
दो पत्ते तोड़ने पर खेत-मालिक ने काटी दलित लड़की की दो उंगुली

परिनिर्वाण दिवस विशेषः बहुजन पुर्नजागरण के सूत्रधार बने थे फुले

डॉ. अम्बेडकर और पिछड़ी जातियां
डॉ. अम्बेडकर को प्रायः दलितों के उद्धारक के रूप में पहचाना जाता है जबकि वे सभी पददलित वर्गों दलितों और पिछड़ों के अधिकारों के लिए लड़े थे. परन्तु वर्ण व्यवस्था के कारण पिछड़ी जातियां जो कि शूद्र हैं अपने आप को अछूतों (दलितों) से सामाजिक सोपान पर ऊँचा मानती हैं. एक परिभाषा के अनुसार पिछड़ी जातियां शूद्र हैं तो दलित जातियां अति शूद्र हैं. अंतर केवल इतना है कि पिछड़ी जातियां सछूत और दलित जातियां अछूत मानी जाती हैं. यह भी एक ऐतहासिक सच्चाई है कि सछूत होने के कारण पिछड़ी जातियों का कुछ क्षेत्रों में अछूतों से अधिक शोषण हुआ है. यह भी उल्लेखनीय है कि पिछड़ी जातियां कट्टर हिन्दुवाद के चंगुल में फंसी रही हैं जबकि दलित हिन्दू धर्म के खिलाफ निरंतर विद्रोह करते रहे हैं. सामाजिक श्रेष्ठता के भ्रम के कारण पिछड़ी जातियां डॉ. अम्बेडकर को अपना नेता न मान कर दलितों का नेता ही मानती आई हैं. यह इसलिए भी है क्योंकि अधिकतर पिछड़ी जातियां सवर्ण हिन्दुओं के प्रभाव में रही हैं और उन्हें डॉ. अंबेडकर के बारे में बराबर भ्रमित किया जाता रहा है ताकि वे डॉ. अम्बेडकर की विचार धारा से प्रभावित होकर दलितों के साथ एकता स्थापित न कर लें और सवर्णों के लिए बड़ी चुनौती पैदा न कर दें. पिछड़ों और दलितों में इस दूरी के लिए दलित और पिछड़ों के नेता भी काफी हद तक जिम्मेवार हैं जो कि जाति की राजनीति करके अपनी रोटी सेंकते रहे हैं.
अब अगर ऐतहासिक परिपेक्ष्य में देखा जाये तो डॉ. अम्बेडकर ने जहां पददलित जातियों के अधिकारों के लिए जीवन भर संघर्ष किया वहीँ उन्होंने पिछड़ी जातियों के अधिकारों के लिए भी निरंतर संघर्ष किया. इसकी पुष्टि के लिए कई तथ्य मौजूद हैं. जैसे, डॉ. अम्बेडकर की उच्च शिक्षा में बड़ौदा के महाराजा सायाजी राव गायकवाड जो कि पिछड़ी जाति के थे और जिन्होंने अम्बेडकर को अमेरिका में पढ़ने के लिए छात्रवृति दी थी, का बहुत बड़ा योगदान था. डॉ. अम्बेडकर को सहायता और योगदान देने वाले पिछड़ी जाति के दूसरे व्यक्ति छत्रपति साहू जी महाराज थे. डॉ. अम्बेडकर के रामास्वामी नायकर जो दक्षिण भारत के गैर ब्राह्मण आन्दोलन के अगुया थे, से सम्बन्ध बहुत अच्छे थे. डॉ. अम्बेडकर पिछड़ी जाति के समाज सुधारक ज्योति राव फुले की सामाजिक विचारधारा से भी बहुत प्रभावित थे. बाद में उन्होंने इसकी कई बातों को लागू करने की दिशा में कदम उठाया. डॉ. अंबेडकर ने ट्रावनकोर (केरल) में इज़ावा जो कि पिछड़ी जाति है, के समानता के आन्दोलन का समर्थन किया था. इससे उस क्षेत्र में उक्त आंदोलन को काफी बल मिला.
