एग्जिट पोल की बहस और ग्राउंड रिपोर्टिंग का मेरा अनुभव

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एग्जिट पोल के नतीजों की बहस के बीच मुझे पिछले दिनों चुनाव के दौरान अपनी ग्राउंड रिपोर्ट के किस्से याद आ रहे हैं. पहले दो सच्ची घटनाएं, फिर बाकी बात.

एग्जिट पोल को लेकर मुझे एक अनुभव गोरखपुर में ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौरान हुआ. मैं एक छोटे कस्बे के बाजार पर रुका. वहां चार-पांच गांव के लोग जरूरत का सामान लेने आते हैं. उन गांवों में ज्यादातर निषाद समाज के लोगों की आबादी थी. चूंकि गोरखपुर में निषाद वोट बड़ा फैक्टर था, सो वह मेरे लिए अहम था. मैंने एक सब्जी का दुकान लगाने वाली महिला से पूछा- “अम्मा किसको वोट दोगी?”
अम्मा ने बोला- “मोदी के देम”
मेरे साथ मेरे बड़े भाई राजकुमार थे। जब मैं वहां से हटकर किसी और से बात कर रहा था, भाई ने उस महिला से जानना चाहा कि आखिर वो मोदी को वोट क्यों देगी?
उसने कहा- “देब त हम साईकिल पर, लेकिन इ चैनल वाला सब मोदिए के हउवन ओही से मोदी के कह दिहली ह.”
(दूंगी तो मैं साईकिल पर ही लेकिन ये चैनल वाले सब मोदी के आदमी हैं इसलिए उनको मोदी बोल दिया।)

दूसरी घटना भी गोरखपुर जिले के ही बांसगांव लोकसभा क्षेत्र की है. बांसगांव लोकसभा गोरखपुर के कुछ विधानसभा क्षेत्र और देवरिया के कुछ विधानसभा क्षेत्र को लेकर बनाया गया है. यहां के कौड़ीराम बाजार पर जब मैं लोगों से यह जानने की कोशिश कर रहा था कि इस लोकसभा क्षेत्र में किसकी जीत होगी, तब एक दिलचस्प वाकया हुआ. जब मैंने एक युवा से पूछा कि कौन जीत रहा है, तो उसने भाजपा का नाम लिया. तब उसके ठीक बगल में खड़े एक अधेड़ ने उसकी बात  बीच में ही काटते हुए कहा कि “नहीं-नहीं गठबंधन जीत रहा है.” उसके अपने तर्क भी थे कि गठबंधन के प्रत्याशी (सदल प्रसाद, बसपा) आखिर क्यों जीतेंगे.

यह मेरे लिए एक सुखद अहसास इसलिए भी था क्योंकि गठबंधन को सपोर्ट करने वाला व्यक्ति एक औसत व्यक्ति था जो अपने अधिकारों को लेकर जागरुक था और अब तर्क करना सीख रहा था.

इन दोनों घटनाओं का जिक्र मैंने इसलिए किया क्योंकि एग्जिट पोल करने वालों की पहुंच क्या इन लोगों तक हो पाती है? क्या सर्वे करने के दौरान ऐसा करने का दावा करने वाले लोग इन लोगों की राय जानने की कोशिश करते हैं? ऐसा होता होगा, यह संभव नहीं लगता. मैंने खुद पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल के तकरीबन दर्जन भर लोकसभा क्षेत्रों का सर्वे किया. इसके लिए मैं सिर्फ उन जगहों को चुन रहा था, जहां एक मिली जुली आबादी मिल जाए. जैसे शहर का प्रमुख चौराहा, बस स्टैंड और छोटे कस्बों के बाजार जहां कई गांवों के लोग हाट-बाजार करने पहुंचते हैं. जाहिर है कि इन जगहों पर हर जाति और धर्म के लोग मिल रहे थे. भारत में एक सुविधा है कि आप किसी के पूरे नाम से स्थानीयता को देखते हुए उसकी जाति के बारे में समझ सकते हैं. मैं भी यही कर रहा था. और मुझे यह साफ दिखा कि समाज जाति और धर्म के हिसाब से खानों में बंटा था.

साफ महसूस हो रहा था कि  बेसिक तौर पर दलित, पिछड़े और मुसलमान गठबंधन के साथ थे तो अगड़ी जातियां भाजपा के साथ. मैं जातियों के भीतर जाति में नहीं जा रहा, लेकिन शुरूआती सच्चाई यही देखने को मिली. ऐसे में उत्तर प्रदेश का आंकलन करने पर ज्यादातर एग्जिट पोल का आंकलन कि गठबंधन को 18-20 सीटें मिलेंगी, समझ से परे है. यह ऐसा बयान है जिसका कोई आधार समझ में नहीं आ रहा.

इसी तरह बिहार में 80 फीसदी सीटें एनडीए जीत जाएंगी यह भी बात समझ से परे है, क्योंकि 2014 में विजयी रथ पर सवार भाजपा को सबसे पहले बिहार ने ही रोका. और पिछले सालों में राष्ट्रीय जनता दल और तेजस्वी यादव की लोकप्रियता बिहार में जिस तरह बढ़ी है, उसने नीतीश कुमार की सत्ता को बड़ी चुनौती दी है. कुछ एग्जिट पोल वाले तो बिहार की सभी सीटें एनडीए को दे रहे हैं. यह एक अनोखी बात है, वह भी तब जब विपक्ष राफेल, बेरोजगारी, पंद्रह लाख और महंगाई के मुद्दे पर सरकार को घेरने में कामयाब रहा है.

एग्जिट पोल को लेकर लगातार सवाल उठ रहे हैं. हर जागरूक और राजनीतिक समझ रखने वाला व्यक्ति इस बात को लेकर परेशान है कि भाजपा को आखिर इतनी सीटें आएंगी तो आएंगी कहां से? खैर 23 मई को सारी बात साफ हो जानी है, लेकिन अगर उस दिन भी नतीजे ऐसे ही रहें जैसे कि एग्जिट पोल दिखा रहे हैं तो देश में एक नई राजनैतिक बहस शुरू हो जाएगी.

 

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