मानवाधिकार आयोग के नए अध्यक्ष जस्टिस अरुण मिश्रा के खिलाफ क्यों हैं बहुजन

2006

सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस अरुण मिश्रा को राष्ट्रीय मानवाधिकार आय़ोग का नया अध्यक्ष बनाया गया है। मिश्रा 20 सितंबर 2020 को रिटायर हुए थे। इसके बाद 31 मई 2021 को उन्हें पीएम मोदी की अध्यक्षता वाली कमेटी ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग यानी नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन का चेयरमैन चुन लिया। और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद उन्होंने 2 जून को पदभार संभाल लिया है। आयोग का चेयरमैन होने के नाते उन्हें अब कैबिनेट मंत्री का दर्जा और सुविधाएं मिलेंगी। लेकिन इस नियुक्ति को लेकर बवाल शुरू हो गया है और जनता की अदालत में जस्टिस मिश्रा का ट्रायल शुरू हो गया है। इस ट्रायल में जस्टिस मिश्रा पर कई गंभीर आरोप लगे हैं। मिश्रा के खिलाफ खासतौर पर रिजर्वेशन के विरोध में काम करने, दलितों/आदिवासियों के हक का विरोधी होने, पूंजीपतियों के पक्ष में काम करने और न्यायपालिका में रहते हुए पक्षपात करने जैसे गंभीर आरोप लगाए जा रहे हैं।

 कहा जा रहा है कि रिज़र्वेशन के ख़िलाफ़ लगातार फ़ैसला देने वाले जज अरुण मिश्रा को भाजपा सरकार ने रिटायरमेंट के बाद का तोहफ़ा दिया है। सवाल उठ रहा है कि मानवाधिकार आयोग में ज़्यादातर मामले SC-ST और कमजोर वर्गों के आते हैं और अरुण मिश्रा का ट्रैक रिकार्ड इनके मामले में खराब है, ऐसे में वह इन वर्गों को न्याय कैसे देंगे? सोशल मीडिया पर लोग पुराने अखबारों की उन कतरनों को शेयर कर अरुण मिश्रा की नियुक्ति का विरोध कर रहे हैं, जिसमें उनकी भूमिका विवादास्पद और वंचित वर्ग की विरोधी रही है। मसलन, अरुण मिश्रा ने आदिवासी इलाकों में आदिवासी टीचर्स की 100 फीसदी भर्ती के खिलाफ फैसला दिया था, जिसका इस समुदाय ने काफी विरोध किया था।

प्रधानमंत्री मोदी के करीबी कहे जाने वाले उद्योगपति अडानी को तमाम मामलों में जस्टिस मिश्रा द्वारा लाभ पहुंचाने का आरोप है। जस्टिस अरुण मिश्रा को 2019 से 2020 के बीच अडानी से जुड़े सात केस मिले। यह चौंकाने वाली बात है लेकिन सच है कि इन सातों केस में फैसला अडानी के पक्ष में आया। आखिरी केस 2 सितंबर 2020 का है जिसमें अडानी के पक्ष में फैसला आने से अडानी ग्रुप की कंपनी को 8000 करोड़ रुपये का लाभ हुआ। जाने-माने वकील दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर जस्टिस अरुण मिश्रा के ख़िलाफ़ एक उद्योग समूह के कई मामलों को अपनी अदालत में सुनने का आरोप भी लगाया था। दिल्ली के तुगलकाबाद स्थित संत शिरोमणि सतगुरु रविदास महाराज धाम को ध्वस्त करने का आदेश अरुण मिश्रा ने ही दिया था।

 तो वहीं अरुण मिश्रा ने जजों को नियुक्त करने वाले कोलिजियम में रहते हुए अपने भाई विशाल मि़श्रा को हाई कोर्ट का जज बनाया। इसके लिए कम से कम 45 साल का होने की शर्त में भी ढील दी गई और 44 साल में ही विशाल मिश्रा हाईकोर्ट के जज बन गए। तब अदालत के भीतर भी खूब बवाल मचा था। न्यायमूर्ति बीएच लोया की हत्या के मामले की सुनवाई जस्टिस अरुण मिश्रा को ही सौंपी गई थी। वरीयता की सूची में 10वें स्थान पर होने के बावजूद जस्टिस अरुण कुमार मिश्रा की खंडपीठ को यह संवेदनशील मामला दे दिया गया था। इससे सुप्रीम कोर्ट के भीतर हलचल मच गई। 4 जजों ने अपनी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में बिना नाम लिए मिश्रा पर निशाना साधा था। विवाद होने पर जस्टिस मिश्रा ने खुद को इस केस से अलग कर लिया।

