गुजरात के भाईयों के नाम ‘दलित दस्तक’ का खत

वाह, क्या शानदार काम किया है आपलोगों ने. अब ‘भद्र समाज’ के लोगों को अपनी ‘औकात’ का पता चल जाएगा. मार-पीट तो आपके साथ काफी पहले से होती रही है. थानगढ़ और मेहसाना जैसी जगहों से तो आपकी पीड़ा हर रोज सामने आती है. पिछले साल की ही तो बात है, थानगढ़ में हमारे कितने नौजवान भाईयों को पुलिस ने गोली से भून दिया था. मेहसाना में तो आपके साथ अत्याचार की इंतहा हो गई. हाल ही की रिपोर्ट है कि आपके राज्य गुजरात में 108 गांवों में दलित समाज के हमारे भाई लोग पुलिस के पहरे में जी रहे हैं. आपलोग अक्सर फोन पर उद्वेलित होकर हमें अपना दुखड़ा सुनाते हैं. हमलोग दिल्ली में बैठकर सुनते रहते हैं. सच कहूं तो आप लोगों की पीड़ा सुनकर एक बार मन करता है कि बस अभी गुजरात पहुंच कर आपलोगों की सारी समस्याओं को खत्म कर दें. लेकिन खुद को रोक लेना पड़ता है, क्योंकि मुझे पता है कि मैं आपकी मदद दिल्ली से ही कर सकता हूं. शायद थोड़ा लिखकर, थोड़ा आपकी आवाज में अपनी कलम की आवाज को मिलाकर. हां, जब इस तरह की खबरों को लिखने बैठता हूं तो की-बोर्ड पर हाथ तेज चलने लगता है. शायद उसी पर गुस्सा उतारता हूं, या फिर शायद यह सोचकर हर शब्द को पूरी ताकत के साथ लिखता हूं कि यह आवाज उन अत्याचारियों के कानों तक तो पहुंचे. सत्ता के गलियारों तक तो पहुंचे और हमारे भाईयों को इंसाफ मिले. मुझे नहीं पता मैं कितना सफल हो पाता हूं. मुझे यह भी नहीं पता कि मेरे लिखने से आपलोगों को कुछ लाभ हो पाता है या नहीं. लेकिन फिलहाल हमारी सीमा यही है. जब आपलोगों को गाड़ी के साथ बांध कर पीटे जाने की विडियो आई थी तो मैं उसे पूरा नहीं देख पाया था. मैं सिहर गया था. लग रहा था जैसे हर चोट मेरे शरीर को जख्मी कर रहा है और वो गालियां मेरे कानों में उतर रही है. आपलोगों ने व्हास्टएप और फेसबुक पर हमारे उन चारों भाईयों की फोटो भेजी थी. मैंने उनकी आंखों में दर्द और दहशत को महसूस किया था. उनकी लाचारगी पर रुलाई फूट गई थी. और विडियो ने तो जैसे सब्र का इम्तहान ले लिया. कलेजा चीर दिया इसने. उतना दर्द कैसे सह लिया आपने. सच कहूं तो बहुत कम मौकों पर मैंने खुद को इतना बेबस पाया था. लेकिन सोमवार को जब यह खबर आई कि आपलोगों ने ट्रकों में मरी हुई गायों को लादकर जिला कलेक्ट्रेट पर रखना शुरू कर दिया है तो जैसे हौंसला आ गया. छुपाऊंगा नहीं. बस मन से एक ही शब्द निकला था….. शाबास। क्या पता यह आईडिया किसका है, लेकिन जिसका भी है; उसे मैं दिल्ली से दलित दस्तक का सलाम भेजता हूं. एक बात पूछूं आपलोगों से? क्यों सहते हो इतना अपमान? एक बार हो गया चलता है, लेकिन यहां तो यह हर दिन की बात हो गई है. एक बात गांठ बांध लो. अगर आपके अपमान सह लेने से, मार खाकर चुप रह जाने से और गालियों को अनसुना कर देने से वो दरिंदे सुधरने वाले होते तो सुधर गए होते. असल में वो इंसान नहीं हैं, वो हैवान हैं. और ये हैवान आप पर तब तक जुल्म करते रहेंगे, जब तक आप सहते रहेंगे. इसलिए आपलोगों ने जो आर-पार की लड़ाई छेड़ दी है, उसे जारी रखना. पीछे मत हटना. सारे समाज की निगाह आपकी तरफ है. अगर इंसाफ चाहते हो तो कोई भी उन गायों को नहीं छुवेगा, जिसे आपलोगों ने जिला मुख्यालयों पर डाला है. तब तक नहीं छुवेगा, जब तक इंसाफ नहीं मिल जाता. और ख्याल रहे कि किसी को उठाने भी नहीं देना है. लेकिन  विरोधाभास स्वरूप जहर पी लेना बुजदिली और बेवकूफी का काम है, ऐसा मत करिए प्लीज. अगर अपमान से छुटकारा चाहते हो तो कसम खा लो कि आज के बाद किसी भी मरे हुए जानवर को हाथ नहीं लगाओगे. अबकी आर-पार की लड़ाई है. किसी से भी डरना नहीं है, लड़ना है, क्योंकि बिना लड़े आजादी संभव नहीं है. स्वतंत्रता दिवस आने को है, हे गुजरात के भाईयों….. अबकी आजाद हो जाओ.

बहन जी ने दलितों को राजनीतिक अनाथ होने से बचा लिया- प्रो. विवेक कुमार

गुजरात के उना जिले में जिस तरह से गाय के नाम पर दलितों को अनादरित किया गया, खुलेआम नंगा कर के उनको मारा गया, उस पर सभी दलित नेता मौन रहें. इसी प्रकार बंबई में जिस तरह से बाबासाहेब अम्बेडकर द्वारा निर्मित प्रेस को ढाया गया, और देश के सभी दलित हितैषी नेता मौन रहे. इससे पहले रोहित वेमुला, डेल्टा मेघवाल एवं उत्तर प्रदेश में पदावनति कर दलितों को बेइज्जत किए जाने पर जिस तरह सभी नेता मौन रहे; उससे यह लग रहा था कि भारत के दलित भारतीय राजनीति में अनाथ हो गए हैं. देश की दोनों ही राष्ट्रीय पार्टी- यथा कांग्रेस और भाजपा और राज्य स्तर पर बड़ी-बड़ी पार्टियों में एक भी दलित लिडर ऐसा नहीं था जो दलित पर हो रहे अत्याचारों के इन मुद्दों को राष्ट्रीय राजनीति में उठा कर इसे राष्ट्र का मुद्दा बना सके. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के शासनकाल में लाखों कर्मचारियों के साथ अन्याय होता रहा और समाजवादी पार्टी के 58 विधायक जो आरक्षित सीटों से चुनकर आए हैं तथा भाजपा से आरक्षित सीटों पर चुनकर आए 17 सांसदों ने चूं तक भी नहीं किया और मौन बने रहें. इस सबसे एक बार फिर यही आभाष होता रहा कि भारत के दलित राजनैतिक रूप से अनाथ हो गए हैं. परंतु ऐसे अंधेरे में आशा की किरण बनकर मायावती जी ने गुजरात एवं मुंबई के मुद्दे को राज्यसभा में पूरे दम-खम से उठा कर दलितों को भारत की राजनीति में अनाथ होने से बचा लिया. और आज गुजरात में दलितों पर अत्याचार का मुद्दा राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है. इस मुद्दे पर संसद के दोनों सदनों में बहस हुई तथा राजनेताओं को इसकी निंदा करने के लिए मजबूर होना पड़ा. भारत के गृहमंत्री को भी इस घटना की घोर निंदा करनी पड़ी. गुजरात की मुख्यमंत्री को भी घटना के नौ दिन बाद संज्ञान लेने पर मजबूर होना पड़ा और पीड़ित परिवारों को चार लाख का मुआवजा घोषित करना पड़ा. वास्तविकता में बहन जी ने यह मुद्दा राष्ट्र मुद्दा बना दिया है.

आर-पार की लड़ाई में गुजरात के दलित, आधे दर्जन युवकों ने जहर पिया

गुजरात। गुजरात के उना में दलितों पर जुल्म के बाद आंदोलन तेज हो गया है. ताजा घटनाक्रम में सोमवार को विरोध प्रदर्शन के दौरान इस मामले में सरकार की उदासीनता के खिलाफ आधे दर्जन से ज्यादा युवकों ने जहर पी लिया. इसके बाद उनको जिला अस्पताल रेफर किया गया है, जहां उनकी हालत गंभीर बनी हुई है. ऊना में 12 जुलाई को मरे हुए जानवर का चमड़ा उतारने गए चार दलित युवाओं के साथ निर्ममता के साथ मार-पीट की गई थी. इस घटना के बाद ही पूरे प्रदेश में दलित समाज आंदोलित है. इसी क्रम में पिछले तीन दिनों से चल रहा आंदोलन सोमवार को उग्र रूप में आ गया. इस दिन प्रदेश के अहमदाबाद, राजकोट, गांधी नगर, जूनागढ़, बड़ौदा, पाटण, मेहसाना आदि प्रमुख जिलों में जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन हुआ. दलित दस्तक के गुजरात प्रतिनिधि के मुताबिक राजकोट जिले के गोंडल तहसील में विरोध प्रदर्शन के दौरान पांच युवकों ने जहर खा लिया. उनको सिविल हॉस्पीटल में रेफर किया गया है. दूसरी जगह झामनगर का झाम कंडोड़ना में भी दो लोगों ने आत्महत्या की कोशिश की, उनको राजकोट जिला अस्पताल में भर्ती किया गया है. इन युवाओं का कहना है कि दलितों के साथ हुई इस अमानवीयता पर राज्य सरकार चुप है. वो इंसाफ की मांग कर रहे थे. राजकोट में भी बड़ी संख्या में लोगों ने रैली की है. सुरेन्द्र नगर में दलित समाज के लोगों ने मरे हुए जानवरों को कलेक्टर ऑफिस के पास रख दिया. साथ ही दलितों ने अब मरे हुए को नहीं उठाने की कसम खाई है और धर्म परिवर्तन की भी धमकी दी है. दलित समाज के लोगों का कहना है कि इंसाफ मिलने तक आंदोलन जारी रहेगा. स्थानीय लोगों का यह भी कहना है कि दलित युवाओं के साथ मारपीट करने वाले चार या छह नहीं बल्कि चालिस लोग थे.
गौरतलब है कि इस मुद्दे पर राज्यसभा में बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने भी गुजरात सरकार पर जमकर निशाना साधा. उन्होंने केंद्र सरकार पर भी हमला किया और मांग की कि केंद्र सरकार गुजरात सरकार को जल्द से जल्द दोषियों पर कार्रवाई करने का आदेश दें. इस मामले में वह रोक-टोक करने पर भाजपा नेता वैंकैया नायडू पर भी खूब बरसीं.

कश्मीर को ऐसे भी देखिए

खबर के साथ लगी तस्वीर देखिए. यह तस्वीर अगर आपकी बेटी की होती तो शायद आपको दर्द समझ में आता. खैर. श्रीनगर में एक ईदगाह है. वहां 2 साल की बच्ची की कब्र है. सीआरपीएफ की गोली उस बच्ची के माथे में आकर लगी थी. तुफैल की भी एक कब्र है. किशोर तुफैल स्कूल जा रहा था. सेना ने आंसू गैस का गोला उसके माथे पर ही मार दिया. तुफैल का भेजा उसके शरीर से अलग हो गया. उसके बाप को उसका शरीर और भेजा, दोनों उठाना पड़ा. तुफैल भी कहीं ईदगाह की कब्र में दफन है. इस बच्ची के भी मां-बाप, भाई होंगे ही. पता नहीं क्या सोच रहे होंगे. आप कोशिश कीजिए महसूस करने की क्या सोच रहे होंगे. हर शुक्रवार को ईदगाह में जुमे की नमाज अदा होती है. उसके बाद पथराव किया जाता है. आपके अपनों की कब्र होती तो आप क्या करते? मुझसे एक अलगाववादी ने कहा था, भारत की आजादी की लड़ाई 200 साल से अधिक चली. कश्मीर में तो अभी लड़ते हुए 100 साल भी नहीं हुए. हाल-फिलहाल दिल्ली में एक नया तर्क गढ़ा गया. अलगाववादी नेताओं के बच्चे विदेश में पढ़ रहे हैं. आपको लगता है कि आपने रॉकेट साइंस खोजा है, तो नहीं. वहां के लोगों को भी यह बात पता है. फिर भी वे लड़ रहे हैं. आपको उनकी लड़ाई के पीछे का तर्क ढूंढना है तो वहां जाना होगा. न्यूज एजेंसी से आ रही खबरें और प्रॉपेगैंडा देखकर आपको घंटा समझ में आएगा. – यह  पोस्ट टीवी पत्रकार अमीश राय के फेसबुक वॉल से लिया गया है.

