मई 2019 के दूसरे सप्ताह में फेसबुक पर एक पोस्ट वायरल होती रही, जिसमें एक लड़की अपने दोस्तों से बात करते दिख रही थी। इस बातचीत में इस लड़की ने जो कहा था उसे यहां ज्यों का त्यों रखा जा रहा है :
‘पहला लड़का – अ अब बोलो
दूसरा लड़का – मैं मनीष सर को बोल दूंगा, ऐसा बोला।
पहला लड़का – बोलो, बोलो, बोलो।
लड़की (जिसका नाम बाद में पता चला रूचि सिंह है)- मनीष सर के सामने बोला था एक दिन। मैंने कहा सर, मैंने कहा या तो वो थे, अरे.. वह तो अनमोल सर थे। मैंने कहा, यार गवर्नमेंट जॉब नहीं लग रही है, साला चमार पैदा होना चाहिए था। गवर्नमेंट जॉब तो मिल जाती है एटलिस्ट। (अपने सिर की तरफ इशारा करते हुए) चमारों को यहां बिठा दिया, जरनल वालों को नीचे कर दिया।’
फिर इसने कहा, ‘चमार चमार होते हैं। उनकी कोई औकात नहीं होती है।’
‘पहला लड़का – और?
रूचि सिंह – मेरे को कोई फर्क नहीं पड़ता है। ऐसे काम बहुत करे हैं।’
सर्वप्रथम, इस लड़की के बोलों पर बात की जाए। इस ने सीधे-सीधे चमार का नाम लेकर अपनी घृणा दिखाई है। इस ने किसी अन्य दलित जाति का नाम नहीं लिया। इस का क्या अर्थ है? इस बात का केवल और केवल एक ही अर्थ है की दलित का अर्थ चमार होता है और कुछ नहीं। यह बात की सभी दलितों को गांठ लेनी चाहिए। दरअसल, बाकी अन्य दलित जातियां पेशागत हैं। तभी घृणा से ओत – प्रोत इस लड़की सहित हर वर्णवादी चमार का प्रयोग गाली के तौर पर करता पाया जाता है। इसमें सामंत के मुंशी का नाम सबसे ऊपर है।
असल में हुआ क्या है, आरक्षण से दलितों को कुछ नौकरियां मिलने लगी हैं और यही वर्णवादियों को सहन नहीं हो पा रहा। आए दिन ये आरक्षण को कोसते पाए जाते हैं। इस संदर्भ में कुछ दलितों का यह तर्क स्वीकार करने लायक नहीं है कि ‘इसे चमार से शादी कर लेनी चाहिए गवर्नमेंट जॉब मिल जाएगी।’ यह कथन अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।
सोचा जाए, अगर यह लड़की प्रेम विवाह के नाम पर किसी चमार लड़के से विवाह कर ले तो उस घर का माहौल कैसा बनेगा? यह कभी भी अपने पति सहित परिवार वालों को गाली के रूप में चमार संबोधित कर बैठेगी। ऐसे में उन की क्या हालत होगी? इस का चमार पति आत्महत्या कर लेगा या मानसिक अवसाद का शिकार हो जाएगा।
ऐसे ही, अगर कोई चमार की बेटी इस लड़की के भाई से विवाह कर बैठे तो इस के जैसी ननद तो सीधे-सीधे उसे चमारी कह कर संबोधित करेगी। ऐसे में उस लड़की की ऐसी मानसिक स्थिति कैसी बनेगी, क्या वह पागल नहीं हो जाएगी? अपनी आलोचना की पुस्तक ‘चमार की बेटी रुपा’ में महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ने इस का अच्छे से खुलासा किया हुआ है।
तो जाति के विनाश के नाम पर प्रेम और अंतरजातीय विवाह का समर्थन करने वाले दलितों की मानसिक स्थिति का भी अध्ययन करना ही चाहिए। ये दलित बच्चों को मानसिक अवसाद में धकेलना चाहते हैं। ऐसे प्रेमवादियों और गैर दलितों से स्वैच्छिक रोटी- बेटी के रिश्ते की बात करने वालों से दलितों को सावधान रहने की जरूरत है।
असल में, इस लड़की और वर्णवादियों की ऐसी सोच एक दिन में नहीं बनी है। वर्णवादियों के हर घर की कमोवेश यही स्थिति है। इन के घर नफरत की पाठशाला हैं, जिनमें इन के बच्चों को भेदभाव का पाठ पढ़ाया जाता है। इन वर्णवादियों -अछूतवादियों के घर नाज़ियों के घरों के समान हैं जहां यहूदियों के प्रति जहर घोला जाता था। अब सोचना दलितों को है कि इन भारतीय नाज़ियों से कैसे निपटा जाए? हां, यह पक्का है कि केवल कानून बना कर इस तरह की नफरत से निपटा नहीं जा सकता। वैसे भी घृणा से भरी इस लड़की ने गवाही दी है कि ‘ऐसे काम बहुत करे हैं।’
