में नहीं बैठे रहे कि लोग बोधगया आए और तब वो उनको धम्म सिखाएं. इसीलिए डॉं. आम्बेडकर ने ‘इंगेज्ड बुद्धिज्म’ की परिकल्पना की थी. इस परिकल्पना को पूरी दुनिया में मान्यता मिली है. वियतनाम में भिक्खु संघ ने अमेरिका के आक्रमण के खिलाफ पूरी ताकत से विरोध किया और लोगों के बीच जाकर धर्म का प्रचार-प्रसार किया. ताईवान में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में वहां के भिक्खुनी संघ ने अहम भूमिका अदा की है. ताईवान में भिक्खुनी संघ स्कूल भी चलाता है, अस्पताल भी चलाता है और लोगों के घरों में जाकर उनकी समस्याओं का निदान भी करता है. ताईवान के उदाहरण को भारत वर्ष में भी दोहराने की आवश्यकता है.

बौद्ध संस्कृति विकसित करना जरूरी

 हर सिक्ख रविवार को अनिवार्य रूप से गुरूद्वारा जाता है, ईसाई चर्च जाते है. हर मुसलमान शुक्रवार की नमाज मस्जिद जाकर अता करता है. बौद्ध समाज के लोगों को भी ऐसी परंपरा डालनी होगी. प्रत्येक रविवार को अपने नजदीकी बौद्ध विहार में जाएं. जहां बौद्ध विहार नहीं है, वहां किसी के घर में और यदि वो भी संभव नहीं है तो किसी पार्क या सार्वजनिक स्थल पर कोई संगोष्ठी करें. ऐसी कोशिश भी की जा सकती है कि जीवन के उत्सव चाहे जन्मदिन का कार्यक्रम हो या सालगिरह, उसे बौद्ध विहार में मनाए. इसके साथ ही अपना जीवन पंचशीलों के अनुसार जीने की कोशिश करें.

डॉ. आम्बेडकर ने स्वयं बुद्ध पूर्णिमा के दिन अपने आवास को सजाना आरंभ किया और उत्सव मनाने की परंपरा आरंभ की. विवाह के लिए विवाह विधि का प्रतिपादन किया और बौद्ध चर्या पद्धति तैयार की. बौद्धों में शील और सदाचार का जीवन विकसित करने के लिए ‘बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ इंडिया’ की स्थापना की जिसकी शाखाएं हर प्रदेश में स्थापित की गई. डॉ. आम्बेडकर ने 25 नवंबर, 1956 को सारनाथ के मृगदाय वन में 150 भिक्खुओं के समक्ष भाषण दिया था कि प्रत्येक बौद्ध के लिए अनिवार्य है कि वह हर रविवार को बौद्ध विहार में जाए और वहां उपदेश सुने. यदि ऐसा नहीं होगा तो नव दीक्षित बौद्ध को धम्म की जानकारी नहीं हो सकेगी. प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे बौद्ध विहारों का निर्माण किया जाए जिसमें सभा करने के लिए काफी स्थान रहे. बौद्ध विहारों को सभामंदिर होना चाहिए.

बाल साहित्य और बौद्ध साहित्य

सुरूचिपूर्ण बाल साहित्य और जनभाषा में बौद्ध साहित्य की भी काफी आवश्यकता है. इसके लिए आवश्यक है कि स्थानीय लोक भाषा में छोटी-छोटी पुस्तकें बड़े अक्षरों में छपवाई जाए और सस्ते दामों में लोगों को उपलब्ध कराई जाएं, क्योंकि साहित्य के बगैर धर्म का प्रचार-प्रसार कठिन होगा. जो भी बौद्ध साहित्य लिखा गया है, उसको और सरल और सुगम बनाकर कम से कम शब्दों में तैयार कर जन-जन तक पहुंचाने की जरूरत है जिससे कि किसान, मजदूर, गांव के लोग, कम पढ़े लिखे लोग, सभी लोग समझ सकें और उसको जीवन में उतार सकें. बुद्ध की शिक्षाओं को जन-जन तक पहुंचाने के लिए शीलवान और पढ़े-लिखे भिक्खुओं की जरूरत है. इसके साथ ही, हमें एक समानांतर प्रचार व्यवस्था को विकसित करना होगा जिसमें नुक्कड़ नाटक, भजन मंडली, स्वांग मंडली, लोकगीत शामिल हैं जो लोगों तक आपकी बात पहुंचा सके.

पर्सनल लॉ की जरूरत

लगभग सभी अल्पसंख्यकों के अपने-अपने Personal Low हैं. ईसाईयों का Personal Low उनका बाईबिल है, मुसलमानों का Personal Low कुरान शरीफ द्वारा निर्धारित होता है. सिक्खों में आनंद कारज विवाह प्रथा को मान्यता प्राप्त है, लेकिन बौद्धों का अपना कोई Personal Low नहीं है. इसलिए जब तक सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता नहीं बन जाती, बौद्धों का भी अपना Personal Low होना चाहिए.