यादव प्रधान के खिलाफ एससी/एसटी आयोग जाएंगे पीड़ित दलित अधिकारी

ग्राम प्रधान सुमन यादव द्वारा ग्राम पंचायत सचिव आलोक चौधरी को हटाने की मांग को लेकर लिखी गई चिट्ठी का खुलासा होने पर मामले ने तूल पकड़ लिया है. खबर सामने आने के बाद पंचायत सचिव आलोक चौधरी सामने आए हैं. आलोक ने जो बयान दिया है वह प्रधान को झूठा ठहराता है. ‘दलित दस्तक’ से बातचीत में उन्होंने अपनी पीड़ा बताते हुए इस बात की पुष्टि की कि दलित होने के नाते मेरे साथ बुरा बर्ताव किया जा रहा है. उन्होंने आरोप लगाया कि प्रधान की तरफ से लिखे गए पत्र में उन्हें जाति सूचक शब्दों के साथ संबोधित किया गया है. प्रधान मुझे दलित जाति का बताकर ग्राम पंचायत में कार्य करने के लिए तैयार नहीं है. आलोक ने कहा कि अगर वो अपने काम में लापरवाही बरत रहे होते या फिर स्थानीय लोगों में उनके काम को लेकर नाराजगी होती तो उन्हें हटाया जा सकता था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं है. मुझे सिर्फ इसलिए हटाने को कहा जा रहा है क्योंकि मैं दलित जाति से हूं. इसी वजह से मेरे साथ लगातार बुरा बर्ताव किया जा रहा है. आलोक चौधरी ने बताया कि वो इससे आहत हैं और न्याय पाने के लिए मुख्यमंत्री से लेकर एससी/एसटी आयोग और कोर्ट जाएंगे. उन्होंने कहा कि वो प्रधान के खिलाफ मानहानि का दावा भी करेंगे. चौधरी ने रोष जताते हुए कहा कि ऐसे लोगों को प्रधान पद पर रहने का कोई अधिकार नहीं है. मामला सामने आने के बाद अब प्रशासन भी चौकन्ना हो गया है. जो प्रशासन पहले प्रधान के साथ खड़ा दिख रहा था, वो अब संविधान और संवैधानिक दायरे की बात करने लगा है. स्थानीय सीडीओ प्रशांत शर्मा ने इस संबंध में प्रधान को चेतावनी दी है. उन्होंने प्रधान को पत्र लिखकर कहा है कि संवैधानिक पद पर रहते हुए ऐसी भाषा का प्रयोग अशोभनीय है. अगर सेक्रेटरी चाहे तो एफआईआर दर्ज करा सकता है. सेक्रेटरी की पूरी मदद की जाएगी. गौरतलब है कि लखनऊ के सरोजनी नगर के भटगांव की ग्राम प्रधान सुमन यादव ने मुख्य विकास अधिकारी को चिट्ठी लिखकर भटगांव ग्राम पंचायत सचिव आलोक चौधरी को हटाने की मांग की थी. प्रधान ने चिट्ठी में लिखा था कि हमारी ग्राम सभा भटगांव में ग्राम पंचायत सचिव अनुसूचित जाति दलित च..र जाति तैनात है, जिससे हमें कार्य करने में बाधा उत्पन्न हो रही है इसलिए हमारी ग्राम पंचायत भटगांव में कोई सवर्ण या पिछड़ी जाति का सचिव तैनात करने का कष्ट करें.

देविंदर वाल्मीकि ने तय किया रियो का सफर

अलीगढ़ में ब्लॉक धनीपुर के गांव अलहादपुर के देविंदर वाल्मीकि का चयन रियो ओलंपिक में खेलने वाली भारतीय हॉकी टीम में हो गया है. टीम में मिड फिल्डर के तौर पर वे देश के लिए पसीना बहांएगें. ड्राइवर के बेटे ने आर्थिक तंगी समेत कई समस्यओं से जूझते हुए रियो ओलंपिक तक का सफर तय किया है. देविंदर ने नौ साल की उम्र में हॉकी के राष्ट्रीय खिलाड़ी अपने बड़े भाई युवराज से प्रेरित होकर स्टिक थामी थी. मुंबई के चर्च गेट में प्रैक्टिस करते हुए 24 साल की उम्र में ओलंपिक में स्थान पक्का कर अपना लोहा मनवाया है. देविंदर ने 2014, 2015 व 2016 में हुए हॉकी इंडिया लीग में मिड फिल्डर के तौर पर हिस्सा लिया. 2015 में बेल्जियम में हुई हॉकी वर्ल्ड लीग राउंड थ्री में दो गोल दागे. इसमें टीम इंडिया टॉप-4 में रही. 2016 में चैंपियन ट्रॉफी में एक गोल दागकर रजत पदक जीता, फिर 2016 छठी नेशनल हॉकी प्रतियोगिता में एक गोल किया. देविंदर के पिता सुनील वाल्मीकि काम की खोज में 50 साल पहले मुंबई गए थे. वहां उन्होंने ड्राइविंग कर परिवार का पालन-पोषण किया. मां मीना ने मुंबई में ही 28 मई 1992 में देविंदर का जन्म दिया. खिलाड़ी के तीन भाई राकेश, रवि व युवराज यहां गांव अलहादपुर में ही पैदा हुए. देविंदर ने आर्थिक तंगी समेत तमाम समस्याओं से जूझते हुए रियो ओलंपिक तक का सफर तय किया है, देविंदर ने नौ साल की उम्र में हॉकी के राष्ट्रीय खिलाड़ी अपने बड़े भाई युवराज वाल्मीकि से प्रेरित होकर स्टिक थामी थी.

दलित अधिकारी के साथ काम करने में दिक्कत होती है, तबादला किया जाए

दलितों के प्रति भेदभाव की खबरें आम है. लेकिन जब यह भेदभाव घृणा में बदल जाए तो आप क्या कहेंगे. और जब घृणा करने वाला कोई सवर्ण नहीं बल्कि पिछड़ी जाति का कोई व्यक्ति हो तब तो समाज के सामाजिक ढांचे के लिए खतरनाक संदेश है. जातिवाद के जहर का ऐसा ही एक मामला सामने आया है, जिसमें पिछड़ी कहे जाने वाली यादव जाति की ग्राम प्रधान सुमन यादव ने ग्राम पंचायत सचिव आलोक चौधरी को हटाने की मांग की है. सचिव के तबादला करने का जो तर्क दिया गया है, वह समाज में नासूर बनते जा रहे जातिवाद की सच्चाई और अपराध की श्रेणी में आता है. चिट्ठी में लिखा गया है कि, ‘हमारी ग्राम सभा भटगांव में ग्राम पंचायत सचिव अनुसूचित जाति दलित च..र जाति तैनात है, जिससे हमें कार्य करने में बाधा उत्पन्न हो रही है इसलिए हमारी ग्राम पंचायत भटगांव में कोई सवर्ण या पिछड़ी जाति का सचिव तैनात करने का कष्ट करें.’ मामला है लखनऊ के सरोजनी नगर का जहां भटगांव की ग्राम प्रधान सुमन यादव ने मुख्य विकास अधिकारी को चिट्ठी लिखकर भटगांव ग्राम पंचायत सचिव को हटाने की मांग की हैं. हैरान करने वाली बात यह है कि ग्राम प्रधान की इस मांग की अनुशंसा स्थानीय विधायक ने भी की है. ग्राम प्रधान सुमन यादव ने इससे पहले भी इसी वर्ष फरवरी में आलोक चौधरी से पहले रहे ग्राम पंचायत सचिव अरविंद चौधरी (अनुसूचित जाति) को भी जातिगत आधार पर हटाने की मांग की थी, जिसके बाद मार्च में आलोक चौधरी ने ग्राम पंचायत सचिव का पद संभाला. जातिवाद की मिली भगत का आलम यह था कि प्रशासन ने भी ग्राम प्रधान की मांग पर आपत्ति दर्ज कराने और इसे असंवैधानिक बताने की बजाय पूर्व सचिव अरविंद चौधरी का तबादला कर दिया था. लेकिन ग्राम प्रधान एक बार फिर जातिगत आधार पर सचिव आलोक चौधरी को हटाने की मांग कर रही है और इनके स्थान पर सवर्ण या फिर पिछड़ी जाति के सचिव की तैनाती की मांग कर रही है. ग्राम प्रधान ने अपनी चिट्ठी में पूर्व सचिव रहे नरेंद्र कुमार श्रीवास्तव का नाम भी सुझा दिया है और उनको ग्राम पंचायत सचिव बनाने की मांग कर रही हैं. सुमन यादव ने पूर्व ग्राम पंचायत सचिव अरविंद चौधरी को हटाने के लिए 16 फरवरी 2016 को लखनऊ विकास अधिकारी के नाम चिट्ठी लिखी थी. इस चिट्ठी में उन्होंने क्षेत्रीय विधायक की सहमति का भी जिक्र किया है. 18 मार्च 2016 को ग्राम प्रधान सुमन यादव ने अपने आप को समाजवादी पार्टी की कार्यकर्ता बताते हुए मुख्यमंत्री को भी दलित सचिव अरविंद चौधरी को हटाने की मांग की. उन्होंने जो चिट्ठी लिखी है, वह समाजवादी पार्टी के लेटर पैड पर लिखी गई है. लखनऊ विकास अधिकारी ने उनकी मांग से लखनऊ जिलाधिकारी से अवगत करवाया, जिसके बाद जिलाधिकारी ने अरविंद चौधरी का तबादला करवा कर अलोक चौधरी को भटगांव ग्राम सभा सचिव का पद सौंप दिया लेकिन ग्राम प्रधान अलोक चौधरी को भी हटवाना चाहती है. इस बारे में जब सुमन चौधरी से बात करने की कोशिश की गई तो वह फोन पर नहीं आई. उनके पति जीत बहादुर यादव ने दलित दस्तक से बातचीत में किसी चिट्ठी को लिखने से इंकार किया और इसे फर्जी बताया. जब दलित दस्तक ने यह पूछा कि फर्जी चिट्ठी लिखने वाले पर क्या उन्होंने कोई एफआईआर दर्ज करवाया है तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और फोन काट दिया. नोट- दलित दस्तक के पास सारे कागजात मौजूद हैं

