घर लौटे मजदूर अब पलायन से पहले कई बार सोचेंगे, पढ़िए, एक अधिकारी का अनुभव

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‘तेरे आने की जब खबर महके 
तेरी खुश्बू से सारा घर महके’
इस समय हम जैसे सरकारी सेवकों के फोन पर जिस बेचैनी और बेसब्री से अपने घर लौटने के लिए प्रवासी मजदूर सवालों की झड़ी लगाये हुए हैं उससे दो निष्कर्ष मेरे सामने आ रहे हैं।
एक, घर लौटने के बाद ये मजदूर अगले 2 या 3 साल तक घर से दूर बड़े शहरों में पलायन नहीं करेंगे और किसी तरह अपने Place of origin में काम करके जीविका चलाएंगे। दो, इसका परिणाम ये होगा कि मानव श्रम पर आधारित उद्योगों को  सस्ते और सुलभ श्रमिक नही मिलेंगे। मजबूर होकर उद्योगपति place of destination पर ऑटोमेशन और मशीनीकरण को बढ़ावा देंगे। तीन, गाँवो में खेती के काम में मशीनीकरण पहले से ही बहुत ज्यादा हो चुका है और शहर में दशकों तक रहने वाले मजदूरों की आदत भी ऐसे काम करने से छूट चुकी है तो वो आसानी से यहां भी सेटल नहीं होंगे। गाँवों में छद्म बेरोजगारी भी बढ़ेगी क्योंकि वहां Surplus labor होगा।
अभी तो होम return का nostalgia चल रहा है। लेकिन कल ट्रैफिक सिग्नल का मुम्बइया डायलॉग भी सच साबित हो सकता है। मधुर भंडारकर को मैं स्याह सच का निदेशक मानता हूँ जो खोज खोज कर समाज के कड़वे सच को परदे पर लाते हैं। उनकी फिल्म टैफिक सिग्नल में एक दिन मुम्बई में बम ब्लास्ट होता है और अगले दिन सुबह पूरी मुम्बई ऐसे काम पर निकल पड़ती है जैसे कुछ हुआ ही न हो। ऐसे में दो पात्रों का संवाद देखिये
एक पात्र- मुम्बई के लोग कितने जीवट वाले हैं न कल बम फटा आज सब तरफ चहल पहल, सब काम पे निकल पड़ते हैं।
दूसरा पात्र- जीवट नहीं घण्टा हैं, काम पे नहीं जाएंगे तो खाएंगे क्या?
कोरोना अगर जल्दी सिमट गया तो लोग जल्दी भूलकर फिर गाँव से शहर की तरफ भागेंगे, अगर लंबा खिंचा तो लौटे हुए लोग दुबारा न लौटेंगे। ऐसे में पोस्ट कोरोना युग में जो भी होगा युगान्तकारी ही होगा। हाल चाहे जो हो घर हमेशा की तरह इंतज़ार में है।
लेखक अधिकारी हैं। यूपी के देवरिया जिले में कार्यरत हैं। लगातार कोरोना पीड़ितों की देख-रेख में और उनकी घर-वापसी में सक्रिय हैं। ये उनके निजी अनुभव हैं। 

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