चारों महत्वपूर्ण अंगों को सामने आना होगा

बौद्ध धम्म के सामाजिक संगठन के चार महत्वपूर्ण अंग हैं. ये हैं भिक्षु संघ, भिक्षुणी संघ, उपासक संघ और उपासिका संघ. धम्म कारवां के आगे बढ़ने के लिए इन चारों संघों का शील-सदाचार पूर्ण जीवन जीना और सामाजिक तथा सांस्कृतिक रूप से मजबूत होना आवश्यक है. लेकिन ये एक बहुत बड़ी विडंबना है कि भारत में अकेले भिक्षु संघ काम कर रहा है. अभी तक न तो भिक्षुणी संघ बन पाया है, न ही उपासक संघ और न ही उपासिका संघ. इसलिए आवश्यक है कि बौद्ध अनुयायियों को इन संघों का निर्माण करना चाहिए और उनको मजबूत बनाया जाना चाहिए.

buddhaभ्रम फैलाने की कोशिश

धम्म कारवां की लोकप्रियता से डरे कुछ लोगों और संगठनों द्वारा अनेकों दुष्प्रचार करने की घटना भी सामने आई हैं. इसमें एक दुष्प्रचार यह किया जा रहा है कि बौद्धधर्म केवल दलित अपना रहे हैं. जबकि हकीकत इससे अलग है. भगवान बुद्ध दलित नहीं थे. उनके प्रथम पांचों शिष्य ब्राह्मण थे. उसके बाद यश और उसके 54 साथी व्यापारी वर्ग से थे. राजा बिबिंसार और राजा प्रसेनजित तथा शाक्य संघ के लोग सभी के सभी क्षत्रिय थे. वर्तमान समय में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन, धर्मानंद कौशाम्बी, डी डी कौशाम्बी पूर्व में ब्राह्मण थे. इसी तरह भदन्त आनंद कौशलायन, आचार्य सत्यनारायण गोयनका, भन्तेसुरई सशई, अमेरिका के मशहूर फिल्म अभिनेता रिचर्ड गेरे, फिल्म प्रोड्यूसर टीना टर्नर कोई भी दलित वर्ग से नहीं है.

 बुद्ध के बारे में एक दुष्प्रचार यह किया जाता है कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार थे. ये सब हिन्दू धर्मांवलंबियों की चाल है. भगवान बुद्ध ने स्वयं ही अवतार के सिद्धांत को नकारा था. बुद्धत्व प्राप्ति के बाद उन्होंने यह उल्हास भरी घोषणा की थी-

‘अयं अन्तिमा जाति’ ‘नत्थिदानि पुनब्भवोति’

यानि यह मेरा अंतिम जन्म है, और अब मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा. बुद्ध के इस शब्द को समझ कर बौद्धों को धर्म विशेष के लोगों द्वारा फैलाई गई तमाम भ्रांतियों से दूर रहना होगा. और भारत  धम्म कारवां को बढ़ाना होगा.

  • लेखक एक बौद्ध विचारकसाहित्यकार और सामाजिक चिंतक हैं.

बलात्कारी आशाराम बापू का ‘ब्रह्मज्ञान’

पिछले दिनों बलात्कार के जुर्म के लिए आशाराम को सजा हुई. आशाराम ने कोर्ट में बचाव में जो दलीलें पेश की थीं उनमें एक दलील बड़ी रोचक और ध्यान देने वाली है. बलात्कारी आशाराम की दलील थी कि ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति किसी के साथ भी यौन संसर्ग कर सकता है, यह दैवीय कृत्य होता है. ईश्वर को जब किसी के साथ यौन संसर्ग करने की इच्छा होती है तो वह ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करता है.

 इस तरह आशाराम को यह विश्वास था कि ‘ब्रह्मज्ञानी’ व्यक्ति द्वारा लड़की का यौन शोषण आपराधिक कृत्य नहीं होता है. इस तरह हम देखते हैं कि ‘ब्रह्मज्ञान’ इंसान को अमानवीय मूल्यों और आपराधिक कृत्यों के प्रति अपराधबोध से भी मुक्त करता है जिससे समाज में अनाचार फैलता है और ‘ब्रह्मज्ञानी’ व्यक्ति को कानून के साथ-साथ समाज का भी अपराधी बना देता है. इसलिए ब्राह्मणवादी विचारधारा बाकी मनुष्यों के साथ साथ ब्राह्मण के लिए भी खतरनाक साबित होती है. इसको जितनी जल्दी हो सके त्याग देना चाहिए. बहुजन समाज को तो इससे दूर ही रहना चाहिए.

