
नई दिल्ली। भारत भाषाओं का देश है, लेकिन यही भाषाई विविधता आज गंभीर संकट का सामना कर रही है। जनगणना 2011 के अनुसार भारत में 121 प्रमुख भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें से केवल 22 भाषाएं संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हैं। जबकि देश में 19,569 मातृभाषाएं (Mother Tongues) प्रचलित हैं, जिनमें बोलियां, उपबोलियां और स्थानीय भाषाएं शामिल हैं। भाषा वैज्ञानिक सर्वेक्षण बताता है कि भारत में ऐतिहासिक रूप से 700–800 से अधिक भाषाएं बोली गई हैं, जिनमें से बड़ी संख्या आज लुप्तप्राय (Endangered) स्थिति में है, खासतौर पर आदिवासी और लोक भाषाएं।
इसी पृष्ठभूमि में राजबंशी भाषा, जिसे पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत की प्राचीन भाषाओं में गिना जाता है, एक बार फिर चर्चा में है। राजबंशी भाषा पर आधारित एक महत्वपूर्ण पुस्तक का विमोचन 19 दिसंबर को दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में किया जा रहा है। इस पुस्तक के लेखक हैं रिटायर्ड विंग कमांडर डॉ. रंजीत कुमार मंडल, जो पहले भी भाषाई और सामाजिक विषयों पर कई किताबें और शोध पत्र लिख चुके हैं।
राजबंशी भाषा: पहचान और संघर्ष
राजबंशी भाषा मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, झारखंड, नेपाल के तराई क्षेत्र और बांग्लादेश के सीमावर्ती इलाकों में बोली जाती है। इसके बावजूद, इसे अक्सर बोली कहकर हिंदी या बंगाली के अंतर्गत समाहित कर दिया जाता है, जिससे इसकी स्वतंत्र भाषाई पहचान कमजोर पड़ती रही है।
भाषावैज्ञानिकों का मानना है कि राजबंशी भाषा की अपनी अलग संरचना, शब्दावली और लोक-साहित्य है, जो इसे एक स्वतंत्र भाषा के रूप में स्थापित करती है। लेकिन संवैधानिक मान्यता और शिक्षा व्यवस्था में स्थान न मिलने के कारण यह भाषा भी धीरे-धीरे हाशिये पर जा रही है।
पुस्तक विमोचन का महत्व
डॉ. रंजीत कुमार मंडल की यह पुस्तक केवल भाषा का अध्ययन नहीं है, बल्कि यह राजबंशी समाज की सांस्कृतिक स्मृति, इतिहास और भाषाई अधिकारों को दर्ज करने का प्रयास भी है। विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसी किताबें लुप्त होती भाषाओं के संरक्षण की दिशा में दस्तावेजी साक्ष्य का काम करती हैं। पुस्तक विमोचन के मौके पर भाषा-संस्कृति से जुड़े विद्वानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजबंशी समाज के प्रतिनिधियों के शामिल होने की संभावना है। कार्यक्रम में मातृभाषा आधारित शिक्षा, जनगणना में भाषाओं की पहचान और भाषाई न्याय जैसे मुद्दों पर चर्चा भी होने की उम्मीद है।
भाषाई न्याय का सवाल
राजबंशी भाषा का मुद्दा केवल एक भाषा का नहीं, बल्कि उस भाषाई लोकतंत्र का सवाल है, जिसमें हर समुदाय की बोली-भाषा को सम्मान और संरक्षण मिले। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि समय रहते राजबंशी जैसी भाषाओं को शिक्षा, शोध और नीति में स्थान नहीं दिया गया, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए यह विरासत सिर्फ किताबों तक सीमित रह जाएगी। राजबंशी भाषा पर यह पुस्तक ऐसे समय में आ रही है, जब भारत की भाषाई विविधता को बचाने की लड़ाई और तेज़ हो गई है।

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