मुसलमानों और क्रिश्चिन को एससी में शामिल करने के मुद्दे को चार प्वाइंट में समझिये

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मुसलमानों और ईसाइयों को एससी लिस्ट में लाने का सबसे बड़ा तर्क ये दिया जाता है कि सिखों (1956)और बौद्धों (1990) को बाद में इसमें लाया गया तो मुसलमानों और ईसाइयों को क्यों नहीं?

फैक्ट 1. सिख हमेशा से एससी लिस्ट में हैं। 1950 का ऑर्डर पढ़िए। साफ़ लिखा है कि सिखों में SC होंगे। ये झूठ दरअसल सबसे पहले कांग्रेसी सांसद और सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड चीफ़ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा ने अपनी रिपोर्ट से फैलाया।

वह इंटरनेट और RTI से पहले का ज़माना था। साहब झूठ बोलकर निकल लिए। 1950 का ऑर्डर आम लोगों को उपलब्ध कहाँ होता? तो ये झूठ चल गया कि सिखों को 1956 में SC का दर्जा मिला। अब 1950 का ऑर्डर दर्जनों सरकारी वेबसाइट पर है। लाखों लोग पढ़ रहे हैं। मिश्रा का झूठ पकड़ा गया। सिखों के लिए 1950 के ऑर्डर में संशोधन नहीं हुआ है। वे 1950 से एससी में हैं।

2. भारतीय संविधान हिंदुओं की एक व्यापक परिभाषा देता है। अनुच्छेद 25 में इसे स्पष्ट किया गया है और हिंदुओं में सिख, जैन और बौद्धों को शामिल किया गया है। इसलिए हिंदुओं के प्रावधान उन पर लागू हैं। मुश्किल ये है कि लोग संविधान तक पलटकर नहीं देखना चाहते।

3. बौद्धों को एससी में शामिल नहीं किया गया है। नव बौद्धों को किया गया है। 1950 के ऑर्डर के समय से ये SC ही थे। 1990 का ऑर्डर निरंतरता में है।

4. मुसलमानों या ईसाइयों को SC में लाना 1950 के ऑर्डर का ही नहीं, अनुच्छेद 25 और संविधान सभा तथा पूना पैक्ट में बनी सहमति का भी उल्लंघन होगा।

दिलीप मंडल के ट्विटर पोस्ट से साभार

Punjabi play, Lacchu Kabadia, stimulates minds to overcome caste based discrimination By Chetna Association of Canada

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Chetna Association of Canada is pleased to announce its plans for hosting a Punjabi play, “Lacchu Kabadia”, on Sunday, July 23, at the North Delta Secondary School. The play is written, directed, and acted by a prominent visiting artist from Punjab, Dr. Sahib Singh.

According to Dr. Singh, “The play is being well received by the audience. It serves as an educational tool to reassess the impact of the age-old caste system on the Indian Subcontinent, and more recently, across the globe. Everyone can relate to the topic of the play regardless of their position in the caste hierarchy”, says Dr. Singh.

“It also inspires people negatively impacted by the caste system to rise, be empowered, and break the shackles of the caste system and live a life of dignity”, continued Dr. Singh.

Dr. Singh has written, directed, and performed in many plays and short films. Naam Likhari Nanaka, Samey di Daang, and Gurpurab are just a few of the creations of Dr. Singh.

In 2020, Dr. Sahib Singh was bestowed with the Shiromani Punjabi Natak Award, the highest award in this category, by the Punjabi Languages Department (Punjab, India).

Issue of caste has recently come into public domain in North America when the City of Seattle passed in February 2023 ordinance to ban cast based oppression in public services. Similar motion was also passed in the State of California by the Senate. In Canada, Toronto District School Board, City of Burnaby, and City of Brampton have also motions on this topic. Discussions with the BC government are also in process to take measures on addressing caste related discrimination in the province.

Free admission is available with complimentary passes. Visit:- www.chetna.ca  

 

अंबेडकरी आंदोलन के सजग प्रहरी और भीम पत्रिका के संपादक एल. आर. बाली का निधन

 अंबेडकरी आंदोलन के सजग प्रहरी और मासिक पत्र भीम पत्रिका, जालंधर के संपादक एवं लेखक एल.आर. बाली का छह जुलाई को दोपहर एक बजे निधन हो गया। आने वाले 20 जुलाई को वह 94 साल के होने वाले थे। इस उम्र में भी एल आर बाली बिल्कुल स्वस्थ और सक्रिय थे। उनके करीबियों ने बताया कि दोपहर एक बजे उन्होंने खाना खाया। इसके बाद उन्होंने तबियत खराब होने की बात कही, जिसके बाद उनके करीबी और रिश्तेदार उन्हें अस्पताल लेकर गए, जहां डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। एल. आर बाली की जीवन काफी संघर्ष भरा रहा और अंबेडकरी आंदोलन के लिए उन्होंने काफी काम किया। वह बाबासाहेब के संपर्क में लगभग 6 सालों तक रहे। अंबेडकर वांग्मय प्रकाशिक करवाने में भी उनकी बड़ी भूमिका रही।  बाबासाहेब द्वारा लिखे साहित्य को हिन्दी और पंजाबी पाठकों के लिए मुहैया कराने में भी उनकी बड़ी भूमिका रही। उन्होंने दर्जन भर से ज्यादा पुस्तकें लिखी थी। एल. आर. बाली ने रंगीला गांधी नाम की किताब लिखी थी, जिसको लेकर काफी विवाद हुआ था। वह अपनी आखिरी सांस तक भीम पत्रिका नाम से पत्र प्रकाशित करते रहें।

दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने पिछले साल सितंबर महीने में उनसे मुलाकात कर उनका इंटरव्यू लिया था।

आदिवासी युवक पर पेशाब करने वाला भाजपा कार्यकर्ता गिरफ्तार

pravesh-shukla-arrested-sidhiभाजपा के शासन वाले मध्य प्रदेश के सीधी जिले में आदिवासी पर पेशाब करने वाले भाजपा कार्यकर्ता प्रवेश शुक्ला को मंगलवार देर रात गिरफ्तार कर लिया गया। इस पर नशे की हालत में युवक पर पेशाब करने का आरोप है। मंगलवार को इसका एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था। कुबरी बाजार का यह वीडियो 10 दिन पुराना बताया जा रहा है। आरोपी भी सीधी जिले से 20 किलोमीटर दूर कुबरी गांव का ही रहने वाला है। इस विवाद होने के बाद पुलिस बहरी थाने की एक टीम प्रवेश को ढूंढ़ रही थी।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आरोपी पर एनएसए लगाने की घोषणा पहले ही कर रखी थी और युवक की गिरफ्तारी के बाद उस पर एनएसए लगा दिया गया है। सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल होने के बाद भाजपा के तमाम नेता घटना की निंदा भी कर रहे हैं। लेकिन भाजपा के नेता आरोपी प्रवेश शुक्ला से पल्ला झाड़ रहे हैं। कहा जा रहा है कि प्रवेश शुक्ला सीधी जिले से विधायक केदारनाथ शुक्ला का प्रतिनिधि रह चुका है। वहीं दूसरी ओर भाजपा की चुप्पी और प्रवेश शुक्ला से पल्ला झाड़ने के बाद कांग्रेस पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव ने भाजपा द्वारा जारी एक पत्र को ट्विटर पर शेयर किया है, जिसमें साफ दिख रहा है कि प्रवेश शुक्ला भाजपा के युवा मोर्चा में मंडल उपाध्यक्ष है।

इस मामले पर उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती ने ट्वीट कर आरोपी की संपत्ति जब्त करने की मांग की है। उन्होंने ट्विट में कहा, “एक आदिवासी/दलित युवक पर स्थानीय दबंग नेता के पेशाब करने की घटना अति शर्मनाक है। इस अमानवीय कृत्य की जितनी भी निंदा की जाए कम है। इसका वीडियो वायरल होने के बाद ही सरकार का जागना इनकी संलिप्तता को साबित करता है। यह भी अति-दुःखद। मुजरिम को बचाने व उसे अपनी पार्टी का न बताने आदि को त्याग कर अपराधी के खिलाफ केवल एनएसए नहीं, बल्कि उसकी संपत्ति जब्त/ध्वस्त करने की कार्रवाई करनी चाहिए।”

इस मामले में अब आरोपी के परिवार वाले मामले की लीपा-पोती में जुट गए हैं। आदिवासी युवक पर भी दबाव की बात सामने आई है। पीड़ित युवक ने तीन जुलाई को शपथ पत्र लिखकर फर्जी वीडियो को वायरल करने की बात कही है। हालांकि सवाल उठता है कि जब युवक की मानसिक हालत ठीक नहीं है, जैसा कि कई मीडिया रिपोर्ट में दावा किया जा रहा है, और जो युवक घटना का पुरजोर विरोध भी नहीं कर पाया, ऐसे में वह शपथ पत्र कैसे दाखिल कर सकता है? और वैसे भी… तस्वीरें झूठ नहीं बोला करती।

डा. तुलसीराम : कुछ यादें

21 जनवरी 1996 को साउथ एवेन्यु, दिल्ली में विमल थोरात की पीएचडी पुस्तक ‘मराठी दलित और साठोत्तरी हिन्दी कविता में सामाजिक और राजनीतिक चेतना’ के लोकार्पण-कार्यक्रम में मैंने पहली दफा डा. तुलसीराम को देखा और सुना था। चेचक के दागों से भरा उनका श्याम चेहरा देखकर मेरे जहन में जिगर मुरादाबादी और ओमपुरी का अक्स घूम गया था। प्रकृति ने दोनों को ही आकर्षक चेहरे नहीं दिए, पर एक में शे़र कहने की अगाध प्रतिभा थी, जिसने उन्हें महानतम शाइर बनाया, तो दूसरा एक बेहतरीन कलाकार के रूप में आज प्रसिद्ध है। तुलसीराम जी ने जब मंच पर अपने विचार रखे, तो उनके अगाध ज्ञान-भण्डार ने मुझे बहुत प्रभावित किया। उनका अद्वितीय सौंदर्य-बोध था। उन्होंने जिस बौद्ध-दृष्टि से दलित साहित्य की इतिहास-परम्परा को वहॉं रखा था, वह अद्भुत था। उसमें जातीय दृष्टि नहीं थी, बल्कि जाति-विरोध की चेतना पर जोर था। उनकी दृष्टि में दलित साहित्य का व्यापक दायरा था, जिसमें गैर-दलित भी दलित साहित्य लिख सकता था, अगर उसका लेखन वर्णव्यवस्था और जातिप्रथा के विरोध में है। उनके अनुसार दलित साहित्य की धारा का उद्गम बौद्ध साहित्य है। उन्होंने बौद्ध कवि अश्वघोष को जाति-विरोधी धारा का पहला कवि माना था, जिनकी कृति ‘वज्रसूची’ में वर्ण और जातिव्यवस्था का खण्डन मिलता है। मेरे लिए यह एकदम नया विचार था और काबिलेएतराज भी, क्योंकि उसे स्वीकारना मुश्किल था। बहरहाल, उस कार्यक्रम में उन्हें सिर्फ देखने-सुनने का ही अवसर मिला था, उनसे मुलाकात नहीं हो सकी थी। कार्यक्रम के बाद नमस्कार वगैरा की औपचारिकता ही शायद हो सकी थी। फिर भी, उनके व्यक्तित्व ने असर तो छोड़ा ही था।

शायद हम दोनों के बीच यह अपरिचय ही था, जब उन्होंने ‘भारत अश्वघोष’पत्रिका निकाली, तो उन्होंने न मुझे उसमें लिखने को कहा और न उसका कोई अंक मुझे भेजा। लेकिन, उसी दौरान जब मैंने ‘मांझी जनता’ का संपादन आरम्भ किया, तो मैंने उसका हर अंक उन्हें भेजा, बल्कि उसके लिए उनसे लिखने का अनुरोध भी किया था। उन्होंने ‘मांझी जनता’ के प्रकाशन पर अपनी खुशी इन शब्दों में प्रकट की थी—‘मांझी जनता’का हिन्दी प्रकाशन आपके निर्देशन में होगा, यह जानकर खुशी हुई। इस बीच आर्थिक अत्याचार की वजह से ‘अश्वघोष’ पत्रिका बन्द हो चुकी है। ऐसी स्थिति में ‘मांझी जनता’ का हिन्दी संस्करण निश्चित रूप से, दलित चेतना जगाने का महत्वपूर्ण काम करेगा। मुझे खुशी है।‘ (‘मांझी जनता’, 28 मई 2000)

