प्रो. जीएन साईबाबा को हैदराबाद में अंतिम विदाई, एक्टिविस्ट और बुद्धिजीवियों ने किया याद

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हैदराबाद में क्रांतिकारी साथी प्रो. जीएन साईंबाबा को अंतिम विदाई देते साथी दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफ़ेसर जीएन साईबाबा का को 14 अक्टूबर 2024 को देश भर से पहुंचे एक्टिविस्टों और उनके चाहने वालें के बीच दी गई। इसके बाद उनकी इच्छा के मुताबिक उनके शरीर को अस्पताल को दान दे दिया गया। साईंबाबा का बीते शनिवार 12 अक्टूबर की शाम को हैदराबाद के निज़ाम इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज (निम्स) अस्पताल में निधन हो गया। 57 साल के साईबाबा का गॉल ब्लैडर का ऑपरेशन हुआ था लेकिन इसके बाद उन्हें दिक्कत होने लगी और उनकी जान नहीं बच सकी।

दिल्ली युनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर साईंबाबा शारीरिक तौर पर 90 फीसदी तक विकलांग थे। साल 2014 में वह तब चर्चा में आए जब उनको माओवादी संगठनों से संबंध रखने के आरोप में गैरक़ानूनी गतिविधियां रोकथाम क़ानून (यूएपीए) के तहत साल गिरफ़्तार किया गया था। उन्हें अदालत ने उम्रक़ैद की सज़ा दी थी। उन्हें सात महीने पहले ही मार्च में उनको रिहा कर दिया था। तब वह नागपुर सेंट्रल जेल में बंद थे।

उनकी मृत्यु के बाद उन्हें देश भर के सोशल एक्टिविस्ट विदाई देते हुए याद कर रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक सिद्धार्थ रामू जो साईंबाबा को अंतिम विदाई देने के लिए 14 अक्तूबर को खुद हैदराबाद में मौजूद थे, ने अपने इस क्रांतिकारी साथी को श्रद्धांजलि देते हुए जीएन साईबाबा को 21वीं सदी का भारत का महान शहीद कहा। उन्होंने लिखा-

जब इतिहास 21 सदी के भारत का मूल्यांकन करेगा, तो जीएन साईबाबा इतिहास के उन महान शहीदों में स्थान पाएंगे, जो भारतीय राजसत्ता के खिलाफ आदिवासियों, दलितों, मेहनतकशों, किसानों के पक्ष में खड़े होकर आजीवन संघर्ष करते रहे। आखिर भारतीय राजसत्ता ने उन्हें मौत के मुंह में ढ़केल दिया। भूमिहीन श्रमिक और दलित परिवार में जन्मा यह महान क्रांतिकारी शारीरिक तौर विकलांग होने पर भारतीय राजसत्ता के बड़ी चुनौती था। ऐतिहासिक चुनौती।

दिल्ली युनिवर्सिटी में ही एडहॉक पर एक दशक से ज्यादा समय तक असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर पढ़ाने वाले डॉ. लक्ष्मण यादव ने भी साईंबाबा को याद किया है। उन्होंने फेसबुक पर लिखा-

दिल्ली विश्वविद्यालय के पिछले डेढ़ दो दशक के अपने करियर में मैने जिन प्रोफेसरों की सबसे ज्यादा चर्चा सुनी, उनमें से एक शानदार प्रोफेसर थे जी.एन. साईबाबा। वह हमें अलविदा कह गए। प्रो. साईबाबा एक शानदार प्रोफेसर के साथ-साथ एक सोशल एक्टिविस्ट भी थे। वैसे तो वे शारीरिक रूप से 90% विकलांग थे, मगर देश के हुक्मरान उनसे इतना डरते थे कि उन्हें जेल में रखे हुए थे। जी हां, एक प्रोफेसर जेल में रहा। वह उन आरोपों की सजा काट रहे थे, जो कायदे से सिद्ध भी नहीं हो सके। आखिरी दिनों में भी उनके तेवर बरकरार थे। रीढ़ विहीन, चापलूस और दरबारी प्रोफेसरों की भीड़ के बीच एक रीढ़ वाला प्रोफेसर विदा हो गया। अलविदा प्रोफेसर!

वहीं वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने भी जी.एन. साईबाबा को याद किया। उन्होंने लिखा कि, प्रो. जी.एन साईंबाबा से कभी मिलना न हो सका, लेकिन पिछले कुछ सालों से उनके बारे में अक्सर कुछ न कुछ सुनने को मिलता रहा.. अद्भुत व्यक्तित्व, शरीर से लाचार पर चमत्कृत करने वाली प्रखरता! दमन और यातना का भयावह सिलसिला पर कैसा अटूट संकल्प, कितना मजबूत विचार और कैसी फौलादी प्रतिबद्घता! लगातार यातना सहने के कारण पहले से लाचार शरीर और बेहाल हुआ। पर विचार और प्रतिबद्घता पर आंच नहीं! आपके संघर्ष और शहादत को सलाम।

BBC को दिये जीएन साईंबाबा के इस इंटरव्यू को भी जरूर सुना जाना चाहिए  

14 अक्टूबर, जब 1956 में बाबासाहेब ने अपनाया था बौद्ध धर्म

14 अक्टूबर 1956 को नागपुर (दीक्षा भूमि) में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेते बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर और सविता ताई आम्बेडकरभारत के इतिहास में 14 अक्टूबर 1956 का दिन एक क्रांति के रूप में दर्ज है। इस दिन भारत में वह क्रांति हुई, जिसके बारे में किसी ने भी सोचा नहीं होगा। अछूत समाज पर हिन्दू समाज के लगातार अत्याचार और इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं देखते हुए दुनिया के श्रेष्ठ विद्वानों में से एक बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 (अशोक विजयादशमी) को एक बड़ा फैसला किया। उन्होंने प्राचीन मूलनिवासी नागवंशियों की भूमि नागपुर की दीक्षाभूमि के मैदान में 5 लाख से अधिक महिलाओं और पुरुषों के साथ ब्राह्मणवादी (तथाकथित हिन्दू) धर्म को छोड़कर मानवतावादी, समतावादी और लोकतांत्रिक मूल्यों से ओत-प्रोत बौद्ध धम्म को अंगीकार किया था।

बौद्ध धम्म की दीक्षा लेते समय बाबा साहेब डॉ. आम्बेडकर ने पहले खुद और फिर सभी को इस दौरान 22 प्रतिज्ञाएं लीं थीं, जिसके तहत बौद्ध धर्म को हिन्दू धर्म से बिल्कुल अलग करने की बात कही गई थी। साथ ही हिन्दू धर्म के संकेतों और देवताओं को नाकार दिया गया था। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जिस बौद्ध धम्म के कारण महान सम्राट अशोक के शासन काल में भारत विश्व गुरु बना था, उस बौद्ध धम्म को बाबा साहेब डॉ. आम्बेडकर ने स्वीकार कर न सिर्फ पुनर्जीवित किया, बल्कि लोकतांत्रिक भारत के नवनिर्माण के लिए उसके विस्तार को आवश्यक बताया।

इस दौरान उन्होंने विषमतावादी, जातिवादी, अमानवीय एवं अवैज्ञानिक ब्राह्मणवादी-हिन्दू धर्म को छोड़कर 13 अक्टूबर, 1935 ई. के येवला की सभा में लिए गए अपने उस संकल्प को पूरा किया था, जिसमें उन्होंने घोषणा की थी कि- “मैं एक हिन्दू के रूप में पैदा हुआ, यह मेरे वश में नहीं था। लेकिन मैं एक हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं, यह मेरे वश में है।”

बहुजन समाज के लोगों के चतुर्दिक विकास के लिए उन्होंने वैज्ञानिक एवं समतामूलक विचारों पर आधारित बौद्ध धम्म को ग्रहण करने एवं भारत में सामाजिक- सांस्कृतिक परिवर्तन करने का आह्वान किया था। आधुनिक भारत के विकास के लिए उनका यह कदम महान क्रांतिकारी और परिवर्तनकारी था, जिसपर आज हमें चलने के लिए संकल्प लेने की जरूरत है। नमो बुद्धाय! जय सम्राट अशोक!! जय भीम!!!

जानिये असोक धम्मविजय दशमी का पूरा इतिहास

सम्राट असोकसम्राट असोक ने धरती पर समता और शांति का साम्राज्य स्थापित करने हेतु बौद्ध धम्म को अपना कर तलवार के विकल्प के रूप में धम्म को चुना। उन्होंने ईसा पूर्व 266 में विधिवत आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी के दिन बौद्ध धम्म ग्रहण किया था । सम्राट असोक ने बौद्ध धम्म में दीक्षित होने और शस्त्र त्याग करने की ऐतिहासिक घटना को धम्म का सबसे बड़ा विजय माना था। ‘प्रियदर्शी असोक अनुसार शस्त्रों की विजय सबसे बड़ी विजय नहीं है, सबसे बड़ी विजय धम्म की विजय है। यदि धम्म के सदाचार और भाईचारा सत्ता की बुनियाद को मजबूत करता है तो फिर शस्त्र की क्या आवश्यकता?’ चूंकि असोक ने युद्ध (शस्त्र) द्वारा राज्य विजय का मार्ग छोड़कर धम्म द्वारा विजय का संकल्प लिया था इसीलिए उनके द्वारा बौद्ध धम्म ग्रहण करने की तिथि को ‘धम्म-विजय दिवस’ कहा जाता है। उस दिन हिन्दी तिथि के अनुसार आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी पड़ता था इसीलिए इसे ‘असोक विजयादशमी’ कहा जाता है। अतः सम्राट असोक के बौद्ध धम्म में धर्मान्तरण की तिथि को असोक धम्मविजय दशमी कहा जाता है जो आगे चल कर एक महोत्सव के रूप में में स्थापित हो गया। आश्विन शुक्ल पक्ष अष्टमी को सम्राट असोक विशाल बौद्ध-जुलूस निकालते थे और उसमें में भाग लेते थे। असोक द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण करने के 2222 सौ साल तथा महामानव बुद्ध के जन्म के 2500 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में बाबासाहेब डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को अपने पांच लाख से ज्यादा अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध धम्म की दीक्षा ली थी। यह दिन भी आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी था। बाबासाहेब ने बौद्ध धम्म ग्रहण कर अपने पूर्वजों की मंगलकारी श्रमण परम्परा की जड़ों में पानी डाल कर उसे पुष्पित और पल्लवित कर दिया।

