3 जून को जब बसपा समर्थक बहन मायावती के पहली बार मुख्यमंत्री बनने के 26 साल पूरा होने का जश्न मना रहे थे, मायावती ने पिछड़े समाज के अपने दो कद्दावर नेताओं को पार्टी से निष्कासित कर दिया। इसमें एक थे लालजी वर्मा और दूसरे थे रामअचल राजभर। इन दोनों के कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब मायावती ने 3 जून 1995 को पहली बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिया था तो रामअचल राजभर उस सरकार में परिवहन उपराज्यमंत्री बनाए गए थे। मायावती जब भी मुख्यमंत्री बनीं, रामअचल राजभर अहम मंत्रालयों के मंत्री बने। राजभर लंबे समय तक बसपा के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष रहें तो उन्हें मायावती के करीबी के रूप में जाना जाता रहा। मायावती ने उन्हें राष्ट्रीय महासचिव भी बनाया था। तो वहीं पार्टी के निष्कासित होने से पहले लालजी वर्मा वर्तमान विधानसभा में बसपा के नेता थे।
इन दोनों नेताओं पर हाल ही में हुए बीते पंचायत चुनाव के दौरान पार्टी के विरोध में काम करने का आरोप लगाकर निष्कासित किया गया है। खास बात यह भी है कि ये दोनों नेता अंबेडकर नगर जिले से हैं। कुर्मी नेता लालजी वर्मा अंबेडकरनगर जिले के कटेहरी विधानसभा से विधायक हैं, जबकि स्थानीय तौर पर हर वर्ग में लोकप्रिय रामअचल राजभर अकबरपुर विधानसभा सीट से विधायक हैं। इस बीच यह एक बड़ी खबर है कि इन दोनों नेताओं के पार्टी से बाहर जाने के बाद अब बसपा में मायावती के अलावा बड़े चेहरे के रूप में सिर्फ सतीश चंद्र मिश्रा ही हैं।
यह तब है जब यूपी विधानसभा चुनाव महज छह महीने दूर है। और जब तमाम पार्टियां नेताओं को संजोने में लगी है, बसपा अपने नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा रही है। बसपा प्रमुख मायावती का अपने नेताओं के प्रति यह कड़ा रुख तब जारी है, जब 2017 में 403 सीटों वाली यूपी विधानसभा में बसपा सिर्फ 19 सीटें जीती थी। और तमाम नेताओं के निकाले जाने के बाद बसपा के पास सदन में अब केवल सात एमएलए बचे हैं। इसमें से एक मुख्तार अंसारी जेल में हैं।
एक वक्त था जब बसपा के पास सभी समाजों के नेता थे और जिन्हें मान्यवर कांशीराम ने आगे बढ़ाया था, जिससे वो पार्टी और अपने समाज में कद्दावर भी बनें। उस दौर के तमाम नेताओं को पार्टी विरोध के नाम पर पार्टी से बाहर कर दिया गया है तो कुछ पार्टी छोड़ गए हैं। हालांकि मायावती या फिर बसपा कभी भी किसी नेता के खिलाफ सबूत देने से बचती रही। आज नेताओं की उस फेहरिश्त को याद करना जरूरी है। आर. के चौधरी, दीनानाथ भास्कर, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, राजबहादुर, मसूद अहमद, बरखूराम वर्मा, दद्दू प्रसाद, जंगबहादुर पटेल, सोनेलाल पटेल, स्वामी प्रसाद मौर्या, धर्मपाल सैनी, जुगुल किशोर, इंद्रजीत सरोज, दारा सिंह चौहान जैसे दिग्गज कभी बसपा की फेहरिश्त में शामिल थे। इन सभी की अपने समाज में जबरदस्त पकड़ थी और इन्हीं के बूते बसपा बहुजन समाज की पार्टी बनी थी। इसी कड़ी में अब रामअचल राजभर और लालजी वर्मा का नाम भी जुड़ गया है।
