दो पत्ते तोड़ने पर खेत-मालिक ने काटी दलित लड़की की दो उंगुली

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कौशाम्बी। यूपी के कौशाम्बी जिले में खेत से एक पौधे की दो पत्तियां तोड़ने पर खेत मालिक ने तेरह साल की दलित लड़की को ऐसी सजा दी, जिसे सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे. आरोप है कि खेत-मालिक ने दो पत्तियां तोड़ने के बदले दलित लड़की के दाहिने हाथ की दो उंगलियां काट डालीं. हालांकि पीड़ित लड़की की हालत देखने के बाद गांव के लोगों ने उंगलियां काटने के आरोपी मालिक की जमकर पिटाई की. पीड़ित लड़की की शिकायत पर कौशाम्बी पुलिस ने इस मामले में केस दर्ज कर तफ्तीश शुरू कर दी है. आरोपियों की गिरफ्तारी के लिए तीन टीमें भी बनाई गई हैं. मामूली सी गलती पर तेरह साल की दलित लड़की सुशीला के साथ हैवानियत करने का यह मामला यूपी के कौशाम्बी जिले के सराय आकिल इलाके के पुरखास गांव का है. जानकारी के मुताबिक़ मजदूरी कर अपने परिवार का पेट पालने वाले दलित समुदाय के संगम लाल की तेरह साल की बेटी सुशीला बीते मंगलवार को दिन में अपने जानवरों के लिए घास काटने गई थी. सुशीला जिस जगह घास काट रही थी, उसी से सटी हुई जगह पर गांव के ही फारूक का खेत है. आरोप है कि घास काटने के दौरान सुशीला ने फारूक के खेत में लगे शकरकंद के पौधे की दो पत्तियां भी काट दीं. इस पर वहां मौजूद फारूक और उसके बेटों ने सुशीला से उसकी हसिया छीनकर दो पत्तियों के बदले उसके दाहिने हाथ की दो उंगलियां काट दी. तेरह साल की दलित सुशीला की उंगलियों से खून बहने लगा तो आरोपी घबरा गए और उन्होंने उसकी कटी हुई उंगलियों पर पट्टी बांधकर उसे वहां से भगा दिया. सुशीला के साथ हुई हैवानियत की खबर जब गांव के लोगों को हुई तो वह गुस्से में उबल पड़े. गांव वाले जब तक मौके पर पहुंचते तब तक उंगलियां काटने के आरोपी फारूक के बेटे भाग चुके थे. फारूक ने लाख सफाई देने की कोशिश की, लेकिन भीड़ ने उसकी पिटाई कर दी. पीड़ित सुशीला और उसके परिवार वालों की शिकायत पर कौशाम्बी पुलिस ने केस दर्ज कर मामले की तफ्तीश शुरू कर दी है. फिलहाल किसी भी आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया जा सका है. अफसरों के मुताबिक़ आरोपियों की गिरफ्तारी के लिए तीन टीमें बनाई गई हैं.

परिनिर्वाण दिवस विशेषः बहुजन पुर्नजागरण के सूत्रधार बने थे फुले

महात्मा ज्योतिबा फुले भारत के इतिहास में एक ऐसा नाम हैं, जिन्होंने भारतीय के शूदों और स्त्रियों की स्वतंत्रता और समानता की पुरजोर वकालत की थी. फुले ने अपना सार्वजनिक जीवन 1848 में शुरु किया और 28 नवंबर 1890 को अपने जीवन के आखिरी दिन तक वह बहुजन (दलित-पिछड़े-स्त्रियां) समाज के कल्याण में लगे रहे. फुले आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक थे. फुले की कथनी-करनी में कोई फर्क नहीं था. फुले अपने समय की राष्ट्रव्यापी समस्याओं से भिड़े. उन्होंने धर्म, जाति तथा जेंडर के सवाल पर, कर्मकाण्ड, किसानों की समस्या और ब्रिटिश शासन आदि पर चिंतन किया. वे एक दार्शनिक, नेता और महान संगठनकर्ता थे. यही वजह थी कि उन्होंने अपने जीवन में शिक्षा और दलित मुक्ति के लिए काफी काम किया. सामाजिक ब्राह्मणवादी मान्यताओं का फुले ने हमेशा विरोध किया. यही वजह रही कि जब उस दौर में सामंतियों ने दलितों के पानी पर प्रतिबंध लगाया तो उन्होंने व्यवस्था का विरोध करते हुए उनके लिए अपने घर का जलाशय खोल दिया. फुले अमेरिकन लोकतंत्र और फ्रांसीसी क्रांति के मूल सूत्र- समानता, स्वतंत्रता और बंधुता से बहुत प्रभावित थे. वे टामस पेन की कृति ‘राइट्स ऑफ़ मैन’ से बहुत प्रभावित थे. स्त्रियों और पिछड़े वर्ग का शोषण और मानव अधिकार की समस्याओं पर फुले ने गंभीर चिंतन किया और उसका मानवीय स्तर पर समाधान करने के लिये ताउम्र प्रतिबद्ध रहे. फुले ने बुद्ध के सामाजिक न्याय और बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के दर्शन को आगे बढाया. फुले अपनी मुक्तगामी दर्शन के आधार पर 19वीं सदी के महान चिन्तक जे. एस मिल और फ्रेडरिक एंगल्स की कतार में खड़े होते हैं. फुले मानते थे कि क्रांतिकारी विचार क्रांतिकारी कार्यों से ही आंके जाते हैं. फुले ने देश के अद्विज लोगों (दलित एवं पिछड़े) को शूद्र-अति शूद्र माना. उन्होंने इन्ही वर्गों को क्रांति का पहरुआ कहा और इसी समुदाय को गुलामी से मुक्त करने के लिये काम करना शुरू किया. फुले आधुनिक दर्शनशास्त्र के पिता समझे जाने वाले देकार्ते के समकक्ष माने जाते थे. देकार्ते ने सभी मान्यताओं को तर्क की कसौटी पर कसा. वैसे ही फुले ने भारतीय समाज का अध्ययन तार्किक आधार पर ही किया. उन्होंने भारतीय दर्शन का आधुनिकीकरण किया. फुले ने पहली बार धर्म, योग, वेदांत और बुद्ध दर्शन के इतर शोषण और असमानता का चिंतन किया. योग में व्यक्ति के मानस के सुधार की बात की गयी है जबकि फुले का चिंतन सार्वजानिक कल्याण के लिए था. वेदान्त में माया और यथार्थ का चिंतन किया गया. फुले ने इस दर्शन को ख़ारिज कर दिया और अविद्या को ही सभी दुखों का कारण बताया और सच्चे ज्ञान को ही समता और बंधुता का आधार बताया. फुले दुःख का कारण ऐतिहासिक या मानसिक नहीं मानते थे, बल्कि वे गैर-बराबरी पर आधारित भारतीय सामाजिक ढांचे को दुख का कारण मानते थे. उनका मानना था कि जिस दिन ये सामजिक ढांचा ख़त्म हो जाएगा व्यक्ति स्वतंत्र तथा आधुनिक हो जायेगा. फुले 1858 में शैक्षणिक संस्थानों से अलग होकर सामाजिक सुधारों की तरफ अग्रसर हुये. वह 1876 में पुणे नगर निगम के पार्षद बने. ज्योतिबा व उनके संगठन के संघर्ष के कारण सरकार ने ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास किया. उनके योगदान के चलते बाम्बे में 1888 में उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी गयी. उन्होंने साहित्य के जरिए जहां द्विज व्यवस्था पर धावा बोला तो बहुजन समाज को जगाने का भी काम किया. फुले ने अपनी रचनाओं में धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लिखा और खुली सभाओं में संवाद किया. फुले ने कई गीतों और पावडों की रचना की जिनका आधार सामाजिक-धार्मिक समस्याएं थी. फुले ने मूर्ति-पूजा और परम ब्रह्म की अवधारणा को ख़ारिज किया और पाखंडी धर्म, मूर्ति पूजा और जाति-व्यवस्था को समृद्ध भारत के पतन का कारण माना. फुले ने अपनी पुस्तक ‘सार्वजानिक धर्म सभा’ में इन समस्याओं का विकल्प दिया. प्रसिद्ध समाजशास्त्री गेल ओम्वेट ने अपनी रचना ‘औनिवेशिक समाज में सांस्कृतिक विद्रोह’ में फुले को भारतीय पुनर्जागरण का सूत्रधार माना है. फुले के जीवन के कई पहलू थे. वह भिन्न-भिन्न समय पर शिक्षा के लिए आंदोलन करने वाले, सामाजिक आंदोलनकर्ता और भेदभावपूर्ण भारतीय व्यवस्था के विरोधी रहें. जन्म आधुनिक भारत के निर्माता और ‘सामाजिक क्रांति के पिता’ महात्मा ज्योतिराव फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को पुणे (महाराष्ट्र) में माली समाज में गोविंदराव जी के घर पर हुआ था. ज्योतिबा फुले के पिता का नाम गोविन्द राव और माता का नाम चिमणा बाई था. फुले के बड़े भाई का नाम राजाराम था. फुले जब मात्र एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया था. फुले का लालन-पालन सगुनाबाई नामक एक विधवा जिसे ज्योतिबा के पिता मुंहबोली बहन मानते थे, ने किया. शिक्षा के प्रति लगाव फुले को सात वर्ष की आयु में स्कूल में पढ़ने भेजा गया उन्हीं दिनों ऐसा हुआ कि \””बम्बई नैटिव एजुकेशन सोसाइटी\”” के संकेत पर सोसाइटी के विद्यालय से छोटी जाति के छात्रों को निकाल दिया गया. जाति व्यवस्था में फुले माली जाति के थे, सो बालक ज्योति फावड़ा और खुरपी लेकर खेतों में लग गए तथा पेशेगत कार्य को आगे बढ़ाने लगे. बचे हुए समय में वह किताबें पढ़ते थे. इनकी इस लगन को देखकर आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने में उनके दो पड़ोसियों गफ्फार बेग मुंशी एवं फ़ादर लिजीट ने उन्हें काफी सहयोग किया. उन्होंने बालक फुले की प्रतिभा एवं शिक्षा के प्रति रुचि देखकर उन्हें पुनः विद्यालय भेजने का प्रयास किया. फुले फिर से स्कूल जाने लगे. वह स्कूल में सदा प्रथम आते रहे. ज्योतिराव ने 1841 में पुणे के स्काटिश मिशन हाई स्कूल में दाखिला लिया. स्कॉटलैंड के मिशन द्वारा संचालित स्कूल में फुले ने अधिकतर शिक्षा ग्रहण की. फुले जार्ज वाशिंगटन और छत्रपति शिवाजी की जीवन कथाएं पढ़ते थे. इस दौरान वे गुलामी की जकड़न को समझने लगे थे. फुले अपने अन्य मित्रों के साथ मिलकर अंधविश्वास तथा मिथ्या कुरीतियों में फंसे लोगों को इससे मुक्त होने के लिए प्रेरित करते रहते थे. ज्योतिराव 13 वर्ष के थे तभी उनका विवाह सावित्रीबाई से हो गया था. सावित्रीबाई को ज्योतिराव फुले ने घर में ही पढ़ाया और उन्हें आधुनिक शिक्षा दी. बाद में सावित्रीबाई भारत की प्रथम महिला शिक्षक बनी. जाति व्यवस्था का सामना 1848 में हुयी घटना ने ज्योतिराव को झकझोर दिया. एक ब्राह्मण साथी ने बरात में ज्योतिराव फुले को आमंत्रित किया था. बारात में जब उनकी जाति का पता लगा तो उन्हें अलग बैठाया गया. लोगों ने उनका अपमान किया. इससे बालक ज्योतिराव के मन को गहरी चोट लगी. इस घटना के बाद ज्योतिराव ने प्रण किया वे अपनी जिंदगी पिछड़े और महिलाओं के उत्थान में लगा देंगे. शिक्षा के क्षेत्र में योगदान 19वीं सदी में जाति-व्यवस्था ने मानव अधिकारों को कुंद कर दिया था. जाति-व्यवस्था के चलते एक मनुष्य दुसरे के साथ खाने-पीने, चलने-बोलने पर समानता का व्यवहार नहीं कर सकता था. समाज के निचले वर्ग को उच्च शिक्षा प्राप्त करना व्यवस्था खिलाफत माना जाता था. फुले ने  इस व्यवस्था के खिलाफ जेहाद कर दिया. ज्योतिराव फुले इस बात को अच्छी तरह समझ चुके थे कि शूद्र-अतिशूद्रों की स्थिति सिर्फ शिक्षा के जरिए ही सुधर सकती है. फुले साहब का प्रथम उद्देश्य था- एक समान प्राथमिक शिक्षा. उन्होंने प्राथमिक शिक्षा के लिए शिक्षक की योग्यता और पाठ्यक्रम पर ध्यान दिया. 21 वर्ष की आयु में ज्योतिबा फुले ने महाराष्ट्र को एक नये ढंग का नेतृत्व दिया. जनवरी, 1848 में ज्योतिराव ने पुणे में पहला बालिका विद्यालय खोला. तब पिछड़े वर्ग की लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम था क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई. 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था. उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी समाज के महत्वपूर्ण व्यक्ति थे. पिछड़े समाज की लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी. नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया. गृह त्याग के बाद पति-पत्नी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. परन्तु वह अपने लक्ष्य से डिगे नहीं. यहां तक की उन्हें जान से मारने की कोशिश भी की गई. उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया. लेकिन फुले ठहरे जिद्दी. वह इससे डिगे नहीं बल्कि सामाजिक बहिष्कार का जवाब उन्होंने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया. दो वर्षों तक शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने के बाद फुले ने 3 जुलाई 1953 को एक दूसरा विद्यालय पूना के अन्नासाहेब चिपलूणकर भवन में खोला. उन्होंने महाराष्ट्र भर में कुल 18 विद्यालय शुरू किए. उनके विद्यालय को जब कोई अध्यापक नहीं मिल रहे थे तो उन्होंने इस कार्य के लिए अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को शिक्षित किया जिसके बाद वह स्कूल में पढ़ाने लगीं. इससे सवर्णों के क्रोध की कोई सीमा न रही. सावित्रीबाई फुले जब स्कूल जाती थी तो लोग उन पर ढेले चलाना शुरू कर देते थे, उन पर कीचड़, कंकड़-पत्थर फेकते थे. साड़ी गन्दी हो जाया करती थी इसलिए वो एक साड़ी हमेशा साथ ले कर चलती थी जिसे वह स्कूल में पहुंच कर बदल लेती थी. इसी संघर्ष के कारण माता सावित्रीबाई फुले को भारत की महिला शिक्षक होने का गौरव प्राप्त है. उनके लिए शिक्षा सामाजिक बदलाव का एक माध्यम थी. उनके इसी योगदान के कारण बाबासाहेब अम्बेडकर फुले को अपना गुरु मानते हैं. उनका मानना था सामाजिक बदलाव की निरंतरता तभी बनी रह सकती है जब प्रत्येक व्यक्ति को पूरी शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर प्राप्त हो. विद्या की महता को फुले ने अपने शब्दों में रोचक तरीके से बताया. बकौल फुले- विद्या बिना मति गयी मति बिना गति गयी गति बिना नीति गयी नीति बिना संपत्ति गयी इतना घोर अनर्थ मात्र अविद्या के ही कारण हुआ। ब्रिटिश सरकार ने किया था सम्मानित फुले शूदों और स्त्रियों की शिक्षा के लिए जो कार्य कर रहे थे, सवर्ण समाज के लोग उससे खासे नाराज थे. हालांकि तत्कालीन ब्रिटिश शासन ने फुले जी के शिक्षा सम्बन्धी कार्यों की प्रशंसा की. 19 नवंबर, 1852 को ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन ने पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य मेजर कंठी के द्वारा आयोजित एक भव्य समारोह में 200 रुपए का महावस्त्र और श्रीफल प्रदान कर फुले का सम्मान किया. साथ ही उन्होंने महात्मा फुले को एक महान समाज सेवी के रूप में मान्यता दी. फुले के कार्यों की सर्वसमाज में सराहना सन् 1852 में ही फुले ने पिछड़ों के लिये एक वाचनालय की स्थापना भी की. तब कुछ समाज सेवी ब्राह्मणों ने भी फुले की नीतियों से प्रभावित होकर उनका सहयोग करना प्रारम्भ कर दिया. इससे रूढ़िवादी और समाज सेवी ब्राह्मणों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी. 19 फरवरी 1852 के \””टेलीग्राफ एंड कोरियर\”” पत्र में एक पर्यवेक्षक ने लिखा था कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि \”ब्राह्मण छोटी जातियों के भयानक शत्रु थे किन्तु कुछ ब्राह्मणों ने यह भी अनुभव करना प्रारम्भ कर दिया है कि उनके पूर्वजों ने इन जातियों के लोगों को अनगिनत अघात पहुचाएं है.\” रचनाकार के रूप में फुले महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है. उनकी किताब ‘किसान का कोड़ा’ उस समय के किसानों, जिन्हें फुले ने कुंडबी (कुर्मी) लिखा; उनकी बदहाली का चित्रण किया है. फुले ने छत्रपति शिवाजी को किसानों का प्रेरणास्रोत बताया. फुले महाराष्ट्र के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने शिवाजी के पराक्रम, साहस और कुशलता पर गीत लिखे. उन्होंने शिवाजी के महान आदर्शों का वर्णन किया. शिवाजी के राज्यकाल में किसान ही उनकी सेना में सिपाही होते थे. शिवाजी स्वयं एक कुर्मी-किसान परिवार से थे इसलिये वे किसानों को अपने परिवार का अंग मानते थे. फुले जी छत्रपति शिवाजी को ‘लोकराजा’ बोलते थे. फुले ने अपनी रचनाओं में पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है. गरीब किसानों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया. उन्होंने आज से 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की. जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था. धर्म, समाज और परम्पराओं के सत्य को सामने लाने हेतु उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखी. इसमें तृतीय रत्न, छत्रपति शिवाजी, राजा भोसला का पखड़ा, ब्राह्मणों का चातुर्य, किसान का कोड़ा, अछूतों की कैफियत आदि है. 1873 में उनकी महान रचना ‘गुलामगिरी’ प्रकाशित हुयी. स्त्री अधिकार के लिए फुले का आंदोलन स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे. मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं. लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा. उन्होंने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की और ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया. इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली. वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे. प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था, लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था. इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं. हालांकि तब वो धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन उन्होंने एक महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने का समर्थन किया. फुले को विधवा पुनर्विवाह के आन्दोलन का जनक माना जाता है. उन्होंने विधवाओं के लिए अपने आश्रम खोले और बाल विवाह प्रथा को बंद करवाने के लिए आन्दोलन किया. फुले दम्पति ने विधवाओं के पुनर्वास और अनाथ बच्चों के लिए कई अनाथालय खोले. यहां तक कि 1873 में  एक विधवा ब्राह्मणी के बच्चे को उन्होंने गोद लिया और उसका नाम  यशवंत फुले रखा. उन्होंने विधवा नारी के उद्धार का कार्यक्रम बनाया. उनकी देखरेख में 8 मार्च 1860 में एक विधवा युवती का विवाह कराया गया. फुले के इस प्रयास से एक नयी क्रांति का उदय हुआ. उनके समय में महिलाओं और पिछड़ी जातियों के लिए पढ़ाई करना दिन में सपने देखने जैसा था. लेकिन फुले महिला मुक्ति के बंद दरवाजे पर जोर की ठोकर मारने में सफल रहे. फुले का स्त्रीवादी चिंतन फुले का स्त्रीवादी चिंतन उन्हें महान चिंतकों मिल और फ्रेडरिक एंगल्स की बराबरी पर खड़ा करता है. फुले अपने समय के पुरुष समाज सुधारकों से ज्यादा प्रगतिशील साबित होते हैं. फुले ने स्त्री के शोषण का आधार धार्मिक के साथ सामाजिक तथा आर्थिक माना और धर्म के इतर स्त्री विमर्श को स्वतंत्र चिंतन के रूप में स्वीकारा. जहां मिल ने व्यक्तिवाद को आधार बनाकर स्त्री-पुरुष असमानता पर चिंतन किया और पुरुष की भांति स्त्री को भी एक इकाई माना. एक सभ्य समाज के लिये स्त्री-पुरुष की बराबरी को आवश्यक बताया. फ्रेडरिक एंगल्स ने अपनी कृति ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ में स्त्री की शोषण की ऐतिहासिक दास्ता का वर्णन किया है. एंगल्स ने धर्म की जगह आर्थिक कारणों को स्त्री के शोषण के लिये जिम्मेदार माना और उसे वर्गीय शोषण के रूप चिन्हित किया. फुले ने भी एंगल्स की भाति स्त्री के शोषण का आधार आर्थिक माना यद्यपि फुले ने वर्गीय आधार की जगह जाति को आधार माना जो भारतीय ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था की रीढ़ है. फुले ने मिल की भांति स्त्री को पुरुष के जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और मानव अधिकारों लिये योग्य पाया. इसके लिये फुले ने पहली बार केवल छात्राओं के लिये विद्यालय खोले. विधवाओं के पुनर्वास के लिये आश्रम खोले गए. तब ब्राह्मणवादी व्यवस्था में शोषण की शिकार विधवाएं अपनी पहचान गुप्त रखकर वहां अपने बच्चो को दे सकती थी. फुले की संस्था विधवाओं और उनके बच्चो की देखभाल करती थी. फुले एक ब्राह्मण महिला को सबसे ज्यादा शोषित मानते थे. फुले दम्पति ने खुद एक विधवा ब्राह्मणी के बच्चे को गोद लिया था. फुले वास्तव में भारतीय स्त्रियों के मुक्तिदाता थे. फुले के स्त्री-चिंतन का प्रभाव बाबासाहेब आंबेडकर, राना डे और महात्मा गांधी पर पड़ा. सत्यशोधक समाज की स्थापना 24 सितम्बर 1873 को फुले ने अपने सभी हितैषियों, प्रशंसकों तथा अनुयायियों की एक सभा बुलाई. उनसे विचार-विमर्श के बाद तथा फुले के विचारों से सहमत होते हुए संस्था का गठन कर दिया गया. महात्मा फुले ने संस्था को नाम दिया ‘“सत्य शोधक समाज”’. उनके तीन ब्राह्मण मित्रों ने भी सत्यशोधक समाज को हर प्रकार का सहयोग देने का वचन दिया. सत्य शोधक समाज का प्रमुख उद्देश था- पिछड़े, दलित और महिलाओं को शोषणकरी व्यवस्था से छुड़ाना और उन्हें शिक्षित कर आत्मनिर्भर बनाना. सत्य शोधक समाज उस समय के अन्य संगठनों से अपने सिद्धांतों व कार्यक्रमों के कारण भिन्न था. सत्य शोधक समाज पूरे महाराष्ट्र में शीघ्र ही फ़ैल गया. संगठन के लोगों ने जगह-जगह दलित-पिछड़ों और लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोले. छूआ-छूत का विरोध किया. किसानों के हितों की रक्षा के लिए आन्दोलन चलाया. समाजसेवा के क्रम में हुआ जीवन का अंत फुले साहब ताउम्र शोषितों के पक्ष में अन्यायकारी व्यवस्था के खिलाफ लड़ते रहे. 19वीं सदी के अंतिम दशक में पूना प्लेग महामारी से ग्रस्त हुआ था. फुले दम्पति ने प्लेग रोगियों की अथक सेवा की. इसी दौरान ज्योतिराव फुले भी प्लेग की चपेट में आ गए और 28 नवम्बर 1890 को उनका परिनिर्वाण हो गया. आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान वैसे भारतीय संविधान को आधुनिक विधि-संहिता माना जाता है जो स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, सामाजिक न्याय और समाजवाद की प्रस्तावना करती है लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि आज भी एक ‘गुप्त वर्ण-भेद’ व्याप्त है. इसके बावजूद महात्मा फुले ने अपने जीवन में जो आंदोलन किया और जिसे बाद में बाबासाहेब अम्बेडकर ने संवैधानिक जामा पहनाया, उसके फलस्वरूप ही आजादी के बाद के. आर. नारायणन पहले दलित राष्ट्रपति बनते हैं, प्रतिभा देवी पाटिल पहली महिला राष्ट्रपति बनती हैं, इंदिरा गांधी पहली महिला प्रधानमंत्री बनती हैं. एच. डी. देवेगौड़ा पहले पिछड़े वर्ग के प्रधानमंत्री बनते हैं. कल्पना चावला के रूप में पहली भारतीय महिला अंतरिक्ष पहुंचती है. देश के शासन-प्रशासन में दलित एवं पिछड़े वर्ग के लोगों और महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है. इसमें महात्मा ज्योतिराव फुले के समता-तर्क और मानव अधिकारों पर आधारित दार्शनिक चिंतन का बड़ा योदगान है. वह भारत में एक समान शिक्षा प्रणाली और देश के किसानों के आंदोलनों के सूत्रधार बने. वे भारत में सामाजिक न्याय के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं जिन्होंने दलित-पिछड़ों और महिलाओं के हित और अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी. यही वजह थी कि डॉ. अम्बेडकर ने बुद्ध और कबीर के बाद महात्मा फुले को अपना तीसरा गुरु माना था. बाबा साहेब ने फुले के बारे में कहा था- “महात्मा फुले मॉडर्न इंडिया के सबसे महान शूद्र थे, जिन्होंने यह शिक्षा दी कि भारत के लिए विदेशी हुकूमत से स्वतंत्रता की तुलना में सामाजिक लोकतंत्र कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है.”