इश्क में काफिर होना

कहानी की पहली किस्त सुमित ने लिखी थी, दूसरी किस्त अजरा के अपने अनुभवों को लेकर है. अजरा ने हरियाणा और इस्लाम के मिले जुुले अनुभव को कलमबद्ध किया है. आरे सुमित यो के करा तनैं? ना लाड्डू खुआए अर ना नाचण का मौका दिया. बता बहू ले आया अपणे आप. पर कोए ना ईब ले आया तो ठीक सै… बहू तो चोखी सै तेरी. इन लाइनों के साथ पड़ोस की एक आंटी ने मुझे मुंह दिखाई दी थी. 6 साल में सुमित से इतनी हरियाणवी तो मैं भी सीख ही चुकी हूं. वो बात और है कि बोल नहीं पाती लेकिन जोड़-तोड़ कर मतलब तो समझ ही लेती हूं. चलिए कहानी में आगे बढ़ते हैं. मेरा नाम अज़रा प्रवीन है और मैं मुसलमान हूं. उर्दू ज़बान में स्कूल की पढ़ाई करने वाली मैं बहुत ही आम लड़की थी और पूरे इस्लामिक तौर तरीकों से दिल्ली 6 की गलियों में पली थी. कॉलेज में सुमित से प्यार हुआ और अब मैं हरियाणा के एक गांव में हूं सुमित के घर पर. मैंने हरियाणा का नाम अक्सर टीवी और अखबारों में ही पढ़ा था. अफसोस किसी अच्छे काम के लिए नहीं. झूठी शान के लिए बेटे-बेटी की हत्या, खाप पंचायत के एक गोत्र में शादी करने वाले जोड़े को जान से मारने के फैसले, कन्या भ्रुण हत्या और औरतों के खिलाफ जुल्मों के बारे में. कुछ इसी तरह के हरियाणा की एक इमेज बनीं हुई थी दिमाग में, कॉलेज में तो कई बार इन मसलों पर बहस हुई थी. अब शादी के बाद जब हरियाणा जाने की मेरी बारी आई तो दिल में कई सवाल मुंह उठाए खड़े थे… क्या होगा वहां पर? कैसे लोग होंगे? कहीं मैं और सुमित भी ऑनर किलिंग का शिकार तो नहीं हो जाएंगे? खैर सुमित साथ था तो निकल गए हम भी मिशन फैमिली पर. सुमित के घर जाकर मेरे सारे पूर्वाग्रह बिना पंख के ही छू मंतर हो गए. मेरी सास एक दम सरल व्यक्तित्व वाली लेकिन खुद्दार महिला हैं. अब मुझे यहां दूसरी अम्मी मिल गई हैं. यहां किसी को मेरे धर्म से कोई दिक्कत नहीं है. ना ही सुमित के घर वालों को और ना ही किसी गांव वाले को. अभी तक जितने लोगों से मिली हूं किसी ने धर्म को लेकर ज्यादा सवाल-जवाब नहीं किए और ना ही हमारी शादी को लेकर कुछ गलत कहा. हिंदी सीरियलों की जली भूनी औरतों के जैसे यहां किसी ने मुझे नीचा दिखाने की भी कोशिश नहीं की. यहां मेरे जेठ-जेठानी से लेकर मेरी ननंद तक सभी ने मेरे डर को भगाकर मेरी हिम्मत बांधी. हरियाणा की स्टीरियोटाइप इमेज अब दूर हो रही है. दिल्ली वालों के दिमागी फितूर के मुकाबले यहां लोग सरल और स्पष्ट हैं. मेरे लिए ये किसी सपने से कम नहीं. हां मैंने अपनी सास के दिए सारे गहनों और चुड़ियों को पहन लिया है, क्योंकि मुझे इसमें धार्मिक प्रतीकों से ज्यादा अपनी बहू के लिए प्यार दिखाई देता है. मैं मुसलमान हूं और अपने मजहब को शिद्दत से मानती हूं लेकिन सुमित नास्तिक है. सुमित जैसे लोगों को हमारे यहां काफिर कहा जाता है. गैर-मुस्लिम से शादी करना किसी गुनाह से कम नहीं. अब मैंने सुमित से शादी की है तो कई लोगों की परिभाषा में मैं भी काफिर ही कहलाऊंगी. चाहे भले ही मेरे और मेरे खुदा का रिश्ता कितना ही मजबूत क्यों ना हो. हां अगर सुमित इस्लाम कुबूल कर लेता तो शायद मुझे शाबाशी मिलती कि अल्लाह का नाम लेने वालों की गिनती में एक शख्स और बढ़ गया. शायद यही फॉर्मूला मेरे हिंदू बनने पर भी लागू होता. लेकिन हमारा इश्क किसी स्पोंसर्ड लव जेहाद जैसी साजिश का हिस्सा थोड़े ना है. धर्म को लेकर हम दोनों की राय अलग है लेकिन हम एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र करते हैं. मैंने अपना धर्म और नाम नहीं बदला है और ना ही किसी ने मुझे बदलने के लिए कहा. मैं जैसी हूं वैसी सबको मंजूर हूं. आप कहते रहिए मुझे काफिर… सच्चा इश्क भी किसी इबादत से कम नहीं होता.

विदेशों में फ्री पढ़ सकते हैं दलित छात्र

नई दिल्ली। भारत सरकार दलितों के लिए इतनी स्कीम व योजना लेकर आती है, पर कोई इसका लाभ नहीं ले पाता है क्योंकि वह इन योजना से अनभिज्ञ होते हैं. क्या आप जानते है,  दलित छात्रों के लिए एक ऐसी स्कोलरशिप भी है जिसके तहत वह विदेशों में शिक्षा ले सकता है, इसके लिए उन्हें एक रूपया तक खर्च करने की जरूरत नहीं है. पर अफसोस इस बात का है कि दलित छात्र इस योजना के बारे में जानते ही नहीं है. इस योजना में 60 छात्रों को लाभ मिलता है लेकिन इस वर्ष अभी तक मात्र तीस छात्र ही चयनित हो पाएं हैं, जानकारी के अभाव में  अभी भी सीटें खाली रह गई हैं. अगले वर्ष से यह स्कीम 100 छात्रों को छात्रवृति देने की है परन्तु यदि इस वर्ष छात्रवृति लेने के लिए एवं विदेशों में पढ़ाई करने के इच्छुक छात्र व छात्राएं उपलब्ध नहीं होते हैं तो भविष्य के लिए पढ़ाई की यह स्कीम बन्द भी की जा सकती है. भारत सरकार का सामाजिक, न्याय मंत्रालय द्वारा दलित छात्रों को स्कोलरशिप दी जाती है. नेशनल ओवरसिज स्कोलरशिप स्कीम दलित छात्रों को विदेशों में पढ़ने के लिए छात्रवृति देता है. यह छात्रवृति पोस्ट ग्रेजुएट या पी. एच. डी. करने वाले उन छात्रों को दी जाती है जिनके ग्रेजुएशन में 55 प्रतिशत मार्क्स या उससे अधिक हों. छात्रों का पूरा खर्चा जिनमें आना-जाना, रहना-खाना और फीस मंत्रालय वहन करता है. राष्ट्रीय शोषित परिषद इस मुद्दे को विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में उठा रहा है, जिससे की दलित छात्र व शोधार्थी इस स्कोलरशिप का लाभ ले सकें. इसके अतिरिक्त ये संस्था दलित बच्चों को पायलट (सीपीएल) का कोर्स फ्री में करवाने का काम करवाती है. यह संस्था पिछले 30 वर्षों से दलित छात्रों व समुदाय के हित में काम कर रही हैं.

धर्म हमारे ठेंगे पर

वह एक पत्रकार है. वो जिससे प्यार करता था हाल ही में उसने उससे शादी कर ली है. लेकिन दिक्कत यह थी कि लड़के का नाम सुमित था और लड़की का अजरा. लड़का अम्बेडकरवादी नास्तिक और लड़की पांच वक्त की नमाजी. जब इस जोड़े ने फेसबुक पर अपनी शादी की खबर और तस्वीर साझा कि तो लोग उन्हें ईश्वर और अल्लाह के नाम पर बधाई देने लगे. बस्स… फिर क्या था, सुमित भड़क गए और उन्होंने कह दिया …धर्म हमारे ठेंगे पर. सुमित ने अपने सफरनामे को दलित दस्तकसे साझा किया है. पढ़िए, सुमित के प्यार और समाज द्वारा खड़ी की गई दीवार की कहानी सुमित की जुबानी…। जिन प्रेम कहानियों पर आधारित फिल्मों को देखकर मैं बड़ा हुआ उन्हीं को जीने का मौका भी मिला. कॉलेज के फर्स्ट ईयर में अजरा से दोस्ती हुई और सेकेंड ईयर तक ये दोस्ती प्यार में तब्दील हो गई. 2010 में शुरू हुआ ये सफर आज शादी के मुकाम पर आ पहुंचा है. 6 साल का सफर किसी सुहाने सपने से कम नहीं. हम दोनों राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं तो वाद-विवाद अमूमन हर विषय पर होता है. धर्म को लेकर भी खूब संवाद हुआ है. मैं हिंदू परिवार में पैदा हुआ नास्तिक और अंबेडकरवादी व्यक्ति और मेरी लाइफ पार्टनर पांच वक्त की नमाज़ी. धर्म को लेकर स्पष्ट मत विभाजन लेकिन ये धर्म कभी प्यार में रुकावट नहीं बना. लेकिन कुछ लोगों के लिए हमारा मजहब ज्यादा मायने रखता है. ऐसे धर्मांधकारी किसी के रिश्ते की खूबसूरती नहीं देख सकते. खैर किसी और के कुछ भी सोचने से फर्क नहीं पड़ता. फर्क पड़ता है तो अपने परिवार के सोचने और बोलने से. परिवार को मनाना लोहे के चने चबाने जैसा ही है. हां मेरे हिस्से के चने कुछ नर्म थे जिन्हें मैं जल्दी हजम कर पाया लेकिन अजरा के हिस्से असली लोहे के चने ही आए. पिछले साल दिसंबर में जब मैंने अजरा की अम्मी से बात कि तो उनका कहना यही था कि हम दोनों के मजहब अलग हैं और इस रिश्ते की कोई गुंजाइश नहीं. जब मैंने उन्हें बताया कि मैं तो नास्तिक आदमी हूं और मैं ना इस्लाम को मानता हूं और ना ही हिंदू धर्म को, तब उनका जवाब था… ये तो और भी बड़ा गुनाह है. बताइए, जिस धर्म से मुझे कुछ लेना देना नहीं वो मेरे जीवन में सबसे बड़ी मुश्किल बन कर खड़ा हो गया. आप धर्म को छोड़ सकते हैं लेकिन धर्म आपको छोड़ने के लिए तैयार नहीं क्योंकि शायद हम पर सबसे ज्यादा कब्जा धर्म ने किया हुआ है. जीवन के हर पहलू में धर्म सीधा दखल देता है. मार्क्स बाबा ने धर्म को अफीम यूं ही थोड़े ना कहा है. खैर हम भी कहां मानने वाले थे, इश्क तो वैसे भी हठी होता है. धर्म को हमने घी से मक्खी के जैसे निकाल कर अलग कर लिया और इसे बेहद निजी मामला मानते हुए अपने रोमांस में इसे कहीं भी जगह नहीं दी. हां हम दोनों ने हिंदू धर्म में फैली देवदासी, दहेज, कन्या भ्रूण हत्या, पर्दा प्रथा और इस्लाम में व्याप्त बुर्का, कई शादियां करना, संपत्ति के अधिकार और तीन बार तलाक प्रथा पर घंटों बहस की है. लेकिन कभी मनभेद नहीं हुआ. दो दिन पहले फेसबुक पर मैंने अपनी शादी की जानकारी साझा की. सैकड़ों लोगों ने शुभकामनाएं दी. ज्यादातर बधाई संदेशों में ईश्वर आपको खुश रखे, अल्लाह आपको सलामत रखे जैसी दुआएं दी गई हैं. मैं अपने तमाम दोस्तों की इन शुभकामनाओं को दिल से स्वीकार करता हूं. लेकिन दोस्तों एक बात बताऊं, हमारी पूरी प्रेम कहानी में सबसे ज्यादा दिक्कत इन ईश्वर और अल्लाह नाम के शब्दों ने ही खड़ी की है. धर्म नाम की दीवार शायद सबसे ज्यादा मजबूत होती है जो अपने साथ कई रिश्तों को लेकर ही जमींदौज होती है. कई लोगों के लिए हमारा धर्म ज्यादा मायने रखता है…. रखता होगा. आपका ये ढकोसले वाला धर्म हमारे ठेंगे पर.

लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स के कॉलेज में भाषण देने जाएंगी कौशल पंवार

नई दिल्ली। कौशल पंवार एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने लंदन जा रही हैं. वहां वह इंपेरिकल कॉलेज में डॉ. भीम राव अम्बेडकर के परिप्रेक्ष्य से महिलाओं का उद्धार विषय पर संबोधित करेंगी. यह कॉलेज लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स का हिस्सा है जहां से बाबासाहेब ने अपनी पी.एचडी की थी.  पंवार 31 जुलाई को लंदन जाएंगी और 7 अगस्त को वापसी आएंगी. कौशल पंवार दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और संस्कृत पढ़ाती हैं. पंवार बहुजन समाज और स्त्रियों से जुड़े मुद्दों पर भी सक्रिय हैं. अभी तक इनकी पांच किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं. कौशल पंवार का कहना है कि हमारे समाज के लोगों में मेरिट और प्रतिभा कूट-कूट कर भरी है पर ये मनुवादी मानसिकता के लोग हमें आगे नहीं आने देते. कौशल पंवार अम्बेडकरवादी विषयों पर व्याख्यान देने के लिए पहले भी देश के बाहर जा चुकी हैं. वह अम्बेडकारीवादी विषयों, सम्मेलनों व चर्चा में भाग लेने के लिए 2012 में अमेरिका, 2013 में जिनेवा (स्विटजरलैंड), 2015 में अमेरिका और कनाडा जा चुकी हैं. दलित वर्ग से आने के बाद भी संस्कृत का प्राध्यापक बनने की पीछे उनकी मंशा धार्मिक ग्रंथों का बारीकी से अध्ययन करना था, जिसमें शूद्रों और महिलाओं के बारे में कई आपत्तिजनक बातें लिखी है. गौरतलब है कि प्रोफेसर कौशल पंवार को पिछले साल विश्वविद्यालय में जातिवाद का सामना करना पड़ा था और उन पर अशिष्ट टिप्पणियां भी की गई थी. उन्होंने कॉलेज प्रशासन को इसकी शिकायत की लेकिन प्रशासन ने कोई सकारात्मक कार्रवाई नहीं की. इसके बाद उन्होंने इस मुद्दे पर विरोध की आवाज बुलंद की थी.

अनशन पर बैठे डॉ. सुनील कुमार सुमन

वर्धा। डॉ. सुनील कुमार सुमन अन्यायपूर्ण तरीके से किए गए अपने ट्रांसफर के खिलाफ महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा प्रशासन के खिलाफ अनशन पर बैठ गए हैं. वर्धा विश्वविद्यालय जातिवाद का गढ़ बनता जा रहा है. खासकर नए कुलपति प्रो गिरीश्वर मिश्रा के आने के बाद तो जैसे ब्राह्मणवाद ही इस विश्वविद्यालय की पहचान बनती जा रही है. यहां भाई-भतीजावाद और परिवारवाद का खेल खुलेआम होता है. डॉ. सुनील कुमार के समर्थन में वहां का छात्र समुदाय भी खुलकर सामने आ गया है. छात्र संगठन अंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम डॉ. सुनील कुमार सुमन को अपना समर्थन दे रहा है. संगठन की तरफ से कुलपति के नाम एक ज्ञापन भी दिया गया है. ज्ञापन में कहा गया है कि सहायक प्रोफेसर डॉ. सुनील कुमार वर्धा विश्वविद्यालय के बेहद लोकप्रिय अध्यापक हैं. वे ऐसे अध्यापक हैं, जो अपने विभाग से इतर दूसरे विभागों-केंद्रों के विद्यार्थियों के बीच भी काफी लोकप्रिय हैं. इसका कारण उनका मृदुभाषी-सहयोगी स्वभाव और छात्रों को हमेशा बेहतर बनने-करने के लिए प्रेरित करने वाली उनकी प्रकृति है. वे इस विश्वविद्यालय के एकमात्र आदिवासी वर्ग के प्राध्यापक हैं. डॉ. सुनील कुमार की पहचान राष्ट्रीय स्तर के आदिवासी लेखक-विचारक और एक्टिविस्ट के रूप में प्रतिष्ठित है. विदर्भ के तमाम ज़िलों तथा देश के कई विश्वविद्यालयों-शहरों के दलित-आदिवासी कार्यक्रमों में डॉ. सुनील कुमार को अतिथि वक्ता के रूप में हमेशा बुलाया जाता है. डॉ. सुनील कुमार को क्षेत्र की जनता द्वारा कई बार गोंडवाना भूषण पुरस्कार, शिक्षण मैत्री सम्मान और समाज भूषण सम्मान जैसे पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका है. गौरतबल है कि डॉ. सुनील कुमार को विश्वविद्यालय में शुरू से ही उनको जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया जाता रहा है. पिछले कुलपति के कार्यकाल में भी ऐसा हुआ और अब भी ऐसा ही हो रहा है. उच्च प्रशासनिक पदों पर बैठे लोगों ने जातिगत भावना से निर्णय लेते हुए डॉ. सुनील कुमार का स्थानांतरण कोलकाता केंद्र पर किया गया है. वे दो साल तक नौकरी से बाहर रहे, केस-मुक़दमा झेला, आर्थिक दिक्कतें सहीं और मानसिक पीड़ा भी झेली है. फिर साहित्य विभाग में इतने अध्यापकों के रहते हुए डा. सुनील कुमार को ही क्यों कोलकाता भेजा रहा है ? क्या विश्वविद्यालय प्रशासन ऐसे ही दलित-आदिवासी छात्रों-शिक्षकों को यहाँ परेशान करता रहेगा ?

वर्धा विश्वविद्यालय के खिलाफ अनशन करेंगे सुनील कुमार सुमन!

अंग्रेज़ों को जिसे सज़ा देनी होती थी, उसको वे काला पानी भेज देते थे. वर्धा विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति श्री विभूति नारायण राय को जिससे दुश्मनी निकालनी होती थी, उसको वे यौन-उत्पीड़न के फ़र्जी केस में फंसा देते थे और वर्तमान कुलपति साहब को जिसे सबक सिखाना होता है, वे उसका ट्रांसफर मनमाने तरीके से कोलकाता केंद्र पर कर देते हैं. एक प्राध्यापक पिछले साल सज़ा के तहत कोलकाता भेजे गए थे, अब मियाद पूरी हो गई तो विश्वविद्यालय ने उनको वापस बुला लिया और मुझे भेजने का फरमान जारी कर दिया. लेकिन कुछ दरबारी टाइप चापलूस प्राध्यापकों के बहकावे में जातिगत दुर्भावना से प्रेरित होकर किए गए इस ट्रांसफर के ख़िलाफ मैंने प्रशासन को पत्र दिया है. अगर इस दुराग्रहपूर्ण अलोकतांत्रिक निर्णय को तत्काल वापस नहीं लिया गया तो विश्वविद्यालय एक बड़े प्रतिरोधी आंदोलन को झेलने के लिए फिर तैयार हो जाए…. फेसबुक पर चेतावनी देता यह पोस्ट है  सुनील कुमार सुमन का.  सुनील कुमार सुमन वर्धा युनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर है. विश्वविद्यालय ने सुनील जी को कोलकाता सेंटर पर भेजने का फरमान जारी कर दिया है. यह विश्वविद्यालय का एकाधिकार हो सकता है कि वह अपनेअधीन आने वाले शिक्षक को किसी दूसरे सेंटर पर भेज दे. लेकिन सुमन का मामला थोड़ा अलग है. असल में सुनील साल 2009 में वर्धा पढ़ाने पहुंचे थे और तभी से वो विश्वविद्यालय के प्रशासन को खटकते रहे हैं. वजह शायद यह है कि सुनील कुमार सुमन अम्बेडकरवादी है. वजह यह भी है कि वह वहां के छात्रों को बाबासाहेब के संविधान, समानता के अधिकार और तथागत बुद्ध के मानवतावाद की बात सिखाते हैं. वजह यह भी है कि वह वहां के स्टॉफ और शिक्षकों से नमस्कार की बजाय जय भीम और हूल जोहार कहते हैं. क्योंकि प्रो. सुनील कुमार अंबेडरवादी विचारधारा पर विश्वास करते है और देश भर में होने वाले सेमिनार, सिंपोसियम और वर्कशॉप में अपने विचार देने जाते है. ध्यान देने की बात यह है कि यह पहला मौका नहीं है जब विश्वविद्यालय सुनील कुमार के खिलाफ खड़ा हो गया है बल्कि उनकी नियुक्ति के बाद से ही वह विश्वविद्यालय आए कुलपतियों को चुभते रहे हैं. सुनील जी का घटनाक्रम विश्वविद्यालयी शिक्षा व्यवस्था में दलितों के साथ होने वाले भेदभाव को भी दर्शाता है. इससे पहले सुनील को घेरने के लिए उन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगवाया गया और 2013 में उनको सस्पेंड कर दिया गया और 2014 में टर्मिनेट कर दिया गया. उनकी तनख्वाह रोक दी गई. इसके खिलाफ सुनील ने मुंबई हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. अदालत में जब जिरह हुई तो झूठ की बुनियाद पर गढ़ा गया यह आरोप फर्जी साबित हुआ और सुनील पाक-साफ बाहर आ गए.  अदालत ने सुनील सुमन के पक्ष में फैसला सुनाया और तात्कालिक कुलपति विभूति नारायण को फटकारते हुए उन पर दस हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया. अदालत में जीतने के बाद  सुमन ने 31 जुलाई 2015 को फिर से ज्वाइंन किया. इस आरोप से बरी होने के बाद एक लंबे समय बाद प्रो. सुनील कुमार सुमन फिर से विश्वविद्यालय में पढ़ाने गए. इस दौरान वर्धा विश्वविद्यालय के  स्टूडेंट्स खासकर दलित, आदिवासी और ओबीसी के बीच उनकी लोकप्रियता पहले से ज्यादा बढ़ गयी. विद्यार्थी भी उनकी बातों से प्रभावित होने लगे. यह सब ब्राह्मणवादी कुलपति और सहकर्मी प्रोफेसरों को रास नहीं आया, इस कारणवश उनका तबादला मुख्य वर्धा विश्वविद्यालय से इसके कोलकाता सेंटर में कर दिया और यहां से रिलीविंग लेटर दे दिया गया. प्रो. सुनील कुमार इसको साजिश बता रहे है. उनका कहना है कि बुधवार से एम.फिल.-पी-एच.डी. में प्रवेश के लिए इंटरव्यू शुरू हुए और इसी दिन मुझे रिलिविंग लेटर जारी कर दिया गया. विश्वविद्यालय प्रशासन ने इंटरव्यू को विशेष रूप से ध्यान में रखते हुए आनन-फानन में मेरा रिलीविंग लेटर जारी कर दिया ताकि मैं तत्काल कोलकाता चला जाऊं और यहां इंटरव्यू बोर्ड में बैठ ही न सकूं. प्रो. सुनील कुमार कहना है कि विश्वविद्यालय जातिगत आधार पर दलित प्रोफेसर और नॉनटीचिंग स्टाफ से भेदभाव व नफरत करता है. विश्वविद्यालय भेदभाव के चलते मेरा दो साल का वेतन और प्रमोशन रोके हुए है. अगर विश्वविद्यालय मेरे साथ ऐसे ही भेदभाव करता रहेगा और रिलीविंग लेटर को वापस नहीं लेगा तो मैं अनशन पर बैठूंगा. धरना प्रदर्शन करूंगा और इसमें मेरे कुछ सहयोगी भी समर्थन करेंगें.

