डॉक्टर अम्बेडकर कहते थे यदि कोई काम आपको अछूत बनाता है तो उस काम को तुरन्त छोड़ दीजिये. साफ़ सुथरे रहिये और गंदगी वाला काम मत कीजिये. मैं समझता हूँ जिस तरह दलितों ने गुजरात में मरी हुई गाय को फेंककर विरोध किया है, उसके बाद इन्हें कभी भी मरी हुई गाय की चमड़ी उतारने जैसा काम नहीं करना चाहिए. क्यों सारे गन्दगी वाले काम दलित ही करें?? गंदे नालों के सीवेज में जाकर सफाई करना, लोगों का मैला ढोना और मरे हुए पशुओं की चमड़ी उतारने जैसा काम सिर्फ दलितों के हिस्से ही क्यों आये?? दूध देती गाय ब्राह्मणवादियों की और मरी हुई बदबूदार गाय दलितों की क्यों ??
कितना कठिन और दमघोटू होता होगा मरे हुए जानवर की चमड़ी उतारना और वो भी बिना मास्क और दस्तानों के?? ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा जूठन में लिखा है कि जब उनके चाचा ने उन्हें मरी हुई गाय की खाल उतारने के लिए मदद करने को कहा तो कैसे बदबू के कारण उनका दम निकला जा रहा था और जब वो अपने सिर पर खाल लेकर जा रहे थे तो उन्हें डर लग रहा था कि कहीं उनके साथ पढ़ने वाले बच्चे उनको देख ना ले, वरना वो उनका मजाक उड़ाएंगे. क्या बीती होगी उस वक़्त एक बच्चे पर ?? डॉक्टर तुलसीराम ने भी अपनी आत्मकथा मुर्दहिया में लिखा है कि कैसे चमड़ी उतारने वालों को दूसरी जाति वाले डांगर खाना यानी पशु को खाने वाला बुलाते थे. इसलिये मुझे लगता है यदि सम्भव हो तो दलित समुदाय को इन कामों नहीं करना चाहिए.
डॉक्टर अंबेडकर ने अपनी किताब शुद्र कौन थे और वो अछूत कैसे बने? में लिखा है कि ऋगवेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे, जो खुद ऋगवेद से ही स्पष्ट है. ऋगवेद में (10. 86.14) में इंद्र कहते हैं कि उन्होंने एक बार 5 से ज़्यादा बैल पकाए. ऋगवेद (10. 91.14) कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई. ऋगवेद (10. 72.6) से ऐसा लगता है कि गाय को तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था. यानी जो ब्राह्मणवादी ना सिर्फ मांस बल्कि गौ-मांस खाकर विकसित हुए वो आज गौ-रक्षा के नाम पर मरी हुई गाय की चमड़ी उतार रहे दलितों पर अमानवीय अत्याचार करते हैं. दोगले कहीं के!
इतिहास गवाह है, हिन्दू धर्म ने वैसे भी शूद्रों को कभी अपना हिस्सा नहीं माना था, सब जानते हैं अंग्रेजी शासनकाल में कैसे मुस्लिम लीग के खिलाफ अपना संख्याबल बढ़ाने और अलग चुनाव क्षेत्र की मांग को ठंडा करने के लिए ही ब्राह्मणवादियों ने शूद्रों को हिन्दू होने का दर्जा दिया था. गुजराती दलितों ने सही कहा है… आओ करो अपनी माँ का अंतिम संस्कार। तुम्हारी माँ है तो अंतिम संस्कार भी तुम्हीं करो और चमड़ी भी तुम्हीं रखो.
मनुवादियों ने शूद्रों को जानबूझकर ऐसे गंदे और घृणित काम करने के लिए मजबूर किया ताकि समाज में उन्हें हीन भावना से देखा जाये और उनका सामाजिक बहिष्कार करना आसान हो जाये. चमड़ी उतारने जैसा काम असल में उसी मनुवादी गुलामी की निशानी है जिसने सैकड़ों सालों से शूद्रों को नरकीय जीवन जीने के लिए मजबूर किया. आज जरूरत है इस गुलामी की निशानी से भी दलित खुद को आजाद करें. मैं जानता हूं लाखों दलितों का पेट इस काम से भरता है. लेकिन अगर आप इसे नहीं छोड़ेंगे तो आने वाली नस्ल भी इससे बाहर नहीं निकल पाएगी. बाबा साहेब के अनुयायियों स्वाभिमान से रहो और सम्मानजनक काम करो.
लेखक पत्रकार है
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