भारतीय समाज में दलित साहित्य और राजनीति

भारतीय समाज में चातुर्वर्ण व्यवस्था भारतीय संस्कृति का आधार मानी जाती है. परन्तु दलित समाज के लिए एक सामान संस्कृति जैसी कोई चीज कभी नहीं रही. चतुर्वर्ण व्यवस्था से अधिक निकृष्ट और कोई सामाजिक संगठन कभी नहीं पनप पाया, बल्कि इस व्यवस्था ने तो दलित समाज के लोगों को मृत, पंगु तथा अशक्त बनाकर अच्छा कर्म करने से रोकने का आधार तैयार किया. हिन्दू धर्म ने तो दलितों को युगों से गुलाम बनाकर रौंदा है. एक वर्ग दूसरे वर्ग से श्रेष्ठ है, इस श्रेष्ठतम के अहंकार से लिप्त हिन्दू धर्म सभ्यता की झूठी आडम्बरी संस्कृति ने दलितों को हाशिए पर धकेलकर बहिष्कृतों की तरह जीने के लिए मजबूर किया है. ब्राह्मणवादी सभ्यता के सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में दलितों का प्रवेश निषेध कर दिया गया. उसे उत्पादनों के तमाम संसाधनों के हकों से वंचित कर दिया गया. जिस कारण से उसके लिए आर्थिक सत्ता को प्राप्त करने के सब सुलभ रास्ते बंद कर दिए गए. केवल बाकी बचा अस्पृश्यता का अदृश्य अदद शरीर. लेकिन उस अदद शरीर को भी नहीं छोड़ा गया, उस पर भी कब्जा कर लिया गया. कब्जा करके गुलामी की बेड़ियों से जकड़कर सदियों तक गुलाम बनाकर रखा गया, जिसके आज भी ताजा उदाहरण हमारे ग्रामीण परिवेश में नज़र आते हैं.

हिन्दू समाज ने दलित समाज को अपने में समेटता हुआ अधिकारहीन, अपवित्र करार दिया, जो राजसत्ता की मोहर की तरह जिन्दा और आज तक कायम है. समाज में जातिगत अपमान और उत्पीड़न की जड़ें गहरी हैं. एक लम्बे ऐतिहासिक काल से सामाजिक संरचना में इसकी मौजूदगी की निरन्तरता के कारण उसकी जटिल संश्लिष्ट प्रकृति सामने आती है. उसे देखकर इसके अस्तित्व का कभी खात्मा हो पाएगा, यह बात असम्भव प्रतीत होता है क्योंकि बहिष्कृत समाज गांव, कस्बों एवं नगरों की दक्षिण दिशा में अंधकारमय बस्तियों में सिसकता रहा है. ऐसी गुमनाम जिन्दगी, जिसमें अभाव, अपमान, अवहेलना, पीड़ा और तिरस्कार के अलावा और कुछ नहीं. इसको तो जन्म से ही अपवित्र माना जाता रहा है. अपवित्रता का अभिशाप झेलने की विवशता और उत्पीड़न के साथ जी रहा है.

सर्वप्रथम इस जातिवादी-ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर कट्टर प्रहार तथागत गौतम बौद्ध ने किया. समतामूलक समाज की स्थापना करने के लिए उन्होंने एक नये युग का सूत्रपात किया. दलितों एव स्त्रियों के लिए बौद्ध विहारों में प्रवेश के माध्यम से ज्ञान का मार्ग प्रस्शत किया. थेर और थेरी गाथाओं में रचित साहित्य दलितों और स्त्रियों के दुख दर्द की अभिव्यक्ति दिखायी देती है जिसे सर्वप्रथम दलित साहित्य (काव्य) की श्रेणी में रखा जाता है. बौद्ध काल को स्वर्णकाल कहा गया परन्तु भारतीय हिन्दूवादी संकीर्ण राजनीति ने अपने कपटतापूर्ण व्यव्हार से बौद्ध-विहारों को नष्ट कर वैदिक संस्कृति की नींव रखने में सफलता प्राप्त की. शंकराचार्य जैसे लोगों ने बौद्ध विहारों को नष्ट करने के लिए उनमें प्रवेश कर गंदी राजनीति का खेल खेला और बौद्धों के विहारों को नष्ट करने के लिए एकजुट होकर उनके द्वारा रचित साहित्य को खत्म कर दिया. तक्षशीला जैसे विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को तीन दिन तक जलाकर विपुल बौद्ध साहित्य को खत्म कर दिया गया. यही वजह रही कि आज हमे बौद्ध साहित्य प्राप्त नहीं होता जो बचा वह विदेशों में मिलता है. इस समय ही दलित साहित्य की नींव पड़ गयी थी जिसे आगे चलकर दलित संत-परम्परा ने जिंदा रखा. उन्होंने उसी ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर चोट की जिसकी नींव तथागत बुद्ध ने डाली थी.