सम्राट असोक (ईसा पूर्व 304 से ईसा पूर्व 232) विश्वप्रसिद्ध एवं शक्तिशाली भारतीय मौर्य राजवंश के महान सम्राट थे। असोक बौद्ध धर्म के सबसे प्रतापी राजा थे। सम्राट असोक का पूरा नाम देवानांप्रिय असोक था। उनका राजकाल ईसा पूर्व सम्राट अशोक269 से, 232 प्राचीन भारत में था। मौर्य राजवंश के चक्रवर्ती सम्राट असोक राज्य का मौर्य साम्राज्य उत्तर में हिन्दुकुश, तक्षशिला की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी, सुवर्णगिरी पहाड़ी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बांग्लादेश, पाटलीपुत्र से पश्चिम में अफगानिस्तान, ईरान, बलूचिस्तान तक पहुँच गया था। सम्राट असोक का साम्राज्य आज का सम्पूर्ण भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यान्मार के अधिकांश भूभाग पर था, यह विशाल साम्राज्य उस समय तक से आज तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य रहा है। चक्रवर्ती सम्राट असोक विश्व के सभी महान एवं शक्तिशाली सम्राटों एवं राजाओं की पंक्तियों में हमेशा शीर्ष स्थान पर ही रहे हैं। सम्राट असोक ही भारत के सबसे शक्तिशाली एवं महान सम्राट हैं। सम्राट असोक को ‘चक्रवर्ती सम्राट असोक’ कहा जाता है, जिसका अर्थ है – ‘सम्राटों के सम्राट’ और यह स्थान भारत में केवल सम्राट असोक को मिला है। सम्राट असोक को अपने विस्तृत साम्राज्य से बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भी जाना जाता है।

 सम्राट असोक के नाम के साथ संसार भर के इतिहासकार ‘महान’ शब्द लगाते हैं। सम्राट असोक का राज चिन्ह ‘असोक चक्र’ भारतीय अपने ध्वज में लगाते हैं एवं सम्राट असोक का राज चिन्ह ‘चारमुखी शेर’ को भारतीय ‘राष्ट्रीय प्रतीक’ मानकर सरकार चलाया जाता हैं और साथ ही ‘सत्यमेव जयते’ को भी अपनाया है। भारत देश में सेना का सबसे बड़ा युद्ध सम्मान, सम्राट असोक के नाम पर, ‘असोक चक्र’ दिया जाता है। सम्राट असोक से पहले या बाद में कभी कोई ऐसा राजा या सम्राट नहीं हुआ जिसने ‘अखंड भारत ‘ (आज का नेपाल, बांग्लादेश, पूरा भारत, पाकिस्तान, और अफगानिस्तान) जितने बड़े भूभाग पर एक-छत्र राज किया हो।

सम्राट असोक के ही समय में ’23 विश्वविद्यालयों’ की स्थापना की गई। जिसमें तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, कंधार, आदि विश्वविद्यालय प्रमुख थे। इन्हीं विश्वविद्यालयों में विदेश से छात्र उच्च शिक्षा पाने भारत आया करते थे। सम्राट असोक के शासन काल को विश्व के बुद्धिजीवी और इतिहासकार, भारतीय इतिहास का सबसे ‘स्वर्णिम काल’ मानते हैं। सम्राट असोक के शासन काल में भारत ‘विश्व गुरु’ था। ‘सोने की चिड़िया ́था। जनता खुशहाल और भेदभाव-रहित थी। उनके शासन काल में, सबसे प्रख्यात महामार्ग ‘ग्रेड ट्रंक रोड’ जैसे कई हाईवे बने। 2,000 किलोमीटर लंबी पूरी ‘सड़क’ पर दोनों ओर पेड़ लगाये गए। ‘सरायें’ बनायीं गईं। मानव तो मानव, पशुओं के लिए भी, प्रथम बार ‘चिकित्सा घर’ (हॉस्पिटल) खोले गए। पशुओं को मारना बंद करा दिया गया।

असोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया। असोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित साधन अपनाये-

(क) धर्मयात्राओं का प्रारम्भ, (ख) धर्म महापात्रों की नियुक्त, (ग) धर्म श्रावण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था, (घ) धर्मलिपियों का खुदवाना, (च) राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्त, (छ) दिव्य रूपों का प्रदर्शन, (ज) लोकाचारिता के कार्य, (झ) विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजना आदि।

प्रियदर्शी मौर्य सम्राट असोक के द्वारा तथागत गौतम बुद्ध व इनके धम्म को विश्व में लोकगुरू स्थापित करने का योगदान

हालांकि सम्राट असोक अपने साम्राज्य के लिए शासन प्रशासन और नीतियों के लिए बहुत ही काबिल व्यक्ति रहा परंतु साथ ही साथ में भारतवर्ष में जब हम बौद्ध धर्म के प्रसार और स्थायित्व की बात करते हैं तो सबसे पहले मौर्य सम्राट असोक का नाम स्वगर्णिम अक्षरों से लिया जाता है। दीपवंश और महावंश के अनुसार असोक अपने शासन के चौथे वर्ष ही बौद्ध धम्म में दीक्षित हो गया था। उसने 84 हजार स्तूपों का निर्माण किया। साँची के लघु स्तम्भ लेख से पता चलता है कि बौद्ध संघ में फूट डालने वाले 60,000 भिक्खुओं को संघ से निष्कासित कर दिया और उनके लिए नियम था वे श्वेत वस्त्र पहनकर किसी अयोग्य स्थान पर रहेंगे। तीसरी बौद्ध संगीति पाटलीपुत्र (पटना) में असोक द्वारा कराई गयी। इस संगीति की अध्यक्षता मोग्गिलिपुत्त तिष्य ने की थी उसके बाद ही बौद्ध धम्म के अंदर त्रिपिटक स्थापित हुआ जिसमें ( सूत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक)। सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में असोक एक मात्र ऐसा उदाहरण था कि जिसने अपने पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा का उनके भरपूर यौवन काल में राज्य एवं सुख-सम्पत्ति या वैभव से न जोड़कर राजपाट छुड़वाकर धम्मविजय एवं धम्मप्रसार के लिए संसार के कोने-कोने में भेजा। आज हम प्रमाण के साथ कह सकते हैं कि विश्व मे कई बुद्धिस्ट देश हैं तो उसमें सम्राट असोक का ही योगदान है। प्रियदर्शी सम्राट असोक ने ही भगवान बुद्ध को लोक गुरु / विश्व गुरु में स्थापित कर चुके हैं।

सम्राट असोक द्वारा प्रवर्तित कुल 33 अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिन्हें असोक ने स्तंभों, चट्टानों और गुफाओं की दीवारों में अपने 269 ईसापूर्व से 231 ईसापूर्व चलने वाले शासनकाल में खुदवाए। ये आधुनिक बंगलादेश, भारत, अफ़्गानिस्तान, पाकिस्तान और नेपाल में जगह-जगह पर मिलते हैं और बौद्ध धर्म के अस्तित्व के सबसे प्राचीन प्रमाणों में से हैं।

इन शिलालेखों के अनुसार असोक के बौद्ध धर्म फैलाने के प्रयास भूमध्य सागर के क्षेत्र तक सक्रिय थे और सम्राट मिस्र और यूनान तक की राजनैतिक परिस्थितियों से भलीभाँति परिचित थे। इनमें बौद्ध धर्म की बारीकियों पर जोर कम और मनुष्यों को आदर्श जीवन जीने की सीखें अधिक मिलती हैं। पूर्वी क्षेत्रों में यह आदेश प्राचीन मगधी भाषा में पाली भाषा के प्रयोग से लिखे गए थे। पश्चिमी क्षेत्रों के शिलालेखों में भाषा संस्कृत से मिलती-जुलती है और खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया। एक शिलालेख में यूनानी भाषा प्रयोग की गई है, जबकि एक अन्य में यूनानी और अरामाई भाषा में द्विभाषीय आदेश दर्ज है। इन शिलालेखों में सम्राट अपने आप को ‘प्रियदर्शी’ (प्राकृत में ‘पियदस्सी’ ) और देवानाम्प्रिय (यानि देवों को प्रिय, प्राकृत में ‘देवानम्पिय’) की उपाधि से बुलाते हैं।

असोक के बारे में जानने का प्रामाणिक स्रोत उनके ही लिखवाए अभिलेख हैं। ये अभिलेख शिलाओं पर कहीं स्तंभों पर और कहीं गुफाओं में लिखवाए गए हैं। असोक का शायद ही कोई अभिलेख हो, जिनमें धम्म शब्द का प्रयोग न हो। वहां दान भी धम्म दान है, यात्रा भी धम्म यात्रा है, मंगल भी धम्म मंगल है, लिपि भी धम्म लिपि है, विजय भी धम्म विजय है। असोक – राज में सत्ता के केंद्र में धम्म था । धम्म से गृह-नीति संचालित थी और धम्म से ही विदेश नीति भी संचालित थी। पड़ोसी देशों के साथ असोक ने जो मैत्री, शांति और सह-अस्तित्व की नीति अपनाई थी, उसके केंद्र में धम्म था। भारी फौज के बावजूद भी असोक ने पड़ोसी देशों में राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने की बात कभी नहीं सोची। वे धम्म विजय के हिमायती थे। इसीलिए उन्होंने पश्चिमी एशिया, उत्तरी अफ्रीका और दक्षिण- पूर्व यूरोप से लेकर दक्षिण के राज्यों तक में धम्म के सिद्धांत और कल्याणकारी कार्यक्रम फैलाए। असोक धम्म-मार्ग के राही थे । गौतम बुध के वचनों में उनकी आस्था थी । असोक के अभिलेख गौतम बुद्ध के काल से सर्वाधिक निकट हैं और शिलाओं पर अंकित होने के कारण उनमें मिलावट भी संभव नहीं है। भानु के लघु शिलालेख में असोक ने लिखवाए हैं कि बुद्ध, धम्म और संघ में मेरी आस्था है। तब बौद्ध गया का नाम संबोधि था। देवान पियेन का अर्थ है- बुद्धप्रिय । बुद्ध हों प्रिय जिसके, वह है देवान पियेन । देव यहां बुद्ध का प्रतीक है। पियदसिन का अर्थ है- प्रियदर्शी। प्रिय दिखने वाला पियदसिन है। दसिन से ही दास संबंधित है। अशोक चक्र को कर्तव्य का पहिया भी कहा जाता है. ये 24 तीलियाँ मनुष्य के 24 गुणों को दर्शाती हैं। दूसरे शब्दों में इन्हें मनुष्य के लिए बनाये गए 24 धर्म मार्ग भी कहा जा सकता है। अशोक चक्र में बताये गए सभी धर्म मार्ग किसी भी देश को उन्नति के पथ पर पहुंचा देंगे। शायद यही कारण है कि हमारे राष्ट्र ध्वज के निर्माताओं ने जब इसका अंतिम रूप फाइनल किया तो उन्होंने झंडे के बीच में चरखे को हटाकर इस अशोक चक्र को रखा था।

