विश्वविद्यालय में पिछले पांच साल से कन्वोकेशन नहीं हुआ था. उन्होंने एक साल में ही दो कन्वोकेशन करवा डालें. दस सालों से बैलेंस शीट नहीं बनी थी, इसे अपडेट किया. विश्वविद्यालय के निर्माण के 35 सालों बाद भी इसकी वार्षिक प्रगति रिपोर्ट नहीं बनी थी. दो वार्षिक रिपोर्ट बनवाया. अब तक एल्यूमनाई का गठन नहीं हुआ था, सो इसका गठन कर मिटिंग करवाया. विश्वविद्यालय के वित्तीय संसाधनों से ही विश्वविद्यालय की आय दोगुनी हो गई. विश्वविद्यालय में दो नए कालेज (संकाय) तथा कई विभागों को शुरु करवाया. छात्रों की सीटों में 40 फीसदी का इजाफा किया. उत्तर प्रदेश में विश्वविद्यालय कृषि विद्यार्थियों की पहली पसंद बना. साथ ही गृह विज्ञान, पशु पालन एवं चिकित्सा विज्ञान, कृषि अभियंत्रण एवं तकनीकी विज्ञान एवं बायोटेक्नोलॉजी जैसे संकायों से उत्तीर्ण होने वाले सौ फीसदी छात्रों को प्लेसमेंट मिला. ये सब डा. कुरील की व्यक्तिगत उपलब्धियां हैं. क्योंकि विश्वविद्यालय की सारी व्यवस्था वही थी, बदली थी तो सिर्फ कुलपति की कुर्सी, जिस पर अब कुरील बैठे थे.
कुरील उस समाज से ताल्लुक रखते हैं, जिसने एक हाथ में किताब तो दूसरे हाथ में बोरा थामे हुए स्कूल दर स्कूल घूम कर पढ़ाई की. प्यास लगने पर किसी सवर्ण द्वारा कुंए से पानी खिंचने का इंतजार करते रहे, ताकि प्यास बुझ सके. एमएससी एग्रीकल्चर में आरक्षण के लिए हुए आंदोलन में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. दो सालों के संघर्ष के बाद आखिरकार तब के मुख्यमंत्री वी पी सिंह को प्रदेश के तीनों कृषि विश्वविद्यालयों में आरक्षण की घोषणा करनी पड़ी थी. तमाम भेदभाव और अभाव को झेलते हुए वह पढ़ते रहे-बढ़ते रहे और एक दिन मजदूर मां-बाप को खुद पर फ्रख करने का मौका दिया. बतौर कुलपति, कुरील के कार्यक्षेत्र में यूपी के 27 जिलों की जिम्मेदारी है, जहां की आठ करोड़ जनता की जिंदगी को वह बेहतर बनाने में जुटे हैं. डॉ. कुरील के बचपन के संघर्ष, युवावस्था के आंदोलन, कार्यक्षेत्र की सफलताओं और कृषि विश्वविद्यालय को लेकर उनकी भविष्य की योजनाओं के बारे में ‘दलित मत ’ के संपादक अशोक दास ने उनसे उनके दिल्ली स्थित आवास पर बातचीत की. आपके लिए पेश है……
आप कहां के रहने वाले हैं, जन्म कहां हुआ, पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या थी. पढ़ाई-लिखाई कहां पर हुई?
– कानपुर जिले में एक तहसील है बिल्लौर, उसमें एक ब्लॉक है शिवराजपुर, वहां से तकरीबन 7 किमी दूर एक गांव है कुंअरपुर. हम वहीं पैदा हुए. हमारे माता-पिता ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं. मां तो बिल्कुल नहीं पढ़ी है. पिताजी चौथी पास हैं. शुरुआती शिक्षा बगल के एक गांव में हुई. बैठने के लिए साथ बोरा लेकर जाते थे. वहीं स्कूल के पास एक कुंआ था. एक बाल्टी और लोटा रखा होता था. जब हमें प्यास लगती थी तो हम टीचर को बोलते थे. टीचर उच्च जाति के किसी लड़के को बोलता था. वह जाकर पानी भरता, फिर हमें पानी पीने को मिलता था. यह 1972-73 की बात है. आर्थिक परिस्थिति भी ठीक नहीं थी. भेदभाव खूब था लेकिन चूकि मैं पढ़ने-लिखने में अच्छा था इसलिए क्लास के सभी बच्चे आस-पास मंडराते रहते थे.