जिस ईवीएम को लेकर देश भर में बवाल मचा है, उसमें भी अरुण मिश्रा का नाम आता है। अरुण मिश्रा ही वो जज हैं जिन्होंने ये आदेश दिया था कि EVM के नतीजों की जाँच करने के लिए VVPAT की 100 प्रतिशत पर्चियों की गिनती ज़रूरी नहीं है। आज भी तमाम लोग इस पर सवाल उठाते हैं। लेकिन जस्टिस मिश्रा के उस फैसले ने ईवीएम को स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई।
वैसे किसी भी आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति में प्रधानमंत्री की भूमिका सबसे अहम होती है, लेकिन देखने में आया है कि मोदी सरकार में ऐसे तमाम पद योग्यता देखकर देने की बजाय आपसी रिश्तों को देखकर दिया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी और जस्टिस अरुण मिश्रा के बीच का कनेक्शन कितना मजबूत है, यह इससे समझा जा सकता है कि जब अरुण मिश्रा पद पर थे, उनके नाती के मुंडन में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी मौजूद थे। वह पारिवारिक आयोजन अरुण मिश्रा के सरकारी आवास पर हुआ था। तो वहीं पद पर रहते हुए अरुण मिश्रा ने पीएम नरेंद्र मोदी की तारीफ में कसीदे पढ़ते हुए उन्हें दूरदर्शी और अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाला प्रधानमंत्री बताया था। पीएम मोदी और अरुण मिश्रा के बीच इसी गठजोड़ के कारण जज के पद से रिटायर होने के बाद भी अरुण मिश्रा आठ महीने से अपनी सरकारी कोठी में जमे रहे। मानवाधिकार आयोग का चेयरमैन बनने के बाद वह कोठी उनके ही पास रह जाएगी। साथ ही कैबिनेट मंत्री का दर्जा होने के कारण तमाम सुविधाएं भी मिलती रहेगी।

 इन तमाम आरोपों के आधार पर जस्टिस अरुण मिश्रा को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के रूप में खतरनाक कहा जा रहा है। कहा जा रहा है कि उनके रिकार्ड को देखते हुए उनके कार्यकाल में वंचित तबके को न्याय मिलने की संभावना कम ही है। अरुण मिश्रा को चेयरमैन बनाए जाने का भारी विरोध शुरू हो गया है। ट्विटर पर लोग उनके पुराने फैसलों के साथ #ShameonArunMishra का ट्रेंड चला रहे हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के चेयरमैन की सेलेक्शन कमेटी में शामिल लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खडगे ने भी विरोध में चयन प्रक्रिया से खुद को अलग किया। खडगे की मांग थी कि आयोग के अध्यक्ष के रूप में एससी, एसटी या अल्पसंख्यक समाज के किसी व्यक्ति को नियुक्त किया जाए।

 दरअसल सरकार और न्यायपालिका के बीच गठजोड़ को लेकर बार-बार सवाल उठ रहे हैं तो इसकी जायज वजह भी है। SC-ST Act के ख़िलाफ़ फ़ैसला देने वाले जज अशोक गोयल को सरकार ने रिटायरमेंट के बाद NGT का चेयरमैन बना दिया। तो आरक्षण के ख़िलाफ़ फ़ैसला देने वाले जज अरुण मिश्रा को मानवाधिकार आयोग का चेयरमैन बनाया गया है। रिटायरमेंट के बाद जस्टिस रंजन गोगोई भाजपा के कोटे से राज्यसभा पहुंच चुके हैं। अब आखिर देश की जनता इसे कैसे देखे? साफ दिख रहा है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार लाभ लेने और लाभ देने के सिद्धांत पर चल रही है।

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