अंबेडकरवादी आन्दोलन को सबसे बड़ा ख़तरा किस बात से है? यह प्रश्न जितना जटिल है उतना ही जटिल इसका उत्तर भी है. अक्सर हम सोचते हैं कि आजकल काम कर रही राजनीतिक विचारधारों या राजनीतिक सांस्कृतिक संगठनों से ये खतरा है। यह बात कुछ दूर तक सही भी है लेकिन अंबेडकरवादी आन्दोलन को सबसे ज्यादा खतरा वेदांती अध्यात्म के सम्मोहन से है।
भारत के गरीब और शोषित लोगों पर जो गुलामियाँ थोपी गईं हैं वे धर्म और अध्यात्म की चाशनी में लपेटकर थोपी गयी हैं ये जहर दार्शनिक सिद्धांतों में लपेटकर पिलाया गया है। और दुर्भाग्य से हमारे दलित और शोषित लोग ही खुद इस अध्यात्म के गुलाम हो रहे हैं. इस बात को मैं लंबे समय से नोट करता रहा हूँ कि किस तरह अंबेडकर और बुद्ध को मानने वालों में भी वेदान्त का जहर भरा हुआ है। कई मित्र हैं जो अंबेडकर और बुद्ध को प्रेम करते हैं लेकिन इसके बावजूद वे ओशो, जग्गी वासुदेव, श्री श्री, विवेकानन्द या अन्य वेदांती बाबाओं की गुलामी में लगे हुए हैं। ऐसे बाबाओं ने ही बुद्ध और अंबेडकर को और उनकी कौम को खत्म करने के षड्यंत्र रचे हैं. हमें इन बाबाओं से मुक्त होना होगा। इस सिलसिले में एक अनुभव आपसे साझा करना चाहूँगा।
अभी ओशो के एक सन्यासी ने फोन किया। बुद्ध के विषय में बात कर रहे थे। चूँकि वे अंबेडकरवादी और बुद्ध के प्रेमी भी हैं इसलिए उन्होंने बुद्ध के विषय में मेरे विचार विस्तार से जानने चाहे। मैं हालाकि काफी कुछ लिख चुका हूँ फिर भी चूँकि वे अंबेडकरवादी हैं इसलिए मैं उनसे विस्तार से चर्चा करने को राजी हुआ। बात ले देकर इस मुद्दे पर आती है कि बुध्द ने ईश्वर को आत्मा को और पुनर्जन्म को क्यों नकारा। उन मित्र ने कहा कि ओशो के अनुसार बुद्ध ईश्वर आत्मा और पुनर्जन्म को जानते हुए भी ईश्वर को नकार रहे हैं।
मैंने पूछा कि यह बात बुद्ध ने खुद कही है कि वे इन तीनों को जानकर भी नकार रहे हैं? इसपर वे कहने लगे कि पता नहीं लेकिन ओशो तो यही कहते हैं। अब ध्यान दीजिए, ओशो बुद्ध के बारे में बुद्ध से ज्यादा जानते हैं। यही वेदांती मायाजाल है। जैसे बाबा लोग वैज्ञानिकों से ज्यादा विज्ञान और क्वांटम फिजिक्स जानते हैं उसी तरह ओशो जैसे बाजीगर बुद्ध, महावीर कृष्ण मुहम्मद आदि के बारे में खुद उनसे ज्यादा जानते हैं।
इन वेदान्तियों में इतनी हिम्मत नहीं कि अपनी बात अपने बूते पर रखें, वे कृष्णमूर्ति या नीत्शे या रसेल या विट्गिस्टीन की तरह अपने दर्शन की जिम्मेदारी खुद नहीं लेते बल्कि विवेकानन्द, अरबिंदो, दयानन्द आदि की तरह सब कुछ वेद उपनिषद या बुद्ध महावीर कृष्ण आदि के मुंह से कहलवाते हैं। यही वेदांती बीमारी है। नया करने में इन्हें डर लगता है। इसीलिये भारत कुछ भी नया नहीं करता। कोई विज्ञानं, तकनीक, चिकित्सा प्रणाली, दर्शन, साहित्य, जीवन शैली, कपड़ा लत्ता, सिनेमा, मनोरंजन या कुछ भी खोजकर दिखा दीजिये जो आधुनिक जगत में भारत ने दुनिया को दी है। ये सिर्फ नकल करते हैं।
ओशो इस देश के दुर्भाग्य को समझने की चाबी हैं। मौलिक करने का साहस इन्होंने दिखाया था लेकिन साठ के दशक के अंत में ही स्वयं को पुजवाने की और मठाधीश बनने की हवस ने इन्हें पक्का वेदांती बना दिया। बाद में इन्हें जो कुछ कहना था वो दूसरों के कंधे पर बंदूक रखकर कहा। और इसे वे स्वीकार भी करते हैं। उनके शिष्य इस बात के लिए उनकी तारीफ भी करते जाते हैं। उनमें इतनी भी चेतना नहीं कि इस बात के लिए वे ओशो की भर्त्सना करें कि अगर कहना ही था तो हिम्मत करके अपने नाम से कहते, दूसरों के मुंह में शब्द डालने की क्या जरूरत है? लेकिन वे ऐसा सोचेंगे ही नहीं। क्योंकि ये सब वेदांती लोग हैं, एक ही षड्यंत्र के हिस्से हैं।
