केसरिया बौद्ध स्तूप की अनदेखी को लेकर बौद्ध संगठनों ने लिखा राष्ट्रपति को पत्र

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चम्पारण। बिहार के चम्पारण में स्थित विश्व का सबसे ऊंचा केसरिया बौद्ध स्तूप सुरक्षा एवं संरक्षण के अभाव में नष्ट हो रहा है. बौद्ध संगठनों की राष्ट्रीय समन्वय समिति, बुद्धगया के राष्ट्रीय संगठक आशाराम गौतम ने केसरिया बौद्ध स्तूप की सुरक्षा एवं संरक्षण को लेकर भारत के राष्ट्रपति, बिहार के मुख्यमंत्री केंद्र सरकार के सांस्कृतिक मंत्री, पर्यटन मंत्री, जनशिकायत मंत्री, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष और कई संबंधित विभागों को याचिका पत्र भेजी गई है. इस याचिका पत्र में समिति ने 6 सदस्यी भ्रमण रिपोर्ट को आधार बनाकर केसरिया बौद्ध की कुछ तस्वीरों भी भेजी हैं. इन तस्वीरों में केसरिया बौद्ध स्तूप की दुर्दशा का साफ पता चला रहा है. अपने भ्रमण में बौद्ध प्रतिनिधिमंडल ने देखा कि दुनिया के सबसे ऊंचे केसरिया बौद्ध स्तूप के अस्तित्व पर संकट छाया हुआ है. तेज बारिश एवं धूप के कारण केसरिया बौद्ध स्तूप की दीवारें एवं ईंटें गिर रही हैं. केसरिया बौद्ध स्तूप की सुरक्षा व संरक्षण में तैनात भारतीय पुरातत्व विभाग के अधिकारियों की लापरवाही, असंवेदनशीलता के कारण केसरिया स्तूप के दक्षिणी हिस्से में जंगल एवं झाड़ियां उग आई हैं जिससे बारिश का पानी स्तूप में जा रहा है, जो कि स्तूप की दीवारों को कमजोर करता जा रहा है, जिससे मिट्टी ढह रही है और केसरिया बौद्ध स्तूप नष्ट हो रहा है. देश की प्राचीन विरासत केसरिया बौद्ध स्तूप के अस्तित्व को भयंकर खतरा पैदा हो गया है. गौतम ने याचिका में कहा है कि बिहार राज्य के पूर्वी चम्पारण जिले के गन्डक नदी के तट पर मोतिहारी से 35 किलोमीटर दूर ‘साहेबगंज-चकिया मार्ग’ पर केसरिया बौद्ध स्तूप स्थित है. बौद्ध धर्म के इतिहास में केसरिया बौद्ध स्तूप का प्रमुख स्थान है. कहा जाता है कि महापरिनिर्वाण के समय भगवान बुद्ध ने वैशाली से कुशीनगर जाते समय एक रात केसरिया में गुजारी थी और लिच्छवियों को अपना भिक्षापात्र प्रदान किया था. पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार केसरिया बौद्ध स्तूप दुनिया में सबसे ऊंचा बौद्ध स्तूप है. यह स्थान बिहार की राजधानी पटना से 120 किलोमीटर और वैशाली से 30 किलोमीटर दूर है. मूलरूप से 150 फीट ऊंचे इस स्तूप की ऊंचाई सन् 1934 में आये भयानक भूकम्प से पहले 123 फीट थी, किन्तु वर्तमान समय में केसरिया बौद्ध स्तूप की ऊँचाई 104 फीट है. बौद्ध जातक कथाओं में केसरिया बौद्ध स्तूप का वर्णन मिलता है. पर्यटन के साथ-साथ बौद्ध धम्म के इतिहास में केसरिया बौद्ध स्तूप का प्रमुख स्थान है. यहां आज भी प्रतिवर्ष लाखों बौद्ध तीर्थयात्री विश्व भर से दर्शन के लिए आते हैं संगठन याचिका में विभिन्न सरकारी संस्थानों से अपी की है कि बौद्ध स्तूप के अस्तित्व को बचाने एवं स्थायी संरक्षण करने के लिए चारों तरफ “छायादार फाईबर शीट का प्लेटफार्म“ बनाकर केसरिया बौद्ध स्तूप को तेज बारिश एवं धूप से बचाया जाये. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की जमीन का गैरकानूनी अतिक्रमण एवं अवैध निर्माण किया गया है, उसको तत्काल रद्द किया जाये और आगे जो भू-अतिक्रमण किया जा रहा है उसे तत्काल रोका जाये. केसरिया बौद्ध स्तूप के दर्शन करने आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों, बौद्ध श्रद्धालुओं के लिए पर्याप्त सुलभ शौचालय, पीने के पानी की फिल्टर मशीन, खान-पान व्यवस्था एवं ‘पर्यटक गैस्ट हाऊस’ बनवाया जाये. देशी-विदेशी पर्यटकों की सुविधा के लिए बिहार राज्य के अन्दर सभी प्रमुख बौद्ध पर्यटन स्थलों विशेषकर तथागत बुद्ध की ज्ञानस्थली महाबोधि महाविहार बुद्धगया, नालंदा, राजगीर, पाटलीपुत्र (पटना), वैशाली, केसरिया बौद्ध स्तूप आदि पर्यटन स्थलों के दर्शन के लिए “वातानुकूलित पर्यटक बस सेवा” शुरू की जाये.

1998 क्रिकेट विश्वकप का ये ”तेंदुलकर”आज चरा रहा हैं भैंस

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नई दिल्ली। हमारे देश में क्रिकेट का जुनून लगभग हर किसी के सिर चढ़ कर बोलता है. किसी भी क्रिकेटर के लिए विश्वकप में देश का प्रतिनिधित्व करना एक सपने का साकार होने जैसा होता है. ऐसे ही एक क्रिकेटर हैं भालाजी डामोर. विश्वकप खेल कर भी ये आज भैंस चराने को मजबूर हैं. इनका भी एक सपना था कि वह देश के लिए विश्वकप खेलें. 1998 के विश्वकप में उनका यह सपना सिर्फ पूरा हीं नहीं हुआ, बल्कि वह इस टुर्नामेंट के हीरो भी रहे. लेकिन, दुर्भाग्य से वह आज भैंस चराने के साथ-साथ कुछ छोटे-मोटे काम कर रहे हैं. दरअसल, ब्लाइंड क्रिकेट वर्ल्ड कप-1998 में इस ऑलराउंडर खिलाड़ी की बदौलत भारत सेमीफाइनल तक का सफर तय करने में कामयाब हो सका था. गुजरात के एक साधारण से किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले नेत्रहीन भालाजी को उम्मीद थी कि विश्वकप के बाद उनकी जिंदगी में कुछ सुधार आयेगा, लेकिन दुर्भाग्य से विश्वकप 1998 के 18 वर्षो बाद आज यह होनहार एक-एक रुपये के लिये तरस रहा है. अपनी पत्नी और बच्चों के साथ भालाजी डामोर अरावली जिले के पिपराणा गांव में भालाजी और उनके भाई की एक एकड़ जमीन है, लेकिन इतनी सी जमीन पर हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी उनका परिवार महीने के केवल 3000 रुपए कमा पाता है. एक कमरे के घर में परिवार के साथ रह रहे इस स्टार क्रिकेटर के करियर में मिले पुरस्कार और सर्टिफिकेट घर में जगह-जगह बिखरे पड़े हैं. भालाजी डामोर से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें… – 38 वर्षीय इस ब्लाइंड क्रिकेटर का रिकॉर्ड बेहद शानदार है. भालाजी के नाम आज भी भारत की तरफ से सर्वाधिक विकेट लेने का रिकॉर्ड दर्ज है. – 125 मैचो में इस ऑलराउंडर ने 3,125 रन और 150 विकेट लिए हैं. – पूरी तरह से दृष्टिबाधित इस क्रिकेटर ने भारत की तरफ से 8 अंतरराष्ट्रीय मैच खेले हैं. – भालाजी केवल एक कमरे वाले घर में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहते हैं. घर खर्च में उनका हाथ बंटाने के लिए उनकी पत्नी भी खेत में काम करती हैं. एक अदद नौकरी की दरकार भालाजी डामोर कहते हैं कि विश्वकप के बाद उम्मीद थी कि मुझे कहीं नौकरी मिल जाएगी. पर, कहीं नौकरी नहीं मिल सकी. स्पोर्ट्स कोटा और विकलांग कोटा मेरे किसी काम नहीं आ सके. भालाजी बेहद भारी मन से कहते हैं कि कई सालों बाद गुजरात सरकार ने उनका प्रशंसात्मक उल्लेख जरूर किया, लेकिन किया कुछ भी नहीं है. टीम के तेंदुलकर थे भालाजी नेशनल एशोसिएशन ऑफ ब्लाइंड के वाइस प्रेसिडेंट भास्कर मेहता कहते हैं कि ””इंडियन ब्लाइंड टीम को भालाजी जैसा प्रतिभावान खिलाड़ी फिर नहीं मिला. विश्वकप के दौरान उसके साथी खिलाड़ी उसे सचिन तेंदुलकर कहकर बुलाते थे.”” बहरहाल, जिस देश में जहां एक तरफ रेगुलर क्रिकेटर्स को खूब सारी दौलत और शोहरत मिलती है, वहीं भालाजी जैसे प्रतिभाशाली क्रिकेटर को अपनी तमाम प्रतिभाओं के बावजूद करियर समाप्त होने के बाद एक सम्मानजनक जिंदगी जीने के लिए जद्दोजहद करना पड़ रहा है. (साभारः ईनाडू इंडिया)

बेकसूर दलित को पुलिस ने थाने में 6 दिनों तक दिया थर्ड डिग्री, ईलाज के दौरान मौत

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सतना। मध्य प्रदेश के सतना जिले में पुलिस के थर्ड डिग्री के कारण एक दलित की मौत हो जाने का मामला सामने आया है. मृतक के परिजन अब दोषी पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई की मांग कर रहे हैं. ये पूरा मामला रामनगर थाना क्षेत्र के हाहुर गांव का है. जहां 11 अक्टूबर को दलित परिवार के मुखिया गणेश साकेत नाम के वृद्ध की हत्या कर दी गई. जांच करने पर मामला जमीन का निकला. दरअसल, गणेश की सिर्फ एक ही बेटी थी, ऐसे में उसकी मौत के बाद उसके नाम की पूरी जमीन बेटी कमसिलिया की हो जाती. इस जमीन पर पड़ोसी कल्लू साकेत और उसकी पत्नी की भी नजर थी, जिसके लिए उन्होंने गणेश की हत्या कर दी. जांच के बाद पुलिस ने आरोपी दंपति को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया. इस बीच पुलिस ने कमसिलिया के पति रामसिया पर भी शक जाहिर किया और उसे छह दिनों की रिमांड पर ले लिया. छह दिनों तक पुलिस ने उसकी बेरहमी से पिटाई की. आरोप है कि कमसिलिया ने जब अपने पति को छोड़ने की गुहार लगाई तो टीआई आजाद खान ने उससे 30 हजार रुपए रिश्वत मांगी. अपने सुहाग को बचाने के लिए महिला ने ये राशि दे दी. रामसिया को जब छोड़ा गया तब तक पुलिस के थर्ड डिग्री से उसे काफी गंभीर चोटें आ चुकी थी. हालत बिगड़ने पर उसे तुरंत अस्पताल ले जाया गया, जहां इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई. पति की मौत के बाद अब कमसिलिया टीआई और अन्य पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई की मांग कर रही है. दलित की मौत का मामला सामने आने के बाद रेगांव विधायक ऊषा चौधरी और अन्य दलित नेता जिला अस्पताल पहुंचे, जहां उनकी पुलिसकर्मियों से जमकर बहस हुई. मामले की गंभीरता को देखते हुए सतना एसडीएम भी मौके पर पहुंचे और पीड़ित पक्ष को 10 हजार की राहत राशि देते हुए उनके बयान लिए. साथ ही दोषियों पर कार्रवाई का आश्वासन दिया.

