Monday, October 20, 2025
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मैं था..मैं हूँ …और मैं ही इरफ़ान रहूँगा…

दरिया भी मैं दरख्त भी मैं,
झेलम भी मैं, चेनाब भी मैं…
दैर हूँ हरम भी हूँ…
शिया भी हूँ सुन्नी भी हूँ…
मैं हूँ पण्डित…
मैं था..मैं हूँ …और मैं ही इरफ़ान रहूँगा…

मीरा नायर की ‘सलाम बोम्बे’ में सड़क पर बैठा एक राइटर जो लोगों के लिए चिट्ठियाँ लिखने का काम करता था कौन जानता था कि एक दिन वो इरफ़ान मुंबई सिनेमा की इस सड़क से उठकर उस मुक़ाम पर पहुँच जाएगा की वो दुनिया के फ़िल्म इतिहास की अब तक सबसे बेहतरीन फ़िल्मों ‘स्लमडॉग मिलेनियर, लाइफ़ आफ पाई और जुरासिक पार्क’ का हिस्सा बनेगा। वो इरफ़ान अब नहीं रहे। या यूँ कहें की अब कोई इरफ़ान ना आएगा। दो साल तक कैंसर से जूझने के बाद ‘इंग्लिश मीडियम’ से शानदार वापसी करके इरफ़ान ने ये दिखा दिया था की उन्हें इरफ़ान क्यों कहतें हैं। शायद माँ की असमय मौत और अंतिम समय में लॉकडाउन की वजह से उन तक ना पहुँच पाने की टीस इरफ़ान को घर कर गयी। पिछले सप्ताह ही उन्हें कोकिलाबेन हॉस्पिटल में भर्ती करवाया गया था और 29 अप्रैल, 2020 को भारतीय सिनेमा से इरफ़ान का साया उठ गया।

ऐसे में जब सारी दुनिया मौत के भयानक साये में जी रही है इरफ़ान जैसे शानदार अदाकार का हमारे बीच से यूँ बिना कुछ शानदार कहे चले जाना एक ख़ालीपन छोड़ जाता है, और छोड़ जाता है कभी ना भरने वाला घाव। इरफ़ान को शब्दों में पिरोना आसान नहीं, क्योंकि ‘सलाम बॉम्बे’ के बेनाम सड़कछाप लेटर राइटर को पहचान दिलवाना जबकि आपके सामने नाना पाटेकर और रघुवीर यादव जैसे कलाकार हों से लेकर ‘इंग्लिश मीडियम’ के चंपक हलवाई तक इरफ़ान जैसा सफ़र बहुत कम लोगों को नसीब होता है। ना केवल भारतीय टीवी, सिनेमा बल्कि दुनिया भर के सिनेमा के लोग इरफ़ान की शानदार डायलाग़ डिलीवरी और उनके बोलने के अंदाज को कई दशकों तक ना भूल पाएँगे। इरफ़ान होना आसान नहीं है ना वो अंदाज और जज़्बा पैदा करना जिनसे बनता है अदाकार और शानदार फ़नकार। एक एक डायलॉग जैसे कई हज़ार खून के कतरों को जला जला कर उन्होंने बोला होगा।

फ़िल्म ‘हासिल’ में इलाहाबाद के होस्टल के जीवन को जीवंत कर देने वाले कट्टे लेके चलने वाले एक गुंडे के किरदार  को लोग आज भी याद रखते हैं, ये इरफ़ान ही कर सकते थे। डॉ चंद्रप्रकाश के ‘चाणक्य’ में सेनापति भद्रसाल का तमतमाया चेहरा अगर आपको याद हो तो वो इरफ़ान ही थे जिसे देख कर सिरहन पैदा होती थी। नीरजा गुलेरी के ‘चंद्रकांता’ में बद्रीनाथ और सोमनाथ के जीवंत किरदार हो या फिर दूरदर्शन की टेली फ़िल्म ‘लाल घास पे नीले घोड़े’ में लेनिन का किरदार। सब जगह वो इरफ़ान ही था जो बता रहा था की कोई है इस सिनेमा की निरंतरता को और इसके किरदारों को स्थायित्व देने के लिए ताकि बरसों बरस कोई ये ना कहा की भारत में कलाकार नहीं होते। भारत एक खोज में उनके किरदार आज भी याद किए जाते हैं।