डॉ. अम्बेडकर ने संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष के रूप में सरकारी नौकरियों में आरक्षण के संबंध में संविधान की धारा 15 (4) में “बैकवर्ड” शब्द को शामिल करवाया था जो बाद में सामाजिक और शैक्षिक तौर से पिछड़ी जातियों के लिया आरक्षण का आधार बना. डॉ. अंबेडकर के प्रयास से ही संविधान की धारा 340 में पिछड़ी जातियों की पहचान करने के लिए आयोग की स्थापना किये जाने का प्रावधान किया गया. दलित-पिछड़ा एका के लिए उनका प्रयास उनके राजनीतिक जीवन में भी साफ दिखा. डॉ. अंबेडकर ने 1942 में शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरशन नाम से जो राजनैतिक पार्टी बनायीं थी उस की नीति में यह उल्लिखित था कि पार्टी पिछड़ी जातियों और जन जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों के साथ गठजोड़ को प्राथमिकता देगी और अगर ज़रुरत पड़ी तो पार्टी अन्य पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के लिए अपना नाम बदल कर “बैकवर्ड क्लासेज़ फेडरशन” कर लेगी. अतः पार्टी ने उस समय सोशलिस्ट पार्टी से ही चुनावी गठजोड़ किया था. इसी तरह सन् 1951 में जब डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू कोड बिल को लेकर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दिया था तो उसमें उन्होंने कहा था, “मैं एक दूसरा मामला संदर्भित करना चाहूंगा जो मेरे इस सरकार से असंतोष का कारण है. यह पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के साथ इस सरकार द्वारा किये गए बर्ताव के बारे में है. मुझे इस बात का दुःख है कि संविधान में पिछड़ी जातियों के लिए कोई भी संरक्षण नहीं किया गया है. इसे राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाने वाले आयोग की संस्तुतियों के आधार पर सरकारी आदेश पर छोड़ दिया गया है. हमें संविधान पारित किये एक वर्ष से अधिक हो गया है परन्तु सरकार ने अभी तक आयोग नियुक्त करने का सोचा भी नहीं है.” इस से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि डॉ. अंबेडकर पिछड़े वर्गों के हित के बारे में कितने चिंतित थे.
कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देने के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करते हुए पिछड़ी जातियों की उपेक्षा के बारे में चेतावनी देते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, ‘अगर वे अपने समानता का दर्जा पाने के प्रयासों में मायूस हुए तो ‘शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरशन’ कम्युनिस्ट व्यवस्था को तरजीह देगी और देश का भाग्य डूब जायेगा.’ इस से भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है की डॉ. अम्बेडकर पिछड़े वर्गों के हित के बारे में कितने प्रयत्नशील थे. पिछड़े वर्गों के हितों की उपेक्षा की बात उन्होंने बम्बई के नारे पार्क में एक बड़ी जन सभा में भी दोहराई थी. डॉ. अंबेडकर द्वारा दलित-पिछड़ा एका की कोशिशों से वर्तमान नेहरू सरकार की पेशानी पर बल पर गया था. डॉ. अंबेडकर द्वारा पिछड़ी जातियों के मुद्दे को लेकर पैदा किये गए दबाव के कारण ही नेहरु सरकार को 1951 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग नियुक्त करना पड़ा. यह बात अलग है कि सरकार ने इस आयोग की संस्तुतियों को नहीं माना बल्कि आयोग के अध्यक्ष को ही आयोग की संस्तुतियों (आरक्षण का जातिगत आधार) के विपरीत मंतव्य देने के लिए बाध्य कर दिया गया.डॉ. छेदी लाल साथी जो कि सत्तर के दशक में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष थे ने मुझे बताया था कि 1954 का चुनाव हारने के बाद बाबा साहेब बहुत मायूस थे. उस समय पिछड़े वर्ग के नेता चंदापुरी जी, एस.डी.