मनु की मूर्ति के विरोध में आंदोलन शुरू

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राजस्थान हाईकोर्ट में मनु की मूर्ति स्थापित है, जबकि संविधान निर्माता बाबासाहेब अम्बेडकर की प्रतिमा हाई कोर्ट के बाहर एक चौराहे के कोने में लगी हुई है. समाज में आज भी मनुस्मृति का शासन चलता दिखाई पड़ता है, ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि मनु की मूर्ति हटाने और मनु स्मृति दहन जैसे प्रतीकात्मक कार्यवाहियों को पुन: हाथ में लिया जाये. इसी क्रम में 26 अक्टूबर को गुजरात उना दलित अत्याचार लड़त समिति के संयोजक जिग्नेश मेवाणी की मौजूदगी में जयपुर में जुटे मानवतावादी लोगों ने आर-पार की लड़ाई का ऐलान किया है कि या तो मनुवाद रहेगा या मानवतावाद. मेवाणी ने कहा कि देश के प्रधानमंत्री का अगर 56 इंच का सीना है और वह खुद को अम्बेडकर भक्त मानते है तो स्वयं मनु की मूर्ति को तोड़ें और उसका विरोध करें. उन्होंने कहा कि हम मनु की मूर्ति को हटाने के लिए विरोध प्रदर्शन करेंगे. यह विरोध प्रदर्शन जयपुर में होगा. इस बैठक में फैसला लिया है कि अगामी 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहन दिवस मनाया जाएगा. राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में लोग मनुस्मृति का दहन करेंगे और इसी दिन मनुस्मृति के खिलाफ यात्रा निकालेंगे. यह यात्रा 3 जनवरी 2017 को सावित्री बाई फुले जयंती के अवसर पर जयपुर पहुंचेगी. जहां पर मनु की मूर्ति के विरोध में महासम्मेलन और आक्रोश रैली आयोजित होगी. गौरतलब है कि जिग्नेश मेवाणी नें उना आन्दोलन के दौरान मनु के पुतले के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन की घोषणा की थी. जिग्नेश मेवाणी का कहना है कि तमाम प्रगतिशील और अम्बेडकराइट ताकतों को दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक तथा महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ एकजुट होना चाहिये. इसी एकजुटता के निर्माण की दिशा में राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच सक्रिय है. समिति को उम्मीद है की राजस्थान के अलावा अन्य राज्यों से भी लोग इस महासम्मेलन में शामिल होंगे.

संविधान में संशोधन पर्याप्त नहीं, समाज को सोच बदलने की जरूरत

आज कल देश में समान नागरिक संहिता की बहस संसद से लेकर धर्मगुरूओं की पंचायत तक डिबेट का विषय बना हुआ है. लेकिन भारत में संविधान का कानून तो है, मगर जो संविधान धर्मनिरपेक्षता और अस्पृश्यता की बात करता है उसी देश में धर्म और जाति के नाम पर दंगे, हत्यायें और शोषण हो रहे हैं. इसका कारण धर्मों के कट्टर पंथी लोगों का समाज के बड़े हिस्से पर मानसिक रूप से पकड़. भारत का संविधान विश्व का सबसे बडा़ संविधान है. यहां विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग रहते हैं. ये जरूरी है कि एक देश के संविधान और एक राष्ट्रीय ध्वज के नीचे निवास करने वाले नागरिकों के लिए समान अधिकार और समान संहिता अवश्य ही होनी चाहिए. देश के संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक नागरिकों को मूल अधिकार दिए गये है. ये मूल अधिकार विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रतायें देश के नागरिकों को प्रदान करते हैं. लेकिन अधिकारों के साथ-साथ भाग 4क के अनुच्छेद 51क में मूल कर्तवय भी दिये गये हैं. देश में समस्याएं इसलिए भी पैदा हो रही हैं कि हम अधिकारों की मांग तो करते हैं मगर कर्तव्यों को नकार देते हैं. मुस्लिम समाज में ज्यादातर सरिया और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कानून अभी तक हावी रहा है. तलाक के लिए मात्र तीन बार तलाक-तलाक कहकर तलाक को स्वीकार करना संविधान के दायरे से बाहर का कानून है, जिसको अवश्य ही संविधान के कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए. सिर्फ कानून बनाकर और संविधान में संशोधन करके समाज और देश में परिवर्तन नहीं लाया सकता. लोगों को भी अपनी सोच बदलने होग. लोगों को अपनी संकीर्ण मानसिकता में संशोधन कर संविधान के अनुरूप आचरण और व्यवहार करने की जरूरत है. आज मुस्लिम धर्म के लिए समान नागरिक संहिता चर्चा का विषय बना हुआ है. ये भी हकीकत है कि संविधान में पहले जो 6 मूल अधिकार दिये गये हैं क्या आजादी के 69 वर्ष बाद भी इन कानूनों का क्या हिंदू धर्म के समाज ने पूरी निष्ठा और ईमानदारी से पालन किया है? अनुच्छेद “17” अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए बना है. मगर अस्पृश्यता के कारण यहां शहीदों को भी जलाने के लिए दो गज जमीन नसीब नहीं होती है. जबकि अनुच्छेद 15 राज्य को आदेश देता है कि किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म, जाति, मूलवंश, लिंग, जन्म-स्थान या इनसे किसी भी आाधार पर विभेद न करें. आज भी देश में महिलाओं को वो संवैधानिक अधिकार पूर्ण रूप से हांसिल नहीं हुए हैं. महिलाओं को मंदिर प्रवेश से रोका जाता है. वंचित वर्ग जिसको दलित की उपाधि से नवाजा गया है मस्जिद, गुरूद्वारे, चर्च में तो जा सकता है मगर मंदिर में नहीं. कानून में दहेज देना और लेना दोनों अपराध की श्रेणी में आते हैं मगर देश में हर वर्ष हजारों दुल्हनें उत्पीड़न का शिकार होती हैं. हजारों की निर्मम हत्या कर दी जाती है. ये समाज की संकीर्ण सोच ही तो है. कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए सन 1994 में एक अधिनियम बनाया गया जिसमें गर्भ में पल रहे बच्चे का लिंग की जांच करना या करवाना कानूनन अपराध है. मगर इस कानून को भी लोगों ने धन कमाने का जरिया बना लिया है. समाज की संवेदनहीनता के कारण आये दिन कूडे़दानों, झाड़ियों, और नालियों में कन्याभ्रूण फेंक दिये जाते हैं. ये सब हमारी परंपरागत धर्मिक मान्यताओं का ही कारण है जो समाज में बेटे को ज्यादा महत्व देते हैं और उसे कुल का वारिस समझा जाता है. बेटियों को अलग समझा जाता है. हम संविधान से अधिकारों की ही अपेक्षा रखते हैं पुरानी कुरीतियों और अंधविश्वास को त्यागना नहीं चाहते. दूसरी बात भारत की वर्तमान राजनीति भी समाज में परिवर्तन को जल्दी नहीं देखना चाहती है. कारण स्पष्ट है कि चुनावी मुद्दों के लिए जाति और धर्म ही एक मात्र सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी बन चुकी है. एक और कड़वा सच ये भी है कि राजनीति में साधुओं, धर्मगुरुओं, शंकराचार्यों, को दखल नहीं करनी चाहिए. विज्ञान और तकनीक के युग में देश के युवाओं को बौद्धिक रूप से सशक्त करने, अंधविश्वास से दूर रहने तथा महिलाओं और वंचितों को बराबरी के अधिकार देने हेतु आहवान करने की जरूरत है. सिर्फ हिंदू-हिंदू और इस्लाम-इस्लाम रटाकर देश 21 सवीं सदी के विज्ञान के मुहाने पर खडा़ नहीं हो सकता. अब्दुल कलाम साहब के सपनों का भारत नहीं बन सकता. इसके लिए हम सब को मिलकर रूढी़वाद से लड़ना होगा. भ्रष्टाचार से लड़ना होगा. जातिवाद को खत्म करना होगा. सिर्फ और सिर्फ संविधान के आदर्शों और समाज सुधारकों के आदर्शों पर चलने के लिए नई चेतना देश में जगानी होगी. अन्यथा संविधान में चाहे कितने संशोधन कर नये कानून बनाये जायें, जब तक भारतीय समाज रूढ़ियों और फतवाओं से ऊपर उठ कर अपनी सोच में बदलाव नहीं कर लेता कानून बनाना सार्थक नहीं हो सकता. लेखक प्रवक्ता (भौतिक विज्ञान) हैं. अल्मोडा़ (उत्तराखण्ड) में रहते हैं. संपर्क- iphuman88@gmail.com

दलितों को राजनीति में मोहरा बनाए जाने पर सुप्रीम कोर्ट ने उठाया सवाल

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नई दिल्ली। धर्म, भाषा और जाति के आधार पर वोट मांगने के मुद्दे पर सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की संवैधानिक पीठ ने बुधवार को जाति और भाषाई आधार पर वोट मांगने पर सवाल पूछे. चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने पूछा, कोई उम्मीदवार दलितों के विकास की बात कहकर वोट मांग सकता है या नहीं? क्या यह गलत तरीका माना जाएगा? एक कांग्रेस उम्मीदवार की तरफ से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि दलितों के विकास के नाम पर वोट मांगना सही है. दलितों को संविधान के तहत संरक्षण मिला है. बहुत सी जगहों पर राजनीतिक दल दलितों के विकास को चुनावी मुद्दा भी बनाते हैं. चीफ जस्टिस ने पूछा कि किसी भाषा विशेष के लोगों के विकास की बात कहकर वोट मांगने को क्या कहेंगे? जैसे महाराष्ट्र में मराठी-हिंदी विवाद. इस पर सिब्बल ने बताया कि किसी एक भाषा के लोगों के विकास पर वोट मांगने को लेकर कानून स्पष्ट नहीं है. इस मुद्दे पर निर्णय संवैधानिक पीठ को करना है. उन्होंने बताया कि अगर कोई नेता दलित समाज से जुड़ा होने के आधार पर वोट मांगता है तो आरपी एक्ट की धारा 123 के तहत यह गलत है. सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर सुनवाई गुरुवार को भी जारी रहेगी. चीफजस्टिस ने पूछा कि सोशल मीडिया के जरिये मतदाताओं को लुभाने पर क्या कानून लागू होता है? इस पर सिब्बल ने बताया कि किसी उम्मीदवार, उसके एजेंट या किसी अन्य द्वारा धर्म के नाम पर वोट मांगना भ्रष्ट आचरण है. ऐसे में चुनाव रद्द करना चाहिए. हालांकि, चुनाव में सोशल मीडिया या इंटरनेट के प्रयोग पर रोक की बात कानून में नहीं है. इंटरनेट के जमाने में उम्मीदवार सोशल मीडिया पर भी धर्म के नाम पर वोटरों को लुभा सकता है. ऐसे में संविधान पीठ इंटरनेट पर चुनाव के लिए धर्म के प्रयोग पर रोक लगाने पर भी विचार करें.