एक वाकया याद आता है कि एक बार तरबूज खाना था. हम तीन लड़के थे. तरबूज का एक टुकड़ा पांच पैसे का था. जबकि हमारे पास सिर्फ तीन-तीन पैसे थे. हमने आपस में नौ पैसे इकठ्ठा किया और उससे दो टुकड़े मांगे. लेकिन एक पैसा कम होने की वजह से उसने हमें तरबूज देने से मना कर दिया. तो हर एक पैसे की कमी को शिद्दत से महसूस किया. पांचवी का नतीजा निकला तो रिजल्ट लेते हुए मैं रोता हुआ घर आ रहा था. गांव में एक माली दादा थे. उन्होंने वजह पूछी तो मैने बताया कि स्कूल मास्टर ने मेरी उम्र अधिक लिख दी है और अगर मैं किसी क्लास में एक बार भी फेल हो गया तो अधिक उम्र के कारण फिर दसवीं का इम्तहान नहीं दे पाऊंगा. उन्होंने एक मंत्र दिया और रोज देवी को दूध चढ़ाने को कहा. मंत्र तो मैं भूल गया लेकिन देवी को जब दूध चढ़ाने के लिए अम्मा से दूध देने के लिए बोला, तो अम्मा ने कहा कि पीने को दूध नहीं है और देवी पर चढ़ाओगे. तो ऐसी विपन्नता थी. दसवीं में साइंस में दाखिला ले लिया. उस साल स्कूल का रिजल्ट सिर्फ तीन परसेंट आया. यानि सौ में सिर्फ 3 लोग पास थे. पास होने वाली लिस्ट में मैं भी था.
आप इतने मेधावी थे. विज्ञान के छात्र थे. आमतौर पर लोग डॉक्टर या फिर इंजीनियर बनना चाहते हैं लेकिन आपने कृषि जैसे विषय को क्यों चुना?
– इसकी एक अलग और अनोखी कहानी है. दसवीं के बाद आगे की पढ़ाई कहां से की जाए, यह प्रश्न था. घर में कोई ज्यादा पढ़ा-लिखा था नहीं, जो बताए कि हमें क्या पढ़ना चाहिए और क्या नहीं. हम तीन भाई और तीन बहन थे. मैं सबसे छोटा था. एक बड़े भाई जिस स्कूल से बारहवीं कर रहे थे मैं भी वहीं नौवी में पढ़ने लगा. दसवीं यही से की. मुझे साइंस पढ़ना था लेकिन यहां दसवी के बाद साइंस नहीं था तो मुझे ग्यारहवीं में पढ़ने के लिए घर से 100 किमी दूर फर्रुखाबाद जिले जाना पड़ा. वहां दसवी में साथ पढ़ने वाला एक लड़का मिल गया. बात होने लगी तो मैने उससे कहा कि हमारे क्लास में बहुत टफ पढ़ाई होती है. तब उसने कहा कि हमारे यहां तो आसान पढ़ाई है, तुम मेरे क्लास में ही बैठा करो. दूसरे दिन से मैं उसके साथ बैठने लगा. दो महीने बाद वहां एग्रीकल्चर के एक टीचर आएं. वो एग्रीकल्चर पढ़ाने लगे. मुझे साइंस पढ़नी थी इसलिए मैं चौंका. पूछने पर दोस्त ने बताया कि वो एग्रीकल्चर ही पढ़ता है. चूकि सारे शिक्षक वही थे. एग्रीकल्चर को छोड़कर सारे विषय भी वही थे. सो मैं फर्क समझ नहीं पाया था. जब गलती समझ में आई तो मैं फिर पुराने क्लास में गया लेकिन वहां मेरा नाम काट दिया गया था. बड़ी अजीब स्थिति हो गई थी. मेरे क्लास से मेरा नाम काट दिया गया था और एग्रीकल्चर में जहां मैं दो महीने से बैठ रहा था, वहां मेरा नाम था ही नहीं. एग्रीकल्चर में जहां बैठता था वहां के एक टीचर बहुत अच्छे थे. उन्होंने मदद की. सारे शिक्षक प्रिंसिपल के पास गए. फैसला यह हुआ कि अब मुझे एग्रीकल्चर में ही पढ़ना होगा. तो इस तरह मैं साइंस से एग्रीकल्चर के क्षेत्र में आ गया.
बीएससी एग्रीकल्चर में चंद्रशेखर आजाद एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, कानपुर में आ गए. उस कॉलेज में एमएससी, एग्रीकल्चर में रिजर्वेशन नहीं था. आरक्षण के लिए लड़ने के लिए हमने एक ग्रुप बनाया. यहीं एस कृष्णा (वर्तमान में बौद्ध चिंतक एवं राजस्व सेवा के अधिकारी) से मुलाकात हुई. बीएससी एग्रीकल्चर ग्रुप को मैं संभालता था जबकि एमएससी एग्रीकल्चर में मोर्चा एस.कृष्णा ने संभाला. बड़ी मुहिम चल रही थी. हर छात्र से दस-दस रुपये इकठ्ठे कर के आरक्षण की लड़ाई लड़ी जा रही थी. एक दीनदयाल खन्ना थे, हमारे ही समाज के, उन्हीं को साथ लेकर लखनऊ के चक्कर लगाने पड़ते थे. कई बार रेलवे प्लेटफार्म पर ही सो जाया करते थे. सुबह से फिर पूरे दिन एमएलए, एमपी और मंत्रियों के चक्कर काटते थे. बहुत चक्कर काटें. तब यूपी के मुख्यमंत्री वीपी सिंह थे. काफी दिनों से चक्कर लगाते-लगाते एक बार मुख्यमंत्री से मुलाकात हो गई. हुआ यह कि गंगा सागर नाम के एक एमएलए थे. खन्ना साहब के जरिए हमलोग उनसे दो-तीन बार मिल चुके थे. हम फिर पहुंचे तो उन्होंने पूछा कि काम नहीं हुआ, हमने मना किया तो हमारा हाथ पकड़ कर सीधे मुख्यमंत्री वीपी सिंह के कमरे में पहुंच गए. उनसे बात हुई. वीपी सिंह ने हमसे कहा कि बेटा जाओ, जब तक तुमलोग वापस पहुंचोगे वहां रिजर्वेशन हो चुका होगा. हमलोग खुशी में जल्दी-जल्दी आएं. उसी दिन रात तकरीबन आठ बजे एक आदेश आया और तीनों एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विवि कानपुर, आचार्य नरेंद्रदेव कृषि एवं प्रौद्योगिक विवि, फैजाबाद और सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि विवि में एमएससी एग्रीकल्चर में रिजर्वेशन हो गया.