दिल्ली मेरे लिए हमेशा ऐसी नगरी रही है, जहॉं जाने से मैं हमेशा बचता रहा हूँ। यहॉं तक कि कई महत्वपूर्ण सेमिनार भी इसलिए छोड़ देता हूँ कि दिल्ली का नाम सुनते ही हैवत सवार होने लगती है। इसलिए तुलसीराम जी को भी पुनः देखने का अवसर उसके कई साल बाद मिला। संयोग से यह दुबारा अवसर भी विमल थोरात के ही सौजन्य से उन्हीं के एक सेमिनार में मिला। वह सेमिनार शायद इंस्टीट्यूशनल ऐरिया, लोदी रोड स्थित भारतीय सामाजिक संस्थान के भवन में हुआ था। उस समय नागपुर में खैरलांजी-हत्याकाण्ड होकर चुका था। भारतीय लोकतन्त्र को कलंकित करने वाली वह घटना 29 सितम्बर 2006 को हुई थी। यह दीक्षा दिवस से एक दिन पहले की घटना है। मैं उस दिन नागपुर में ही था। दीक्षाभूमि पर नवबौद्धों और दलितों की विशाल भीड़ एकत्र थी, जिसमें अनेक नामी गिरामी दलित लेखक और नेता भी मौजूद थे। वे चाहते तो उस दिन खैरलांजी-कूच कर सकते थे, पर उन्होंने अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने से ज्यादा धम्मदीक्षा को महत्व दिया। उसके कुछ दिनों बाद कानपुर में डा. आंबेडकर की मूर्ति तोड़े जाने की प्रतिक्रिया इतनी तीव्र हुई कि महाराष्ट्र में कुछ दलित संगठनों ने ट्रेनों पर पत्थराव किए। लेकिन खैरलांजी की घटना के विरुद्ध उनकी उदासीनता समझ से परे थी। इन्हीं कुछ बातों पर मेरा एक लेख किसी अखबार में छपा था, जो तुलसीराम जी की निगाह से भी गुजरा था। उस लेख से वे असहमत और नाराज थे। सेमिनार में भी मैंने सम्भवतः इसी विषय पर कुछ बोलते हुए यह भी कह दिया था कि डा. आंबेडकर ने योरोपियों की ‘आर्यन थियोरी’ का खण्डन किया है। उस वक्त मुझे इस बात का बिल्कुल इल्म नहीं था कि तुलसीराम जी मुझसे जले-भुने बैठे थे और यह कहकर मैंने उनके क्रोध में और घी डाल दिया था। पता तब चला, जब उन्होंने अपने सम्बोधन में मेरा नाम लिए बगैर ‘एक दलित चिन्तक ने लिखा है…….’ कहकर मेरी कटु आलोचना की। जाहिर है कि सेमिनार के बाद मेरा उनसे विवाद होना ही था और यह विवाद तनावपूर्ण हो गया था। कहना न होगा कि इस सेमिनार में मैंने तुलसीराम जी को दूसरी बार देखा था, पर परिचय उनसे मेरा यह पहला ही था, जिसने एक प्रकार से तनाव ही पैदा कर दिया था।

2006 के इस सेमिनार के बाद मुझे याद आता है, एक बार मैं अपने बेटे मोग्गल्लान से मिलने दिल्ली गया था, जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में छात्रावास में रहकर पढ़ रहा था। जब मैं जेएनयू गया, तो खयाल आया कि क्यों न तुलसीराम जी से भी मिल लिया जाय। बेटे ने बताया कि वे यहीं दक्षिणापुरम में रहते हैं। मैंने फोन करके उनसे समय लिया। मन में आशंका थी कि उस विवाद के बाद वे शायद ही मिलना चाहें। पर आशंका गलत निकली। वह बोले, ‘इस समय घर पर हूँ, आ जाइए।’ बड़े लोग उच्चता की ग्रंथी नहीं पालते, यह कहाबत उनसे मिलने के बाद सही साबित हुई। वे उन दिनों केरल से अपनी एक ऑंख का आपरेशन कराके लौटे थे, बाकी ठीक-ठाक ही लग रहे थे। हॉं, उनकी पत्नी जरूर बीमार थीं, शायद अर्थराइटिस से पीड़ित थीं। उन्होंने मुझे यथेष्ठ सम्मान दिया। दरअसल मेरी समाजवादी राजनीतिक विचारधारा ने उनके और मेरे बीच की दूरी खत्म की थी। मेरी तरह वे भी कांशीराम और मायावती की राजनीति को पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद को मजबूत करने वाली समझते थे। इसलिए लगभग एक घंटे की उस मुलाकात में, जिसमें कोई तीसरा बन्दा शामिल नहीं था, हमारी बातें दलित साहित्य, दलित राजनीति और बौद्धधर्म के साथ-साथ दलितों को गुमराह करने वाले डा. धर्मवीर पर भी हुईं। पर इससे भी बड़ी उपलब्धि उस बातचीत की यह थी कि उन्होंने मुझे रूस में अपने प्रवास के अनुभव सुनाए थे, जो मेरे लिए दुर्लभ थे। यह जानकर मैं बहुत रोमांचित हुआ था कि उन्होंने मास्को में महापंडित राहुल सांकृत्यायन की रूसी पत्नी के पुत्र से मुलाकात की थी। आज मुझे लगता है कि वह पूरी बातचीत रिकार्ड करने लायक थी। डा. धर्मवीर के बारे में उन्होंने कहा था कि यह व्यक्ति दलित लेखकों की जातीय एकता भंग कर देगा। उनकी भविष्यवाणी आज सही साबित हुई। उनके आवास पर यही मेरी पहली और अन्तिम मुलाकात थी। इसके बाद उनसे सेमिनारों में तो मिलना हुआ, पर एक जगह बैठकर वैसी बातचीत फिर कभी नहीं हुई। हॉं, इस मुलाकात के बाद जो संकोच था, वह खत्म हो गया था और कुछ विशेष जानकारी के लिए मैंने उन्हें जब कभी भी फोन किया, उनका सकारात्मक रेस्पांस ही मिला।

29 नवम्बर 2010 को पटना विश्वविद्यालय, पटना में दलित साहित्य की सौन्दर्यशास्त्रीय समस्याओं पर एक राष्ट्रीय सेमिनार में मुझे व्याख्यान देना था। वहॉं पहुंचकर पता चला कि तुलसीराम जी भी आए हुए हैं। यह जानकर बहुत खुशी हुई कि चलो एक बार फिर उन्हें देखने और सुनने का अवसर मिल रहा है। सेमिनार में हम दोनों के सत्र अलग-अलग थे। मैं पहले सत्र के अध्यक्ष-मण्डल में शामिल था, अतः जाहिर था कि मुझे उसी सत्र में बोलना था। जब मैं बोल रहा था, तो मैंने देखा, तुलसीराम जी ने उसी समय हाल में प्रवेश किया था और श्रोतागण की अगली पंक्ति में बैठ गए थे। मेरे लिए यह भी खुशी की बात थी कि उन्होंने श्रोताओं के बीच बैठकर उस पूरे सत्र को अन्त तक सुना था। वरना, तो वे जिस ऊॅंचाई पर थे, उस स्तर के लोग अपने सत्र के समय ही हाल में प्रवेश करते हैं। मैं स्वयं कई सेमिनारों में नामवर सिंह को ऐसा करते देख चुका हूँ। अगला सत्र तुलसीराम जी का था। अब श्रोताओं के बीच बैठने की बारी हमारी थी। हमने पूरी तल्लीनता से तुलसीराम जी को सुना। मैंने देखा कि छात्रों के साथ-साथ प्रोफेसर भी उन्हें तन्मय होकर सुन रहे थे। यहॉं भी उनका सारा फोकस दलित साहित्य से ज्यादा बौद्ध साहित्य पर ही था। सत्र समाप्त होने के बाद उनसे औपचारिक बातचीत ही हुई, क्योंकि उन्हें उसी वक्त दिल्ली के लिए निकलना था। उसी दिन मुझे मालूम हुआ कि उन्हें हफ्ते में दो बार डायलिसिस करानी पड़ती है। अगले दिन उनकी डायलिसिस होनी थी। इसलिए उसी दिन उनका दिल्ली पहुंचना जरूरी था। हमने उन्हें एयरपोर्ट के लिए विदा किया। इस तरह यह उनसे मेरी चौथी मुलाकात थी।

मेरी अगली भेंट उनसे 8 नवम्बर 2012 को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में हुई थी। वहॉं हिन्दी विभाग ने ‘धर्म की अवधारणा और दलित चिन्तन’ विषय पर एक राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया था। इस सेमिनार में मैं मुख्य वक्ता था और तुलसीराम जी मुख्य अतिथि थे। मुख्य अतिथि के रूप में यहॉं भी उन्हें मेरे बाद ही बोलना था। पर, यहॉं मेरे साथ वे मंच पर उपस्थित थे। मैं जानता था कि तुलसीराम जी की दृष्टि में सिर्फ बुद्ध हैं और बुद्ध के सिवा कुछ नहीं है। उनकी धर्म की अवधारणा बुद्ध से शुरु होकर बुद्ध पर ही खत्म होती है। मैं इस अवधारणा से आज भी इत्तेफाक नहीं रखता। अतः मैंने अपने व्याख्यान में धर्म को पूंजीवाद का प्रपंच कहा और कबीर-रैदास का उदाहरण देते हुए इस बात पर जोर दिया कि दलित चिन्तन में धर्म की अवधारणा कभी भी वर्ण और जातिवादी नहीं रही। डा. आंबेडकर ने भी इसी सोच की वजह से बौद्धधर्म अपनाया था। इसलिए दलितों का धर्मान्तरण भी उन्हीं धर्मों में हुआ, जिनमें जातिभेद नहीं था। मैंने कहा कि दलित धर्म की अवधारणा में परलोक मिथ्या और जगत सत्य है। मैंने देखा कि तुलसीराम जी बहुत गौर से मुझे सुन रहे थे। लेकिन उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। अन्त में तुलसीराम जी का व्याख्यान हुआ। जैसा मैंने सोचा था, तुलसीराम जी के एक घण्टे के व्याख्यान के केन्द्र में बौद्ध साहित्य ही था। उन्होंने देर तक अश्वघोष की ‘बज्रसूची’ पर चर्चा की और उसके विकास के रूप में दलित धर्म को परिभाषित किया। मुझे सहसा 1996 का उनका वह वक्तव्य याद आ गया, जिसका जिक्र मैं शुरु में कर चुका हूँ। बौद्ध साहित्य पर उनका अध्ययन अगाध था, इसमें सन्देह नहीं; पर वे कोरे दार्शनिक नहीं थे। बुद्ध की करुणा और मैत्री ने उनके चिन्तन को समतावादी बनाया था। यद्यपि, वे राहुल सांकृत्यायन से प्रभावित थे। पर, उनकी जीवन-यात्रा राहुल जी से भिन्न थी। राहुल जी को बुद्ध की अगली मंजिल में कार्लमार्क्स मिले थे, पर तुलसीराम जी मार्क्स से आंबेडकर की ओर आए थे और आंबेडकर से बुद्ध तक पहुंचे थे। वे अन्त तक बुद्ध, मार्क्स और आंबेडकर के साथ ही जिए। इनमें से किसी भी एक को छोड़ना उनके लिए मुश्किल था। ये उनके चिन्तन के अनिवार्य त्रिरत्न थे।

6 अगस्त 2013 को उत्तर प्रदेश सरकार के एक तानाशाह मन्त्री ने मेरी एक फेसबुक टिप्पणी पर मुझे गिरफ्तार करा दिया था। यह खबर जब मीडिया ने प्रसारित की, तो दूसरे दिन तुलसीराम जी का फोन आया। बोले- ‘मैं आपके साथ हूँ, डरने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। यह समाजवादी सरकार नहीं है, फासीवादी सरकार है।’ यही नहीं, जब ‘जन संस्कृति मंच’ ने 11 अगस्त 2013 को प्रेस क्लब, नई दिल्ली में मेरी गिरफ्तारी और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के हनन के विरोध में प्रेस कांफ्रेंस की, तो जहॉं अन्य बहुत से दलित लेखकों ने अपने मुंह सिल लिए थे, वहॉं तुलसीराम जी और विमल थोरात ने पूरी शिद्दत से उसमें भाग लिया था। तुलसीराम जी ने उस कांफ्रेंस में उत्तर प्रदेश सरकार की लोकतन्त्र-विरोधी और फासीवादी नीतियों की जमकर आलोचना की। क्या पता था कि उस कांफ्रेस में मैं उनसे अन्तिम बार मिल रहा था। उसके बाद फिर कभी उनसे मिलना नहीं हो सका था।