1988 में टीवी की दुनिया से निकल कर इरफ़ान ने फ़िल्मों में पहला कदम रखा फ़िल्म थी मीरा नायर की सलाम बोम्बे। फ़िल्म जब पर्दे पर आयी तो मीरा नायर ने उनका फ़िल्म से रोल काफ़ी काट दिया था पर मीरा शायद रोल एडिट कर सकती थी पर इरफ़ान की क़िस्मत को नहीं उसे तो कुछ और ही मंज़ूर था। फ़िल्म को दुनिया भर में वाहवाही मिली और इरफ़ान का फुठपाथ पर बैठे एक लेखक का छोटा सा रोल बहुत कुछ कह गया था जिसे अब एक लम्बा सफ़र तय करना था।

2004 आते आते इरफ़ान काफ़ी सारे रोल कर चुके थे पर पहचान और वाहवाही मिली उन्हें ‘मक़बूल’ से। इस साल आयी इस फ़िल्म को इरफ़ान की मुंबई की मसाला फ़िल्मों का एंट्री गेट भी कहा जाता है। विशाल भारद्वाज ने कल्पना की थी की सेक्सपीयर के मैक्बेथ को कैसे स्क्रीन पर उतारा जाए और फिर 2004 में  रच डाला मक़बूल। इरफ़ान मक़बूल में जिसके सामने थे वो थे पंकज कपूर जिन्हें भारतीय सिनेमा एक ऐसे अभिनेता के रूप में जानता है जो किसी परिचय के मोहताज नहीं। पंकज कपूर जहांगीर खान और इरफ़ान मक़बूल। एक इतिहासिक किरदार मैक्बेथ को इरफ़ान ने एक गैंगस्टर के रूप में जिस शानदार अदाकारी से सामने रखा वो भारतीय सिनेमा के डार्क फ़िल्मों में एक मिसाल है जबकि आपके सामने दो और बेहतरीन कलाकार तब्बू और पीयूष मिश्रा हों पर वो इरफ़ान ही क्या जो बता ना सके की वो इरफ़ान क्यों है। लाल बड़ी नशे से भरी आँखें जो मुहँ से पहले ही आँखों से डायलॉग बोलने की कला इरफ़ान की थी वो शायद कोई ना कर पाए।

इससे पहले वो आर्ट फ़िल्मों में ही अपने अभिनय से लोगों को लुभा रहे थे पर आर्ट फ़िल्में देखने वाला समाज बहुत कम था। और इरफ़ान को एक जोनर में बांध रखना उतना ही मुश्किल भी। ये इरफ़ान की आँखे का ही जादू था की जो डायलोग से पहले बोल पड़ती थीं और लोग उनकी इस अदा के क़ायल होते जा रहे थे। और यही वजह थी कि फ़िल्म ‘हासिल’ में निभाए उनके इलाहाबादी गुंडई के जिवंत किरदार को उनको पहला बेस्ट विलेन फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला। जो इलाहाबाद मेरठ या लखनऊ के छात्रावासों के जीवन को थोड़ा भी जानता होगा वो इरफ़ान के इस किरदार का क़ायल हुए बिना नहीं रह होगा।

2007 में ‘मेट्रो’ फ़िल्म  के लिए भी उन्हें  बेस्ट सपोर्टिंग ऐक्टर का अवार्ड मिला जिसमें वो मोंटी नाम के एक ऐसे किरदार को निभाए जो उम्र बीत जाने पर कैसे भी एक टीवी प्रडूसर से शादी करने के लिए बेताब था। साथ ही इस साल उन्हें सम्मान मिला ‘नेमसेक’ नाम की फ़िल्म के लिए भी जिसने उन्हें विश्वव्यापी पहचान दिलवायी। इस साल उन्होंने दो और विदेशी फ़िल्मों ‘ए मायटी हार्ट’ और ‘दा दर्जलिंग लिमिटेड’ में किरदार निभाया और अब  इरफ़ान की पहचान अंतरराष्ट्रीय अभिनेता के रूप में स्थापित हो चुकी थी। डैनी बोयल की ऑस्कर फ़िल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ में इरफ़ान के निभाए इंस्पेक्टर के किरदार और फ़िल्म के अन्य किरदारों को स्क्रीन ऐक्टर गिल्ड अवार्डस फ़ोर आउट्स्टैंडिंग परफ़ॉरमैन्स अवार्डस से नवाज़ा गया। डैनी बोयल ने तब इरफ़ान के लिए कहा था कि ये एक ऐसा अभिनेता है जो किसी भी किरदार की असली आत्मा बन जाता है और उसे फिर अपने अंदर केंद्रित करके जीवंत करता है।

