1946 के संयुक्त भारत की अंतरिम सरकार के पहले कानून मंत्री जोगेंद्र नाथ मंडल पूर्वी बंगाल के एक प्रमुख अनुसूचित जाति के नेता थे। वे भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य बने रहे। उन्होंने पाकिस्तान में कई महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित किया, जिनमें पाकिस्तान संविधान सभा के कार्यवाहक अध्यक्ष होने के साथ-साथ पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री और श्रम मंत्री भी बनाए गये। जिन्ना ने पाकिस्तान संविधान सभा को संबोधित करते हुए पाकिस्तान को एक धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान बनाने और अल्पसंख्यकों को विशेष विशेषाधिकार प्रदान करने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। हालाँकि, 11 सितंबर, 1948 को जिन्ना की मृत्यु के बाद जब दलितों पर अत्याचार बढ़ गया और उसके बाद 1950 में प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने पाकिस्तान को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की घोषणा की। इसके विरोधस्वरूप जोगेंद्र नाथ मंडल ने सरकार से इस्तीफा दे दिया। यह मुस्लिम लीग द्वारा उनके साथ किए गए विश्वासघात का स्पष्ट संकेत था, क्योंकि पाकिस्तान जिन्ना के शुरुआती वादों के विपरीत एक धर्मशासित राज्य बनने की ओर अग्रसर होने लगा था। पाकिस्तान के एक धर्मतंत्रीय व्यवस्था की ओर बढ़ने के बाद, जोगेंद्र नाथ मंडल ने दुखी होकर विरोधस्वरूप मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और 1950 में भारत लौट आए। उन्होंने मुख्य रूप से पाकिस्तान के इस्लामिक राज्य बनाने के खिलाफ विरोध करने और मुस्लिम लीग द्वारा किए गए वादों को तोड़ने की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया।
जिन्ना के धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक अधिकारों के वादों के कारण जोगेंद्र नाथ मंडल ने उनका साथ दिया था। वे पाकिस्तान में इसलिए भी रुके थे क्योंकि पूर्वी बंगाल के चटगाँव और जेसोर-खुलना जैसे कुछ जिले हिंदुओं और अछूतों के वर्चस्व वाले थे, जिनकी आबादी 54% थी। जिसमें अनुसूचित जातियों की आबादी 30% से अधिक थी। मंडल अपने गृह जिले बारिसाथ से चुने गए थे, जो इन क्षेत्रों से सटा हुआ था। उल्लेखनीय है कि भारत के विभाजन के दौरान, चटगाँव और खुलना, दोनों गैर-मुस्लिम बहुल क्षेत्र, पाकिस्तान को आवंटित किए गए, जबकि ये वे क्षेत्र थे जिन्हें विभाजन के दिशा-निर्देशों के अनुसार भारत का हिस्सा होना चाहिए था। माना जाता है कि सरदार पटेल और उनके कांग्रेस सहयोगियों ने डॉ. आंबेडकर को बॉम्बे से केंद्रीय विधान सभा में प्रवेश करने से रोकने में भूमिका निभाई थी। डॉ. आंबेडकर को राजनीतिक रूप से हाशिए पर धकेलने के लिए चटगांव और खुलना को पाकिस्तान में स्थानांतरित करने का एक ठोस प्रयास किया गया था, जो स्वतंत्रता के बाद स्पष्ट हो गया।