यानि यह कहा जा सकता है कि तीनों कृषि विश्वविद्यालयों में एमएससी एग्रीकल्चर में जो रिजर्वेशन मिला, वह आपलोगों की मेहनत और संघर्ष का नतीजा है?
– बिल्कुल. हमने बहुत संघर्ष किया. सामाजिक न्याय के संघर्ष में वो हमारी पहली सीढ़ी थी, जहां हमें सफलता मिली. उस सफलता से यह विश्वास भी आया कि हम मेहनत करें तो चीजों को पा सकते हैं. बाद के जीवन में यह बहुत काम भी आया. इसकी बात करें तो यह ऐसे हुआ कि जब मैने 1980 में बीएससी एग्रीकल्चर में दाखिला लिया था. मैं वहां के बेस्ट स्टूडेंट में था. 14 अप्रैल को बाबा साहेब डा. अंबेडकर का जन्मदिवस मनाना था. तब मुझे डॉ अंबेडकर के बारे में बोलने के लिए कहा गया. उस समय इंटरनेट होता नहीं था. सो जो भी किताबें मिली, उससे डॉ. अंबेडकर के बारे में पूरा पढ़ा. उससे पहले तक मुझे बाबा साहेब के बारे में ज्यादा पता नहीं था. बाबा साहेब को पढ़ना मेरे जीवन का एक टर्निंग प्वाइंट था. यहां से मुझे बाबा साहेब के नक्शे कदम पर चलने की प्रेरणा मिली. यहीं से सामाजिक न्याय की लड़ाई में हिस्सेदारी करने लगा. इसी का परिणाम रहा कि रिजर्वेशन के लिए दो सालों तक लड़ें. तब एक फेलोशिप अवार्ड मिलता था. इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च. उसे भारत सरकार आर्गेनाइज करती थी. इसमें 12 सौ रुपये महीना मिलता था. इस फेलोशिप के ऊपर ही आगे की पढ़ाई टिकी थी तो इसकी तैयारी के लिए काफी मेहनत की. मुझे फेलोशिप मिल गई. मजेदार बात यह थी कि मेरे बाद दस सालों तक मेरे नोट्स के जरिए लड़के पास करते रहे और फेलोशिप लेते रहें.
स्कूल-कालेज के दिनों की कुछ यादें साझा करेंगे?
– कई यादें हैं. स्कूल में एक मजेदार घटना घटी थी तब. पढ़ाई में बहुत अच्छा होने के बावजूद प्रैक्टिकल में मुझे कभी भी 50 में से 35 नंबर से ज्यादा नहीं आता था. जबकि थ्योरी में 40 से कम कभी नहीं होता था. जबकि होता इसका उल्टा है. आमतौर पर प्रैक्टिकल में ही ज्यादा नंबर मिलते हैं. असल में वह एक खास जाति के लोगों का स्कूल था और उसी समुदाय के लड़कों को 50 में 50 नंबर तक मिलते थे. बाकी हमलोगों को 22,25,28 ऐसे नंबर मिलते थे. एम एस सी करने के दौरान कॉलेज में भी यह देखने को मिला. केमेस्ट्री में मैं बहुत तेज था. तो सारे लड़के मेरे साथ रहना चाहते थे. हमारा जो ग्रुप था, उसमें एक लड़का था पांडे. परीक्षा थी. हमलोग एक सवाल का हल ढ़ूंढ़ रहे थे लेकिन वो मिल नहीं रहा था. पांडे ने कहा कि इतना दिमाग क्यों लगाते हो, छोड़ दो. एक पांडे जी कोर्स इंस्ट्रक्टर थे. वो उनके पास गया तो उन्होंने कहा कि कॉपी में गोले का निशान बना दो और छोड़ दो. वह आया और अपने और मेरे दोनों के कॉपी में गोल निशान बना दिया. पांडे ने कहा कि चिंता मत करो हमें ‘ए’ ग्रेड मिलेगा. मैने सोचा कि बिना सवाल हल किए कैसे मिलेगा. लेकिन और कोई चारा नहीं था. जब रिजल्ट आया तो मैं पांडे जी से अपना ग्रेड पूछने गया. उन्होंने नाम पूछा और कहा कि ‘सी’ ग्रेड है. मैं अपने कमरे में चला गया तो पांडे आया. मैने बोला कि तुमने कहा था कि ‘ए’ ग्रेड आएगा लेकिन मुझे तो ‘सी’ ग्रेड आया है. उसने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है. मुझे ‘ए’ ग्रेड आया है. वह मुझे लेकर पांडे जी के पास गया और लिस्ट निकाल कर देखा. मुझे भी ‘ए’ ग्रेड ही था. तो वह भी जाति उत्पीड़न का एक रूप ही था, जहां नाम सुन कर ही ग्रेड तय किया जाता था. प्रतिभा के आधार पर नहीं.
