पारिवारिक शोक की अवस्था में हम एक हो जाते हैं और अपने सामूहिक स्व से बंध जाते हैं। हमारा मन हमारी उन सबसे खूबसूरत बातों के बारे मे सोचने लगता है जिसे हम परिवार कहते हैं। परिवार एक सबसे मूल्यवान संस्था है जहां आदर और सम्मान का दिखावा नहीं किया जाता। यह एक ऐसी जगह है जहां हम अपने दिल से सहज ही करुणा और स्नेह बांटते हैं।
मेरी दादी, चंद्रभागाबाई ने अपने पूरे परिवार को रिश्तों के एक खूबसूरत धागे से बांध रखा था। इस साल की शुरुआत मे 4 जनवरी को रात 9 बजकर पंद्रह मिनट पर नांदेड के सिविल लाइन अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली। इस तरह मेरे लिए यह नया साल एक सदमे के साथ शुरू हुआ। 2020 अब तक का सबसे कठिन साल रहा है, उसे विदा करते हुए मैं 2021 की तरफ कुछ आशावादी नज़रिये के साथ देखना चाहता था। हालांकि यह आशावाद ज्यादा देर नहीं टिक सका। मेरी दादी, चंद्रभागाबाई ने अपने पूरे परिवार को रिश्तों के एक खूबसूरत धागे से बांध रखा था। इस साल की शुरुआत मे 4 जनवरी को रात 9 बजकर पंद्रह मिनट पर नांदेड के सिविल लाइन अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली। मेरी दादी अस्थमा की मरीज थीं, बीते पच्चीस साल से वे इस बीमारी से लड़ रही थीं। उन्हे सांस लेने मे दिक्कत आ रही थीं और उनका दम फूल रहा था। जिस दिन उन्होंने हमें अलविदा कहा उस दिन उन्होंने बहुत तकलीफ झेली। वे वेंटीलेटर पर थीं और उनका ब्लड प्रेशर लगातार ऊपर-नीचे हो रहा था।
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उस रात उनकी देखभाल करने की बारी मेरे भाई और चाचा की थी, उन्होंने उस रात मुझे आइसीयू में भर्ती मेरी दादी की फ़ोटो भेजी। फ़ोटो में साफ नजर आ रहा था कि वे सरकारी अस्पताल के पलंग पर एक फटे हुए गद्देपर लेटी हुई थीं, उस पलंग पर चादर भी नहीं थी। यह तस्वीर देखकर मैं अंदर तक टूट गया और एक गहरी उदासी ने मुझे घेर लिया। लाख कोशिश करने के बाद भी मैं अपनी दादी को इस हालत मे नहीं देख पा रहा था।
मेरी बीमार दादी ने अस्पताल जाने के पहले मेरी माँ को रोते हुए गले लगाया था और रोते हुए ही मेरी माँ को नसीहत दी थी कि वो अपने बच्चों की यानि कि उनके पोते-पोतियों की ठीक से देखभाल करें। मेरे पिताजी छह साल पहले ही हमें छोड़कर चले गए थे; मेरी दादी अपने सबसे बड़े बेटे को बाबा कहकर बुलाती थीं और अपनी आँखों के सामने उन्हें मरता हुआ देखकर वे सदमे में डूब गयीं थीं। आज हम सब बड़े हो चुके हैं और आत्मनिर्भर हो गए हैं, लेकिन माँ का ममतामयी दिल आज भी पहले की तरह हमें उतना ही प्यार करता है।
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हफ्ते भर पहले मेरी बहन ने मुझे खबर दी थी कि आई (दादी) की तबीयत बहुत खराब है। मैंने तुरंत ही वीडियो कॉल करके बात की। मेरी दादी का चेहरा सूजा हुआ था इसके बावजूद वे कैमरे की तरफ देख पा रहीं थीं और मेरी चचेरी बहन की मदद से बातचीत कर पा रही थीं। कुछ साल पहले ही आई को सुनाई देना बंद हो गया था। उनके कान बहुत कमजोर हो गए थे और हमें सलाह दी गयी थी कि अब सुनने की मशीन वगैरह लगाकर इन कमजोर कानों पर जोर डालना ठीक नहीं है।