आइये अब अशोक चक्र में दी गयी सभी तीलियों का मतलब (चक्र के क्रमानुसार) जानते हैं-

  1. पहली तीली:- संयम (संयमित जीवन जीने की प्रेरणा देती है), 2. दूसरी तीली:- आरोग्य (निरोगी जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है), 3. तीसरी तीली:- शांति (देश में शांति व्यवस्था कायम रखने की सलाह), 4. चौथी तीली:- त्याग (देश एवं समाज के लिए त्याग की भावना का विकास), 5. पांचवीं तीली:- शील (व्यक्तिगत स्वभाव में शीलता की शिक्षा), 6. छठवीं तीली:- सेवा (देश एवं समाज की सेवा की शिक्षा), 7. सातवीं तीली:- क्षमा (मनुष्य एवं प्राणियों के प्रति क्षमा की भावना) 8. आठवीं तीली:– प्रेम (देश एवं समाज के प्रति प्रेम की भावना), 9. नौवीं तीली:- मैत्री (समाज में मैत्री की भावना), 10. दसवीं तीली:- बन्धुत्व (देश प्रेम एवं बंधुत्व को बढ़ावा देना), 11. ग्यारहवीं तीली:- संगठन (राष्ट्र की एकता और अखंडता को मजबूत रखना), 12. बारहवीं तीली:- कल्याण (देश व समाज के लिये कल्याणकारी कार्यों में भाग लेना), 13. तेरहवीं तीली:- समृद्धि (देश एवं समाज की समृद्धि में योगदान देना), 14. चौदहवीं तीली:- उद्योग (देश की औद्योगिक प्रगति में सहायता करना), 15. पंद्रहवीं तीली:- सुरक्षा (देश की सुरक्षा के लिए सदैव तैयार रहना), 16. सौलहवीं तीली:- नियम (निजी जिंदगी में नियम संयम से बर्ताव करना), 17. सत्रहवीं तीली:- समता (समता मूलक समाज की स्थापना करना), 18. अठारहवी तीली:- अर्थ (धन का सदुपयोग करना), 19. उन्नीसवीं तीली:- नीति (देश की नीति के प्रति निष्ठा रखना), 20. बीसवीं तीली:- न्याय (सभी के लिए न्याय की बात करना), 21. इक्कीसवीं तीली:- सहकार्य (आपस में मिलजुल कार्य करना), 22. बाईसवीं तीली:- कर्तव्य (अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करना), 23. तेईसवी तीली:- अधिकार (अधिकारों का दुरूपयोग न करना), 24. चौबीसवीं तीली:- बुद्धिमत्ता (देश की समृधि के लिए स्वयं का बौद्धिक विकास करना)
    यह आलेख गौतम बुद्ध कल्चरल एंड वेलफेयर ट्रस्ट, ग्रेटर नोएडा द्वारा असोक विजयदशमी के इतिहास पर तैयार करवाया गया है।

रिंकू मांझी ने मजदूरी मांगी तो रमेश पटेल और गौरव पटेल ने मूंह पर थूका, किया पेशाब

बिहार के मुजफ्फरपुर में दलित समाज के रिंकू मांझी द्वारा मजदूरी मांगने पर उसके मूंह पर थूका और शरीर पर पेशाब कर उसे अपमानित करने की खबर सामने आई है। खबर 9 अक्तूबर की बताई जा रही है, जिस दिन बहुजन नायक कहे जाने वाले मान्यवर कांशीराम की पुण्यतिथि थी। लेकिन जिस कांशीराम ने बहुजन समाज बनाने का सपना देखा था और अपने वक्त में बनाया भी था, वही बहुजन समाज आज एक-दूसरे पर अत्याचार करने लगा है। इस मामले में पीड़ित रिंकू मांझी ने ओबीसी समाज के अरुण पटेल और गौरव पटेल पर आरोप लगाया है। मामला बोचहां थाना क्षेत्र के चौपार मदन गांव का है।

घटना के अनुसार आरोपी ओबीसी समाज के पटेल समाज का व्यक्ति पोल्ट्री फार्म संचालक है। रिंकू मांझी उसके यहां काम करते थे। काम करते दो दिन बीत गए तो उसने मजदूरी मांगी। इस पर बाप और बेटे ने दलित मजदूर की जमकर पिटाई कर दी। यहीं नहीं आरोप है कि उन्होंने पीड़ित रिंकू मांझी के मुंह पर थूका और उसे जमीन पर पटक कर उसके शरीर पर पेशाब भी कर दिया। मामले की शिकायत पुलिस से करने पर दलित मजदूर को जान से मारने की धमकी भी दी। लेकिन इस दौरान किसी ने घटना का वीडियो बना लिया जो वायरल हो गया और मामला पुलिस तक पहुंच गया। इसके बाद पुलिस ने मामले को गंभीरता से लेते हुए मामला दर्ज कर लिया है। थानेदार राकेश कुमार यादव के मुताबिक, रमेश पटेल, उसके भाई अरुण पटेल और बेटे गौरव पटेल के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है।

अंबेडकरी समाज के जस्टिस सुरेश कैत बने मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस

अंबेडकरी समाज के लिए बड़ी खबर है। दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस सुरेश कैत मध्यप्रदेश के नए चीफ जस्टिस बनाए गए हैं। इसके बाद उनका एक बयान देश भर में चर्चा का विषय बना हुआ है। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस बनने पर अपने सम्मान में आयोजित संपूर्ण कोर्ट समारोह को उत्तर देते हुए जस्टिस सुरेश कुमार कैत ने कहा कि मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का चीफ़ जस्टिस बनने का मेरा भविष्य 14 अप्रैल 1891 को ही लिखा गया था, जब भीमराव जो कि अब बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर हैं, उन्होंने मध्य प्रदेश के महू में जन्म लिया था। मैं उनकी वजह से ही यहाँ चीफ़ जस्टिस बना हूँ। बता दें कि जस्टिस सुरेश कैत बाबासाहेब की समता, समानता और बंधुत्व की विचारधारा में विश्वास करने वाले जस्टिस हैं।  

‘साहेब’ बनना आसान, ‘बहनजी’ बनना मुश्किल!

बसपा संस्थापक मान्यवर कांशीराम जी के साथ बसपा अध्यक्ष सुश्री मायावती (फाइल फोटो)

भारतीय राजनीति में गला काट प्रतियोगिता, जानलेवा संघर्ष, षड्यंत्र, और चालबाजियों का बोलबाला है। यहाँ अनगिनत प्रतिद्वंद्वी और दुश्मन हैं—अपने भी, पराये भी, अंदर से भी, और बाहर से भी। ऐसी स्थिति में आज किसी के लिए बहनजी या उनके समान किसी नेता के विकल्प के रूप में उभरना अत्यंत कठिन प्रतीत होता है। इस मुकाम तक पहुँचने के लिए पूरा जीवन संघर्ष में लगाना पड़ता है, और तभी कुछ संभावनाएँ बन सकती हैं।

1977 से अपने संघर्ष और सही समय पर सटीक निर्णय लेने की अद्वितीय क्षमता के बल पर बहनजी (मायावती) ने तमाम विरोधियों और बाधाओं पर विजय पाई और आज बहुजन राजनीति के शीर्ष पर पहुँच गई हैं। उनके संघर्ष की प्रतिद्वंद्वी भी आज तारीफ करते हैं। उनके नेतृत्व की विशेषता यह है कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक जीवन में लगातार चुनौतियों का सामना किया और उन्हें परास्त किया।

साहेब कांशीराम बनना आसान क्यों है?

इसके विपरीत, साहेब कांशीराम बनना अपेक्षाकृत सरल है। यहाँ कोई सीधा प्रतिद्वंद्वी नहीं है—न बाहर से, न अंदर से। न ही कोई जानलेवा संघर्ष करना पड़ता है। मिशन का मैदान खाली है, जहाँ सिर्फ दृढ़ निश्चय, त्याग, लगन, और प्रभावी कार्य योजना के सहारे आप उस मुकाम तक पहुँच सकते हैं जहाँ साहेब कांशीराम पहुँचे। उनका व्यक्तित्व ऐसा है कि जो कोई भी उनके विचारों से एक बार जुड़ता है, वह हमेशा के लिए उनके मिशन का हिस्सा बन जाता है।

 

साहेब बनने के लिए किसी अन्य से प्रतियोगिता करने की आवश्यकता नहीं है। यह पूरी तरह से अपने आप पर विजय प्राप्त करने का मामला है। जबकि बहनजी बनने के लिए न केवल स्वयं को मजबूत बनाना पड़ता है, बल्कि हज़ारों-लाखों प्रतिद्वंद्वियों को भी पछाड़ना आवश्यक होता है। यह ताकत और रणनीति का खेल है, जिसमें सामने वाले को कमजोर करके ही विजय पाई जा सकती है। यह राजनीति का एक प्रमुख सत्य है।

राजनीति और मिशन की वास्तविकता

भारत में राजनीति अब साम, दाम, दंड, भेद और छल-कपट का पर्याय बन चुकी है। इसमें हर कदम पर षड्यंत्र और चालाकी के साथ आगे बढ़ना पड़ता है। लेकिन मिशन की राह इससे भिन्न है। मिशन में किसी को हराकर आगे बढ़ने की बाध्यता नहीं है। यह एक प्रतियोगिता-विहीन प्रक्रिया है, जहाँ आत्म-विकास और सामाजिक परिवर्तन के लिए कार्य करना होता है।

साहेब कांशीराम मिशन का प्रतीक हैं, जबकि बहनजी संगठन की संरचना का प्रतिनिधित्व करती हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। साहेब के बिना बहनजी बन पाना लगभग असंभव है, क्योंकि साहेब ने उस मिशन की नींव रखी है, जिसके बिना संगठनात्मक राजनीति का ढाँचा खड़ा नहीं हो सकता।

 

सबक और चुनौती

विडंबना यह है कि समाज में काम कर रहे कई साथी बहनजी की तरह बनना चाहते हैं, जबकि साहेब की तरह बनने की कोशिश कम ही लोग करते हैं। यह आंदोलन के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। बिना साहेब की तरह बने, बहनजी बनना असंभव है। यहां तक कि खुद बहनजी भी किसी को राजनीति के शिखर तक नहीं पहुंचा सकतीं क्योंकि वह खुद साहेब नहीं हैं।

इसलिए, यह जरूरी है कि हम साहेब बनने के रास्ते को पहले समझें, क्योंकि वहीं से नेतृत्व की वास्तविक शुरुआत होती है। मिशन और राजनीति की इस सच्चाई को जितनी जल्दी स्वीकार कर लिया जाएगा, उतना ही बहुजन आंदोलन के लिए बेहतर होगा।

हरियाणा में कड़े मुकाबले में हारी कांग्रेस, बसपा-इनेलो गठबंधन भी फेल

हरियाणा चुनाव में बाजी भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में जाती दिख रही है। कड़े मुकाबले में भाजपा लगातार तीसरी बार हरियाणा में सरकार बनाने जा रही है। चुनाव आयोग की वेबसाइट के मुताबिक शाम साढ़े पांच बजे तक भाजपा 49 सीटों पर जीत की ओर है। जबकि कांग्रेस पार्टी 36 सीटों जीतती दिख रही है। जिस बसपा और इनेलो गठबंधन से उम्मीद जताई जा रही थी कि वो प्रदेश में चुनाव को त्रिकोणीय बना देगा, वह कोई कारनामा नहीं कर पाई है। इनेलो को सिर्फ 2 सीटें मिलती दिख रही है, जबकि बसपा का कोई प्रत्याशी नहीं जीत पाया है। चुनाव में तीन स्वतंत्र उम्मीदवार जीत की ओर हैं।

