संसद का शीतकालीन सत्र रद्दः क्या किसानों से डरी हुई है मोदी सरकार

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 आमतौर पर साल के नवंबर-दिसंबर महीने में होने वाला संसद का शीतकालीन सत्र इस साल नहीं होने जा रहा है। संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने सदन में कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी को पत्र लिखकर बताया है कि कोविड-19 के कारण तमाम दलों की सहमति को देखते हुए इस बार संसद सत्र नहीं होगा। जनवरी 2021 में बजट सत्र होने की बात कही जा रही है।

सरकार का यह फैसला चौंकाने वाला और सवालों से भागने वाला है। हाल ही में बिहार में चुनाव हो गया, बंगाल में तमाम नेता मुंह झोके हैं, खासकर सत्ता दल के नेता। भूमि पूजन, उद्धाटन सब हो रहा है। राजनीतिक माइलेज लेने के लिए किसान आंदोलन में हर दिन जाकर फोटो खिंचवाया जा रहा है, लेकिन संसद सत्र नहीं होगा। जो नेता रोज सैकड़ों अंजान लोगों से मिल रहे हैं, भीड़ का सामना कर रहे हैं। चुनाव के दौरान हजारों अंजान कार्यकर्ताओं के बीच से गुजर रहे हैं, वो 550 सांसदों के साथ बैठना नहीं चाहते हैं। यह तब है जब कांग्रेस पार्टी चाहती थी कि संसद सत्र बुलाया जाए और किसानों से जुड़े मुद्दों पर चर्चा कर कृषि कानून में संशोधन किया जा सके। लेकिन किसान आंदोलन को दबाने और उलझाने में जुटी और हर सवाल से भागने की आदि हो चुकी केंद्र सरकार ने सत्र को टाल दिया है।

देश का अन्नदाता सड़कों पर है। कड़ाके की ठंड के बावजूद किसान कृषि बिल के विरोध में डटे हुए हैं। इस बीच किसानों की मौत की खबरें आनी शुरू हो गई है। किसानों के आंदोलन को देश भर में समर्थन मिल रहा है। देश का आमजन कह रहा है कि सरकार को किसानों की बात सुननी चाहिए। लेकिन दूसरी ओर सरकार के मंत्री तक किसानों को कभी आतंकवादी, कभी खालिस्तानी, कभी विदेशी ताकतों का मोहरा तो कभी टुकड़े गैंग का सदस्य तक कह रहे हैं। भाजपा के शासन वाले मध्यप्रदेश के कृषि मंत्री कमल पटेल ने तो किसानों को कुकुरमुत्ता तक कह डाला। नया घटनाक्रम यह है कि देश के विभिन्न जगहों से उन किसान संगठनों से सरकार को समर्थन दिलवाया जा रहा है, उनके साथ फोटो खिंचवाई जा रही है, जिनका कोई नाम तक नहीं जानता था।

कुल मिलाकर सरकार ने ठान लिया है कि उन्हें किसानों की मांगों को नहीं मानना है। सरकार के सरगना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसानों को कह रहे हैं कि कृषि कानून उनके हित के लिए है, लेकिन सवाल यह है कि अगर ऐसा है तो मोदी और उनकी सरकार किसानों को यह भरोसा दिलाने में नाकाम क्यों हैं? इस बिल से किसानों का ऐसा कौन सा फायदा है, जो सरकार को तो दिख रहा है लेकिन किसानों को नहीं दिख रहा। आप किसी भी पेशे/ व्यवसाय की बात कर लिजिए, क्या यह संभव है कि उस पेशे/व्यवसाय में लगे लोगों को किसी नियम-कानून से फायदा हो और उन्हें समझ में नहीं आ रहा हो?

 थोड़ा पीछे चलिए, इसी सरकार ने कहा था कि पुराने नोटों को बंद कर नया नोट आने से कालाबजारी रुक जाएगी। इसका फायदा किसको हुआ, और नुकसान किसको, यह तो जनता के सामने आ चुका है, लेकिन नोटबंदी की लाइन में लगे जिन लोगों की जान चली गई वो देश का मध्यम वर्ग का आम आदमी था। अब जीएसटी पर आते हैं। कहा गया कि एक देश एक टैक्स होगा। लेकिन जीएसटी के बाद आप और हम जब भी खरीददारी करने गए हमें पहले से ज्यादा भुगतान करना पड़ा। व्यापारियों के बीच तो ‘कमल का फूल, बड़ी भूल’ नाम से कहावत खूब वायरल हुआ था। ऐसे ही अब कृषि बिल को लेकर सरकार कह रही है कि इससे किसानों का फायदा होगा।

यह सरकार अपने और अपने ‘हितैषियों’ के फायदे के लिए एक के बाद एक फैसले ले रही है और देश के बड़े वर्ग को राम नाम, धर्म और सांप्रदाय में उलझा कर रखे हुए हैं। और देश का वह सभ्य समाज जो खुद को ज्यादा पढ़ा लिखा और समझदार मानता है, वह इस झांसे में आकर कुछ भी समझने को तैयार नहीं है। लेकिन इस सरकार के पिछले वायदों और जुमलों को देखते हुए वह अन्नदाता उसके झांसे में आने से इंकार कर रहा है, जिसे सबसे भोला भाला माना जाता है।

 अगर इस आंदोलन के राजनैतिक रूप को देखें तो सड़क पर मौजूद ज्यादातर किसान पंजाब, राजस्थान और हरियाणा के हैं। पंजाब और राजस्थान में कांग्रेस सरकार है और भाजपा कृषि बिल के लिए हरियाणा को कुर्बान करने को तैयार दिख रही है, क्योंकि अगर उसे हरियाणा की कीमत पर अपने पूंजीपति मित्रों के हित को सहेजना हो, तो भी भाजपा पीछे हटती नहीं दिख रही है। लड़ाई लंबी चलेगी। सड़क पर किसान और संसद में विपक्ष इसको कैसे लड़ेगा, इसकी सफलता और असफलता इसी पर निर्भर है। फिलहाल तो सरकार ने शीतकालीन सत्र को रद्द कर सवालों से भागने की अपनी परंपरा को कायम रखा है।

 

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