डॉ. अम्बेडकर और पिछड़ी जातियां

डॉ. अम्बेडकर को प्रायः दलितों के उद्धारक के रूप में पहचाना जाता है जबकि वे सभी पददलित वर्गों दलितों और पिछड़ों के अधिकारों के लिए लड़े थे. परन्तु वर्ण व्यवस्था के कारण पिछड़ी जातियां जो कि शूद्र हैं अपने आप को अछूतों (दलितों) से सामाजिक सोपान पर ऊँचा मानती हैं. एक परिभाषा के अनुसार पिछड़ी जातियां शूद्र हैं तो दलित जातियां अति शूद्र हैं. अंतर केवल इतना है कि पिछड़ी जातियां सछूत और दलित जातियां अछूत मानी जाती हैं. यह भी एक ऐतहासिक सच्चाई है कि सछूत  होने के कारण पिछड़ी जातियों का कुछ क्षेत्रों में अछूतों से अधिक शोषण हुआ है. यह भी उल्लेखनीय है कि पिछड़ी जातियां कट्टर हिन्दुवाद के चंगुल में फंसी रही हैं जबकि दलित हिन्दू धर्म के खिलाफ निरंतर विद्रोह करते रहे हैं. सामाजिक श्रेष्ठता के भ्रम के कारण पिछड़ी जातियां डॉ. अम्बेडकर को अपना नेता न मान कर दलितों का नेता ही मानती आई हैं. यह इसलिए भी है क्योंकि अधिकतर पिछड़ी जातियां सवर्ण हिन्दुओं के प्रभाव में रही हैं और उन्हें डॉ. अंबेडकर के बारे में बराबर भ्रमित किया जाता रहा है ताकि वे डॉ. अम्बेडकर की विचार धारा से प्रभावित होकर दलितों के साथ एकता स्थापित न कर लें और सवर्णों के लिए बड़ी चुनौती पैदा न कर दें. पिछड़ों और दलितों में इस दूरी के लिए दलित और पिछड़ों के नेता भी काफी हद तक जिम्मेवार हैं जो कि जाति की राजनीति करके अपनी रोटी सेंकते रहे हैं.

अब अगर ऐतहासिक परिपेक्ष्य में देखा जाये तो डॉ. अम्बेडकर ने जहां पददलित जातियों के अधिकारों के लिए जीवन भर संघर्ष किया वहीँ उन्होंने पिछड़ी जातियों के अधिकारों के लिए भी निरंतर संघर्ष किया. इसकी पुष्टि के लिए कई तथ्य मौजूद हैं. जैसे, डॉ. अम्बेडकर की उच्च शिक्षा में बड़ौदा के महाराजा सायाजी राव गायकवाड जो कि पिछड़ी जाति के थे और जिन्होंने अम्बेडकर को अमेरिका में पढ़ने के लिए छात्रवृति दी थी, का बहुत बड़ा योगदान था. डॉ. अम्बेडकर को सहायता और योगदान देने वाले पिछड़ी जाति के दूसरे व्यक्ति छत्रपति साहू जी महाराज थे. डॉ. अम्बेडकर के रामास्वामी नायकर जो दक्षिण भारत के गैर ब्राह्मण आन्दोलन के अगुया थे, से सम्बन्ध बहुत अच्छे थे. डॉ. अम्बेडकर पिछड़ी जाति के समाज सुधारक ज्योति राव फुले की सामाजिक विचारधारा से भी बहुत प्रभावित थे. बाद में उन्होंने इसकी कई बातों को लागू करने की दिशा में कदम उठाया. डॉ. अंबेडकर ने ट्रावनकोर (केरल) में इज़ावा जो कि पिछड़ी जाति है, के समानता के आन्दोलन का समर्थन किया था. इससे उस क्षेत्र में उक्त आंदोलन को काफी बल मिला.