बहुजन संघर्षशील और जुझारू है. अपनी मेहनत के दम पर कुछ भी कर सकते हैं. तमाम बाधाओं और सुविधाओं से महरूम होने के बावजूद आज बहुजन हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा के दम पर आगे बढ़ रहे हैं. सवाल यह है कि तमाम सुविधाओं का भरपूर उपभोग करते हुए भी ब्राह्मण आज तक कोई आविष्कार या खोज क्यों नहीं कर सका ? ब्राह्मण समाज अपने बीच से आज तक कोई वाल्टेयर क्यों नहीं पैदा कर सका ? ब्राह्मण के अंदर वो कौन सी हीन ग्रंथि है जो ब्राह्मण को हमेशा खुद को ही श्रेष्ठ मानने पर मजबूर करती है ? इन सब सवालों पर गंभीर चिंतन होना चाहिए.

कुछ साल पहले की बात है. इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन का चुनाव चल रहा था. अध्यक्ष पद के एक ब्राह्मण प्रत्याशी, जो पूर्व में भी अध्यक्ष रह चुके थे, चैंबर में अधिवक्ताओं को संबोधित कर रहे थे. उनके पैनल से प्रायः सभी पदों पर ब्राह्मण ही चुनाव लड़ रहे थे. एक ठाकुर जाति के अधिवक्ता ने टोक दिया कि हर पद पर ब्राह्मण प्रत्याशी नहीं होना चाहिए.

इस पर उनका जवाब था,”ब्राह्मण आवश्यक बुराई है. आप उसकी लाख आलोचना कर लीजिए लेकिन जन्म से लेकर नामकरण, विवाह होने और मृत्यु तक ब्राह्मण आवश्यक है. ब्राह्मण में लाख बुराईयां हो सकती हैं लेकिन ब्राह्मण के बिना आपका कोई काम नहीं चल सकता.”

मुझे लगा कि पंडित जी ठीक ही कह रहे थे. जब तक आप अपना कोई भी सामाजिक-सांस्कृतिक कार्य बिना ब्राह्मण के सम्पन्न करना नहीं शुरू करते हैं, आपको ब्राह्मणवाद की आलोचना करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं बनता है. इसलिए जन्म से लेकर नामकरण, विवाह और मृत्यु तक सारे कार्य खुद करना सीखिए. जब तक आपके किसी कार्य के लिए ब्राह्मण आवश्यक है, ब्राह्मणवाद खत्म नहीं हो सकता. इसीलिए अर्जक संघ ने देश में अर्जकों हेतु एक वैकल्पिक सांस्कृतिक व्यवस्था की स्थापना की है जिससे आपको अपने किसी भी सांस्कृतिक कार्य में ब्राह्मण को बुलाने की मजबूरी न रहे.

आपको जानकर आश्चर्य हो सकता है कि जिस तरह क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों में तमाम जातियाँ होती हैं उसी तरह ब्राह्मणों में भी तमाम जातियाँ होती हैं. लेकिन सवाल उठता है कि ब्राह्मण एक क्यों दिखता है ? क्या आपने कभी सोचा कि जिस तरह अहीर, गड़ेरिया, कुर्मी, कोइरी, जाट, गुजर, लोध, चमार, पासी, धोबी, लुहार, कुम्हार, तेली, राजपूत जैसी तमाम जातियाँ अपनी अलग पहचान बताती हैं उसी तरह ब्राह्मणों की तमाम जातियाँ अपनी अलग-अलग पहचान क्यों नहीं दिखातीं ?

इसकी वजह है ब्राह्मण का अपना अलग धर्म. ब्राह्मण से जब उसकी जाति पूछी जाती है तब वह अपने धर्म, ब्राह्मण धर्म को बताता है. वह अपनी जाति कभी नहीं बताता. ब्राह्मणों की तमाम जातियों के बीच भी उसी तरह छुआछूत और भेदभाव मौजूद है जैसे बाकी जातियों के बीच. कभी कभी तो ये भेदभाव गैर ब्राह्मण जातियों से भी ज्यादा होता है.

