समय के परिवर्तन के साथ-साथ बहुत कुछ बदल जाता है. यहाँ तक कि शब्द भी और शब्दों के अर्थ भी. इसे यूँ समझ सकते हैं कि बहुत पुराने समय में ‘वेदना’ शब्द को दो तरह से जाना जाता था, यथा… सुखद वेदना और दुखद वेदना. लेकिन वर्तमान में ‘वेदना’ शब्द को केवल और केवल एक ही अर्थ में जाना जाने लगा है…वह है ‘पीड़ा’. इसी संदर्भ में यदि ‘राष्ट्रवाद’ शब्द को समझना है तो हमें विगत से होकर गुजरने की जरूरत है. वीकिपीडिया के अनुसार 19वीं शताब्दी में राज्य और समाज के आपसी सम्बन्ध पर वाद-विवाद शुरू हुआ बताया जाता है तथा 20वीं शताब्दी में द्वितिय विश्वयुद्ध के बाद सामाजिक विज्ञानों में विभिन्नीकरण और विशिष्टीकरण की उदित प्रवृत्ति तथा राजनीति विज्ञान में व्यवहारवादी क्रान्ति और अन्तः अनुशासनात्मक उपागम के बढ़े हुए महत्व के परिणामस्वरूप जर्मन और अमरीकी विद्वानों में राजनीतिक विज्ञान के समाजोन्मुख अध्ययन की एक नूतन प्रवृत्ति शुरू हुई.
इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप राजनीतिक समस्याओं की समाजशास्त्रीय खोज एवं जांच की जाने लगी. ये खोजें एवं जांच न तो पूर्ण रूप से समाजशास्त्रीय ही थीं और न ही पूर्णतः राजनीतिक. अतः ऐसे अध्ययनों को ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ के नाम से पुकारा जाने लगा. एक नया विषय होने के कारण ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ की परिभाषा करना थोड़ा कठिन है. राजनीतिक समाजशास्त्र के अन्तर्गत हम सामाजिक जीवन के राजनीतिक एवं सामाजिक पहलुओं के बीच होने वाली अन्तःक्रियाओं का विश्लेषण करते हैं अर्थात राजनीतिक कारकों तथा सामाजिक कारकों के पारस्परिक सम्बन्धों तथा इनके एक-दूसरे पर प्रभाव एवं प्रतिच्छेदन का अध्ययन करते हैं. इतना ही नहीं समय के साथ-साथ ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ की भी भिन्न-भिन्न प्रकार से परिभाषा की जाने लगी. इस विषय को यही छोड़ना ज्यादा महत्त्वपूर्ण महसूस इस लिए हो रहा है क्योंकि हमें यथोक्त के आलोक में मूलत: ‘राष्ट्रवाद’ की परिभाषा को समझना है. इस बात को तो केवल संदर्भ के रूप में लिया गया है ताकि यहाँ यह समझा जा सके कि समय के साथ-साथ ‘राष्ट्रवाद’ की परिभाषा ने भी कई रूप धारण किए हैं.
आज के समय में ‘राष्ट्रवाद’ की भावना के साथ आज की राजनीति जैसे बलात्कार कर रही है, ऐसा लगता है. यह समझने की जरूरत है कि संघ का राष्ट्रवाद क्या रहा है और आज क्या है? इसे सावरकर के अनुसार ”हिंदुत्व” कहा जाता है…उनके इस ‘हिंदुत्व का अर्थ ‘हिन्दू धर्म’ से नहीं है. उनके अनुसार ‘हिन्दू धर्म’ धार्मिक आस्था पर आधारित एक जीवन-चर्या है, जबकि ”हिंदुत्व ” की अवधारणा ”हिन्दुओं” को एक राजनीतिक श्रेणी या समुदाय में समेटने के लिए की गयी है. यहाँ यह कहा जा सकता है संघ का ‘हिन्दुत्व’ ही उनका आज का ‘राष्ट्रवाद’ है जिसमें सामाजिक सद्भावना की जगह राजनीतिक भावना ज्यादा परिलक्षित होती है. असल में धर्म ‘राष्ट्रवाद’ के बदले ‘धार्मिक अवधारणा’ का ज्यादा समर्थन करता है. और ‘हिन्दुत्व’ के ‘राष्ट्रवाद’ का सीधा अर्थ तो ये है कि जन्म के आधार पर खुद को हिन्दू कहने वाले या कहलाने वाले लोग ही भारतीय राष्ट्र के प्रथम नागरिक हो सकते हैं. इस तर्क के आधार पर सभी गैर-हिन्दूओं को भारत के दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है. संघ की दृष्टि में गैर-हिन्दुओं की भारतीयता और देशभक्ति स्वतः संदिग्ध हो जाती है. इनको अपनी देशभक्ति साबित करके दिखाने की जरूरत है. संघ की राजनीतिक इकाई बीजेपी के पूर्व प्रधान मंत्री माननीय अटल बिहारी वाजपेयी ने तो खुलेआम ये स्वीकार किया था कि उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन भाग लेने का कभी कोई गुनाह नहीं किया. इसका अर्थ ये हुआ कि वो और उनकी पैत्रिक संस्था आर एस एस ने अंग्रेजों का खुलकर समर्थन किया था. यहाँ तक कि ???
