सर से लेकर पांव तक बागौर देखा जाए, तो मैले कुचैले कपड़ों के भीतर बसाता गन्धाता जीर्ण होता शरीर जो नहाने पर गीला ही हो पाता होगा, भीगे हुए तो अरसे गुजर चुके होंगे. शायद कोई भिखारी है या घरवालों की ओर से तिरस्कृत ,सभ्य कहलाए जाने वाले समाज का ही हिस्सा. जिसके पास हर रोज ढेरों ढेर दिक्कतें आती जाती होंगी.
मैं किसी की आस्था पर कोई सवाल नहीं उठा रही पर ये इंसान मुझे खुद से, औरों से कई गुना बेहतर लगा. इसके कपड़े और हाथ मे लटका थैला गवाह है कि इसका ठिकाना कोई फुटपाथ होगा , खुले आसमान के तले इसकी हर रात गुजरती होगी. जिंदगी समाज और देश को कोसने की कई मज़बूत वजह होंगी इसके पास. पर इसने इस पल को अनदेखा करने के बजाय इसका सम्मान अपनी पूरी शिद्दत से किया.
दूर से ही लकदक करते , नागरिक कहलाए जाने वाले सभ्य लोगों द्वारा आरोहित झंडे को नमन करते वक्त इसने अपने पांव की चप्पलें तक उतार दीं, शायद इस लिए कि इसके भीतर कृतज्ञ भाव का प्रत्यक्ष रूप अपने असल मे जीवित है……
ऐसा हम सब अपने पूजाघरों में करते हैं, आस्था डर या सदियों की पिलाई गयी घुट्टी के चलते हमारी आदत है मन बेमन अपने इष्ट के समक्ष नंगे पांव रहने की.
इस मासूम इंसान की उस चाह को मेरा नमन , जो इन साफ कपड़ो वाले झुंड का हिस्सा बनना चाह रही होगी.
इस इंसान के सलीके को नमन , जिसने लाखों तहज़ीब शुदा इंसानों को बिना शब्द बता दिया कि तहज़ीब किसी आला दर्जे के कॉवेन्ट की बपौती नहीं.
लेखक- Anu Verma के फेसबुक पोस्ट से
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