भारत के बजाय पाकिस्तान में रहने का निर्णय लेने के पीछे जोगेंद्र नाथ मंडल का कारण यह था कि बंगाल में दलितों और मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति काफी हद तक समान थी। दोनों समुदाय मुख्य रूप से किसान या मछुआरे या कारीगर थे। बहुत कम लोग कुलीन थे। दलितों और मुसलमानों के हित समान थे। उनकी जनसंख्या का अनुपात लगभग एक तिहाई था। वे एक साथ मित्रतापूर्वक रह सकते थे। दूसरे, स्वतंत्र भारत में हिंदुओं का वर्चस्व होगा और दलितों का दर्जा दोयम दर्जे का होगा। उन्हें लगा कि दलितों को भारत में समान अवसर नहीं मिलेंगे और उनका दमन किया जाएगा। लेकिन पाकिस्तान में दलितों की स्थिति के बारे में जोगेंद्र नाथ मंडल का आकलन गलत साबित हुआ। पाकिस्तान दलितों के लिए वह देश नहीं बन सका जिसकी जोगेंद्र नाथ मंडल ने कल्पना की थी। लेकिन भारत के दलितों के बारे में उनका आकलन कमोबेश सही साबित हुआ। क्योंकि इन्हीं कारणों से बाबासाहेब आंबेडकर ने खुद नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। आजादी के चार साल बाद भी बाबासाहेब आंबेडकर भारत में उतने ही हताश और निराश थे, जितने जोगेंद्र नाथ मंडल पाकिस्तान में थे। अपने इस्तीफे में बाबासाहेब आंबेडकर ने संविधान में प्रावधानों के बावजूद दलितों पर हो रहे अत्याचार और हिंदू कोड बिल के मुद्दे पर गुस्सा जाहिर किया था।
हम जोगेंद्र नाथ मंडल के आभारी हैं, जिनकी वजह से भारत को डॉ. आंबेडकर जैसा संविधान विशेषज्ञ मिला। 1946 में जब संविधान सभा के सदस्यों के चुनाव की बात आई, तो कांग्रेस ने महाराष्ट्र में बाबा साहब आंबेडकरके लिए न केवल सभी दरवाजे और खिड़कियां बंद कर दीं, बल्कि उनके लिए कोई वेंटिलेटर भी नहीं छोड़ा। तब जोगेंद्र नाथ मंडल ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके 1946 में बाबा साहब आंबेडकर को बंगाल से संविधान सभा के लिए चुनवाया। जोगेंद्र नाथ मंडल की राजनीतिक यात्रा के संदर्भ में कहा जाता है कि डॉ. आंबेडकर ने 1950 में जोगेंद्र नाथ मंडल को भारत लौटने की सलाह दी थी। जिस कारण जोगेंद्र नाथ मंडल भारत वापस आए। जोगेंद्र नाथ मंडल की पाकिस्तान से वापसी को एक विद्रोह और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के साथ विश्वासघात के रूप में अंतरराष्ट्रीय मंच पर देखा गया। भारत लौटने के बाद जोगेंद्र नाथ मंडल ने दो संसदीय चुनाव लड़े, जिनमें से दोनों में ही वे हार गए और अंततः 5 अक्टूबर, 1968 को उनका निधन हो गया।
जोगेंद्र नाथ मंडल की भारत वापसी के आलोचकों को यह समझना चाहिए कि उनका निर्णय आत्मसम्मान की इच्छा से प्रेरित था, सत्ता की प्यास से नहीं। कई मौजूदा राजनीतिक नेताओं के विपरीत जो व्यक्तिगत लाभ को प्राथमिकता देते हैं, मंडल की कार्रवाई गरिमा के सिद्धांत पर आधारित थी। भारत में उनकी वापसी महज एक राजनीतिक पैंतरेबाजी नहीं थी; यह जिन्ना की मृत्यु के बाद उनके साथ हुए टूटे वादों और विश्वासघात का जवाब था। उनकी वापसी स्वार्थी महत्वाकांक्षाओं के लिए नहीं बल्कि आत्मसम्मान की जरूरत से हुई थी, जो सार्वजनिक जीवन में गरिमा के महत्व को समझने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए एक आवश्यक मूल्य है।
जो लोग जोगेन्द्र नाथ मंडल के भारत वापस आने की आलोचना करते हैं। इस आधार पर हिंदू मुस्लिम विभेद खड़ा करते हैं उन्हें यह जानना चाहिए कि जोगेन्द्र नाथ मंडल सत्ता को लात मार कर आने वाला स्वाभिमान था। जोगेन्द्र नाथ मंडल का पाकिस्तान में रुतबा और दर्जा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के बाद का था। जैसे ही प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने 1950 में पाकिस्तान को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की घोषणा की, अपने स्वाभिमान से लबरेज जोगेन्द्र नाथ मंडल ने मंत्रीपद जैसे सम्मानित पद को लात मार कर भारत में सामान्य जीवन व्यतीत करने आए थे।