हॉं, उनका एक फोन जरूर उसके कुछ दिन बाद आया था। हुआ यह था कि 8 अक्टूबर 2013 को तत्कालीन केन्द्रीय राज्य मंत्री जितिन प्रसाद ने बेगम नूर बानो और कांग्रेसी विधायक नवेद मियां के आवास ‘नूर महल’ में हार पहिनाकर मेरा स्वागत किया था। नूर महल ने इस स्वागत का फोटो इस खबर के साथ अखबारों को जारी कर दिया था कि मैंने कॉंग्रेस ज्वाइन कर ली है। अगले दिन 9 अक्टूबर के सभी अखबारों में वह फोटो इस हेडिंग के साथ छपा कि मैं कॉंग्रेसी हो गया हूँ। मैं हक्का-बक्का! पर, खण्डन इसलिए नहीं कर सका कि आजम के खिलाफ लड़ाई में मुझे कॉंग्रेस के समर्थन की जरूरत थी। लेकिन, इस खबर का छपना था कि देश भर से लानतें-मलानतों के फोन आने लगे। सबसे ज्यादा गुस्सा मुझे अपने वाम साथियों का झेलना पड़ा। इसी बीच तुलसीराम जी का फोन आया। मुझे लगा कि वे भी मेरी आलोचना ही करेंगे, पर नहीं, उन्होंने तो मुझे कॉंग्रेस में जाने पर बधाई दी। मेरे सफाई देने पर भी उन्होंने कहा कि मैंने सही पार्टी ज्वाइन की है, क्योंकि तमाम कमियों और भ्रष्टाचार के बावजूद कॉंग्रेस ही है, जिसमें अभी लोकतन्त्र बचा हुआ है। हालांकि मेरी स्थिति उस समय यह थी कि मुझे न उगलते बन रहा था और न निगलते। पर, उनकी बधाई आज भी मुझे सोचने पर मजबूर करती है।

अगस्त 2014 में दिल्ली विश्वविद्यालय के शोध छात्र एवं कवि धर्मवीर यादव ने मुझे फोन किया कि वह तुलसीराम सर पर एक पत्रिका के लिए विशेषांक निकालने की योजना बना रहे हैं, जिसके लिए वह मुझ से उनकी आत्मकथा पर कुछ लिखाना चाहते थे। इस के लिए मैंने उन्हें बधाई देते हुए कहा कि मैं उनकी आत्मकथा पर नहीं, पत्रकारिता पर लिखना चाहता हूँ, अगर मुझे ‘भारत अश्वघोष’ की फाइलें मिल जाएँ। उन्होंने सभी अंकों की फोटो प्रतियॉं कराकर भेजने की हामी भर ली। मुझे अगले महीने 20 सितम्बर को एक सेमिनार में नागपुर जाना था और 22 सितम्बर को वापस लौटना था। फ्लाइट दिल्ली से ही थी। अतः मैंने धर्मवीर को कहा कि वह मुझे 22 सितम्बर को सुबह दस बजे एयरपोर्ट पर या 11 बजे दरियागंज में स्वराज प्रकाशन में मिलें। कुछ बातचीत भी हो जाएगी और मैं वहीं आपसे ‘आश्वघोष’ के अंक ले लूँगा। इस तरह 22 सितम्बर को धर्मवीर कई घण्टे मेरे साथ रहे, तुलसीराम जी के बहुत सारे पहलुओं पर उनसे बातचीत हुई। मुझे यह जानकर खुशी हुई कि उन्होंने तुलसीराम जी के साथ निकट का आत्मीय सम्बन्ध बना लिया था। खैर, मैंने ‘डा. तुलसीराम और उनकी पत्रकारिता’ शीर्षक से साढ़े पॉंच हजार शब्दों का एक लम्बा लेख लिखा और 6 नवम्बर 2014 को धर्मवीर को मेल कर दिया। कुछ दिन बाद धर्मवीर यादव ने बताया कि उन्होंने उस लेख को तुलसीराम जी को पढ़कर सुनाया था, और उनकी प्रतिक्रिया काफी अच्छी थी। आज यह मेरे लिए गर्व की बात है कि उनके जीवन-काल में ही मैं उन पर कुछ लिखकर उनकी प्रशंसा पा सका था।

फरवरी 2015 के पहले हफ्ते की कोई तारीख थी, जब धर्मवीर यादव ने फोन पर खबर दी कि तुलसीराम जी सर गुड़गॉंव के अस्पताल में भर्ती हैं, और काफी सीरियस हैं। यह मेरे लिए क्या, पूरे साहित्यिक जगत के लिए अच्छी खबर नहीं थी। मैंने धर्मवीर यादव को कहा कि मैंने विश्व पुस्तक मेले के लिए दो दिन 19-20 फरवरी को दिल्ली में रहने का कार्यक्रम बनाया है। 20 को सुबह ही तुलसीराम जी से मिलने चलेंगे। पर, वह दिन कभी नहीं आया। 12 फरवरी को सुबह करीब 9 बजे धर्मवीर का फोन आया कि तुलसीराम जी सर को कल शाम ही गुड़गॉंव से ले आया गया था। लेकिन आज सुबह वे खत्म हो गए। मेरे लिए एकदम दुखद खबर थी। मैंने तत्काल फेसबुक पर लिखा- ‘मुर्दहिया’ और मणिकर्णिका’ आत्मकथा पुस्तकों के लेखक, समाजवादी चिन्तक और जेएनयू के प्रोफेसर डा. तुलसी राम नहीं रहे। हिन्दी साहित्य की यह बहुत बड़ी क्षति है।’इसके बाद तो फेसबुक पर श्रद्धांजलियों का तांता लग गया।

12 फरवरी को वे वहॉं चले गए- जहॉं से कोई लौटकर नहीं आता। जाने वालों की सिर्फ याद आती है। उनकी भी अब यादें ही आएंगी। हिन्दी में उनके लेखों की संख्या हजार से भी ऊपर हो सकती है। मगर वे असंकलित ही हैं, वरना उनके कई खण्ड प्रकाशित हो गए होते। अगर वे स्वस्थ रहे होते, तो अवश्य ही बहुत काम करते। पर डायलिसिस ने उनको तोड़कर रख दिया था। पिछले कुछ सालों से वे अपनी आत्मकथा लिख रहे थे, जिसके दो खण्ड- ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ प्रकाशित होकर व्यापक चर्चा में आ गए थे। 1997-98 में उन्होंने ‘भारत अश्वघोष’ का सम्पादन किया था। यही दो महत्वपूर्ण काम उन्हें साहित्य और पत्रकारिता में अमर बनाए रखेंगे। तुलसीराम जी सचमुच बहुत याद आते हैं।

आषाढ़ पूर्णिमा ही गुरु पूर्णिमा है, बुद्ध ही गुरु हैं

आषाढ़ी पूर्णिमा का दिन तथागत बुद्ध के अनुयायियों के लिए एक बड़ा दिन होता है। दरअसल बुद्धिस्टों के लिए हर पूर्णिमा खास होता है। 3 जुलाई को आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन जब गुरु पूर्णिमा मनाई जा रही है और लोग अपने गुरुओं को याद कर रहे हैं, बौद्ध धम्म के अनुयायी भी इस दिन बुद्ध को याद कर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं। धम्मा लर्निंग सेंटर, वाराणसी के प्रमुख भिक्खु चंदिमा ने सभी धम्म प्रेमियों को इस दिन की बधाई दी है। वो लिखते हैं- धम्मचक्कपवत्तन दिवस (आषाढी पूर्णिमा/गुरू पूर्णिमा) की मंगल कामनाएं। आज आषाढी पूर्णिमा है, आज ही के दिन तथागत बुद्ध ने सारनाथ में पंच वर्गीय भिक्खुओ को धम्मचक्कपवत्तनसुत्त का उपदेश दिया था। आषाढी पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा कहा जाता हैं। आइए! लोकगुरु, महागुरू, विश्वगुरू तथागत बुद्ध के प्रति कृतज्ञता भाव प्रकट करें।

पटना में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार और मिशन जय भीम पत्रिका के संपादक बुद्ध शरण हंस लिखते हैं- महान अर्थशास्त्री गौतम बुद्ध को कोटिश: नमन। आज ही के दिन आषाढ पूरनिमा को गौतम बुद्ध ने सारनाथ में ईसा से 500 वर्ष पहले सहज, सुखी, सम्मानित जीवन जीने के पांच सूत्र बतलायें। पहला आपस में लड़ाई झगड़ा मार-काट नहीं करने से इंसान सुखी रहेगा। किसी की कोई भी वस्तु की चोरी बेईमानी नहीं कर इंसान सुखी रहेगा। व्यभिचार से दूर रहकर इंसान सुखी रहेगा। झूठ या ग़लत बातें नहीं बोलकर इंसान सुखी रहेगा। किसी तरह का नशा- नहीं कर इंसान सुखी रहेगा। तब के विदेशीय आर्य वराहमनो में उपरोक्त सारे अवगुण थे। उन अवगुणों से बचने के लिए तथागत ने इसी आषाढ पूरनिमा के दिन पंचशील की शिक्षा दी थी। ऐसा ही शुभ हो। आपका जीवन मंगलमय हो।

धम्म चारिका करते भिक्खु चंदिमाबौद्ध विद्वान और लेखक एवं साहित्यकार आनंद श्रीकृष्ण ने सबको गुरु पूर्णिमा की बधाई देते हुए लिखा है- आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। आषाढ़ पूर्णिमा को ही तथागत गौतम बुद्ध ने सारनाथ के मृगदाय वन में पंचवग्गीय भिक्षुओं को धम्मचक्कपवत्तन उपदेश देकर धम्म देशना की शुरुआत की थी। इसलिए इस दिन को गुरु पूर्णिमा भी कहा जाता है। बुद्ध पूर्णिमा के बाद यह दूसरा महत्वपूर्ण दिन माना जाता है। इस दिन उपासक उपासिकाएं उपोसथ रखकर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं।

बौद्ध धम्म पर काफी तथ्यात्मक जानकारियां सामने लाने वाले इतिहासकार राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने भी बुद्ध पूर्णिमा की बधाई दी है। उन्होंने लिखा है- आषाढ़ पूर्णिमा ही गुरु पूर्णिमा है। बुद्ध ही गुरु हैं। बुद्ध ही गुरु हैं। इसी गुरु ने गुरु पूर्णिमा के दिन सारनाथ में पहली बार सार्वजनिक ज्ञान दिया था। बुद्ध ही गुरु हैं। इनकी ही शिक्षाएँ दुनिया भर में अनूदित हुईं। बुद्ध ही गुरु हैं। अनेक देशों में इसी गुरु के कारण अनेक शिक्षा – केंद्र खोले गए। बुद्ध ही गुरु हैं। इन्हीं का ज्ञान पाने के लिए अनेक विदेशी भारत आए। बुद्ध ही गुरु हैं। अनेक भिक्खुओं ने इसी गुरु के ज्ञान का अनेक देशों में प्रचार किए। बुद्ध ही गुरु हैं। इसलिए अनेक देशों में पढ़ाई का सत्र गुरु पूर्णिमा के माह जुलाई से आरंभ होता है। बुद्ध ही गुरु हैं। अनेक राजाओं ने गुरु पूर्णिमा के दिन अनेक भिक्खु – संघों को शिक्षा हेतु अनेक गाँव दान दिए।

   

युनिफॉर्म सिविल कोड के रूप में क्या भाजपा को मिल गया 2024 का मुद्दा?

