हमें ये सोचना चाहिए कि हमारे देश में 22 ऑफिशियल भाषाओं के होने बावजूद भी हम हर मामले में पीछे क्यों हैं? या कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत इसिलए पीछे है क्योंकि यहां इतनी ऑफीशियल भाषाएं हैं?
क्योंकि सवाल ये है कि अगर इतनी सारी ऑफीशियल भाषाओं से ही किसी देश की तरक्की होती तो अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश की एक भी ऑफीशियल भाषा क्यों नहीं है? क्यों अमेरिका की सिर्फ एक De facto (वास्तविक) भाषा अंग्रेजी है? बोलने को अमेरिका जैसे देश भी हमारी तरह बहुभाषिय हैं. लेकिन ऑफीशियल भाषा के मामले में अमेरिका ने सिर्फ अंग्रेजी को ही क्यों रखा? क्यों नहीं भारत की तरह वहां भी भाषाओं का वर्गीकरण हुआ? क्यों इंग्लैण्ड ने सिर्फ अंग्रेजी को ही अपनी ऑफीशियल भाषा रखा?
कैसे अपनी जेपैनीज भाषा का इस्तेमाल कर जापान वाले आज विश्व की तीसरी सबसे बड़ी इकॉनमी वाले देश में शुमार हो गए हैं? कैसे चाईना वाले सिर्फ चाइनीज भाषा का प्रयोग कर आगे बढ़ रहे हैं? क्यों सभी विकासशील देशों में ऑफीशियल भाषा 2 या 4 से ज्यादा नहीं? क्योंकि उन्हें लगता है कि भाषा संवाद का माध्यम है. जहां एक भाषा होगी वहां आमजन में आपसी संवाद भी आसानी से होगा. कोई क्रान्ति भी करनी हो तो आसानी से होगी. हमारी तरह क्षेत्रीय भाषाओं में उलझकर सिर्फ एक क्षेत्र तक सीमित रहकर कमजोर नहीं नहीं पड़ जाएगी. क्रांति सबसे पहले आपसी संवाद खोजती है. और ये संवाद न होने देना ही भाषीय राजनीति है.
इस देश को अगर तरक्की पर ले जाना है तो सरकार को यह तय करना चाहिए भारत की “मेन स्ट्रीम” यानी मुख्य धारा में कौन सी भाषा होनी चाहिए. अब वो अंग्रेजी हो, हिंदी हो या अन्य कोई भी.
दअरसल भाषा के मामले भारत का लगभग हर क्षेत्र तीन नावों की सवारी कर रहा है. पहला तो उस क्षेत्र की क्षेत्रीय भाषा, फिर अंग्रेजी और भूले बिसरे इस देश में 40% जनसंख्या द्वारा बोले जाने वाली “हिंदी भाषा.
और इन दो-तीन नावों की सवारी के चक्कर सबसे ज्यादा किसी का घाटा होता है, तो वो है इस देश की 70 फीसदी आबादी जिनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं. भारत के सरकारी स्कूलों की जर्जर हालत से शायद ही कोई अंजान हो. और शायद यही वजह है कि लोग अपने बच्चे को उच्च शिक्षा के लिए प्राइवेट स्कूलों की तरफ रुख करते हैं अपने. वो प्राइवेट स्कूल जहां आधुनिकता है, जहां सब कुछ डिसिप्लीन आर्डर में है, जहां प्रयोगशालाएं हैं और अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता भी है.
लेकिन ये “लोग” हैं कौन? याद रहे ये “लोग” उस 70 फीसदी आबादी का हिस्सा नहीं हैं. फिर खुद सोचिए कि उन 70 फीसदी बच्चों का क्या होता होगा भविष्य में जो सरकारी स्कूल से पढ़ कर निकलते हैं? क्या उनमें वो आत्मविश्वास होगा जो एक प्राइवेट स्कूल के विद्यार्थी में होगा? मेरा अपना मत है कि बिल्कुल भी नहीं. और चलिए अगर हम मान भी लें कि दोनों के पास बराबर का ज्ञान है. और दोनों किसी नौकरी के बराबर के हकदार हैं. लेकिन क्या ये दोनों तब भी उतने ही बराबर के माने जाएंगे जब नौकरी की अनिवार्यता में अंग्रेजी भाषा की निपुणता को सर्वोपरि रखा जाएगा?