आप नौकरी में कब आएं?
– मुझे पहली नौकरी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में 1984 में मिली थी. लेकिन मुझे अच्छी पोस्टिंग नहीं मिली. महाराष्ट्र के उस्मानाबाद में पोस्टिंग थी तो हमने इस नौकरी को ज्वाइन नहीं किया. इसके बाद मुझे नेशनल सीड्स कार्पोरेशन में सीड्स आफिसर की नौकरी मिली. यह नौकरी दिल्ली में थी. तब तक हमारी एम एस सी पूरी नहीं हो पाई थी. तब मैं फर्स्ट इयर में ही था. मैने सोचा कि नौकरी दिल्ली में है इसलिए ज्वाइन कर लिया, ताकि यहीं रहकर सिविल सर्विस की तैयारी भी की जा सके. लेकिन दो महीने यहां रखने के बाद इन्होंने मेरा तबादला गुवाहाटी कर दिया. फिर यहां से मेरा ट्रांसफर इंफाल में कर दिया गया. यहां से मुझे अगरतला में जाना पड़ा. कुल मिलाकर तीन सालों तक मैं नार्थ इस्ट में रहा. इस दौरान मेरा करियर थोड़ा डंप रहा. 1989 में मेरा फिर से दिल्ली में ट्रांसफर हुआ. यहीं असिस्टेंट डायरेक्टर, ज्वाइंट डायरेक्टर और डायरेक्टर रैंक तक पहुंचा. इसके बाद मैं आचार्य नरेंद्रदेव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय में कुलपति हूं. नवंबर 2010 में यहां ज्वाइन किया. नौकरी के दौरान भी कई मुसीबतें आई लेकिन इस दौरान जीवन में जो भी बाधा आई उससे निपटने में कालेज के दिनों में किया गया संघर्ष हमेशा काम आया.
कृषि आपका विषय रहा है. इस विषय के बारे में आपकी अपनी एक समझ है. देश की कृषि नीति को आप कैसे देखते हैं?
– इसे असल में एग्रीकल्चर एंड एलाइट सेक्टर बोलते हैं. हमारी एग्रीकल्चर पॉलिसी तो बहुत अच्छी है लेकिन कृषि नीति में ज्यादा जोर दिया गया प्रोडक्शन के लिए. क्योंकि देश में हमेशा भूखमरी रही तो इसकी वजह से सरकार और हम जैसे पॉलिसी मेकर का ज्यादा ध्यान प्रोडक्शन पर ही रहा. आज आप देखेंगे कि 242 मिलियन टन अनाज (फूड ग्रेन) का प्रोडक्शन हो रहा है जो एक रिकार्ड है. हर साल हम एक नया रिकार्ड छू रहे हैं. प्रोडक्शन बढ़ता जा रहा है. मुझे लगता है कि असली दिक्कत इसके बाद की है. प्रोडक्शन के बाद जो मार्केटिंग होनी चाहिए, जो ढ़ांचा बनना चाहिए, स्टोरेज कैपिसिटी बढ़ानी चाहिए, वहां हम कमजोर हैं. हमारे पास बढ़िया ढ़ांचा नहीं है. किसानों का अनाज अच्छी कीमत पर बाजार में बिक नहीं पाता. किसान से ग्राहक तक पहुंचने के बीच कीमत जिस तरह से 2 रुपये से 20 रुपये हो जाती है, यह भी एक वजह है. क्योंकि यहां फायदा किसानों को नहीं मिलता जबकि ग्राहकों की जेब ढ़ीली होती है. इसलिए समय की जरुरत है कि प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग), भंडारण, विपणन आदि पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है. उच्च कोटि का अनुसंधान (रिसर्च) होना चाहिए, जिसमें अभी हमलोग पीछे हैं. हमें जो सफलता मिली है, जिसे हम हरित क्रांति कहते हैं वह हमें गेहूं और धान में ही मिली है. क्योंकि इन फसलों पर विदेशों में अधिक काम हुआ है. दलहन और तिलहन में और अधिक काम किए जाने की जरूरत है.
इसके लिए जिम्मेदार कौन है?
– सिस्टम जिम्मेदार है. असल में देश बहुत बड़ा है तो चीजों के मार्केटिंग मैनेजमेंट पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. मंडी परिषदों को बढ़ाने की जरूरत है. किसानों द्वारा उपजाए अनाजों को रखने की व्यवस्था हो. किसान जब अपनी पैदावार करता है तो खेत में बहुत नमी होती है, उसे सुखाने के लिए भंडार में ड्रायर लगाए जाने की जरूरत है. अच्छी पैकेजिंग करने की सुविधा हो. किसानों की उपज को कुछ दिन स्टोर करने के बाद बाजार में बेचा जाए. इससे किसानों को फायदा मिलेगा.