सिंह चौरसिया और अन्य लोगों ने उन्हें कहा कि आप घबराईये नहीं हम सब आप के साथ हैं. इसी ध्येय से उन्होंने पटना में पिछड़ा वर्ग की एक रैली का आयोजन किया था जिसमें बहुत बड़ी भीड़ जुटी थी. इस से बाबासाहेब बहुत प्रभावित हुए थे और वे फिर दलितों और पिछड़ों की राजनीति में सक्रिय हुए. इस सम्बन्ध में डॉ. छेदी लाल साथी ने अपनी पुस्तक ‘दलितों व पिछड़ी जातियों की स्थिति’ के पृष्ठ 113 पर लिखा है, ‘पटना से वापस आने के बाद बाबासाहेब ने अपने साथियों से विचार विमर्श करके शैड्युल्ड कास्ट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया को भंग करके उसके स्थान पर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन का फैसला लिया क्योंकि सन 1952 और 1954 में दो बार चुनाव हारने के बाद बाबासाहेब ने महसूस किया कि अनुसूचित जातियों की आबादी तो केवल 20%ही है और जब तक उनको 52% पिछड़े वर्ग का समर्थन नहीं मिलेगा, वह चुनाव में नहीं जीत पाएंगे. अतः बाबासाहेब ने पिछड़े वर्ग के नेताओं, विशेष करके शिवदयाल सिंह चौरसिया आदि से मशवरा करके रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया में 20% दलित वर्ग के आलावा 52% पिछड़े वर्ग के लोगों तथा 12% आबादी वाले मुसलमान, ईसाई और सिखों को भी सम्मिलित करने का निर्णय लिया. एक साल से अधिक समय रिपब्लिकन पार्टी का संविधान बनाने और सलाह मशविरा में निकल गया. इस दृष्टि से पटना की यह रैली ऐतहासिक थी क्योंकि इसने दलितों और पिछड़ों की एकता की नींव डाली थी. बाबासाहेब ने नागपुर में 15 अक्तूबर, 1956 को शैड्युल्ड कास्ट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया को भंग करके उसके स्थान पर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया की स्थापना करने की घोषणा की थी. 1957 से 1967 तक इन वर्गों की एकता पर आधारित रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया एक बड़ी राजनैतिक ताकत के रूप में उभरी थी परन्तु बाद में कांग्रेस जिस के लिए यह पार्टी सब से बड़ा खतरा बन गयी थी, ने दलित नेताओं की कमजोरियों का फायदा उठा कर उन्हें खरीद लिया और यह पार्टी कई टुकड़ों में बंट गयी.
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में बाबासाहेब ने दलितों और पिछड़ों की एकता स्थापित करने के लिए पिछड़े वर्गों के नेता राम मनोहर लोहिया आदि से भी संपर्क स्थापित किया और उनके बीच पत्राचार भी हुआ था. परन्तु दुर्भाग्य से जल्दी ही बाबासाहेब का परिनिर्वाण हो गया और वह गठबंधन नहीं हो सका. उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि डॉ. अंबेडकर ने न केवल दलितों हितों के लिए ही संघर्ष किया बल्कि वे जीवन भर पिछड़े वर्ग के हितों के लिए भी प्रयासरत रहे. उनके प्रयास से ही संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान हो सका और उनके द्वारा पैदा किये गए दबाव के कारण ही प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुआ और बाद में मंडल आयोग गठित हुआ और पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण मिला जिसके लिए पिछड़े वर्ग को बाबा साहेब का अहसानमंद होना चाहिए और पिछड़े वर्ग को अपने उत्थान के लिए बाबा साहेब के योगदान को स्वीकार करना चाहिए. वर्तमान की नयी चुनौतियों के परिपेक्ष्य में इन वर्गों की एकता को पुनःस्थापित करने की ज़रूरत है. हालांकि यह बात भी सही है कि दलितों और पिछड़ों में कुछ वर्गीय अन्तर्विरोध हैं जिन्हें हल किये बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता. यह सर्वविदित है कि दलित, अति पिछड़े (हिदू, ईसाई और मुसलमान) कुदरती दोस्त हैं. यह समीकरण जातिगत न होकर सांझे मुद्दों पर ही आधारित हो सकता है जो कि देश में बहुसंख्यकवाद और हिन्दुत्ववादी फासीवादी राजनीति का सामना कर सकता है.