हरियाणा के चुनावी नतीजों में सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात वोट प्रतिशत का है। दोनों दलों के बीच एक प्रतिशत से भी कम वोटिंग का अंतर है। भाजपा को जहां 39.90 प्रतिशत वोट मिले हैं वहीं कांग्रेस पार्टी को 39.09 प्रतिशत वोट मिले हैं। इससे साफ है कि कांग्रेस पार्टी एक प्रतिशत से भी कम वोटों के अंतर से पिछड़ गई है।

अन्य दलों की बात करें तो इनेलो तीसरे नंबर पर रही। उसको 4.15 प्रतिशत वोट मिले और उसके दो उम्मीदवार जीत की ओर हैं। जबकि इनेलो की सहयोगी रही बहुजन समाज पार्टी को 1.82 प्रतिशत वोट मिला है और वह कोई भी सीट नहीं जीत सकी है। इसके अलावा आम आदमी पार्टी को 1.79 प्रतिशत और जजपा को एक प्रतिशत से भी कम वोट मिला है। प्रदेश में तीन निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है।

साफ है कि जिस भाजपा को खुद हरियाणा में अपने जीत की उम्मीद नहीं थी और माना जा रहा था कि कांग्रेस पार्टी आराम से चुनाव जीत जाएगी, वहां चुनाव परिणाम ने सबको चौंका दिया है। कांग्रेस के इस हार की सबसे बड़ी वजह उसकी अंदरूनी कलह मानी जा रही है। कांग्रेस ने जिस तरह चुनाव जीतने वाले उम्मीदवारों को दरकिनार कर बड़े नेताओं के चहेतों को टिकट दिया, उससे कांग्रेस पिछड़ गई है। दूसरी ओर हरियाणा की दिग्गज नेता और दलित समाज से आने वाली कुमारी सैलजा की जिस तरह टिकट बंटवारे में अनदेखी की गई और विरोध में वह दिल्ली आकर बैठ गईं, उसने भी कांग्रेस पार्टी को बड़ा झटका दिया है।

 

दलित समाज की इतिहासकार शैलजा पाइक को 7 करोड़ की ‘जीनियस ग्रांट’ फेलोशिप

शैलजा पाइक को 7 करोड़ रुपये के 'मैकआर्थर फ़ैलो प्रोग्राम' की 'जीनियस ग्रांट' फ़ैलोशिप के लिए चुना गया हैपुणे के येरवडा की मूलनिवासी दलित समाज की शैलजा पाइक को 7 करोड़ रुपये के ‘मैकआर्थर फ़ैलो प्रोग्राम’ की ‘जीनियस ग्रांट’ फ़ैलोशिप के लिए चुना गया है। यह पहली बार है जब दलित समाज के किसी व्यक्ति को इतनी बड़ी धनराशि की फैलोशिप मिली है। शैलजा एक आधुनिक इतिहासकार हैं जो जाति, लिंग और सेक्सुअलिटी के नजरिये से दलित महिलाओं के जीवन का अध्ययन करने के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने अपने लेखन के ज़रिए बताया है कि लिंग और सेक्सुअलिटी ने दलित महिलाओं के आत्मसम्मान और उनके व्यक्तित्व के शोषण को कैसे प्रभावित किया है।

शैलजा की कहानी गरीबी से निकलकर अमेरिका में प्रोफेसर बनने तक के शानदार सफर की कहानी है। उनका जीवन पुणे के येरवडा की झुग्गी-झोपड़ी में बहुत अभाव और चुनौतियों के बीच बीता। लेकिन आगे बढ़ने और सफल होने की जिद्द और सपने ने उनके पैर न तो रुकने दिये और न ही थकने दिये। उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में बताया था कि वो शाम को 7:30 बजे सो जाती थी और आधी रात को 2-3 बजे उठकर सुबह के छह सात बजे तक पढ़ती थीं, फिर स्कूल जाती थी।”

पढ़ाई के इस संघर्ष में उन्हें माता-पिता का भी बखूबी साथ मिला, जिन्होंने तमाम अभाव के बावजूद उन्हें अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ाया। शैलजा ने एमए की पढ़ाई 1994-96 के दौरान सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग से पूरी की। एम.फिल के लिए वह साल 2000 में इंग्लैंड चली गईं। एम.फिल के लिए शैलजा को भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएसएसआर) से फ़ैलोशिप मिली थी।

शैलजा पाइक का सफर यहीं नहीं रूका, उन्होंने 2007 में इंग्लैंड के वारविक विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री हासिल की। उन्होंने यूनियन कॉलेज में इतिहास के विज़िटिंग सहायक प्रोफेसर और येल विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई इतिहास के पोस्ट डॉक्टरल एसोसिएट और सहायक प्रोफेसर के रूप में भी काम किया है। शैलजा साल 2010 से ‘सिनसिनाटी विश्वविद्यालय’ से जुड़ गई। यहां वह ‘महिला, लिंग और सेक्सुअलिटी अध्ययन और एशियाई अध्ययन’ की शोध प्रोफेसर हैं। दरअसल शैलजा पाइक ने अपने शोध अध्ययन के माध्यम से दलित महिलाओं के जीवन को गहराई से प्रस्तुत किया है, जिसके लिए आज उन्हें दुनिया के तमाम हिस्सों में जाना जाता है।

उनका यही काम मैकआर्थर फाउंडेशन की ओर से उन्हें मैकआर्थर फेलोशिप मिलने का आधार बना। जॉन डी. और कैथरीन टी. मैकआर्थर फाउंडेशन की ओर से ‘मैकआर्थर फ़ैलो प्रोग्राम’ की ‘जीनियस ग्रांट’ फ़ैलोशिप अमेरिका में अलग-अलग क्षेत्रों के 20 से 30 शोधकर्ताओं और विद्वानों को हर साल दी जाती है। इस साल यह फैलोशिप 22 लोगों को मिली है। इसमें लेखक, कलाकार, समाजशास्त्री, शिक्षक, मीडियाकर्मी, आईटी, उद्योग, अनुसंधान जैसे विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिष्ठित लोग शामिल हैं। चयनित उम्मीदवारों को पांच साल के लिए कई चरणों में 8 लाख डॉलर यानी तकरीबन 7 करोड़ रुपये की राशि मिलती है।

शैलजा पाइक के लेखन की बात करें तो उनके संपूर्ण लेखन के केंद्र में दलित और दलित महिलाएं हैं। उन्होंने भारतीय भाषाओं के साहित्य के अलावा समकालीन दलित महिलाओं के इंटरव्यू के दौरान मिले अनुभवों को जोड़कर वर्तमान संदर्भ में एक नया दृष्टिकोण तैयार किया है। ‘आधुनिक भारत में दलित महिला शिक्षा: दोहरा भेदभाव’ (2014) और ‘जाति की अश्लीलता: दलित, सेक्सुअलिटी और आधुनिक भारत में मानवता’ नाम से उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

शैलजा पाइक को इससे पहले फोर्ड फाउंडेशन की फेलोशिप भी मिल चुकी है। ‘रचनात्मकता’ मैकआर्थर फ़ैलोशिप का एक मूलभूत मानदंड है। इस फ़ैलोशिप का उद्देश्य नवीन विचारों वाले उभरते इनोवेटर्स के काम में निवेश करना, उसे प्रोत्साहित करना और उसका समर्थन करना है। खास बात यह है कि इस फ़ैलोशिप के लिए कोई आवेदन या साक्षात्कार प्रक्रिया नहीं है, बल्कि फ़ैलोशिप के लिए विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा नामित विद्वान उम्मीदवारों की स्क्रूटनी के बाद नामों को फाइनल किया जाता है। शैलजा पाइक को मिली यह उपलब्धि पूरे भारत के लिए गर्व की बात है। साथ ही अंबेडकरवादी समाज को आत्मविश्वास से भरने वाला है।

स्मृति शेषः जातीय भेदभाव के खिलाफ लड़ाई के नायक थे एडवोकेट केशरीलाल

बहुजन समाज के नायकों की फेहरिस्त लम्बी रही है। उन नायकों से प्रेरणा लेकर बाद की पीढ़ी ने भी सम्मान के लिए संघर्ष का रास्ता चुना। केशरीलाल जी, उसी श्रृंखला के नायक का नाम है। बीते 19 सितंबर 2024 को 85 साल की उम्र में उनका परिनिर्वाण हो गया।

केशरी लाल जी का जन्म 1 जनवरी 1939 को राजस्थान केे धौलपुर जिले के पिपरोन गांव में दलित (चमार) परिवार में हुआ था। गांव में जातिवाद चरम सीमा पर था। दलित परिवार का कोई भी व्यक्ति स्कूल जाने की हिम्मत नहीं करता था। किसी ने स्कूल जाने की हिम्मत भी की तो उसका अंजाम पूरे दलित समुदाय को भुगतना होता था। ऐसे समय में केशरीलाल जी ने स्कूल जाने का साहस किया।

सरकारी स्कूल गांव से करीबन 6 किलोमीटर दूर था, जहां वे पैदल ही जाया करते थे। स्कूल में पढ़ने वाले उच्च जाति के छात्र अक्सर उनकी पिटाई भी कर देते थे, पिटाई करने का कोई कारण नहीं होता था। बस वे चमार थे और उच्च जाति के लोगों के साथ उन्होंने पढ़ने की हिम्मत जुटाई थी। स्कूल में उच्च जाति के छात्र मटके से पानी लेकर अलग से उनको पानी पिलाते थे।

पढ़ाई के साथ साथ खेती-बाड़ी का काम संभालना। भैंसों के लिए चारा लाना और खेतों पर पढ़ाई करना ही केशरी लाल जी की दिनचर्या थी। जब वे 10 वीं में थे, तब ही 6 दिसम्बर 1956 को संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी का निधन हुआ था, उस दिन उन्होंने स्कूल में पढ़ाने वाले मास्टरों और उच्च जाति के विद्यार्थियों को यह कहते हुए सुना कि आज हमारा दुश्मन मारा गया। उच्च जाति के विद्यार्थियों ने इस बात की मिठाइयां बांटी थीं।

उस समय केशरी लाल जी ने प्रण लिया कि मुझे खूब पढ़ाई करनी है और बाबा साहब के रास्ते पर चलना है। समाज के लिए काम करना है। अपने जीवन को समाज के अधिकार सम्मान और न्याय दिलाने के लिए लगाना है। 10वीं पास करते ही केशरी लाल जी की नौकरी लग गई थी। उनके 10वीं पास करने पर गांव में हल्ला मच गया था।

एक चमार ने 10वीं पास कर ली थी। 10वीं पास करना उस समय बहुत बड़ी बात थी। नौकरी में रहते हुए ही केशरीलाल जी ने अपनी 11वीं और 12वीं कक्षा की पढ़ाई पूरी की। दिल्ली आकर देशबंधु कॉलेज से बीए और एएलबी की शिक्षा पूरी की। तब से लोग उन्हें वकील साहब के नाम से जानने पहचानने लगे

1960 में केशरी लाल जी जब दिल्ली आए तो सबसे पहले दिल्ली के अंबेडकर भवन पहुंचे थे। यहीं से वे समाज, सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ते चले गए। उस समय केवल आरपीआई और समता सैनिक दल था। तो वे उनके साथ जुड़े। बाकी संगठन और राजनैतिक पार्टी तो बाद में आए। वे गांव से अकेले ही आए थे पर लोग उनके साथ जुड़ते गए और कारवां बढ़ता गया।

