प्रत्येक महापुरुष के पीछे उसकी जीवन-संगिनी का बड़ा हाथ होता है। जीवन साथी का त्याग और सहयोग अगर न हो तो व्यक्ति का महापुरुष बनना आसान नहीं है। रमाताई अम्बेडकर इसी त्याग और समर्पण की प्रतिमूर्ति थीं, जिसके आधार पर डॉ. अम्बेडकर देश के वंचित तबके का उद्धार कर सकें. आज रमाबाई अम्बेडकर की जयंती है।
रमाबाई का जन्म महाराष्ट्र के दापोली के निकट वणंद गांव में 7 फरवरी 1898 में हुआ था। इनके पिता का नाम भीकू धूत्रे (वणंदकर) और मां का नाम रुक्मणी था। वह कुलीगिरी का काम करते थे और परिवार का पालन-पोषण बड़ी मुश्किल से कर पाते थे। रमाबाई के बचपन का नाम रामी था। बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उसके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ मुंबई आ गए जहां वो लोग भायखला की चाल में रहते थे। सन् 1906 में रामी का विवाह भीमराव अम्बेडकर से हुआ।
डॉ. अम्बेडकर रमा को ‘रामू ‘ कह कर पुकारा करते थे जबकि रमा ताई बाबा साहब को ‘साहब ‘ कहती थी। बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर जब अमेरिका में थे, उस समय रमाबाई ने बहुत कठिन दिन व्यतीत किये. बाबासाहेब जब विदेश में थे, तब भारत में रमाबाई को काफी आर्थिक दिक्कतों को झेलना पड़ा, लेकिन उन्होंने बाबासाहेब को इसकी भनक नहीं लगने दी।
एक समय जब बाबासाहेब पढ़ाई के लिए इंग्लैंड में थे तो धनाभाव के कारण रमाबाई को उपले बेचकर गुजारा करना पड़ा था। लेकिन उन्होंने कभी भी इसकी फिक्र नहीं की और सीमित खर्च में घर चलाती रहीं।
दोनों की गृहस्थी शुरू होने पर सन् 1924 तक दोनों की पांच संताने हुई। किसी भी मां के लिए अपने पुत्रों की मृत्यु देखना सबसे ज्यादा दुख की घड़ी होती है। रमाबाई को यह दुख सहना पड़ा। बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर और रमा ताई ने अपने पांच बच्चों में से चार को अपनी आंखों के सामने अभाव में मरते हुए देखा। गंगाधर नाम का पुत्र ढाई साल की अल्पायु में ही चल बसा। इसके बाद रमेश नाम का पुत्र भी नहीं रहा। इंदु नामक एक पुत्री हुई मगर, वह भी बचपन में ही चल बसी थी। सबसे छोटा पुत्र राजरतन भी ज्यादा उम्र नहीं देख पाया। यशवंत राव उनके सबसे बड़े पुत्र थे जो जिंदा बचे। इन सभी बच्चों ने अभाव में दम तोड़ दिया। जब गंगाधर की मृत्यु हुई तो उसकी मृत देह को ढ़कने के लिए गली के लोगों ने नया कपड़ा लाने को कहा। मगर, उनके पास उतने पैसे नहीं थे। तब रमा ताई ने अपनी साड़ी से कपडा फाड़ कर दिया था। वही मृत देह को ओढ़ा कर लोग श्मशान घाट ले गए और पार्थिव शरीर को दफना आए थे।
रमा इस बात का ध्यान रखती थी कि पति के काम में कोई बाधा न हो। रमाताई संतोष, सहयोग और सहनशीलता की मूर्ति थी। डॉ. अम्बेडकर प्राय: घर से बाहर रहते थे। वे जो कुछ कमाते थे, उसे वे रमा को सौप देते और जब आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे। रमाताई घर का खर्च चला कर कुछ पैसा जमा भी करती थी। बाबासाहेब की पक्की नौकरी न होने से उसे काफी दिक्कत होती थी। आमतौर पर एक स्त्री अपने पति से जितना वक्त और प्यार चाहती है, रमाबाई को वह डॉ. अम्बेडकर से कभी नहीं मिल सका। लेकिन उन्होंने बाबासाहेब का पुस्तकों से प्रेम और समाज के उद्धार की दृढ़ता का हमेशा सम्मान किया। वह हमेशा यह ध्यान रखा करती थीं कि उनकी वजह से डॉ. अम्बेडकर को कोई दिक्कत न हो।
डॉ. अम्बेडकर के सामाजिक आंदोलनों में भी रमाताई की सहभागिता बनी रहती थी। दलित समाज के लोग रमाताई को ‘आईसाहेब’ और डॉ. अम्बेडकर को ‘बाबासाहेब’ कह कर पुकारा थे। बाबासाहेब अपने कामों में व्यस्त होते गए और दूसरी ओर रमाताई की तबीयत बिगड़ने लगी। तमाम इलाज के बाद भी वह स्वस्थ नहीं हो सकी और अंतत: 27 मई 1935 में डॉ. अम्बेडकर का साथ छोड़ इस दुनिया से विदा हो गई।
रमाताई के मृत्यु से डॉ. अम्बेडकर को गहरा आघात लगा। वे बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोये थे। बाबासाहेब का अपनी पत्नी के साथ अगाध प्रेम था। बाबसाहेब को विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में रमाबाई का ही साथ था। बाबासाहेब के जीवन में रमाताई का क्या महत्व था, यह एक पुस्तक में लिखी कुछ लाइनों से पता की जा सकती है।
दिसंबर 1940 में बाबासाहेब अम्बेडकर ने “थॉट्स ऑफ पाकिस्तान” नाम की पुस्तक को अपनी पत्नी रमाबाई को ही भेंट किया। भेंट के शब्द इस प्रकार थे.. “रमो को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जब कि हमारा कोई सहायक न था, अतीव सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं…”
डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखे गए इन शब्दों से स्पष्ट है कि माता रमाबाई ने बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर का किस प्रकार संकटों के दिनों में साथ दिया और बाबासाहेब के दिल में उनके लिए कितना सत्कार और प्रेम था। दलित दस्तक इस महान महिला को नमन करता है।

अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।
बाबा साहब के हम सच्चे सिपाही की तरह