2019 का लोकसभा चुनाव याद है न। भाजपा सत्ता में वापसी के लिए जोर लगा रही थी, कांग्रेस पार्टी भाजपा को रोकने के लिए जोर लगा रही थी। तमाम गठबंधन किये जा रहे थे। भाजपा के मुकाबले में कांग्रेस पार्टी टक्कर देती हुई दिख रही थी कि तभी पुलवामा का अटैक हो गया। और अचानक सारे समीकरण अचानक से भाजपा के पक्ष में हो गए। हालांकि बाद में पुलवामा का पोस्टमार्टम होने के बाद कई दूसरी सच्चाईयां सामने आई और मोदी सरकार पर आरोप लगा कि यह सब चुनाव जीतने के लिए की गई साजिश थी।

2024 का चुनाव सामने है। और इस बार युनिफॉर्म सिविल कोड का मुद्दा उठा है। खबर है कि युनिफॉर्म सिविल कोड पर संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार द्वारा बिल लाया जाएगा। यानी एक बार फिर से भाजपा इशारे में हिन्दु तुष्टिकरण कर सत्ता में वापसी की तैयारी में है। क्योंकि युनिफॉर्म सिविल कोड का मुद्दा उठने पर सबसे ज्यादा विरोध मुसलमानों की ओर से होगा, और देश में जिस तरह का माहौल बना दिया गया है, उसमें मुसलमान परेशान यानी हिन्दुओं का बड़ा हिस्सा खुश।

यानी सत्ता पक्ष महंगाई, बेरोजगारी, देश में फैली अव्यवस्था, धर्मों के बीच आपसी दुश्मनी जैसे मुद्दों को फिर से किनारे रखकर युनिफॉर्म सिविल कोड जैसे भावनात्मक मुद्दों को हवा देने में जुट गई है।

पीएम नरेन्द्र मोदी ने भोपाल में भाजपा के कार्यक्रम में इसकी शुरुआत कर दी है। पीएम मोदी का कहना है कि भारत में रहने वाले 80 प्रतिशत मुसलमान ‘पसमांदा, पिछड़े, शोषित’ हैं। यानी एक तीर से भाजपा दो शिकार करने की रणनीति पर काम कर रही है। सवाल है क्या कल तक मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने वाली और उनको टिकट बंटवारे से लेकर मंत्रिमंडल तक से दूर रखने वाली भाजपा अब मुसलमानों के एक बड़े समूह को दलित और पिछड़ा पहचान के साथ खुद से जोड़ना चाहती है?

हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस बयान पर बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने तुरंत पीएम मोदी को चुनौती देते हुए पसमांदा मुसलमानों के लिए आरक्षण मांग लिया। बसपा प्रमुख ने पीएम मोदी के बयान का हवाला देते हुए कहा कि पीएम मोदी का बयान यह उस कड़वी जमीनी हकीकत को स्वीकार करना है जिससे उन मुस्लिमों के जीवन सुधार हेतु आरक्षण की जरूरत को समर्थन मिलता है।

अतः अब ऐसे हालात में बीजेपी को पिछड़े मुस्लिमों को आरक्षण मिलने का विरोध भी बंद कर देने के साथ ही इनकी सभी सरकारों को भी अपने यहाँ आरक्षण को ईमानदारी से लागू करके तथा बैकलॉग की भर्ती को पूरी करके यह साबित करना चाहिए कि वे इन मामलों में अन्य पार्टियों से अलग हैं।

दरअसल बीते दिनों में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर बहस तेज हो गई है।

जहां तक यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात है तो इसका मतलब है, भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए एक समान कानून होना, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो। यानी हर धर्म, जाति, लिंग के लिए एक जैसा कानून। अगर सिविल कोड लागू होता है तो विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेना और संपत्ति के बंटवारे जैसे विषयों में सभी नागरिकों के लिए एक जैसे नियम होंगे।

समान नागरिक कानून का जिक्र पहली बार 1835 में ब्रिटिश काल में किया गया था। उस समय ब्रिटिश सरकार की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि अपराधों, सबूतों और ठेके जैसे मुद्दों पर समान कानून लागू करने की जरूरत है। संविधान के अनुच्छेद-44 में सभी नागरिकों के लिए समान कानून लागू करने की बात कही गई है। लेकिन फिर भी भारत में अब तक इसे लागू नहीं किया जा सका। भारत में आबादी के आधार पर हिंदू बहुसंख्‍यक हैं, लेकिन फिर भी अलग-अलग राज्‍यों में उनके रीति रिवाजों में काफी अंतर मिल जाएगा। सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई और मुसलमान आदि तमाम धर्म के लोगों के अपने अलग कानून हैं। ऐसे में अगर समान नागरिक संहिता को लागू किया जाता है तो सभी धर्मों के कानून अपने आप खत्‍म हो जाएंगे।

इसको लागू करने की चर्चा लंबे समय से चल रही है लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह इस पर बयान देकर इस मुद्दे को हवा दी है, उससे लग रहा है कि विपक्षी एकता और राहुल गांधी के बढ़ते प्रभाव से परेशान भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव में इसे मुद्दा बनाकर राजनीतिक चाल चल सकती है।

चंद्रशेखर ने जारी किया बयान, “आप चंद्रशेखर को गोली और बंदूकों से न तो झुका सकते हैं न डरा सकते हैं और न ही डिगा सकते हैं”

(चंद्रशेखर आजाद, राष्ट्रीय अध्यक्ष आजाद समाज पार्टी)

कल घात लगाकर मेरे ऊपर किए गए जानलेवा हमले की निंदा करने और मेरे प्रति संवेदना प्रकट करने वाले मित्रों, नेताओं व शुभचिंतकों का दिल से आभार प्रकट करता हूं। कल की तरह की घटना आज भले हीं मेरे साथ घटी है लेकिन आगे किसी भी समय ऐसी घटनाएं किसी भी दूसरी राजनीतिक पार्टियों के प्रमुखों और उनके समर्थकों के साथ घट सकती है। इसकी दो वजहें हैं। पहला ये कि उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था लगातार बद से बदतर होती जा रही है और दूसरा ये कि सरकार अपराधियों को जाति और धर्म के आधार पर प्रश्रय देकर उसे संरक्षण प्रदान कर रही है, जिससे सरकार समर्थित अपराधियों के हौसले बुलंद हैं। उनको आज न तो कानून का भय है और न हीं पुलिस का।

आज भारत के लोकतान्त्रिक मूल्य और बाबा साहेब का संविधान दोनों हीं खतरे में हैं। जब सरकार समर्थित बेखौफ घूमते अपराधी मेरे जैसे राजनेतों की आवाजों को खामोश करने के लिए हमले कर सकते हैं, खुलेआम कई राऊंड गोलियां चला सकते हैं तो इस प्रदेश की बहु- बेटियां, दलित, पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंख्यकों के ऊपर कितना जुल्म और अत्याचार किया जा रहा है इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। सत्ता के नशे में लोग इतने पागल हो गए हैं कि ये अपने विरुद्ध उठने वाली आवाजों को मिटा देने पर तुले हैं।हमले में घायल आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद से मिलने पहुंचे पूर्व मंत्री एवं मिशन जय भीम के संयोजक राजेन्द्र पाल गौतम

पहले ये लोग इसके लिए ED,CBI और इनकम टैक्स अधिकारियों का दुरुपयोग किया करते थे, फिर फेक पुलिस इनकाउंटर करवाने लगे और अब तो विपक्षी नेताओं को खत्म करने के लिए सरकार समर्थित अपराधी सीधे बंदूक-गोलियों से हमले करने लगे हैं। वो भूल रहे हैं कि भारतवर्ष का इतिहास हमारे पूर्वजों की कुर्बानियों से भरा पड़ा है। वो भूल रहे हैं कि आज भी हमारा बहुजन समाज बिना डरे सीमाओं पर अपनी जान देकर इस देश की रक्षा में जुटा है। मैं भी उसी समाज का एक हिस्सा हूं। इसलिए आप चंद्रशेखर को गोली और बंदूकों से न तो झुका सकते हैं न डरा सकते हैं और न ही डिगा सकते हैं। मेरा 56 इंच का सीना असली है नकली नहीं।

मेरे ऊपर हुआ जानलेवा हमला सरकार की विफलता है क्योंकि प्रदेश के जनता की सुरक्षा सरकार की जिम्मेदारी होती है और मैं भी प्रदेश का एक जिम्मेदार नागरिक हूं। बीजेपी राज्य में बेखौफ अपराधियों को संरक्षण देने की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकारते हुए मुख्यमंत्री जी को तत्काल प्रभाव से त्यागपत्र दे देना चाहिए।


यह बयान आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद द्वारा सोशल मीडिया पर जारी किया गया है। 

चंद्रशेखर आज़ाद से मिलने पहुंचे राजेन्द्र पाल गौतम, कर दिया बड़ा ऐलान

हमले में घायल आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद से मिलने पहुंचे पूर्व मंत्री एवं मिशन जय भीम के संयोजक राजेन्द्र पाल गौतमदिल्ली सरकार के पूर्व मंत्री और मिशन जय भीम के संयोजक राजेन्द्र पाल गौतम भीम आर्मी प्रमुख और आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद से मिलने पहुंचे। चंद्रशेखर आजाद पर 28 जून को हमला हुआ था, जिसमें चंद्रशेखर आजाद घायल हो गए थे और फिलहाल सहारनपुर के अस्पताल में भर्ती हैं। हालांकि इस हमले में चंद्रशेखर बाल-बाल बचे और गोली बस उन्हें छूकर निकल गई। यह भी कहा जा रहा है कि गोली के छर्रे उनके पेट में लग गए, जिससे उनके पेट में जख्म बन गया है। चंद्रशेखर पर देवबंद में उस वक्त हमला हुआ था, जब वो दिल्ली से सहारनपुर लौट रहे थे।

मुलाकात के दौरान राजेन्द्र पाल गौतम ने चंद्रशेखर आजाद से उनका हाल जाना और उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना की। पूर्व मंत्री ने भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद की सुरक्षा व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए पुलिस के अधिकारियों से बात की। चंद्रशेखर आजाद से मिलने के बाद राजेन्द्र पाल गौतम ने वहां मौजूद कार्यकर्ताओं को भी संबोधित किया।

चंद्रशेखर आजाद पर चली गोली, बाल-बाल बच गए भीम आर्मी प्रमुख

चंद्रशेखर आजाद पर चली गोली, देवबंद के अस्पताल में घायल भीम आर्मी प्रमुख भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद पर अपराधियों ने हमला कर दिया है। चंद्रशेखर पर चार राउंड गोली चली। गोली से उनकी गाड़ी का शीशा टूट गया। हालांकि चंद्रशेखर को गोली छू कर निकल गई। गोली उनके पेट के पास से गुजरी। चंद्रशेखर दिल्ली से सहारनपुर जा रहे थे। रास्ते में देवबंद में उन पर फायरिंग हुई। आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष और भीम आर्मी प्रमुख फिलहाल सुरक्षित हैं और देवबंद के एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा है। देखिए पूरी खबर-

शिक्षा के क्षेत्र में छोटी पहल बदल रही है नई पीढ़ी की जिंदगी

उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले में बनखण्डा गांव में शुरू हुई भारत रत्न डॉ. बी. आर. अम्बेडकर लाइब्रेरी। इसे 'मिशन पे बैक टू सोसाइटी', गाजियाबाद द्वारा संचालित किया जाता है।

दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश में एक जिला है हापुड़। और हापुड़ में है गांव बनखण्डा। इस गांव में जाटव और वाल्मीकि समाज के घर सबसे ज्यादा है। 200 से ज्यादा घर तो अकेले जाटवों के हैं, और उसी से सटा है वाल्मीकि मुहल्ला। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तमाम गांवों की तरह यह गांव भी शुरुआती तौर पर ठीक-ठाक है। यानी छोटे ही सही, ज्यादातर मकान पक्के हैं। लोग मेहनत कर अपने परिवार का पेट भर लेते हैं। यहां अप्रैल के महीने में दूसरे रविवार को काफी हलचल थी। एक जगह पर सामियाना गिरा हुआ था और सौ से ज्यादा बच्चे वहां इकट्ठा थे। बच्चों के साथ उनके माता-पिता या फिर घर का एक बड़ा मौजूद था।