दिल्ली आकर एडवोकेट केशरी लाल जी ने बौद्धिज्म को समझा और बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। अपने आफिस में स्वयं को बौद्धिस्ट डिक्लेयर कर दिया। बुद्धिस्ट बनने को लेकर गजट ऑफ इंडिया नामक न्यूज पेपर में इश्तिहार दिया। अपने नाम के साथ बौद्ध लगाना शुरू कर दिया। हालांकि इससे उनका प्रमोशन रोक दिया गया। बौद्ध बनने के बाद एडवोकेट केशरी लाल बौद्ध जी ने अपने सभी बच्चों की पढाई सामान्य वर्ग के अनुसार स्कूल की पूरी फीस देकर करवाई।

प्रधानमंत्री वीपी सिंह की सरकार आने के बाद उनको नौकरी में प्रमोशन मिला। जब प्रमोशन मिला और वे गजटेड ऑफिसर बने तो एक साल ही इस पोस्ट का फायदा उठा सके। इसके बाद 31 दिसंबर 1996 को रिटायर हो गए। रिटायर होने के बाद नोटरी के लिए अप्लाई किया और वे नोटरी ऑफिसर बन गए। नोटरी रहते हुए अपने आखिरी समय तक जरूरतमंदों की सहायता करते रहे। समाज की सेवा करते-करते 86 की उम्र में 19 सितंबर 2024 को दिल्ली के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली।

86 उम्र के लंबे सफर में उन्होंने जातिवाद, गरीबी, आर्थिक परेशानियों को बहुत पास से देखा, लेकिन हार नहीं मानी। जब वे सरकारी नौकरी में थे तो पत्नी, छह बच्चे और अपने चारों भाइयों के परिवार का पालन-पोषण किया। उनकी नौकरी जब लगी थी, तब वे क्लर्क थे। करीबन 100 रुपए महीने से उनकी नौकरी लगी थी। इस छोटी सी नौकरी से उनके घर परिवार व उनके भाइयों के परिवार का खर्चा पूरे नहीं हो पाता था, तो उनकी पत्नी लौंगश्री जी ने भी जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ली। उन्होंने दूसरों के खेतों में जाकर मजदूरी करना शुरू किया।

जब एडवोवेट केशरीलाल बौद्ध जी अपनी पत्नी लौंगश्री जी को दिल्ली लेकर आए तब दिल्ली में भी लौंगश्री जी ने बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर उठाई। दिल्ली में दूसरों के घरों में जाकर उपले बनाए, मजदूरी की। जब केशरी लाल नोटरी अफसर बने तब से लौंगश्री और उनके बच्चों की जिन्दगी में सुधार आया।

केशरीलाल बौद्ध जी गांव की उस लकीर को मिटाकर दुनिया से विदा हुए, जहां दलितों की बारात नहीं चढ़ सकती थी। उच्च जाति वाले के दरवाजों के सामने से दलित दूल्हा घोड़ी पर नहीं चढ़ सकता था। जय भीम का नाम कोई नहीं ले सकता था। यही नहीं उच्च जाति के यहां से दलित की अर्थी तक नहीं जा सकती थी। ऐसे गांव में केशरी लाल बौद्ध जी सभी जातियों को एकजुट कर जातिवादी नफरत की दीवार मिटाकर उनमें प्यार मोहब्बत के फूल खिलाकर गए। दलितों और उच्च जातियों के बीच भाईचारा बनाकर गए।

इसलिए एडवोकेट केशरी लाल बौद्ध जी को गांव के लोगों ने गुलाब के फूल, जय भीम, वकील साहब अमर रहे के नारों के साथ अंतिम विदाई दी। उनकी अंतिम यात्रा में दलित और क्या उच्च जाति सभी समाज के लोग शामिल थे।

SC-ST आरक्षण सब-कोटे पर सुप्रीम कोर्ट में दायर पुनर्विचार याचिका खारिज

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति को मिलने वाले आरक्षण में उप-वर्गीकरण के अपने फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं को खारिज कर दिया है। शीर्ष अदालत ने 1 अगस्त को ही इस संबंध में फैसला दिया था और कहा था कि यदि राज्य सरकारों को जरूरी लगता है कि एससी और एसटी कोटे के भीतर ही कुछ जातियों के लिए सब-कोटा तय किया जा सकता है। इसका एक वर्ग ने विरोध किया था और आंदोलन भी हुआ था। इसके अलावा याचिकाएं दाखिल की गई थीं। इन पर ही शुक्रवार को सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने विचार करने से इनकार कर दिया।

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली 7 जजों की बेंच ने कहा कि उस फैसले में ऐसी कोई त्रुटि नहीं थी, जिस पर पुनर्विचार किया जाए। अदालत ने कहा, ‘हमने पुनर्विचार याचिकाओं को देखा है। ऐसा लगता है कि पुराने फैसले में ऐसी कोई खामी नहीं है, जिस पर फिर से विचार किया जाए।

इसलिए पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज किया जाता है।’ जस्टिस बीआर गवई, विक्रम नाथ, बेला एम. त्रिवेदी, पंकज मिथल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा इस बेंच में शामिल थे। अदालत ने कहा कि याचिकाओं में कोई ठोस आधार नहीं दिया गया कि आखिर क्यों 1 अगस्त के फैसले पर कोर्ट को पुनर्विचार करना चाहिए।

इन याचिकाओं पर अदालत ने 24 सितंबर को ही सुनवाई की थी, लेकिन फैसला आज के लिए सुरक्षित रख लिया था। इन याचिकाओं को संविधान बचाओ ट्रस्ट, आंबेडकर ग्लोबल मिशन, ऑल इंडिया एससी-एसटी रेलवे एम्प्लॉयी एसोसिएशन समेत कई संस्थाओं की ओर से दायर किया गया था।

सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने 1 अगस्त को ही 6-1 के बहुमत से फैसला दिया था। इसमें राज्य सरकारों को एससी और एसटी कोटे के सब-क्लासिफिकेशन की मंजूरी दी गई थी। इसके तहत कहा गया था कि यदि इन वर्गों में किसी खास जाति को अलग से आरक्षण दिए जाने की जरूरत पड़ती है तो इस कोटे के तहत ही उसके लिए प्रावधान किया जाता है।

अदालत के इस फैसले को दलितों और आदिवासियों के एक वर्ग ने आरक्षण विरोधी करार दिया था। वहीं एक वर्ग इसके समर्थन में भी आया था। अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि दलितों में भी कई जातियां और इस वर्ग को समरूप नहीं माना जा सकता। इसलिए आरक्षण के लिए यदि किसी जाति को खास प्रावधान देने की जरूरत पड़ती है तो वह भी करना चाहिए।

अमेठी हत्याकांड: आरोपी को मारी गोली, मृतक के परिजनों से सीएम योगी ने की मुलाकात

अमेठी। पुलिस ने शनिवार तड़के अमेठी हत्याकांड आरोपी चंदन वर्मा के पैर में गोली मार दी। पुलिस चंदन को हत्या में इस्तेमाल पिस्टल को बरामद करने के लिए घटनास्थल पर ले गई थी। इसी दौरान उसने दरोगा मदन वर्मा से पिस्टल छीन ली। फायरिंग करते हुए भागने लगा। जवाबी फायरिंग में पुलिस ने उसे गोली मार दी।

उसे जिला अस्पताल में भर्ती करवाया गया है। शुक्रवार रात 11 बजे अमेठी के एसपी अनूप सिंह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। उन्होंने आरोपी चंदन वर्मा को मीडिया के सामने पेश किया। कहा- चंदन को गौतमबुद्धनगर जिले में जेवर टोल प्लाजा से STF ने गिरफ्तार किया। आरोपी ने गुरुवार शाम टीचर सुनील, उसकी पत्नी और दो बेटियों की गोली मारकर हत्या कर दी थी।

इधर, अमेठी हत्याकांड में टीचर सुनील के परिवार से सीएम योगी ने शनिवार को लखनऊ में मुलाकात की। ऊंचाहार विधायक मनोज पांडेय सुनील के पिता, मां को लेकर योगी के पास पहुंचे। वहां सीएम ने पूरे घटनाक्रम को लेकर बात की। उन्होंने आश्वासन दिया कि प्रशासन परिवार की पूरी मदद करेगा। टीचर सुनील के माता-पिता ने योगी को पूरी घटना बताई। सीएम ने परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी, 5 बीघा जमीन और घर देने का ऐलान किया।

टीचर के घर में ही की थी वारदात

वारदात को टीचर के घर में ही अंजाम दिया गया। इसके बाद आरोपी ने सुसाइड करने की कोशिश की थी। खुद पर गोली चलाई, लेकिन मिस हो गई। वह डर गया और दोबारा गोली नहीं चला सका। तब वह फरार हो गया था। उसका टीचर की पत्नी से डेढ़ से साल से संबंध था। गुरुवार को वह टीचर के घर आया था। उसने टीचर को 3, पत्नी को 2 और बच्चियों को एक-एक गोली मारी। वारदात से पहले चंदन वर्मा ने वॉट्सऐप के बायो में लिखा था- 5 लोग मरने वाले हैं।

पत्नी ने चंदन के खिलाफ दर्ज कराई थी शिकायत

पुलिस के मुताबिक, टीचर को पत्नी और चंदन के अफेयर का पता चल गया था। 18 अगस्त को यानी 47 दिन पहले टीचर की पत्नी पूनम भारती ने रायबरेली जिले की नगर कोतवाली में रिपोर्ट कराई थी। इसमें चंदन से जान को खतरा बताया था। पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कर चंदन से पूछताछ भी की थी। इसके बाद 12 सितंबर को चंदन ने अपना वॉट्सऐप बायो चेंज किया था। इसके बाद उसने वारदात को अंजाम दिया।

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डॉ. राहुल गजभिये सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों की सूची में शामिल

नई दिल्ली। अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी ने हाल में दुनिया भर के सर्वश्रेष्ठ स्त्री-रोग विशेषज्ञ व संबंधित वैज्ञानिकों की सूची प्रकाशित की हैै। इसमें इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के तहत नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ रिसर्च फॉर रिप्रोडक्टिव हेल्थ में कार्यरत प्रसिद्ध स्त्री-रोग वैज्ञानिक डॉ. राहुल गजभिये को सम्मिलित एवं सन्मानित किया गया है।

एल्सिवेर डाटा रिपॉजिटरी संस्था के सहयोग से भारत के नामचीन स्वास्थ्य व चिकित्सा संस्थानों में कार्यरत 13 स्त्री-रोग विशेषज्ञों को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 2 प्रतिशत वैज्ञानिकों में चयनित किया गया है। इसमें डॉ. राहुल गजभिये भी शामिल हैं। डॉ. गजभिय महाराष्ट्र के ग्रामीण स्वास्थ्य अनुसन्धान यूनिट के नोडल अधिकारी है। उन्हें नेशनल साइंस अकेडमी, इंडो-ऑस्ट्रेलियन फेलोशिप प्राप्त है। डॉ. राहुल अंबेडकरवादी चिंतक एवं विचारक भी हैं।