ब्राह्मणों में छुआछूत के उदाहरण के लिए पंक्तिदूषण ब्राह्मण को देखिए. पंक्तिदूषण ब्राह्मण उन ब्राह्मणों को कहा जाता है, जिनके बैठने से ब्रह्मभोज की पंक्ति दूषित समझी जाती है. ऐसे लोगों की बड़ी लम्बी सूची है. इसके विपरीत पंक्तिपावन ब्राह्मण उन ब्राह्मणों को कहा जाता है, जिनके भोजपंक्ति में बैठने से पंक्ति पवित्र मानी जाती है. इन ब्राह्मणों में प्राय: वेदों का स्वाध्याय और पारायण करने वाले श्रोत्रिय ब्राह्मण होते हैं. पंक्तिदूषक ब्राह्मणों की लम्बी सूची देखकर समझा जा सकता है कि पंक्तिपावन ब्राह्मणों की संख्या बहुत बड़ी नहीं हो सकती और ज्यादातर ब्राह्मण ब्राह्मणों में अछूत जैसे ही हैं. इस तरह ब्राह्मणों के बीच भी भयंकर भेदभाव और छुआछूत मौजूद है. इससे निष्कर्ष निकलता है कि ब्राह्मणवाद स्वयं ब्राह्मण के लिए भी हानिकारक है.

एक और महत्वपूर्ण कार्य है जो बहुजनों के लिए बहुत जरूरी है और इसे तत्काल करना चाहिए और वह है ब्राह्मणवादी मीडिया का बहिष्कार. क्या आप जानते हैं कि देश के विभिन्न राज्यों में ब्राह्मणों की तमाम जातियां और उपजातियां आरक्षण का लाभ लेती हैं ? जोशी ब्राह्मण, महाब्राह्मण, गोसाईं, मराठी ब्राह्मण, बैरागी ब्राह्मण, मणिपुरी ब्राह्मण जैसी तमाम जातियां विभिन्न राज्यों में ओबीसी कोटे के तहत आरक्षण का लाभ प्राप्त करती हैं. इसके अतिरिक्त गुजरात में कायस्थ और कर्नाटक तथा गुजरात में राजपूत भी ओबीसी में शामिल हैं और आरक्षण का लाभ प्राप्त करते हैं.

लेकिन सबको प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कराने वाली राष्ट्रनिर्माण की पहल आरक्षण की विरोधी ब्राह्मणवादी मीडिया यह भ्रम बनाए रखने में कामयाब हो जाती है कि द्विज जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता है. इस भ्रम को तोड़ना बहुत जरूरी है नहीं तो ये लोग अपनी मुट्ठी भी ताने रहेंगे और इनकी काँख भी नहीं दिखेगी. अश्लील ब्राह्मणवादी मीडिया का बहिष्कार कीजिए और अपने घरों में ब्राह्मणवादी मीडिया द्वारा परोसी जाने वाली अश्लील सामग्री फैलने से रोकिए. अपनी आने वाली पीढियों को ब्राह्मणवादी मीडिया से दूर रखिए.

  • मनोज अभिज्ञान अधिवक्ता एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता ईमेल : juristverdict@gmail.com

आरक्षण खत्म होना चाहिए

Representative Schoolमैं भी आप का समर्थन करता हूँ कि “आरक्षण बंद होना चाहिए”, लेकिन “सब को शिक्षा सब को काम” की भी मांग कर रहा हूँ. 30 प्रतिशत सवर्ण भूमिहीन हैं. 20 प्रतिशत सवर्णों के पास 100 बीघे से भी अधिक जमीनें हैं. मैं सरकार से मांग करता हूँ कि उन अमीर जमीदार सवर्णों की जमीन छीनकर गरीब सवर्णों में बांट दिया जाय जिससे उनके बाल-बच्चे ठीक से जीवन-यापन कर सकें. 10 प्रतिशत सवर्णों के पास 100 एकड़ जमीनें हैं. सरकार को चाहिए कि उनसे जमीनें छीनकर अन्य वर्गों के भूमिहीनों में वह जमीन बांट दी जाय. असमानता अन्याय है.

परम्परावादी सवर्ण की बड़ी बुरी आदत है कि वह व्यक्तिगत तौर पर चिढ़ने लगता हैं. वह अमीर सवर्ण जमीदार के पक्ष में खड़ा होकर सवाल पूछने और उपदेश देने लगता है कि तुम अपनी ज़मीन क्यों नहीं दान कर देते? यदि किसी अमीर के पास अधिक जमीन है तो वह उसके बाप-दादा की है. इसमें तुम्हारा क्या जाता है. ऐसे ही एक ब्राह्मण मित्र के सवाल के जवाब में मैंने अपनी सफाई पेश करते हुए लिखा कि मेरे पास या मेरे पिता जी के पास 1 बीघा खेत भी नहीं है. 5 भाई और 2 बहनों में मैं इकलौता व्यक्ति हूँ जो इत्तेफ़ाक से नौकरी कर रहा है और मैं सभी भाई बहनों को साथ लेकर चल रहा हूँ. क्या यह समाज के लिए कम बड़ी जिम्मेदारी है. मेरे पास तनखाह के अतिरिक्त कुछ नहीं है. मैं किसी को क्या दे सकता हूँ.