संविधान दिवस विशेषः भारत का भविष्य बना था संविधान

भारतीय मीडिया और दलित-आदिवासी प्रश्न
जब हम मीडिया में दलित मुद्दों की बात करते हैं तोसबसे पहला सवाल यही आता है कि मीडिया में दलित समाज से जुड़ा हुआ मुद्दा सामाजिक मुद्दा और देश का मुद्दा क्यों नहीं बन पाता? जबकि वंचित तबके की संख्या देश में सबसे ज्यादा है. किसी कार्यक्रम, किसी धरना-प्रदर्शन का कोई भी बैनर, जिस पर बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर या बहुजन समाज से जुड़े हुए किसी भी महापुरुष की तस्वीर लगी हो, या फिर उस पर दलित शब्द लिखा हो, वह तुरंत दलित समाज का मुद्दा बन जाता है, फिर वह देश का, समाज का मुद्दा नहीं रह जाता. आज का मीडिया इस वर्ग को इंसान के तौर पर नहीं, एक अलग किस्म के समूह के तौर पर देखता है. जैसे यह समाज इस समाज के बीच का हिस्सा नहीं है बल्कि किसी दूसरे टापू पर बसा हो. यही मीडिया की सच्चाई है. यही मीडिया का चेहरा है.
मीडिया की भाषा
मीडिया की भाषा को लेकर भी बात होनी चाहिए. आज से तकरीबन 6-7 साल पहले की एक खबर मुझे आज भी याद है. खबर दैनिक जागरण में छपी थी और उसका शीर्षक था- आदिवासी युवक की करंट लगने से मौत.. एक ऐसी खबर, जिसमें एक व्यक्ति को करंट लग जाता है और उसकी मौत हो जाती है, उस खबर में उसकी जाति का उल्लेख करना कहां तक जायज है और उसकी कितनी जरूरत है, इसका फैसला आप खुद कर लिजिए. जिस रिपोर्टर ने उस खबर को लिखा होगा और जिस संपादक ने उस खबर को संपादित किया होगा, मुझे उनकी सोच पर तरस आता है.
दलित महिला का बलात्कार, दलित को मंदिर में नहीं घुसने दिया, अम्बेडकर की रिंग टोन बजने पर दलित युवक को पीटा, दलित सांसद ने कहा… दलित मंत्री ने कहा… जब मीडिया इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करता है तो असल में वह एक खास वर्ग को यह भी संदेश दे रहा होता है कि तुम अपना काम करते रहो, तुम आराम से रहो, तुम्हें कोई दिक्कत नहीं है. तुम्हें फिक्र करने की जरूरत नहीं है. यह तुम्हारा मुद्दा नहीं है. यह देश का मुद्दा नहीं है.
इसी तरह, दबंगों ने दलित महिला से किया बलात्कार, दबंगों ने दलितों को मंदिर में घुसने से रोका, अम्बेडकर का रिंग टोन रखने पर दबंगों ने दलित युवक को पीटा.. ऐसा कह कर मनुवादी व्यवस्था की समर्थक मीडिया दलित समाज को डराने की कोशिश भी करता है. वह दलित समाज को आगाह करता है कि देख लो.. तुम विरोध करोगे तो मारे जाओगे, तुम्हारी बहन-बेटियों की इज्जत लूट ली जाएगी, इन मंदिरों में घुसने की हिमाकत मत करना… नहीं तो तुम पीटे जाओगे, ज्यादा अम्बेडकर-अम्बेडकर मत चिल्लाओ नहीं तो हम तुम्हारा भी वही अंजाम करेंगे.
मैं यह सवाल इसलिए उठा रहा हूं क्योंकि आज तक किसी मीडिया ने यह नहीं लिखा कि ब्राह्मण लड़की के साथ बलात्कार. जबकि बलात्कार की शिकार हर जाति और धर्म की महिलाएं होती हैं. ये है मीडिया का चेहरा और दलित मुद्दों को लेकर उसके काम करने का तरीका.