डॉ. गजभिये ने अंबेडकरी आंदोलन की दो दर्जन से ज्यादा पुस्तकों का मराठी और अन्य भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद किया है। उनकी तमाम अनुदित किताबों को सम्यक प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।

पाली, प्राकृत सहित पांच को मिला शास्त्रीय भाषा का दर्जा

नई दिल्ली। पीएम नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हाल में हुई केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में पांच और भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने की मंजूरी हुई है। इनमें मराठी, पाली, प्राकृत, असमिया और बंगाली भाषाएं शामिल हैं। इसके साथ ही अब 11 शास्त्रीय भाषाएं हो जाएंगी।

पाली व प्राकृत को शास़्त्रीय भाषा का दर्जा मिलने से गौतम बुद्ध के उपदेशों व बौद्ध साहित्य को सहेजने में मदद मिलेगी। ‘दलित दस्तक’ को लखनऊ स्थित केन्द्रीय संस्कृति विश्वविद्यालय के शोध छात्र भीमराव अम्बेडकर ने बताया कि गौतम बुद्ध के उपदेश व अधिकांश बौद्ध साहित्य का सृजन पाली व प्राकृत भाषा में किया गया है। इन दोनों भाषाओं पर शोधकार्य बढ़ने से बौद्ध साहित्य को समझने व उसका दूसरी भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने में आसानी होगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक पोस्ट में लिखा, “पाली और प्राकृत भारत की संस्कृति के मूल हैं। ये आध्यात्मिकता, ज्ञान और दर्शन की भाषाएं हैं। वे अपनी साहित्यिक परंपराओं के लिए भी जानी जाती हैं। शास्त्रीय भाषाओं के रूप में उनकी मान्यता भारतीय विचार, संस्कृति और इतिहास पर उनके कालातीत प्रभाव का सम्मान करती हैं। मुझे विश्वास है कि उन्हें शास्त्रीय भाषाओं के रूप में मान्यता देने के कैबिनेट के फैसले के बाद, अधिक लोग उनके बारे में जानने के लिए प्रेरित होंगे।”

इससे पहले ही तमिल, संस्कृत, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और ओडिया को शास्त्रीय भाषा के रूप में मान्यता दी जा चुकी है। दरअसल, भारत सरकार ने 12 अक्टूबर 2004 को “शास्त्रीय भाषाओं” के रूप में भाषाओं की एक नई श्रेणी बनाने का फैसला किया था, जिसके तहत तमिल को शास्‍त्रीय भाषा घोषित किया गया था। सरकार ने शास्त्रीय भाषा के तहत दर्जा देने के लिए कुछ नियम निर्धारित किए थे। इसमें ग्रंथों की उच्च प्राचीनता या एक हजार वर्षों से अधिक का इतिहास देखा जाएगा।

केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने साहित्य अकादमी के तहत नवंबर 2004 में शास्त्रीय भाषा के दर्जे के लिए प्रस्तावित भाषाओं की जांच करने के लिए एक भाषा विशेषज्ञ समिति का भी गठन किया था। नवंबर 2005 में इसके नियमों में कुछ और संशोधन किया और इसके बाद संस्कृत को शास्त्रीय भाषा घोषित किया गया।

शास्त्रीय भाषा के मापदंड

  • प्रारंभिक लेखन और ऐतिहासिक विवरणों की प्राचीनता 1,500 से 2,000 BC की है।
  • प्राचीन साहित्य/ग्रंथों का संग्रह जिसे पीढ़ियों द्वारा मूल्यवान विरासत माने जाते है।
  • किसी अन्य भाषा समुदाय से उधार न ली गई एक मौलिक साहित्यिक परंपरा की उपस्थिति।
  • शास्त्रीय भाषा और साहित्य, आधुनिक भाषा से भिन्न होने के कारण, शास्त्रीय भाषा तथा उसके बाद के रूपों अथवा शाखाओं के बीच एक विसंगति से भी उत्पन्न हो सकती है।

“पुलिस आरोपियों का एनकाउंटर कर भी देती है तो क्या इंसाफ मिल जाएगा?” अमेठी की घटना पर आकाश आनंद का यूपी पुलिस पर तंज

उत्तर प्रदेश के अमेठी में दलित समाज के शिक्षक की परिवार सहित हत्या के मामेल में यूपी पुलिस घिर गई है। इस घटना से यूपी पुलिस के काम करने के तरीके और दलितों के मामले में उपेक्षा का गंभीर आरोप लग रहा है। बसपा के नेशनल को-आर्डिनेटर आकाश आनंद ने इस मामले में यूपी पुलिस पर जबरदस्त तंज किया है।

सोशल मीडिया एक्स पर इस मामले में बसपा सुप्रीमों सुश्री मायावती के पोस्ट को रिपोस्ट करते हुए अपनी पोस्ट में आकाश आनंद ने लिखा- यूपी में पुलिस अत्यंत सक्रिय है। इतनी सक्रिय है कि अमेठी में एक शिक्षक, उनकी पत्नी उनके दो बच्चों की घर में घुसकर हत्या कर दी गई। जानकारी में आया है कि मूलतः रायबरेली के रहने वाले शिक्षक सुनील की पत्नी ने पिछले महीने रायबरेली में sc/st act में मुकदमा दर्ज कराया था। अत्यंत सक्रिय पुलिस की जांच वहां भी जारी है। अत्यंत सक्रिय पुलिस आरोपियों का एनकाउंटर कर भी देती है तो सुनील और उनके परिवार को कौन सा इंसाफ मिल जाएगा? ये कैसी कानून व्यवस्था है जहां सरेआम घर में घुसकर हत्याएं की जा रही हैं। यूपी में कानून का राज खत्म हो चुका है। बुलडोजर और एनकाउंटर राज से ना जनता सुरक्षित है ना अपराधियों में कानून का खौफ है। भाजपा की डबल इंजिन की सरकार कानून का राज स्थापित करने में फेल हो चुकी है। केवल बुलडोजर और एनकाउंटर की हवा हवाई नीति से नहीं बल्कि कानून द्वारा ही कानून का राज स्थापित हो सकता है जैसा की आदरणीय बहन जी ने अपनी चार बार की सरकारों में उत्तर प्रदेश में किया था।

यूपी के अमेठी में दलित परिवार का सामूहिक हत्याकांड, पुलिस पर उठे गंभीर सवाल

उत्तर प्रदेश के अमेठी में दलित समाज के व्यक्ति की परिवार सहित गोली मार कर हत्याअमेठी। उत्तर प्रदेश के अमेठी में दलित समाज के व्यक्ति की परिवार सहित गोली मार कर हत्या दी गई है। मरने वाले में युवक, उसकी पत्नी और दो बेटियां हैं। एक ही परिवार के चार लोगों की निर्मम हत्या से पूरे प्रदेश में खलबली मच गई है। इस मामले में यूपी पुलिस पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। खबर है कि सुनील की पत्नी पूनम भारती ने 18 अगस्त को रायबरेली में छेड़खानी और जान से मारने की धमकी को लेकर पुलिस में शिकायत की थी, लेकिन पुलिस ने इसको गंभीरता से नहीं लिया।

घटना सामने आने के बाद बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती सहित चंद्रशेखर आजाद, अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने यूपी सरकार को जमकर घेरा है। मारे गए परिवार के मुखिया सुनील कुमार एक सरकारी शिक्षक थे। सुनील के साथ पत्नी पूनम भारती और उनकी दो मासूम बेटियों दृष्टि (5) और मिकी (2) को भी हैवानों ने नहीं बख्शा।

बसपा प्रमुख मायावती ने घटना को अति-दुखद व चिन्ताजनक बताते हुए यूपी सरकार को घेरा है। बहनजी ने कहा कि सरकार दोषियों व वहां के पुलिसकर्मियों के खिलाफ सख्त कदम उठाए। तो दूसरी ओर आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद ने भी यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को घेरते हुए कहा कि अमेठी की घटना बताती है कि उत्तर प्रदेश में कानून का राज नहीं, बल्कि जंगलराज है। यह घटना उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था की असली तस्वीर है, कि सच क्या है और प्रचार क्या है। सच यह है कि उत्तर प्रदेश में दलितों के जीवन की कोई गारंटी नही है, कल किसका नंबर होगा पता नहीं, और प्रचार यह है कि कानून व्यवस्था बहुत अच्छी है।

नगीना से सांसद चंद्रशेखर आजाद ने कहा कि अगर पुलिस-प्रशासन द्वारा पूनम भारती की डेढ़ महीना पहले खुद के साथ छेड़खानी और जान से मारने की धमकी की, शिकायत पर कार्यवाही की होती तो आज चार जान नहीं जाती। चंद्रशेखर आजाद ने सीएम योगी से मामले को गंभीरता से लेते हुए 48 घंटे में सभी आरोपियों को गिरफ्तार कर सख्त कार्यवाही करने और असंवेदनशील पुलिसकर्मियों पर भी सख्त कार्यवाही करने की मांग की है। ऐसा नहीं होने पर अमेठी पहुंचकर पीड़ित परिवार को न्याय दिलाने के लिये अमेठी जिलाधिकारी कार्यालय पर धरने पर बैठने की धमकी दी है।

इस मामले में जिस तरह की खबरें आ रही है, उसमें सीधे तौर पर यूपी पुलिस की नाकामी और काम को लेकर लापरवाही नजर आ रही है। साफ है कि यूपी के अमेठी में दलित परिवार के चार लोगों की घर में घुसकर हत्या की खबर पुलिस महकमे पर धब्बा है। जब घर की महिला ने 18 अगस्त को छेड़खानी और जान से मारने की धमकी की शिकायत की थी, तो पुलिस ने मामले को गंभीरता से क्यों नहीं लिया? क्या यह परिवार दलित समाज का था इसलिए? ऐसे कई सवाल है, जिसका जवाब पुलिस महकमे को देना होगा।

जेल में जातिवाद के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला

आप समाज के बीच रह रहे हों या फिर जेल में। जाति आपका पीछा नहीं छोड़ती। अगर कोई नाई होगा तो जेल में उसे बाल और दाढ़ी बनाने का काम मिलेगा, ब्राह्मण क़ैदी खाना बनाते हैं और वाल्मीकि समाज के क़ैदी सफ़ाई करते हैं। इसी तरह के भेदभाव पर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया है। तीन अक्तूबर 2024 को मुख्य न्यायाधीश डी.वाई चंद्रचूड़, जस्टिस जे बी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने जेलों में जाति आधारित भेदभाव खत्म करने के लिए कड़े निर्देश जारी किये। कोर्ट ने इसे संविधान के अनुच्छेद 14 में मिले समानता के खिलाफ बताया।