जन्मदिन विशेषः राष्ट्रपति रहते हुए नारायणन ने सुप्रीम कोर्ट में दलितों के प्रवेश का रास्ता खोला

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डॉ. के.आर. नारायणन का प्रारंभिक जीवन अनेक कठिनाइयों, निर्धनता और अभावों से भरा हुआ था. किंतु आपके धैर्य, विश्वास और संघर्ष के कारण उन्होंने हर बाधा पर जीत हासिल कर ली. उनके बचपन का नाम कोचिरिल राम नारायणन था. उनका जन्म केरल राज्य के पूर्व रियासत त्रावणकोर में कोट्यम जिले में स्थित उझाउर गांव में 27 अक्टूबर, 1920 को हुआ था. उनके पिता का नाम रामन वैद्यन था. उनके पिता एवं दादा दोनों आयुर्वेदिक चिकित्सक थे. समाज में उनके पिता की एक सम्मानित पहचान थी. हालांकि परिवार के सामने आर्थिक तंगी हमेशा मुंह बाए खड़ी रहती थी, जिसकी वजह से उनके पिता अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने में सक्षम नहीं थे. लेकिन नारायणन की प्रतिभा को देखते हुए उनकी मां, बहन और भाई ने उन्हें आगे पढ़ाने का निश्चय किया. छह साल के होने पर नारायणन का दाखिला गांव से चार किलोमीटर दूर स्थित स्थानीय स्कूल में करवा दिया गया. हाई स्कूल के लिए उन्होंने कूराविले गेड़ स्कूल में दाखिला लिया. बाद में अपनी योग्यता के बल पर वह छात्रवृति हासिल करने लगे. उन्हें समझ में आ गया था कि जीवन में आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता उच्च शिक्षा हासिल कर आगे बढ़ना है. इस तरह उन्होंने कड़ी मेहनत से दसवीं कक्षा उत्तीर्ण किया. सन् 1945 में नारायणन ने त्रावणकोर विश्वविद्यालय के महाराजा कॉलेज, तिरुअनंतपुरम  से 60 प्रतिशत अंकों के साथ अंग्रेजी आनर्स में बी.ए की परीक्षा पास की. इसी कॉलेज से 1948 में उन्होंने प्रथम श्रेणी (फर्स्ट डिविजन) से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए पास किया. एम.ए पास करने के बाद उन्होंने महाराजा कॉलेज में ही अंग्रेजी प्रवक्ता (लेक्चरार) पद के लिए आवेदन किया. लेकिन त्रावणकोर के दीवान सर सी.पी. रामास्वामी अय्यर ने नारायणन को प्रवक्ता की बजाय क्लर्क के पद पर काम करने को कहा गया. अय्यर के मन में तब जातीय दंभ था और यह विद्वेष की एक दलित आखिरकार प्रवक्ता कैसे हो सकता है. स्वाभिमानी नारायणन ने क्लर्क की नौकरी लेने से साफ मना कर दिया और इसके ठीक बाद विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में विरोधस्वरूप बी.ए की डिग्री लेने से मना कर दिया. लेकिन चार दशक बाद सन् 1992 में भारत का उपराष्ट्रपति बनने पर उनके गृह राज्य केरल में केरल विश्वविद्यालय के उसी सीनेट में उनका जोरदार स्वागत किया गया, तब उऩ्होंने अपनी बी.ए की डिग्री ली. उस दौरान तात्कालिक जातिवादियों पर तंज कसते हुए के.आर.नारायणन ने कहा, “आज मुझे उन महापुरुषों के दर्शन नहीं हो रहे हैं, जिन्होंने दलित होने के कारण इस विश्वविद्यालय में मुझे प्रवक्ता बनने से वंचित कर दिया था. हालांकि उन्होंने मुझे प्रवक्ता पद पर नहीं चुन कर अच्छा ही किया क्योंकि तब शायद आज मुझे उप राष्ट्रपति बनने का सुनहरा अवसर नहीं मिलता. और न ही केरल राज्य को यह गौरव मिलता. मैं उन सभी के प्रति आभार प्रकट करता हूं.” सन् 1948 में एम.ए करने और प्रवक्ता की नौकरी नहीं मिलने के बाद के. आर. नारायणन दिल्ली में बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर से मिलने गए. बाबासाहेब वायसराय की काउंसिल में श्रम विभाग के सदस्य थे. नारायणन की योग्यता को देखते हुए बाबासाहेब ने उन्हें दिल्ली में ही भारत ओवरसीज विभाग जिसे अब विदेश विभाग कहा जाता है में 250 रुपये प्रतिमाह पर सरकारी नौकरी दिलवा दी. लेकिन अपनी साहित्यिक रुचि के कारण के.आर. नारायणन पत्रकार बनना चाहते थे इसलिए बाद में उन्होंने यह नौकरी छोड़ कर सौ रुपये प्रतिमाह वेतन पर साप्ताहिक पत्रिका ‘इकॉनामिक्स वीकली ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्री’में बतौर पत्रकार नौकरी ज्वाइन कर लिया. बाद में वह कई अन्य समाचार पत्रों से भी जुड़े रहें. राजनयिक के रूप में डॉ. नारायणन टोकियो, लंदन, आस्ट्रेलिया और हनोई में स्थित भारतीय उच्चायोग में प्रतिष्ठित पदों पर रहे. 1970 में वह चीन के राजदूत नियुक्त हुए. 1978 में रिटायर होने के बाद 3 जनवरी 1979 से 14 अक्टूबर 1980 तक वह देश के प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में कुलपति के पद पर रहे. सन् 1980-84 तक वो अमेरिका में भारत के राजदूत रहे. 1984 में डॉ. नारायणन ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया और कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की. अपने गृह राज्य उत्तरी केरल में वह ओटा पल्लम की सुरक्षित लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में विजयी हुए. राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में वह योजना राज्यमंत्री और विदेश राज्यमंत्री बने. 71 वर्ष की उम्र में वह भारत के उप राष्ट्रपति चुने गए. सभी दलों की सर्वसम्मति से इस पद पर चुने जाने वाले वह शुरुआती उप राष्ट्रपतियों में से थे. 14 जुलाई 1997 को वह भारत के 10वें राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित हुए. 25 जुलाई 1997 से 25 जुलाई 2002 तक वो भारत के राष्ट्रपति पद पर रहे. नारायणन ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने दलितों के लिए उच्चतम न्यायायल के न्यायाधीश बनने का रास्ता खोला. उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एस. आनंद ने नियमानुसार उच्चतम न्यायालय के न्यायधीशों के लिए दस न्यायविद उच्च न्यायालयों के कानून विशेषज्ञों का एक पैनल बनाकर मंजूरी के लिए राष्ट्रपति को भेजा. आम तौर पर राष्ट्रपति ऐसी सूची पर अपनी मौन स्वीकृति दे देता है, लेकिन नारायणन जी ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने देश के मुख्य न्यायाधीश को यह टिप्पणी लिखते हुए उस फाइल को लौटा दिया कि “क्या इन दस व्यक्तियों के पैनल में रखने के लिए उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों में अनुसूचित जाति और जनजाति का कोई योग्य न्यायाधीश नहीं है?” देश के राष्ट्रपति की इस टिप्पणी से सरकार से लेकर न्यायालय में हड़कंप मच गया. न्यायालय में दलितों और आदिवासियों के प्रतिनिधित्व पर बहस होने लगी. मामला गंभीर हो गया. राष्ट्रपति की इस टिप्पणी को नकारने या फिर हल्के में लेने की किसी को हिम्मत नहीं हुई. आखिरकार इस टिप्पणी ने सर्वोच्च न्यायालय में दलितों के प्रवेश का रास्ता खोला. यह डॉ. के.आर. नारायणन के जीवन की महत्वपूर्ण घटना थी, जिसके लिए बहुजन समाज हमेशा उनका ऋणी रहेगा.

बाबा साहेब के आर्थिक मॉडल पर चुप क्यों हैं पार्टियां

आने वाले वक्त में देश के महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव होने को हैं. देश 1952 से चुनावी पर्व मना रहा है. हर बार दलों ने तरह-तरह के वादे किए. वोटरों ने यकीन भी किया. केंद्र में किसी न किसी दल की सरकार बनी और उन्हें अपने वादे को पूरा करने के लिए मौका भी मिला, लेकिन गरीबी नहीं मिटी, बेरोजगारी खत्म नहीं हुई, अशिक्षा दूर नहीं हुई, सबको स्वास्थ्य की सुविधा नहीं मिली, पानी-बिजली-सड़क की कमी दूर नहीं हो पाई, गरीबों-वंचितों-मजलूमों के लिए न्याय सपना ही रहा, जातिवाद का कलंक नहीं मिटा. ये सभी समस्याएं देश के पहले आम चुनाव के समय भी विद्यमान थे और इस समय भी मौजूद हैं. उल्टे कालांतर में भ्रष्टाचार और महंगाई के मसले जुड़ गए. सामाजिक न्याय का लक्ष्य जटिल होता गया. गरीब और अमीर के बीच खाई और बढ़ गई. आर्थिक स्वतंत्रता के बारे में सोचना ही गुनाह है. इससे साफ है कि किसी भी दल की सरकार ने न ही अपने वादे पूरे किए और न ही संविधान के लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में ही काम किया. चाहे और जितने चुनाव हो जाए, जनता के प्रति दलों का जो रवैया है, उससे जाहिर होता है कि देश की मौलिक समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहेंगी. आखिर ऐसा क्यों? फिर इसका हल क्या है? एक शब्द में कहें तो देश के दलों के द्वारा डॉ. अंबेडकर के अर्थशास्त्र (आर्थिक विचारों) की अनदेखी इसकी वजह है और गरीबी दूर करने के लिए बाबा साहेब द्वारा सुझाए गए तरीकों पर अमल इसका हल है. बाबा साहेब समाज से गरीबी को खत्म करना चाहते थे. इसके लिए वे आर्थिक आजादी की बात करते थे और जातिवाद का खात्मा चाहते थे. उन्हें लगता था कि जातिवाद भी गरीबी का एक बड़ा कारण है. अधिकांश दलित-पिछड़ी जातियां छोटे कामों पर निर्भर हैं, जिसके चलते उनकी आमदनी भी छोटी ही है, जिससे उनका जीवन स्तर उठ नहीं पाता है. इसलिए जातियों की दीवार को गिराना जरूरी है. उनका मानना था कि यह काम शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता के सहारे संभव है. दोनों ही लक्ष्य पाने में वे राज्य सरकारों की बड़ी भूमिका देखते थे. वे जानते थे कि राज्य सरकार लक्ष्य तभी पूरा कर सकेगी, जब उसके खजाने भरे होंगे. इसके लिए उन्होंने उपाय भी सुझाए थे, जिस पर सरकारों को अमल करना था. डॉ. अंबेडकर ने सबसे अधिक सार्वजनिक वित्त पोषण पर काम किया. वे  राज्यों को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे. इसके लिए वे सरकारी धन का विकेंद्रीकरण चाहते थे. ब्रिटिश शासन में क्या था कि सरकारी धन पर अधिकार सेंट्रल (केंद्र) का होता था, जबकि खर्च प्रोविंस (आज के राज्य) करते थे. इसमें क्या होता था कि सरकार के पास धन कहां से आएगा, इसके लिए सेंट्रल को सोचना पड़ता था, जबकि सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए प्रोविंस खर्च करता था. इसमें प्रोविंस अक्सर अधिक पैसे की मांग करता था, जिसे केंद्र को पूरा करना होता था. बाबा साहेब ने इस व्यवस्था की खामियों के तरफ लोगों का ध्यान खींचा. उन्होंने आगाह किया कि प्रोविंस पर आय की जिम्मेदारी नहीं है, खर्च करने में वह गैर जिम्मेदार हो सकता है. इस कारण सरकारी धन के नियंत्रण का विकेंद्रीकरण होना चाहिए और अपना संसाधन जुटाने कि लिए राज्यों को स्वायत्त होना चाहिए. विडंबना यह है कि आज भी केंद्र और राज्य की वित्त व्यवस्था अंग्रेजों के जमाने की तरह है. राज्य सीमित संसाधन ही जुटा पाता है और अपने खर्च के लिए केंद्र पर निर्भर है. इसका दुष्परिणाम है कि केंद्र तरह-तरह के टैक्स लगाकर धन जमा करता है. इससे कृषि, उद्योग, व्यापार और गरीब नकारात्मक रूप से प्रभावित होते हैं. गरीबों में सबसे अधिक दलित ही हैं, जबकि जनता की इस गाढ़ी कमाई का अधिकांश हिस्सा सैलरी, रक्षा, सेना प्रशासनिक जैसे अनुत्पादक मदों पर खर्च हो जाता है. जिससे शिक्षा-स्वास्थ्य पर खर्च कम हो जाता है. अंबेडकर इस अनुत्पादक खर्च को समीति करना चाहते थे और सरकारी धन का उपयोग जनहित में सुनिश्चित करना चाहते थे. उनका मानना था कि केंद्र और राज्यों के बीच सरकारी धन के स्रोतों का समझदारी से बंटवारा नहीं होने के कारण कई राज्य पिछड़ जाएंगे. आज उनका अंदाजा सही निकला है. देश में राज्यों का असमान विकास हुआ है. कई राज्य पिछड़े हैं. इसलिए केंद्र और राज्यों के बीच आर्थिक स्वतंत्रता विकसित करने की जरूरत है. बाबा का यह सपना अभी अपूर्ण है. इसके पूरे होने की उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है. कारण राजनीति ही एक ऐसी चीज है, जिसमें राष्ट्र को आगे ले जाने की ताकत है, लेकिन अभी वह अटकी हुई प्रतीत हो रही है. इस आम चुनाव के प्रचार अभियानों पर गौर करें तो किसी भी दल के एजेंडे में आपको यह देखने को नहीं मिलेगा कि अगले पांच साल में हमारा देश कैसा होगा.  हम तरक्की की राह पर किस तरह जाएंगे. हम किस क्षेत्र में कितना विकास करेंगे. नागरिकों को कैसे खुशहाल बनाया जाए, महंगाई कैसे दूर होगी, भ्रष्टाचार का खात्मा कैसे होगा, इस पर कोई चर्चा नहीं हो रही है. राज्यों को आत्मनिर्भर बनाने का एजेंडा किसी भी दल के प्रचार अभियान में शामिल नहीं है. बाबा साहेब ने राज्य सरकार के स्वामित्व में सहकारी खेती और उद्योग का मॉडल पेश किया था. वे राज्य की सहायता से हर परिवार को आय के स्थाई स्रोत मुहैया कराना चाहते थे. वे स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित समतावादी-कल्याणकारी समाज का निर्माण करना चाहते थे. यह राजनीति से ही संभव था. संविधान में उन्होंने इसकी व्यवस्था भी की, लेकिन लगता है आज उनका सपना राजनीति के बियाबान में कहीं बिला गया है. हालांकि उम्मीद कायम रहेगी, अगला आम चुनाव भी तो है. – लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