दरअसल वहां दलित समाज के कुछ अधिकारियों को आना था। ये अधिकारी “मिशन पे बैक टू सासाइटी” नाम से एक संगठन चलाते हैं और इस दिन इस गांव में एक पुस्तकालय (लाइब्रेरी) का उद्घाटन होना था। इसका नाम था ‘भारत रत्न डॉ. बी. आर. अंबेडकर पुस्तकालय’। 9 अप्रैल 2023 को इस पुस्तकालय का उद्घाटन मिशन पे बैक टू सोसाइटी के अध्यक्ष जे. सी आदर्श के हाथों हुआ। जे. सी आदर्श रिटायर्ड पीसीएस अधिकारी हैं।

इस लाइब्रेरी को शुरू हुए लगभग ढाई महीने हो चुके हैं। यहां की दीवारों पर कई समाज सुधारकों के शिक्षा को लेकर कही गई बातें लिखी गई हैं। रविवार का दिन था। बच्चों की चहल-पहल साफ दिख रही थी। इस बीच में इस छोटी सी पहल का गांव के लोगों और पढ़ने वाले बच्चों पर क्या फर्क पड़ा, हमने इसकी पड़ताल की।

तनुजा कुमारी

हमें यहां ग्रेजुएशन थर्ड ईयर में पढ़ने वाली तनुजा मिली। तनुजा की उम्र की ज्यादातर लड़कियों की शादी हो चुकी है। लेकिन तनुजा पढ़ना चाहती हैं और इसी ललक ने उन्हें इस लाइब्रेरी से जोड़ा है। तनुजा खुद इस लाइब्रेरी में पढ़ने के साथ-साथ छोटे बच्चों को पढ़ाती भी हैं। वह कहती हैं, “यहां लोग अपने बेटों को तो पढ़ाते हैं, लेकिन लड़कियों की शादी जल्दी हो जाती है। मुझे पढ़ना था, मेरे माता-पिता ने मेरी बात मान ली।” डॉ. अंबेडकर पुस्तकालय के शुरू होने से क्या फर्क पड़ा। पूछने पर तनुजा कहती हैं, “पढ़ाई नहीं कर पाने की एक वजह गरीबी भी है। कई किताबें चाहिए होती हैं। घर वाले महंगे किताब खरीद नहीं पाते। लेकिन लाइब्रेरी में हर महीने नई किताबें, रोज न्यूज पेपर आते हैं। इससे हमें तैयारी करने में आसानी होती है।”

यहीं हमें डॉ. जयंत कुमार मिले। डॉ. जयंत का यह पुस्तैनी गांव है, लेकिन फिलहाल जनपद अमरोहा में सरकारी नौकरी में हैं। जयंत इस लाइब्रेरी के लिए इनवर्टर डोनेट कर रहे हैं। जयंत गांव आए तो इस लाइब्रेरी को देखने आएं। जयंत कहते हैं, ‘हमारे परिवार में सभी लोग सरकारी नौकरी में हैं। लेकिन बीते दो दशकों में यहां से सरकारी नौकरी में बस इक्के-दुक्के लोग ही पहुंच पाएं। मैंने लाइब्रेरी में नए बच्चों का उत्साह देखा है। यह बहुत सराहनीय कदम है। मैंने देखा कि बिजली चले जाने से बच्चों के पढ़ाई में दिक्कत आ रही है तो मैंने लाइब्रेरी के लिए इनवर्टर खरीद कर दिया।’लाइब्रेरी के लिए इनवर्टर दान करने वाले डॉ. जयंत कुमार

इसके संचालक मोनू सिंह का कहना है कि बच्चे अब पढ़ाई को लेकर ज्यादा सगज हैं। उनके घरवाले भी बच्चों को टाइम से लाइब्रेरी भेजते हैं। ढाई महीने में ही काफी बदलाव दिखा है। यानी साफ है कि मिशन पे बैक टू सोसाइटी की ओर से की गई छोटी सी पहल इस गांव में पढ़ाई के प्रति बच्चों में उत्साह लेकर आया है। बच्चे सुबह-शाम यहां पढ़ने आते हैं। आपस में चर्चा करते हैं। नई जिंदगी के सपने बुनते हैं। कुछ बड़ा करने के लिए मेहनत कर रहे हैं।

राजेन्द्रपाल गौतम ने बहुजन नेताओं को ललकारा, बहुजनों की राजनीतिक एकता का दिया रोडमैप

जब देश में भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की कवायद जोर पकड़ने लगी है, ऐसे में एक मांग एससी, एसटी और ओबीसी के नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों के बीच आपसी एकता की चर्चा भी शुरू हो गई है। दिल्ली सरकार में पूर्व मंत्री और सीमापुरी से विधायक राजेन्द्र पाल गौतम ने इसको लेकर अभियान चलाने का ऐलान किया है। मिशन जय भीम के तहत बहुजन समाज के मुद्दों को लगातार उठा रहे हैं। राजेन्द्र पाल गौतम ने 27 जून को एक प्रेस कांफ्रेंस कर विपक्षी एकता के बीच बहुजन समाज के नेतृत्व वाले दलों के बीच राजनीतिक एकता का मुद्दा उठाया।

राजेन्द्र पाल गौतम ने कहा कि तमाम राजनैतिक लड़ाईयों के बावजूद क्या समाज से जुड़े अहम मुद्दों पर दलितों-पिछड़ों के नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों को साथ नहीं आना चाहिए। उन्होंने कहा कि वो समाज के बीच जाएंगे और उन्हें इसके लिए तैयार करेंगे कि वो राजनीतिक दलों पर दबाव बनाएं। उन्होंने बसपा सुप्रीमो मायावती, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव सहित नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, एम. के. स्टॉलिन और चंद्रशेखर आजाद जैसे नेताओं को दलितों-पिछड़ों के विकास से जुड़े मुद्दों पर एक साथ आने की मांग की।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के दिल्ली के जगन्नाथ मंदिर में प्रतिमा को दूर से प्रणाम करने को लेकर भी उन्होंने सवाल उठाया। दरअसल सोशल मीडिया पर वायरल हो रही तस्वीरों को आधार बनाते हुए राजेन्द्र पाल गौतम ने कहा कि दलित और पिछड़े समाज के गरीब लोगों के साथ भेदभाव होता ही है, लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद भी हमारे समाज के लोगों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

राजेन्द्र पाल गौतम ने अन्य कई अहम मुद्दों पर भी अपनी बात रखी। उनकी पूरी बातचीत देखने के लिए दलित दस्तक यू-ट्यूब चैनल पर चल रहे उनका यह वीडियो देखिए-

सुप्रीम कोर्ट के वकील ने कविता में लिख डाला भारत का संविधान

सुप्रीम कोर्ट के वकील अनिरुद्ध कुमार ने भारतीय संविधान को लेकर एक नई पहल की है। उन्होंने भारतीय संविधान को कविता के रूप में लिखा है। पुस्तक का नाम है, भारत का संविधान काव्य। इस पुस्तक को सम्यक प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। अपनी इस पुस्तक को लेकर अनिरुद्ध काफी उत्साहित हैं। उनका कहना है कि भारत का संविधान जिस रूप में जिस किसी तक भी पहुंचे, वह बहुत जरूरी है। हर किसी को अपने संवैधानिक अधिकारों और मूल अधिकारों को जानना चाहिए। काव्यात्मक शैली में संविधान लिख कर मैंने इसे आम लोगों के लिए और ज्यादा आसान बनाने की कोशिश की है। दलित दस्तक के यू-ट्यूब चैनल के लिए अनिरुद्ध ने इस बारे में विस्तार से बातचीत की। देखिए वीडियो-

 

अमेरिका के न्यूयॉर्क में बाबासाहेब आंबेडकर के नाम पर सड़क

अमेरिका के न्यूयार्क से शानदार खबर आई है। यहां एक रोड का नाम बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के नाम पर घोषित किया गया है। अब तक 61 स्ट्रीट और ब्रॉडवे के नाम से जाने जाने वाली सड़क को अब ‘डॉ. बी. आर. अंबेडकर वे’ भी कहा जाएगा। भारत से बाहर दुनिया के किसी भी हिस्से में संभवतः यह पहला मौका है, जब किसी सड़क का नाम बाबासाहेब आंबेडकर के नाम पर रखने की घोषणा हुई है। अमेरिका में यह इतिहास 25 जून को तब मना जब भारत में डॉ. आंबेडकर के संघर्ष में अहम भूमिका निभाने वाले छत्रपति शाहूजी महाराज की जयंती मनाई जा रही थी।

इसमें न्यूयार्क के श्री गुरु रविदास मंदिर समिति की अहम भूमिका रही है। दरअसल बीते दिनों रविदास जयंती के मौके पर न्यूयार्क स्थित श्री गुरु रविदास मंदिर पर जिस तरह हजारों लोग शामिल हुए, उससे स्थानीय तौर पर हलचल मच गई। तभी से रविदासिया समाज और बाबा साहेब को मानने वाले लोगों को लेकर स्थानीय प्रशासन गंभीर था। साथ ही इस समाज को अपने पाले में लाने के लिए भी कोशिशें शुरू हो गई। इसी बातचीत के बाद डॉ. बी. आर अंबेडकर वे बनने का रास्ता निकला। यहां तक की न्यूयार्य में डिस्ट्रिक्ट 26 की काउंसिल मेंबर जूली वोन ने खुद इसकी जानकारी ट्विट की और डॉ. आंबेडकर को महान बताते हुए उनके योगदान का जिक्र किया।

जब इस सड़क को आधिकारिक तौर पर अनाउंस किया गया, और नाम पर से पर्दा हटा तो वहां इस खास पल को सेलिब्रेट करने के लिए हजारों अंबेडकरवादी मौजूद थे। खास बात यह भी रही कि इस मौके का साक्षी बनने के लिए अमेरिका के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले तमाम अंबडकरवादी पहुंचे थे। उन सभी ने जय भीम के नारे के साथ इस पल को अपने कैमरों में कैद किया। जो तस्वीरें सामने आई है, उसमें कई चेहरे ऐसे हैं, जो अमेरिका दौरे के वक्त साथ थे। इसमें वाशिंगटन से डॉ. गौरव पठानियां, न्यूयार्क के पिंदर पॉल, जिनकी चमचमाती मर्सीडीज का नंबर प्लेट जय भीम है, उनके साथ ही न्यूयार्क के श्री सतगुरु रविदास मंदिर के तमाम साथी, आर. बी. गौतम जो कि न्यूजर्सी में रहते हैं, वो भी इस मौके पर न्यूयार्क में मौजूद थे। तो भारत से के. पी. चौधरी भी इस मौके पर न्यूयार्क पहुंचे थे।

बसपा की राजनीतिक चुनौतियां और समाधान

पिछले दिनों आए उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों के परिणामों ने बहुजन समाज पार्टी की मुश्किलों को और बढ़ा दिया. बसपा इस बार दलित मुस्लिम समीकरणों को साधने का सीधा प्रयास कर रही थी लेकिन परिणाम अपेक्षा के अनुकूल नहीं रहे. भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों में 17 बटा 17 का परिणाम हासिल किया और नगर पालिका परिषद अध्यक्ष और नगर पंचायतों के चेयरमैन पद पर भी भाजपा का ही दबदबा रहा. सीधे तौर पर कहे तो बसपा विधानसभा चुनाव के खराब परिणामों के बाद उभरने के अपने प्रयासों में एक बार फिर चूक गई.

उत्तर प्रदेश में बसपा को मिल रही लगातार हार और घट रहा जनाधार बहुजन राजनीति और बहुजन आंदोलन के लिए चिंता का विषय है. दलित आंदोलन आज हाशिए पर पहुंच चुका है और राजनीतिक दलों ने अब वर्गों को साधने की बजाए एक नया वर्ग पैदा कर दिया है जिसका नाम है लाभार्थी. कांग्रेस पार्टी आम आदमी पार्टी की तर्ज पर चल चुकी है और मुफ्त सुविधाएं अपने मेनिफेस्टो में घोषित करके लोगों को आकर्षित करने में कामयाब हो रही है. ऐसे में बहुजन समाज पार्टी के सामने कई चुनौतियां खड़ी होने वाली है. इन सब परिणामों के बीच यह तथ्य रेखांकित करना जरूरी है कि विधानसभा चुनाव में अब भी बसपा को 1 करोड़ से अधिक वोट प्राप्त हुए थे.