 डॉ. अम्बेडकर ने संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष के रूप में सरकारी नौकरियों में आरक्षण के संबंध में संविधान की धारा 15 (4) में बैकवर्डशब्द को शामिल करवाया था जो बाद में सामाजिक और शैक्षिक तौर से पिछड़ी जातियों के लिया आरक्षण का आधार बना. डॉ. अंबेडकर के प्रयास से ही संविधान की धारा 340 में पिछड़ी जातियों की पहचान करने के लिए आयोग की स्थापना किये जाने का प्रावधान किया गया. दलित-पिछड़ा एका के लिए उनका प्रयास उनके राजनीतिक जीवन में भी साफ दिखा. डॉ. अंबेडकर ने 1942 में शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरशन नाम से जो राजनैतिक पार्टी बनायीं थी उस की नीति में यह उल्लिखित था कि पार्टी पिछड़ी जातियों और जन जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों के साथ गठजोड़ को प्राथमिकता देगी और अगर ज़रुरत पड़ी तो पार्टी अन्य पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के लिए अपना नाम बदल कर बैकवर्ड क्लासेज़ फेडरशनकर लेगी. अतः पार्टी ने उस समय सोशलिस्ट पार्टी से ही चुनावी गठजोड़ किया था. इसी तरह सन् 1951 में जब डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू कोड बिल को लेकर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दिया था तो उसमें उन्होंने कहा था, “मैं एक दूसरा मामला संदर्भित करना चाहूंगा जो मेरे इस सरकार से असंतोष का कारण है. यह पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के साथ इस सरकार द्वारा किये गए बर्ताव के बारे में है. मुझे इस बात का दुःख है कि संविधान में पिछड़ी जातियों के लिए कोई भी संरक्षण नहीं किया गया है. इसे राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाने वाले आयोग की संस्तुतियों के आधार पर सरकारी आदेश पर छोड़ दिया गया है. हमें संविधान पारित किये एक वर्ष से अधिक हो गया है परन्तु सरकार ने अभी तक आयोग नियुक्त करने का सोचा भी नहीं है.इस से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि डॉ. अंबेडकर पिछड़े वर्गों के हित के बारे में कितने चिंतित थे.

कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देने के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करते हुए पिछड़ी जातियों की उपेक्षा के बारे में चेतावनी देते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, ‘अगर वे अपने समानता का दर्जा पाने के प्रयासों में मायूस हुए तो शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरशनकम्युनिस्ट व्यवस्था को तरजीह देगी और देश का भाग्य डूब जायेगा.इस से भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है की डॉ. अम्बेडकर पिछड़े वर्गों के हित के बारे में कितने प्रयत्नशील थे. पिछड़े वर्गों के हितों की उपेक्षा की बात उन्होंने बम्बई के नारे पार्क में एक बड़ी जन सभा में भी दोहराई थी. डॉ. अंबेडकर द्वारा दलित-पिछड़ा एका की कोशिशों से वर्तमान नेहरू सरकार की पेशानी पर बल पर गया था. डॉ. अंबेडकर द्वारा पिछड़ी जातियों के मुद्दे को लेकर पैदा किये गए दबाव के कारण ही नेहरु सरकार को 1951 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग नियुक्त करना पड़ा. यह बात अलग है कि सरकार ने इस आयोग की संस्तुतियों को नहीं माना बल्कि आयोग के अध्यक्ष को ही आयोग की संस्तुतियों (आरक्षण का जातिगत आधार) के विपरीत मंतव्य देने के लिए बाध्य कर दिया गया.डॉ. छेदी लाल साथी जो कि सत्तर के दशक में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष थे ने मुझे बताया था कि 1954 का चुनाव हारने के बाद बाबा साहेब बहुत मायूस थे. उस समय पिछड़े  वर्ग के नेता चंदापुरी जी, एस.डी.सिंह चौरसिया और अन्य लोगों ने उन्हें कहा कि आप घबराईये नहीं हम सब आप के साथ हैं. इसी ध्येय से उन्होंने पटना में पिछड़ा वर्ग की एक रैली का आयोजन किया था जिसमें बहुत बड़ी भीड़ जुटी थी. इस से बाबासाहेब बहुत प्रभावित हुए थे और वे फिर दलितों और पिछड़ों की राजनीति में सक्रिय हुए.  इस सम्बन्ध में डॉ. छेदी लाल साथी ने अपनी पुस्तक  दलितों व पिछड़ी जातियों की स्थितिके पृष्ठ 113 पर लिखा है, ‘पटना से वापस आने के बाद बाबासाहेब ने अपने साथियों से विचार विमर्श करके शैड्युल्ड कास्ट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया को भंग करके उसके स्थान पर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन का फैसला लिया क्योंकि सन 1952 और 1954 में दो बार चुनाव हारने के बाद बाबासाहेब ने महसूस किया कि अनुसूचित जातियों की आबादी तो केवल 20%ही है और जब तक उनको 52% पिछड़े वर्ग का समर्थन नहीं मिलेगा, वह चुनाव में नहीं जीत पाएंगे. अतः बाबासाहेब ने पिछड़े वर्ग के नेताओं, विशेष करके शिवदयाल सिंह चौरसिया आदि से मशवरा करके रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया में 20% दलित वर्ग के आलावा 52% पिछड़े वर्ग के लोगों तथा 12% आबादी वाले मुसलमान, ईसाई और सिखों को भी सम्मिलित करने का निर्णय लिया. एक साल से अधिक समय रिपब्लिकन पार्टी का संविधान बनाने और सलाह मशविरा में निकल गया. इस दृष्टि से पटना की यह रैली ऐतहासिक थी क्योंकि इसने दलितों और पिछड़ों की एकता की नींव डाली थी. बाबासाहेब ने नागपुर में 15 अक्तूबर, 1956 को शैड्युल्ड कास्ट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया को भंग करके उसके स्थान पर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया की स्थापना करने की घोषणा की थी. 1957 से 1967 तक इन वर्गों की एकता पर आधारित रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया एक बड़ी राजनैतिक ताकत के रूप में उभरी थी परन्तु बाद में कांग्रेस जिस के लिए यह पार्टी सब से बड़ा खतरा बन गयी थी, ने दलित नेताओं की कमजोरियों का फायदा उठा कर उन्हें खरीद लिया और यह पार्टी कई टुकड़ों में बंट गयी.

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में बाबासाहेब ने दलितों और पिछड़ों की एकता स्थापित करने के लिए पिछड़े वर्गों के नेता राम मनोहर लोहिया आदि से भी संपर्क स्थापित किया और उनके बीच पत्राचार भी हुआ था. परन्तु दुर्भाग्य से जल्दी ही बाबासाहेब का परिनिर्वाण हो गया और वह गठबंधन नहीं हो सका. उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि डॉ. अंबेडकर ने न केवल दलितों हितों के लिए ही संघर्ष किया बल्कि वे जीवन भर पिछड़े वर्ग के हितों के लिए भी प्रयासरत रहे. उनके प्रयास से ही संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान हो सका और उनके द्वारा पैदा किये गए दबाव के कारण ही प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुआ और बाद में मंडल आयोग गठित हुआ और पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण मिला जिसके लिए  पिछड़े वर्ग को बाबा साहेब का अहसानमंद होना चाहिए और पिछड़े वर्ग को अपने उत्थान के लिए बाबा साहेब के योगदान को स्वीकार करना चाहिए. वर्तमान की नयी चुनौतियों के परिपेक्ष्य में इन वर्गों की एकता को पुनःस्थापित करने की ज़रूरत है. हालांकि यह बात भी सही है कि दलितों और पिछड़ों में कुछ वर्गीय अन्तर्विरोध हैं जिन्हें हल किये बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता. यह सर्वविदित है कि दलित, अति पिछड़े (हिदूईसाई और मुसलमान)  कुदरती दोस्त हैं. यह समीकरण जातिगत न होकर सांझे मुद्दों पर ही आधारित हो सकता है जो कि देश में बहुसंख्यकवाद और हिन्दुत्ववादी फासीवादी राजनीति का सामना कर सकता है.