चंद्रभागाबाई के बच्चे उन्हें आई कहते थे, बाद मे उनके पोते-पोतियाँ भी उन्हे आई कहने लगे। दादी के कान अपने तीन लड़कों के मुंह से निकलने वाले सुरीले “आई” शब्द को सुनने के आदि हो चुके थे। बाद में नौ पोते-पोतियों ने इसमें सुर मिलाकर इसे और सुरीला बना दिया। आई ने एक भरपूर जीवन जीया। उन्होंने अपने बच्चों और पोते-पोतियों को अपनी आँखों के सामने आदमकद होते हुए और फलता-फूलता देखा। उनकी ऊंचाई करीब चार फीट थी। हम जब भी उन्हें गले लगाते थे, तब हमें नीचे झुकना होता था ताकि वे विशाल बाज़ की तरह अपनी बाहें फैलाकर हमें अपनी आग़ोश में ले सकें। इस तरह जब हम उनकी आग़ोश में होते थे, हम बहुत महफ़ूज महसूस करते थे। उनकी झुर्रीदार चमड़ी बहती हुई नदी के पत्थरों की तरह चिकनी हो गई थी।
उनसे गले मिलने पर वे आपको कम से कम एक मिनट तक अपनी आग़ोश में ले लेतीं थीं और फिर आपको ढेर सारे चुंबन झेलने होते थे। वे हमें उसी तरह चूमती थीं जिस तरह कि वे हमें हमारे दुधमुँहेपन में चूमा करती थीं। मैं अक्सर सोचता रहा हूँ कि आज जब उनके सभी पोते-पोतियाँ इतने बड़े हो गए हैं, तब हमें देखकर उन्हे कैसा लगता होगा? मुझे आज एक सम्मानजनक स्थिति में देखकर वे मुझे ‘साहेब’ कहकर बुलाती हैं, इसके पहले वे मुझे बाला कहकर पुकारतीं थीं। वे मुझे ‘तुम्हीं’ या हिन्दी के ‘आप’ जैसे सम्मानजनक सम्बोधनों से भी पुकारती थीं। यह बदलाव उनके जीवन में स्वाभाविक रूप से आया था। ठीक वैसे ही जैसे कि कोई व्यक्ति किसी उच्च शिक्षित या उच्च अधिकारी व्यक्ति के सामने स्वाभाविक रूप से झुकता है, या उसके मातहत काम करता है। चंद्रभागाबाई, यानि कि मेरी आई की कहानी आज की बुजुर्ग दलित पीढ़ी के जीवन को दर्शाती है।
मेरे परिवार को चंद्रभागाबाई के जन्म के साल तक के बारे में भी सही जानकारी नहीं है, ऐसे में तारीख और महीने की तो बात ही क्या की जाए। अगर उनके बच्चों की उम्र से हिसाब लगाया जाए तो सबसे सही अंदाज़ा यह है कि वे सन 1940 में पैदा हुई होंगी। वे एक खेतिहर मजदूर ‘हनुमंते’ के परिवार मे पैदा हुईं थीं। उन्हें बहुत बचपन से ही जात-पात से जुड़े नियम-कायदे सिखा दिए गए थे। अपने बचपन की यादें ताज़ा करते हुए दादी हमें सुनाती थीं “हमें सिखाया गया था कि ऊंची जाति के लोगों के खाने या पीने के पानी के बर्तन नहीं छूने हैं”, “हमें कभी भी सम्मान से पीने का पानी नहीं दिया गया, हमें हमेशा काफी ऊंचाई से पानी पिलाया जाता था”। मेरी दादी ने अपने बचपन में एक मराठा किसान की जमीन पर मजदूरी की। फसल कटाई के दिनों में उनका परिवार दिन भर में 25 पैसा कमाता था। मेरी दादी ने ज़िंदगी भर कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा।
चंद्रभागाबाई अपने दो भाइयों से बड़ी थीं और अपनी बहन से छोटी थीं, और जैसा कि बड़ी बहनों के साथ हमेशा होता आया है, मेरी दादी का बचपन भी अपने दो छोटे भाइयों की देखभाल में गुज़रा। नांदेड की उस्मान शाही मिल मे काम करने वाले अपने कामरेड पति के साथ एक अलग-थलग बसी दलित झुग्गी बस्ती में उन्होंने आधा शहरी और आधा देहाती जीवन जीया। मेरे दादा-दादी बिना दरवाजे के एक कामचलाऊ से कमरे में रहते थे जिसकी दीवारें प्लास्टिक की ताड़पत्री से बनीं थीं और दरवाजा सूखी टहनियों से।
चंद्रभागाबाई के तीन लड़के हुए, जिन्हें पालने के लिए उन्होंने तरह तरह के छोटे-मोटे काम किये। उन्होंने खेतों में और जूता फेक्टरी में काम किया और दलित छात्रों के हॉस्टल में खाना बनाने का काम भी किया। एक दमघोंटू कमरे में पूरे हॉस्टल के बच्चों के लिए दिन में तीन बार खाना बनाने का काम उनकी सेहत पर बहुत भारी पड़ा। लेकिन उन्हें इन हालात से जूझना ही था, अपने बच्चों के लिए उन्होंने यह सब झेला। गरीबी उन्हें विरासत मे मिली थी लेकिन इसके बावजूद वे एक साफ-सुथरी सूती-साड़ी पहनतीं थीं और इस मामले में कभी कोई समझौता नहीं किया। वे बहुत खूबसूरत थीं। फिर भी उन्हें अन्य भारतीय लड़कियों की तरह शादी के बाद जहरीली पितृ सत्ता का शिकार बनना पड़ा।
