इसलिए कि अखबार जब तोप का बारूद बन जाए, तो निशाना जनता को ही बनना है. सूचित नागरिक ही सचेत नागरिक होता है और सचेत नागरिक ही सशक्त राष्ट्र बनाता है.
तो सूचित कहां से हो? उन अखबारों से जिनके लिए सच वही है, जो सत्ता कहे. या फिर उन स्वनामधन्य पत्रकारों से, जिनकी पत्रकारिता का आधार ही उनकी कुंठा और अवधारणा है. या फिर उन पत्रकारों से जो अपने स्टूडियो में बैठ ज्ञान गंगा बहाते हुए दूसरे पत्रकारों को गाली देते है कि आज मीडिया में सूचना नहीं सिर्फ भाव है. आखिर, अन्धविरोध और अन्धविश्वास में आखिर फर्क ही क्या रह गया है?
मान लिया कि सरकारी सच ही यथार्थ है और बाकी सब भ्रम. तो ठीक है. आप इस किताब “वादाफरामोशी” को पढिए. जानिए उस सच को, जो सरकारी है. सरकारी दस्तावेजों में दर्ज है. अब कुछ को इस बात से भी आपत्ति हो सकती है कि आरटीआई तो ब्लैकमेलिंग का हथियार होता है. तो भाई ब्लैकमेल भी तो वही होता है जिसकी ढाढी में तिनका हो.
यह किताब क्यों पढे?
ये किताब आप इसलिए भी पढे ताकि आप अपने पर्सेप्शन को एक दिशा दे सके, जो फिलहाल एक अनगाइडेड मिसाइल बना हुआ है. ये किताब सत्ता की चेरी बन चुकी सच के साथ आपको एक साक्षात्कार कराने का मौका देती है, इसलिए भी इसे पढे. यह जानने के लिए भी इसे पढे कि लोकतंत्र में जब नेता को नायक/रहनुमा का दर्जा देंगे तो आपके साथ क्या-क्या हो सकता है? जैसे कभी हमने इन्दिरा को दुर्गा बना कर अपने लिए मुसीबत मोली थी. ये किताब आपको एक नागरिक के तौर पर आपके जानने के हक को भी पारिभाषित करती है. यह बताती है कि आप व्हाट्स एप्प यूनिवर्सिटी के आकडों के बजाए उन आकडों पर विश्वास करे जो खुद सरकार ने मुहैया कराए है. वजाहत साहब ने जो भूमिका लिखी है, वह इस पुस्तक के उद्धेश्य को काफी सटीक तरीके से बताती है.
कुछ लोगों को इस बात से भी दिक्कत हो सकती है कि मोदी सरकार के सिर्फ 5 साल के कार्यकाल का ही हिसाब क्यों है इस किताब में? तो इसका जवाब ये है कि अव्वल तो इसमें कुछ ऐसी भी योजनाएं है जो यूपीए काल से चली आ रही है. दूसरा ये कि जब 70 साल की भारत दुर्दशा (जिसे मैं नहीं मानता) के लिए एक राजनीतिक दल को दोषी मान ही लिया गया है तो फिर हम भी वही काम करते तो क्या अनोखा करते? एक पत्रकार के तौर पर तो हमें यही पता है कि सत्ता से, सरकार से सवाल किया ही जाना चाहिए, जो हमने किया? आप भी कीजिए. अपने राज्य की सरकारों/आने वाली केन्द्रीय सरकारों से सवाल पूछिए. सवाल नहीं पूछेंगे तो जवाब नहीं मिलेगा. और सही सवाल नहीं पूछेंग तो सही जवाब नहीं मिलेगा. तो तय कीजिए कि आपके जीवन के लिए, आपके देश के लिए सही सवाल क्या है? यह तय करने में भी यह किताब आपकी मदद करेगी.
कुछेक मित्रों को इस बात से भी दिक्कत हो सकती है कि किताब का विमोचन अरविंद केजरीवाल से क्यों करवाया गया? तो, मित्र अरविन्द अभी 5 साल से राजनीति में है. हमने उन्हें 15 सालों से भी ज्यादा समय तक आरटीआई पर काम करते हुए देखा है. ये देखा है कि किस जूनून से उन्होंने हर बार जनता के इस अधिकार की रक्षा के लिए सडक पर लडाई लडी. आरटीआई पर आधारित एक किताब के विमोचन के लिए हमारे पास उनसे और वजाहत हबीबुल्लाह साहब से बेहतर नाम कोई और नहीं था. और इस बात पर तो मैं फिलहाल चर्चा भी नहीं करना चाहता कि किस-किस को हमने बुलाने की कोशिश की और किस-किस ने क्यों-क्यों हमें मना कर दिया.
अंत में, कल 24 मार्च को दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में पुस्तक विमोचन-परिचर्चा के अवसर पर इतने पुराने मित्र, गुरु, शुभेच्छू मिले कि मन गदगद हो गया. उनका आशीर्वाद, उनकी शुभकामनाओं से इतना अभिभूत हूं कि उन्हें धन्यवाद बोल कर उनके प्रेम को कमतर नहीं बना सकता. मैं उनके इस स्नेह से नि:शब्द हूं.
तो आप सभी मित्रों से सादर अनुरोध है, इस किताब को पढिए. आलोचना कीजिए, समालोचना कीजिए. सबका स्वागत है.
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