चुनाव से पहले सत्ताधारी पार्टी यूपी में कुछ बड़ा फैसला कर सकती है। साफ दिख रहा है कि विवादास्पद कारोबारी रामदेव से जुड़ा ताजा विवाद और सोशल नेटवर्किंग साइट्स से जुड़े सरकारी कदमों से जुड़ी खबरों को सुचिंतित योजना के तहत उछाला गया है। टीवीपुरम् या मीडिया के अन्य हिस्सों के जरिये इसे इतना उछाला गया कि लोग टीकाकरण (वैक्सीनेशन) की सरकारी महा-विफलता को भूल जायं! उत्तर के हिंदी-भाषी राज्यों के गाँवों में कोरोना से हो रही बेतहाशा मौतों के बारे में खबरें दिखना बंद हो जायं। सामाजिक जीवन में उसकी चर्चा तक न हो। अखबार और चैनल लोगों की बीमारी, बेबसी और बेहाली की खबरें छापना-दिखाना बंद कर दें और हिंदी क्षेत्र में पारुल खख्खर जैसी कोई कविता भी न लिखे।
सरकारें जो झूठे आंकड़े परोस रही हैं, उन पर मीडिया में न कोई खबर छपे और न कोई सवाल उठे। गुजराती के ‘उस अखबार’ जैसी रिपोर्टिंग हिंदी भाषी क्षेत्रों में न शुरू हो जाय। क्यों? क्योंकि सच्ची रिपोर्टिंग से सरकारों और शासकों पर समाज और जनता के हक में काम करने का भारी दबाव बनता है। इसलिए एक साथ तीन-चार झुनझुने बज उठे।
कहीं, विवादास्पद और मूर्खतापूर्ण बयानबाज़ी करने के उस्ताद अपने खास चरित्रों को आगे किया गया तो कहीं नयी नियमावली का हवाला देकर सोशल नेटवर्किंग सेवाओं और साइट्स के बड़बोले संसार को झिंझोड़ा गया। सारे ‘महानगरीय-लिबरल्स’ भिड़ गये-‘हाय, ये क्या हो रहा, हम अपनी बोलने-लिखने की आजादी का हरण बर्दाश्त नहीं करेंगे।’ वे भूल गये कि सोशल नेटवर्किंग सेवा देने वाली कंपनियां अब सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही नहीं हैं, किसी ताकतवर स्टेट से वे कुछ कम नहीं। उनका कितना बड़ा निवेश है, हमारे यहां। सत्ताधारियो को संरक्षण देने वाले बड़े कारपोरेट तक उनके हमजोली हैं। पर अपने देश के ‘महानगरीय लिबरल्स’ के कहने ही क्या?
इसी तरह यूपी में सत्ताधारी खेमे की खलबलाहट की नियोजित ‘लीक’ बन गयी बड़ी खबर। किसी ठोस सूत्र के हवाले के बगैर! क्योंकि इससे यूपी के गांवों की वो भयावह कोरोना-कहानियां दब गईं। वैसे भी अपने देश, खासकर हिंदी भाषी राज्यों के ग्रामीण क्षेत्र की खबरें आम दिनों में भी मीडिया में कहां आती रही हैं? बमुश्किल 2 से 3.5 फीसदी ग्रामीण-भारत का कवरेज़ रहा है। अपने कथित नेशनल मीडिया में इस महामारी के दौर में कुछेक साहसिक प्रयासों को छोड़ दें तो कथित नेशनल मीडिया ने हिंदी भाषी राज्यों के ग्रामीण अंचल को उनके हाल पर छोड़ दिया है।
तो ये है कहानी इस बीच अचानक कुछ ‘झुनझुनो’ के बजाये जाने की। लोगों को बेतहाशा मारती इस महामारी, एक विराट राष्ट्रीय त्रासदी, शासन की महा-विफलता और ग्रामीण क्षेत्रों के भयावह यथार्थ से लोगों का ध्यान हटाने के लिए ये झुनझुने कुछ ‘कारगर’ दिखे।

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। पिछले तकरीबन चार दशक से ज्यादा समय से पत्रकार के तौर पर राजनीतिक को करीब से देख रहे हैं। राज्यसभा टीवी के फाउंडर एडिटर हैं। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन और चिंतन करते हैं। द वायर में उनका शो, ‘मीडियो बोल’ खूब चर्चित है।