आज ये भी कहा जा सकता है कि संघ का राष्ट्रवाद यानी ”हिंदुत्व ” पर आधारित ‘राष्ट्रवाद’ मोदी का राष्ट्रवाद है. कोई इसे मंजूर करे या ना करे, लेकिन कम से कम इसे ठीक- ठीक समझ लेना चाहिए.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी के वरिष्ठर नेताओं से कहा कि राष्ट्रवाद हमारी पहचान है और उनको राष्ट्रीवाद के संदेश और एजेंडे पर फोकस करना चाहिए क्योंेकि दो साल पहले उनकी रिकॉर्ड जीत में यह प्रमुख कारण रहा है. हैरत अंगेज बात तो ये रही कि उन्होंलने अपने नेताओं से कहा कि बी जे पी का चुनाव जीतना ही उनका राष्ट्रीय कर्तव्य है. अब आप संघ परिवार के राष्ट्रवाद की परिभाषा सहज ही समझ सकते हैं.
उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पाने के लिए किए गए स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े लोगों को राष्ट्र-भक्त की श्रेणी में रखा जाता था. अर्थात राष्ट्र से प्रेम ही राष्ट्रवाद कहलाता है. उस समय भी आर एस एस ने स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग नहीं लिया… इसके विपरीत अंग्रेजों की गुलामी को इस हद तक स्वीकार किया कि उनके लिए मुखबरी का काम भी किया. अंग्रेजी न्यायालयों में स्वतंत्रता-सेनानियों खिलाफ गवाहियां भी दी. फलत: बहुत से राष्ट्रप्रेमियों को फांसी के फन्दे तक को चूमना पड़ा. किंतु उस समय गांधी और कांग्रेस ने कभी भी आर एस एस को देशद्रोही नहीं कहा. इतना जरूर था कि जो-जो स्वतंत्रता आन्दोलन में शरीक हो रहे थे…. उन्हें देशभक्त जरूर कहा गया था. अंग्रेजों के समय में उनका विरोध करने वाले राष्ट्रद्रोही थे और अंग्रेजों के समर्थक ….. जाहिर है देशभक्त. यानी सत्ता के विरोध में मत रखने वाले देशद्रोही और सत्ता की हाँ में हाँ मिलाने वाले राष्ट्रवादी.