दलित मुद्दों को देखने का नजरिया
कुछ दिन पीछे जाइए, दिल्ली में अन्ना आंदोलन हुआ. जंतर मंतर पर दिन भर मीडिया का जमावड़ा लगा रहा. महीनों तक टीवी चैनलों और अखबारों में खबरें चलती रही. लगा जैसे बस देश सुधर गया. आंदोलन का अंजाम क्या हुआ सबके सामने है. अब बस दो महीने पीछे चलिए. ऊना की घटना के बाद गुजरात में दलितों का एक बहुत बड़ा आंदोलन हुआ. महीनों तक यह चला और आज भी चल रहा है, लेकिन मीडिया ने इस आंदोलन को कैसे दिखाया और कितना दिखाया यह आपके सामने है. मीडिया ने कभी भी जातिवाद जैसे बड़ी सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए मुहिम नहीं चलाई. अगर भ्रष्टाचार देश का नासूर बना हुआ है और उसको खतम करने को लेकर मीडिया ने दिन-रात एक कर दिया था तो क्या जातिवाद देश के लिए नासूर नहीं है और मीडिया को गुजरात और उना घटना के बहाने इस सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए आंदोलन नहीं छेड़ देना चाहिए?? जैसे उसने निर्भया मामले में और अन्ना आंदोलन के दौरान किया.
प्रतिनिधित्व
जिस विषय पर हमलोग बात कर रहे हैं, उससे जुड़ा हुआ एक और सवाल है, जिसको समझे बिना मीडिया के इस सारे खेल को समझा नहीं जा सकता है. वह सवाल है मीडिया में दलित/आदिवासी समाज के प्रतिनिधित्व का. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मीडिया में दलित/आदिवासी समाज का एक प्रतिशत प्रतिनिधित्व भी नहीं है. यानि इसमें पैसा एक खास वर्ग का लगा है और इसमें काम करने वाले 90 प्रतिशत लोग साधारण समाज (जिन्हें आप जनरल कैटेगरी कहते हैं) के लोग हैं. और इसमें भी 50 फीसदी से ज्यादा सिर्फ एक खास जाति के लोग हैं. यानि भारतीय मीडिया पूरी तरह से दो समुदायों का गठजोड़ है, जिसमें एक के पास अथाह पूंजी है तो दूसरा खुद को एकमात्र ज्ञानी होने का दावा करता है.
दलित/आदिवासी नायकों को देखने का नजरिया
अम्बेडकर जयंती वंचित तबके के लिए सबसे बड़ा त्यौहार है. असल में यह पूरे देश के लिए उल्लास का विषय होना चाहिए लेकिन पूरा देश नहीं मानता चलिए कोई बात नहीं. लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा बाबासाहेब को फॉलो करता हैऔर यह दिन उनके लिए बहुत अहम है. इसकी संख्या तकरीबन 30-40 करोड़ है. यह समाज भी टीवी देखता है. बावजूद इसके मीडिया में यह आज भी बैन है. मीडिया इसे सेलिब्रेट नहीं करती है. जो मीडिया करवा चौथ और भाई दूज तक की खबर पर पैकेज बनाता है, वही मीडिया बाबासाहेब की जयंती को नहीं दिखाता. आखिर क्यों?
बिरसा मुंडा की बात करते हैं. इस नायक के बारे में मीडिया क्यों चुप्पी साधे रहती है, जबकि देश का आदिवासी समाज उन्हें पूजता है. औऱ जिनकी विचारधारा पर झारखंड जैसा राज्य बनाया गया.
ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले का नाम आप लोग जानते होंगे, जिस दंपत्ति ने स्त्री शिक्षा को लेकर इतना बड़ा काम किया, मीडिया उन्हें क्यों नहीं याद करती है. दलित-आदिवासी और वंचित तबके के ऐसे सैकड़ों नायक हैं जिनका नाम लिया जा सकता है, लेकिन यह मीडिया उन्हें याद नहीं करता.
बिहार में दलितों का सामूहिक नरसंहार होता है. दर्जनों दलितों के घर जला दिए जाते हैं. मामला अदालत पहुंचता है, सालों तक इस पर बहस होती है, फैसला आता है औऱ सभी आरोपी बरी हो जाते हैं. किसी को कोई सजा नहीं मिलती. लेकिन कोई मीडिया यह सवाल नहीं उठाता कि आखिर दलितों का नरसंहार किसने किया?? अरे किसी ने तो मारा होगा उन्हें?? मीडिया इस पर बहस की जरूरत क्यों नहीं समझता??