इस बीच इरफ़ान ने उस रोल को निभाया जो भारतीय फ़िल्म इतिहास में एक नज़ीर बन गया है। 2012  में तिग्मांसु धूलिया ने जनसत्ता अख़बार के पत्रकार स्वर्गीय आलोक तोमर के सुझाव पर बीहड़ के एक डैकेत की कहानी उठायी जो ‘पान सिंह तोमर’ की कहानी के रूप पे पर्दे पर आयी और छा गयी। पान सिंह तोमर में बोला गया उनका संवाद काफ़ी फ़ेमस हुआ  कि ‘बीहड़ में बाग़ी होतें हैं डैकेत मिलते हैं पर्लियामेंट में’। ‘देश के लिए दौड़े तो कोई नहीं पूछता था अब डैकेत बन गए तो हर कोई नाम जप रहा है’। एक डकैत का दौड़ के प्रति जज़्बा जिस शानदार तरीक़े से इरफ़ान ने स्क्रीन पर जिया वो क़ाबिले तारीफ़ है। इसी साल इरफ़ान बच्चों की दुनिया की सबसे प्रसिद्ध सीरीज़ ‘स्पाइडर मैन’ में डॉक्टर रजित राथा का किरदार निभाए और ‘लाइफ़ आफ पाई’  जैसी ऑस्कर फ़िल्म में पाई के वयस्क रोल भी इरफ़ान खान के खाते में ही दर्ज हो गया। ये इरफ़ान ही थे जिन्हें वर्ल्ड सिनेमा में भारतीय कलाकार के रूप में बड़े बड़े किरदार निभाने का मौक़ा मिला।

इसके बाद आयी ‘लंच बॉक्स’ ने तो इस अभिनेता का एक अलग ही किरदार दिखायी दिया।  ये इरफ़ान ही थे जिन्होंने लंच बॉक्स में 60 के हो चुके फ़र्नांडिस के किरदार को जीवंत किया वो तब जब भारतीय सिनेमा में एक शर्त लगी थी की क्या नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी के रूप में भारतीय सिनेमा को उसका नया इरफ़ान मिल गया है। ऐसे समय में इरफ़ान ने नवाजुद्दीन के साथ फ़िल्म करना गवारा किया और फ़िल्म के साथ इतिहास बना दिया। दुनिया भर में इरफ़ान की इस फ़िल्म ने वाहवाही और ढेरों अवार्डस बटोरे और साथ ही पक्का किया इरफ़ान बनाया नहीं जा सकता बल्कि इरफ़ान तो पैदा होतें है। इन दोनो के किरदारों को समझने के लिए आप एक युट्यूब फ़िल्म हाई वे भी याद कर सकते हैं। इरफ़ान का निभाया ‘सात खून माफ़’ का निमफोमैनियाक शायर का किरदार सच में आपको नफ़रत से भर देता है।

2015 में आयी ‘पीकु’ में इरफ़ान शताब्दी के सबसे बड़े कलाकार अमिताभ बच्चन के सामने एक देशी अंदाज वाले ट्रैवल कम्पनी के मालिक और फिर एक टैक्सी ड्राइवर के रूप में जिस तरह से डायलॉग बोल रहे थे वो शानदार था और इसकी वजह है कि इस फ़िल्म के लिए उन्हें ढेरों अवार्डस और वाहवाही मिली। इस साल वो गुंडे और हैदर में भी नज़र आए और साथ ही किरदार निभाया जुरासिक वर्ल्ड सीरीज़ की फ़िल्म में भी। आरुषि हत्याकांड पर बनी तलवार फ़िल्म में सीबीआई अफ़सर के अश्वनि कुमार किरदार से उन्होंने साबित कर दिया की वो क्यों बेस्ट हैं। 2015  में ऐश्वर्य के साथ जज़्बा और फिर टॉम हेक्स के साथ नज़र आए थ्रिलर हॉलीवुड फ़िल्म इन्फ़र्नो में।