डॉ. लोहिया के समाजवाद को यादव परिवार ने कलंकित कर दिया

देश के महान समाजवादी विचारक और राजनीतिज्ञ डॉ. राममनोहर लोहिया के जीवन में विचार ही नहीं बल्कि चरित्र और प्रजातांत्रिक मूल्यों का सर्वाधिक महत्व था. वे राजनीति में शुद्ध आचरण के सबसे बड़े पैरोकार थे. उनके विचारों में अवसरवादिता को कोई जगह नहीं थी. लेकिन उनके नाम पर राजनीति करने वालों ने अवसरवादिता को अपनाकर सत्ता के लिए ‘समाजवाद’ को ही कलंकित कर दिया है. डॉ. लोहिया संपूर्ण समाज को एक परिवार के रूप में देखते थे, वहीं आज के कथित समाजवादी एक परिवार में ही पूरा ‘समाजवाद’ देखते हैं. उत्तर प्रदेश में यादव परिवार के मुखिया मुलायम सिंह यादव, पुत्र अखिलेश यादव, भाई शिवपाल सिंह, चचेरे भाई रामगोपाल यादव, उनके पुत्र, बहुएं, नाती-पोते ही ‘समाजवादी’ परिवार हैं. और उनकी पार्टी ही समाजवादी पार्टी है. यह पार्टी लोहिया के नाम पर वोट तो मांगती है लेकिन वह वास्तविकता में डॉ. लोहिया के विचारों की पार्टी नहीं है. उसका नाम तो ‘समाजवादी’ है पर असल में वह पार्टी ‘परिवारवादी’ है. उत्तर प्रदेश में विगत साढ़े चार वर्षों से जो चल रहा है और इन दिनों जो घटित हो रहा है, वह किसी पार्टी का संकट नहीं बल्कि केवल एक ‘परिवार’ का अंदरूनी संकट है. यह डॉ. लोहिया के सच्चे विचारों से मुंह मोड़कर परिवारवाद को ‘समाजवाद’ समझने का ही नतीजा है. मुलायम सिंह यादव जिस तरह अपने परिवार को धुरी बनाकर उत्तर प्रदेश में शासन करना चाहते थे उससे कभी न कभी तो ऐसा होना ही था. वैसे भी मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी कभी लोहिया के विचारों के प्रति दिल से प्रतिबद्ध रही ही नहीं. डॉ. लोहिया राजनीति में शुद्ध आचरण के पक्षधर और सभी प्रकार के आडंबरों के सख्त खिलाफ थे. सरकारी पैसों के निजी उपयोग और फिजूलखर्जी के विरोधी थे. यहां तक की सरकारी काम और निजी काम को अलग रखने की सीख देते थे और अपने सहयोगियों से भी यही अपेक्षा रखते थे. उत्तर प्रदेश में संयुक्त विधायक दल की सरकार के वक्त समाजवादी पार्टी के एक नेता, जो की उस समय मंत्री थे, डॉ. लोहिया को मिलने कानपुर गेस्ट हाऊस गये थे. डॉ. लोहिया से भेट और चर्चा करने के उपरांत मंत्री को छोड़ने डॉ. लोहिया गेस्ट हाऊस के बाहर तक आये. तब उन्होंने देखा कि बाहर एक बड़ी गाड़ी खड़ी है. तब मंत्रियों के पास बड़ी कार हुआ करती थी. गाड़ी देखकर डॉ. लोहिया ने पुछा ‘‘यह गाड़ी किसकी है? ’’ तब मंत्री ने कहा कि इसे मैं लेकर आया हूं. उसपर डॉ. लोहिया ने खिन्न होते हुए कहा था कि कल तक हमारे समाजवादी नेता चप्पल घिसते हुए चलते थे, आज उन्हें बड़ी गाड़ियां चाहिए. उन्होंने पूछा कि तुम मुझसे निजी तौर पर मिलने आए हो या सरकारी काम से आए हो? निजी काम से आए हो तो यह गाड़ी वापस भेजो और रिक्शे से जाओ. डॉ. लोहिया का यह आदेश मानकर मंत्री ने कार वापस कर दी और खुद रिक्शे से लौट गए. यह थे डॉ. लोहिया और उस समय के समाजवादी नेता. आज खुद को उनका शिष्य बताने वाले मुलायम सिंह और उनके परिवार के लोग सरकारी धन को लुटाने में कोई परहेज नहीं करते हैं. ‘समाजवादी’ परिवार के मुखिया मुलायम सिंह यादव का सैफई में मनाये जाने वाला जन्मदिन इसकी बानगी है, जहां पानी की तरह पैसा बहाया जाता है और सरकारी मशीनरी का धड़ल्ले से दुरुपयोग किया जाता है. मुलायम सिंह का यह चरित्र कत्तई लोहिया के समाजवाद से मेल नहीं खाता है. मुलायम सिंह का समाजवाद अब परिवार तक सीमित रह गया है. डॉ. राममनोहर लोहिया पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को बहुत महत्व देते थे. वो प्रजातांत्रिक तरीके से पार्टी चलाने में विश्वास रखते थे, वहीं मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी में लोकतंत्र नदारत है. पार्टी के तमाम पद सिर्फ उनके परिवार तक ही सीमित हैं. यह लोहिया की परंपरा नहीं है. लोहिया का समाजवाद समानता और बराबरी की बात करता था. उन्होंने जो किया वह सत्ता से दूर रहकर किया था. लोहिया ने खुद को सभी प्रकार की सुविधाओं और सत्ता- संपत्ति के मोह से दूर रखा, लेकिन उनके नामपर पार्टी चलाने वाले मुलायम सिंह यादव और उनका समाजवादी परिवार सत्ता के लिए मर मिट रहे हैं और ‘समाजवाद’ की धज्जियां उड़ा रहे हैं. बसपा प्रमुख मायावती ने अपने  जन्मदिन 15 जनवरी 2016 को लखनऊ में सच ही कहा था कि ‘डॉ. राममनोहर लोहिया आज होते तो मुलायम सिंह को समाजवादी पार्टी से बाहर कर देते.’ – लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और नागपुर विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान (एम.ए.) में गोल्ड मेडलिस्ट हैं.

यूपीः मजदूरी मांगने पर दलित को पीटा, दी जाति सूचक गाली

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हापुड़। बाबूगढ़ थाना क्षेत्र के गांव ककौड़ी में एक मकान बनाने के बाद अपनी मजदूरी के रुपये मांगने पर दलित को मार खानी पड़ी. घर के मालिक ने उसकी चिनाई का सारा सामान भी छीन लिया और उसके साथ अभद्रता करते हुए भगा दिया. पीड़ित अपने परिजनों के साथ जिलाधिकारी कार्यालय में ज्ञापन देकर समस्या के समाधान की मांग की है. बीते सोमवार को जिलाधिकारी कार्यालय पहुंचे गांव गजालपुर निवासी दलित अनिल कुमार ने बताया कि वह राजमिस्त्री का काम करता है. उसने गांव ककौड़ी निवासी एक व्यक्ति के मकान को बनाने का ठेका लिया था. अभी तक मकानमालिक ने उसे 81 हजार रुपये ही दे सका है. जबकि अभी भी मजदूरी के दो लाख रुपये से अधिक बकाया है. बीते रविवार को जब काम खत्म होने के बाद उसने मकानमालिक से अपने रुपयों की मांग की तो उसने रुपये देने से मना कर दिया और उसके साथ मारपीट शुरू कर दी. इस बीच उसने विरोध किया तो उसके चिनाई के सारे औजार, बांस-बल्ली भी छीन लिए गए. साथ ही उसके साथ अभद्रता करते हुए जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किया. रुपये नहीं मिलने के कारण उसके साथ काम करने वाले मजदूर उसके घर के चक्कर काट रहे हैं. पीड़ित ने जिलाधिकारी कार्यालय में ज्ञापन देकर मजदूरी के रुपये वापस कराने की मांग की.