कृष्णमूर्ति इस संबन्ध में एकदम मौलिक हैं। बचपन से ही उन्हें बुद्ध का अवतार बनाकर खड़ा किया गया लेकिन उनकी ईमानदारी देखिये कि न सिर्फ उन्होंने अवतार होने से इंकार कर दिया बल्कि अपनी शिक्षाओं को भी किसी शास्त्र, परम्परा या आप्त पुरुष से नहीं जोड़ा। उनका जोर रहा कि मेरी बातों की जिम्मेदारी मेरी अपनी है किसी बुद्ध, कृष्ण, जीसस आदि की नहीं। इसीलिये अंतिम सांस तक ओशो कृष्णमूर्ति के खिलाफ बोलते रहे।
कल्पना कीजिये अगर कृष्णमूर्ति की जगह ओशो को अवतार घोषित किया जाता तो वे कैसी बाजीगरी का जाल न फैला देते? उन्हें किसी ने बुद्ध अवतार घोषित नहीं किया तो खुद ही उन्होंने प्रचार किया कि बुद्ध मेरे शरीर में आने के लिए लालायित हो रहे हैं। अब ये मजेदार खेल है। उनके कुछ शिष्य अब इसी खेल को आगे बढ़ाते हुए अपने शरीर में शिव, नारद, नानक, कबीर गोरख, ओशो और न जाने किन किन को किराए से कमरा दे चुके हैं। इनमे इतनी हिम्मत नहीं कि अपनी बात अपने नाम से कहे। ये भी गोरख कबीर और नानक के मुंह से वेदांत बुलवा रहे हैं।
खैर, उन मित्र को मैंने कहा कि आप अंबेडकरवादी हैं और बुद्ध को प्रेम करते हैं तो ये ओशो के मायाजाल में क्यों फस रहे हैं? अंबेडकर और बुद्ध दोनों ही आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म को नकारते हैं, तब आप क्यों कन्फ्यूज हैं? या तो बुद्ध और अंबेडकर को सीधे समझ लीजिए या ओशो के जाल में फसे रहिये। डेढ़ घण्टे की चर्चा के बाद भी उनके दिमाग से पुनर्जन्म, आत्मा और मोक्ष का भूत नहीं निकला।
ये मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि आप सब जान सकें कि बुद्ध या अंबेडकरी आंदोलन के खिलाफ सबसे बड़ा कोई हथियार है तो वो वेदांती अध्यात्म ही है। भारत में अब इन वेदान्तियों ने विपस्सना के नाम से भी इस वेदांती अध्यात्म को ही बुद्ध के नाम की आड़ में फैलाना शुरू कर दिया है। किसी भी बाबा योगी या गुरु के आश्रम में चले जाइए सब बुद्ध की व्याख्या कर रहे हैं और विपस्सना में तोड़ फोड़ करके उसमें अपनी बकवास मिला रहे हैं।
ये गजब खेल है। इन्हें कृष्ण और राम या विष्णु या तुलसी की नई व्याख्या की फ़िक्र नहीं है। लेकिन बुद्ध और कबीर की बडी फ़िक्र रहती है। कारण साफ़ है। बुद्ध और कबीर से इन्हें डर लगता है अगर बुध्द, कबीर की आग पर इनकी व्याख्याओं का पानी बार बार न डाला गया तो ये आग पूरे वेदान्तिक भूसे को जला डालेगी। इसीलिये ये अपने वेदांती, वैष्णव चैम्पियन्स को सुरक्षित रखते हैं और दंगे में बुद्ध, कबीर को आगे कर देते हैं।
ओशो इस खेल को बहुत होशियारी से करते रहे हैं। हम किसी और से उम्मीद न करें लेकिन अंबेडकरवादियों और बुद्ध के प्रेमियों से उम्मीद कर सकते हैं कि वे ओशो की बाजीगरी को समझें और उनसे सावधान रहें। बुद्ध को अंबेडकर की दृष्टि से समझें या सीधा समझने का प्रयास करे।
संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।
आपने छोटे से article मे ही सब कुछ बता दिया
बहोत बहोत धन्यवाद