अमेरिका में नस्लीय हमले और भारतीय मीडिया

अमेरिका एक बार फिर नस्लीय हमलों से दहल उठा है. नए सिरे से इसकी शुरुआत जुलाई के पहले सप्ताह के शेष में पुलिस की गोली से दो दिन में दो अश्वेतों की मौत से हुई है. पहली घटना पांच जुलाई की है. उस दिन लुसियाना पुलिस ने एल्टन स्टर्लिंग नाम के एक अश्वेत को पार्किंग स्थल पर रोका. पुलिस को उस पर हथियार रखने का शक था. कहासुनी और हाथापाई के बाद 37 वर्षीय एल्टन को पुलिस वालों ने जमीन पर गिरा दिया और उस पर कई गोलियां झोंक दिया, जिससे मौके वारदात पर ही उसकी मौत हो गयी. दूसरी घटना अगले ही दिन मिनेसोटा में घट गयी. वहां अपनी महिला मित्र के साथ कार में सवार फिलांडो क्रेस्टीले नामक अश्वेत से पुलिस ने ड्राइविंग लाइसेंस दिखाने को कहा. फिलांडो जब लाइसेंस निकाल रहा तब पुलिस को लगा वह गन निकाल रहा है. ऐसा लगते ही पुलिस ने उसे गोलीयों से उड़ा दिया. फिलांडो की महिला मित्र ने उस घटना की वीडियो बना लिया. उस वीडियो के वायरल होते ही एल्टन की मौत से शुरू हुआ विरोध-प्रदर्शन और विकराल रूप धारण कर लिया और अगले दिन डलास में 800 लोग विरोध प्रदर्शन के लिए जमा हो गये. विरोध को देखते हुए मौके पर सौ के करीब पुलिस तैनात की गयी थी. विरोध प्रदर्शन शांति से चल रहा था लेकिन अचानक गोलीबारी शुरू हो गयी. निशाना श्वेत पुलिस अधिकारियों को साध कर लगाया जा रहा था. गोलीबारी में13 लोग जख्मी हुए. घायल होने वालों 12 पुलिस अधिकारी थे, जिनमे पांच की मौत हो गयी. आत्मसमर्पण करने से इनकार करने पर हत्यारे को रोबोट बम से उड़ा दिया गया. बाद में हत्यारे की पहचान अफगान युद्ध में शिरकत किये अश्वेत मीकाह जॉनसन के रूप में हुई. अमेरिका के इतिहास में वहां पुलिस के लिए यह सबसे दुखद दिनों में एक था. इससे पहले अमेरिकी पुलिस को सबसे बड़ी चुनौती कुख्यात 9/11 को मिली थी जिसमें 72 पुलिस वाले हताहत हुए थे. जॉनसन ने बम से उड़ाए जाने के पूर्व पुलिस वालों को खुलकर बताया था कि वह अश्वेतों की हत्या से नाराज है और गोरे लोगों की हत्या करना चाहता है, खासकर गोरे पुलिस वालों की. बहरहाल डलास के इस हत्याकांड ने फर्ग्युसन प्रोटेस्ट के याद ताजा कर दी. लोग भूले नहीं होंगे अमेरिका के मिसौरी प्रान्त के फर्ग्यूसन इलाके की अगस्त 2014 की वह घटना है जिसमें 18 साल के अश्वेत युवक माइकल ब्राउन द्वारा एक स्टोर से जबरन सिगार का पैकेट उठा लिए जाने के बाद मौके पर पहुंचे गोरे पुलिस आफिसर डरेन विल्सन से उसकी तकरार हो गयी और देखते ही देखते उस पुलिस अधिकारी ने उस पर गोलियां बरसा दी थी. बाद में नवम्बर 2014 के तीसरे सप्ताह में जब डरेन विल्सन पर ग्रांड ज्यूरी ने अभियोग चलाने से इंकार कर दिया,वहां के लगभग दर्जन भर शहरों में दंगे भड़क उठे. बहरहाल फर्ग्युसन प्रोटेस्ट के दौरान ही पुलिस की गोली से दो और अश्वेतों की हत्या हो गयी. अश्वेतों ने इन मौतों को फर्ग्युसन कांड से जोड़ते हुए उग्र धरना-प्रदर्शनों का सिलसिला अमेरिका के अन्य शहरों तक फैला दिया. फर्ग्युसन प्रोटेस्ट शुरू होने के ठीक एक महीने बाद एक व्यक्ति ने न्यूयार्क पुलिस के दो अफसरों को काफी करीब से गोली मार कर हत्या करने के बाद खुद को भी अपनी ही बन्दूक की गोली से उड़ा लिया. बंदूकधारी की पहचान 28 वर्षीय इस्माइल ब्रिन्स्ले के रूप में हुई है जो हत्या कांड को अंजाम देने के लिए बाल्टीमोर से 300 किलोमीटर का सफ़र कर न्यूयार्क पहुंचा था. पुलिस अधिकारयों के मुताबिक ब्रिन्स्ले ने सोशल मीडिया पर लिखा था कि माइकल ब्राउन और एरिक गार्नर नामक दो अश्वेतों की पुलिस अधिकारियों द्वारा की गयी हत्या के कारण वह पुलिस अधिकारियों की जान लेना चाहता है. उसने घात लगाकर गश्ती कार में बैठे दोनों अफसरों पर बन्दूक तान कर खिड़की से उनके सिर और शरीर के उपरी हिस्से पर गोली मार दी. इसके बाद वह एक मेट्रो स्टेशन की ओर भाग गया और वहां खुद को गोली मार कर आत्महत्या कर ली.इस घटना से न्यूयार्क सिटी वैसे ही शोक में डूब गयी थी, जैसे आज डलास डूबा है. बहरहाल फर्ग्युसन प्रोटेस्ट के न्यूयार्क और अब डलास पुलिस हत्याकांड में जो सबसे बड़ी साम्यता है वह यह कि तबके इस्माइल ब्रिन्सले और आज के मीकाह जॉनसन दोनों में ही अपने अश्वेत भाइयों के पुलिस द्वारा मारे जाने से बेहद दुखी थे और इससे दोनों के ही मन में गोरों, खासकर गोरे पुलिसवालों के प्रति अपार घृणा पैदा हो गयी थी जिस कारण उन्होंने लगभग फिदायिनी अंदाज में हमला अंजाम दे दिया.   बहरहाल पिछले दो सालों में फर्ग्युसन से शुरू होकर डलास तक पहुचे नस्लभेद के खिलाफ अश्वेतों में बढ़ता आक्रोश अमेरिका के 1960 के दशक की और मुड़ने का संकेत देने लगा है. सचमुच कुछ ऐसा होता दिख रहा है इसलिए राष्ट्रपति ओबामा को जोर देकर कहना पड़ा है अमेरिका में साठ के दशक वाले हालात नहीं पैदा हुए हैं. पर पैदा न होने के बावजूद ओबामा की सफाई बताती है स्थिति गंभीर है. किन्तु भारी अफ़सोस की बात है कि नस्लभेद के चलते साठ के दशक की ओर लौटने का संकेत देने वाली डलास की घटना को भारतीय मीडिया मुख्य रूप से अमेरिकी नागरिकों के पास बड़ी तादाद में पड़े हथियारों की परिणति बता रही है. इसके मुताबिक़ इस हत्याकांड के बाद बंदूकों पर नियंत्रण को लेकर फिर से बहस शुरू होगी. लेकिन अमेरिका में बंदूकों की बहुतायतता निश्चय ही एक समस्या है, पर फर्ग्युशन और डलास कांड के पीछे क्रियाशील कारणों में इसका स्थान सर्वनिम्न पर है. डलास नस्लभेदी घटनाओं के खिलाफ वंचित अश्वेतों के आक्रोश की उपेक्षा कर, हथियारों की बड़े पैमाने पर मौजूदगी को सबसे बड़ा सबब बताने से क्या ऐसा नहीं लगता कि भारत की सवर्णवादी मीडिया सुनियोजित तरीके से अमेरिकी युवकों में नस्लभेद के खिलाफ उभरे आक्रोश से बहुजनों का ध्यान भिन्न दिशा में खीचना चाहती है ताकि बहुजन युवा जातिभेद के खिलाफ अश्वेत अमरीकियों की भूमिका न अख्तियार करने लगें? यह शक इसलिए पैदा हो रहा है कि व्यवसाय-वाणिज्य, फैशन,टेक्नोलाजी, फिल्म-मीडिया इत्यादि सहित अमेरिका की जीवन शैली तक का अन्धानुकरण करने तथा अपने बच्चों को वहां बसाने का सपना देखने वाले किसी सवर्ण नेता, लेखक, कलाकार इत्यादि ने कभी मीडिया में ऐसा सन्देश नहीं दिया, जिससे अमेरिका के अश्वेतों की भांति भारत के बहुजन भी वहां से कुछ प्रेरणा ले सकें. अगर ऐसा नहीं होता तो अमेरिका में 70 के दशक से लागू वहां की सर्वव्यापी आरक्षण पद्धति (डाइवर्सिटी) से भारत का बहुजन पिछली सदी में ही भलीभांति वाकिफ हो जाता. लेकिन इससे अवगत होने के लिए बहुजनों को नयी सदी में चंद्रभान प्रसाद के उदय का इन्तजार करना पड़ गया. दरअसल अमरीका में पिछले दो सालों से वंचित अश्वेत एक से एक जो भयावह काण्ड अंजाम दिए जा रहे हैं उसके पीछे वहां की न्यायपालिका और पुलिस प्रशासन में उचित भागीदारी की मांग है. अमेरिका में डाइवर्सिटी पॉलिसी के तहत वहां के अश्वेतों को उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया, ज्ञान क्षेत्र इत्यादि में शेयर जरुर मिला, पर पुलिस विभाग और न्यायपालिका में वह अपर्याप्त है. मसलन 2014 में जिस फर्ग्यूसन से दंगे भड़के, वहां की 70 प्रतिशत आबादी अश्वेतों की संख्या स्थानीय पुलिस बल के 53 सदस्यों में सिर्फ तीन थी .जिस ग्रांड ज्यूरी के फैसले से लोगों का गुस्सा फूटा है, वहां उसके बारह सदस्यों में नौ श्वेत और तीन ही अश्वेत थे. पुलिस बल और ग्रैंड ज्यूरी में अश्वेतों जो स्थिति फर्ग्युसन में है, उससे बहुत भिन्न डलास की भी नहीं है. पुलिस बल और न्यायपालिका में श्वेतों का भरमार वहां के अश्वेतों के न्याय के मार्ग में बाधा है. ऐसा है तभी तो अमेरिका के 13 प्रतिशत कालों की जेलों में उपस्थिति 35 प्रतिशत है.पुलिस प्रशासन और न्यायपालिका पूर्वाग्रही तभी तो गोरों के 5.9 के मुकाबले कालों के पूरे जीवन में जेल जाने की सम्भावना 32.2 है. खुद अमेरिका के न्याय विभाग की रिपोर्ट स्वीकार करती है कि ट्रैफिक स्टॉप पर गोरों के मुकाबले तीन गुनी ज्यादा चेकिंग कालों की होती है. कालों के प्रति अमेरिकी पुलिस बल और न्यायपालिका के भीषण पूर्वाग्रही होने के यह सबूत क्या कम है? बहरहाल इसका इल्म भारतीय मीडिया को हो या न हो, पर राष्ट्रपति ओबामा को है इसलिए 2014 में ग्रांड ज्यूरी के फैसले के सम्मान का अनुरोध करने के बावजूद उन्होंने यह कह डाला था-‘अश्वेत अमेरिकियों और कानून प्रवर्तन के बीच बहुत कुछ किया जाना बाकी है.’ इधर 70 प्रतिशत से अधिक आबादी वाले जिस गोरे अमेरिकी प्रभुवर्ग ने अश्वेतों के लिए उद्योग-व्यापार,शासन-प्रशासन, फिल्म-टीवी इत्यादि में सर्वव्यापी आरक्षण नीति (डाइवर्सिटी) लागू करवाने में सदाशयता का परिचय दिया पिछले कुछ वर्षों से वह अब धीरे-धीरे उनके प्रति अनुदार व पूर्वाग्रही होने लगा है. अगर ऐसा नहीं होता तो वहां हाल दिनों में कैसे अश्वेतों के विरुद्ध सक्रिय श्वेतों के 95 हेट- ग्रुप वजूद में आ गए? अमेरिकियों में आये इस नकारात्मक बदलाव के कारण ही डोनाल्ड ट्रंपों का उदय होने लगा है. इस बदलाव के चलते वहां के पुलिस और न्यायपालिका में हावी श्वेत भी अश्वेतों के प्रति अतिरिक्त रूप से पूर्वाग्रही होते जा रहे हैं. अश्वेतों का मानना है कि यदि न्यायपालिका और पुलिस बल में पर्याप्त शेयर मिल जाय तो उनपर नस्लीय भेदभाव में और कमी आएगी. लेकिन फिलहाल वैसा होता दिख नहीं रहा है, इसलिए प्रभुवर्ग पर दबाव बनाने के लिए किसी भी घटना की आड़ में वे भयावह कांड अंजाम दिए जा रहे हैं. इस असल कारण को सवर्ण प्रभुत्व वाली भारतीय मीडिया दबा कर रखना चाहती है, ताकि भारत के बहुजन युवा ब्रिन्सले और जॉनसनों से प्रेरणा न लेने लगें. (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं ,मो-9654816191 )