संविधान दिवस विशेषः भारत का भविष्य बना था संविधान

भारत का संविधान 26 नवंबर 1949 में स्वीकार किया गया. संविधान के मायने क्या होते हैं, शायद उस समय भारत के लोगों को यह पता नहीं था. लेकिन दुनिया में संविधान का महत्व स्थापित हो चुका था. अमेरिका में 1779 में संविधान बन चुका था. हालांकि यूनाइटेड किंगडम (यूके) में उस तरह का संविधान नहीं है लेकिन वहां MAGNA CARTA जैसी संवैधानिक अधिकारों की व्यवस्था कायम हो चुकी थी जिसके तहत राजा ने अपनी जनता के साथ अपने अधिकारों को बांट लिया था. वहां अब तक इसी तरह के कई सेटेलमेंट से बनी व्यवस्था कायम है और 15 जून 2015 में उसके MAGNA CARTA को 800 साल होने वाले हैं. संविधान असल में समूह में बंटे लोग जो राष्ट्र बनना चाहते हैं, को मानवीय अधिकार दिलाता है. इसके तहत लोगों के लिए स्वतंत्रता, बंधुता, न्याय और समानता की व्यवस्था कि निर्माण किया जाता है. यह सभी मनुष्यों को एक समान अधिकार देता है और मनुष्यों के बीच भेदभाव को अपराध भी घोषित करता है. 1950 के बाद विश्व के लगभग 50 देशों ने अपना संविधान बनाया. भारत उनमें सबसे पहले है. हालांकि यहां यह भी साफ करना जरूरी है कि आजादी का आंदोलन और भारत के संविधान का आपस में कोई संबंध नहीं है. दोनों अलग-अलग घटनाएं हैं. जब सन् 1928 में साइमन कमीशन का भारत में आगमन हुआ तो उस समय कंस्टीट्यूशनल सेलेटमेंट  की बात उठी, क्योंकि भारत एक विभाजित देश है और यह कई जातियों, धर्मों, रीति-रिवाजों, समुदायों और क्षेत्रों में बंटा हुआ है. ब्रिटिश लोग और भारत के लोग दोनों इस बात को जानते थे. संविधान निर्माण के जरिए इस बिखरे हुए लोगों के समुदाय को एक राष्ट्र करने की कोशिश की गई. हालांकि भारत इसमें कितना सफल हो पाया है, यह एक गंभीर बहस का मुद्दा है. जब अंग्रेज भारत छोड़ कर जाने को तैयार हुए औकी प्रक्रिया शुरू हुई तो इससे पहले कंस्टीटयूशनल सेटेलमेंट की बात उठी. अंग्रेजों ने यह तय करना जरूरी समझा कि भारत को सत्ता के हस्तानांतरण के बाद भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था ही लागू हो. इस पूरी प्रक्रिया में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की प्रमुख भूमिका रही. अगर हम बाबासाहेब के संपूर्ण जीवन को देखें तो यह साफ होता है कि कंस्टीट्यूशन सेटेलमेंट को लेकर वह कितने गंभीर थे. बाबासाहेब इस बात को लेकर हमेशा सक्रिय रहें कि भारत में कंस्टीट्यूशनल सेटेलमेंट कैसे हो. उनका मानना था कि देश में सामाजिक क्रांति तभी स्थायी होगी जब उसे संवैधानिक गारंटी होगी. क्योंकि वह संविधान के जरिए देश में समानता स्थापित करना चाहते थे. वह चाहते थे कि जाति और जन्म के आधार पर किसी काम को करने की बाध्यता या फिर न करने की मनाही न हो. डॉ. आंबेडकर संविधान के जरिए इन चीजों को खत्म करना चाहते थे. वह चाहते थे कि संविधान के जरिए भारत से असमानता खत्म हो और समानता आए. लोगों को उनके मूलभूत अधिकार (फंडामेंटल राइट्स) को लेकर गारंटी मिले. के.सी वैरी (Kenneth Wheare) नाम के एक संवैधानिक विशेषज्ञ ने मार्डन कांस्टीट्यूशन नाम से एक किताब लिखी है. उन्होंने यह किताब 1950 के बाद बने कई देशों के संविधान का अध्ययन करने के बाद लिखी है. किताब में उसने बताया है कि आखिर किसी देश को संविधान की जरूरत क्यों पड़ती है? उन्होंने तीन परिस्थितियों में संविधान की जरूरत बताया. पहली स्थिति के तौर पर उनका कहना है कि किसी देश में सामाजिक क्रांति के बाद जब आजादी मिलती है और सत्ता किसी एक के हाथ से निकल कर दूसरे के पास जाती है तो इस क्रम में कई बदलाव आते हैं. तब आप पहले के नियम-कानून को मानते नहीं है और आपके पास नए नियम-कानून होते नहीं है. ऐसी स्थिति में जिन चीजों को आप चाहते हैं उन्हें संवैधानिक वैद्यता (Sanctity) की जरूरत होती है. संविधान को लेकर दूसरी स्थिति तब होती है कि जब किसी देश को दूसरे देश की गुलामी से मुक्ति मिलती है. इसी क्रम में तीसरी स्थिति यह होती है कि अगर किसी देश में पहले से ही संवैधानिक लोकतंत्र था पर उसमें कोई संकट आ गया और उसने काम करना बंद कर दिया. इन तीनो पस्थितियों में संविधान की जरूरत होती है. भारत के संदर्भ में बात करें तो यहां दो स्थितियां एक साथ थी. भारत में सामाजिक क्रांति कामयाब हो रही थी, वहीं दूसरी ओर देश अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हो रहा था. संवैधानिक तौर पर भारत में जाति और वर्ण जैसी व्यस्था और मनुस्मृति के तहत बनाए गए कानून के खत्म होने का वक्त आ गया था. शाहूजी महाराज, जोतिबा फुले, नारायणा गुरु और बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के माध्यम से देश में जो सामाजिक क्रांति आई थी, उसे अपनी एक पहचान चाहिए थी. इन दोनों स्थितियों में भारत में भी संविधान की जरूरत थी. हालांकि यहां यह कहना ज्यादा सही होगा कि भारत में राजनीतिक क्रांति की बजाय सामाजिक क्रांति की वजह से संविधान बना है. क्योंकि जो लोग राजनीतिक क्रांति में सक्रिय थे वो नहीं चाहते थे कि भारत में संविधान हो. वह बिना संविधान के ही भारत देश को चलाना चाहते थे. लेकिन भारत में सामाजिक क्रांति के कारण इतने ज्यादा मजबूत थे कि राजनीतिक लोग चाह कर भी संविधान निर्माण को रोक नहीं पाएं. डॉ. आंबेडकर के लगातार सक्रिय रहने के कारण ब्रिटिशर्स भी भारत में मौजूद सामाजिक असमानताओं को समझ चुके थे और संविधान के पक्ष में थे. इस तरह से भारत का संविधान बनने की प्रक्रिया पर मुहर लगी. इन सारी चीजों की वजह से 9 अगस्त 1946 को 296 सदस्यों की संविधान सभा बनी. देश का विभाजन होने के कारण इसमें से 89 सदस्य चले गए. इस तरह भारतीय संविधान सभा में 207 सदस्य बचे और इसकी पहली बैठक में सिर्फ 207 सदस्य ही उपस्थित थे. इसमें बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर पहली बार 9 दिसंबर 1946 को बंगाल से चुनकर आए. इसके तुरंत बाद भारत का विभाजन हो गया, जिसके बाद बाबासाहेब जिस संविधान परिषद की सीट का प्रतिनिधित्व कर रहे थे उसे पाकिस्तान को दे दिया गया. इस तरह बाबासाहेब का निर्वाचन रद्द हो गया. यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि विभाजन के वक्त जिस तरह डॉ. आंबेडकर के प्रतिनिधित्व वाले हिस्से को पाकिस्तान को दे दिया गया, उसे भी तमाम जानकारों ने कांग्रेस की साजिश करार दिया है. यह इसलिए किया गया ताकि डॉ. आंबेकर संविधान सभा में नहीं रह पाएं. हालांकि इन साजिशों को दरकिनार करते हुए बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर दुबारा 14 जुलाई 1947 को चुन कर आएं. यहां बाबासाहेब के दुबारा संविधान सभा में चुने जाने को लेकर लोगों में यह भ्रम है कि कांग्रेस ने उन्हें सपोर्ट किया. जबकि हकीकत कुछ और है और ऐसा कह कर सालों से लोगों को गुमराह किया जा रहा है. इतिहास और सच्चाई यह है कि अगर बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर संविधान सभा (Constituent Assembly) में नहीं होते तो भारत का संविधान नहीं बन पाता. मान्यवर कांशी राम साहब ने भी इस बात को कहा है. दूसरी बात, डॉ. आंबेडकर जब 14 जुलाई 1947 को दुबारा चुन कर के आएं, उसके बाद ही यह घोषणा हुई कि 15 अगस्त को अंग्रेज भारत को सत्ता का हस्तानांतरण करेंगे. असल में डॉ. आंबेडकर जब पहली बार संविधान सभा में चुन कर आएं और विभाजन के बाद अपने निर्वाचन क्षेत्र के पाकिस्तान में चले जाने के कारण संविधान सभा का हिस्सा नहीं रहे, उस वक्त यूनाइटेड किंगडम (यूके) की पार्लियामेंट में इंडियन कांस्टीटूएंट असेंबली का बहुत कड़ा विरोध हुआ. और विरोध को दबाने के लिए नेहरू को यूके के नेताओं को समझाने के लिए ब्रिटेन जाना पड़ा था. इस विरोध की गंभीरता को इससे भी समझा जा सकता है कि कद्दावर नेता चर्चिल ने यहां तक कह दिया कि भारतीय लोग संविधान बनाने के लायक नहीं हैं. इन लोगों को आजादी देना ठीक नहीं होगा. दूसरी बात, ब्रिटिशर्स अल्पसंख्यकों के हितों को लेकर काफी गंभीर थे. तात्कालिक स्थिति में यूके पार्लियामेंट का कहना था कि अगर भारत में कंस्टीट्यूशनल सेटेलमेंट होता है तो इसमें अल्पसंख्यकों के हितों की गारंटी नहीं होगी. क्योंकि बाबासाहेब का कहना था कि शेड्यूल कॉस्ट और शेड्यूल ट्राइब नहीं हैं. खासतौर पर अछूत हिन्दू नहीं है. बाबासाहेब ने इसको साबित करते हुए अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए सेपरेट सेफगार्ड ( अलग विशेषाधिकार) की बात कही थी. बाबासाहेब की इस बात पर यूके के पार्लियामेंट में बहुत लंबी बहस हुई थी. इस बहस से यह स्थिति पैदा हो गई थी कि अगर भारत में अधिकार के आधार पर, बराबरी के अधिकार पर अल्पसंख्यकों (इसमें एससी, एसटी भी थे) के अधिकारों का सेटेलमेंट नहीं होगा तो भारत का संविधान नहीं बन पाएगा और इसे वैद्यता नहीं मिलेगी. और अगर संविधान नहीं बनेगा तो फिर भारत को आजादी (तथाकथित) नहीं मिलेगी. ऐसी स्थिति में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर को बाम्बे से चुनकर लाना कांग्रेस और पूरे देश की मजबूरी हो गई थी. यहां एक तथ्य यह भी कहा जाता है कि बैरिस्टर जयकर ने डॉ. आंबेडकर के लिए अपना त्यागपत्र दिया था. जबकि ऐसा नहीं है, बल्कि कांग्रेस के कुछ अगड़े नेताओं के साथ मतभेद होने के कारण जयकर ने इन सारी बातों से पहले ही अपना इस्तीफा दे दिया था. यानि बाबासाहेब को दुबारा चुनकर लाना पूरे देश की मजबूरी हो गई थी. क्योंकि अगर बाबासाहेब को चुनकर नहीं लाया जाता तो देश का संविधान नहीं बन पाता और ऐसी स्थिति में भारत को आजादी मिलने में और वक्त लग सकता था. हालांकि ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास संविधान लिखने वाला कोई दूसरा नहीं था. बल्कि इसमें तथ्य यह है कि अगर बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर कांस्टीट्यूशनल असेंबली में नहीं होते तो भारत के अछूतों के अधिकारों का संवैधानिक सेटेलमेंट होने की बात नहीं मानी जाती और इससे भारत के संविधान को मान्यता नहीं मिलती. भारत को बड़े लोकतंत्र के तौर पर भी दर्जा नहीं मिल पाता. क्योंकि तब यह माना जाता कि संविधान में भारत के बड़े वर्ग (एससी/एसटी) के अधिकारों और स्वतंत्रता की बात संविधान में नहीं है. यह बात इससे भी साबित होती है क्योंकि एच. एल ट्राइव नाम के एक अमेरिकी संवैधानिक विशेषज्ञ ने कंस्टीट्यूशनल च्वाइसेस नाम की किताब लिखी है. उसमें उसका यह कहना है कि जब संविधान बनता है और उसमें बराबरी की बात होती है तो यह बराबरी दो तरह की होती है. एक कानूनी बराबरी होती है और दूसरी असली बराबरी होती है. जो कानूनी बराबरी होती है वो लोगों को समानता का अधिकार देती है. भारतीय संविधान के तीन लक्ष्य माने जाते हैं. साथ ही इसकी तीन चुनौतियां भी हैं. संविधान का पहला लक्ष्य और चुनौती सामाजिक क्रांति है. दूसरा लक्ष्य एवं चुनौती राजनैतिक क्रांति है. इसी संदर्भ में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण कारक अल्पसंख्यक अधिकारों का सेटलमेंट है. जिस सामाजिक क्रांति की बदौलत भारत के संविधान का निर्माण हुआ, उसमें शाहूजी महाराज, जोतिबा फुले, नारायणा गुरु, बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर का बहुत बड़ा योगदान था. इन तमाम महापुरुषों के संघर्षों के बाद बाबासाहेब आंबेडकर के जरिए भारत में जो सामाजिक क्रांति आई, वह एकमात्र कारण है जिससे भारत के संविधान का निर्माण हुआ. यह नहीं होता तो भारत का संविधान नहीं होता. और अगर संविधान नहीं होता तो लोगों के मूलभूत अधिकारों की गारंटी भी नहीं होती. यानि बोलने की, लिखने की, अपनी मर्जी से पेशा चुनने की, संगठन खड़ा करने की, मीडिया चलाने की आजादी नहीं होती. जातिगत भेदभाव को गलत नहीं माना जाता, छूआछूत को कानून में अपराध घोषित नहीं किया जाता. भारतीय लोगों को संविधान की जरूरत थी. संविधान की जरूरत इसलिए थी क्योंकि उनको एक राष्ट्र बनना था. संविधान के निर्माण के लिए कई समितियां बनी थी. इसमें से बाबासाहेब ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन और एडवाइजरी कमेटी, फंडामेंटल राइट सबकमेटी, माइनारिटी कमेटी और यूनियन कंस्टीट्यूशन कमेटी के सदस्य थे. भारतीय संविधान का इतिहकार Granville Austin ने एक किताब लिखी है, जिसमें उसने डॉ. अंबेडकर को भारतीय संविधान सभा का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति माना है. भारतीय संविधान एक बहुत लंबी प्रक्रिया के बाद बना. 30 अगस्त 1947 को इसकी पहली बैठक हुई. संविधान बनाने के लिए कंस्टीटूएंट असेंबली को 141 दिन का काम करना पड़ा. शुरुआती दौर में इसमें 315 आर्टिकल पर विचार किया गया था. 8 शेड्यूल डिस्कस किए गए थे. ड्राफ्टिंग कमेटी ने 343 आर्टिकल पर विचार किया, 13 आर्टिकल शेड्यूल किया. इसमें 7635 संशोधनों का प्रस्ताव किया गया था, जिसमें 2473 संशोधन संविधान सभा में लाए (मूव किए) गए. 395 आर्टिकल और 8 शेड्यूल के साथ भारत के लोगों ने भारत के संविधान को अपने प्रिय मुक्तिदाता बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के जरिए 26 नवंबर 1949 को भारत को सुपुर्द किया. आज भारत के संविधान में 448 आर्टिकल हैं. असल में नंबरों के हिसाब से यह आज भी 395 ही है लेकिन बीच-बीच में यह (1) (2) या फिर (a) और (b) के जरिए बढ़ता रहा है. यह 22 हिस्सों में विभाजित है और इसके 12 शेड्यूल हैं. संविधान बनने के बाद अब तक संसद के सामने 120 संशोधन लाए गए लेकिन इसमें से 98 संशोधन ही स्वीकार किए गए. इस पूरी प्रक्रिया में विशेष यह है कि भारत ने जो संविधान बनाया उससे भारत के नागरिकों को मूलभूत अधिकार मिले. लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिस समता, बंधुता, भेदभाव मुक्त भारत के उद्देश्यों को लेकर भारत का संविधान बना क्या वह हमें हासिल हो पाया है?  इस प्रश्न के आलोक में देखें तो यह हमें सौ फीसदी तो हासिल नहीं हो पाया है लेकिन यह कहा जा सकता है कि भारत के संविधान ने देश में चमत्कार (Miracle) कर के दिखाया है. दुनिया में जितना बड़ा चमत्कार पहले कभी नहीं हुआ, वह भारत में हुआ. देश का संविधान इसकी वजह बना. अगर विभिन्न देशों से तुलना कर के देखें तो इंग्लैंड के लोगों को भी अधिकार टुकड़ों में मिले. इंग्लैंड की महिलाओं को सबसे पहले 1920 में वोटिंग का अधिकार मिला. इसी तरह अमेरिका का संविधान 1779 में ही बन गया था लेकिन वहां के संविधान में ब्लैक लोगों को नागरिकता नहीं थी. 1865 में जब अमेरिकी संविधान में 13वां संशोधन लाया गया तब अमेरिका के काले लोगों को नागरिकता मिली. यहां यह बताना जरूरी है कि अमरिकी सुप्रीम कोर्ट ने 1857 में काले लोगों को ड्रेड स्टॉक ( Dred Scott) केस में अमरिकी नागरिक मानने से इंकार कर दिया था. इस परिपेक्ष्य में अब्राहम लिंकन 1863 में 13वें संशोधन का प्रारूप लेकर आएं, जिससे काले लोगों को अमरिकी नागरिकता हासिल हुई. भारत का संविधान बनने तक अमेरिकी संविधान में वहां के ब्लैक का मामला पूरी तरह सुलझा नहीं था. 1965 में जाकर अमेरिका में ब्लैक का मामला कुछ हद तक सुलझ पाया. जबकि दूसरी ओर भारत के संविधान में सबसे पहले यह घोषित किया गया कि सभी मनुष्य समान हैं. जाति, धर्म, जन्म, वर्ण, वर्ग, स्थान आदि से परे देश के सभी मनुष्यों को बराबर माना गया. संविधान में साफ तौर पर लिखा गया कि भारत भूमि पर सर्व मनुष्य मात्र समान है. संविधान ने सबको एक सूत्र में पिरोते हुए सभी को ‘भारतीय’ माना और ‘हिन्दुस्तान’ नाम को मिटा दिया. (हिन्दुस्तान पेट्रोलियम जैसे नाम भी असंवैधानिक हैं.) संविधान बनने के पूर्व भारत के दो-ढ़ाई हजार साल के इतिहास को देखने पर यह बात असंभव मालूम पड़ती है. लेकिन डॉ. आंबेडकर और भारत के संविधान के कारण यह संभव हो पाया. यह इसकी पहली देन है. संविधान की जो दूसरी देन है, वह यह कि जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण, भाषा, स्थान, लिंग आदि जो-जो चीजें भारत के लोगों को बांटती थी, संविधान ने इस आधार पर भेदभाव को गैरकानूनी और असंवैधानिक घोषित कर दिया. साथ ही मनु द्वारा बनाए हिन्दू धर्म के सारे नियमों को अपराध घोषित कर दिया. संविधान के निर्माण के बाद जो तीसरी खास बात हुई, वह यह थी कि जिन लोगों ने इस देश पर शासन करने का सपना तक नहीं देखा था, संविधान के अधिकार मिलने के बाद इसे हकीकत में पूरा कर दिखाया. जिस देश में रानी के पेट से ‘राजा’ पैदा होता था, उस देश में ‘संविधान’ से राजा पैदा होने लगा. इस तरह से संविधान ने भारत के भविष्य का निर्माण किया है. हालांकि भारत के पास इतना सुंदर संविधान होने के बावजूद भी वह एक बड़े संकट से गुजर रहा है. क्योंकि संविधान के जरिए सामाजिक क्रांति का जो लक्ष्य रखा गया था, वह उद्देश्य अब तक हासिल नहीं हो पाया है. दूसरा, संविधान के जरिए जिस राजनीतिक लोकतंत्र को हासिल करने का भरोसा जताया गया था, वह भी अभी अधर में ही है. तीसरा जो सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य है वह यह है कि भारत में जो वंचित तबका (डिस्क्रीमिनेटेड कम्यूनिटी) है, उसका सेटेलमेंट नहीं हो पाया है. क्योंकि जो गरीब हैं वह उसी वर्ग से ताल्लुक रखते हैं (अपवाद छोड़कर) जो वंचित हैं. जो अशिक्षित हैं वह उसी वर्ग से ताल्लुक रखते हैं जो वंचित हैं. 99 फीसदी मामलों में जिन महिलाओं का जबरन शोषण होता है, वह भी इसी डिस्क्रीमिनेटेड कम्यूनिटी से ताल्लुक रखती हैं. यह अपने आप में बहुत बड़ी समस्या है. हाल ही में संविधान के जरिए शिक्षा का, काम का और भोजन का अधिकार दिया गया है लेकिन इस तरह की योजनाएं इसलिए कारगर नहीं हैं क्योंकि इसे लागू करने वाले लोग ईमानदार नहीं हैं. 25 नवंबर 1949 को बाबासाहेब ने संविधान सभा में भाषण देते हुए कहा था कि संविधान कितना भी अच्छा हो वह अपने आप लागू नहीं होता है, उसे लागू करना पड़ता है. ऐसे में जिन लोगों के ऊपर संविधान लागू करने की जिम्मेदारी होती है, यह उन पर निर्भर करता है कि वो संविधान को कितनी ईमानदारी और प्रभावी ढ़ंग से लागू करते हैं. असल में भारतीय संविधान के सही ढ़ंग से लागू न हो पाने की वजह से सौ करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले भारत के लोगों का विकास प्रभावित होने लगा है. यह तकरीबन रूक सा गया है. आज दुनिया में 7 बिलियन लोग हैं. ऐसे में संयुक्त राष्ट्र ने एक बेहतर विश्व बनाने का सपना देखा है. हालांकि वह ऐसा करने में तब तक कामयाब नहीं हो सकता जब तक वो भारत के 120 करोड़ (एक बिलियन से ज्यादा) की आबादी की समस्याओं को हल नहीं कर देते. ऐसे में संयुक्त राष्ट्र का जो सपना है कि दुनिया में समता हो, बंधुत्व हो, एकता तो, महिलाओं और दलितों की समस्या खत्म हो जाए तो इसमें वह तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक की भारत की समस्या खत्म नहीं हो जाती. यदि दुनिया को समता, बंधुत्व, गरीबी मुक्त, अशिक्षा मुक्त करना है, दुनिया को अगर मानवतावादी जगह बनानी है तो भारत में भारत के संविधान को सही तरीके से लागू करना होगा. दुनिया के लोगों ने जो सपना देखा है वह तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक भारत का संविधान कामयाब नहीं होता. यानि भारत के संविधान की कामयाबी ही दुनिया को कामयाबी के रास्ते पर ले जाने में सक्षम है. इसे उस रूप में लागू करना होगा, जिस रूप में इसे लागू करने का सपना बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने देखा था. – लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं.