जेलों के अंदर जाति के आधार पर काम के बंटवारे से नाराज सु्प्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि- “हमारा मानना है कि कोई भी समूह मैला ढोने वाले वर्ग के रूप में या नीचा समझे जाने वाला काम करने या न करने के लिए पैदा नहीं होता है। कौन खाना बना सकता है और कौन नहीं, यह छुआछूत के पहलू हैं, जिनकी अनुमति नहीं दी जा सकती…. सफाईकर्मियों को चांडाल जाति से चुना जाना पूरी तरह से मौलिक समानता के विपरीत है और संस्थागत भेदभाव का एक पहलू है।”

तमाम राज्यों के जेल मैनुअल में इस तरह की व्यवस्था को गलत बताते हुए पीठ ने कहा- “ऐसे सभी प्रावधान असंवैधानिक माने जाते हैं। सभी राज्यों को निर्देश दिया जाता है कि वे फैसले के अनुसार जेल नियमावली में बदलाव करें…”

क्या है मामला बता दें कि मानवाधिकार क़ानून और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दों पर लिखने वाली पत्रकार सुकन्या ने जेल में जातिगत भेदभाव पर 2020 में रिसर्च रिपोर्ट तैयार की थी। इसके बाद उन्होंने दिसंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सहित मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु समेत 17 राज्यों से जेल के अंदर जातिगत भेदभाव और जेलों में कैदियों को जाति के आधार पर काम दिए जाने पर जवाब मांगा था।

दरअसल जेलों में दलित समाज के कैदियों को सफाई जैसे काम जबकि अगड़ी जातियों को खाना बनाने जैसे काम दिये जाते रहे हैं। इसके अलावा कैदियों को भी कई बार जाति के आधार पर अलग-अलग रखा जाता है। तुर्रा यह कि ये सब कई राज्यों के जेल मैन्युअल में भी लिखा था। जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है। हालांकि देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद जेलों के भीतर क्या बदलाव आता है।

हरियाणा में भाजपा को बड़ा झटका, अशोक तंवर कांग्रेस में शामिल

राहुल गांधी की महेन्द्रगढ़ रैली में कांग्रेस में वापसी करते अशोक तंवर

हरियाणा चुनाव प्रचार के आखिरी दिन भाजपा को बड़ा झटका लगा है। एक नाटकीय घटनाक्रम में भाजपा के दलित चेहरे अशोक तंवर ने कांग्रेस पार्टी ज्वाइन कर सबको चौंका दिया। दोपहर एक बजे तक भाजपा के लिए चुनाव प्रचार करने वाले अशोक तंवर अचानक घंटे भर बाद ही राहुल गांधी की महेन्द्रगढ़ रैली में पहुंच गए, जहां उन्होंने कांग्रेस पार्टी ज्वाइन कर लिया।

अशोक तंवर भाजपा के चुनाव कैंपेंन कमेटी के अहम सदस्य और स्टार प्रचारक भी थे। ऐसे में अशोक तंवर का चुनाव से दो दिन पहले भाजपा को छोड़कर कांग्रेस ज्वाइन करना, भाजपा के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। अशोक तंवर ने भूपेन्द्र हुड्डा से मतभेद के बाद का 2019 में कांग्रेस पार्टी छोड़ दिया था। कांग्रेस छोड़ने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी और संगठन बनाने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हो सके। साल 2022 में वह आम आदमी पार्टी में शामिल हो गए। लेकिन वहां से भी जल्दी ही उनका मन भर गया। ऐसे में अशोक तंवर इसी साल 20 जनवरी में हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की उपस्थिति में भाजपा में शामिल हो गए थे।

 

अशोक तंवर ने अपनी राजनीति कांग्रेस के साथ ही शुरू की थी। साल 2009 में वह सिरसा लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। लेकिन 2014 में वह चुनाव हार गए। 2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अशोक तंवर को सिरसा से अपना उम्मीदवार बनाया लेकिन कांग्रेस की दिग्गज नेता कुमारी सैलजा ने उन्हें 2.5 लाख से ज्यादा वोटों से करारी शिकस्त दे दिया। ऐसे में अशोक तंवर का राजनैतिक करियर दांव पर था और उन्हें कांग्रेस में वापसी ही बेहतर विकल्प लगा। बता दें कि अशोक तंवर हरियाणा के दिग्गज नेता हैं। हरियाणा की हिसार व सिरसा सीट पर उनका दखल माना जाता है। ऐसे में यहां की सीटों पर कांग्रेस पार्टी को फायदा हो सकता है और भाजपा को बड़ा झटका लग सकता है।

विकास की दौड़ में पीछे छूटता छत्तीसगढ़ का आदिवासी बहुल गांव

 बद्री प्रसाद कहते हैं कि जिला मुख्यालय से दूर दराज़ होने के कारण यह गांव विकास के दौड़ में बहुत पीछे छूट जाता है। विकास की सबसे प्रमुख कड़ी सड़क होती है। वह कहते हैं कि केवल केराचक्का गांव ही नहीं बल्कि राज्य के महासमुंद, सारगंढ-बिलाईगढ़ और बलोदा बाजार के कई गांव ऐसे हैं जहां आज भी पक्की सड़कें नहीं होने के कारण ये गांव विकास में बहुत पीछे रह गए हैं। छत्तीसगढ़ के सारगंढ-बिलाईगढ़ जिला मुख्यालय से लगभग 50 किमी दूर केराचक्का गांव है। गारडीह ग्राम पंचायत से महज़ दो किमी दूर स्थित इस गांव में 95 प्रतिशत आदिवासी समुदाय निवास करता है। जिसमें खैरवार और बरिहा समुदायों की बहुलता है। यहां लगभग 80 परिवार रहते हैं। बावजूद इसके यह गांव आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित नज़र आता है। गांव तक पहुंचने के लिए एक टूटी-फूटी कच्ची सड़क है।

बारिश के दिनों में कीचड़ से लबालब होने के कारण इस सड़क से होकर गुजरना लगभग नामुमकिन हो जाता है। इस दौरान न केवल गांव में आवागमन ठप्प हो जाता है, बल्कि बच्चों की शिक्षा भी प्रभावित होती है। ख़राब सड़क के कारण वर्षा के दिनों में बच्चों का स्कूल जाना-आना रुक जाता है।

गांव के शासकीय प्राथमिक शाला के प्रधान पाठक सुनित लाल चौहान बताते हैं कि इस स्कूल में 23 बच्चों का नामांकन है। लेकिन वर्षा के दिनों में इक्का-दुक्का बच्चे ही पढ़ने आते हैं। गांव का रास्ता इतना खराब है कि बच्चों को स्कूल आने जाने में बहुत परेशानी होती है। बरसात के दिनों में जब यहां की सड़क आम आदमी के चलने लायक नहीं होती है तो बच्चों से इससे गुज़र कर स्कूल आने की आशा कैसे की जा सकती है?

उनके अनुसार इसका सबसे नकारात्मक प्रभाव लड़कियों की शिक्षा पर पड़ता है। अधिकतर अभिभावक वर्षा के दिनों में उन्हें स्कूल नहीं भेजते हैं। लेकिन रुकिये, सिर्फ यही एक परेशानी नहीं है। स्कूल के बगल में रहने वाले 35 वर्षीय गोकुल बताते हैं कि इस स्कूल में एक ही शिक्षक की नियुक्ति है। जिनके पास पढ़ाने से अधिक ऑफिस के कागज़ी काम को पूरा करने की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी भी होती है। जिसके कारण वह पूरा समय बच्चों को दे नहीं पाते हैं।

केराचक्का गांव में ही ग्राम पंचायत गारडीह भवन स्थापित है।केराचक्का गांव में ही ग्राम पंचायत गारडीह भवन स्थापित है। स्थानीय निवासी बद्री प्रसाद कहते हैं कि पंचायत चुनाव में यह गांव महिला आरक्षित सीट रही। जिस पर गारडीह गांव की श्यामबाई चौहान को निर्विरोध चुना गया था। लेकिन जरूरी सुविधाएं नहीं मिल पाती। ग्राम पंचायत में भी महीने में एक बार राशन डीलर आता है उस दिन गांव वालों को राशन मिलता है। ग्राम पंचायत की बैठक भी काफी कम होती है। जिसके कारण गांव की कई समस्याएं समय पर पूरी नहीं हो पाती हैं। अधिकतर समय ग्राम पंचायत बंद होने के कारण लोगों के बहुत से काम समय पर पूरे नहीं हो पाते हैं। जिससे गांव वालों को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

बद्री प्रसाद कहते हैं कि जिला मुख्यालय से दूर दराज़ होने के कारण यह गांव विकास के दौड़ में बहुत पीछे छूट जाता है।विकास की सबसे प्रमुख कड़ी सड़क होती है। वह कहते हैं कि केवल केराचक्का गांव ही नहीं बल्कि राज्य के महासमुंद, सारगंढ-बिलाईगढ़ और बलोदा बाजार के कई गांव ऐसे हैं, जहां आज भी पक्की सड़कें नहीं होने के कारण ये गांव विकास में बहुत पीछे रह गए हैं।

स्थानीय समाजसेवी रामेश्वर प्रसाद कुर्रे कहते हैं कि पथरीली भूमि होने के कारण यहां खेती का विकल्प बहुत सीमित है। लोगों के पास ज़मीन के छोटे टुकड़े हैं। जिस पर इतनी फसल नहीं उगती कि उससे होने वाले अनाज से पूरे साल उनके परिवार का पेट भर सके। इसलिए जब खेती का समय नहीं होता है तो यहां का अधिकतर परिवार रोज़गार के अन्य विकल्प तलाश करने के लिए पलायन कर जाता है। इसका सबसे नकारात्मक प्रभाव महिलाओं और किशोरियों के स्वास्थ्य पर देखने को मिलता है।

 कुर्रे बताते हैं कि इस गांव का ऐसा कोई घर नहीं होगा जहां महिलाएं या किशोरियां कुपोषण की शिकार न हों। घर की कमज़ोर आर्थिक स्थिति से सबसे पहले महिलाएं और किशोरियां प्रभावित होती हैं। उन्हें उचित पौष्टिक आहार उपलब्ध नहीं हो पाता है। हालांकि आंगनबाड़ी केंद्र से गर्भवती महिलाओं और बच्चों को पौष्टिक आहार के रूप में अनाज तो मिल जाता है। लेकिन अन्य महिलाओं को यह उपलब्ध नहीं हो पाता है।

इस संबंध में केराचक्का गांव की सरपंच श्यामबाई चौहान से बात करने का प्रयास किया गया तो पता चला कि पंचायत संबंधी सारे काम उनके पति चन्दराम चौहान करते हैं। चन्दराम चौहान बताते है कि पंचायत में विकास के लिए पैसा ही नहीं आता है। जिसके कारण केराचक्का का विकास बहुत कम हुआ है। ज्यादातर परिवारों के पास खेती नहीं होने से वह मजदूरी करते हैं। गांव से ज्यादातर परिवार ईट-भट्टों पर काम करने अलग-अलग राज्यों में जाते हैं। मनरेगा के संबंध में चन्दराम कहते हैं कि अभी यहां पर दो महीनों से ज्यादा समय से मनरेगा का काम बंद है, जबकि इसी महीने में मज़दूर वापस गांव लौटते हैं।

पिछले महीने केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 2024-25 से 2028-29 तक प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत गांव में सड़कों के विकास के लिए करीब 70 हजार करोड़ रुपए को मंजूरी दी है। वहीं छत्तीसगढ़ सरकार ने भी 2024-25 के अपने बजट में गांव में सड़कों के सुधार के लिए सत्रह हजार 529 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है।

यह पिछले वित्त वर्ष से सात हजार करोड़ रुपए अधिक है। इससे राज्य के सभी गांवों की सड़कों की हालत को सुधारने पर जोर देने की बात कही जा रही है। गांव में सड़कों की हालत सुधरने से इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर होने की उम्मीद की जा सकती है। जिससे रोजगार के अवसर खुलने और पलायन को रोकने में मदद मिल सकती है। लेकिन यह तभी होगा जब योजनाएं कागजों से आगे जमीन पर उतरे। इस गांव को अब तक तो निराशा ही मिली है।


लेखक छोटू सिंह रावत, राजस्थान के अजमेर शहर में रहते हैं।

Eklavya India Foundation’s Founder, Raju Kendre Wins the Prestigious ‘International Alum of the Year’ Award

Nagpur. Raju Kendre, Founder and CEO of Eklavya India Foundation, adds another milestone to his impressive record, receiving the esteemed ‘International Alum of the Year’ award at #PIEoneers24. This honor acknowledges his outstanding achievements as an international alumnus of SOAS University of London.