बसपा की तैयारी और विपक्षी दलों की बेचैनी

उत्तर प्रदेश का चुनावी माहौल गरमा गया है. बहुजन समाज पार्टी ने अपने पत्ते खोलने शुरू कर दिए हैं. पार्टी की अध्यक्ष मायावती जिस तरीके से उत्तर प्रदेश के मुद्दों को लेकर लगातार मुखर हैं, उसने विपक्षी दलों की बेचैनी बढ़ा दी है. उन्होंने हर मुद्दे पर अपनी राय रखनी शुरू कर दी है. कांग्रेस पार्टी ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर यह जता दिया है कि वह यूपी में महज मूकदर्शक बने नहीं रहना चाहती है. चुनाव पूर्व होने वाले सर्वे में मीडिया द्वारा बसपा को पहले ही सबसे बड़ी पार्टी बताया जा चुका है. इसकी जायज वजह भी है. जहां विपक्षी दल समाजवादी पार्टी और भाजपा अब तक अपनी रणनीति को लेकर पसोपेश में हैं तो वहीं बसपा ने जमीन पर काम करना शुरू कर दिया है. पार्टी के कार्यकर्ता गांव-गांव में सक्रिय हैं, जबकि भाजपा और समाजवादी पार्टी अंदरुनी आपसी गठजोड़ के जरिए कैराना जैसे मुद्दों के भरोसे अपनी चुनावी नैया पार करने की सोच रही है. लेकिन उत्तर प्रदेश में यह संभव होता नहीं दिख रहा है, क्योंकि प्रदेश की जनता भाजपा-सपा गठजोड़ को समझ चुकी है और उसने कहीं न कहीं बसपा को सत्ता में लाने का मन बना लिया है. विकास और भ्रष्टाचार के साथ वर्तमान में प्रदेश में सबसे बड़ा मुद्दा सुरक्षा और कानून व्यवस्था का बन चुका है. प्रदेश में यह चर्चा आम है कि समाजवादी पार्टी की सरकार कानून व्यवस्था और सुरक्षा से जुड़े मामले पर पूरी तरह से विफल रही है. और जब सरकार से जुड़े लोग ही गुंडागर्दी पर उतर आएं तो फिर स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है. इन सारे तथ्यों के बावजूद उत्तर प्रदेश में बसपा की कामयाबी इस बात पर निर्भर करेगी कि दलित और पिछड़ा समाज बसपा के पक्ष में कितना खड़ा होता है. क्योंकि लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज बहुजन समाज पार्टी को झटका दे चुका है. तमाम दावों और तैयारियों के बावजूद जमीन पर बसपा की चुनौती दलित-पिछड़े वोटरों को एकजुट करना होगा. यहां उसे भाजपा से चुनौती मिल सकती है, क्योंकि यादव वोट सपा को जाने के बाद पिछड़े वर्ग के अन्य समूहों के वोटों पर भाजपा की भी नजर है. उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण और राजपूत ऐसे दो वर्ग हैं, जिन पर बसपा और भाजपा दोनों का दावा है. तो शीला दीक्षित को मैदान में उतार कर कांग्रेस ने भी इस समुदाय के वोट पर अपना दावा पेश कर दिया है. बसपा का ज्यादातर दारोमदार असल में दलित-पिछड़े वोटरों पर निर्भर है. बसपा की जीत के लिए इन दोनों समाज के वोटरों का बसपा के पक्ष में मजबूती से खड़ा होना जरूरी है. हालांकि स्वामी प्रसाद मौर्या और आर.के चौधरी के जाने से पार्टी को झटका लगा है. लेकिन इसका ज्यादा असर होने वाला नहीं है क्योंकि चुनाव अभी काफी दूर है और बसपा और उसके समर्थकों ने खुद को इस झटके से उबार लिया है. – लेखक मासिक पत्रिका दलित दस्तक के संपादक हैं।​

बहन जी ने गरीब छात्र के सपने को संभाला, IIT में दाखिले को भिजवाए ढ़ाई लाख रुपये

बसपा और उसकी प्रमुख मायावती अक्सर जरुरतमंदों की मदद तो करती हैं, लेकिन वह उसे  प्रचारित करने में यकीन नहीं करती हैं. वरना कई नेता तो मदद बाद में करते हैं और प्रचारित पहले. खासकर जब चुनाव सर पर हो तो ऐसे मौके भुनाने से राजनीतिक दल और नेता बाज नहीं आते लेकिन मायावती ऐसा नहीं करती हैं.  हालांकि ऐसी खबरें जिसे  मदद मिलती है, उसी के जरिए बाहर आ जाती है. 14 जुलाई को मायावती ने जेईई (ज्वाइंट एंट्रेंस एग्जाम) पास करने वाले एक छात्र को आईआईटी में दाखिला करवाने के लिए 2.5 लाख रुपये की मदद की है. घटना बस्ती की है. यहां के अतुल कुमार एक होनहार छात्र हैं. इसने अपनी मेहनत और लगन के बूते JEE एग्जाम पास कर लिया. इसके बाद उसे आईआईटी में दाखिला लेना था, लेकिन परिवार के पास पैसे नहीं थे. अतुल और उनके परिवार की उम्मीद टूटती नजर आ रही थी. अतुल को अपने सपने बिखरते लग रहे थे लेकिन तभी बसपा प्रमुख मायावती उनके लिए उम्मीद की रौशनी बनकर आई. किसी के जरिए बात बसपा प्रमुख मायावती को पता चली. उन्होंने तुरंत इस मामले की पड़ताल करवाई. पता चला कि कुछ पैसे आ गए हैं और फिलहाल ढ़ाई लाख रुपये कम पर रहे हैं. इसका संज्ञान लेते हुए मायावती ने तुरंत पार्टी के विधायक और पूर्व मंत्री रहे रामप्रसाद चौधरी को अतुल से मिलकर जरूरी मदद करने का निर्देश दिया और ढ़ाई लाख रुपये भिजवाएं. मामला बस्ती सदर तहसील के जिगनी गांव के दलित छात्र अतुल कुमार का है. अतुल ने अपनी कड़ी मेहनत के दम पर जेईई के प्री और मेंस की परीक्षा पास की. जेईई मेंस में 4770 और जेईई एडवांस में 3370 रैंक के साथ अतुल ने परीक्षा पास की. अतुल का सपना इंजीनियर बनने का था. लेकिन गरीबी उसकी राह में बाधा बनकर खड़ी हो गई. अतुल के पिता रामचरित्र एक मेडिकल स्टोर पर रहते हैं. उनके दो बेटे में अतुल छोटा है. रामचरित्र ने दलित दस्तक से बात करते हुए कहा कि बहन जी की मदद के बाद इस साल का फीस हो गया है. उनके सहयोग से अब मेरा बेटा पढ़ सकेगा.

दलित आईएएस अधिकारी को स्वीपर बना दिया!

सरकार और प्रशासन में जातिवाद किस कदर हावी है, इसका सबूत मध्य प्रदेश की एक हालिया घटना है. मध्य प्रदेश में एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी को उसके पद की गरिमा को नजरअंदाज करते हुए स्वीपर जैसा काम करने को दे दिया गया. इससे आहत आईएएस अधिकारी ने न्याय की मांग को लेकर आवाज उठाई है. अधिकारी का नाम रमेश थेटे है. मध्य प्रदेश के चर्चित आईएएस अफसर रमेश थेटे ने अब अपर मुख्य सचिव आरएस जुलानिया पर आरोप लगाया है कि जुलानिया ने उन्हें जातिगत कारणों से सचिव के अधिकार नहीं दिए हैं. उन्होंने टॉयलेट बनवाने और साफ करने का काम देकर मुझे स्वीपर बना दिया है. रमेश थेटे ने पद की गरिमा को बचाने के लिए सरकार से भी गुहार लगाई है. उनकी मांग है कि उन्हें सचिव का अधिकार दिया जाए. हालांकि सरकार भी थेटे की मदद को आगे नहीं आ रही है. आलम यह है कि विभागीय मंत्री गोपाल भार्गव मामले से अंजान बने हुए हैं. उनका कहना है कि दोनों अफसरों के बीच किस बात को लेकर विवाद है इसकी मुझे जानकारी नहीं है. कार्य विभाजन में थेटे को कौन से काम देने हैं, यह जुलानिया ने मुझे नोटशीट पर लिखकर अनुशंसा की थी. इसे मैंने ओके कर दिया था. जुलानिया और थेटे दोनों आईएएस अफसर पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग में पदस्थ हैं. इसी बीच दोनों अधिकारियों के बीच बातचीत का अंश भी सामने आया है, जिससे स्थिति को समझा जा सकता है. थेटे- आप मुझे पूर्व में रहे सचिवों की तरह काम क्यों नहीं दे रहे हैं? जुलानिया- मैंने जो किया, वह सही है. इससे ज्यादा नहीं मिलेगा. थेटे- सर, मैं तो समता के सिद्धांत की बात कर रहा हूं. जुलानिया- इस तरह बात मत करो. थेटे- यह तो जातिवाद है. जुलानिया- मुझे बहस नहीं करनी है. इसे मुद्दा मत बनाइए. थेटे- मुद्दा तो आप बना रहे हैं. मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं? जुलानिया- आपको जो करना है करो. ऊपर बात कर लो. थेटे- ऊपर बात करने के लिए मैं आपसे कोई ऑर्डर नहीं लूंगा. जुलानिया- इस तरह बात करोगे तो दोबारा मेरे पास मत आना. थेटे- मैं अब आपके पास नहीं आऊंगा. इस मामले में अब तक जुलानिया की कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है.

मरी गाय उठाने गए दलितों के साथ गौ रक्षक दल ने की हिंसा

उना। दलित सवर्णों को किस कदर खटकते है उसकी एक बानगी गुजरात के उना तहसील के दलडी और मोतिसर गांव में देखने को मिली. गांव में दो अलग-अलग जगह गाय मरी हुई थी.  गाय के मालिक ने समढीयाला गांव के गाय उठाने वाले ठेकेदार को बताया. ठेकेदार 4 दलित व्यक्ति के साथ मरी हुई गाय उठाने गए. तभी गांव के गौ रक्षक दल ने इन सभी दलितों की पिटाई कर दी. ठेकेदार और दलितों ने गौरक्षक दल को बहुत बार बताया कि गाय पहले से ही मरी हुई है, गाय के मालिक ने हमें फोन करके के बुलाया है लेकिन गौ रक्षक दल ने उनकी बात को अनसुना कर उनके साथ मार-पीट करने लगे. पिटाई के कारण दो दलित व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो गए है और अन्य दो लोगों को भी गहरी चोटें आयी. गाय के मालिक ने दलितों का समर्थन किया और दलितों को अस्पताल में एडमिट भी करवाया है. दलितों का कहना है कि हम लोग तो मरी हुई गाय उठाने गए थे, अगर हम लोग गाय नहीं उठाते तो वह वहीं पड़े-पड़े सड़ जाती क्योंकि गांव का कोई भी व्यक्ति दलितों के बिना मरी गाय को हाथ नहीं लगाता. एक अन्य दलित ने कहा कि वैसे तो गाय सड़कों पर कुछ भी खाती रहेगी तब यह गौरक्षक दल उनकों खाना नहीं देते और न ही देखभाल करते हैं, जब हम मरी गाय उठाने जाते हैं तो मारने लगते हैं.