आपको अगर देश की कृषि नीति बनाने को कहा जाए तो आप क्या करेंगे, ताकि किसानों को बेहतर फायदा मिल सके.
– एक तो देश भर में ठीक ढ़ंग से जमीनों को नहीं बांटा गया है. खेतों में काम करने वाले असली लोगों के पास तो जमीन ही नहीं है. वो तो खेतिहर मजदूर हैं. जमीन उनके पास है, जो खेती में काम नहीं करते. यह एक बड़ा मुद्दा है. सरकार को इस बारे में ध्यान देना चाहिए कि जो लोग सही में खेती करते हैं जमीन उनके हाथ में हो. दूसरा, किसानों को अच्छी उन्नत किस्म का बीज समय से दिया जाए और उनकी पानी की समस्या को दूर किया जाए. तो उन्नत बीज, सही समय पर पानी की जरूरत और खाद की उपलब्धता. ये तीन चीजें अगर किसानों को मिले तो किसानों के स्तर पर उत्पादन को और बढ़ाया जा सकता है. फसल आने के बाद सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित होता है और सरकार इस न्यूनतम मूल्य पर खरीद करती है. लेकिन सरकार इसे देश भर में नहीं खरीदती है. मूल्य निर्धारण के आधार पर कुछ ही प्रदेशों में और कुछ ही फसलों के लिए किया जाता है. ये सभी फसलों का किया जाना चाहिए और न्यूनतम मूल्य पर पूरे प्रदेशों एवं सभी फसलों की उपज को खरीदने की व्यवस्था की जानी चाहिए. तथा इसका प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) कर के मार्केटिंग की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए. स्टोरेज कैपिसिटी बढ़ाई जानी चाहिए. जो डिस्ट्रीब्यूशन है, वह भी इतना बड़ा है कि ठीक से मैनेज नहीं हो पा रहा. तो ये दो-तीन कमियां हैं. दूसरा, गांव के स्तर पर ही स्टोरेज कैपिसिटी डेवलप करने की जरूरत है. एक दिक्कत यह भी है कि किसान अपने प्रोडक्ट को बहुत कम दाम पर डायरेक्ट बेचता है. तो उपज के प्रोसेसिंग की व्यवस्था की जानी चाहिए. कॉटेज इंडस्ट्री डेवलप की जाए. कुछ वैल्यू एडीशन किया जाए. जैसे अरहर के दाल का सीजन आता है तो 15-20 रुपये में बिकती है. जबकि अगर उसी को मिल में दाल बनाकर बेचा जाता है तो वो 100 रुपये किलो बिकती है.
आप अभी देश के प्रतिष्ठित नरेंद्रदेव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय के कुलपति हैं. अपनी इस जिम्मेदारी को आप कैसे देखते हैं. यह आपके लिए कितना अहम है?
– मैं जिस नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय एक बहुत बड़ा विश्वविद्यालय है और उसमें 27 जिले आते हैं. तो पूर्वी उत्तर प्रदेश के 27 जिलों में इस विश्वविद्यालय के कृषि विज्ञान केंद्र हैं, कृषि ज्ञान केंद्र और रिसर्च सेंटर हैं. इन 27 जिलों में तकरीबन 8 करोड़ आबादी रहती है. तो इस 8 करोड़ की आबादी को हमें उन्नत किस्म के बीज देना, नई तकनीक को उनतक पहुंचाना और इन दोनों का इस्तेमाल कर उन्हें अच्छी उपज के लिए प्रोत्साहित करने की जिम्मेदारी हमारी है. फिर हमारे पास कॉलेज आफ फिशियरी साइंस है. इस पर भी हमारा खासा ध्यान है. पूर्वांचल का ज्यादातर इलाका बाढ़ग्रस्त है. इन इलाकों में धान की खेती ज्यादा होती है. हम कोशिश कर रहे हैं कि इन इलाकों में धान के खेतों में मछली भी डाली जाए. मछली और धान के साथ-साथ बढ़ने का पूर्वांचल के इन 27 जिलों में अच्छा स्कोप है. हम इसे प्रोमोट करने में लगे हैं. हमारी कोशिश है कि अगले तीन सालों में फिश-राइस की एक साथ खेती को फैला दें. इससे किसानों को बहुत ज्यादा फायदा होगा.
इसके अलावा ये जो हमारे जिले हैं यहां हर्टिकल्चर (बागवानी) का बहुत स्कोप है. यहां आंवला बहुत ज्यादा होता है. बेल बहुत होता है. बेर बहुत होती है. हम इनकी पैदावार को भी बढ़ाने के ऊपर काम कर रहे हैं. हमने हरियाणा से अच्छी किस्म की साहीवाल नस्ल की गायों को लाकर अपने क्षेत्रों में बंटवाया है ताकि यहां अच्छे किस्म की गाय की बहुतायत हो और दुग्ध उत्पादन को दुगना किया जा सके. यह राज्य सरकार और भारत सरकार की भी मंशा है. यहां नील गायों का बहुत प्रकोप है. हम उनके जन्म को कंट्रोल करने का प्रयास कर रहे हैं. यह बहुत जरूरी है क्योंकि नील गाय किसानों की फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं.