As an alumnus of the SOAS, London – UK Higher Education system and a recipient of a prestigious Chevening scholarship, that year was truly remarkable in both my personal and organizational journey. Since then, our organization ‘Eklavya India Foundation’ has made great strides, and receiving this award is yet another meaningful recognition of our work. However, there is still much to be done in democratizing higher education and creating leadership opportunities for the most marginalized communities. This award will inspire and motivate us to continue making a difference for underserved communities in India.” – Raju Kendre

Since 2017, Eklavya India Foundation has implemented a strategy focusing on awareness, exposure, mentoring, and coaching, using relatable role models. They have held over 700 workshops, reaching a quarter million first-generation college students. Their residential program has helped over 1,700 students gain admission to over 80 national and international universities and secure fellowships.

Eklavya’s 400+ alumni are now in meaningful careers, inspiring their communities. Through the Eklavya Global Scholar Program, around 30 mentees were awarded fully funded scholarships to pursue Master’s and PhD programs at prestigious global universities, including LSE, Columbia, Harvard, and Cambridge.

These scholarships include renowned awards such as Chevening, Commonwealth Masters, Erasmus Mundus, National Overseas Scholarship (NOS), and many more. In the past 7 years, the organization has dedicated one million hours to mentorship and career guidance. Our students have received scholarships totaling over 5 million USD from government programs, trusts, and prestigious global institutions.

The PIEoneers Awards celebrate innovation and excellence in global education, recognizing individuals who have made significant contributions to the field. The PIE is a trusted voice in international education, connecting professionals, institutions, and businesses through daily news, analysis, and intelligence. Their global coverage spans higher education, online learning, K-12, and study abroad.

The PIE’s events, including The PIE Live conferences and The PIEoneer Awards, foster community, knowledge sharing, and innovation. The 2024 ceremony took place on September 13 at London’s iconic Guildhall, bringing together 530 influential attendees, including thought leaders, decision-makers, and innovators. A distinguished judging panel ensured a diverse and impartial selection of winners.

शांति स्वरुप बौद्ध: साहित्य, संस्कृति और संघर्ष की शिखर शख्सियत

इतिहास की अपनी एक निश्चित दिशा और गति होती है, जिसमें सामान्यतः व्यक्ति विशेष का स्थान गौण होता है। लेकिन कुछ व्यक्तित्व अपनी असाधारण मेहनत, लगन, बौद्धिक प्रखरता, बलिदान और संघर्ष के माध्यम से इतिहास निर्माण की इस सतत प्रक्रिया में विशिष्ट योगदान देते हैं।

ये महान व्यक्तित्व समाज की दिशा और दशा को नया आकार प्रदान करते हुए अपने युग पर अमिट छाप छोड़ते हैं। इन्हें हम सामाजिक क्रांतिकारी कहते हैं, जो लोक-कल्याण के लिए मानवीयता का प्रसार करते हैं, और इतिहास उन्हें अपने आदर्श के रूप में स्वीकार करता है। ऐसे लोग नैतिकता और सच्चाई की राह पर अडिग रहते हुए महानता की पराकाष्ठा तक पहुंचते हैं। उनकी महानता उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग पर समाज को चलने के लिए प्रेरित करती है।

इन पथप्रदर्शक महान विभूतियों में माननीय शांति स्वरुप बौद्ध जी का नाम अग्रणी है, जिन्होंने सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन में अद्वितीय योगदान दिया। उनका जन्म 2 अक्टूबर 1949 को दिल्ली के एक प्रबुद्ध अंबेडकरवादी परिवार में हुआ था। उनके परिवार ने प्रारंभ से ही डॉ. भीमराव आंबेडकर के विचारों का अनुसरण किया। शांति स्वरुप जी ने 1975 में सम्यक प्रकाशन की स्थापना कर हिंदी भाषी प्रदेशों में बहुजन साहित्य, इतिहास, कला और संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया। उनके प्रयासों से हजारों किताबें प्रकाशित की गईं, और बहुजन समाज की सांस्कृतिक धरोहर को घर-घर   पहुंचाया गया।

सम्यक प्रकाशन के माध्यम से शांति स्वरुप बौद्ध जी ने न केवल साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया, बल्कि बहुजन समाज के विचारकों, लेखकों, और कलाकारों को भी अपनी पहचान बनाने का अवसर दिया। सम्यक प्रकाशन के तले प्रकाशित लगभग दो हजार किताबें बहुजन समाज की धरोहर बन चुकी हैं। उनके द्वारा डिज़ाइन किए गए पोस्टर, कैलेंडर, और सांस्कृतिक प्रतीक आज भी जागरूक परिवारों के जीवन का हिस्सा हैं।

शांति स्वरुप बौद्ध जी की असामयिक मृत्यु 6 जून 2020 को, बहुजन समाज के लिए एक अपूरणीय क्षति थी। समाज ने सोशल मीडिया पर अपने श्रद्धांजलि संदेशों के माध्यम से उनकी कृतज्ञता प्रकट की। यह श्रद्धांजलि समाज के लिए एक ऐतिहासिक घटना थी, जिसमें हजारों लोगों ने अपनी प्रोफाइल तस्वीरें उन्हें समर्पित कीं।

शांति स्वरुप जी एक अद्वितीय बुद्धिजीवी, उच्च कोटि के चित्रकार, और ओजस्वी वक्ता थे। उन्होंने हजारों लेखकों को लिखने के लिए प्रेरित किया और बहुजन आंदोलन के लिए साहित्य का विशाल खजाना तैयार किया। दिल्ली में आयोजित होने वाले बौद्ध सांस्कृतिक सम्मेलन का श्रेय भी उन्हें जाता है, जिसने बहुजन समाज को अपनी सांस्कृतिक धरोहर से जोड़ने का काम किया। इन सम्मेलनों में हर बार भाग लेना समाज के लोगों के लिए गौरव की बात होती थी।

उनका एक और महत्वपूर्ण योगदान “रन फॉर आंबेडकर” रहा, जिसमें देश भर से हजारों युवा भाग लेकर अंबेडकरवादी विचारधारा का समर्थन करते थे। इस आयोजन की विशिष्ट छटा नीले और पंचशील झंडों के साथ सफेद टी-शर्ट पहने जोशीले युवाओं की होती थी। यह आयोजन हमारे समाज की समृद्ध विरासत और गौरवशाली संस्कृति को प्रतिबिंबित  करता था।

शांति स्वरुप बौद्ध जी के साथ बिताए हर पल ज्ञानवर्धक थे। मैंने उन्हें पहली बार आंबेडकर भवन दिल्ली में लगभग 15-16 साल पहले सुना था, जहाँ वे “श्री” शब्द के उपयोग पर एक बहुत ही सारगर्भित व्याख्यान दे रहे थे। आज भी उनके शब्द हूबहू याद हैं, जब उन्होंने कहा, “पागल कहिए, दीवाना कहिए, या गधा कहिए, लेकिन श्री कभी न कहिए।” उनके शब्दों का चयन और उनका महत्व मुझे हमेशा प्रभावित करता था।

विशेष रूप से, समता बुद्ध विहार (जो उनके निवास स्थान पश्चिम विहार में स्थित था) में हुई हमारी तमाम मुलाकातें मेरी स्मृतियों में अमिट हैं। इन मुलाकातों में अक्सर भंते चंदिमा जी भी मौजूद रहते थे। हर बार उनसे मिलने पर, ऐसा लगता था जैसे ज्ञान के असीम सागर में डूब रहे हों – किसी भी विषय पर उनसे बात करना शुरू करिए और वे आपको ज्ञान के अनमोल मोती सौंपते चले जाते थे। उनकी बातचीत की गहराई और विषयों की समझ अद्वितीय थी। उन्होंने शब्दों के महत्व को गहराई से समझा और उनका उपयोग अत्यधिक संवेदनशीलता के साथ किया।

शांति स्वरुप बौद्ध जी के सानिध्य में मैंने कई बार दयाल सिंह कॉलेज का भी जिक्र सुना, जहाँ वे पढ़े थे और जहाँ मैं पढ़ाता हूँ। वे अकसर वहाँ के संस्थापक सरदार दयाल सिंह मजीठिया के चित्र, जिसे उन्होंने स्वयं बनाया था, का जिक्र किया करते थे। उनका स्नेह मेरे ऊपर हमेशा बना रहा, और मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। उनके साथ बिताए समय से मैं अपने आप को सौभाग्यशाली मानता हूँ। उनकी यादें, उनके विचार और उनका ज्ञान मेरे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए हैं।

आज 2 अक्टूबर को उनके जन्मदिन के अवसर पर, देश भर में हजारों लोग उन्हें अपने-अपने तरीके से याद कर रहे हैं। यह देखकर गर्व होता है कि कैसे कोई व्यक्ति अपने चारित्रिक गुणों और समाज के प्रति असीम समर्पण से एक संस्था बन जाता है। वे गर्व के साथ बताते थे कि स्वयं बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने उनका नाम शांति स्वरुप बौद्ध रखा था। उन्होंने इस नाम को पूरी तरह सार्थक किया और अपने जीवन को भारत के प्रबुद्ध निर्माण के लिए समर्पित कर दिया।

मुझे गर्व है कि मैंने उनके साथ कुछ समय बिताया और उनके प्रयासों से प्रेरित होकर अपने जीवन को सामाजिक सेवा और समता के उद्देश्यों के प्रति समर्पित कर पाया। उनके बिना बहुजन समाज के आंदोलन में एक शून्य पैदा हुआ है, लेकिन उनका जीवन और कार्य इस आंदोलन को मील का पत्थर साबित करते रहेंगे।

आज 2 अक्टूबरउनके जन्मदिन पर, हम सभी साथी उन्हें कृतज्ञतापूर्ण नमन करते हैं और उनके बहुआयामी प्रयासों की प्रशंसा करते हैं।