हाँ, यदि बहुत से जमीदार सवर्णों की जमीनें सरकार छीन ले तो अन्य गरीब सवर्ण मजे में रह सकते हैं. मैं सवर्णों से छीनी जमीनें दलितों में बांटने की बात कत्तई नहीं कर रहा हूँ. फिर आप को पीड़ा क्यों होने लगती है? क्या आप अपने ही भाई को ठीक से कमाते-खाते नहीं देखना चाहते हैं? जब सवर्णों से छीनने की बात उठती है तो आप को अनायास पीड़ा होने लगती है, क्यों? क्या उसे मैं अपने लिए मांग रहा हूँ, जी नहीं. सवर्ण समाज में समरूपता आए, इसलिए ऐसा विचार मैं अपने लेख द्वारा गूँगी-बाहरी सरकार तक पहुंचा रहा हूँ. कुछ सवर्णों की वजह से 77.1प्रतिशत सवर्ण गरीब हैं, नौकरी विहीन हैं. उनके लिए यह मांग करिए, लेकिन आप बेवजह सवालिया हो रहे हैं. इसे ही कहते हैं जाति की पीड़ा और जातिवाद से ग्रसित होना. जातिवाद कभी भी समानता की कायल नहीं है.

बस एक नई बात जोड़ दी की जिनके पास जीवन-यापन से अधिक खेती है, उनसे वह खेत छीनकर गरीब सवर्णों में बांट दिया जाय. मैं यह भी नहीं कह रहा हूँ कि वह जमीन शूद्रों को दे दी जाय. आप समझो न मेरी बात को. लेकिन आप को एक धुन सवार हो गई है कि बात आरक्षण वाले मुद्दे से भटक गई है.

आप जानते हैं सवर्ण साथी भी भूमिहीन है. उसके भूमिहीन होने का कारण ये सवर्ण जमीदार ही हैं. किसी के पास एक धुर जमीन नहीं किसी के पास 100 एकड़ जमीन है. ये कहाँ का न्याय है? इससे तो असमानता रहेगी ही. सिर्फ आरक्षण ख़त्म कर देने या आर्थिक आधार पर आरक्षण कर देने से समस्या का समाधान नहीं हो जाएगा. इस समय 35 करोड़ युवा हैं. मैं जाति-धर्म की बात नहीं कर रहा हूँ. सिर्फ युवा की बात कर रहा हूँ. नौकरियां 2 करोड़ 75 लाख हैं. किस-किस को आरक्षण के आधार पर नौकरियां मिल सकती हैं? क्या 35 करोड़ युवा को नौकरियां मिल सकती हैं?

फिर क्या है समस्या का समाधान? दलित कहे कि सवर्ण आरक्षण छीन रहा है और सवर्ण कहें कि आरक्षण की वजह से हमें नौकरियां नहीं मिल रही हैं. लड़ते रहो आपस में. क्या फायदा निकलेगा? समस्या की जड़ है पूँजीवाद, जो हमें लड़ाकर खुद मुनाफा कमाकर असंख्यों रुपए तिजोरी में कैद कर रही है. सारे सार्वजनिक सेक्टर्स को प्राइवेट सेक्टर्स में बदल रही है. और प्राइवेट वाले उच्चतम तकनीकी से कम व्यक्तियों के द्वारा अत्यधिक श्रम का शोषण करके हमें बेरोजगार बना रहे हैं.

हमारी आंखे वहां नहीं देख पाती है जहां समस्या की जड़ है. हम सिर्फ आरक्षण में समस्या खोजते हैं. रोजगार बढ़ाने के लिए संघर्ष करो. सभी जातियों के लोग उस संघर्ष में उतारेंगे और समस्या का समाधान जरूर होगा. यदि जातिवादी मानसिकता से ऊपर उठ पा रहे हों, तो मेरी बातों पर गौर फरमाइए. आप की बात को मैं कब का मान चुका हूँ कि “आरक्षण ख़त्म हो जाना चाहिए.” यह डीवेट तो कब का ख़त्म हो चुका है.

हमें समझना है कि संपत्ति का राष्ट्रीयकरण क्यों नहीं किया जाता है? जमीनों का राष्ट्रीयकरण क्यों नहीं किया जाता है? किसी भी संस्था का राष्ट्रीयकरण क्तो नहीं किया जाता है? किसी भी पूँजीपति के पास जो अकूत रुपया है उसका वह क्या करेगा? सिर्फ अमीर बने रहने की एक गलत महत्वाकांक्षा ही तो है. वह खुद नहीं कुछ करता है. करते हम आप हैं. मुनाफा कमा कमा कर धन वह इकठ्ठा कर रहा है. वह धन न उसके काम आता है न हमारे ही काम आता है. न राष्ट्र के काम आता है. अनुत्पादक पूँजी पड़ी हुई है.