स्वतंत्रता दिवस की बात करते हैं. हर साल अगस्त की 15 तारीख को देश भर में यह त्यौहार मनता है. आजादी की अनुभूति का अद्भुत नजारा होता है. टीवी चैनलों और अखबारों में अगस्त के पहले हफ्ते से ही तमाम स्पेशल रिपोर्ट की बाढ़ आ जाती है. लेकिन उस मौके पर भी इस देश का मीडिया दलित और आदिवासी समाज से जुड़े नामों को याद करने से परहेज करता है. भगत सिंह की बात होती है, गांधीजी की बात होती है, चंद्रशेखर आजाद, नेहरू तक की बात होती है, यहां तक की देश के जिन सैनिकों को परमवीर चक्र मिला होता है, उनकी भी बात होती है. होनी चाहिए, बिल्कुल होनी चाहिए.
लेकिन मेरा सवाल यह है कि तब बिरसा मुंडा की बात क्यों नहीं होती, तब 32 अंग्रजों को मार गिराने वाली ऊदा देवी पासी की बात क्यों नहीं होती, अंग्रेजों को नाकों चने चबवा देने वाला शहीद बुद्धु भगत की बात क्यों नहीं होती, वीरा पासी (50 हजार के इनामी) की बात क्यों नहीं होती, पलामू में अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले निलाम्बर और पीताम्बर बंधुओं की बात क्यों नहीं होती, जिन्होंने अंग्रेजों को इतना परेशान कर दिया कि उन पर अंग्रेजों को 50 हजार का इनाम रखना पड़ा, ऐसे वीर बांके चमार की बात क्यों नहीं होती, चौरी-चौरा के नायक रमापति चमार की बात क्यों नहीं होती? झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की बात तो की जाती है लेकिन झलकारी बाई के योगदान को उस गहराई से क्यों नहीं याद किया जाता??
बाबासाहेब मीडिया की ताकत और जरूरत दोनों को समझते थे. चूंकि उस समय जो पत्र-पत्रिकाएं निकल रही थी वह वंचित समाज के मुद्दों और समस्याओं की ओर से बिल्कुल आंखें मूंदे हुए थी. आज जब यह हाल है तो आप समझ सकते हैं कि तब क्या हालात होंगे. तो भारत के वंचित समाज के मुद्दों को उठाने के लिए बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर को एक अखबार शुरू करना था. अखबार का नाम था ‘मूकनायक’. अखबार के प्रचार प्रसार की बात आई. उसी समय बाल गंगाधर तिलक ‘केसरी’ नाम का अखबार निकाल रहे थे. डॉ. अम्बेडकर ने केसरी अखबार में मूकनायक के प्रकाशित होने का विज्ञापन छपवाने के लिए संपर्क किया, लेकिन तिलक ने बाबासाहेब अम्बेडकर द्वारा निकाले जाने वाले अखबार का विज्ञापन तक छापने से इंकार कर दिया. आप सोच सकते हैं कि केसरी जैसे अखबार जिन्होंने वंचित समाज के योग्य द्वारा दिए गए विज्ञापन को प्रकाशित नहीं किया वो दलितों के हितों से जुड़े मुद्दों को कितनी अहमियत देता होगा?
एक दूसरा उदाहरण मान्यवर कांशीराम जी से जुड़ा हुआ है. कांशीराम जी बामसेफ के बैनर तले सामाजिक तौर पर काफी सक्रिय हो चुके थे. देश भर में लोग बामसेफ से जुड़ रहे थे. बोट कल्ब पर बामसेफ का पहला अधिवेशन हुआ. देश भर से हजारों लोग इस कार्यक्रम में पहुंचे. भव्य आयोजन किया गया, लेकिन दूसरे दिन के अखबारों में इसकी एक लाइन खबर भी नहीं थी. बामसेफ से जुड़े लोगों को काफी बुरा लगा कि हमने इतना बड़ा सम्मेलन किया लेकिन इसकी कोई रिपोर्ट नहीं छपी. बामसेफ के साथियों ने कांशीराम जी से बामसेफ के आंदोलन की बात लोगों तक पहुंचाने के लिए प्रेस कांफ्रेंस करने को कहा. प्रेस क्लब बुक किया गया. तारीख और समय के साथ सभी अखबार के दफ्तरों में इसकी सूचना दे दी गई. नियत समय पर कांशीराम जी और उनके एक अन्य साथी प्रेस कल्ब पहुंच गए. एक घंटा बीता, दो घंटा बीता, तीन घंटा बीता लेकिन कोई भी मीडियाकर्मी प्रेस कांफ्रेंस में नहीं पहुंचा. गजब तो यह हुआ कि प्रेस क्लब में रोज शाम को खाने-पीने के लिए मीडियाकर्मियों की भीड़ लगी रहती है लेकिन उस दिन तमाम मीडिया वाले प्रेस क्लब आए ही नहीं.
