देश की सियासत के दो ऐसे राज्य जिनके बारे में कहा जाता है कि यहां की राजनीति से देश की दिशा और दशा तय होती है. इस बार के लोकसभा चुनाव में इन दो राज्यों में बीजेपी और विपक्ष की सबसे बड़ी परीक्षा थी, जिसमें भाजपा पास हो गई है. यूपी में जहां सपा और बसपा मिलकर भाजपा को नहीं रोक सके तो बिहार में राजद, कांग्रेस, रालोसपा के साथ मांझी और मुकेश सहनी की पार्टियां भी मिलकर कोई कमाल नहीं कर सकीं. बिहार में बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी ने सभी समीकरण ध्वस्त कर दिए है. बिहार में एनडीए ने 40 में से 39 सीटें झटक ली. बची हुई एक सीट कांग्रेस पार्टी के हिस्से में आई है. राष्ट्रीय जनता दल एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो सकी.
सबसे बुरी हालत तो उन तीन पार्टियों की हुई जिनका इस चुनाव में काम तमाम हो गया. बीजपी के पुराने साथी रहे उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी तो अपनी सीट भी नहीं बचा पाए, तो वहीं विकासशील पार्टी शुरू होने से पहले ही खत्म हो गई. ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या बिहार की राजनीति बदल जाएगी और इसके क्षेत्रिय क्षत्रप बदली हुई राजनीति में विलीन हो जाएंगे?
कुशवाहा का क्या होगा?
राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा का हाल तो सबसे बुरा है. लोकसभा चुनाव से ठीक एक महीने पहले एनडीए का दामन छोड़कर महागठबंधन से गठबंधन करना उनके लिए आत्मघाती साबित हुआ है. कहां 2014 में एनडीए के साथ उन्होंने तीन सीटें जीतीं थीं और केंद्रीय मंत्री भी बने, लेकिन इस बार अपनी सीट तक गंवा बैठे.
महागठबंधन में कुशवाहा के हिस्से पांच सीटें आईं थीं. जिसमें दो सीटों पर तो खुद ही मैदान में उतरे. काराकाट में उन्हें जेडीयू के महाबली सिंह ने हराया तो, वहीं दूसरी सीट उजियारपुर से बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय ने उन्हें मात दी. ये हार कुशवाहा की सियासी करियर पर बड़ी मार है. कुशवाहा को बड़ा झटका तब लगा जब बिहार में उनकी पार्टी के तीनो विधायक जदयू में शामिल हो गए.
मांझी की नैया डूबी
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की नैया तो इस चुनाव में पूरी तरह डूब गई. बिहार में खुद को दलितों का सबसे बड़ा चेहरा बताने वाले मांझी अपनी सीट भी नहीं जीत सके. मांझी ने अपने लिए बिहार की गया सीट चुनी. यहां एनडीए की तरफ से जेडीयू ने विजय मांझी को उतारा. मुकाबले में विजय मांझी जीतन राम मांझी पर भारी पड़े और उन्हें डेढ़ लाख से भी ज्यादा वोटों से शिकस्त दी.
ये वही मांझी हैं जो कभी नीतीश कुमार के बेहद करीबी हुआ करते थे. 2014 में जब नीतीश कुमार ने सीएम पद से इस्तीफा दिया था, तब उन्होंने अपनी गद्दी मांझी को ही सौंपी, क्योंकि वो नीतीश के सबसे विश्वासपात्र थे, लेकिन मांझी के सीएम बनने के बाद दोनों के बीच ऐसी दरार आई कि मांझी की कुर्सी तो गई ही, साथ ही पार्टी तक छोड़नी पड़ी. जेडीयू से अलग होकर जीतन राम मांझी ने हिदुस्तान आवाम मोर्चा पार्टी बनाई. 1980 से लेकर अब तक जीतन राम मांझी कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू की राज्य सरकारों में मंत्री का पद संभाल चुके हैं, लेकिन ये हार उनपर काफी भारी पड़ने वाली है, जो उनके सियासी करियर पर ब्रेक लगा सकती है.
VIP पार्टी के मुकेश सहनी को लगा बड़ा झटका
विकासशील इंसान पार्टी (VIP) का तो उदय होने से पहले ही पतन हो गया है. खुद को ‘सन ऑफ मल्लाह’ बताने वाले इस पार्टी के अध्यक्ष मुकेश सहनी खगड़िया सीट से बुरी तरह हार गए. मुकेश सहनी एलजेपी उम्मीदावर चौधरी महबूद अली से करीब ढ़ाई लाख वोटों से हार गए हैं. मुकेश सहनी कभी बीजेपी के काफी करीबी हुआ करते थे. 2014 में उन्होंने बीजेपी के लिए पूरे बिहार में घूम-घूमकर कैपेंनिंग भी की थी. मुकेश सहनी ने पिछले साल ही विकासशील इंसान पार्टी बनाई थी. पीएम मोदी के ‘चाय की चर्चा’ के तर्ज पर उन्होंने ‘माछ पर चर्चा’ भी की. मुकेश सहनी का कद बिहार में उसी तरह बढा, जिस तरह गुजरात की राजनीति में हार्दिक पटेल उभरकर सामने आए थे.
इस चुनाव में एनडीए से जब मन मुताबिक सीट नहीं मिली, तो वो महागठबंधन के साथ हो लिए. महागठबंधन में उन्हें तीन सीटें मिली और तीनों सीटों पर बुरी तरह हारे. मुकेश की वजह से मल्लाह वोटरों का साथ महागठबंधन को तो मिला, लेकिन मुकेश को महागठबंधन से कोई फायदा नहीं मिला. मुकेश सहनी का बॉलीवुड से भी रिश्ता रहा है, वो मशहूर सेट डिजाइनर रह चुके हैं. उन्होंने शाहरुख की फिल्म देवदास और सलमान खान की फिल्म बजरंगी भाईजान का सेट भी बनाया था. मुंबई छोड़कर मुकेश सहनी ने राजनीति में किस्मत अजमाई, लेकिन वो फेल हो गए.
हालांकि चुनावी नतीजों के बाद राष्ट्रीय जनता दल सकते में है. वह अब तक हार के इस सदमें से उबर नहीं पाया है. पार्टी में तेजस्वी यादव के खिलाफ विरोध के सुर भी उभरने लगे हैं. हालांकि उनके बड़े भाई तेज प्रताप सहित अन्य नेताओं ने तेजस्वी का बचाव किया है, लेकिन बिहार की सियासत में जो तूफान उठा है, उसका असर जल्दी खत्म होता नहीं दिख रहा.
– द क्विंट से
Read it also-जानिए, राष्ट्रपति के अभिभाषण की 25 प्रमुख बातें

दलित दस्तक (Dalit Dastak) एक मासिक पत्रिका, YouTube चैनल, वेबसाइट, न्यूज ऐप और प्रकाशन संस्थान (Das Publication) है। दलित दस्तक साल 2012 से लगातार संचार के तमाम माध्यमों के जरिए हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज उठा रहा है। इसके संपादक और प्रकाशक अशोक दास (Editor & Publisher Ashok Das) हैं, जो अमरीका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में वक्ता के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दलित दस्तक पत्रिका इस लिंक से सब्सक्राइब कर सकते हैं। Bahujanbooks.com नाम की इस संस्था की अपनी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुकिंग कर घर मंगवाया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को ट्विटर पर फॉलो करिए फेसबुक पेज को लाइक करिए। आपके पास भी समाज की कोई खबर है तो हमें ईमेल (dalitdastak@gmail.com) करिए।