इसी तरह जिसके पास ज्यादे बीघा जमीने है, किस काम की? क्या वह कुछ ज्यादे खा लेता है? बिल्कुल नहीं. लेकिन उसकी वजह से बहुत से ग्रामवासी जो उन्हीं की जाति-बिरादरी के हैं, भूमिहीन और गरीब हैं. यदि जमीनों का राष्ट्रीयकरण हो जाय या सामान बटवारा हो जाय तो न किसी की तिजोरी भरेगी और न कोई गरीब और बेरोजगार भूंखों मरेगा. आओ हम अपने सोच का दायरा बढ़ाएं. जाति-धर्म से ऊपर उठें. यह मानसिकता एक बीमार मानसिकता है. इस बीमारी को दूर भगाएं.

  • आर डी आनंद

सिविल सेवा परीक्षा टॉप करने की कहानी अनुदीप की जुबानी

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“मैं बहुत ख़ुश हूं और आगे जो ज़िम्मेदारी मेरा इंतज़ार कर रही है उससे वाक़िफ़ हूं. रैंक से ज़्यादा बड़ी वो ज़िम्मेदारी है जो मेरे आगे है. मैं अपने परिजनों, दोस्तों और अध्यापकों का शुक्रिया करता हूं जिन्होंने मेरा साथ दिया.” अनुदीप कहते हैं कि “मैं आज यहां सिर्फ़ अपनी मेहनत के दम पर पहुंचा हूं. मेहनत का कोई विकल्प नहीं.” वे बताते हैं, “हम जो भी करें, चाहें परीक्षा दे रहे हों या कोई खेल खेल रहे हों, हमारा लक्ष्य हमेशा उत्कृष्टता हासिल करना होना चाहिए. मैंने यही अपने पिता से सीखा और परीक्षा की तैयारी में इसे लागू किया.”

अनुदीप कहते हैं, “अब्राहम लिंकन हमेशा से मेरी प्रेरणा का स्रोत रहे. वो एक महान नेता का उदाहरण हैं. बेहद मुश्किल हालातों में चुनौतियों का सामना करते हुए उन्होंने अपने देश का नेतृत्व किया. मैं हमेशा उनसे प्रेरणा लेता हूं.” अपनी तैयारी के बारे में अनुदीप बताते हैं, “ये बेहद मुश्किल परीक्षा होती है क्योंकि बहुत से क़ाबिल लोग इसके लिए तैयारी करते हैं. आज भी बहुत से क़ाबिल लोगों का नाम चुने गए उम्मीदवारों की सूची में है. आप कितने घंटे पढ़ रहे हैं इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण ये है कि आप क्या पढ़ रहे हैं और कैसे पढ़ रहे हैं.”

अनुदीप 2013 में भी सिविल सेवा में चुने गए थे. तब उनका चयन भारतीय राजस्व सेवा के लिए हुआ था. अनुदीप कहते हैं, “मैं हैदराबाद में असिस्टेंट कमिश्नर के पद पर तैनात हूं. नौकरी करते हुए मैं तैयारी कर रहा था. सप्ताहांत के अलावा मुझे जब भी समय मिलता मैं तैयारी करता. मेरा यही मानना है कि पढ़ाई की गुणवत्ता और एकाग्रता मायने रखती है. हमें हमेशा सर्वश्रेष्ठ के लिए कोशिश करनी चाहिए. सिर्फ़ मेहनत और उत्कृष्टता के लिए प्रयास ही मायने रखता है. नतीजा अपने आप आ जाता है.”

अनुदीप को पढ़ने का शौक है और उन्हें फुटबाल में गहरी दिलचस्पी है. बचपन से ही वो फुटबॉल खेलते हैं और फुटबॉल के मैच देखते हैं. अनुदीप कहते हैं, “फुटबॉल मेरे जीवन का हमेशा से अहम हिस्सा रही है. मैं खूब खेलता भी हूं और खूब देखता भी हूं. जब भी तनाव होता है तो इसे तनाव दूर करने के लिए भी इस्तेमाल करता हूं. इसके अलावा मुझे पढ़ने का बहुत शौक है. मैं फ़िक्शन (काल्पनिक कहानियां) ज़्यादा नहीं पढ़ता बल्कि असल विषयों पर किताबें पढ़ता हूं.”

अनुदीप कहते हैं, “मुझे जब भी खाली समय मिलता है मैं या तो खेलता हूं, या पढ़ता हूं. मुझे लगता है कि सभी को अपने शौक़ रखने चाहिए. ये न सिर्फ़ हमें तनाव से दूर रखते हैं बल्कि हमारे चरित्र का निर्माण भी करते हैं. मैं तो कहूंगा कि हमारे शौक़ ही हमें इंसान बनाते हैं.”