अपनी जाति से कुछ व्यक्तिगत सवाल

मैं दलित नहीं हूं, लेकिन मैं एक ‘बेहतरीन जाति’ की भी नहीं हूं इसका एहसास मुझे बचपन से ही था. मेरा बचपन (नब्बे का दशक) एक कोलियरी-टाउन सिंगरौली की चीप हाउसिंग कॉलोनी में बीता जहां मेरे पिता सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी करते थे. बैरक-नुमा यह कॉलोनी सिंगरौली के आख़िरी छोर पर है, जिसे ‘नीचे कॉलोनी’ भी कहा जाता है. यहां कोलियरी के स्वीपर, सिक्यूरिटी गार्ड, ड्राइवर आदि को रहने के लिए एक कमरे का सरकारी क्वार्टर दिया गया था, जिसमे शुरूआती दिनों में टॉयलेट-बाथरूम की सुविधा नहीं थी. तब शौच आदि के लिए हम पीछे की ओर खाली मैदान जाया करते थे. पिता की सरकारी नौकरी की वजह से मुझे केंद्रीय विद्यालय में दाखिला मिल गया था जहां सिंगरौली के ‘ऊपर’ कॉलोनी के लड़के-लड़कियां भी पढ़ते थे. अक्सर मेरी सहेलियां कहा करती थी कि तुम्हारा घर ‘नीचे कॉलोनी’ में है, वहां जाने से मम्मी डांटती है. ऊपर कॉलोनी की सहेलियों के घर जाने पर एहसास-ए-कमतरी हो जाती थी. कौन किस जाति का है इसको लेकर कुछ भी दबा-छिपा नहीं था. मेरी सवर्ण सहेलियों की माताएं कुछ कम-ज्यादा लेकिन साक्षर थीं. उनके पास ज्यादा सलीके वाले कपड़े थे. उन्हें ठीक-ठाक हिन्दी आती थी. मेरी मां बिलकुल निरक्षर थी. उनको ठेठ भोजपुरी के अलावा कुछ नहीं आता था. मुझे एक प्रकार का एहसास था कि इन सभी बातों का जाति से कुछ ना कुछ लेना-देना तो ज़रूर है. जाति को लेकर एक राजनीतिक समझ पिता की वजह से विकसित हुई. सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी से पहले वो 15 साल फ़ौज में रहे थे. सन 1971 के भारत-पाक लड़ाई में बिहार-उत्तर प्रदेश के तमाम दलित-बहुजन एवं अन्य गरीब युवकों को फौज़ में भर्ती होने का अवसर मिला. लड़ाई ख़तम होने के बाद वहां पढ़ाई-लिखाई के अवसर भी मिले. मुझे ठीक-ठीक तो मालूम नहीं लेकिन मेरे पिता के राजनीतिक चेतना की नींव शायद वहीं पड़ी. और शायद बिहार में हो रहे राजनीतिक बदलावों जैसे राष्ट्रीय जनता दल और लालू यादव के उदय ने उनके विचारों को और मजबूत किया. उनके मुंह से अक्सर मैंने ‘ब्राह्मणवाद’ शब्द सुना था. उनके दोस्तों से होने वाली चर्चाओं में मैंने ‘जातिवादी’, ‘भेदभाव’ जैसे शब्द सुन रखे थे. इसके अलावा रोज़मर्रा के जीवन में होने वाली कुछ और घटनाओं ने इस समझ को गहरा किया. जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ रही थी; गणित और भौतिकी का ट्यूशन पढ़ने जाया करती थी. मेरे शिक्षक अक्सर सबके सामने मेरी तारीफ़ किया करते थे क्योंकि मैं दसवीं में अव्वल आई थी. शिक्षक के पिता ने मुझसे पूछा कि तुम कौन जाति कि हो, मैंने बता दिया. वो मानने को तैयार नहीं थे कि अहीर की लड़की दसवीं पास हो गई. उन्होंने कहा कि तुम झूठ बोल रही हो, तुम अहीर नहीं कायस्थ हो. अहीर लोग कहां अपनी लड़कियों को दसवीं तक पढ़ाते हैं. हालांकि मुझे मालूम था कि उनका observation  सही है कि अहीर लोग अपनी लड़कियों को नहीं पढ़ाते. पूरे खानदान ही नहीं बल्कि अपने गांव कि मैं एकमात्र लड़की हूं जिसको पढ़ने का मौका मिला है. इन्हीं दिनों मेरे पिता मुझे एक स्थानीय श्रीकृष्ण समिति सम्मेलन (यादव सम्मलेन) में लेकर गए थे. चूंकि मैं स्कूल में भाषण प्रतियोगिता आदि में हिस्सा लिया करती थी, मेरे पिता ने मुझे मंच से कुछ बोलने को उकसाया. उनकी बड़ी लालसा रहती थी कि समाज उनकी तारीफ़ करे कि उन्होंने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया. मैंने भी भाषण प्रतियोगिता समझ कर कुछ-कुछ बोल दिया, जिसका मुझे एक शब्द भी याद नहीं. वहां उपस्थित लोग भी इस बात से संतुष्ट हो गए कि एक लड़की बड़ा अच्छा बोली, वो लड़की क्या बोल रही है इस बात से किसी को कोई लेना-देना नहीं था. बल्कि मुझे भी उस उम्र में कुछ लेना-देना नहीं था. मेरा मकसद भी सिर्फ ‘भाषण-कला’ के लिए वाहा-वाही लूटना था. महत्वपूर्ण होने की लालसा थी. मेरे पास खुद की उपयोगिता साबित करने का इससे अच्छा अवसर नहीं था, क्योंकि हमें ऐतिहासिक रूप से non-meritorious समझा जाता था. मेरी मां जैसा नहीं बनाना था मुझे, जिसे गंवार महिला की संज्ञा के अलावा कुछ और हासिल नहीं हुआ. मैं इस गंवार-देहाती दुनिया से बाहर निकलने को बेचैन थी. धीरे-धीरे ये समझ बनी की अहीर समाज खुद को तरह-तरह से बेहतर साबित करने में लगा हुआ है. इनमे से एक तरीका ‘कृष्ण’ नामक एक किरदार को अपनी जाति का साबित करना भी शामिल था और गोवर्धन पूजा व कृष्ण समिति सम्मलेन के ज़रिए समाज के लोगों को जोड़ना था. बचपन और किशोर उम्र में ये सब एक मेला सा लगता था लेकिन बाद में खटकने लगा. जब मैंने उच्च शिक्षा की पढ़ाई के फ़ैसले खुद लेने चाहे, अपने लिए साथी चुनने की आज़ादी चाही और भरपूर विरोध झेला तब जाकर समझ आया कि ये यादव सम्मलेन, गोवर्धन पूजा आदि मेरे काम के नहीं हैं. बार-बार ये सवाल खटकने लगा कि अहीर महिलाओं के लिए इन सम्मेलनों का क्या औचित्य है? इन सम्मेलनों में इनकी क्या भूमिका है? सिंगरौली में हुए उस यादव सम्मलेन में मैं performance देने वाली बालिका थी, लोग सिर्फ इस बात से संतुष्ट थे कि ‘फलना यादव’ ने अपनी लड़की को पढ़ाया-लिखाया, लेकिन लड़की कहीं चुनौती न बन जाये इसके लिए एहतियात बरतने की समझाइश भी मिलती रही. और अपवाद के लिए हर समिति या सम्मलेन में जगह होती है. उसका एक मनोरंजक पक्ष होता है. अगर यह अपवाद न रहे है और यादव सम्मलेन के मंचों पर महिलाओं का कब्ज़ा हो जाए तो क्या होगा? लड़कियां सिर्फ पिताओं के संतुष्टि के मुताबिक पढ़ाई का रास्ता न चुनकर अलग सपने देखने लगें तो क्या होगा? अगर अहीर लड़कियां अंतरजातीय विवाह कर लें और अपनी जाति के बच्चे ना पैदा करके संख्याबल में इजाफ़ा ना करें तो क्या होगा? संख्या बल यादव जाति का सबसे मजबूत पक्ष माना जाता है. यादव जाति के लिए संख्या बल कि राजनीतिक महत्ता पर इस आलेख में चर्चा करने से पहले एक विराम लेकर, कुछ और विवरण देना चाहूंगी. मेरे पिता जो पहली पीढ़ी के पुरुष साक्षर और मैट्रिक पास व्यक्ति थे उनके लिए बेटी की पढ़ाई-लिखाई महत्वपूर्ण थी लेकिन एक सीमा में. बेटी ऐसी पढ़ाई पढ़े कि समाज में ही उसकी शादी हो पाए. उन्होंने अपने परिवार, गांव, समाज की गालियां खाकर अपनी बेटी को पढ़ाया-लिखाया. मैं उनके प्रगतिशीलता की बहुत बड़ी प्रशंसक हूं क्योंकि उनके गांव के किसी व्यक्ति ने अपनी बेटी के लिए इतना सपना भी नहीं देखा था. खुद उनके पिता यानि मेरे दादा उनको जबरदस्त गालियां दिया करते थे क्योंकि वो आगे पढ़ना चाहते थे. मेरे निरक्षर और भूमिहीन दादा चाहते थे कि उनका लड़का मजदूरी करे और ये पढ़ाई-लिखाई के फालतू सपने छोड़ दे. ऐसी पृष्ठभूमि से आए एक व्यक्ति का अपनी लड़की को पढ़ाने का सपना देखना और उसके लिए भरपूर मेहनत करके सुविधा मुहैया कराना तारीफ़-ए-काबिल है. ख़ास तौर पे ऐसे भोजपुरी समाज में जहां आज भी पिछड़ी जातियों के मर्द जब कमाने के लिए शहर जाते हैं तो औरतों और बच्चों को गांव में घर ‘अगोरने’ के लिए छोड़ जाते हैं. यह मामला केवल मजदूरी करने वाले बिहारी मर्दों का नहीं है. जहां तक मैंने देखा है कि सिंगरौली में बिहार के क्लास फोर कर्मचारियों में कुछेक ही अपने बीवी-बच्चों को अपने साथ रख कर पढ़ाने-लिखाने की ज़हमत उठाते थे. उनका उद्देश्य पैसा जुटाकर गांव में ज़मीन खरीदना होता है. ऐसे समाज का कोई व्यक्ति अगर गांव में ज़मीन खरीदने के अपने सपने के साथ समझौता करता है, अपने बच्चों ख़ासकर बेटी पढ़ाने के लिए तो यह acknowledge किया जाना चाहिए. ख़ास तौर पे तब जब पिछली पीढ़ी तक आप भूमिहीन थे और इस पीढ़ी के आपके साथी-समाजी व परिजन लोग बाहर से कमाए पैसों को बच्चों कि पढ़ाई लिखाई के बजाए गांव में खेत खरीदने में लगा रहे हैं. गांव से निकल कर ‘शहर’ या क़स्बे पहुंचे ये पहली पीढ़ी के पुरूष जिनके पास सरकारी नौकरी और थोड़ी फुर्सत है अपनी राजनीतिक चेतना खंगालने लगते हैं. जाहिर है कि जातीय हीनता को जातीय महात्म्य में तब्दील करने वाला कोई संगठन उन्हें ज्यादा आकर्षक लगेगा. अहीर समाज के पुरूषों के लिए यादव सम्मलेन एक ऐसा विकल्प रहा है. अहीर समाज की एक हास्यास्पद छवि रही है. अहीर जाति का नाम लेते ही लोगों को गाय-भैंस सूझने लगता है और हंसी छूटने लगती है. अहीर लोग तथाकथित सवर्ण, सभ्य और पढ़े लिखे समाज में चुटकुले की हैसियत रखते हैं. संभवतः इस संस्कृति-विहीन छवि को बदलने के प्रयास में खुद को क्षत्रिय साबित करने की होड़ में अहीर भी शामिल हो गए ताकि जाति भी ना जाए और छवि भी सुधर जाए. बहरहाल, जब मैंने अहीर सम्मलेन के इतिहास यानि इसकी कब और कैसे शुरुआत हुई खोजना शुरू किया तो Christopher Jafferlot की किताब – India’s Silent Revolution: The Rise of the Low Castes in North Indian Politics हाथ लगी. हालांकि मुझे इस विषय में और विस्तार से पढ़ने की ज़रूरत है. इस किताब के मुताबिक पहली अहीर/यादव जातीय महासभा जिसे गोप जातीय महासभा नाम दिया गया था, बिहार में 1912 में आयोजित की गयी थी. इसका प्राथमिक उद्देश्य आर्थिक और सामाजिक शोषण के खिलाफ ज़मीदारों से लोहा लेना था. गोप जाति के लोगों को ज़मींदारों के घर बेगारी करनी पड़ती थी. ज़मींदार उनके उत्पाद भी बाज़ार के मुक़ाबले सस्ते दामों पर खरीदते थे. अहीर महासभा ने उनकी मुखालफ़त के लिए अहीरों को क्षत्रिय कहना शुरू किया और ब्राह्मणवादी सिंबल जनेऊ पहनने को कहा. इसकी वजह से अहीर जाति के लोगों को हिंसा और बहिष्कार का सामना करना पड़ा. और इसके साथ ही अहीर जाति के इतिहास को brahmanise और aryanise करने की कोशिश शुरू हुयी. यह caste hierarchy के भीतर छवि निर्माण क्रियाकलाप (image building activity) थी जो ब्राह्मण की सत्ता को चुनौती तो देती थी मगर पूरी तरह से ख़ारिज नहीं करती थी. यह image building activity आज भी जारी है. इन्टरनेट पर तमाम यादव महासभाओं के वेबसाइट मिलेंगे. जिसमें निश्चित रूप से कृष्ण की दैवीय छवि होती है और ‘प्रमुख यादव पुरुषों’ की सूची और उनकी उपलब्धियों का बखान होता है. कुल मिलाके यह कोशिश दिखाई पड़ती है कि एतिहासिक रूप से पिछड़ी और गंवार जाति ने काफ़ी तरक्की कर ली है. अहीर सम्मेलनों में महिलाओं की भूमिका के बारे में भी कुछ विशेष पढ़ने को नहीं मिलता है. इक्का-दुक्का महिलाएं दिखाई देंगी जिनकी पारंपरिक और पूरक भूमिका दर्शायी जाती है. अब आते हैं संख्याबल के मुद्दे पर. जाहिर है कि अहीर जाति के राजनितिक उभार का आधार इस जाति का बहुसंख्यक होना है. यहां तक कि यूपी-बिहार को ‘यादव प्रदेश’ की संज्ञा दी जाती है क्योंकि यादव जनसंख्या का एक बड़ा प्रतिशत इस भगौलिक इलाके में रहता है. जनसंख्या बल को कायम रखने की ज़िम्मेदारी जाति की महिलाओं के ऊपर है. यहां मैं अपना उदहारण लेकर आना चाहूंगी. जब मैंने एक अन्य प्रदेश के गैर जाति और धर्म के युवक से विवाह किया तो यह कहा गया कि तुम पढ़ी-लिखी होकर भी राज्य और जाति के काम नहीं आई. हमने तुम्हें पढ़ाया और तुमने हमारे साथ धोखा किया. मेरा सवाल यह था कि मैंने भोजपुरी समाज पर PhD लिखी है, क्या वह अपने राज्य और समाज के काम आना नहीं होता? जाति के काम आना यानि लिखाई-पढाई के साथ-साथ जाति के पुरूषों की सेवा करना और उनके बच्चे पैदा करके संख्याबल बढ़ाना. मेरा दूसरा तर्क ये था कि यह युवक जिससे मैंने विवाह किया है, वह हमारे जैसा ही है, यानि बहुजन है. लेकिन यह बात जाति के लोगों के गले नहीं उतर रही. यादव सम्मेलनों से और पुरुषों से मेरा यह सवाल है कि अगर वे सामाजिक न्याय के पक्षधर हैं तो व्यापक बहुजनवाद से दूर क्यों हैं? वे केवल ‘राजनीतिक गठजोड़’ तक ही सीमित क्यों रहना चाहते हैं. क्या केवल ब्राह्मणों का विरोध और अपनी जाति के पुरूषों की स्थिति मजबूत करके आप बहुजनवादी हो सकते हैं? आप गूगल करेंगे तो पता चलेगा कि राजस्थान यादव महासभा कितनी तत्परता से ‘जातीय उत्थान’ का काम कर रही है. मेरा यह सवाल है कि विजातीय शादी करने वाली दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा भावना यादव जो मूलतः राजस्थान की है, उसके परिजनों ने उसकी हत्या (तथाकथित ‘honour killing’) कर दी.  तब राजस्थान यादव महासभा कहां थी? क्या भावना यादव उनके लिए ‘यादव’ नहीं रही क्योंकि उसने विजातीय विवाह कर लिया? जग जाहिर है कि पितृसत्तामक ढांचा हर संगठन, हर सभा, हर जाति में मौजूद है लेकिन यहां केवल अहीर समाज के पितृसत्तामक ढांचे को उजागर करना मेरा उद्देश्य नहीं हैं, और ना हीं मैं ये चाहती हूं कि सवर्ण अकादमिक अपने dominant caste theory की और पुष्टि कर लें. मेरा उद्देश्य अपनी जाति से कुछ सवाल करना है. • अहीर जाति के लोग, अपने समान अन्य पिछड़ी जातियों और अपने से नीचे समझी जाने वाली जातियों के साथ किस प्रकार का सामाजिक और राजनीतिक संबंध बनाना चाहते हैं? जैसा कि डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर ने मराठा समुदाय को सुझाव दिया था कि वे सवर्ण जातियों से हाथ मिलाना चाहते हैं या अपने से नीचे की जातियों के साथ मिलकर ब्राह्मणवाद ख़तम करना चाहते हैं (देखें: Dr. Babasaheb Ambedkar Writings and Speeches, Vol. 17, Part 2, pp: 81-82)? अहीर समाज को यह तय करना होगा कि ब्राह्मणवाद के फ्रेमवर्क में खुद को अपग्रेड करने की कोशिश के बजाए, इसका खात्मा करने के लिए दलित-बहुजन आन्दोलन ने जो राह सुझाई है, उस पर चलने की कोशिश करेंगे क्या? • और दूसरा सवाल यह है कि अहीर पुरूष, अहीर महिलाओं के साथ किस प्रकार का ‘राजनीतिक’ संबंध बनाना चाहते हैं. यहां राजनीतिक शब्द एक ख़ास उद्देश्य से इस्तेमाल किया गया है. अहीर पुरुषों और महिलाओं के पारिवारिक और सामाजिक संबंध तो जातीय बंधनों के कारण हैं ही लेकिन क्या वे जातीय सीमाओं से उठ कर मां-बहन-बेटी वाले संबंध के बजाए बहुजन और सामाजिक न्याय की राजनीति के साथी या मित्र बनना चाहेंगे? (साभारः राउंड टेबल इंडिया) लेखिका ने टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई से ‘भोजपुरी लोकगीतों और महिलाओं’ पर पीएचडी की है. जेंडर स्टडीज़ की शिक्षक हैं और ‘नई दुनिया’ मध्यप्रदेश व ‘लोकमत’ महाराष्ट्र में पत्रकार रह चुकी हैं.