दलित की बेटी ने किया कारनामा, राष्ट्रपति देंगे अवार्ड

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कहते हैं कि प्रतिभा किसी पहचान की मोहताज नहीं होती है. वह अपनी कदमों की आहट से अपने होने का एहसास करवा ही लेता है. बैलगाड़ी चलाने वाले की पोती और राजमिस्त्री की बेटी ने कुछ ऐसा कमाल कर दिखाया है, जिससे उसकी तारीफ पूरा देश कर रहा है. उसके नायाब आइडिया के दमपर देशभर के हजारों छात्रों को पीछे छोड़ते हुए डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम इग्नाइट प्रतियोगिता में चयनित 32 बच्चों में मुन्नी अपना नाम जुड़वाने में सफल रही है. अब राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी सात नवंबर को दिल्ली में इसे सम्मानित करेंगे. इस बिटिया का नाम मुन्नी कुमारी है, जो फुलवारीशरीफ के फतेहपुर टोला में रहती है. मुन्नी दलित परिवार की लड़की है. मुन्नी के दादा जीवनभर बैलगाड़ी चलाते रहे. पिता नरेंद्र राम राजमिस्त्री का काम करते हैं, मुन्नी अपने तीन भाई-बहनों में बड़ी है. ढिबरा के राजकीय मध्य विद्यालय में सातवीं कक्षा में पढ़ती है. मुन्नी कहती है कि मुझे गणित करने में अच्छी लगती है. नंबर भी बढ़िया मिलते है. उधर राष्ट्रपति की ओर से सम्मानित किए जाने की खबर आने के बाद फुलवारीशरीफ के फतेहपुर टोला स्थित मुन्नी के घर पर त्यौहार सा माहौल है. आस-पास के लोग मुन्नी को बधाई देने पहुंच रहे हैं. मुन्नी ने अपने आइडिया के बारे में बताया… एक दिन एक सर हमारे स्कूल में आए. आज से करीब छह महीने पहले. उन्होंने छठी से आठवीं तक के सारे बच्चों से कहा कि कुछ नया चीज बनाने का आइडिया लिखो. क्या नया बनाना चाहिए जिससे लोगों को सहुलियत हो. सारे बच्चे लिखने लगे. मैं भी सोचने लगी कि क्या बनाना चाहिए. मेरे मन में आया कि क्यों न एक ऐसा सिस्टम बन जाए जिससे कार के गेट में अंगुली दबने का खतरा खत्म हो जाए. क्योंकि एक बार एक कार के गेट में मेरी अंगुली दब गई थी. फिर गेट खुलने और बंद होने पर रेड लाइट जलने वाला आइडिया मैंने लिख दिया. लिख कर मैंने कॉपी जमा कर दिया. बाहर से आए सर बच्चों की कॉपियां लेकर चले गए. हमलोग तो भूल ही गए थे. लेकिन जब मुझे इस बात का पता चला कि मेरा चयन डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम इग्नाइट प्रतियोगिता में हो गया है और मुझे राष्ट्रपति से पुरस्कार मिलेगा तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. मुन्नी ने यह संदेश दिया कि हमेशा कुछ नया सोचिए, समाज के लिए सोचिए और नया कीजिए. देशभर के 55089 छात्रों का आइडिया दिल्ली पहुंचा था लेकिन उसमें सिर्फ 32 छात्रों के आइडिया को चुना गया. अब इस आइडिया का पेटेंट होगा. मुन्नी आगे चल कर इंजिनियर बनना चाहती है और देश का नाम रोशन करना चाहती है.

बिहारः महिला इंजीनियर को कुर्सी से बांधकर जिंदा जलाया

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मुजफ्फरपुर। बिहार के मुजफ्फरपुर में कुर्सी से बांधकर महिला जूनियर इंजीनियर को जिंदा जलाने का सनसनीखेज मामला सामने आया है. अहियापुर थाना के बजरंग विहार कॉलोनी के एक निर्माणाधीन मकान में बीते रविवार देर रात मुरौल में पदस्थापित मनरेगा जेई सरिता देवी को जिंदा जला दिया गया. मौके पर केवल राख और पैर की हड्डियां मिली हैं. मृतका की मां कुसुम देवी ने शव की पहचान की है. शुरूआती जांच में पुलिस इसे हत्या का मामला मान रही है. जानकारी के मुताबिक मृतका सरिता देवी सीतामढ़ी की रहने वाली है. सरिता की शादी नेपाल बॉर्डर पर कन्हौली फूलकाहां निवासी विजय नायक से हुई थी. उसके दो पुत्र हैं. पति गांव में ही रहता है. सरिता पिछले तीन सालों से मुरौल में जेई पद पर थी और बजरंग विहार कॉलोनी में विजय गुप्ता के मकान में रहती थीं. विजय मनरेगा की योजनाओं का इस्टीमेट बनाता था. बीते सोमवार की सुबह शॉट सर्किट से आग की सूचना पर लोग जमा हो गए. विजय किसी को अंदर नहीं जाने दे रहा था. कुछ लोग जबरन अंदर गए. वहां देखा कि पैर की जली हड्डी और अवशेष पड़ा है. माना जा रहा है कि किसी ने कुर्सी ने बांध कर महिला को जला दिया. पुलिस पूरे मामले की जांच कर रही है. इस संबंध में विजय गुप्ता से भी पूछताछ की जा रही है. पुलिस ने मौके से एक सुसाइड नोट भी बरामद किया है. नोट में मृतका ने अपनी मां से बच्चों का ख्याल रखने की बात कही है. फिलहाल पुलिस ने सुसाइड नोट की हैंडराइटिंग को पुख्ता करने के लिए फोरेंसिक जांच के लिए भेज दिया है. बता दें कि मृतका रविवार शाम आखिरी बार कॉलोनी में ही देखी गई थी. गौरतलब है कि घटनास्थल और मौके पर पड़ी हड्डियों को देखकर पुलिस को शक है कि महिला को केमिकल छिड़क कर जलाया गया होगा. फिलहाल पुलिस सभी सुबूतों को इकट्ठा करते हुए परिवार के सदस्यों से पूछताछ कर रही है. साथ ही पुलिस ने निर्माणाधीन मकान को भी सील कर दिया है.

जन्मदिन विशेषः मैकाले की शिक्षा पद्धति ने दिया बहुजनों को आगे बढ़ने का अवसर

भारत में ऐसे विद्धानों की कमी नहीं है जो प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति का गुणगान करते नहीं थकते और लॅार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति को पानी-पी पीकर गालियां देते हैं. लेकिन इन्हीं लार्ड मैकाले की वजह से दलितों के लिए शिक्षा का रास्ता खुला और उन्हें न्याय मिलने का मार्ग प्रशस्त हो सका. ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन ने सन 1835 ई. में भारत के लिये एक विधि आयोग का गठन किया था, जिसका अध्यक्ष बना कर लॅार्ड मैकाले को भारत भेजा गया. इसी वर्ष लार्ड मैकाले ने भारत में नई शिक्षा नीति की नींव रखी. 6 अक्टूबर 1860 को लॅार्ड मैकाले द्वारा लिखी गई भारतीय दण्ड संहिता लागू हुई और मनुस्मृति का विधान खत्म हुआ. इसके पहले भारत में मनुस्मृति के काले कानून लागू थे, जिनके अनुसार अगर ब्राह्मण हत्या का आरोपी भी होता था तो उसे मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था और वेद वाक्य सुन लेने मात्र के अपराध में शूद्र के कानों में पिघलता सीसा डाल देने का प्रावधान था. वैसे तो अंग्रेज भी 1750 ई. तक लगभग आधे भारत पर शासन करने लग गये थे, परन्तु कानून तब भी मनुस्मृति के ही चलते थे. स्कूल 1833 ई. से ही अंग्रेजी सरकार द्वारा खोल दिये गये थे, परन्तु शूद्रों का प्रवेश तब भी वर्जित था. लॅार्ड मैकाले ने यहां का सामाजिक भेदभाव, शिक्षण में भेदभाव और दण्ड संहिता में भेदभाव देखकर ही आधुनिक शिक्षा पद्धति की नींव रखी और भारतीय दण्ड संहिता लिखी. जहां आधुनिक शिक्षा पद्धति में सबके लिये शिक्षा के द्वार खुले थे, वहीं भारतीय दण्ड संहिता के कानून ब्राह्मण और मेहतर, सबके लिये समान थे, जिसके चलते 1874 ई. में नन्द कुमार नामक ब्राह्मण को हत्या के आरोप में फांसी की सजा दी. मनुस्मृति की व्यवस्था से ब्राह्मणों को इतनी महानता प्राप्त होती रही थी कि वे अपने आपको धरती का प्राणी होते हुए भी आसमानी पुरुष अर्थात देवताओं के भी देव समझा करते थ. लॅार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति से ब्राह्मणों को अपने सारे विषेषाधिकार छिनते नजर आये, इसी कारण से उन्होनें प्राण-प्रण से इस नीति का विरोध किया. इनकी नजर में लॅार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति केवल बाबू बनाने की शिक्षा देती है, पर मेरा मानना है कि लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से बाबू तो बन सकते हैं, प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति से तो वो भी नहीं बन सके. हां, ब्राह्मण सब कुछ बन सके थे, चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या नहीं. अन्य जातियों के लिये तो ये रास्ते बन्द ही थे. प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के समर्थक यह बताने का कष्ट करेंगे कि किस काल में किस राजा के यहां कोई भंगी, चमार, मोची, बैरवा, रैगर, भांभी, कोली, धोबी, मीणा, नाई, कुम्हार, खाती या इसी प्रकार कोई भी अनुसूचित जाति, जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग का व्यक्ति मंत्री, पेशकार, महामंत्री या सलाहकार रहा हो? अतः इन जातियों के लिये तो यह शिक्षा पद्धति कोहनी पर लगा गुड़ ही साबित हुई. ऐसी पद्धति की लाख अच्छाईयां रही होंगी, पर यदि हमें पढ़ाया ही नहीं जाता हो, गुरुकुलों में प्रवेश ही नहीं होता हो तो हमारे किस काम की? सरसरी तौर पर इन दोनों शिक्षा पद्धतियों में तुलना करते हैं. फिर आप स्वयं ही निर्णय ले सकते है कि कौन-सी शिक्षा पद्धति कैसी है? प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति 1. इसका आधार प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थ रहे. 2. इसमें शिक्षा मात्र ब्राह्मणों द्वारा दी जाती थी. 3. इसमें शिक्षा पाने के अधिकारी मात्र सवर्ण ही होते थे. 4. इसमें धार्मिक पूजापाठ और कर्मकाण्ड का बोलबाला रहता था. 5. इसमें धर्मिक ग्रन्थ, देवी-देवताओं की कहानियां, चिकित्सा, भेशजी, कला और तंत्र, मंत्र, ज्योतिष, जादू टोना आदि शामिल रहे हैं. 6. इसका माध्यम मुख्यतः संस्कृत रहता था. 7. इसमें ज्ञान-विज्ञान, भूगोल, इतिहास और आधुनिक विषयों का अभाव रहता था, अथवा अतिश्योक्तिपूर्ण ढंग से बात कही जाती थी. जैसेः-राम ने हजारों वर्ष राज किया, भारत जम्बू द्वीप में था. कुंभकर्ण का शरीर कई योजन था, कोटि-कोटि सेना लड़ी, आदि. 8. इस नीति के तहत कभी ऐसा कोई गुरुकुल या विद्यालय नहीं खोला गया, जिसमें सभी वर्णों और जातियों के बच्चे पढ़तें हों. 9. इस शिक्षा नीति ने कोई अंदोलन खड़ा नहीं किया, बल्कि लोगों को अंधविश्वासी, धर्मप्राण, अतार्किक और सब कुछ भगवान पर छोड़ देने वाला ही बनाया. 10. यह गुरुकुलों में लागू होती थी. वैसे नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला विश्वविद्यालय भी हुए, शिक्षा की प्रणाली में कोई अंतर नहीं था. 11. गुरुकुलों में प्रवेश से पूर्व छात्र का यज्ञोपवीत संस्कार अनिवार्य था. चूंकि हिन्दू धर्म शास्त्रों में शूद्रों का यज्ञोपवीत संस्कार वर्जित है, अतः शूद्र व दलित तो इसको ग्रहण ही नहीं कर सकते थे. अतः इनके लिये यह किसी काम की नहीं  रही. 12. इसमें तर्क का कोई स्थान नहीं था. धर्म और कर्मकाण्ड पर तर्क करने वाले को नास्तिक का करार दे दिया जाता था. जैसे चार्वाक, तथागत बुद्ध और इसी तरह अन्य. 13. इस प्रणाली में चतुर्वर्ण समानता का सिद्धांत नहीं रहा. 14. प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में दलित विरोधी भावनाएं प्रबलता से रही हैं. जैसे कि एकलव्य का अंगूठा काटना, शम्बूक की हत्या आदि। 15. इससे हम विश्व से परिचित नहीं हो पाते थे. मात्र भारत और उसकी महिमा ही गाये जाते थे. 16. इसमें वर्ण व्यवस्था का वर्चस्व था. 17. इसमें व्रत, पूजा-पाठ, त्योहार, तीर्थ यात्राओं आदि का बहुत महत्त्व रहा.   लार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति 1. इसका आधार तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार उत्पन्न आवश्यकतायें रहीं. 2. लॅार्ड मैकाले ने शिक्षक भर्ती की नई व्यवस्था की, जिसमें हर जाति व धर्म का व्यक्ति शिक्षक बन सकता था. तभी तो रामजी सकपाल (बाबा साहेब डॉक्टर अम्बेडकर के पिताजी) सेना में शिक्षक बने. 3. जो भी शिक्षा को ग्रहण करने की इच्छा और क्षमता रखता है, वह इसे ग्रहण कर सकता है. 4. इसमें धार्मिक पूजापाठ और कर्मकाण्ड के बजाय तार्किकता को महत्त्व दिया जाता है. 5. इसमें इतिहास, कला, भूगोल, भाषा-विज्ञान, विज्ञान, अभियांत्रिकी, चिकित्सा, भेशजी, प्रबन्धन और अनेक आधुनिक विद्यायें शामिल हैं. 6. इसका माध्यम प्रारम्भ में अंग्रेजी भाषा और बाद में इसके साथ-साथ सभी प्रमुख क्षेत्रीय भाषाएं हो गईं. 7. इसमें ज्ञान-विज्ञान, भूगोल, इतिहास और आधुनिक विषयों की प्रचुरता रहती है और अतिश्योक्ति पूर्ण या अविश्वसनीय बातों का कोई स्थान नहीं होता है. 8. इस नीति के तहत सर्व प्रथम 1835 से 1853 तक लगभग प्रत्येक जिले में एक स्कूल खोला गया. आज यही कार्य राज्य और केंद्र सरकारें कर रही हैं. साथ ही निजी संस्थाएं भी शामिल हैं. 9. भारत में स्वाधीनता आंदोलन खड़ा हुआ, उसमें लार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति का बहुत भारी योगदान रहा, क्योंकि जन सामान्य पढ़ा-लिखा होने से उसे देश-विदेश की जानकारी मिलने लगी, जो इस आंदोलन में सहायक रही. 10. यह विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में लागू होती आई है. 11. इसको ग्रहण करने में किसी तरह की कोई पाबन्दी नहीं रही, अतः यह जन साधारण और दलितों के लिये सर्व सुलभ रही. अगर शूद्रों और दलितों का भला किसी शिक्षा से हुआ तो वह लार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा प्रणाली से ही हुआ. इसी से पढ़ लिख कर बाबासाहेब अम्बेडकर डॉक्टर बने. 12. इसमें तर्क को पूरा स्थान दिया गया है. धर्म अथवा आस्तिकता-नास्तिकता से इसका कोई वास्ता नहीं है. 13. यह गरीब भिखारी से लेकर राजा-महाराजा, सब के लिये सुलभ है. 14. इसमें सर्व वर्ण व सर्व धर्म समान हैं. आदिवासी और मूलनिवासी भी इसमें शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं. लेकिन जहां-जहां संकीर्ण मानसिकता वाले ब्राह्मणवादियों का वर्चस्व बढ़ा है, उन्होनें इसमें भी दलितों को शिक्षा से वंचित किया है. 15. इससे हम आधुनिक विश्व से सरलता से परिचित  हो रहे हैं. 16. इसमें सभी जातियां, वर्ण और धर्म समान हैं. इसमें इस प्रकार की बातों का कोई महत्त्व नहीं है, परन्तु इसमें भी जहां-जहां ब्राह्मणवादी लोग घुसे हैं, उन्होंने ऐसी बातों को मिला दिया है. अब फैसला प्रबुद्ध पाठकों को करना है कि कौन सी शिक्षा पद्धति अच्छी है?  क्यों न दलित समाज द्वारा 25 अक्टूबर को लार्ड मैकाले का जन्मदिवस मनाया जाये? लेखक सहायक प्रोफेसर हैं.