भारतीय मीडिया और दलित-आदिवासी प्रश्न

जब हम मीडिया में दलित मुद्दों की बात करते हैं तोसबसे पहला सवाल यही आता है कि मीडिया में दलित समाज से जुड़ा हुआ मुद्दा सामाजिक मुद्दा और देश का मुद्दा क्यों नहीं बन पाता? जबकि वंचित तबके की संख्या देश में सबसे ज्यादा है. किसी कार्यक्रम, किसी धरना-प्रदर्शन का कोई भी बैनर, जिस पर बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर या बहुजन समाज से जुड़े हुए किसी भी महापुरुष की तस्वीर लगी हो, या फिर उस पर दलित शब्द लिखा हो, वह तुरंत दलित समाज का मुद्दा बन जाता है, फिर वह देश का, समाज का मुद्दा नहीं रह जाता. आज का मीडिया इस वर्ग को इंसान के तौर पर नहीं, एक अलग किस्म के समूह के तौर पर देखता है. जैसे यह समाज इस समाज के बीच का हिस्सा नहीं है बल्कि किसी दूसरे टापू पर बसा हो. यही मीडिया की सच्चाई है. यही मीडिया का चेहरा है.

मीडिया की भाषा

मीडिया की भाषा को लेकर भी बात होनी चाहिए. आज से तकरीबन 6-7 साल पहले की एक खबर मुझे आज भी याद है. खबर दैनिक जागरण में छपी थी और उसका शीर्षक था- आदिवासी युवक की करंट लगने से मौत.. एक ऐसी खबर, जिसमें एक व्यक्ति को करंट लग जाता है और उसकी मौत हो जाती है, उस खबर में उसकी जाति का उल्लेख करना कहां तक जायज है और उसकी कितनी जरूरत है, इसका फैसला आप खुद कर लिजिए. जिस रिपोर्टर ने उस खबर को लिखा होगा और जिस संपादक ने उस खबर को संपादित किया होगा, मुझे उनकी सोच पर तरस आता है.

दलित महिला का बलात्कार, दलित को मंदिर में नहीं घुसने दिया, अम्बेडकर की रिंग टोन बजने पर दलित युवक को पीटा, दलित सांसद ने कहा… दलित मंत्री ने कहा… जब मीडिया इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करता है तो असल में वह एक खास वर्ग को यह भी संदेश दे रहा होता है कि तुम अपना काम करते रहो, तुम आराम से रहो, तुम्हें कोई दिक्कत नहीं है. तुम्हें फिक्र करने की जरूरत नहीं है. यह तुम्हारा मुद्दा नहीं है. यह देश का मुद्दा नहीं है.

इसी तरह, दबंगों ने दलित महिला से किया बलात्कार, दबंगों ने दलितों को मंदिर में घुसने से रोका, अम्बेडकर का रिंग टोन रखने पर दबंगों ने दलित युवक को पीटा.. ऐसा कह कर मनुवादी व्यवस्था की समर्थक मीडिया दलित समाज को डराने की कोशिश भी करता है. वह दलित समाज को आगाह करता है कि देख लो.. तुम विरोध करोगे तो मारे जाओगे, तुम्हारी बहन-बेटियों की इज्जत लूट ली जाएगी, इन मंदिरों में घुसने की हिमाकत मत करना… नहीं तो तुम पीटे जाओगे, ज्यादा अम्बेडकर-अम्बेडकर मत चिल्लाओ नहीं तो हम तुम्हारा भी वही अंजाम करेंगे.

मैं यह सवाल इसलिए उठा रहा हूं क्योंकि आज तक किसी मीडिया ने यह नहीं लिखा कि ब्राह्मण लड़की के साथ बलात्कार. जबकि बलात्कार की शिकार हर जाति और धर्म की महिलाएं होती हैं. ये है मीडिया का चेहरा और दलित मुद्दों को लेकर उसके काम करने का तरीका.

दलित मुद्दों को देखने का नजरिया

कुछ दिन पीछे जाइए, दिल्ली में अन्ना आंदोलन हुआ. जंतर मंतर पर दिन भर मीडिया का जमावड़ा लगा रहा. महीनों तक टीवी चैनलों और अखबारों में खबरें चलती रही. लगा जैसे बस देश सुधर गया. आंदोलन का अंजाम क्या हुआ सबके सामने है. अब बस दो महीने पीछे चलिए. ऊना की घटना के बाद गुजरात में दलितों का एक बहुत बड़ा आंदोलन हुआ. महीनों तक यह चला और आज भी चल रहा है, लेकिन मीडिया ने इस आंदोलन को कैसे दिखाया और कितना दिखाया यह आपके सामने है. मीडिया ने कभी भी जातिवाद जैसे बड़ी सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए मुहिम नहीं चलाई. अगर भ्रष्टाचार देश का नासूर बना हुआ है और उसको खतम करने को लेकर मीडिया ने दिन-रात एक कर दिया था तो क्या जातिवाद देश के लिए नासूर नहीं है और मीडिया को गुजरात और उना घटना के बहाने इस सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए आंदोलन नहीं छेड़ देना चाहिए?? जैसे उसने निर्भया मामले में और अन्ना आंदोलन के दौरान किया.

प्रतिनिधित्व

जिस विषय पर हमलोग बात कर रहे हैं, उससे जुड़ा हुआ एक और सवाल है, जिसको समझे बिना मीडिया के इस सारे खेल को समझा नहीं जा सकता है. वह सवाल है मीडिया में दलित/आदिवासी समाज के प्रतिनिधित्व का. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मीडिया में दलित/आदिवासी समाज का एक प्रतिशत प्रतिनिधित्व भी नहीं है. यानि इसमें पैसा एक खास वर्ग का लगा है और इसमें काम करने वाले 90 प्रतिशत लोग साधारण समाज (जिन्हें आप जनरल कैटेगरी कहते हैं) के लोग हैं. और इसमें भी 50 फीसदी से ज्यादा सिर्फ एक खास जाति के लोग हैं. यानि भारतीय मीडिया पूरी तरह से दो समुदायों का गठजोड़ है, जिसमें एक के पास अथाह पूंजी है तो दूसरा खुद को एकमात्र ज्ञानी होने का दावा करता है.

दलित/आदिवासी नायकों को देखने का नजरिया

अम्बेडकर जयंती वंचित तबके के लिए सबसे बड़ा त्यौहार है. असल में यह पूरे देश के लिए उल्लास का विषय होना चाहिए लेकिन पूरा देश नहीं मानता चलिए कोई बात नहीं. लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा बाबासाहेब को फॉलो करता हैऔर यह दिन उनके लिए बहुत अहम है. इसकी संख्या तकरीबन 30-40 करोड़ है. यह समाज भी टीवी देखता है. बावजूद इसके मीडिया में यह आज भी बैन है. मीडिया इसे सेलिब्रेट नहीं करती है. जो मीडिया करवा चौथ और भाई दूज तक की खबर पर पैकेज बनाता है, वही मीडिया बाबासाहेब की जयंती को नहीं दिखाता. आखिर क्यों?

बिरसा मुंडा की बात करते हैं. इस नायक के बारे में मीडिया क्यों चुप्पी साधे रहती है, जबकि देश का आदिवासी समाज उन्हें पूजता है. औऱ जिनकी विचारधारा पर झारखंड जैसा राज्य बनाया गया.

ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले का नाम आप लोग जानते होंगे, जिस दंपत्ति ने स्त्री शिक्षा को लेकर इतना बड़ा काम किया, मीडिया उन्हें क्यों नहीं याद करती है. दलित-आदिवासी और वंचित तबके के ऐसे सैकड़ों नायक हैं जिनका नाम लिया जा सकता है, लेकिन यह मीडिया उन्हें याद नहीं करता.

बिहार में दलितों का सामूहिक नरसंहार होता है. दर्जनों दलितों के घर जला दिए जाते हैं. मामला अदालत पहुंचता है, सालों तक इस पर बहस होती है, फैसला आता है औऱ सभी आरोपी बरी हो जाते हैं. किसी को कोई सजा नहीं मिलती. लेकिन कोई मीडिया यह सवाल नहीं उठाता कि आखिर दलितों का नरसंहार किसने किया?? अरे किसी ने तो मारा होगा उन्हें?? मीडिया इस पर बहस की जरूरत क्यों नहीं समझता??

स्वतंत्रता दिवस की बात करते हैं. हर साल अगस्त की 15 तारीख को देश भर में यह त्यौहार मनता है. आजादी की अनुभूति का अद्भुत नजारा होता है. टीवी चैनलों और अखबारों में अगस्त के पहले हफ्ते से ही तमाम स्पेशल रिपोर्ट की बाढ़ आ जाती है. लेकिन उस मौके पर भी इस देश का मीडिया दलित और आदिवासी समाज से जुड़े नामों को याद करने से परहेज करता है. भगत सिंह की बात होती है, गांधीजी की बात होती है, चंद्रशेखर आजाद, नेहरू तक की बात होती है, यहां तक की देश के जिन सैनिकों को परमवीर चक्र मिला होता है, उनकी भी बात होती है. होनी चाहिए, बिल्कुल होनी चाहिए.

लेकिन मेरा सवाल यह है कि तब बिरसा मुंडा की बात क्यों नहीं होती, तब 32 अंग्रजों को मार गिराने वाली ऊदा देवी पासी की बात क्यों नहीं होती, अंग्रेजों को नाकों चने चबवा देने वाला शहीद बुद्धु भगत की बात क्यों नहीं होती, वीरा पासी (50 हजार के इनामी) की बात क्यों नहीं होती, पलामू में अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले निलाम्बर और पीताम्बर बंधुओं की बात क्यों नहीं होती, जिन्होंने अंग्रेजों को इतना परेशान कर दिया कि उन पर अंग्रेजों को 50 हजार का इनाम रखना पड़ा, ऐसे वीर बांके चमार की बात क्यों नहीं होती, चौरी-चौरा के नायक रमापति चमार की बात क्यों नहीं होती? झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की बात तो की जाती है लेकिन झलकारी बाई के योगदान को उस गहराई से क्यों नहीं याद किया जाता??

बाबासाहेब मीडिया की ताकत और जरूरत दोनों को समझते थे. चूंकि उस समय जो पत्र-पत्रिकाएं निकल रही थी वह वंचित समाज के मुद्दों और समस्याओं की ओर से बिल्कुल आंखें मूंदे हुए थी. आज जब यह हाल है तो आप समझ सकते हैं कि तब क्या हालात होंगे. तो भारत के वंचित समाज के मुद्दों को उठाने के लिए बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर को एक अखबार शुरू करना था. अखबार का नाम था ‘मूकनायक’. अखबार के प्रचार प्रसार की बात आई. उसी समय बाल गंगाधर तिलक ‘केसरी’ नाम का अखबार निकाल रहे थे. डॉ. अम्बेडकर ने केसरी अखबार में मूकनायक के प्रकाशित होने का विज्ञापन छपवाने के लिए संपर्क किया, लेकिन तिलक ने बाबासाहेब अम्बेडकर द्वारा निकाले जाने वाले अखबार का विज्ञापन तक छापने से इंकार कर दिया. आप सोच सकते हैं कि केसरी जैसे अखबार जिन्होंने वंचित समाज के योग्य द्वारा दिए गए विज्ञापन को प्रकाशित नहीं किया वो दलितों के हितों से जुड़े मुद्दों को कितनी अहमियत देता होगा?