जोगेन्द्र नाथ मंडल चाहते तो पाकिस्तान में रह कर व्यक्तिगत रूप से मौज मजे कर सकते थे। पर उन्होंने उसका विरोध किया और त्याग पत्र देकर वापस आए। उनका वापस आना आज के नेताओं जैसा स्वयं की सत्ता के लिए समाज और देश का सौदा करने जैसा नहीं था। भारत में प्रभावशाली जातियां और उसके नेता स्वयं के सत्ता और पद पाने के लालच में कुटिल दाव पेंच करते रहते हैं, राक्षसी संघर्ष में लीन रहते हैं, अपनी पार्टी और सरकार को चूना लगाने से भी नहीं चूकते हैं।
यहां तक कि कभी-कभी अपने दल की सरकारों को भी ज्योतिरादित्य सिंधिया, हेमंत विश्व शर्मा और अन्यो की तरह स्वार्थ पूरा नहीं होने पर पलट देते हैं। वे अपनी ही सरकारों को बेशर्मीपूर्वक ब्लैकमेल और अस्थिर करते रहते हैं। अपनी पार्टी की सरकार को भी गिरा देते हैं। अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए भारत के कई राज्यों को मनमाने और बेढंगे तरीके से विभाजित भी किया है। भारत का विभाजन भी तो हिंदू मुस्लिम के सत्ता पर वर्चस्व को लेकर ही तो हुआ।
मेरे एक मित्र ने पूछा कि जोगेंद्र नाथ मंडल ने पाकिस्तान सरकार में अपना प्रतिष्ठित पद छोड़कर भारत लौटने का फैसला क्यों किया? और उसके बाद वे अपेक्षाकृत साधारण जीवन जी रहे थे। क्या यह जिन्ना की मृत्यु के बाद दलित-मुस्लिम विश्वास के टूटने के कारण था? यह सच है कि जिन्ना की मृत्यु के बाद, पाकिस्तान में तीव्र आंतरिक सत्ता संघर्ष हुआ, जिससे रक्तपात और राजनीतिक अराजकता फैल गई। देश को अपना संविधान बनाने में भी दो दशक से अधिक का समय लगा। हालाँकि, सत्ता, स्वाभिमान और वर्चस्व के लिए इसी तरह के संघर्ष भारत में भी देखे जा सकते हैं, न केवल दलितों और मुसलमानों के बीच, बल्कि विभिन्न प्रमुख हिंदू जातियों के बीच भी। भारत में, जाति-आधारित संघर्ष प्रचलित हैं, यहाँ तक कि ब्राह्मणों, ठाकुरों और अन्य प्रभावशाली जातियों जैसे समूहों के बीच भी, जो कभी-कभी अस्तित्व और सत्ता के लिए गठबंधन बनाते हैं, लेकिन बाद में तीखे संघर्षों में उलझ जाते हैं। ये समूह अक्सर एक-दूसरे से लड़ते झगड़ते रहते हैं, जिससे उनकी अपनी पार्टियों और संगठनों में अस्थिरता पैदा होती है। कई बार, राजनीतिक दल के कुछ लोग अपने स्वार्थी, संकीर्ण हितों के लिए अपनी सरकारों को भी गिरा देते हैं। निहित स्वार्थों से प्रेरित यह सत्ता संघर्ष किसी एक समुदाय तक सीमित नहीं है। इसी तरह, कुछ राजनीतिक दलों ने सत्ता और प्रभुत्व हासिल करने के लिए भारत में तर्कहीन और मनमाने ढंग से राज्यों का विभाजन किया है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि भारत का विभाजन, हिंदू और मुस्लिम समुदायों के भीतर कुछ नेताओं द्वारा खेले गए सत्ता के खेल का परिणाम था। जोगेंद्र नाथ मंडल के बलिदान के महत्व को समझने के लिए इस संदर्भ को समझना आवश्यक है।