चपरासी ने दलित को पानी पिलाने से किया मना, इंजीनियर ने दी जातिसूचक गालियां

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गाजियाबाद। एक तरफ जहां देश में जातीय भेदभाव मिटाने और उन्हें सामान अधिकार दिलाने की बातें सभी राजनैतिक दल कहते हैं वहीं, दूसरी तरफ साहिबाबाद के एक बिजली घर में दलित के साथ छुआछूत का मामला सामने आया है. घटना साहिबाबाद के आनन्द इंडस्ट्रियल स्टेट में बने बिजली घर की है, जहां दलित युवक के पानी मांगने पर कार्यकारी इंजीनियर और चपरासी ने पानी पिलाने से मना कर दिया. दरअसल बिजली घर में किसी कार्य से आये एक दलित मोनू ने बिजली घर के कार्यकारी इंजीनियर ने प्रभात कुमार और चपरासी पर आरोप लगाया है कि जब उसने पीने के लिए चपरासी से पानी मांगा तो चपरासी ने उन्हें जाति सूचक शब्द बोलते हुए पानी पिलाने से मना कर दिया और कहा ये साहब के गिलास हैं और साहब ने आप जैसे लोगों को पानी पिलाने से मना किया है. जिस पर दोनों में कहासुनी हो गई. जब कहासुनी की आवाज कार्यकारी इंजीनियर प्रभात कुमार ने सुनी तो वे अपने कमरे से बाहर आया. आरोप है कि इंजीनियर ने भी मामले को जानने के बाद दलित को जाति सूचक शब्द बोलते हुए कहा कि यहां तुम जैसे लोगों को पानी पिलाने नहीं आते हैं. मोनू शिकायत लेकर बीते रविवार को दलित समाज के लोगों के साथ साहिबाबाद थाने पहुंचे और अपनी शिकायत दी. पुलिस को जैसे ही मामले की शिकायत मिली पुलिस ने मामले की जांच में जुट गयी है. पुलिस का कहना है की मामला संज्ञान में आया है, जिसकी जांच की जा रही है और इस मामले जो दोषी पाया जाएगा उसके खिलाफ कार्यवाही की जायेगी

