कुछ नायक खामोश होते हैं। उनकी कोई प्रचारक सेना नहीं होती, कोई सोशल मीडिया कैंपेन नहीं चलता। वे न तो अपने संघर्ष की मार्केटिंग करते हैं, न ही उपलब्धियों का ढोल पीटते हैं। लेकिन उनके जाने के बाद, एक खालीपन रह जाता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि वे एक प्रतिष्ठित पद पर थे, बल्कि इसलिए कि वे विचार, मूल्य और दृष्टिकोण छोड़ जाते हैं। प्रोफेसर नंदू राम ऐसे ही एक नायक थे। एक खामोश, कर्मठ, गहराई से प्रतिबद्ध नायक।
मुझे उनसे पहली बार मिलने का अवसर तब मिला जब मैंने उनके द्वारका स्थित आवास पर लंबी बातचीत की थी। उस बातचीत ने न सिर्फ एक समाजशास्त्री को, बल्कि एक संजीदा इंसान, एक संवेदनशील शिक्षक और एक विचारशील दलित बुद्धिजीवी को मेरे सामने प्रस्तुत किया। मुझे याद है, वह कितने सहज और सरल थे। उन्हें देखकर आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि वे जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित संस्थान के पहले दलित प्रोफेसर रह चुके हैं, और वहां के सोशल साइंस स्कूल के डीन भी।
नंदू राम सिर्फ प्रोफेसर नहीं थे, वह भारतीय समाजशास्त्र को दलित दृष्टिकोण देने वाले पहले सार्थक हस्ताक्षर थे। जब वह जेएनयू पहुंचे थे, तब सुखदेव थोरात और तुलसीराम जैसे लोग वहां छात्र थे। सोचिए, वह कितने बड़े कद के थे, लेकिन कोई आभामंडल नहीं एक शांत संयम और स्पष्ट विवेक। आज के समय में जब बुद्धिजीविता कई बार प्रदर्शन बन गई है, नंदू राम उस दौर के प्रतीक थे जहां बौद्धिकता एक साधना थी।
उनकी शैक्षणिक यात्रा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से शुरू होकर आईआईटी कानपुर और फिर जेएनयू तक पहुंची। 1978 में जेएनयू के सोशल साइंस स्कूल में उन्होंने बतौर पहले दलित शिक्षक ज्वाइन किया, तब आरक्षण की व्यवस्था भी नहीं थी। वहां से लेकर 2011 में रिटायरमेंट तक उन्होंने न सिर्फ पढ़ाया, बल्कि जेएनयू में अंबेडकर चेयर की स्थापना में भी केंद्रीय भूमिका निभाई।
उनकी पीएचडी का विषय ‘Social Mobility and Status Identification among Scheduled Castes’ था- जो उस समय के समाजशास्त्रीय विमर्श में एक नई धारा की शुरुआत थी। उन्होंने चार दशकों में तीन दर्जन से अधिक शोध लेख और कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं, जिनमें The Mobile Scheduled Castes: Rise of a New Middle Class, Beyond Ambedkar: Essays on Dalits in India, और पाँच खंडों में प्रकाशित Encyclopedia of Scheduled Castes in India प्रमुख हैं। इन कृतियों के माध्यम से उन्होंने दलित समाज के बदलते स्वरूप, मध्यवर्गीय आकांक्षाओं और जाति-आधारित सामाजिक संरचनाओं पर गहरा अध्ययन प्रस्तुत किया।
नंदू राम का योगदान केवल भारतीय विमर्श तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने दक्षिण एशियाई जाति संरचना, सामाजिक बहिष्कार और समावेशन पर वैश्विक स्तर पर संवाद को दिशा दी। उनकी रचनाएं हार्वर्ड, ऑक्सफोर्ड, और टोरंटो यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्र पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनीं। वह भारत सरकार और कई विश्वविद्यालयों की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अकादमिक काउंसिलों के सदस्य रहे। उन्होंने ‘दलित विमर्श’ को अकादमिक वैधता दिलाने में केंद्रीय भूमिका निभाई।
अपने इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि उनका जन्म एक बेहद साधारण दलित परिवार में हुआ था। उनके पिता हलवाहे थे, मां दूसरों के घरों में गोबर लिपती थीं, और भाई बनारस में रिक्शा चलाते थे। लेकिन उन्होंने इस पृष्ठभूमि को कमजोरी नहीं, ऊर्जा में बदला। बीएचयू और फिर जेएनयू तक की उनकी यात्रा इस बात का प्रमाण है कि शिक्षा अगर ठान ली जाए, तो जाति की सारी दीवारें पार की जा सकती हैं।
उन्होंने हमेशा कहा कि दलित शिक्षक की जिम्मेदारी केवल प्रतिनिधित्व तक सीमित नहीं होती, बल्कि उस ज्ञान उत्पादन को चुनौती देना भी होता है जो सदियों से वर्चस्व की भाषा में लिखा गया है। उन्होंने बाबा साहेब की शिक्षाओं को समाजशास्त्र की कक्षा में लाकर नई पीढ़ी को वह दृष्टि दी, जो आज भी समाज के हर स्तर पर प्रासंगिक है।
उनकी आत्मकथा अधूरी रह गई। उन्होंने मुझे बताया था कि उन्होंने इसका शीर्षक सोच लिया था- “Stayers and Movers”, यानी वो लोग जो रुक गए और वो जो आगे निकल गए। यह शीर्षक ही बता देता है कि नंदू राम समाज के गतिशील अनुशीलक थे, जो समाज में होने वाले सूक्ष्म बदलावों को न केवल पहचानते थे, बल्कि उन्हें समाजशास्त्र की भाषा में दर्ज भी करते थे।
मुझे आज यह कहने में कोई संकोच नहीं कि प्रोफेसर नंदू राम हमारे समय के ‘अज्ञात योद्धा’ थे। उन्होंने शिक्षण, शोध और संस्थानिक नेतृत्व के ज़रिए जो खामोश क्रांति चलाई, वह नई पीढ़ी के दलित स्कॉलर्स के लिए मशाल बन चुकी है। वह डॉ. अंबेडकर के विचारों को विश्वविद्यालय की दीवारों से जोड़ने वाले सेतु थे। आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तो यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि उनके शैक्षणिक अधूरे प्रोजेक्ट, और उनकी विरासत को आगे बढ़ाया जाए।
नमन, प्रो. नंदू राम सर। आप नहीं हैं, लेकिन आपकी दृष्टि, आपके विचार, और आपके शब्द हमारे बीच जीवित हैं।

अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।