ट्विटर के भद्रलोक को अनुप्रिया पटेल रास न आयी

अनुप्रिया जिस दिन एनडीए सरकार में मंत्री बनी, उसी दिन से (पहले कभी नहीं) उनके विवादित ट्वीट वायरल हो गये. और देखते-देखते वे  दंगाई हो गयी. उनके ट्वीट देश के जाने-माने पुरोधा लोगों ने रिट्वीट किया. अनुप्रिया उच्च वर्ग की ठसक और टेक्नीकल दिव्यांगता का शिकार हो गयी. अनुप्रिया का बैकग्राउंड देश के बाबू साहेब वालो के जैसा नहीं है. उनके पिता सोनेलाल पटेल ने कांशीराम के साथ बसपा में काम किया था, फिर उन्होंने अपना दल की स्थापना की. जिन लोगों ने भी सोनेलालजी का राजनैतिक जीवन देखा है वे बता सकते है कि वे ब्राह्मणवाद के घोर विरोधी और बौद्ध धर्म के नजदीक थे. 2009 में सोनेलाल पटेल के निधन होने के बाद उनकी पत्नी दल की अध्यक्ष बनी और अनुप्रिया पटेल राष्ट्रीय महासचिव बनी. अनुप्रिया पटेल को पहली राजनातिक सफलता 2012 में मिली; जब वे बनारस की रोहनिया विधानसभा से निर्वाचित हुई. उत्तर प्रदेश में 2013 में त्रि-स्तरीय आरक्षण को लेकर एक बड़ा आन्दोलन हुआ और ये मुख्यत: दलित-पिछड़े वर्ग के युवाओं का आन्दोलन था. प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्र प्रारंभिक परीक्षा और मुख्य परीक्षा से लेकर साक्षात्कार तक में आरक्षण की मांग कर रहे थे. जहां तक मुझे याद है इस आन्दोलन का खुला समर्थन अपना दल की अनुप्रिया पटेल ने किया था. आन्दोलन के समर्थन में कई रैलियों में अनुप्रिया पटेल ने संबोधित किया था और मंडल कमीशन की सभी सिफ़ारिशो को लागू करने की मांग का समर्थन किया था. उस आन्दोलन का जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और सांसद शरद यादव, उदितराज (तब इन्डियन जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष थे), भाजपा के सांसद रमाकांत यादव ने समर्थन किया था. जबकि समाजवादी पार्टी की सरकार ने केवल आन्दोलन की मांग को ख़ारिज किया बल्कि आन्दोलन को पुलिस के बल से कुचल दिया. बसपा का भी रुख ज्यादा सहयोगात्मक नहीं रहा था. जहां तक अनुप्रिया पटेल के राजनैतिक जीवन का सवाल है उस कभी भी साम्प्रदायिकता या हिंदुत्व की राजनीति करते नहीं देखा गया. 2014 में उनका भाजपा के साथ राजनैतिक तालमेल हुआ और उनकी पार्टी को दो लोकसभा सीटों पर जीत मिली. ये अपना दल की अभी तक की सबसे बड़ी राजनैतिक सफलता है. भाजपा ने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को देखते हुये नीतीश कुमार की उत्तर प्रदेश में बढती दखल को रोकने के लिये और कुर्मी वोट को साधने के लिये अनुप्रिया पटेल को केन्द्रीय मंत्री बना दिया. भाजपा में कद्दावर कुर्मी नेता और केन्द्रीय मंत्री संतोष गंगवार और ओमप्रकाश सिंह को दर-किनार करके अनुप्रिया पटेल पर दांव लगाया है. लेकिन अनुप्रिया का केन्द्रीय मंत्री बनना देश के भद्रलोक को रास नहीं आया और नकली ट्विटर हैंडल से किये गये ट्वीट को वायरल किया गया और अनुप्रिया पटेल को ट्रोल किया गया. खबर है कि रवि शुक्ला अनुप्रिया पटेल के ऑफिस में आईटी सेल का काम देखता था लेकिन एक साल पहले उनको निकाल दिया गया था और ये सारे ट्वीट रवि शुक्ला ने अनुप्रिया पटेल के नाम से किये हैं. अभी तक भाजपा समर्थक जिन्हें भद्रलोक (तथाकथित लिबरल-सेकुलर-प्रगतिशील) ने भक्त की संज्ञा दी है उन पर ट्रोल करने के आरोप लगाये जाते थे और आरोप लगाने वाले भद्रलोक वर्ग वाले होते थे. इस बार अनुप्रिया को ट्रोल करने वाले यही भद्रलोक वाले थे. ये भी हो सकता है कि भद्रलोक को अनुप्रिया की पिछली राजनैतिक यात्रा के बारे में पता नहीं चल सका हो, और चूंकि उनके नकली ट्विटर हैंडल पर कई सारे केन्द्रीय मंत्रियों के बधाई वाले ट्वीट आएं इसलिए भी अनुप्रिया उनके निशाने पर आ गयी. हालांकि अनुप्रिया पटेल ने पुलिस में अपने नाम से नकली ट्विटर अकाउंट होने की शिकायत की है और मीडिया को ये बताया है कि उनका अभी तक ट्विटर में अकाउंट ही नहीं था. अब जांच होने के बाद ये पता चलेगा कि मामला क्या था लेकिन अनुप्रिया पटेल के ट्विटर प्रकरण से ये जाहिर हो गया कि ट्विटर में ट्रोल करने के दो गिरोह है और बिना जाने-समझे भद्रलोक वाले भी समय-समय पर ट्रोल गिरोह का रूप अख्तियार कर लेते है. – अनूप पटेल, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज में शोधार्थी है.