एक दूसरा उदाहरण मान्यवर कांशीराम जी से जुड़ा हुआ है. कांशीराम जी बामसेफ के बैनर तले सामाजिक तौर पर काफी सक्रिय हो चुके थे. देश भर में लोग बामसेफ से जुड़ रहे थे. बोट कल्ब पर बामसेफ का पहला अधिवेशन हुआ. देश भर से हजारों लोग इस कार्यक्रम में पहुंचे. भव्य आयोजन किया गया, लेकिन दूसरे दिन के अखबारों में इसकी एक लाइन खबर भी नहीं थी. बामसेफ से जुड़े लोगों को काफी बुरा लगा कि हमने इतना बड़ा सम्मेलन किया लेकिन इसकी कोई रिपोर्ट नहीं छपी. बामसेफ के साथियों ने कांशीराम जी से बामसेफ के आंदोलन की बात लोगों तक पहुंचाने के लिए प्रेस कांफ्रेंस करने को कहा. प्रेस क्लब बुक किया गया. तारीख और समय के साथ सभी अखबार के दफ्तरों में इसकी सूचना दे दी गई. नियत समय पर कांशीराम जी और उनके एक अन्य साथी प्रेस कल्ब पहुंच गए. एक घंटा बीता, दो घंटा बीता, तीन घंटा बीता लेकिन कोई भी मीडियाकर्मी प्रेस कांफ्रेंस में नहीं पहुंचा. गजब तो यह हुआ कि प्रेस क्लब में रोज शाम को खाने-पीने के लिए मीडियाकर्मियों की भीड़ लगी रहती है लेकिन उस दिन तमाम मीडिया वाले प्रेस क्लब आए ही नहीं.

तब कांशीराम जी ने अपने सहयोगी से कहा कि मीडिया हमारी खबरों को नहीं दिखाएगी क्योंकि मनुवादी मीडिया नहीं चाहता कि हमारा आंदोलन, हमारे नायकों की कहानियां और हमारी बात दूसरों तक पहुंचे. इसलिए पहले तो मीडिया हमारी खबरों को ब्लैक लिस्टेड करेगी और जब हमारा आंदोलन बड़ा होगा तो हमें ब्लैकमेल करेगी. स्थिति आज भी बहुत नहीं बदली है. दलित/आदिवासी/मूलनिवासी वंचित समाज से जुड़ी हुई खबरों को मीडिया आज भी इसी तरह से देखता है. और मेरा मानना है कि ब्लैक लिस्टेड और ब्लैकमेल से आगे मीडिया अब इस समाज से जुड़ी खबरों को इस तरह से परोस रहा है कि इस समाज को डराया और दबाया जा सके.

दिल्ली के जंतर-मंतर पर जाकर देखिए, इस समाज के लोग आए दिन अपनी मांगों और समस्याओं के लिए धरना प्रदर्शन करते हैं. जाहिर है कि सारी खबरों को दिखाना संभव नहीं है. लेकिन हरियाणा आपके बगल में है. वहां हिसार जगह है. उसी हिसार में भगाणा गांव है, वहां के दलित जातिवादी गुंडों के उत्पीड़न का शिकार होकर गांव से पलायन कर गए. उनकी बेटियों का बलात्कार किया गया. चार साल से वह इंसाफ के लिए आंदोलन कर रहे हैं. दो साल से जंतर-मंतर पर बैठे हैं. उन्हें इंसाफ दिलाने के लिए, उनका दर्द सुनने के लिए मुख्यधारा का कोई मीडिया नहीं पहुंचा. हां, जब उन्होंने उसी जंतर मंतर पर इस्लाम अपना लिया तो हलचल जरूर हुई थी. लेकिन उन्होंने वैसा क्यों किया, इस पर कितनी बहस हुई, आपको पता होगा.

हां, कुछ चैनल और कुछ पत्रकार हैं जो वंचित तबके की खबरों को लेकर कभी-कभी संजीदगी दिखाते हैं, ऐसे पत्रकारों को गालियां दी जा रही हैं और उनसे जुड़े चैनलों पर बैन लगाने की धमकियां मिल रही हैं.

इसी तरह मीडिया द्वारा दलित राजनीति को देखने का तरीका भी पक्षपाती है. जब दलित राजनीति का वाहक कोई नेता बहुजन महापुरुषों को सम्मान देने की बात करते हुए उनकी प्रतिमाएं बनवाता है और जिससे राज्य सरकार को हर दिन ठीक-ठाक आमदनी होती है, तो मीडिया इसे सामाजिक न्याय नहीं मानता बल्कि इसे पत्थर कह कर प्रचारित करता है. मीडिया सिर्फ इसी को केंद्र में रखकर प्रचारित करती है और उस सरकार द्वारा जनता के लिए किए गए अन्य कामों को नकारने की कोशिश करती है.

मेरा मानना है कि भारतीय मीडिया जातिवादी है. दलित मुद्दों के मामले में अंग्रेजी मीडिया  हिन्दी मीडिया से ज्यादा उदार है. पिछले दिनों में सोशल मीडिया के दबाव के बीच मीडिया कुछ मुद्दों को दिखाने लगा है, लेकिन मीडिया मालिकों और संपादकों को अभी अपना दिल और ज्यादा बड़ा करना होगा.

लेखक दलित “दस्तक पत्रिका” के संपादक हैं. यह लेख ईग्नू में दिए गए व्याख्यान का लिखित रूप है.

यूपीः स्कूल में मिली दलित किशोरी की लाश, रेप के बाद शरीर पर डाल दिया तेजाब

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फिरोजाबाद। यूपी के फिरोजाबाद में तीन दिन पहले गायब एक दलित नाबालिग की लाश गांव के ही प्राइमरी स्कूल के बाथरूम में मिली है. शव पर कपड़े नहीं थे. परिजनों को आशंका है कि किशोरी की रेप के बाद हत्या की गई है. शव की पहचान छिपाने के लिए उसके शरीर पर तेजाब डाला गया है. पुलिस का कहना है कि 16 साल की दलित किशोरी 19 नवंबर (शनिवार) की शाम अचानक लापता हो गई. परिजनों ने उसकी काफी तलाश की, लेकिन कोई पता नही चल सका. मंगलवार सुबह गांव के बच्चे प्राइमरी स्कूल पहुंचे तो उन्होंने तेजाब से झुलसा एक अर्धनग्न शव बाथरूम में पड़ा देखा. शव देख बच्चों ने शोर मचाया तो शिक्षक व गांव के लोग मौके पर पहुंचे. सूचना मिलते ही परिजन भी पहुंच गए. परिजनों ने कपडों से शव की पहचान की. भाई ने थाने में दी तहरीर में आरोप लगाया है कि रेप के बाद हत्या की गई है. पहचान छिपाने के लिए शव पर तेजाब डाला गया है. मामला पोक्सो सहित अन्य धाराओं में दर्ज कर पुलिस ने जांच शुरू कर दी है. थानाध्यक्ष प्रदीप यादव का कहना है पुलिस पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट का इंतजार कर रही है.

जयंती विशेषः खूब लड़ी मर्दानी वो तो झलकारी बाई थी

1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम और बाद के स्वतन्त्रता आन्दोलनों में देश के अनेक वीरों और वीरांगनाओं ने अपनी कुर्बानी दी. किन्तु बहुत से ऐसे वीर और वीरांगनाये है जिनका नाम इतिहास में दर्ज नहीं हो सका. किन्तु उन्हें लोक मान्यता इतनी अधिक मिली कि उनकी शहादत बहुत दिनों तक गुमनाम नहीं रह सकी. अपने शासक झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने के लिए स्वयं बलिदान हो जाने वाली वीरांगना झलकारी बाई ऐसी ही एक अमर शहीद वीरांगना हैं, जिनके योगदान को जानकार लोग बहुत दिन बाद रेखाकित कर पाये. अपनी मातृभूमि झांसी और राष्ट्र की रक्षा के लिए झलकारी बाई के दिये गये बलिदान को तब के इतिहासकार भले ही अपने स्वार्णिम पृष्टों में न समेट सके हों किन्तु झांसी के लोक इतिहासकारों, कवियों एवं लेखकों ने वीरांगना झलकारी बाई के स्वतंत्रता संग्राम में दिये गये योगदान को श्रद्धा के साथ स्वीकार किया. वीरांगना झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर 1820 ई० को झांसी के समीप भोजला नामक गांव में एक सामान्य कोरी परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम सदोवा था. सामान्य परिवार में पैदा होने के कारण झलकारी बाई को औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने का अवसर तो नहीं मिला किन्तु वीरता और साहस झलकारी में बचपन से विद्यमान था. थोड़ी बड़ी होने पर झलकारी की शादी झांसी के पूरनलाल से हो गयी जो रानी लक्ष्मीबाई की सेना में तोपची था. प्रारम्भ में झलकारी बाई विशुद्ध घेरलू महिला थी किन्तु सैनिक पति का उस पर बड़ा प्रभाव पड़ा. धीरे–धीरे उसने अपने पति से सारी सैन्य विद्याएं सीख ली और एक कुशल सैनिक बन गयी. इस बीच झलकारी बाई के जीवन में आई कठिनाइयों के दौरान उनकी वीरता और निखर कर सामने आई. इनकी भनक धीरे – धीरे रानी लक्ष्मीबाई को भी मालूम हुई जिसके फलस्वरूप रानी ने उन्हें महिला सेना में शामिल कर लिया और बाद से उसकी वीरता साहस को देखते हुए उसे महिला सेना का सेनापति बना दिया. उन्हें सेनापति बनाने के पीछे वीरांगना झलकारी बाई की शक्ल थी, जो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से हू-ब-हू मिलती थी. झांसी के अनेक राजनैतिक घटनाक्रमों के बाद जब रानी लक्ष्मीबाई का अग्रेंजों के विरूद्ध निर्णायक युद्ध हुआ उस समय रानी की ही सेना का एक विश्वासघाती दूल्हा जी अग्रेंजी सेना से मिल गया था और झांसी के किले का ओरछा गेट का फाटक खोल दिया. उसी गेट से अंग्रेजी सेना झांसी के किले में कब्जा करने के लिए घुस पड़ी थी. उस समय रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों की सेना से घिरता हुआ देख महिला सेना की सेनापति वीरांगना झलकारी बाई ने बलिदान और राष्ट्रभक्ति की अदभुत मिशाल पेश की थी. झलकारी बाई की शक्ल रानी लक्ष्मीबाई से मिलती थी ही उसी सूझ बुझ और रण कौशल का परिचय देते हुए वह स्वयं रानी लक्ष्मीबाई बन गयी और असली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को सकुशल बाहर निकाल दिया और अंग्रेजी सेना से स्वयं संघर्ष करती रही और शहीद हो गई. बाद में दूल्हा जी के बताने पर पता चला कि यह रानी लक्ष्मीबाई नहीं बल्कि महिला सेना की सेनापति झलकारी बाई है जो अंग्रेजी सेना को धोखा देने के लिए रानी लक्ष्मीबाई बन कर लड़ रही है. वीरांगना झलकारी बाई के इस बलिदान को बुन्देलखण्ड तो क्या भारत का स्वतन्त्रता संग्राम कभी भुला नहीं सकता.

मराठा रैली को टक्कर देने के लिए दलित, ओबीसी और मुस्लिम निकालेंगे ”बाइक रैली”

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मुंबई। 6 नवंबर को मराठों द्वारा निकाली गई बाइक रैली के बाद अब दलित, मुस्लिम और ओबीसी एकजुट होकर मुंबई की सड़कों पर बाइक रैली निकालेगा. मुंबई में मराठा समाज दलित अत्याचार अधिनियम पर समीक्षा की मांग कर रहा है जिसके खिलाफ दलित समाज 26 नवंबर को बाइक रैली का आयोजन करने जा रहा है. इसके बाद यह रैली 24 दिसम्बर को एक विशाल विरोध प्रदर्शन में बदल जाएगी. इस बाइक रैली का उद्देश्य है कि दलित, ओबीसी और मुस्लिम को एकजुट होकर मराठों के खिलाफ आवाज उठाए. यह रैली बांद्रा से दादर के चैतन्यभूमि तक जाएगी. इसमें करीब 5000 बाइकर्स हिस्सा लेंगे. रैली के आयोजक रमेश गायकवाड़ का कहना है कि यह रैली 26 नवंबर को इसलिए आयोजित की जा रही है क्योंकि बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर द्वारा बनाए गए संविधान को 24 नवंबर 1949 को ही अपनाया गया है और यह 26 जनवरी 1950 को प्रभाव में आया. इसलिए हम इसे संविधान के प्रतीक के रूप में आयोजित कर रहे हैं. गायकवाड़ ने कहा कि इसके बाद दलित अत्याचार अधिनियम में मराठों द्वारा संशोधन के विरोध में 24 दिसंबर को एक विशाल रैली का आयोजन किया जाएगा. उन्होंने कहा कि अगर सरकार ने मराठा समाज के इस मांग को मान लिया तो दलितों और पिछड़ों को अपने अधिकार से वंचित होना पड़ेगा. उन्होंने कहा कि सरकार मराठों को कोई भी आरक्षण दे हमें कोई भी समस्या नहीं है लेकिन हम दलित अत्याचार अधिनियम में बदलाव नहीं होने देंगे, इससे दलितों पर अत्याचार और बढ़ जाएंगे. 1989 में केंद्र सरकार द्वारा बनाए अनुसूचित जाति और जनजाति ( अत्याचार निवारण) कानून बनाया गया. इस कानून को बनाने का मकसद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों पर होने वाली हिंसा को रोकना और उन्हें मुख्यधारा में लाना था.

अनुसूचित जाति का अर्थ तो हमको पता है, लेकिन अनुसूचित का मतलब जानते है क्या?