यहाँ राष्ट्रवाद को विस्तार से समझने की आवश्कता महसूस हो रही है. दरअसल राष्ट्रवाद को अगर आसान शब्दों में राष्ट्र से प्रेम ही राष्ट्रवाद कहलाता है. लेकिन सत्ता की मारामारे में भारत में राष्ट्रवाद की परिभाषाएं भी बदल गयी हैंI आज का राष्ट्रवाद सत्ताशीन पार्टी विशेष के लोगो के लिए ही है. अगर आप उस पार्टी के समर्थक नहीं है तो आप राष्ट्रवादी नहीं हो सकते. राष्ट्रवाद के नए-नए मायने भी निकल आये हैंI एक सच्चे राष्ट्रवादी बनने के लिए पहले तो आपको आँखें मूंदना सीखना पड़ेगा . सरकार के किसी भी कार्यक्रम में किंतु-परंतु लगाने की हिमाकत नहीं करनी जो सही हुआ वो भी सही और जो गलत हुआ या हो रहा है वो भी सही… बस आज के राष्ट्रवाद की यही परिभाषा शेष रह गई है. यूँ भी कहा जा सकता है कि आज के राष्ट्रवादियों ने बुर देखने, बुरा सुनने, बुरा बोलने, बुरा करने जैसी तमाम बुराइयों को दिल से लगा लिया हैI राष्ट्रवादी बनने के लिए अगला रूल ये है कि आपको हर उस इंसान की आलोचना करनी है जो समाज की बुराइयों पर बात करना चाहता है. उन्हें देशद्रोही बोलकर खुद को राष्ट्रवादी सिद्ध करना है. इतना ही नहीं एक सच्चे राष्ट्रवादी को दलितों पर सदियों से हो रहे अत्याचार और औरतों के साथ हो रहे अमानुषिक व्यवहार /शोषण पर भी आँखें मूंद लेनी हैI आज के राष्ट्रवादियों का ध्येय समाज के उन लोगों से लड़ना है जो समाज को सुधारने की दिशा में कुछ न कुछ काम कर रहे हैं… और उनसे जो लोग हमें हिन्दू-धर्म में फैली बुराइयों का खुलासा करते हैं … आज के दौर में आप समाज और देश के हित में बात करने वाले लोगों का सामाजिक तिरस्कार करने पर ही आप सच्चे राष्ट्रवादी कहलायेंगेI
असल में राष्ट्रवाद आज के युग में ‘राजनीतिक राष्ट्रवाद’ हो गया है. दुनिया भर में सरकारों के कामकाज़ का तरीका बदल रहा है. सरकारें बदल रही हैं. राजनीतिक और सामाजिक अवधरणा बदल रही है. फलत: राष्ट्रवाद का नया मोडल हमारे सामने है. राष्ट्रवाद आज की राजनीति का अभिन्न अंग हो गया है. दुनिया भर की सरकारें मीडिया को कबजाने का प्रयास कर रही हैं. हर जगह मीडिया का राजनीतिकरण हो गया है. यह केवल भारत की ही बात नहीं है अपितु फ्रांस लंदन, पोलैंड, रूस, अमेरिका, ऑस्ट्रिया के नेता राजनीतिक मुद्दों पर ही सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए हुए हैं. ये सरकारें विपक्ष को खत्म कर देने के मूड में ही देखी जाती हैं.
थोड़ा-बहुत पुराने राष्ट्रवाद को बचाकर रखती हैं, बयानों या कागज़ों में ही सही, ताकि जनता में लोकतंत्र का भ्रम बना रहे. लगातार विज्ञापनों और भाषणों के जरिए यह दिखाने की प्रक्रिया कि कुछ तो हो रहा है, बेशक जमीन पर कुछ भी न हो रहा हो…जोर पकड़ती जा रही है. कहना अतिशयोक्ति नहीं कि आज का राष्ट्रवाद की परिभाषा अपने-अपने हिसाब से की जाने लगी है….. यानी सबका अपना-अपना राष्ट्रवाद… इस बात को गहनता से समझने के लिए मैं फेसबुक पर आई ईश कुमार गंगानिया की एक पोस्ट का उल्लेख करना चाहूँगा. वो लिखते हैं, ‘आजकल देश-भक्ति व संस्कृति की नई-नई परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं. कोई तेल-साबुन, दंत-मंजन, मैगी, बिस्किट व चाकलेट आदि की दुकान सजाकर अपनी देश-भक्ति का प्रदर्शन करता है. कोई तीन-चार बच्चे पैदा करने का आह्वान कर अपनी देश-भक्ति का ढोल पीटता है. कोई महिलाओं को कैसे कपड़े पहनने चाहिएं, कब घर से निकलना चाहिए