अनुदीप के परिवार के लिए ये सबसे बड़ी ख़ुशी है. वे कहते हैं, “ये ख़बर सुनने के बाद मेरी मां की आंखों से आंसू बहने लगे, मेरे पिता तो अभी तक यक़ीन ही नहीं कर पाएं हैं. ये बेहद ख़ुशी का पल है. मैं ख़ुद अभी तक यक़ीन नहीं कर पा रहा हूं. ये मेरे लिए अविश्वसनीय पल हैं. मैं सबका शुक्रिया अदा करता हूं.”

अनुदीप का मानना है कि जो भी काम उन्हें दिया जाएगा वो करेंगे लेकिन वो चाहेंगे कि वो शिक्षा के क्षेत्र में काम कर पाएं.वे कहते हैं, “मुझे लगता है कि हमें शिक्षा के क्षेत्र में और आगे बढ़ने की ज़रूरत है. दुनिया के विकसित देश, उदाहरण के तौर पर स्कैन्डिनेवियन देशों में सबसे ज़्यादा ज़ोर शिक्षा पर ही है. मज़बूत शिक्षा व्यवस्था ही उनके विकास की जड़ है. अगर हमें नया भारत बनाना है तो अपनी शिक्षा व्यवस्था को सुधारना होगा. हम इस दिशा में काम कर रहे हैं और आगे भी काम करने की ज़रूरत है. मैं अपने विकास की यात्रा में छोटी ही सही लेकिन कोई भूमिका निभाना चाहता हूं.”

अपनी क़ामयाबी का श्रेय अपने पिता को देते हुए अनुदीप कहते हैं, “मेरे पिता मेरे रोल मॉडल है. वो तेलंगाना के एक दूरस्थ गरीब इलाक़े से आते हैं. अपनी मेहनत के दम पर वे आगे बढ़े और मुझे बेहतर शिक्षा मिल सकी. उन्होंने हमेशा मेरा सहयोग किया है. वे अपने काम में बेहद मेहनत करते हैं और ऊंचे स्टैंडर्ड का पालन करते हैं. मैंने अपने जीवन में हमेशा उन जैसा बनना चाहा है.”

अनुदीप के मुताबिक़, “हमारे प्रेरणास्रोत हमारे इर्द-गिर्द ही होते हैं बस हमें उन्हें पहचानने की ज़रूरत है. “

 

अकेले अय्यर पड़े केकेआर पर भारी

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नई दिल्ली। दिल्ली के नए नवेले कप्तान श्रेयस अय्यर की दमदारी पारी की बदौलत डेयडेविल्स ने केकेआर को 55 रन से मात दे दी. आइपीएल के 26वें मुकाबले में दिल्ली की टीम गौतम गंभीर के बिना और नए कप्तान श्रेयस अय्यर की कप्तानी में खेलने उतरी और जीत हासिल की. हार की मार झेल रही दिल्ली की मौजूदा आइपीएल में ये दूसरी जीत रही और डेयरडेविल्स की इस जीत के हीरो कप्तान श्रेयय अय्यर रहे. उन्हें इस मैच में मैन ऑफ द मैच के खिताब से नवाज़ा गया. इस मुकाबले में श्रेयस अय्यर ने एक ऐसा काम कर दिया जो कोलकाता की पूरी टीम मिलकर भी नहीं कर सकी.

दिल्ली के नए कप्तान श्रेयस अय्यर ने सिर्फ 40 गेंदों पर नाबाद 93 रन की पारी खेली. इस पारी के दौरान अय्यर के बल्ले से 3 चौके और 10 छक्के निकले. इस मैच में अय्यर ने इतने छक्के जड़ दिए कि कोलकाता की पूरी टीम मिलकर भी इतने छक्के नहीं जड़ सकी. अय्यर ने 10 छक्के लगाए तो केकेआर की तरफ से 9 छक्के लगे. कोलकाता की ओर से सबसे अधिक छक्के आंद्रे रसेल ने लगाए. रसेल के बल्ले से चार छक्के निकले. वहीं सुनील नरेन ने 3 छक्के लगाए. दिनेश कार्तिक और शुभमन गिल ने भी एक-एक छक्का लगाया. इस तरह कोलकाता की पूरी टीम मिलकर जो न कर सकी वो अकेले दिल्ली के कप्तान श्रेयस अय्यर ने कर दिया.

