Tuesday, April 22, 2025
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आषाढ़ी पूर्णिमा पर बुद्ध ने क्या उपदेश दिया, यहां पढ़िए

आषाढ़ पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। राजकुमार सिद्धार्थ गौतम ने इस दिन 29 वर्ष की आयु में सांसारिक जीवन का त्याग किया था। आषाढ़ पूर्णिमा को धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस भी कहा जाता है, क्योंकि इसी दिन सारनाथ में सम्यक संबोधि प्राप्त करने के बाद बुद्ध ने सारनाथ जाकर इसिपत्तन मृगदाय वन में पंचवर्गीय भिक्खुओं को प्रथम धम्म प्रवचन दे कर धम्म चक्र प्रवर्तन सूत्र की देशना की थी।

बुद्ध ने पांच परिव्राजकों को संबोधित करते हुए कहा-

भिक्खुओं, जो परिव्रजित हैं उन्हें दो अतियों से बचना चाहिए,

पहली अति है कामभोगों में लिप्त रहने वाले जीवन की, यह कमजोर बनाने वाला है।

दूसरी अति है आत्मपीड़ा प्रधान जीवन की जो कि दुःखद होता है, व्यर्थ होता है और बेकार होता है।

इन दोनों अतियों से बचे रहकर ही तथागत ने मध्यम मार्ग का अविष्कार किया है।

यह मध्यम मार्ग साधक को अंतर्दृष्टि प्रदान करने वाला है, बुद्धि देने वाला है, ज्ञान देने वाला है, शांति देने वाला है, संबोधि देने वाला है और पूर्ण मुक्ति अर्थात निर्वाण तक पहुंचा देने वाला है। यह मध्यम मार्ग आर्य आष्टांगिक मार्ग है।

इस आर्य आष्टांगिक मार्ग के अंग हैं:-

  1. सम्यक् दृष्टि
  2. सम्यक् संकल्प
  3. सम्यक् वचन
  4. सम्यक् कर्मान्त
  5. सम्यक् आजीविका
  6. सम्यक् व्यायाम
  7. सम्यक् स्मृति
  8. सम्यक् समाधि

बुद्ध ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा- भिक्खुओं, पहला आर्यसत्य यह है कि जीवन में दुःख है-

जन्म लेना दुःख है, बुढ़ापा आना दुःख है, बीमारी दुःख है, मुत्यु दुःख है, अप्रिय चीजों से संयोग दुःख है, प्रिय चीजों से वियोग दुःख है, मनचाहा न होना दुःख है, अनचाहा होना दुःख है, संक्षेप में पांच स्कंधों से उपादान (अतिशय तृष्णा का होना) दुःख है।

अब हे भिक्खुओं, दूसरा आर्यसत्य यह है कि इस दुःख का कारण हैः राग के कारण पुनर्भव अर्थात पुनर्जन्म होता है, जिससे इस और उस जन्म के प्रति अतिशय लगाव पैदा होता है, यह लगाव काम-तृष्णा के प्रति होता है, भव-तृष्णा के प्रति होता है और विभव तृष्णा के प्रति होता है;

अब हे भिक्खुओं, तीसरा आर्यसत्य है दुःख निरोध आर्यसत्य, इस तृष्णा को जड़ से पूर्णतः उखाड़ देने से इस दुःख का, जीवन-मरण का जड़ से निरोध हो जाता है।

और अब हे भिक्खुओं, चौथा आर्यसत्य है दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा (दुःख से मुक्ति का मार्ग), इस दुःख को जड़ से समाप्त किया जा सकता है और जिसके लिए तथागत ने आठ अंगों वाला आर्य आष्टांगिक मार्ग खोज निकाला है जो साधक को सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि हैं।

इस प्रकार हे भिक्खुओं, इन चीजों के बारे में मैंने पहले कभी सुना नहीं था, मुझमें अंतर्दृष्टि जागी, ज्ञान जागा, प्रज्ञा जागी, अनुभूति जागी और प्रकाश जागा।

बुद्ध ने अपनी बात पूरी करते हुए आगे कहा:

हे भिक्खुओं जब मैंने अपनी अनुभूति पर इन चारों आर्य सत्यों को इनके तीनों रूपों के साथ, और उनकी बारह कड़ियों के साथ, पूर्ण रूप से सत्य के साथ जान लिया, पूरी तरह समझ लिया और पूरी तरह अनुभव कर लिया, उसके बाद ही मैंने कहा कि मैंने सम्यक् सम्बोधि प्राप्त कर ली है, इस तरह मुझमें ज्ञान की अंतर्दृष्टि जागी, मेरा चित्त सारे विकारों से मुक्त हो गया है।

हे भिक्खुओं जब मैंने अुपने स्वयं के प्रत्यक्ष अनुभवों से और पूर्ण ज्ञान और अंतर्दृष्टि के साथ इन चारों आर्यसत्यों को जान लिया, यह मेरा अंतिम जन्म है अब इसके बाद कोई नया जन्म नहीं होगा।

बुद्ध के इन चार आर्यसत्यों और आर्य अष्टांगिक मार्ग को सुनकर कौंङन्न के धर्मचक्षु जागे और उन्हें यह प्रत्यक्ष अनुभव हो गया कि जो कुछ भी उत्पन्न होता है वह नष्ट होता है, जिसका उत्पाद होता है उसका व्यय होता है।

कौंङन्न के चेहरे के भावों को देखकर बुद्ध ने कहा- कौंङन्न् ने जान लिया. कौंङन्न ने जान लिया. इसलिए कौंङन्न का नाम ज्ञानी कौंङन्न पड़ गया।

बुद्ध के इस उपदेश से कौंङन्न के अंदर भवसंसार चक्र, धम्म चक्र में परिवर्तित हो गया, इसलिए इस प्रथम उपदेश को धम्मचक्र प्रवर्तन सुत्त कहते हैं। पांचों भिक्खुओ ने बुद्ध को साष्टांग प्रणाम किया और उन पांच भिक्खुओं को अपना शिष्य स्वीकार करने की प्रार्थना की, बुद्ध ने उनको अपना शिष्य स्वीकार किया इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा भी कहा जाता है।

बुद्ध ने यह उपदेश आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन दिया था, इसलिए बौद्धों में आषाढ़ पूर्णिमा पवित्र दिन माना जाता है।

इस पूर्णिमा से भिक्खुओं का वस्सावास (वर्षावास/चातुर्मास) अर्थात मानसून के महीने में एक ही स्थान पर निवास करना) आरंभ होता है, इस दिन बौद्ध उपासक-उपासिकाओं द्वारा महाउपोसथ व्रत रखा जाता है। बौद्ध विहारों में धम्म देशना के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।


इसके लेखक आनंद श्रीकृष्ण हैं। आनंद जी, बौद्ध चिंतक एवं साहित्यकार हैं।

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