आज हमारे समाज में हर तरफ आरक्षण को केवल आर्थिक उन्नति के नज़रिये से देखा जा रहा है. जबकि भारतीय संविधान में आरक्षण का उद्देश्य समाज में हर वर्ग को बराबरी का प्रतिनिधित्व देने के लिए किया गया था परंतु समझने वाली बात ये है की आज़ादी के 70 साल बाद भी क्या सभी लोग सभी वर्गों को अपने बराबर समझते हैं? शायद इसका जवाब हर भारतीय बुद्धिजीवी जानता है. यह भी समझना होगा की आरक्षण ऐसी कौन सी विधि है? जिससे हर इंसान आर्थिक तरक्की प्राप्त कर लेता है. आज राजनीतिक लाभ लेने के लिए कोई इसकी समीक्षा करना चाहता है और कोई समीक्षा का विरोध कर अपना वोट बैंक बढ़ाना चाहता है इसपर पूरी जानकारी रखना सभी लोगों के लिए आवश्यक है. सन् 1931 में पहली बार तत्कालिक जनगणना आयुक्त (मि. जेएच हटन) ने संपूर्ण भारत के अस्पृश्य जातियों की जनगणना की और बताया कि भारत में 1108 अस्पृश्य जातियां है,  ये वो जातियां थीं जिनका धर्म नहीं था. इसलिए, इन जातियों को बहिष्कृत जाति कहा गया है. उस समय के ब्रिटिश प्रधानमंत्री (रैम्से मैक्डोनाल्ड) ने देखा कि हिन्दू, मुसलमान, सिख, एंग्लो इंडियन की तरह (बहिष्कृत जातियां एक स्वतंत्र वर्ग) है, इसलिए उनकी “सूची” तैयार करवाई गयी. उस सूची में समाविष्ट जातियों को ही अनुसूचित जाति कहा जाता है. इसी के आधार पर भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जाति अध्यादेश 1935 के अनुसार कुछ सुविधाएं दी गई हैं. उसी आधार पर भारत सरकार ने अनुसूचित जाति अध्यादेश1936 जारी कर आरक्षण की सुविधा प्रदान की. 1936 के उसी अनुसूचित जाति अध्यादेश में बदलाव कर अनुसूचित जाति अध्यादेश 1950 पारित कर आरक्षण का प्रावधान किया गया. भारत में आज भी जाति-धर्म के नाम पर कुछ मतलबी और ख़ुदग़र्ज़ लोग समाज में विभिन्न गलतफहमी पैदा कर केवल अपनी राजनैतिक रोटियां सेंक रहे हैं. जिन्हें खुद भी नही पता की अनुसूचित का मतलब क्या है. आरक्षण लोकतंत्र में सभी वर्गों को बराबरी का अवसर देने की पद्धति मात्र है न की आर्थिक रूप से सबल बनाने की कोई स्कीम. आरक्षण उनको मिला जिनके पूर्वजों को सैकड़ो वर्षो तक कभी बराबर का अधिकार नहीं मिला वो कहीं न कहीं मानसिक और शारीरिक गुलामी का शिकार था. लेकिन आज आरक्षण को लोग अलग-अलग देखते हैं. आरक्षण की गलत व्याख्या करते हैं. आज भी उच्च सेवाओं में इन वर्गों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है. इस बात का मतलब यह नहीं है की इन वर्गों में क्षमता की कमी है बल्कि यह अवसर की कमी थी जो आरक्षण के माध्यम से इन वर्गों को सामाजिक तौर ऊपर या बराबर उठने का मौका मिला है. आज भी जाति के नाम पर अत्याचार हो रहे है जिसे यूनाइटेड नेशन्स ने संज्ञान में लिया और जिसे देखते हुए भारत सरकार ने अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निरोधक कानून में वर्ष 2016 में कई बदलाव किये. इसका मतलब यदि कानून बना तो आज भी अत्याचार हो रहे है और इन वर्ग के लोगों को न्याय नहीं मिल पा रहा इसीलिए भारत सरकार ने कानूनों पर बदलाव किया है. समाज में सबको बराबरी का अवसर मिले. परंतु आज भी इन वर्गों के लोगो का उच्च पदों पर न पहुंच पाने का कारण समाज में व्याप्त परिवारवाद और पूंजीवाद है. पूंजीवाद और परिवारवाद धन और परिवार के दम पर उच्च पदों पर पहुंच गया और अन्य वर्ग के लोगों को वहां तक नहीं पहुंचने दे रहा है. ऐसे तत्व समाज में है जो आरक्षण को आर्थिक उन्नति से जोड़ कर देखते हैं जोकि संविधान में आरक्षण की दी व्यवस्था की सोच से विपरीत है. जिसका ध्यान समाज में रह रहे बुद्धिजीवियों को जरूर रखना होगा. लेखक कानपुर में पासी प्रगति संस्थान से जुड़े हैं.

यहां सेक्शन से नहीं, जाति के हिसाब से होते हैं अलग टीचर और क्लास

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ग्वालियर (एमपी)। शिवपुरी के ढकरौरा के प्रायमरी स्कूल में बच्चों के साथ भेदभाव का मामाल सामने आया है. यहां दलित और उच्च जाति के बच्चे एक साथ एक क्लास में बैठकर नहीं पढ़ते. इनको पढ़ाने के लिए शिक्षक भी अलग-अलग है. यही नहीं मिड डे मील को आदिवासी रसोइया बनाता है इसलिए दबंग बच्चे उसे खाते भी नहीं है. बीते शुक्रवार को (डिपार्टमेंट प्रोमोशन कमेटी) डीपीसी के शिरोमणि दुबे ने जब इस स्कूल को निरीक्षण किया तो इस बात का खुलासा हुआ. डीपीसी ने इस मामले में शिक्षकों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा. ढकरौरा प्रायमरी स्कूल का शुक्रवार को जब दो अलग-अलग कतारों में बच्चे बैठे दिखे उन्होंने इसका कारण पूछा तो शिक्षकों ने बताया कि गुर्जर समाज और आदिवासी बच्चे यहां अलग-अलग कतार में बैठाकर पढ़ाया जाता है. जब बच्चे से यह पूछा गया कि उसे पढ़ाने वाला अतिथि शिक्षक संग्राम भी आदिवासी ही हैं, तो उसने बेबाकी से जवाब दिया कि ये हमारे नहीं आदिवासियों बच्चों के शिक्षक है, हमें तो दूसरे शिक्षक पढ़ाते हैं.  जब मिड डे मील के बारे में पूछा तो गुर्जर समाज के बच्चों ने बताया कि वह स्कूल में मिड डे मील नहीं खाते हैं, क्योंकि वह आदिवासियों द्वारा बनाया गया है. छात्र वकील गुर्जर का कहना था कि वह ऊंची जात के हैं, आदिवासियों के हाथ का बना खाना कैसे खा सकते हैं. आज बच्चे कम है इसलिए एख क्लास में बैठें, ज्यादा बच्चे आने पर अलग-अलग लगती है. रामवरण आदिवासी नाम के एक बच्चे ने बताया कि यदि वह गुर्जरों के बच्चों के साथ खेलते हैं या साथ बैठकर पढ़ने का प्रयास करते हैं तो उनके बीच झगड़ा हो जाता है. पूर्व में कई बार झगड़ा हो चुका है. अतिथि शिक्षक संग्राम आदिवासी ने बताया कि बच्चों को कई बार समझाते है कि वह ऊंच-नीच, जात-पात की बात न करा करें, लेकिन वह मानते ही नहीं हैं. वह एसडीएम भी इसीलिए नहीं खातें है कि वह आदिवासी द्वारा बनाया जाता है. निरीक्षण में यह बात मेरे संज्ञान में आई है, इस प्रकरण में शिक्षकों को नोटिस देकर जवाब तलब किया जा रहा है, यह पता लगाया जा रहा है कि आखिर यह स्थति क्यों बनी है. प्रथम दृष्टया शिक्षकों के निलंबन की कार्रवाई की जा  रही है.

दलित डॉक्टर ने कहा- जातिगत भेदभाव और मानसिक उत्पीड़न करता था प्रिंसिपल, मामला दर्ज

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पटना। बिहार के सबसे बड़े अस्पताल पीएमसीएच में बुधवार को प्रिंसिपल ने दलित जूनियर डॉक्टर को पीटा. सीनियर डॉक्टर और सुरक्षागार्ड की पिटाई से दलित डॉक्टर आलोक कुमार का एक कान का पर्दा फट गया है. डॉ. आलोक कुमार ने सीनियर डॉक्टर के खिलाफ पटना पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज करवाई है. उन्होंने पुलिस को दिए गए शिकायत पत्र में बताया की प्रिंसिपल एसएन सिंहा और उसके साथ तीन लोगों ने 16 नवंबर को सुबह मुझे लाठी-डंडे से पीटा और जातिसूचक गालिया भी दी. डॉ. आलोक कुमार ने आरोप लगाया कि प्रिंसिपल सिंहा ने उनके साथ जातिगत भेदभाव करते आए है और उनका मानसिक उत्पीड़न भी कर रहै थे.अपनी शिकायत पत्र में डॉ. आलोक ने कहा कि प्रिंसिपल अपने आप को बचाने के लिए मुझ पर गलत इल्जाम लगा रहे हैं और केस वापस लेने की धमकी दे रहे है.  इसके अलावा वो मेरा कैरियर बर्बाद करने भी धमकी दे रहे हैं. डॉक्टर का पीएमसीएच में इलाज चल रहा है. पीड़ित जूनियर डॉक्टर आलोक कुमार ने प्रिंसिपल पर दलित उत्पीड़न का केस दर्ज कराया है. बदले में प्रिंसिपल एसएन सिन्हा ने डॉ.अलोक पर सरकारी काम में बाधा डालने का काउंटर केस कर दिया है. हालांकि डॉक्टर की पिटाई के विडियो में प्रिंसिपल सिन्हा दलित डॉक्टर पर ताबड़तोड़ थप्पड़ मारते नजर आ रहे हैं. गौरतलब है कि मामला पटना मेडिकल कॉलेज का है. जहां तुच्छ जाति के प्रिंसिपल डॉक्टर एसएन सिन्हा ने एक दलित जूनियर डॉक्टर अलोक कुमार को थप्पड़ मारा. इसके साथ ही वह उन्हें जातिसूचक गाली भी दे रहे हैं. यह घटना उस वक्त हुई जब आलोक कुमार मोटरसाइकिल से कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे. सीनियर डॉक्टर ने कॉलेज परिसर में के गेट पास ही अपने सुरक्षा गार्डो के साथ उन्हे रोक लिया और गाली देते हुए थप्पड़ मारना शुरू कर दिया. उसके बाद भी दलित डॉक्टर ने कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं की और चुपचाप जाने की कोशिश करने लगे. लेकिन जातिवादी डॉक्टर ने उसे मोटरसाइकिल से उतरने पर मजबूर कर दिया.

”अगर तेरा पैर हमारे खेत में पड़ गया तो फसल नष्ट हो जाएगी”

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भोपाल। दीपावली के बाद भाईदूज का दिन. गांव के सवर्ण समाज के लोगों ने खेत की मेड़ से निकल रहे अहिरवार समाज के एक व्यक्ति को यह कहकर रोक दिया है अगर तेरा पैर हमारे खेत में पड़ गया तो फसल नष्ट हो जाएगी. इसलिए अब सरकारी रास्ते से घूमकर जाना. जो एक किलोमीटर दूर है. अहिरवार समाज द्वारा विरोध करने पर विवाद बढ़ गया. 10 नवंबर को गांव की एक सामूहिक बैठक बुलाई गई. इसमें सीएम हेल्पलाइन में शिकायत करने वाले गुलाब सिंह अहिरवार के भाई को बुलाया गया. सवर्ण समाज के लोगों ने पंचनामा बनाया. इसको गांव के चौराहे पर चस्पा कर दिया गया. इसमें लिखा गया कि अहिरवार समाज के लोगों की अगर किसी ने दाढ़ी-कटिंग बनाई तो उसे जान से मार देंगे. यह भी फरमान जारी किया गया कि अहिरवार समाज के लोग नजरे झुकाकर निकलें. होटल में इन्हें गिलास की जगह चुल्लू में पानी दिया जाए. यह भी हिदायत दी गई कि मेले में नए कपड़े पहनकर न जाएं. औरतें सजधज के न निकलें. यदि कोई ऐसा करेगा तो ठीक नहीं होगा. यदि समाज के लोग शिकायत करेंगे तो घर जला दिया जाएगा. ये बातें बैरसिया के नायसमंद गांव में अहिरवार समाज के लोगों ने जिला प्रशासन और पुलिस विभाग और मीडियाकर्मियों को बताई. बीते मंगलवार को कलेक्टर के पास हुई शिकायत के बाद अफसर गांव में लोगों से बातचीत करने पहुंचे थे. लोगों की बात सुनकर सब सन्न रह गए. बैरसिया एसडीओ बीना सिंह और एसडीएम राजीव नंदन श्रीवास्तव ने रहवासी जंगबहादुर सोलंकी और प्राण सोलंकी से इस संबंध में पूछताछ की तो उन्होंने ऐसी किसी भी घटना से इंकार किया. सामूहिक भोज कल  मामले खत्म करने और गांव में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए एसडीएम राजीव नंदन श्रीवास्तव ने शुक्रवार(18 नवंबर) को गांव में सामूहिक भोजन करने का आदेश दिया है. इसमें अहिरवार समाज के लोग खाना परोसेंगे और सभी खाना खाएंगे. गांव में पुलिस बल तैनात है. गांव में दाढ़ी बनाने और बाल काटने पर रोक  सीएम हेल्पलाइन में गुलाब सिंह अहिरवार ने 10 दिसंबर 2015 को शिकायत की थी. इसमें बताया गया कि सेन समाज, अहिरवार जाति के पुरुषों के दाढ़ी-बाल नहीं काटते हैं. एक साल बाद 3 नवंबर को नजीराबाद पुलिस ने कार्रवाई शुरू की. अजाक डीएसपी दिनेश जोशी के निर्देश पर पुलिस ने एक स्थानीय नाई से पांचों लोगों की शेविंग-कटिंग करा दी. इस घटना से नाराज गांव के पूरे सेन समाज ने अहिरवार समुदाय के लोगों की हजामत बंद कर दी. साभारः दैनिक भास्कर

नोटबंदी के आर्थिक आपातकाल से दूर क्यों हैं पूंजीपति-नेता?