राम राज्य कभी नहीं आना चाहिएः ओशो

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राम के समय को तुम रामराज्य कहते हो. हालात आज से भी बुरे थे. कभी भूल कर रामराज्य फिर मत ले आना! एक बार जो भूल हो गई, हो गई. अब दुबारा मत करना. राम के राज्य में आदमी बाजारों में गुलाम की तरह बिकते थे. कम से कम आज आदमी बाजार में गुलामों की तरह तो नहीं बिकता! और जब आदमी गुलामों की तरह बिकते रहे होंगे, तो दरिद्रता निश्चित रही होगी, नहीं तो कोई बिकेगा कैसे? किसलिए बिकेगा? दीन और दरिद्र ही बिकते होंगे, कोई अमीर तो बाजारों में बिकने न जाएंगे. कोई टाटा, बिड़ला, डालमिया तो बाजारों में बिकेंगे नहीं. स्त्रियां बाजारों में बिकती थीं! वे स्त्रियां गरीबों की स्त्रियां ही होंगी. उनकी ही बेटियां होंगी. कोई सीता तो बाजार में नहीं बिकती थी. उसका तो स्वयंवर होता था. तो किनकी बच्चियां बिकती थीं बाजारों में? और हालात निश्चित ही भयंकर रहे होंगे. क्योंकि बाजारों में ये बिकती स्त्रियां और आदमी, विशेषकर स्त्रियां-राजा तो खरीदते ही खरीदते थे, धनपति तो खरीदते ही खरीदते थे, जिनको तुम ऋषि-मुनि कहते हो, वे भी खरीदते थे. गजब की दुनिया थी. ऋषि-मुनि भी बाजारों में बिकती हुई स्त्रियों को खरीदते थे! अब तो हम भूल ही गए वधु शब्द का असली अर्थ. अब तो हम शादी होती है नई-नई, तो वर-वधु को आशीर्वाद देने जाते हैं. हमको पता ही नहीं कि हम किसको आशीर्वाद दे रहे हैं. राम के समय में, और राम के पहले भी वधु का अर्थ होता था, खरीदी गई स्त्री. जिसके साथ तुम्हें पत्नी जैसा व्यवहार करने का हक है, लेकिन उसके बच्चों को तुम्हारी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होगा. पत्नी और वधु में यही फर्क था. सभी पत्नियां वधु नहीं थीं और सभी वधुएं पत्नियां नहीं थीं. वधु नंबर दो की पत्नी थी. जैसे नंबर दो की बही होती है न, जिसमें चोरी-चपाटी का सब लिखते रहते हैं! ऐसी नंबर दो की पत्नी थी वधु. ऋषि-मुनि भी वधुएं रखते थे और तुमको यही भ्रांति है कि ऋषि-मुनि गजब के लोग थे. कुछ खास गजब के लोग नहीं थे. वैसे ऋषि-मुनि अभी भी तुम्हें मिल जाएंगे. इन ऋषि-मुनियों में और तुम्हारे पुराने ऋषि-मुनियों में बहुत फर्क मत पाना तुम. कम से कम इनकी वधुएं तो नहीं हैं. कम से कम ये बाजार से स्त्रियां तो नहीं खरीद ले आते. इतना बुरा आदमी तो आज पाना मुश्किल है जो बाजार से स्त्री खरीद कर लाए. आज यह बात ही अमानवीय मालूम होगी. मगर यह जारी थी! रामराज्य में शूद्र को हक नहीं था वेद पढ़ने का. यह तो कल्पना के बाहर की बात थी कि डाक्टर अम्बेडकर जैसा अतिशूद्र और राम के समय में भारत के विधान का रचयिता हो सकता था. असंभव. खुद राम ने एक शूद्र के कानों में सीसा पिघलवा कर भरवा दिया था-गरम सीसा, उबलता हुआ सीसा. उसने चोरी से, कहीं वेद के मंत्र पढ़े जा रहे थे, वे छिप कर सुन लिए थे. यह उसका पाप था. यह उसका अपराध था. और राम तुम्हारे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं? राम को तुम अवतार कहते हो? और महात्मा गांधी रामराज्य को फिर से लाना चाहते थे. क्या करना है? शूद्रों के कानों में फिर से सीसा पिघलवा कर भरवाना है? उसके कान तो फूट ही गए होंगे. शायद मस्तिष्क भी विकृत हो गया होगा. उस गरीब पर क्या गुजरी, किसी को क्या लेना-देना, शायद आंखें भी खराब हो गई होंगी. कान, आंख, नाक, मस्तिष्क, सब जुड़े हैं और दोनों कानों में अगर सीसा उबलता हुआ… तुम्हारा खून क्या खाक उबल रहा है निर्मल घोष. उबलते हुए शीशे की जरा सोचो. उबलता हुआ सीसा जब कानों में भर दिया गया होगा तो चला गया होगा पर्दों को तोड़ कर, भीतर मांस-मज्जा तक को प्रवेश कर गया होगा, मस्तिष्क के स्नायुओं तक को जला गया होगा. फिर इस गरीब पर क्या गुजरी, किसी को क्या लेना-देना है. धर्म का कार्य पूर्ण हो गया. ब्राह्मणों ने आशीर्वाद दिया कि राम ने धर्म की रक्षा की. यह धर्म की रक्षा थी और तुम कहते हो कि मौजूदा हालात खराब हैं. युधिष्ठिर जुआ खेलते हैं, फिर भी धर्मराज थे और तुम कहते हो, मौजूदा हालात खराब हैं. आज किसी जुआरी को धर्मराज कहने की हिम्मत कर सकोगे? और जुआरी भी कुछ छोटे-मोटे नहीं, सब जुए पर लगा दिया. पत्नी तक को दांव पर लगा दिया. एक तो यह बात ही अशोभन है, क्योंकि पत्नी कोई संपत्ति नहीं है. मगर उन दिनों स्त्री-संपत्ति की ही धारणा थी. इसी धारणा के अनुसार आज भी जब बाप अपनी बेटी का विवाह करता है, तो उसको कहते हैं कन्यादान. क्या गजब कर रहे हो. गाय-भैंस दान करो तो भी समझ में आता है. कन्यादान कर रहे हो. यह दान है? स्त्री कोई वस्तु है? ये असभ्य शब्द, ये असंस्कृत हमारे प्रयोग शब्दों के बंद होने चाहिए. अमानवीय हैं, अशिष्ट हैं, असंस्कृत हैं. मगर युधिष्ठिर धर्मराज थे और अपनी पत्नी को भी दांव पर लगा दिया. हद का दीवानापन रहा होगा. पहुंचे हुए जुआरी रहे होंगे. इतना भी होश न रहा. उसके बाद भी धर्मराज धर्मराज ही बने रहे; इससे कुछ अंतर न आया. इससे उनकी प्रतिष्ठा में कोई भेद न पड़ा. इससे उनका आदर जारी रहा. भीष्म पितामह को ब्रह्मज्ञानी समझा जाता था. मगर ब्रह्मज्ञानी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे. गुरु द्रोण को ब्रह्मज्ञानी समझा जाता था. मगर गुरु द्रोण भी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे. अगर कौरव अधार्मिक थे, दुष्ट थे, तो कम से कम भीष्म में इतनी हिम्मत तो होनी चाहिए थी और बाल-ब्रह्मचारी थे. इतनी भी हिम्मत नहीं? तो खाक ब्रह्मचर्य था यह! किस लोलुपता के कारण गलत लोगों का साथ दे रहे थे? और द्रोण तो गुरु थे अर्जुन के भी, और अर्जुन को बहुत चाहा भी था. लेकिन धन तो कौरवों के पास था; पद कौरवों के पास था; प्रतिष्ठा कौरवों के पास थी. संभावना भी यही थी कि वही जीतेंगे. राज्य उनका था. पांडव तो भिखारी हो गए थे. इंच भर जमीन भी कौरव देने को राजी नहीं थे. और कसूर कुछ कौरवों का हो, ऐसा समझ में आता नहीं. जब तुम्हीं दांव पर लगा कर सब हार गए, तो मांगते किस मुंह से थे? मांगने की बात ही गलत थी. जब हार गए तो हार गए. खुद ही हार गए, अब मांगना क्या है. लेकिन गुरु द्रोण भी अर्जुन के साथ खड़े न हुए. खड़े हुए उनके साथ जो गलत थे. यही गुरु द्रोण एकलव्य का अंगूठा कटवा कर आ गए थे अर्जुन के हित में, क्योंकि तब संभावना थी कि अर्जुन सम्राट बनेगा. तब इन्होंने एकलव्य को इनकार कर दिया था शिक्षा देने से. क्यों? क्योंकि शूद्र था. और तुम कहते हो, “मौजूदा हालात बिलकुल पसंद नहीं.” निर्मल घोष, एकलव्य को मौजूदा हालात उस समय के पसंद पड़े होंगे? उस गरीब का कसूर क्या था? अगर उसने मांग की थी, प्रार्थना की थी कि मुझे भी स्वीकार कर लो शिष्य की भांति, मुझे भी सीखने का अवसर दे दो? लेकिन नहीं, शूद्र को कैसे सीखने का अवसर दिया जा सकता है? मगर एकलव्य अनूठा युवक रहा होगा. अनूठा इसलिए कहता हूं कि उसका खून नहीं खौला. खून खौलता तो साधारण युवक दो कौड़ी का. सभी युवकों का खौलता है, इसमें कुछ खास बात नहीं. उसका खून नहीं खौला. शांत मन से उसने इसको स्वीकार कर लिया. एकांत जंगल में जाकर गुरु द्रोण की प्रतिमा बना ली और उसी प्रतिमा के सामने शर-संधान करता रहा. उसी के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा. अदभुत युवक था. उस गुरु के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा जिसने उसे शूद्र के कारण इनकार कर दिया था. अपमान न लिया. अहंकार पर चोट तो लगी होगी, लेकिन शांति से, समता से पी गया. धीरे-धीरे खबर फैलनी शुरू हो गई कि वह बड़ा निष्णात हो गया है. तो गुरु द्रोण को बेचैनी हुई, क्योंकि बेचैनी यह थी कि खबरें आने लगीं कि अर्जुन उसके मुकाबले कुछ भी नहीं. और अर्जुन पर ही सारा दांव था. अगर अर्जुन सम्राट बने, और सारे जगत में सबसे बड़ा धनुर्धर बने, तो उसी के साथ गुरु द्रोण की भी प्रतिष्ठा होगी. उनका शिष्य, उनका शागिर्द ऊंचाई पर पहुंच जाए तो गुरु भी ऊंचाई पर पहुंच जाएगा. उनका सारा का सारा न्यस्त स्वार्थ अर्जुन में था. एकलव्य अगर आगे निकल जाए तो बड़ी बेचैनी की बात थी. तो यह बेशर्म आदमी, जिसको कि ब्रह्मज्ञानी कहा जाता है. यह गुरु द्रोण, जिसने इनकार कर दिया था एकलव्य को शिक्षा देने से, यह उससे दक्षिणा लेने पहुंच गया. शिक्षा देने से इनकार करने वाला गुरु, जिसने दीक्षा ही न दी, वह दक्षिणा लेने पहुंच गया. हालात बड़े अजीब रहे होंगे. शर्म भी कोई चीज होती है. इज्जत भी कोई बात होती है. आदमी की नाक भी होती है. ये गुरु द्रोण तो बिलकुल नाक-कटे आदमी रहे होंगे. किस मुंह से, जिसको दुत्कार दिया था, उससे जाकर दक्षिणा लेने पहुंच गए. और फिर भी मैं कहता हूं, एकलव्य अदभुत युवक था. दक्षिणा देने को राजी हो गया. उस गुरु को, जिसने दीक्षा ही नहीं दी कभी. यह जरा सोचो तो उस गुरु को, जिसने दुत्कार दिया था और कहा कि तू शूद्र है. हम शूद्र को शिष्य की तरह स्वीकार नहीं कर सकते. जिस शूद्र को शिष्य की तरह स्वीकार नहीं कर सकते, उस शूद्र की भी दक्षिणा स्वीकार कर सकते हो. उसमें षडयंत्र था. चालबाजी थी. उसने चरणों पर गिर कर कहा, आप जो कहें. मैं तो गरीब हूं, मेरे पास कुछ है नहीं देने को. मगर जो आप कहें, जो मेरे पास हो, तो मैं देने को राजी हूं. प्राण भी देने को राजी हूं. तो क्या मांगा? मांगा कि अपने दाएं हाथ का अंगूठा काट कर मुझे दे दे. जालसाजी की भी कोई सीमा होती है. अमानवीयता की भी कोई सीमा होती है. कपट की, कूटनीति की भी कोई सीमा होती है. और यह ब्रह्मज्ञानी. उस गरीब एकलव्य से अंगूठा मांग लिया.  अदभुत युवक रहा होगा, निर्मल घोष, तत्क्षण काट कर अपना अंगूठा दे दिया. जानते हुए कि दाएं हाथ का अंगूठा कट जाने का अर्थ है कि मेरी धनुर्विद्या समाप्त हो जाएगी. अब मेरा कोई भविष्य नहीं. इस आदमी ने सारा भविष्य ले लिया. शिक्षा दी नहीं, और दक्षिणा में, जो मैंने अपने आप सीखा था, उस सब को विनिष्ट कर दिया.

जय हिंद से पहले आया “जय भीम” का नारा

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जय भीम का नारा पहली बार कोरेगांव के युद्ध में 1 जनवरी 1818 में बोला गया था. यह युद्ध पेशवा और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुआ था. जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार ने बताया कि युद्ध के दौरान महार सिपाही (तत्कालिक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का भाग) भीमा नदी पार करने के लिए जय भीम का नारा लगाकर अपने आप को प्रोत्साहित करते थे. महार सेना ने पेशवा को हरा दिया था. बाबासाहेब हर वर्ष पुणे स्थित इस जगह जाया करते थे और महारों के द्वारा प्रदर्शित अनुकरणीय वीरता को पुष्पांजलि अर्पित करते थे. प्रो. विवेक ने आगे बताया कि 1936 में इंडिपेंडेट लेबर पार्टी (आईएलपी) की स्थापना के बाद, जब बाबासाहेब मुंबई चॉल में अपना जन्मदिन मना रहे थे तो उनके एक समर्थक ने शुभकामना देने के लिए जय भीम बोला. उसके बाद यह बढ़ता गया. आंदोलन के तौर पर, जय भीम की प्रसिद्धि बाबासाहेब की मृत्यु बाद से हुआ. जय भीम 1960 के बाद हिंदी भाषी क्षेत्रों में प्रचलित होना शुरू हो गया. एक कवि बिहारीलाल ने जय भीम का प्रयोग पहली बार दिल्ली में किया. के जमनादास द्वारा लिखित (अम्बेडकर से संबंधित एक वेबसाइट पर प्रकाशित) लेख में बताया गया पीटी रामटेके द्वारा लिखित शोध पत्र “जय भीम चे जनक” में बताया गया कि हरदास ने कैसे जय भीम का नारा बुलंद किया. यह शोध पत्र वर्ष 2000 में प्रकाशित हुआ था. यह शोध पत्र हरदास की कल्पना और जय भीम के विचार को विकसित करता है. हरदास को जय राम-पति बोलना अच्छा नहीं लगता था. एक मौलवी ने उन्हें सालम आलेकुम का मतलब बताया. हरदास को यह भी अच्छा नहीं लगा फिर उन्हें विचार आया कि जय भीम क्यों न बोला जाए? तबसे वो जय भीम बोलने लगे और निर्णय किया की जय भीम की प्रतिक्रिया बाल भीम से होनी चाहिए. इस नारे का प्रयोग वह विजय भीम संघ के कार्यकर्ताओं के साथ किया. उसके बाद “बाल भीम” को छोड़ दिया और उन्होंने निर्णय किया अभिवादन के लिए जय भीम ही बोला जाएगा. हरदास की मृत्यु 1939 में 35 वर्ष की आयु में हो गई थी लेकिन उससे पहले उन्होंने जय भीम का नारा बुलंद कर दिया. उपरोक्त सभी तर्कों से सिद्ध होता है कि जय भीम, जय हिंद से पहले आया.