ऐसे में अब बसपा के पास बड़े नेताओं के नाम पर सिर्फ मायावती और सतीश चंद्र हैं। कुछ गिने-चुने पुराने नेता हैं भी तो वो अब सक्रिय नहीं हैं। ऐसे में जब उत्तर प्रदेश अगले विधानसभा चुनाव की दहलीज पर खड़ा है, उसके पास अनुभवी और जनता के बीच पकड़ रखने वाले नेताओं की भारी कमी साफ नजर आ रही है। जिस बहुजन समाज के बूते बसपा अब तक राजनीति करती रही है, उसके पास उस बहुजन समाज से जुड़े कद्दावर नेताओं की भारी कमी है। तमाम पार्टियों से नेताओं का जाना या फिर निकाला जाना राजनीति में एक आम प्रक्रिया है, लेकिन पिछले लंबे वक्त में आपको शायद ही ऐसा कोई कद्दावर नेता याद होगा, जिसने बसपा का दामन थामा हो और जिसके पार्टी में आने से पार्टी को बड़ा लाभ हुआ हो। इसे आखिर किस तरह समझा जाए।
अब आते हैं उस आरोप पर जिसके कारण रामअचल राजभर और लालजी वर्मा को पार्टी से निष्कासित किया गया है। इन पर आरोप है कि इन्होंने पंचायत चुनाव के दौरान पार्टी विरोधी काम किया। अंबेडकर नगर जिले में कुल 41 जिला पंचायत सदस्य हैं। इसमें से सपा के सबसे ज्यादा 11 सदस्य जीते है, जबकि बसपा के 8 सदस्य पंचायत चुनाव जीते। यूपी की सत्ता में मौजूद भाजपा के सिर्फ 2 सदस्य चुनाव जीत सकें। जिले में सबसे ज्यादा 20 सदस्य निर्दलीय जीते हैं। निर्दलीय जीतने वाले ज्यादा सदस्य वो हैं, जो बसपा से टिकट मांग रहे थे लेकिन पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया। यहां सच्चाई यह है कि एक तो निर्दलीय लड़ने वाले अपने पैसे, अपने संबंधों और अपने प्रचार के आधार पर जीते, दूसरा सवाल यह है कि क्या यह इतना बड़ा अपराध था कि मायावती द्वारा अपनी पार्टी के दो बड़े नेताओं को बिना किसी अल्टीमेटम के, बिना उनकी बात सुने पार्टी से निष्कासित करने का फैसला लेना पड़ा। इसका जवाब आप खुद से पूछिए।
क्योंकि यह तब है जब 2017 विधानसभा चुनाव में बसपा के हिस्से में जो 19 सीटें आई थीं, उसमें से बसपा तीन सीटें अंबेडकर नगर जिले में जीती थी। ऐसे में इन दोनों नेताओं पर पार्टी विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने का आरोप फिलहाल समझ से परे दिख रहा है।
हालांकि मायावती और बसपा समर्थक लगातार दावा करते रहे हैं कि बसपा को वोट सिर्फ मायावती के नाम पर मिलता है। अगर ऐसा है तो बसपा आखिर 19 सीटों पर कैसे सिमट गई। ऐसा है तो बसपा सिर्फ उत्तर प्रदेश में क्यों सिमट गई और वहां भी अब अपने प्रतिद्वदी पार्टियों को मजबूती से चुनौती देती क्यों नहीं दिख रही है। सवाल है कि क्या बसपा 2007 में अपनी सफलता के जिस शीर्ष पर खड़ी थी, उसे वहां लाने में उन नेताओं की भूमिका नहीं थी, जिन्हें पार्टी से बिना सफाई का मौका दिए बाहर कर दिया गया?
सवाल यह भी है कि क्या 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा बिना जमीनी नेताओं के सिर्फ मायावती और सतीश चंद्र मिश्रा के नाम पर सरकार बनाने का माद्दा रखती है? अगर इसका जवाब नही है, तो बहुजन समाज पार्टी कहाँ जा रही हैं, और मायावती आखिर बसपा को कहां ले जाना चाहती हैं, क्या बसपा आने वाले दिनों में सिर्फ मायावती और सतीश चंद्र मिश्रा की पार्टी बनकर रह जाएगी। ऐसे में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर और बसपा के संस्थापक और मायावती को मुख्यमंत्री बनाने वाले मान्यवर कांशीराम के उस सपने का क्या होगा, जिसमें वह दलित समाज को इस देश का शासक बनाने का सपना दिखा गए हैं।

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