और कब नहीं आदि पर फतवे जारी कर देश-भक्ति व संस्कृति की अपनी नई मिसाल कायम करने पर तुला है. फहरिस्त बड़ी लम्बी है, किस-किस की देश-भक्ति और संस्कृति के किस्से गिनाऊं और किसके नहीं, समझ में नहीं आ रहा है. मुझे लगता है कि इन महानुभावों ने देश-भक्ति और संस्कृति को महाभारत की द्रोपदी बना दिया है. जहां कोई स्त्री उसे अपने पांच-पांच पुत्रों की बीवी बनाकर अपनी देश-भक्ति व संस्कृति की स्थापना करती है. कोई धर्मराज उसे जुएं में दांव पर लगाकर अपनी देश-भक्ति और संस्कृति का परिचय देता है. कोई राजा अपने दरबार में उसके चीरहरण को देश-भक्ति व संस्कृति की नई मिसाल मानता है. आज इक्कीसवीं सदी में देश का राजा धर्मराज भी है और वह चक्रवर्ती भी. उसके दरबार में मंत्री भी हैं और संत्री भी. उसके पास सेना भी है, अस्त्र भी है और शस्त्र भी. लेकिन नहीं बच पा रही है द्रोपदी की अस्मिता… निरंतर लहुलुहान होने से. कोई शम्बूक इसके जख्मों पर निरंतर मरहम लगाने का जोखिम उठाए जा रहा है. क्या रोक पाएगा वह इक्कीसवीं सदी के कुरुक्षेत्र को? आप क्या कहते हो मित्रों…..’ है किसी के पास इसका जवाब? क्या आप गंगानिया जी के इस मत से सहमत नहीं? यदि नहीं तो आपके राष्ट्रवाद की भी अपनी अलग ही परिभाषा होगी. ठीक वैसे ही जैसे योग गुरू बाबा रामदेव के राष्ट्रवाद की परिभाषा. अन्ना के राष्ट्रवाद को कोई समझ ही पाता…उनके राष्ट्रवाद की परिभाषा तो समय के साथ-साथ बदलती ही रहती है.
पुन: उल्लिखित है कि अंग्रजों के शासनकाल में जो अंग्रेजों के खिलाफ जन-आन्दोलन करते थे …वो राष्ट्रद्रोही और जो उनकी गुलामी को चाहे जैसे स्वीकार कर रहे थे या उनके लिए मुखबरी कर रहे थे …. वो राष्ट्रप्रेमी. ठीक वही हालत आज की है… जो लोग सरकार के कामों पर किंतु-परंतु करते हैं या किसी भी प्रकार का प्रश्नचिन्द लगाते दिखते हैं …वो राष्ट्रद्रोही और वो जो सरकार के उल्टे-सीधे कामों पर आँख मून्दकर सरकार के पक्षधर बने रहते हैं…वो राष्ट्रप्रेमी. कहा जा सकता है कि देश के साथ जो भी अच्छा-बुरा हो रहा है, उसकी राजनीतिक दलों को कोई भी चिंता नहीं रह गई है. राजनीतिक दलों का तो येनकेन-प्रकारेण सत्ता में बने रहना मात्र ही ध्येय रह गया है. वास्तव में आज का राष्ट्रवाद एक राजनीतिक प्रपंच बनकर रह गया है. क्या ऐसा राष्ट्रवाद भारत के विनाश की गारंटी नहीं है? क्या 21वीं सदी में ऐसे राष्ट्रवाद के साथ भारत आगे बढ़ सकता है?
– लेखक तेजपाल सिंह तेज स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों स्वतंत्र लेखन में रत हैं. आपको हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किया जा चुका है.

दलित दस्तक (Dalit Dastak) साल 2012 से लगातार दलित-आदिवासी (Marginalized) समाज की आवाज उठा रहा है। मासिक पत्रिका के तौर पर शुरू हुआ दलित दस्तक आज वेबसाइट, यू-ट्यूब और प्रकाशन संस्थान (दास पब्लिकेशन) के तौर पर काम कर रहा है। इसके संपादक अशोक कुमार (अशोक दास) 2006 से पत्रकारिता में हैं और तमाम मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं। Bahujanbooks.com नाम से हमारी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुक किया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को सोशल मीडिया पर लाइक और फॉलो करिए। हम तक खबर पहुंचाने के लिए हमें dalitdastak@gmail.com पर ई-मेल करें या 9013942612 पर व्हाट्सएप करें।