जो आलोचक यह दावा करते हैं कि भारत में उच्च जाति के सवर्ण हिंदू दलितों पर अत्याचार नहीं करते हैं, या वे उनके साथ सम्मान से पेश आते हैं, वे या तो अज्ञानी हैं या छली–कपटी हैं। ऐसी आलोचनाएं एक ऐसी मानसिकता को प्रकट करती हैं जो दलितों द्वारा भारत में सामना किए जाने वाले वास्तविक, प्रणालीगत भेदभाव को बहुत कम करके आंकती है। डॉ. आंबेडकर के अनुभव की तरह ही जोगेंद्र नाथ मंडल का अनुभव भी यह दर्शाता है कि सत्ता और प्रतिष्ठा के पदों पर बैठे लोगों को भी अक्सर अपना आत्म-सम्मान बनाए रखने के लिए कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं। डॉ. आंबेडकर ने खुद 1951 में केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था, इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने सिद्धांतों और आत्म-सम्मान से समझौता करने से इनकार कर दिया था। जोगेंद्र नाथ मंडल की तरह ही आंबेडकर के कार्यों ने राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर सम्मान के महत्व को उजागर किया। विभाजन के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच, जिसमें लोग एक-दूसरे के देशों में बसने के लिए सीमा पार करते थे, केवल धार्मिक या राजनीतिक कारणों से नहीं बल्कि व्यक्तिगत पसंद, सुविधा और आत्म-सम्मान की खोज से प्रेरित था। एक से दूसरे देश में बसना एक जटिल प्रक्रिया थी जो किसी साधारण हिंदू-मुस्लिम विभाजन का पालन नहीं करती थी। उदाहरण के लिए, एम.ए. जिन्ना की बेटी दीना वाडिया ने पाकिस्तान में बसने के कई प्रस्तावों के बावजूद भारत में रहना चुना। दीना वाडिया के बेटे नुस्ली वाडिया भारत में एक प्रसिद्ध उद्योगपति हैं। इसी तरह, मोहम्मदअली करीम छागला, जिन्होंने जिन्ना के साथ एक जूनियर वकील के रूप में काम किया था, ने पाकिस्तान नहीं जाने का फैसला किया। यहां तक कि 15 अगस्त 1973 को लाहौर में पैदा हुए अदनान सामी खान (दिवंगत अरशद शमी खान के बेटे, एक पाकिस्तानी वायु सेना अधिकारी, जिन्होंने 1965 के भारत-पाक युद्ध में लड़ाई लड़ी थी) को 2016 में भारत की नागरिकता दी गई। दीना वाडिया और अरशद सामी खान के बारे में जानकारी गूगल पर भी उपलब्ध है।
भारत विभाजन और जिन्ना की मृत्यु के बाद, पाकिस्तान के गठन के दौरान पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में बसे कुछ मुसलमान 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान भारत लौट आए। यह दर्शाता है कि कैसे व्यक्तियों और परिवारों ने धार्मिक या राष्ट्रवादी सीमाओं का पालन करने के बजाय बदलती राजनीतिक गतिशीलता, व्यक्तिगत अनुभवों और आत्म-सम्मान के अवसरों के आधार पर निर्णय लिए।
इसे समझ कर ही जोगेन्द्र नाथ मंडल के त्याग पूर्ण कार्यो को समझा जा सकता है। जोगेन्द्र नाथ मंडल का उल्लेख करते हुए ये लोग ऐसा चित्रित करते हैं जैसे भारत में सवर्ण दलितों के साथ अत्याचार करते नहीं है बल्कि उन्हें सर आंखों पर बैठा कर रखते हैं। अपने परिवार के बड़े जैसा इज्जत देते हैं। इससे आरोप लगाने वाले की कुटिल मानसिकता का पता चलता है। जिन्ना की मृत्यु 11 सितंबर 1948 को हई, इसके बाद जोगेन्द्र नाथ मंडल के मंत्री पद से त्यागपत्र 8 अक्टूबर 1950 की प्रति को पढा जाना चाहिए। जोगेंद्र नाथ मंडल एक ऐसे संघर्षशील, गतिशील और जीवटवान राजनेता थे, जिनका जीवन, संघर्ष और सिद्धांत एक प्ररेणा है। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

इं. राजेन्द्र प्रसाद सामाजिक चिंतक हैं। वे निरंतर लेखन के जरिये सक्रिय हैं। ‘संत गाडगे और उनका जीवन संघर्ष’ और ‘जगजीवन राम और उनका नेतृत्व’ उनकी महत्वपूर्ण किताबें हैं। वे पटना में रहते हैं।