विश्वविद्यालय को लेकर आपकी भविष्य की क्या योजना है?
– 19 नवंबर 2010 को मैने विश्वविद्यालय के कुलपति का पद संभाला था. जब मैने ज्वाइन किया था तो पता चला कि पिछले पांच साल से विश्वविद्यालय में कोई दीक्षांत समारोह (convocation) नहीं हो पाया है. इस इलाके में एक खास वर्ग के लोगों का बाहुल्य है, जो दीक्षांत समारोह नहीं होने देते थे. तीन मार्च को कन्वोकेशन था और मैने तय किया कि इस बार यह समारोह जरूर आयोजित होगा. सारे विवादों को मैनेज करते हुए हमने कन्वोकेशन करवाया. लगे हाथ 15 दिसंबर 2011 को हमने दूसरा कन्वोकेशन भी करवा दिया. इस तरह एक साल में हमने दो कन्वोकेशन करवाया. इससे हमें एक आत्मविश्ववास आया. दूसरी चुनौती यह आई कि वहां पिछले दस सालों से बैलेंस शीट नहीं बनी थी. यह गंभीर बात थी, क्योंकि बैलेंस शीट में यह सारी जानकारी होती है कि कहां से कितना पैसा आया और वह कहां खर्च हुआ. अगर हम पैसा देने वाले को हिसाब नहीं देंगे तो वह पैसा क्यों देगा? तो यह चुनौती थी. हमने 10 साल की बैलेंस शीट बनवाई और इसे अपडेट किया. इससे निपटे तो एक समस्या और खड़ी हो गई. विश्वविद्यालय के निर्माण को 35 साल हो गए थे लेकिन अब तक इसकी वार्षिक प्रगति रिपोर्ट (Annual Progress Report) नहीं बनी थी, न छपी थी. तो हमने प्राथमिकता के आधार पर वार्षिक रिपोर्ट 2009-10 और 2010-11 बनवाकर छपवाया. अब तक विश्वविद्यालय का ACCREDITATION नहीं हुआ था. हमने ACCREDITATION कराने के लिए एक रिपोर्ट तैयार कर के भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) से यह काम करवा रहे है. जो विश्वविद्यालय की स्थापना के समय ही होना चाहिए था, वह आज 37 साल बाद हो रहा है.
विश्वविद्यालय में पिछले 37 सालों से एल्यूमिनाई (पूर्व छात्र) का गठन नहीं हुआ था. हमने इसका गठन किया और पहली Alumni Meet कराई. इस तरह हमने पहले सालों से अधूरे पड़े कामों को पूरा किया और फिर विश्वविद्यालय के लिए नई परियोजनाएं लेकर आएं. हां, एक दिक्कत और थी. जब मैने विश्वविद्यालय में ज्वाइन किया था तो वहां के स्टॉफ को पिछले छह महीने से सैलरी नहीं मिली थी. मैने राज्य सरकार से अच्छा टाई-अप किया और फिर नियमित सैलरी दिलवाना शुरू किया. आज ऐसा है कि एक साल हो गए और किसी को कोई दिक्कत नहीं है. विश्वविद्यालय एकदम शांति के साथ चल रहा है. यह केवल मैनेजमेंट की ही कला थी. क्योंकि विश्वविद्यालय में अगर कोई बदलाव हुआ था तो वह महज कुलपति के तौर पर मेरी नियुक्ति हुई थी. क्योंकि विश्वविद्यालय का प्रबंध परिषद वही है, छात्र वही हैं, टीचर-प्रोफेसर वही हैं, सिस्टम वही है.
विश्वविद्यालयों में एक बड़ी समस्या एससी/एसटी सीटों पर बैकलॉग की है. आप इस समस्या को कैसे देखते हैं?
– हमारे विश्वविद्यालय में भी बैकलॉग है. इसे भरने के लिए हमने तमाम पदों पर 66 वेकैंसी निकाली है. हम कोशिश करेंगे कि राज्य सरकार के साथ अच्छा तालमेल बनाकर उस बैकलॉग को पूरा कर सकें. तो हमारा प्रयास है कि समाज को लेकर हमारा जो दायित्व है उसे पूरा करें और हम इसे जरूर पूरा करेंगे. इसमें राज्य सरकार का सहयोग चाहिए होता है. कोशिश है कि हम इसमें कामयाब हो.
आपने अपने छात्र जीवन के दौरान जातीय आधार पर भेदभाव होने की बात कही थी लेकिन जब आप नौकरी में आएं, तो क्या इस दौरान भी करियर में कभी भेदभाव का सामना करना पड़ा?