इस द्विजवादी लड़की का यह कहना कि ‘चमारों को सिर पर बिठा रखा है’ आपत्तिजनक है। इसलिए, क्योंकि चमारों ने नौकरियों में जो कुछ हासिल किया है वह अपनी मेहनत और ईमानदारी से हासिल किया है। सरकार से जुड़े हर क्षेत्र में चमारों की उपस्थिति इनकी लगन और मेहनत का परिणाम है। इसी बात को समझ कर वर्णवादियों ने उदारीकरण के नाम पर प्राइवेटाइजेशन का जुमला छेड़ा हुआ है, जहां पूरी तरह से लालावाद चलता है। क्योंकि, इन की नालायक औलादें प्रतियोगी परीक्षाओं में चमारों से मुकाबला नहीं कर सकतीं। यह बात शर्त लगा कर कही जा रही है कि इस नफरत से भरी लड़की को किसी भी हालत में सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती। इसी को ही नहीं बल्कि प्राइवेट स्कूलों की टीचरों को प्रतियोगिता के माध्यम से लिया जाए तो दूध का दूध – पानी का पानी हो जाएगा। इन परीक्षाओं का जिम्मा अगर किसी निष्पक्ष एजेंसी को दे दिया जाए तब इन की सारी मेरिट की पोल खुल जाएगी।
सभी दलितों ने इस बात को अच्छे से पहचाना है कि इसके जैसी टीचर के कारण रोहित वेमुला को आत्महत्या करनी पड़ी। यह सच है कि विद्यालयों- महाविद्यालयों में रूचि सिंह जैसे नस्लवादी अध्यापक भरे पड़े हैं। जो हर साल हजारों दलित छात्र – छात्राओं को स्कूल – कॉलेज छोड़ने पर मजबूर कर देते हैं। इस पर अगर सर्वे किया जाए तो भारतीय शिक्षा व्यवस्था कटघरे में खड़ी हो सकती है।
इधर कुछ इसी तरह के और भी वीडियो आ रहे हैं, जिन में चमार का नाम ले कर गालियां दी गई हैं। यह नए कहे जा रहे भारत की असली तस्वीर है। कुछ घृणावादी यह कहते पाए गए हैं कि ‘चमार को चमार नहीं तो क्या कहेंगे?’, पूछना यह है कि चमार तो किसी को जातिगत संबोधन से पुकारता नहीं तब इन के पेट में मरोड़ क्यों उठ रही है? इन की इस घृणा के पीछे क्या वजह है? आरक्षण तो इस का कारण हो नहीं सकता, क्योंकि घृणा तो वर्णवादियों के दिलो-दिमाग में हजारों वर्षों से भरी पड़ी है। फिर, असली बात क्या है? असल में यहां जारकर्म का सिद्धांत लागू किया जा सकता है, जिस में चमार तो चमार ही होता है।
बताया जाए, चमार चमार ही होते हैं। इनके मनों में किसी के प्रति घृणा, नफरत और हिंसा के भाव नहीं होते। चमार पूरी मानवता में विश्वास करते हैं। यही वजह है कि वर्णवादी – नस्लवादी द्विज चमारों से खार खाए बैठे रहते हैं।
फिर, जो लोग यह कहते हैं कि आजकल के युवा जात-पात नहीं मानते तो इन्हें इस लड़की का दिमाग और चेहरा अच्छे से देख लेना चाहिए। यह द्विज युवा का प्रतिनिधि चेहरा है। तो जिस किसी को यह वहम है कि वर्णवादी अर्थात जातिवादी सुधर जाएंगे उन्हें यह बात अपने दिमाग से निकाल ही देनी चाहिए।
इस में आखरी बात जो बतानी है वह यह है, चमार शब्द को इतनी ताकत दे दो कि इस के अर्थ बदल जाएं। इस रूप में चमार शब्द आजीवक में बदल रहा है। इसके बाद क्या होगा किसी को बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।
- लेखकः कैलाश दहिया
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Sahi Baat
यह बात की सभी दलितों को गांठ लेनी चाहिए। कृपया इस पंक्ति को ऐसे पढ़ें…
यह बात सभी दलितों को गांठ बांध लेनी चाहिए।
बहुत पुराना है इन लोगों की घृणा। दिनेश जी को पढ़ते हुए इसे शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ।😶
जी सुजीत जी, आप बिलकुल सही कह रहे हैं। यही घृणा बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्म ग्रन्थों में भरी पड़ी है। डॉ। दिनेश राम जी ने अपनी किताब ‘डॉ. अंबेडकर बुद्ध से बड़े थे’ में प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत किया है।