कोलकाता के कप्तान दिनेश कार्तिक ने टॉस जीतकर पहले गेंदबाज़ी करने का फैसला किया. दिल्ली की टीम ने पहले बल्लेबाज़ी करते हुए निर्धारित 20 ओवर में 4 विकेट खोकर 219 रन बनाए. अय्यर ने धमाकेदार पारी खेलते हुए दिल्ली की पारी के आखिरी ओवर में शिवम मावी की गेंदों पर 29 रन कूट दिए. इसी की दम पर ही दिल्ली ने कोलकोता के सामने 220 रन का पहाड़ सा लक्ष्य रखा. इस चुनौती का पीछा करते हुए कोलकाता की टीम 20 ओवर में नौ विकेट पर 164 रन बना सकी और मैच हार गई. दिल्ली ने इस सत्र की दूसरी जीत दर्ज करते हुए अपने पिछली तीन हार के सिलसिले पर भी विराम लगा दिया. कोलकाता की यह लगातार दूसरी हार रही.

डालमिया का हुआ शाहजहां का बनाया लाल किला!

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भारत के इतिहास में पहली बार किसी कॉरपोरेट घराने ने ऐतिहासिक विरासत को गो‍द लिया है. जी हां! डालमिया भारत ग्रुप ने भारतीय संप्रभुता के प्रतीक दिल्लीो स्थित लाल किला को पांच वर्षों के लिए गोद लिया है. मुगल बादशाह शाहजहां ने 17वीं शताब्दीर में इसका निर्माण करवाया था. अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद स्वातंत्रता दिवस के मौके पर हर साल 15 अगस्तक को देश के प्रधानमंत्री तिरंगा फहरा कर आजादी का जश्न‍ मनाते हैं, जिसमें देश का हर नागरिक शरीक होता है. डालमिया ग्रुप ने नरेंद्र मोदी सरकार की ‘अडॉप्टं ए हेरिटेज’ नीति के तहत इसे गोद लिया है. लाल किला को अडॉप्टन करने की होड़ में इंडिगो एयरलाइंस और जीएमआर ग्रुप जैसी दिग्गतज कंपनियां भी शामिल थीं. लेकिन, डालमिया भारत ग्रुप ने इन्हें पछाड़ते हुए पांच साल के कांट्रैक्टि पर ऐतिहासिक इमारत को गोद लिया है. इस बाबत डालमिया भारत ग्रुप ने 9 अप्रैल को ही पर्यटन मंत्रालय, संस्कृसति मंत्रालय और भारतीय पुरातत्वह सर्वेक्षण के साथ समझौता किया था. डालमिया ग्रुप लाल किला को पर्यटकों के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए उसे नए सिरे से विकसित करने के तौर-तरीकों पर विचार कर रहा है.

डालमिृया भारत ग्रुप के सीईओ महेंद्र सिंघी ने कहा कि लाल किला में 30 दिनों के अंदर काम शुरू कर दिया जाएगा. उन्होंवने कहा, ‘लाल किला हमें शुरुआत में पांच वर्षों के लिए मिला है. कांट्रैक्ट को बाद में बढ़ाया भी जा सकता है. हर पर्यटक हमारे लिए एक कस्टामर होगा और इसे उसी तर्ज पर विकसित किया जाएगा. हमारी कोशिश होगी कि पर्यटक यहां सिर्फ एक बार आकर ही न रुक जाएं, बल्कि बार-बार आएं. यूरोप की कुछ किलाएं लाल किला के मुकाबले बहुत ही छोटे हैं, लेकिन उन्हें बहुत ही बेहतरीन तरीके से विकसित किया गया है. हमलोग भी लाल किला को उसी तर्ज पर विकसित करेंगे और यह दुनिया के सबसे बेहतरीन स्माहरकों में से एक होगा.’ बता दें कि कांट्रैक्टं के तहत डालमिया ग्रुप को तय समयसीमा के अंदर लाल किला में विकास कार्य कराने होंगे.

पर्यटन और संस्कृ ति मंत्रालय से जरूरी मंजूरी मिलने के बाद डालमिया भारत ग्रुप पर्यटकों से शुल्के भी वसूलना शुरू करेगी. कंपनी ने बताया कि लाल किला के अंदर होने वाली गतिविधियों से इकट्ठा राजस्व‍ का ऐति‍हासिक इमारत के रखरखाव और उसके विकास पर ही खर्च करने की योजना है. स्वेतंत्रता दिवस को देखते हुए लाल किला को जुलाई में सुरक्षा एजेंसियों के हवाले करना होगा, ताकि प्रधानमंत्री द्वारा किए जाने वाले झंडारोहण के लिए जरूरी सुरक्षा इंतजाम किए जा सकें. मालूम हो कि पीएम नरेंद्र मोदी इस साल मौजूदा कार्यकाल में आखिरी बार लाल किला के प्राचीर से देश को संबोधित करेंगे.