– बहुत बार करना पड़ा. जब मैं असिस्टेंट डायरेक्टर था तो ज्वाइंट डायरेक्टर के लिए विज्ञापन निकला. हमारे एक साथी असिस्टेंट डायरेक्टर थे. वो ब्राह्मण थे. उन्होंने कहा कि पहले मेरे डिपार्टमेंट के ज्वाइंट डायरेक्टर की पोस्ट भरी जाए वरना मैं जूनियर हो जाऊंगा. वो इसको लेकर कोर्ट में चले गए और कोर्ट ने उनको स्टे भी दे दिया. जबकि उनका और हमारा डिपार्टमेंट अलग था. उनकी योग्यता हमारे विभाग के पोस्ट के लिए फिट नहीं बैठती थी. दो सालों तक केस चलता रहा. इस बीच मैं जूनियर हो गया. जब वो केस हारे तब जाकर मेरा प्रोमोशन हुआ. यहां से निकला तो एक नई बाधा आ गई. हमारे एक सीनियर ने डायरेक्टर पद के लिए ऐसी योग्यता निर्धारित कर दी ताकि हम उसके मानक पर फिट न बैठे. लेकिन हुआ ऐसा की वो खुद ही चले गए और मेरा डायरेक्टर के पद पर सेलेक्शन हो गया. लेकिन इन सारे Discrimination (भेदभाव) के बाद भी मैं विश्वविद्यालय में कुलपति बना. तो मेरा शुरू से ही कर्म पर विश्वास है. ईश्वर से ना तो मेरी दुश्मनी है ना ही दोस्ती है. शिवखेड़ा की एक किताब है, जीत आपकी. इसमें शुरू में ही लिखा है “जीतने वाले कोई नया काम नहीं करते बल्कि नए ढ़ंग से करते हैं”. तो मेरा इसमें विश्वास है.
आप किनसे प्रभावित हैं, रोल मॉडल कौन है?
– भगवान बुद्ध के बताए रास्तों पर मेरी श्रद्धा है. उनके बताए पंचशील को फॉलो करता हूं. बाबा साहेब ने काफी प्रभावित किया. उनका जीवन संघर्ष, उनकी लिखी बातें, उनके अथक मेहनत के बाद समाज के एक बडे तबके को मिला सम्मान का हक. उसी वजह से हम आज यहां हैं. मैं यह कहना चाहता हूं कि हर किसी को बाबा साहेब को पढ़ना चाहिए. उनके जीवन संघर्ष, उनके कठोर परिश्रम को जानना चाहिए. बाबा साहेब में मुझे जो सबसे खास चीज नजर आई वो यह थी कि उन्होंने खुद के लिए नहीं बल्कि समाज के विकास के लिए सोचा, काम किया. तो उनका प्रभाव हमेशा महसूस करता हूं. हर किसी को समाज के विकास के बारे में सोचना चाहिए. मैं भी समाज से जो मिला है, उसे लौटाना चाहता हूं. हमारा मकसद दलित सेवा है.
आप जिस समाज से ताल्लकु रखते हैं, वहां की विपरीत्त परिस्थितियों से निकल कर कुलपति पद तक पहुंचना एक सपना सरीखा है. आज जब आप यहां हैं तो समाज की भलाई के लिए क्या सोचते हैं. आप इसकी बेहतरी के लिए क्या करना चाहते हैं?
– 24 घंटे इस बारे में सोचता हूं. जब भी कहीं किसी मीटिंग वगैरह में जाता हूं तो अपने बारे में बताता हूं कि कैसे और कहां से निकल कर मैं यहां तक पहुंचा. मैं बताता हूं कि कैसे हमारे गांव में बिजली नहीं थी. आज भी नहीं है. मोमबत्ती जलाकर, लालटेन जलाकर पढ़ते थे. मां-बाप के बारे में बताता हूं, गरीबी के बारे में बताता हूं कि कैसे आसानी से रोटी मयस्सर नहीं थी. बताता हूं कि इन सारी दिक्कतों और बाधाओं के होने के बावजूद भी कैसे हमने पढ़ाई की और अपनी मेहनत के बूते हमेशा आगे बढ़ते रहा और आज कुलपति के पद तक पहुंचा. न तो हमें भाषा रोक पाई, ना जाति रोक पाई, ना ही सुविधाओं का अभाव. आज देश में जितने भी सरकारी विश्वविद्यालय है, मैं उन सबमें सबसे कम उम्र का (यंगेस्ट) कुलपति हूं. मैं अकेला ऐसा वाइस चांसलर (कुलपति) हूं जो 50 साल की उम्र में इस पद तक पहुंच गया नहीं तो ज्यादातर लोग 60-65 की उम्र में आते हैं. तो हमेशा समाज को पे-बैक करने की कोशिश करता हूं. जहां भी जाता हूं समाज के बच्चों को मोटिवेट करता हूं. जहां तक हो सकता है उनकी मदद करने की कोशिश करता हूं.
अपने बचपन में आप पांच पैसे कम होने की वजह से तरबूज नहीं खरीद पाए थे. आज आपके पास सबकुछ है. जब आप पीछे मुड़कर उन दिनों को कैसे याद करते हैं?