बसपा के अब तक के विभिन्न राज्य के परिणामों और बसपा की राजनीतिक कवायद को गहनता से समझते हैं. राजनीतिक आंकड़ों के लिहाज से, 2007 से 2012 के बीच 5 सालों की पूर्ण बहुमत की सरकार बहुजन समाज पार्टी का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है. भारत के सबसे बड़े और राजनीतिक रूप से सबसे जटिल राज्य में अपने बूते पर सरकार बनाकर उसे सफलतापूर्वक चलाना बसपा के लिए किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं था. उससे पहले भी बहुजन समाज पार्टी यूपी में तीन बार सत्ता पर काबिज हो चुकी थी. यूपी के बाहर बहुजन समाज पार्टी किसी भी राज्य में अब तक सत्ता के आसपास भी नहीं पहुंची है. केवल कर्नाटक ही ऐसा राज्य है जहां बसपा के एकमात्र विधायक एन महेश को देवेगौड़ा के पुत्र एचडी कुमार स्वामी की सरकार में मंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. हालांकि यह उपलब्धि थोड़े दिनों तक ही रह सकी. कई राज्यों में विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों में भी बसपा का प्रदर्शन शानदार रहा है. 2014 उत्तर प्रदेश लोकसभा चुनाव में भी बसपा को 19.77 प्रतिशत यानी लगभग एक करोड़ 59 लाख 14 हजार वोट पड़ा लेकिन सीट एक भी हाथ नहीं लग पाई. लोकसभा में पूरी तरह से शून्य हो जाना बहुजन विश्लेषकों और बसपा के लिए चिंता का विषय रहा होगा. कहा गया कि 2014 में मोदी लहर में यूपी के सभी विरोधियों के मजबूत किले ढह गए. 2019 लोकसभा चुनाव बसपा ने सपा और रालोद के साथ मिलकर लड़ा जिसमें बसपा को 10 जबकि समाजवादी पार्टी को पांच सीटों पर जीत मिली. 2017 में उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव हुए जिसमें बसपा ने 2 नगर निगमों के मेयर – अलीगढ़ से मोहम्मद फुरकान और मेरठ से सुनीता वर्मा को जिताने में कामयाबी हासिल की. इस दौरान कई विधानसभा चुनावों के भी चुनाव हुए जिसमें बसपा ने अपने ढर्रे की राजनीति करते हुए औसत प्रदर्शन किया. बसपा के समर्थक और कई राजनैतिक विश्लेषक भी मान के चल रहे थे की 2007 से तीनों पार्टियों की पूर्ण बहुमत की सरकार के बाद 2022 विधानसभा चुनाव में बसपा जरूर वापसी करेगी, लेकिन परिणाम केवल बसपा के लिए नहीं सबके लिए चौंकाने वाले रहे. बसपा ने 2022 में लगभग 13% वोट के साथ केवल एक विधानसभा सीट जीत पाई.

2022 के यूपी विधानसभा चुनाव परिणाम बसपा के लिए अब तक की सबसे बड़ी राजनीतिक हार कही जा सकती है. ऐसा इसलिए भी कि सरकार बनाना या ना बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण था कि बसपा का 19-20% का वोट हमेशा इंटैक्ट रहता था जिसमें इस बार भारी गिरावट आई. व्यापक राजनीतिक परिदृश्य और देश में व्याप्त राजनैतिक माहौल के मद्देनजर बसपा के लगातार घट रहे जनाधार का विश्लेषण करें तो इसमें भारतीय जनता पार्टी द्वारा की जा रही एग्रेसिव, धर्म आधारित राजनीति और ध्रुवीकरण को एक बड़ा कारण माना जा सकता है. लेकिन इस विवेचना के मध्य में अगर बसपा की राजनीति और उनके क्रियाकलापों को रख दिया जाए तो ऐसे में बहुजन समाज पार्टी की राजनीति, उनके संगठनात्मक ढांचे की खामियां और उनकी नीतियों और चुनाव लड़ने के तौर-तरीकों पर से ध्यान हट जाएगा जो कि बसपा की आज इस राजनैतिक सामाजिक दुर्दशा के मूल कारण है. बसपा ने इन सब चुनाव परिणामों के बाद कभी अपने अंदर झांक कर आंतरिक कारणों को तलाशने की बजाय हमेशा किसी राजनैतिक परिस्थिति या षड्यंत्र को अपनी हार की वजह बताया. आज बसपा एक ऐसे राजनीतिक मोड़ पर खड़ी है जहां से आगे की राजनीति धुंधली नजर आ रही है. आज बसपा सबसे निष्क्रिय पार्टी के रूप में नजर आ रही है जिसकी सोशल मीडिया पर कुछ खास पकड़ नहीं है, राजनीति के तौर तरीके लगभग दो दशक पुराने और बसपा के पुराने वोटरों से बसपा का भावनात्मक लगाव खत्म सा हो गया है. बहुत हद तक बसपा अब अपने कद्दावर और रसूखदार प्रत्याशियों पर निर्भर हो गई है. इससे बसपा की राजनैतिक और सामाजिक ताकत निश्चित ही कम हुई है. आज बसपा यूपी विधानसभा में एक सीट पर, लोकसभा में 10 सीट पर, डॉ अशोक सिद्धार्थ और सतीश चंद्र मिश्रा के कार्यकाल समाप्ति के बाद राज्यसभा में एक सीट पर और कुछ राज्यों में एक-दो विधानसभा सीटों पर काबिज है.

वैसे कई राज्यों में बसपा ने मजबूत राजनीतिक पकड़ बनाई हुई थी. कुछ जगह तो ऐसे परिणाम आए कि सबको चौंका दिया. विधानसभा चुनावों से इतर कई राज्यों में बसपा ने लोकसभा की सीटों पर भी परचम लहराए हैं. इनमें पंजाब और मध्य प्रदेश मुख्य रूप से शामिल हैं. एक सीट बसपा ने हरियाणा से भी जीती थी जब अमन कुमार नागरा ने अंबाला लोकसभा क्षेत्र से भाजपा के कद्दावर नेता सूरजभान को हराया था. मध्यप्रदेश के सतना लोकसभा में भी बसपा के 32 वर्षीय प्रत्याशी सुखलाल कुशवाहा ने एक समय कांग्रेस-भाजपा के दो पूर्व मुख्यमंत्री को एक साथ हराकर राजनीतिक भूचाल ला दिया था. पंजाब में भी बसपा और अकाली दल के पिछले गठबंधन में दोनों पार्टियों ने विरोधियों को मिट्टी में मिला दिया था. यूपी और इन तीन राज्यों के अलावा किसी अन्य राज्य में बसपा आज तक लोकसभा की सीट नहीं जीत पाई है. कुल मिलाकर आज तक बसपा लगभग 13 राज्यों की विधानसभाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाई है. महाराष्ट्र और केरल में बसपा का आज तक खाता नहीं खुला. पूर्वोत्तर के राज्य में बसपा चुनाव नहीं लड़ती है. हालांकि बसपा पुदुचेरी वेस्ट बंगाल में भी विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है. लोकसभा चुनाव में तो बसपा ने अंडमान निकोबार तक में प्रत्याशी उतार दिए थे. विधायकों की संख्या की बात करें तो मध्य प्रदेश में बसपा सबसे बेहतर 11 विधायक तक जिता चुकी है 11 वीं विधानसभा चुनाव में. वोट प्रतिशत के लिहाज से बसपा को सर्वाधिक वोट उत्तर प्रदेश के बाहर पंजाब में मिला है जो कि 16.35% रहा. पंजाब के अलावा वोट प्रतिशत में बसपा ने दिल्ली, मध्य प्रदेश में भी दहाई का आंकड़ा पार किया हुआ है. बहरहाल बसपा के विभिन्न राज्यों के यह आंकड़े अब इतिहास का हिस्सा बन चुके हैं और बसपा में अब पहले जैसी राजनीतिक क्षमता नजर नहीं आ रही है. उत्तर प्रदेश से ताकत लेने वाले बसपा की विभिन्न राज्यों की प्रदेश इकाई भी अब अकेले ही जद्दोजहद कर रही हैं.

इस बारे में कोई दो राय नहीं की उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकारों के दौरान और विशेषकर 2007 से 2012 के बीच पूर्ण बहुमत की सरकार में उत्तर प्रदेश का चहुंमुखी विकास हुआ और विशेषकर दबे कुचले दलित समाज को स्वाभिमान से जीने की संभावना नजर आई. मुख्यमंत्री के रूप में मायावती की एक सख्त प्रशासक के रूप में भूरी भूरी तारीफ हुई. एक साधारण परिवार से संबंध रखने वाली दलित महिला का चौथी बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाना भारतीय राजनीति की एक बड़ी घटना थी. बसपा कार्यकाल में दलित, कमजोर तबका और अल्पसंख्यक समुदाय खुलकर शिक्षा और व्यवसाय के जरिए अपनी प्रगति के मार्ग कर रहा था. फार्मूला वन रेस, यमुना एक्सप्रेसवे और लखनऊ का कायाकल्प जैसे कई बड़े प्रोजेक्ट बसपा ने सफलतापूर्वक पूरे किए. विश्वविद्यालय, स्कूल और अस्पतालों का सिलसिलेवार तरीके से निर्माण कराया गया. विभिन्न विभागों का बैकलॉग भरा गया और पुलिस एवं अन्य विभागों की भर्तियों को ईमानदारी से कराया गया. हालांकि जब मूर्तियों को लेकर मीडिया ने बसपा पर हमले बोले तो बसपा उसे संभाल नहीं पाई.एनआरएचएम का मामला भी बसपा के लिए गले की हड्डी बन गया था. उधर भट्टा पारसौल में किसान धरने पर बैठ गए और राहुल गांधी मोटरसाइकिल पर बैठकर उनसे मिलने पहुंचे. सरकार में रहते हुए भी बसपा का प्रचार तंत्र कुछ खास मजबूत नहीं था जिस तरह आजकल आम आदमी पार्टी ने मजबूत प्रचार तंत्र विकसित कर लिया है. चुनाव आते-आते आखरी 6 महीनों में बसपा पर चौतरफा हमले होने शुरू हो गए और बसपा उनकी काट नहीं कर पाई और अंततः सत्ता हाथ से चली गई. यूपी का दलित समुदाय आज भी मायावती के कार्यकाल को याद करता है लेकिन वोट देने में पहले जैसा उत्साह नजर नहीं आता.

बसपा के लिए 2024 का लोकसभा चुनाव और उसके बाद 2027 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव सबसे महत्वपूर्ण चुनाव साबित होने वाले हैं. चुनाव दर चुनाव बसपा का वोटर और बसपा का समर्थक उम्मीद लगाए बैठा होता है कि इस बार परिणाम कुछ बेहतर आएंगे और समूचे बसपा समर्थकों का मनोबल बढ़ेगा. 2023 के आखिर में होने वाले चार राज्यों के चुनाव भी बसपा के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. राजस्थान में बसपा 2008 और 2018 में छह विधायक जिताने में कामयाब रही लेकिन यह सभी छह विधायक कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए. कांग्रेस शासन में भी राजस्थान में भी जाति अत्याचार और उत्पीड़न में रुकने का नाम नहीं ले रहा. छत्तीसगढ़ में अमूमन बसपा इस बार अपने दम पर अकेले चुनाव लड़ने वाली है. मध्यप्रदेश में भी बसपा की किसी पार्टी से गठबंधन की कोई संभावना नहीं और बसपा चाहेगी कि पिछली बार की दो सीटों के परिणाम को इस बार बेहतर किया जा सके. तेलंगाना में बहुजन समाज पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पूर्व आईपीएस डॉ आर एस प्रवीण कुमार ने अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है और बहुजन राजनीतिक विश्लेषकों की नजर तेलंगाना पर इस चुनाव में जरूर होगी.