संत कबीर, संत रैदास, संत सवता माली ने अपनी रचनाओं में मानवीय मूल्यों की स्थापना की. भारतीय मुख्यधारा के साहित्य में इनकी रचनाओं और संदेश को भक्तिवादी साहित्य ही माना गया. उन्हे एक युगंतकारी मूलगामी परिवर्तक के तौर पर न देखना राजनीति का ही परिणाम रहा. संत सविता माली जो नामदेव के समकालीन थे, इसी परंपरा से महात्मा ज्योतिबा फूले पैदा हुए जिनको सारा राष्ट्र आदर, श्रद्धा सम्मान और स्नेह से ज्योतिबा कहता है. हिन्दू समाज में अछूत”” मानी जाने वाली जातियों के लिए सम्भवतः सबसे पहले उन्नीसवी सदी में जोतिराव फुले ने ‘दलित’ शब्द का प्रयोग किया. उन्हें जाति विरोधी आन्दोलनों का अग्रदूत कहा जा सकता है. 1840 में उन्होंने मुम्बई में खास तौर पर अछूतों”” के लिए एक स्कूल खोला और 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य ‘शूद्र और अतिशूद्र”” कही जाने वाली जातियों को अपने मानवाधिकारों के प्रति जागरूक बनाना और उन्हें ब्राह्मण धर्मशास्त्रा में प्रतिपादित विचारधारा के प्रभाव से मुक्त कराना था. महात्मा फूले ने हिन्दू विधवा स्त्रियों के लिए, उनके बाल काटने का विरोध करने के लिए नाइयों की हड़ताल करवा दी थी जो भारतीय ढांचे का एक क्रान्तिकारी परिवर्तन था. उन्होंने गुलामगिरी के माध्यम से दलितों को अपने अधिकारों के प्रति जागृत किया. शिक्षा पर अत्यधिक जोर दिया और सबसे पहले अपनी पत्नी को पढाया जो कालान्तर में भारत की पहली शिक्षिका बनी. मुक्ता बाई जैसे महिलाएं उनकी छात्राएं बनी. मुक्ता बाई जब 14 साल की थी तब उसने महार जाति की महिलाओं की सामाजिक स्थिति को लेकर एक निबंध लिखा जो अहमनगर से प्रकाशित एक अखबार में विस्तार से छपा. यह दलित छात्रा की पहली रचना थी जो स्त्रियों के दयनीय जीवन पर आधारित रचना थी. ये सब भी उसी राजनीति का शिकार हुए और एक युग का अन्त हुआ.

तथागत बुद्ध से लेकर महात्मा ज्योतिबा फुले तथा सावित्री बाई फुले के कार्यों को आगे बढाते हुए डॉ. बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर ने दलित एकता, समानता, स्वतंत्रता, समान नागरिक अधिकार और गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए आजीवन संघर्ष किया. राजनीतिक अधिकारों के लिए उन्होंने पूना-पैक्ट किया और संविधान के माध्यम से सभी अधिकारों में सामानता दी. स्त्रियों के लिए हिन्दू कोड बिल बनाया जो संसद में उस रूप में पारित नहीं हो पाया जिस रूप में बाबासाहेब ने इसे बनाया था. इसके कारण उन्होंने संसद में कानून मंत्री पद से इस्तीफा कर दिया था. मनुस्मृति जो दलितों और स्त्रियों के लिए हिन्दू कानून के रूप में काम करती थी उसका दहन कर उस व्यवस्था को खत्म किया जो सदियों से दलितों को गुलाम बनाने के लिए बनी थी.  उन्होंने वर्णाश्रम के अनुसार हो रहे इस सामाजिक उत्पीड़न को एक के ऊपर एक रखे उन मटकों के समान माना है, जिनमे सबसे नीचे के मटके में दलित और आदिवासी है. वर्ण व जाति के इस मानव निर्मित जाल की बुनतर को बाबासाहेब बखूबी समझते थे इसलिए उन्होंने जाति-व्यवस्था को पूर्ण रूप से खत्म करने का बीड़ा उठाया. उन्होंने कहा- “मैं हिन्दू समाज में पैदा हुआ पर इसमे मरुंगा नही”. सन 1956 में दस लाख लोगों के साथ बाबासाहेब ने नागपुर में हिन्दू धर्म का त्याग कर और बौद्ध धर्म ग्रहण कर दलितों के लिए एक नया रास्ता तैयार कर दिया था. लोकतंत्र के माध्यम से सता प्राप्ति का अधिकार दलितों और आदिवासियों के लिए दिया. बाबासाहेब शिक्षा को शेरनी का दूध कहते थे. इसलिए उन्होंने हमेशा पैन और प्रैस पर जोर दिया. दलितों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने बताया कि अपने अनुभव अपनी कलम से लिखो ताकि आने वाली पीढ़ियां उस साहित्य को पढे. उस दौर में लिखा गया साहित्य दलित साहित्य के लिए मील का पत्थर साबित हुआ. दलित महिलाओं ने अपनी आत्मकथाओं के माध्यम से अपने दुख-दर्द एक दूसरे से सांझा किये .

उस दौर से प्रेरणा लेकर अम्बेडकरी साहित्य आज विपुल मात्रा में लिखा जा रहा है. दलित, जिसमें दलित महिलाएं भी शामिल हैं, आज मुख्यधारा के साहित्य को टक्कर देकर भूमंडलीकरण साहित्य के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए है. आज दलित साहित्य को स्कूलों और कालेज तथा विश्वविद्यालय के पाठयक्रमों में पढाया जाना इस साहित्य की एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है. फिर भी इतने संघर्षों और कुर्बानियों के बावजूद भी आज दलितों और आदिवासियों के साहित्य को मूल रूप से नहीं पढाया जाता बल्कि उसमें राजनीति एक अहं रोल अदा करती दिखाई देती है. राजनीति उस दलित काव्य को नजरादंज करती है जो उस व्यवस्था पर चोट करती है जो मूलगामी परिवर्तन व दलित तथा बहुजन एकता की बात करते हैं. राजनीति कभी नहीं चाहेगी कि बहुजन समाज की एकता स्थापित हो जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने संघर्ष किया था .

– लेखिका मोतीलाल नेहरू कॉलेज में संस्कृत विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.

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