तब कांशीराम जी ने अपने सहयोगी से कहा कि मीडिया हमारी खबरों को नहीं दिखाएगी क्योंकि मनुवादी मीडिया नहीं चाहता कि हमारा आंदोलन, हमारे नायकों की कहानियां और हमारी बात दूसरों तक पहुंचे. इसलिए पहले तो मीडिया हमारी खबरों को ब्लैक लिस्टेड करेगी और जब हमारा आंदोलन बड़ा होगा तो हमें ब्लैकमेल करेगी. स्थिति आज भी बहुत नहीं बदली है. दलित/आदिवासी/मूलनिवासी वंचित समाज से जुड़ी हुई खबरों को मीडिया आज भी इसी तरह से देखता है. और मेरा मानना है कि ब्लैक लिस्टेड और ब्लैकमेल से आगे मीडिया अब इस समाज से जुड़ी खबरों को इस तरह से परोस रहा है कि इस समाज को डराया और दबाया जा सके.
दिल्ली के जंतर-मंतर पर जाकर देखिए, इस समाज के लोग आए दिन अपनी मांगों और समस्याओं के लिए धरना प्रदर्शन करते हैं. जाहिर है कि सारी खबरों को दिखाना संभव नहीं है. लेकिन हरियाणा आपके बगल में है. वहां हिसार जगह है. उसी हिसार में भगाणा गांव है, वहां के दलित जातिवादी गुंडों के उत्पीड़न का शिकार होकर गांव से पलायन कर गए. उनकी बेटियों का बलात्कार किया गया. चार साल से वह इंसाफ के लिए आंदोलन कर रहे हैं. दो साल से जंतर-मंतर पर बैठे हैं. उन्हें इंसाफ दिलाने के लिए, उनका दर्द सुनने के लिए मुख्यधारा का कोई मीडिया नहीं पहुंचा. हां, जब उन्होंने उसी जंतर मंतर पर इस्लाम अपना लिया तो हलचल जरूर हुई थी. लेकिन उन्होंने वैसा क्यों किया, इस पर कितनी बहस हुई, आपको पता होगा.
हां, कुछ चैनल और कुछ पत्रकार हैं जो वंचित तबके की खबरों को लेकर कभी-कभी संजीदगी दिखाते हैं, ऐसे पत्रकारों को गालियां दी जा रही हैं और उनसे जुड़े चैनलों पर बैन लगाने की धमकियां मिल रही हैं.
इसी तरह मीडिया द्वारा दलित राजनीति को देखने का तरीका भी पक्षपाती है. जब दलित राजनीति का वाहक कोई नेता बहुजन महापुरुषों को सम्मान देने की बात करते हुए उनकी प्रतिमाएं बनवाता है और जिससे राज्य सरकार को हर दिन ठीक-ठाक आमदनी होती है, तो मीडिया इसे सामाजिक न्याय नहीं मानता बल्कि इसे पत्थर कह कर प्रचारित करता है. मीडिया सिर्फ इसी को केंद्र में रखकर प्रचारित करती है और उस सरकार द्वारा जनता के लिए किए गए अन्य कामों को नकारने की कोशिश करती है.
मेरा मानना है कि भारतीय मीडिया जातिवादी है. दलित मुद्दों के मामले में अंग्रेजी मीडिया हिन्दी मीडिया से ज्यादा उदार है. पिछले दिनों में सोशल मीडिया के दबाव के बीच मीडिया कुछ मुद्दों को दिखाने लगा है, लेकिन मीडिया मालिकों और संपादकों को अभी अपना दिल और ज्यादा बड़ा करना होगा.
लेखक दलित “दस्तक पत्रिका” के संपादक हैं. यह लेख ईग्नू में दिए गए व्याख्यान का लिखित रूप है.
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