एक समय वह भी था जबकि चंद्रभागाबाई की कहानी या उनके लिए उनके पोते द्वारा लिखी गयी श्रद्धांजलि, और वो भी इंग्लिश में, कभी किसी अंतर्राष्ट्रीय अखबार में नहीं छप सकती थी। लेकिन आज यह संभव है और यह दलित समुदाय के लिए एक चमत्कार जैसा है, और हकीकत में यह एक दुर्लभ घटना है। वे महान जीवट वाले लोगों के उस समुदाय में जन्मीं थीं जिसे सबसे निचला और अछूत माना जाता था। जिंदगी और समय ने इन्हें जो कुछ भी दिया था, उससे भी आगे बढ़कर उन्होंने एक बड़ा सपना देखा था। हम दलितों के लिए हमारे पूर्वज ही हमारे देवता हैं और उन्हीं के जीवन को हम आगे बढ़ाते हैं। मेरी दादी अपनी रूह के जरिए हमें रास्ता दिखाने के लिए, अपने कामों से हमारे मन में विश्वास जगाने के लिए, हमें सहिष्णुता, ईमानदारी और प्रेम सिखाने के लिए हमारे पूर्वजों के देवसमूह में शामिल हो गयीं। मैं यह श्रद्धांजलि उन सभी दादियों-दादाओं के लिए लिख रहा हूँ जिनके महान वात्सल्य और धैर्य ने अपने पोते-पोतियों को इस लायक बनाया कि वे विरासत में मिले नैतिक मूल्यों से आगे बढ़कर कुछ और हासिल करने के लिए संघर्ष कर सकें।
जिन लोगों ने इन दिनों में अपने किसी प्रियजन को खो दिया है, मैं उनके दुख में शामिल हूँ। हमने जो खोया है वह एक अपूरणीय क्षति है, लेकिन हमें अपने बिछड़ गए परिजनों के साथ बिताए गए खूबसूरत पलों के बारे में सोचना चाहिए। आखिर में सिर्फ यादें ही रह जातीं हैं। इन खूबसूरत पलों की याद्दाश्त ही हमें आगे बढ़ने की ताकत देती है। मुझे लगता है कि ऐसे दुख को साझा करने के लिए समाज में एक सार्वजनिक मंच होना चाहिए। समाज में सामूहिक रूप से शोक मनाने की एक आदत बननी चाहिए। जिंदगी की एक बुनियादी सच्चाई, जिसे आज तक कोई नहीं बदल पाया– हमें उसका सम्मान करना सीखना चाहिए, और वो सच्चाई है– मृत्यु। मृत्यु को एक अंतिम सत्य मानकर और उसे स्वीकार करके हम जीवन की सारभूत शांति को हासिल कर सकते हैं। हमें मृत्यु को गले लगाना सीखना चाहिए यही हमें बुद्ध के बोधि-प्रकाश की ओर ले जाता है। मेरी दादी एक अछूत की तरह जन्मीं थीं लेकिन एक बौद्ध बनकर उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा।
अगर हमारे आंतरिक जीवन में संतोष है, तभी समता की अनुभूति हमारे दुखी मन को शांत कर सकती है। पारिवारिक शोक की अवस्था में हम एक हो जाते हैं और अपने सामूहिक स्व से बंध जाते हैं। हमारा मन हमारी उन सबसे खूबसूरत बातों के बारे मे सोचने लगता है जिसे हम परिवार कहते हैं। परिवार एक सबसे मूल्यवान संस्था है जहां आदर और सम्मान का दिखावा नहीं किया जाता। यह एक ऐसी जगह है जहां हम अपने दिल से सहज ही करुणा और स्नेह बांटते हैं। यह एक ऐसी अनुभूति है जिसे हमें आपस मे बांटना चाहिए ताकि हम एक बेहतर इंसान बन सकें।
सूरज येंगड़े का यह आर्टिकल इंडियन एक्सप्रेस के नियमित कॉलम ‘Dalitality’ में प्रकाशित हुआ है। हिन्दी अनुवाद- संजय श्रमण

सूरज येंगड़े हार्वर्ड युनिवर्सिटी के हार्वर्ड कैनेडी स्कूल में पोस्ट डॉक्ट्रेट फेलो हैं। यहां के अफ्रीकन एंड अफ्रीकन अमेरिकन स्टडीज विभाग के साथ हैं। ‘कॉस्ट एंड मैटर्स’ नाम की चर्चित पुस्तक के लेखक हैं। तमाम अंग्रेजी अखबारों में नियमित रूप से लिखते हैं। अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में ‘Dalitality’ नाम से नियमित कॉलम लिखते हैं।
अतिशय हृदयस्पर्शी श्रध्दांजली.पूर्वजांचा इतिहास नजरेसमोरून तरळून गेला.