2017 में इरफ़ान ने एक बार फिर से हल्ला बोल किया और हिंदी मीडियम जैसी छोटे से बजट की फ़िल्म से देश भर के घर घर में पहुँच गए। चाँदनी चौक के एक कारोबारी के हिंदी भाषी किरदार को उन्होंने अमर कर दिया जिसके लिए उन्हें बेस्ट अभिनेता का फिल्मफेअर अवार्डस मिला।साथ ही क़रीब क़रीब सिंगल फ़िल्म से एक अजीब कशिश  वाले आशिक़ का किरदार भी इरफ़ान के हिस्से आया। इसके बाद ब्लैकमेल और फिर कारवाँ आयी जिसमें वो एक अलग ही रूप में नज़र आए। इन तमाम कामों के लिए भारत सरकार ने उन्हें उनके इसी योगदान के लिए पद्मश्री सम्मान से नवाज़ा था।

इंग्लिश मीडियम उनकी आख़िरी फ़िल्म साबित हुई जो उन्होंने अपनी बीमारी कैंसर से उबरने के बाद पूरी की और एक बार फिर से एक ठेठ राजस्थानी मिठाई वाले चम्पक की भूमिका को निभाया और उसी किरदार के साथ अपने अभिनय को अमर कर इस दुनिया के पर्दे से अपने पैर हटा लिए। इरफ़ान की निजी ज़िंदगी बहुत सरल सी थी पत्नी सुतपा सिकदर उनकी एनएसडी के दिनों की साथी थी जिनसे उन्होंने 1995  में शादी की। दो बच्चे बाबिल और अयान है।

इरफ़ान आज हमारे  बीच नहीं हैं और वो भी ऐसे वक़्त जब उन्हें देने के लिए चार कंधे भी सरकारी हुक्म से तय हुए होंगे कितना टीस भरा ये सफ़र है उसके लिए, जिसने अपने अभियन से लाखों प्रशंसकों का स्टैंडिंग ओविशन पाया। इरफ़ान के बोले गए संवाद लिखता तो कोई राइटर होगा की ये मुहँ से बोले जाएँगे पर वो इरफ़ान थे जो इन्हें पहले आँखों से बोलते थे फिर वो संवाद इतिहास बन जाते थे। कैंसर से लड़ते हुए उन्होंने हिम्मत दिखायी और उसे पराजित करके शानदार वापसी की। पर इरफ़ान हमेशा चौंकाते रहे और आज फिर चौंका के चले गए।

इरफ़ान को कुछ हज़ार शब्दों में लिखना आसान नहीं और ये हो भी नहीं सकता। आप आसमान को उतना ही देख सकते हैं जितना वह आपकी आँखों में समाएगा, उतना नहीं जितना बड़ा वो सच में होता है। शुक्रिया इरफ़ान, मेरी आँखों को आज उस वक़्त भिगो देने के लिए जब मैं ख़ुद मौत के साये में जी रहा हूँ। पता नहीं कल क्या होगा पर आज का दिन और आने वाला हर दिन मैं तुम्हें ज़रूर याद रखूँगा। और याद रखूँगा हर वो किरदार जिसने तुम्हें इरफ़ान बनाया । 54 साल

अरविंद कुमार

की उम्र दुनिया छोड़ने की नहीं होती पर तुम गए शायद उस माँ को मिलने जिसको कंधा देना भी तुम्हें नसीब नहीं हुआ। इससे बड़ी क़ुर्बानी तुम ही कर सकते थे। अलविदा इरफ़ान ‘तुम’ होना आसान नहीं। तुमको याद रखेंगे गुरु हम।

  • लेखक अरविंद कुमार पत्रकार हैं।

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