बसपा को एक राजनीतिक दल के रूप में अपना महत्व समझना होगा. बसपा आज भी करोड़ों लोगों की आशा और उम्मीद बनी हुई है. जिन लोगों ने बसपा के पूर्ण बहुमत के कार्यकाल को देखा है वह आज भी इंतजार कर रहे हैं कि कब बसपा दोबारा सत्ता पर काबिज होगी. वर्तमान समय के डायनामिक राजनीति के हिसाब से बसपा को अपने आप को रिइन्वेंट करना होगा. जमाना इंटरनेट और गूगल से भी आगे बढ़कर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तक पहुंच चुका है. बसपा प्रचार प्रसार की तकनीक और आईटी के उपायों के इस्तेमाल में दो दशक पीछे हैं. जबकि बाकी पार्टियों ने अपना एक बड़ा इन्वेस्टमेंट अपने सोशल मीडिया मीडिया मैनेजमेंट और इंफॉर्मेशन चैनल बनाने के लिए किया है बसपा ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ रहा है. देशभर में चाहे बसपा के विभिन्न राज्यों में कितने भी गतिविधि चल रही हो लेकिन बसपा का आम वोटर कहता है कि बसपा कुछ कर नहीं रही. बसपा ने चेहरे और नेता पैदा करना भी बंद कर दिया जिसका सीधा नुकसान बसपा को होता दिख रहा. बसपा के खिलाफ चौतरफा षड्यंत्र और रणनीति तैयार हो रही है क्योंकि एक दलित नेतृत्व की राजनीतिक पार्टी को कोई भी अस्तित्व में नहीं देखना चाहता और बसपा आज भी कई दलों की आंखों की किरकिरी है. लेकिन यह दल बहुत ही महीन और व्यापक राजनीति करते हैं जिसकी काट बसपा के पास कतई नहीं. बसपा को अगर अपनी ताकत को फिर से जिंदा करना है तो बसपा को वह हर काम करना होगा जो दूसरे राजनीतिक दल कर रहे हैं और जो राजनीतिक सफलता के लिए आज के दौर की राजनीति में किया जाना चाहिए.


नोटः यह लेखक के अपने विचार हैं।

संवैधानिक मूल्यों के प्रति कितने सजग है हम!

किसी भी आजाद देश की जनता के गरिमापूर्ण जीवन और विकास का मूल आधार उस देश का संविधान होता है। ठीक ऐसे ही हमारे देश का संविधान है। हमारे संविधान का मूल प्रस्तावना है। प्रस्तावना इसलिए मूल है क्योंकि, इसमें स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुता जैसे वे विभिन्न मूल्य वर्णित है। जिनकी झलक संविधान के विभिन्न भागों में दिखाई देती है। मगर हकीकत में संवैधानिक मूल्यों की धरातल पर क्या स्थिति है और हम इनके प्रति कितने सजग हैं? इसका एक अनुभव हमारे साथ मध्यप्रदेश के सागर जिले के कुछ छात्र साझा करते हैं।

एलएलबी (लॉ) के छात्र दीनदयाल अपने विचार ऐसे रखते हैं, देश जब आजाद हुया, और संविधान लागू हुआ। तब बहुत विकट परिस्थितियाँ थी। शिक्षा का बहुत अभाव था। जब व्यक्ति शिक्षित नहीं हो पाएगा, तो संवैधानिक मूल्यों को कैसे समझेगा। जैसे-जैसे शिक्षण संस्थाएं मजबूत हुई। संविधान और संवैधानिक मूल्यों के प्रति थोड़ी सी समझ आयी। तब सामाजिक तानों-वानों, कुप्रथाओं से लोग उभरने लगे। लेकिन, लोगों के मन से आज भी ऊच-नीच की भावनाएं नहीं गई है। जैसे, मैंने देखा है कि, अनुसूचित जाति में आने वाली विभिन्न जातियों के लोग एक दूसरे से छुआछूत मानते हैं। गाँव में, आज भी ये हालत है कि, ऊंची जाति के लोग नीची जाती के लोगों से जबरन मजदूरी करवाते हैं। ऐसे में बंधुआ मजदूरी जैसे स्थिति सामने आती है। ऐसे में लोगों के स्वतंत्रता जैसे संवैधानिक मूल्य का हनन होता है।

आगे कपिल हमें बताते हैं कि, मैने देखा और अनुभव किया है कि, शैक्षिणिक संस्थाएं बंधुता और एकता का सूत्रपात्र हैं। लेकिन, वहाँ पहुचकर भी छोटे-छोटे बच्चों के दिमाग में यह विराजा हुआ है कि, मैं ऊंची जाति का हूँ और वो नीची जाति का है, इसलिए हम नीची जाति के बच्चे के साथ अपना खाना साझा नहीं कर सकते हैं। ऐसे में यहाँ बंधुता जैसा संवैधानिक मूल्य प्रभावित होता है।

जब हम वीरू बात करते हैं, तब उनका अंदाज यूं होता है, राशन की दुकानों से लेकर बैंक तक हमें संवैधानिक मूल्यों का हनन नजर आता है।

वीरू का कहना है कि, जब हम कहीं सार्वजनिक कतारों में लगते है, तब हमें देखते हैं कि, जिसका आर्थिक दबदबा ज्यादा होता है उनकी कहानी ये होती है वो जहां से खड़े हो जाएं लाइन वहीं से शुरू हो जाती है। ऐसे में हमारे अवसर की समानता जैसा संवैधानिक मूल्य दिखाई नहीं देता है।

फिर, इसके बाद सुनील अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि, मैने अपनी मध्यप्रदेश पब्लिक सर्विस कमिशन (mppsc) की सरकारी कोचिंग के दौरान अनुभव किया कि, बारहवीं क्लास के स्तर (योग्यता से कम) का टीचर (mppsc) की कोचिंग पड़ाता था। स्टूडेंट्स द्वारा उच्च शिक्षाधिकारी को शिकायत करने पर भी टीचर का फेरबदल नहीं किया गया। ऐसे में हमें लगता है की हमारे शिक्षा के अधिकार और न्याय जैसे संवैधानिक मूल्य का हनन हुआ है।

जब हमने संवैधानिक मूल्यों को लेकर सोनू से बातचीत की तब सोनू बताते है कि, ग्रामीण स्तर पर संवैधानिक मूल्यों की काफी अनदेखी नजर आती है। मेरा तजुर्बा रहा है कि, गाँव में जब कोई धार्मिक आयोजन, मंदिर निर्माण होता है, तब चंदा गाँव के सभी लोगों से बिना भेदभाव के उगाया जाता है। लेकिन जब धार्मिक आयोजनों का भंडारा होता है तब वहाँ ऊंच-नीच, छुआछूत सब दिखाई देने लगता है। इस हाल में लोगों के समानता जैसे संवैधानिक मूल्य को चोट पहुचती है। व्यक्ति की गरिमा पर भी असर पड़ता है।

वहीं, प्रेम का मानना हैं कि, संविधान पड़ाने के लिए प्राथमिक शिक्षा से ही एक टीचर स्कूलों में होना चाहिए। तब सही मायनों में संवैधानिक मूल्यों की जड़े समाज में जमीनी स्तर तक पहुंचेगी। प्रेम हमें आप बीती बताते हैं, वह कहते हैं, मैने एक प्राइवेट नौकरी के दौरान देखा कि मेरे सहपाठी मेरे साथ शारीरिक रूप से भेदभाव नहीं करते थे, लेकिन मानसिक तौर पर मेरे प्रति भेदभाव पूर्ण नजरिया रखते थे। जिससे मेरा कार्य प्रभावित होता था। ऐसे में, मुझे आखिरकार अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। क्या प्रेम की यह आप बीती न्याय जैसे संवैधानिक मूल्य पर संकट की ओर इशारा नहीं करती?

संवैधानिक मूल्य वास्तव में कहा जाय तो नैतिक मूल्यों के रूप में हैं। हमारी नैतिकता जितनी मजबूत होगी, उतना ही हम अपने संवैधानिक मूल्यों को पुख्ता बना सकते हैं। इसलिए आज हमें नैतिक शिक्षा की अत्यंत दरकार भी है। इसके अलावा हम सब का दायित्व भी है कि, हम संवैधानिक मूल्यों के प्रति जनमानस जागरूकता में इजाफा करें। जब हमारे देश में संवैधानिक मूल्यों का फैलाव धरातलीय स्तर तक होगा।, तब सही मायनों में देश प्रेम की भावनाओं का संचार व्यापक होगा और हमारे भारत में एकतत्व का सूत्रपात्र होगा।

(सतीश भारतीय एक स्वतंत्र‌ पत्रकार और विकास संवाद परिषद में संविधान फैलो है।)

गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार मिलने पर कांग्रेस ने किया विरोध

कांग्रेस ने गीता प्रेस को 2021 के लिए गांधी शांति पुरस्कार प्रदान करने के लिए सरकार की आलोचना की कांग्रेस का कहना है कि यह निर्णय उपहासपूर्ण है और सावरकर और गोडसे को पुरस्कार देने जैसा है। यह बयान कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश की ओर से आया है। गांधी शांति पुरस्कार के मुद्दे पर जयराम रमेश ने सरकार की आलोचना करते हुए एक ट्वीट किया।

अपने इस ट्विट में जयराम रमेश ने कहा, “2021 के लिए गांधी शांति पुरस्कार गोरखपुर में गीता प्रेस को प्रदान किया गया है, जो इस वर्ष अपनी शताब्दी मना रहा है। अक्षय मुकुल द्वारा इस संगठन की लिखित जीवनी में उन्होंने महात्मा गांधी और उनके राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक एजेंडे पर गीता प्रेस के साथ चली लड़ाई व खराब संबंधों का खुलासा किया है। यह निर्णय वास्तव में एक उपहास और सावरकर व गोडसे को पुरस्कार देने जैसा है।”

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाली समिति ने सर्व सम्मति से गीता प्रेस को इस अवार्ड के लिए नामित किया था। गीता प्रेस को पुरस्कार देते हुए एक आधिकारिक बयान में कहा गया था कि 2021 के लिए गांधी शांति पुरस्कार गीता प्रेस, गोरखपुर को अहिंसक और अन्य गांधीवादी तरीकों के माध्यम से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की दिशा में उत्कृष्ट योगदान के लिए प्रदान किया जाएगा।

इसी बयान को लेकर जयराम रमेश ने ऐतराज जताया है। दरअसल गीता प्रेस की वेबसाइट संस्थान के बारे में जो कहती है, वह भी इस पुरस्कार के लिए उसके चयन पर सवाल उठाया है। गीता प्रेस की वेबसाइट के अनुसार, “इसका मुख्य उद्देश्य गीता, रामायण, उपनिषद, पुराण, प्रख्यात संतों के प्रवचन और अन्य चरित्र-निर्माण पुस्तकों को प्रकाशित करके सनातन धर्म के सिद्धांतों को आम जनता के बीच प्रचारित करना और फैलाना एवं कम कीमतों पर पुस्तकें उपलब्ध कराना है।”

अब सवाल यह है कि जो प्रकाशन एक धर्म के भीतर की चंद जातियों के हित की बात करती हो, जिसके प्रकाशन की किताबों में दलितों और पिछड़ों के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्हें नीच और छोटा बताती हो, उसे किसी के भी नाम का शांति पुरस्कार मिलना कितना जायज है?