– स्थिति अभी भी ज्यादा नहीं बदली है. समाज में आज भी हमारे जैसे अनेकों कुरील हैं, जो तरबूज नहीं खरीद पाते होंगे. मैं मानता हूं कि समाज में विकास हुआ है लेकिन वह विकास लोगों का व्यक्तिगत विकास है. समाज का विकास नहीं हुआ है. आज भी जब हम कई जगहों पर जाते हैं तो पुराने दिन याद आते हैं. हमारी जगह पर कोई दूसरा बच्चा बैठा मिलता है. वह हमारे जैसी चुनौतियों का ही सामना कर रहा होता है. जैसी मजबूरियों में हम थे, वैसी ही मजबूरी में वो भी फंसा हुआ है. गांव में जाते हैं तो देखते है कि विकास आज भी नहीं हुआ है. मैं देखता हूं कि 25 साल पहले जैसे गांव थे, आज भी वैसे ही है. समाज में मुझे कोई बदलाव, कोई विकास नजर नहीं आता. जो लोग उठे हैं वो व्यक्तिगत मेहनत कर के उठे हैं. हां, सामाजिक जागरूकता बढ़ी है, राजनीतिक सफलता भी मिली है, अधिकारों के बारे में भी जागरुकता बढ़ी है, पढ़े-लिखे लोग भी ज्यादा दिखते हैं लेकिन जो आर्थिक विपन्नता है, वह आज भी ज्यों की त्यों है.
आपके कम पढ़े माता-पिता ने जब आपकी सफलता देखी तो उनकी प्रतिक्रिया क्या थी? और उन्हें यह खुशी देकर आप कितने संतुष्ट हुए?
– मेरे माता-पिता हमेशा से मेरे साथ रहते हैं. आज मैं कुलपति हूं तो भी वो मेरे साथ ही रहते हैं. मेरी सफलता उनके लिए एक सपना सरीखा है. आप सोच सकते हैं कि जो लोग खेतों में मजदूरी करते थे, आज जब उनका बेटा वाइस चांसलर बन गया है, देश के गिने-चुन बुद्धिजीवियों में शामिल है,समाज का नाम रौशन किया है. तो जाहिर है उन्हें बहुत फ्रख होता है, सांत्वना भी मिलती है. मैने उन्हें ऐसा मौका दिया है.
व्यक्तिगत जीवन में भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
– अभी तो मैं 50 साल का हूं. भविष्य के बारे में कोई नहीं जानता. राज्य सरकार या भारत सरकार जब तक सरकारी नौकरी में हूं कोई भी सेवा ले सकती है. जहां सरकारें चाहेंगी वहां काम करुंगा. शिक्षण संस्था के साथ जुड़े रहने में रुचि है. इन सबसे अलग अगर नौकरी छोड़कर समाज के लिए काम करने की जरूरत हुई तो समाज के लिए भी काम करेंगे. हमने बहुत दिन नौकरी कर ली.
सर आपने इतना वक्त दिया. अपने संघर्ष को हमसे साझा किया, धन्यवाद
धन्यवाद अशोक जी.
इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आप नीचे कमेंट बॉक्स में कमेंट दे सकते हैं. कुलपति डा. कुरील तक अपनी बात सीधे पहुंचाने के लिए आप उन्हें drkureel@yahoo.co.in पर मेल कर सकते हैं.
![](https://www.dalitdastak.com/wp-content/uploads/2021/06/Ashok-Das-06-1.jpeg)
अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-अंबेडकरवादी पत्रकारिता के प्रमुख चेहरा हैं। जब हिन्दी पट्टी में अंबेडकरवादी मूल्यों की पत्रकारिता दम तोड़ने लगी थी, अशोक ने 2012 में मासिक पत्रिका ‘दलित दस्तक’ शुरू कर सामाजिक न्याय की पत्रकारिता को नई धार दी। उनके काम को देखते हुए हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने साल 2020 में उन्हें हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया। जहां उन्होंने Caste and Media विषय पर अपनी बात रखी। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास की पत्रकारिता को लेकर DW (Germany) सहित The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week और Hindustan Times आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
IIMC दिल्ली से 2006 में पत्रकारिता करने के बाद अशोक दास ने अपनी पत्रकारिता शुरू की। वह लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में रहे। 2010-2015 तक उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
‘दलित दस्तक’ एक मासिक पत्रिका के साथ वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल एवं प्रकाशन (दास पब्लिकेशन) है। उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
Ashok Das (Ashok Kumar) is a prominent face of Dalit-Ambedkarite journalism. When journalism based on Ambedkarite values was beginning to die down in the Hindi belt, Ashok gave a new edge to social justice journalism by starting ‘Dalit Dastak’ in 2012. Harvard University invited him as a speaker at the Harvard India Conference in the year 2020.Where he spoke on the topic of Caste and Media. India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of 50 Dalits, Remaking India in april 2021 issue. Features regarding Ashok Das’s journalism have been published in media organizations like DW (Germany), The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week and Hindustan Times etc.
Ashok Das started his journalism career after doing journalism from IIMC Delhi in 2006. He worked in prestigious media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4Media and Deshonnati. From 2010-2015 he covered various ministries and the Indian Parliament. He has been awarded the Prabhash Joshi Journalism Award. On January 31, 2020, on the completion of 100 years of the first paper ‘Mooknayak’ published by Dr. Ambedkar, Ashok Das and Dalit Dastak organized a grand event in Delhi where Dr. Ambedkar was remembered as a journalist. This gave a new edge to Ambedkarite journalism in India.
![](https://www.dalitdastak.com/wp-content/uploads/2020/12/PLATE.jpg)
Dear sir,
Your biography is really impressive and struggles tell us about the belief you have on you & karma follows the people. I am really glad to know about you.