जयपुर। में तीन साहित्यिक आयोजन हुए.जयपुर लिट् फेस्ट, पैरेलल लिट् फेस्ट और जन साहित्य पर्व यानी जनसा. इस तीसरे में शामिल होने का मौका मिला.वहां एक अजीबोग़रीब घटना हुई.
एक सत्र सिनेमा पर था. संजय जोशी और हिमांशु पांड्या इसे संचालित कर रहे थे. इसमें इकतारा कलेक्टिव की एक अद्भुत फ़िल्म तुरुप दिखाई गई.यह एक कथा फिल्म है, जिसमें अधिकतर कलाकार ग़ैरपेशेवर थे. लव ज़िहाद के झगड़े को छूती हुई गज़ब की ग्रिपिंग फ़िल्म है. कहीं रिलीज़ नहीं होगी. खोज कर देखिएगा.
फ़िल्म देखकर वहां मौज़ूद सैकड़ो लोग स्तब्ध थे. लेकिन इसके बाद जो हुआ वो कम सिनेमैटिक नहीं था.
संजय जोशी ने हमारे ऑडियो विज़ुअल जमाने में प्रतिरोध और और प्रगति के माध्यम के रूप में सिनेमा के बढ़ते महत्व के बारे में बताया. लेकिन यह नया सिनेमा बॉलीवुड से नहीं, एकतारा कलेक्टिव और प्रतिरोध के सिनेमा जैसे जनसिनेमा आंदोलनों से ही आ सकता है. इनके पास नए विषय हैं, नई आग है, लेकिन पैसा नहीं है.
पैसेवाले पैसा देंगे तो पैसा पैसा वसूलेंगे भी. जनता का सिनेमा और जनता के साहित्यिक पर्व तो जनता के पैसे ही चलेंगे. फिर उन्होंने दर्शकों से पूछा, क्या आप अपनी खस्ता जेबों से इसके लिए पैसा निकालेंगे. फिर लोगों के सामने अपना गमछा फैला दिया. पांच मिनट के भीतर तीन हज़ार रुपए इकट्ठे हो गए.
पता चला कि जनसा का पूरा आयोजन ऐसे ही चंदे के बल पर हुआ. दो दिन के इस आयोजन में जसम और जलेस समेत 24 संगठन शामिल थे, लेकिन सारे आंदोलनकारी संगठन, जिनके पास कोई स्थायी फंड नहीं होता. न वे किसी फण्डदाता से पैसे लेते हैं.
जनसहयोग से आयोजन करने की जिद का लाभ यह हुआ कि किसी छीन्यूज़ के अहसान नहीं उठाने पड़े. किसी सेठ के नाम सत्र नीलाम करने नहीं पड़े. अपठनीय किताबों पर चर्चा नहीं करनी पड़ी.
हर समय दो से तीन सौ प्रतिभागियों की मौजूदगी रही.लेखकों,पाठकों,रंगकर्मियों, सिनेकर्मियों और चित्रकारों के अलावा हिमांशु कुमार, अरुणा राय, अमर राम, भंवर मेघवंशी , कविता कृष्णपल्लवी और कविता कृष्णन जैसे कर्मकर्ताओं और गांव गांव तक जन साहित्य पहुंचाने की कसम खाए जमीनी प्रकाशकों की सक्रिय भागीदारी रही. युवाओं की उत्सुक फौज़ जिस तिस को पकड़ कर अपने सवालों से उलझाती रही.
तब समझ में आया कि आयोजकों ने इसे लिट् फेस्ट का नाम क्यों नहीं दिया. यह फेस्ट नहीं पर्व था. पर्व साधना का निमित्त होता है, जश्न और मार्केटिंग का नहीं. जनसा पर्व वाले जोर देकर कहते थे कि वे किसी अन्य आयोजन के न विरोधी हैं, न समानांतर हैं.
वे तो बस इतना रेखांकित करना चाहते हैं कि साहित्य साहित्यकारों, प्रकाशकों और मार्केटमानुषों की नहीं, जनता की कमाई है.
आशुतोष कुमार

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