”संविधान काव्य” का हुआ विमोचन, कविता और दोहे के रूप में पढ़ सकेंगे संविधान

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पुडुचेरी। पुडुचेरी के डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (डीजीपी) सुनील कुमार गौतम ने “संविधान काव्य” नाम की पुस्तक लिखी है. इस पुस्तक में उन्होंने संविधान के सिद्धांतों का सार लिखा है. इस पुस्तक में व्याख्या सहित 238 दोहे हैं जोकि संविधान के अनुच्छेद और नीति-निदेशक सिद्धांत को परिभाषित करते हैं. पुस्तक विमोचन के अवसर पर लेखक एस.के गौतम ने कहा कि संविधान बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसे हर नागरिक को पढ़ना चाहिए. मैंने इसे साधारण बनाया है ताकि आम आदमी भी पढ़ सके. इसीलिए इसे कविता और दोहे के रूप में तैयार किया है. उन्होंने आगे कहा कि अब लोग कविता के माध्यम से पूरा संविधान जान सकते हैं. प्रत्येक दोहे को संविधान के एक-एक अनुच्छेद से लेकर तैयार किया गया है. डीजीपी ने कहा कि लोगों को उनके अधिकार, उत्तरदायित्व और कर्तव्य के बारे पता होना चाहिए. लोगों को उनके कर्तव्य का समझदारी और उचित रूप में पालन करना चाहिए. उन्होंने बताया कि “संविधान काव्य” लिखने में उन्हें चार-पांच महीने का समय लगा. लेखक ने इसकी सॉफ्ट कॉपी अपने दोस्तों और सहकर्मियों को दी है, जहां से उन्हें काफी साकारात्मक टिप्पणी मिली है. एस के गौतम इसे अंग्रेजी, तमिल, पंजाबी और बंगाली में अनुवाद करने की योजना बना रहे हैं. “संविधान काव्य” पुस्तक का प्रकाशन ”न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन” ने किया है. पुस्तक का विमोचन 5 अक्टूबर को पुडुचेरी में हुआ. लेफ्टिनेंट गर्वनर डॉ. किरन बेदी ने पुस्तक का विमोचन किया और पहली पुस्तक मुख्यमंत्री वी नारायनसामी को दी गई. मुख्य सचिव मनोज परिदा भी पुस्तक विमोचन में शामिल हुए. गौतम ने अभी तक आठ पुस्तकें लिखी हैं, जिसमें सबसे प्रमुख है ”टर्न योर चाइल्ड इंटू जिनियस.” यह पुस्तक अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं में है. इसके अलावा उन्होंने इंटेलीजेंस, ब्रेन फ्यूल, ट्रीटिंग टेंट्रम्स, द फिलोसफर्स स्टोन और साइंटिफिक स्टडी स्कील्स आदि पुस्तकें लिखी हैं.

रक्षक ही बने भक्षकः सुरक्षा बलों ने ही जलाए 250 आदिवासियों के घर, किया महिलाओं से रेप

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raipurरायपुर। दक्षिण बस्तर के सुकमा जिले के ताड़मेटला, तिम्मापुर और मोरपल्ली गांवों में आदिवासियों के घर जलाने की घटना की जांच कर रही सीबीआई ने पांच साल बाद शुक्रवार को कोर्ट में चार्जशीट पेश की. सीबीआई ने बताया कि आगजनी कांड को सुरक्षा बलों ने ही अंजाम दिया. सुनवाई के दौरान जस्टिस मोहन बी लोकुर व आदर्श गोयल की बेंच ने सरकार को शांति स्थापना के प्रयास करने तथा नक्सलियों से बातचीत शुरू करने को कहा. कोर्ट ने सालिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा कि 2016 का शांति का नोबेल पुरस्कार कोलंबिया सरकार व वहां युद्धरत गुरिल्ला आर्मी एफएआरसी के बीच समझौता हुआ है. कोर्ट ने मिजोरम और नगालैंड में शांति स्थापना का भी उदाहरण दिया. सॉलिसिटर जनरल ने कोर्ट से कहा कि वे नक्सलियों से बातचीत की जरूरत को सरकार के उच्च स्तर पर जरूर उठाएंगे. हालांकि मेहता ने यह भी कहा कि बातचीत से समस्या का तत्कालीन समाधान ही निकल सकता है. जरूरत स्थायी शांति की है. ताड़मेटला, मोरपल्ली और तिम्मापुर गांवों को आग के हवाले करने की घटना 11 से 16 मार्च 2011 के बीच तब हुई, जब फोर्स इस इलाके में गश्त पर थी. रिपोर्ट में कहा गया है कि दंतेवाड़ा के तत्कालीन एसएसपी और बस्तर के वर्तमान आईजी एसआरपी कल्लूरी के आदेश पर इन गांवों में पुलिस का गश्ती दल भेजा गया था. सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई 2011 को मामला सीबीआई को सौंपा था. जांच के दौरान सीबीआई को भी धमकी मिली तथा अफसरों पर हमला किया गया. सीबीआई ने एसपीओ और जुडूम नेताओं सहित 35 लोगों पर आईपीसी की धारा 34, 147, 149, 323, 341, 427 व 440 के तहत मामला दर्ज किया है. सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 357 के तहत पीड़ितों को मुआवजा देने का भी आदेश दिया है. ताड़मेटला, तिम्मापुर और मोरपल्ली गांवों में आगजनी और हिंसा फोर्स ने की. मोरपल्ली गांव के माड़वी सुला तथा पुलनपाड़ गांव के बड़से भीमा और मनु यादव की हत्या की गई. तीन महिलाओं से रेप किया गया, जिनमें दो मोरपल्ली गांव की हैं और एक ताड़मेटला की. मोरपल्ली में 33 घर, तिम्मापुर में 59 तथा ताड़मेटला में 160 घरों को आग लगाकर नष्ट कर दिया गया. 26 मार्च 2011 को स्वामी अग्निवेश जब मदद लेकर उन गांवों में जाने की कोशिश कर रहे थे तो दोरनापाल में उन पर तथा उनके सहयोगियों पर जानलेवा हमला किया गया. इस घटना में जुडूम लीडर शामिल थे. रेप व मर्डर के मामलों की जांच अभी जारी है. मामले में जुडूम नेताओं पी विजय, दुलार शाह, सोयम मुक्का सहित 26 अन्य तथा सात एसपीओ के खिलाफ सीबीआई कोर्ट रायपुर में चार्जशीट पेश की गई है. मामले में याचिकाकर्ता नंदिनी सुंदर ने कहा कि सीबीआई की जांच ने पुलिस के उस झूठ का पूरी तरह से पर्दाफाश कर दिया है, जिसमें वह कहती रही है कि आगजनी नक्सलियों ने की थी. साफ है कि बस्तर में सब गैरकानूनी काम फोर्स कर रही है. मीडिया रिपोर्ट से आगजनी और रेप तथा मर्डर का खुलासा हुआ तो सुकमा पुलिस ने डीएस मरावी की ओर से एफआईआर दर्ज की, लेकिन उसमें रेप व मर्डर का जिक्र नहीं किया गया. सरकार व कल्लूरी ने तब मीडिया रिपोर्ट को प्रपोगेंडा कहा था.

हरियाणाः दलित के घर में घुस कर की मारपीट, चेहरे और हाथ पर डाला तेजाब

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हिसार। हरियाणा के माथे पर एक बार फिर से दलित उत्पीड़न का बड़ा दाग लगा है. दरअसल, हिसार जिले की नारनौंद तहसील के गुरु रविदास मंदिर मोहल्ला में जातीय रंजिश के कारण एक दलित परिवार के साथ दिल दहला देने वाली घटना सामने आई है. प्राप्त जानकारी के अनुसार पड़ोसी आरोपी ने एक दलित युवक (रोहताश) के घर घुसकर उसे लोहे की रॉड से माथे में चोट मारी और चेहरे व हाथ पर तेजाब उलेड़ दिया. इस जातीय हमले में रोहताश तेजाब से झुलसकर गंभीर रूप से घायल हो गया. पीड़ित के रिश्तेदार सोहन लाल ने बताया कि आरोपी राजेंद्र व उसकी पत्नी और सोनू, कपिल तथा अन्य ने इसी साल जून में पीड़ित के घर ईंटे बरसा दी थी जिसमे रोहताश व इनके परिजनों को चोटें आई थी फिर जुलाई में नारनौंद थाने के पास बिजली की दुकान पर घुसकर 5 लोगों ने रोहताश पर हमला कर दिया था. यही नहीं इसी अक्टूबर माह की 3 तारीख को एक बार और रोहताश पर हमला बोला गया, जिसमे रोहताश का हाथ टूट गया था और वह 3 दिन हिसार के सामान्य अस्पताल में दाखिल रहा था. 4 बार हमला होने व इसकी शिकायत करने के बावजूद पुलिस ने हमलावरों पर कोई कार्रवाई नहीं की. पुलिस आरोपियों को बचाने व उनके दबाव में काम कर रही है जिस कारण इन्होंने चौथी बार तेजाबी हमला कर जान लेने की कोशिश की है. पीड़ितों ने बार-बार पुलिस व एसपी तक को शिकायत की, लेकिन कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हुई. रोताहश को परिजन आनन-फानन में नारनौंद के सामान्य अस्पताल लेकर गए, जहां उसकी नाजुक हालत को देखते हुए डॉक्टरों ने उसे हिसार के सामान्य नागरिक अस्पताल में रैफर कर दिया था. घटना की सूचना मिलते ही बसपा समर्थक प्रमुख दलित एक्टीविस्ट बजरंग इन्दल टीम के साथ पीड़ित से मिलने शहर के नागरिक अस्पताल पहुंचे. बजरंग इन्दल ने बताया कि नारनौंद स्थित गुरु रविदास मंदिर मोहल्ला में पीड़ित के घर के साथ आरोपियों का घर है. आरोपी व्यक्ति राजेंद्र पुलिस विभाग से रिटायर हुआ है और इसके 2 अन्य परिजन भी पुलिस में है. 4 बार दलितों पर हमला होने के बाद भी पुलिस को तुरन्त हमलावरों पर एससी/एसटी एक्ट और संबंधित धाराओं में केस दर्ज कर उन्हें जेल भेजना चाहिए था, लेकिन पुलिस ने पीड़ितों की सुनवाई नहीं की. पुलिस पीड़ितों को सुरक्षा दें तथा आरोपियों को जल्द गिरफ्तार कर जेल भेजें.

22 अक्टूबर से शुरू होगा भारतीय बौद्ध भिक्षु महासम्मेलन, हजारों लोग लेंगे धम्म दीक्षा

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फिरोजाबाद (यूपी)। सुहागनगरी में आयोजित होने जा रहे दो दिवसीय भारती बौद्ध भिक्षु महासम्मेलन में देश-विदेश के विभिन्न राज्यों के सैकड़ों बौद्ध भिक्षु जुटेंगे. सम्मेलन में मानव जीवन में सुख शांति लाने के साथ बौद्ध दर्शन के प्रचार प्रसार पर मंथन होगा. आयोजन की तैयारी जोरशोर से की जा रही है. यह जानकारी भंते बुद्धशरण महास्थविर ने नगर में आयोजित प्रेसवार्ता के दौरान दी. उन्होंने बताया कि सम्मेलन का आयोजन सुहागनगरी के बौद्ध समाज द्वारा किया जा रहा है. दो दिवसीय सम्मेलन नगर के पीडी जैन इंटर कालेज के मैदान पर 22 अक्टूबर को प्रारम्भ होगा. कार्यक्रम में हजारों अनुयायी बौद्ध दीक्षा ग्रहण करेंगे. उन्होंने बौद्ध अनुयायियों से समारोह में भाग लेकर धम्म लाभ प्राप्त करने का आव्हान किया. कार्यक्रम संयोजक मीतल प्रसाद निमेष ने बताया कि 22 अक्टूबर को रत्नपुंज बिहार नगला मिर्जा बड़ा पर तथागत बुद्ध की प्रतिमा का अनावरण भी किया जाएगा. सम्मेलन में देश-विदेश के बौद्ध भिक्षु भाग लेंगे. उन्होंने कहा सम्मेलन में नेपाल, श्रीलंका, थाईलैंड, जापान, तिब्बत के भिक्षुओं की सहभागिता रहेगी. इसके अलावा भारतीय बौद्ध स्थलों में- सारनाथ, बौद्ध गया, लुम्बिनी, सिलीगुड़ी, भोपाल, नालंदा, कुशीनगर, राजनगर, सागर, इंदौर, अकोला, महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली, चेन्नई, घाटकोपर आदि के बौद्ध भिक्षु भी भाग लेंगे. भिक्षु नागदीप स्थविर ने कहा समारोह का आयोजन देश में विलुप्त होती जा रही बौद्ध विरासत को पुनर्जीवित करने के लिए किया जा रहा है ताकि भावी पीढ़ी को तथागत बुद्ध के जीवन दर्शन का ज्ञान हो सके. साथ ही बौद्ध अनुयायी बौद्ध धम्म की शिक्षा ग्रहण कर अपना जीवन सार्थक बना सकें.