बसपा कार्यालय से हटाई गई मा. कांशीराम और बाबा साहब की प्रतिमा

बहुजन समाज पार्टी की आज लखनऊ में बैठक हुई। इसमें यूपी के सभी मंडल व जिला कमेटी के पदाधिकारियों को बुलाया गया। बैठक में देश और प्रदेश के हालात, संगठन की मजबूती, जिलों में पार्टी की प्रगति रिपोर्ट आदि पर चर्चा हुई। बैठक में आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर भी बसपा प्रमुख मायावती ने पार्टी के पदाधिकारयों को तमाम निर्देश दिये। और भाजपा सहित अन्य विपक्षी दलों से निपटने की रणनीति पर भी चर्चा हुई। बैठक में बहनजी ने फिर से महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा और शांति व्यवस्था का मुद्दा उठाया और इसके लिए केंद्र से लेकर प्रदेश सरकार पर हमला बोला।बहनजी ने भाजपा की सांप्रदायिकता की राजनीति पर उसे आड़े हाथों लिया। यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री ने भाजपा पर निशाना साधते हुए कहा कि भारतीय जनता पार्टी और इसकी सरकारें जातिवादी, सांप्रदायिक व धार्मिक विवादों को जानबूझकर पूरी छूट व शह दे रही है। इसके कारण न सिर्फ तमाम प्रदेश बल्कि देश की प्रगति भी प्रभावित हो रही है।बहनजी ने मणिपुर का मुद्दा भी उठाया और उस पर चिंता जाहिर की। उन्होंने कहा कि स्वार्थ की राजनीति का परिणाम है कि मणिपुर में नफरती हिंसक वारदात की आग थमने का नाम नहीं ले रही है। उन्होंने प्रभावी कार्रवाई और गंभीरता की जरूरत बताया।

बहनजी ने भाजपा को घेरते हुए देश में दलितों के ऊपर हर रोज हो रहे अत्याचार पर भी चिंता जाहिर की। उन्होंने कहा कि सबसे साथ न्याय करने का संवैधानिक कर्तव्य निभाने के बजाय खासकर दलित व समुदाय विशेष के विरुद्ध भेदभाव एवं द्वेषपूर्ण रवैया संबंधी खबरें अखबारों में हर दिन भरी रहती है, जो कि सही नहीं है।

हालांकि इस दौरान बहनजी के निर्देशों के अलावा एक अन्य मामले की भी चर्चा पार्टी पदाधिकारियों के बीच लगातार होती रही। दरअसल बसपा के लखनऊ कार्यालय में बाबासाहेब आंबेडकर, बसपा के संस्थापक मान्यवर कांशीराम और बहनजी की आदमकद प्रतिमा लगी हुई है। सुबह जब पार्टी पदाधिकारी बैठक में हिस्सा लेने के लिए पार्टी कार्यालय पहुंचे तो वहां पर मूर्तियों को नहीं देखा। इसके बाद सवाल उठने लगा कि आखिर यहां लगी मूर्तियां कहां गई? पार्टी अधिकारियों से इस मामले में पूछताछ शुरू की गई। इसके बाद मूर्तियों को लेकर बड़ी जानकारी सामने आई। पता चला कि पार्टी कार्यालय में लगी तमाम मूर्तियों को बसपा सुप्रीमो मायावती के आवास में शिफ्ट कर दिया गया है।

अब इसको लेकर पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की चिंता शुरू हो गई है। दरअसल बहनजी महापुरुषों की जयंती के मौके पर पार्टी कार्यालय पहुंच कर वहां लगी मूर्तियों पर श्रद्धासुमन समर्पित करती रही हैं। इस दौरान बड़ी संख्या में देश भर से पार्टी के पदाअधिकारी और कार्यकर्ता भी पहुंचते हैं।  ऐसे में मूर्तियों को उनके घर में शिफ्ट किए जाने को लेकर सवाल उठने लगा कि कि महापुरुषों की जयंती के मौके पर भी क्या बसपा सुप्रीमो अब पार्टी दफ्तर नहीं आएंगी।

अगर ऐसा है तो यह बहुजन समाज पार्टी के साथ-साथ दुनिया के तमाम हिस्सों में अंबेडकरी आंदोलन को बढ़ाने में लगे लोगों के लिए चिंता की बात है। आने वाले दिनों में इसको लेकर बहस तेज हो सकती है।

कर्नाटक में किताबों में सावरकर-हेडगेवार बैन, डॉ. अंबेडकर और सावित्रीबाई फुले की वापसी

कर्नाटक में निजाम बदलने के साथ ही पुराने कानूनों को पलटने का काम भी शुरू हो गया है। महीना बीतते ही कांग्रेस सरकार ने पूर्व की भाजपा सरकार द्वारा लाए गए धर्मांतरण के कानून को रद्द करने की न सिर्फ पूरी योजना बना ली है बल्कि कर्नाटक कैबिनेट ने इस पर मुहर भी लगा दी है। जल्दी ही इस प्रस्ताव को विधानसभा में लाया जाएगा। इसके साथ ही कैबिनेट ने राज्य में कक्षा छह से 10 तक की पाठ्यपुस्तकों में आरएसएस के संस्थापक केबी हेडगेवार और हिंदुत्ववादी विचारक वीडी सावरकर पर चैप्टर हटाने का भी फैसला किया है।

कैबिनेट बैठक के बाद कानून एवं संसदीय मामलों के मंत्री एचके पाटिल ने संवाददाताओं को बताया कि बैठक में भाजपा के समय लाए गए धर्मांतरण विरोधी कानून पर चर्चा हुई। इसे रद्द करने के लिए सरकार विधानसभा के आगामी सत्र में बिल लाएगी। गौरतलब है कि कांग्रेस के विरोध के बीच यह विवादास्पद बिल 2022 में लागू किया गया था। इसके प्रावधानों का उल्लंघन संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध है और इसमें सख्त सजा का भी प्रावधान है।

पाठ्यपुस्तकों से जुड़े फैसले के बारे में बताते हुए पाटिल ने कहा कि कन्नड और सोशल साइंस की पाठ्यपुस्तकों में हेडगेवार और सावरकार पर पाठ हटाने के अलावा भाजपा सरकार के समय के अन्य संशोधनों को भी बदला जाएगा। समाज सुधारक सावित्री बाई फुले, इंदिरा को लिखे नेहरू के पत्र और अंबेडकर पर कविता को फिर पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाएगा। हालांकि, इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया कि क्या टीपू सुल्तान पर भी चैप्टर होगा।

हर दिन पढ़नी होगी संविधान की प्रस्तावना वहीं, सरकारी और गैर-सरकारी सभी स्कूल-कॉलेजों में प्रतिदिन संविधान की प्रस्तावना पढ़ना अनिवार्य किया जाएगा। यही नहीं, राज्य के सभी सरकारी और अर्ध-सरकारी कार्यालयों में संविधान की प्रस्तावना का चित्र लगेगा। सामाजिक कल्याण मंत्री एचसी महादेवप्पा ने कहा कि इससे युवाओं में भाईचारे की भावना बढ़ेगी।

गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार, बहुजनों के लिए एक सबक

हिन्दू धर्म की किताबों को प्रकाशित कर देश भर में बहुत कम कीमतों पर अपने पाठकों को उपलब्ध कराने वाली गीता प्रेस को साल 2021 के गांधी शांति पुरस्कार के लिए चुना गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाली समिति ने सर्व सम्मति से गीता प्रेस को इस अवार्ड के लिए नामित किया। गीता प्रेस 1923 में स्थापित हुई थी। और अपने 100 साल के सफर में उसने 1 हजार 850 धार्मिक पुस्तकों की 93 करोड़ कॉपी बेची है। इसकी वेबसाइट के अनुसार, “इसका मुख्य उद्देश्य गीता, रामायण, उपनिषद, पुराण, प्रख्यात संतों के प्रवचन और अन्य चरित्र-निर्माण पुस्तकों को प्रकाशित करके सनातन धर्म के सिद्धांतों को आम जनता के बीच प्रचारित करना और फैलाना एवं कम कीमतों पर पुस्तकें उपलब्ध कराना है।”

गीता प्रेस साल 1926 से लगातार कल्याण नाम से एक मासिक पत्रिका भी प्रकाशित करती है। गीता प्रेस ने अब तक तुलसी दास द्वारा लिखी गई रामचरित मानस की साढ़े तीन करोड़ कॉपी बेची है, जबकि श्रीमद भगवद गीता की 16 करोड़ प्रतियां बेची है। इसकी वेबसाइट बताती है कि 14 भाषाओं में वो 41.7 करोड़ से ज्यादा किताबें छाप चुकी है।

गीता प्रेस को अवार्ड मिलने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बदाई दी है तो यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी खुश हैं क्योंकि गीता प्रेस का प्रकाशन गोरखपुर से होता है। गीता प्रेस के मैनेजर लालमणि त्रिपाठी भी खुश हैं। उन्होंने मीडिया से बातचीत में बताया है कि गीता प्रेस की किताबों की जितनी डिमांड है, हम उसे पूरा नहीं कर पातें। उनका कहना है कि पिछले फाइनेंसियल ईयर में प्रेस की विभिन्न किताबों की 2 करोड़ 40 लाख प्रतियां बिकी हैं, जिनका मूल्य 111 करोड़ रुपये है। लालमणि त्रिपाठी के मुताबिक गीता प्रेस हर साल रामचरित मानस की दस लाख प्रतियां बेचती है।

लगे हाथ आपके लिए एक और जानकारी यह है कि हर साल दिये जाने वाले गांधी शांति पुरस्कार में 1 करोड़ रुपये की पुरस्कार राशि, एक प्रशस्ति पत्र, एक पट्टिका और एक पारंपरिक हस्तकला की वस्तु दी जाती है। हालांकि गीता प्रेस ने घोषणा की है कि वह पुरस्कार की राशि नहीं लेगी।

अब एक दूसरी कहानी यहां से शुरू होती है। गीता प्रेस न तो चंदा मांगती है और न ही विज्ञापन लेती है। इसका सारा खर्च समाज के लोग ही उठाते हैं। ये वो लोग और संस्थाएं हैं जो छपाई में लगने वाले सामान किफायती कीमतों में उपलब्ध करवाते हैं। प्रेस घोषित करे या न करे, यह समझा जा सकता है कि सनातन धर्म को बढ़ाने में लगे तमाम सेठ-साहूकार और नेता-मंत्री भी गीता प्रेस को सहायता जरूर करते होंगे। भाजपा-संघ के राज में गीता प्रेस को इतना बड़ा सम्मान अकारण नहीं मिला है, बल्कि इसलिए मिला है कि गीता प्रेस की पुस्तकें उस विचारधारा को सालों से बढ़ा रही है जिस पर सवार होकर भाजपा केंद्र की सत्ता में पहुंची है।

 यानी साफ है कि गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तकों ने सनातन धर्म को घर-घर पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है। तो उस विचारधारा की पोषक राजनीतिक दल ने उसे सम्मान देने में देरी नहीं की। लेकिन यहां चिंतित करने वाली बात यह है कि इन किताबों में जिन दलितों-पिछड़ों के बारे में तमाम अपमानजनक बातें लिखी गई हैं, वो किताबें यह समाज भी खरीदता है। चिंता की बात यह है कि जिस दलित-पिछड़े और आदिवासी समाज के घरों में संविधान, बुद्ध का धम्म और अंबेडकरी साहित्य होना चाहिए, उनके घरों में रामचरित मानस और श्रीमद भगवत गीता है।

सवाल बहुजन समाज के नेताओं, अधिकारियों और आम जनता पर भी उठता है। गीता प्रेस को इस मुकाम तक लाने में उस समाज के तमाम सेठ-साहूकारों के अलावा, आमजन से लेकर नेताओं, मंत्रियों का भी परोक्ष समर्थन रहा है। लेकिन न तो बहुजन समाज के दिग्गज नेताओं को और न ही ज्यादातर बड़े अधिकारियों को अंबेडकरवादी साहित्य की फिक्र है। अब तक किसी अंबेडकरवादी- बहुजन नेता ने अंबेडकरवादी साहित्य रचने वाले लेखकों को प्रोत्साहित करने में रुचि नहीं ली। न ही सरकार में रहते हुए उन्हें सम्मानित करना जरूरी समझा। न ही वो घर-घर संविधान पहुंचाने की मुहिम चलाते हैं और न ही अंबेडकरी साहित्य को बढ़ाने में ही रूचि लेते हैं।

 कुछ जागरूक नेता, अधिकारी जरूर इसकी जरूरत समझते हैं, लेकिन वो मुट्ठी भर हैं। बहुजन समाज का आम व्यक्ति भी अब तक सही-गलत की पहचान नहीं कर सका है। वह यह नहीं जानना चाहता कि उसके लिए कौन सी विचारधारा और साहित्य जरूरी है और कौन सा साहित्य खतरनाक। यही वजह है कि जिन धार्मिक किताबों में इस समाज के सम्मान की धज्जियां उड़ाई गई है, उन्हें अपमानित किया गया है, वह उन्हें गले लगाए घूमता है। जब तक वो अंबेडकरवादी साहित्य को नहीं अपनाता, जब तक इस समाज के नेता, अधिकारी अंबेडकरी साहित्य को बढ़ाने में मदद नहीं करते, तब तक स्थिति नहीं बदलेगी। तब तक दलितों, पिछड़ों को धार्मिक गुलामी से मुक्ति नहीं मिलेगी।

गीता प्रेस को मिले इस सम्मान के बहाने यह सवाल फिर से हमारे सामने है। दलित दस्तक समूह मासिक पत्रिका से लेकर प्रकाशन और यू-ट्यूब के जरिये बाबासाहेब की विचारधारा को घर-घर तक पहुंचाने में लगा है। हम कोशिश जारी रखेंगे। हमसे जुड़िये। हमें आर्थिक मदद करिये, ताकि हम विचारधारा की इस लड़ाई को लगातार जारी रख सकें।

जय भीम।