नहीं बिल्कुल नहीं. तब सरकारी स्कूल वाले छंट जाएंगे. फिर वो इंग्लिश स्पोकेन का कोर्स करेंगे, कोचिंग करेंगे इंग्लिश की और सालों साल फॉर्म भरते रहेंगे और छंटते रहेंगे और अंत में जाकर कहीं नौकरी ले पाएंगे कोई. लेकिन यहां भी गौर करने वाली बात ये है कि ये सब करने के लिए जिसके पास पैसे होंगे वही ये सब कर पाएंगे. जिनके पास पैसे नहीं वो घर गृहस्ती में लग जाएंगे. और रोजी रोटी के लिए मजदूरी से लेकर फैक्टरी या ठीकेदारी या और भी छोटे मोटे कामों में लग जाएंगे. और लड़कियों को तो कोई इतना वक़्त भी नहीं देता कि वो अपने पैरों पर खड़ी हो सकें. इसलिए 70 फीसदी में 10 फीसदी और जोड़कर कहें तो 80 फीसदी इस देश की लड़कियां अपने बल बूते जीने से पहले ही ब्याह दी जातीं हैं.
ये सिलसिला क्रमवार यूं ही चलता रहता है और भारत की आर्थिक और सामाजिक स्थिति यूं ही कमजोर होती चली जाती है. जाहिर सी बात है कि जिस देश की 70-75 प्रतिशत जनसंख्या विकसित नहीं होगी वो देश भला किस सर्वे के हिसाब से विकसित माना जाएगा?
भारत सरकार और राज्य सरकारों को ये निश्चित करना चाहिए कि आखिर सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था कैसे प्राइवेट स्कूलों की गुणवत्ता से लैश हो. और सरकारों को ये भी सोचना चाहिए कि वो जिस भाषा में अपने छात्र छात्राओं को पढ़ाते हैं, क्या उस भाषा में आगे चलकर उन्हें नौकरी पाने में दिक्कत होगी या नहीं?
जैसा कि हम जानते हैं कि उत्तर भारत के स्कूलों में अंग्रेजी की कोई अनिवार्यता नहीं है, सारे विषयों की पढ़ाई हिंदी में होती है, तो सरकार को ऐसे में सुनिश्चित करना चाहिए कि क्या ये सरकारी स्कूल के बच्चे जब कल को नौकरी लिए तैयार होंगे तो क्या उन्हें अंग्रेजी की वजह से दिक्कत आयेगी या नहीं?
ऐसी हर उस बिंदु पर हमें पहल करने की जरूरत है जिसकी वजह से भारत की आबादी 1.3 बिलियन तो बढ़कर दुनिया की सबसे घनी आबादी वाले देशों में से एक तो हो गया मगर आर्थिक और सामाजिक मामले पिछड़ा का पिछड़ा हुआ है.
– दामिनी वर्षा, बक्सर (बिहार)

दलित दस्तक (Dalit Dastak) साल 2012 से लगातार दलित-आदिवासी (Marginalized) समाज की आवाज उठा रहा है। मासिक पत्रिका के तौर पर शुरू हुआ दलित दस्तक आज वेबसाइट, यू-ट्यूब और प्रकाशन संस्थान (दास पब्लिकेशन) के तौर पर काम कर रहा है। इसके संपादक अशोक कुमार (अशोक दास) 2006 से पत्रकारिता में हैं और तमाम मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं। Bahujanbooks.com नाम से हमारी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुक किया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को सोशल मीडिया पर लाइक और फॉलो करिए। हम तक खबर पहुंचाने के लिए हमें dalitdastak@gmail.com पर ई-मेल करें या 9013942612 पर व्हाट्सएप करें।