तय  तो  ये था  ज़ुल्म के  नाख़ून  काटे  जायेंगे लोग नन्ही तितलियों के  पर क़तर कर आ गये -कुँवर बेचैन कितनी सटीक बैठती है ये 2 लाइने मौजूदा सरकार पर. भाजपा नरेंद्र मोदी की अगुआई में ये ही लाईन बोलकर तो सत्ता में आई थी. रामदेव बाबा ने भी तो यही वायदा किया था कि अगर भाजपा सत्ता में आयी तो विदेशों में जमा (बाबा रामदेव के अनुसार 400 लाख करोड़) काला धन 100 दिन में वापिस लाएगी. काला धन आने से भारत के प्रत्येक नागरिक के खाते में 15-15 लाख आ जायेंगे. वायदे तो और भी बहुत किये थे इस सरकार ने लेकिन हम सिर्फ इस काले धन पर ही बात करेंगे. भारत की जनता, खासकर युवा जो गरीबी और बेरोजगारी से बहुत ज्यादा तंग था वो इस 15 लाख वाले वादे के जाल में फंस गया. वादा भी 100 दिन में पूरा करने का वायदा. देश के आवाम के सामने पहली बार वादा पूरा करने का समय निर्धारित किया गया. फिर क्या था जनता ने भाजपा की मत पेटियो को अनुमान से ज्यादा भर दिया. सरकार बनी उसके बाद 10 दिन गुजरे, 20 दिन गुजरे, 100 दिन भी गुजर गए और गुजर गए 2.5 साल इन वर्षों में सरकार की वादा खिलाफी के खिलाफ आवाम में गुस्सा पनपने लगा, आवाम अपने आपको ठगा महसूस कर रहा था. सत्ता धारी पार्टी के नुमाइंदे मुंह छिपाते फिर रहे थे. तभी 8 नवम्बर को मोदी ने आर्थिक आपातकाल की घोषणा कर दी. आर्थिक आपातकाल जो सीधा-सीधा आम जनता के खिलाफ लागू किया गया एक जनविरोधी फैसला है. लेकिन मोदी ने अपने सम्बोधन में इस फैसले को ऐसे पेश किया कि ये आर्थिक आपातकाल अमीर लोगो को तबाह कर देगा. मेहनतकश आवाम जो लुटेरे पूंजीपतियों से नफरत करता है उसमें खुशी की लहर दौड़ गयी. उनको इस फैसले से महसूस हुआ की उनको लूटने वाले पूंजीपति, भ्रष्ट नौकरशाह को अब मिटना पड़ेगा. लेकिन फैसले के अगले दिन से ही मेहनतकश आवाम हजारों की तादात में बैंको के आगे अपनी मेहनत की कमाई को सफेद करवाने के लिए भूखा प्यासा खड़ा है. वही दूसरी तरफ लुटेरा पूंजीपति, नौकरशाह इस योजना का ब्रांड एम्बेस्डर बना हुआ है. दिलचस्प बात यह है कि देश के बड़े पूंजीपति, नौकरशाह, फिल्मी अभिनेताओं में काले धन पर इस तथाकथित “सर्जिकल स्ट्राइक” से कोई बेचैनी या खलबली नहीं दिखायी दे रही है. जिनके पास काला धन होने की सबसे ज़्यादा सम्भावना है, उनमें से कोई बैंकों की कतारों में धक्के खाता नहीं दिख रहा है. उल्टे वे सरकार के इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं. वही इस फैसले से अब तक 20 आम गरीब लोग मर चुके है. लेकिन क्या किसी काले धन रखने वाले चोर की मौत हुई है. ऊपर से काला धन रखने वाले इस आर्थिक आपातकाल के पक्ष में उपदेश दे रहे हैं. वही देश का मजदूर किसान बहुत ज्यादा दुखी है. क्योंकि अभी-अभी किसान को फसल का रुपया मिला है. उसने बच्चों की शादी की प्लांनिग की हुई है. शादियों कि डेट निकलवाई हुई है. नया मकान बनाने के लिए पुराना मकान तोड़ा हुआ है. ऐसे 100 काम है. ऐसे ही खेत मजदूर जिसको फसल कटाई से लेकर ढुलाई तक का रुपया मिलना था वो नही मिला है जिस कारण उसको 2 वक्त की रोटी के लाले पड़े हुए है इसलिए वो भी बहुत परेशान है. बंगाल से खबर है कि नकदी की कमी से उत्तर बंगाल में 5 लाख मजदूरों को दैनिक -साप्ताहिक वेतन नहीं मिल पाया. ऐसी ही स्थिति देश के अनेक इलाकों में है, अस्पतालों में मरीजों का इलाज नहीं हो पा रहा, बाजार बन्द पड़े है. इस फैसले के पीछे राज क्या है- मोदी सरकार जब आज देश की जनता के सामने अपने झूठे वायदों, बेतहाशा महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी और किसान-मजदूर आबादी की भयंकर लूट, दमन, दलितों, अल्पसंख्यकों पर हमले तथा अपनी सांप्रदायिक फासिस्ट नीतियों के कारण अपनी जमीन खो चुकी है तब फिर एक बार नोट बंद कर कालेधन के जुमले के बहाने अपने को देशभक्त सिद्ध करने की कोशिश कर रही है. काले धन की असलियत- देश में काले धन का सिर्फ 6 प्रतिशत नगदी के रूप में है. आज कालेधन का अधिकतम हिस्सा रियल स्टेट, विदेशों में जमा धन और सोने की खरीद आदि में लगता है. कालाधन भी सफेद धन की तरह बाजार में घूमता रहता है और इसका मालिक उसे लगातार बढ़ाने की फिराक में रहता है. आज देश की 90 फीसदी सम्पत्ति महज 10 फीसदी लोगों के पास है और इसमें से आधे से अधिक सम्पत्ति महज एक फीसदी लोगों के पास है. यह देश के मेहनत और कुदरत की बेतहाशा लूट से ही सम्भव हुआ है. मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद इसमें बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है. काला धन खत्म करने के वायदे और अभियान के शोर के बीच देश से करोड़ों डॉलर की रकम विदेश भेज दी गई है. विदेशों में उपहार, दान, चिकित्सा, स्वयंसेवी संगठनों द्वारा परोपकारी कार्य, शिक्षा और अन्य कई मदों के बहाने करोड़ों रुपए बाहर भिजवाने में सत्ता में बैठी कोई सरकार पीछे नहीं रही. न तो यूपीए के जमाने की मनमोहन सिंह सरकार और न ही मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार. काला धन को खत्म करने के इस हल्लाबोल के बीच रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का एक दस्तावेज केंद्र में सत्ता पर काबिज लोगों की नीयत पर सवाल उठा रहा है. मौजूदा वित्त वर्ष में अभी तक की अवधि में ही 4.6 बिलियन डॉलर की रकम विभिन्न दस्तावेजों की आड़ में बाहर भेज दी गई है. मोदी सरकार के काले धन की नौटंकी का पर्दा इसी से साफ हो जाता है जब मई 2014 में सत्ता में आने के बाद जून 2014 में ही विदेशों में भेजे जाने वाले पैसे की प्रतिव्यक्ति सीमा 75,000 डॉलर से बढ़ाकर 1,25,000 डॉलर कर दिया और जो अब 2,50,000 डॉलर है. आज देश में मौजूद कुल 500 और 1000 की नोटों का मूल्य 14.18 लाख करोड़ है जो देश में मौजूद कुलकाले धन का महज 3 फीसदी है. जिसमें जाली नोटों की संख्या सरकारी संस्थान ‘राष्ट्रीय सांख्यकीय संस्थान’ के अनुसार मात्र 400 करोड़ है. अगर एकबारगी मान भी लिया जाए कि देश में मौजूद इन सारी नोटों का आधा कालाधन है (जो कि है नहीं) तो भी डेढ़ फीसदी से अधिक काले धन पर अंकुश नहीं लग सकता. दूसरी तरफ जिन पाकिस्तानी नकली नोटों की बात कर मोदी सरकार लोगों को गुमराह कर रही है वह तो 400 करोड़ ही है जो आधा फीसदी भी नहीं है. दूसरे, सरकार ने 2000 के नये नोट निकाले हैं जिससे आने वाले दिनों में भ्रष्टाचार और काला धन 1000 के नोटों की तुलना में और बढ़ेगा. इस पूरे मामले पर मुझे एक कहानी याद आ रही है कहानी इस प्रकार है- किसी गांव में एक आदमी कब्रिस्तान में कब्रें खोद कर मुर्दों के शरीर से कपड़े आभूषण वगैरह चुराया करता था. लोग हजार तरीके अपनाते पहरेदारियां करते मगर वो चोर मौका लगते ही कब्रों को लूट लिया करता था. गांव तो गांव आसपास के कई कस्बे और शहरों में भी उसका खौफ था. लोग अपनी तरफ से पूरी कोशिशें करते और चोर अपनी तरफ से. इसी तरह दिन बीतते रहे. और एक दिन चोर का अंतिम समय भी आ गया. उसने अपने पुत्र को बुलाया और कहा कि बेटा मेरी आखिरी इच्छा है कि मरने के बाद लोग मुझे अच्छे इंसान के रुप में याद करें. ये कहकर वो मर गया और लोगों ने चैन की सांस ली कि चलो बला टली. अब गांव में फिर कोई मौत हुई मगर ये क्या इस बार तो न केवल कब्र लूटी गई बल्कि मुर्दे को पेड़ से उल्टा लटका दिया गया था. गांव वाले परेशान. तहकीकात पर पता चला कि ये कुकर्म चोर के बेटे ने किया था. अब तो पहले से भी ज्यादा बुरा हाल हो गया. आये दिन दफनाने के बाद कब्रों से निकाल कर मुर्दे नग्न हालत में पेड़ों पर उल्टे लटके मिलने लगे. हर तरफ हर कोई बस एक ही बात कहता कि इससे तो वो चोर भला था जो केवल कब्र लूटा करता था मुर्दों की बेइज्जती तो नहीं करता था. मतलब पिछली सरकार चोर तो ये सरकार महाचोर. इसलिए मेरे मेहनतकश साथियों मोदी सरकार के इस जनविरोधी फैसले का डट कर विरोध कीजिये और मोदी सरकार पर स्विस बैंक के उन काले धन वाले खाता धारकों के नाम उजाकर करने और उस सम्पत्ति को सरकारी घोषित करने का दबाव बनाइये, बैंको के उन 86 खाता धारकों का नाम उजाकर करने और उनसे रुपया वापिस लेने का दबाव बनाइये जिन्होंने देश के बैंको को दिवालिया होने के कागार पर ला खड़ा किया है. बैंको के 9 हजार करोड़ हजम करने वाले विजय माल्या को आपकी सरकार ने बड़ी ही सुरक्षा के साथ देश से बाहर सुरक्षित जगह पर जाने दिया उसको वापिस लाकर जेल में डाला जाए व 9 हजार करोड़ की ब्याज सहित वापसी सरकार माल्या से करे. इसको लेकर एकजुट हो दबाव बनाए. एकजुट होकर, इस जनविरोधी फैसले का और नाटकबाज सरकार का मजबूती से मुकाबला कीजिये.

दलित साहित्य बेचने वाले के साथ हिंदूवादी संगठनों ने की मारपीट

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छतरपुर (एमपी)। राकेश कुशवाहा छतरपुर के महाराजा गोर्वमेंट कॉलेज के गेट नंबर चार के सामने दलित दस्तक पत्रिका, दास प्रकाशन और सम्यक प्रकाशन की पुस्तकें और अन्य दलित साहित्य और पत्रिकाए बेचते हैं. उनका दलित साहित्य और पत्रिका बेचना हिंदूवादी संगठनों को रास नहीं आ रहा था. इसलिए हिंदूवादी संगठन आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और भाजपा के लोगों ने राकेश कुशवाहा से मारपीट की. इतना ही नहीं उन लोगों ने दुकान के मालिक को भी धमकी देकर उनसे दुकान खाली करवाने को भी बोला. हिंदूवादी संगठनों ने पुलिस को बुलाकर उसपर सामाजिक व्यवस्था बिगाड़ने का आरोप भी लगाया. छतरपुर कोतवाली के सीनियर इंस्पेक्टर आरएन पटेरिया उसे मारते-पीटते थाने लेकर गए. राकेश कुशवाहा ने दलित दस्तक को बताया कि एसआई ने उन्हें जातिसूचक गालियां दी और उन्हें दुकान बंद करने की धमकी देकर जेल में बंद कर दिया. 24 घंटे के बाद ही पुलिसवालों ने कुशवाहा की जमानत स्वीकार की. राकेश कुशवाहा कॉलेज के सामने एक किराए की दुकान चलाते है और दुकान के पीछे ही उनका घर है. दुकान पर वह सिर्फ दलित साहित्य की किताबें और पत्रिकाएं ही बेचते हैं. लेकिन भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी का कार्यकर्ता अचल जैन, आरएसएस का अमित तिवारी और भाजपा के कार्यकर्ता भरत साहू और जयप्रकाश उसकी दुकान पर आकर तोड़फोड़ करने लगे और दलित साहित्य न बेचने की धमकी देने लगे. जब राकेश ने विरोध किया तो उसके साथ मारपीट की. इस मामले पर सम्यक प्रकाशन के संस्थापक शांति स्वरूप बौद्ध का कहना है कि दक्षिणपंथी लोग किताब लिखने वालों को कुछ नहीं बोलते, क्योंकि उनसे लड़ना उनके बस की बात नहीं है. लेकिन ये लोग गरीब विक्रेताओं को परेशान करते हैं और उनके साथ मारपीट करते हैं. ललई सिंह यादव जब सच्ची रामायण लेकर आएं तो हिन्दूवादी संगठनों ने इस किताब को बैन करने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी, लेकिन वो हार गए. हालांकि आज भी वे इस तरह के साहित्य को बेचने वाले गरीब अम्बेडकरवादियों को परेशान करते रहते हैं. यह घटना भी इसी तरह की घटना है. दलित दस्तक ने भी इस घटना की निंदा की है.

नास्तिक ही असली पात्र हैं- ओशो

मैं नास्तिकों की ही तलाश में हूं, वे ही असली पात्र हैं. आस्तिक तो बड़े पाखंडी हो गए हैं. आस्तिक तो बड़े झूठे हो गए हैं. अब आस्तिक में और सच्चा आदमी कहां मिलता है? अब वे दिन गए, जब आस्तिक सच्चे हुआ करते थे. अब तो अगर सच्चा आदमी खोजना हो तो नास्तिक में खोजना पड़ता है. आस्तिक के आस्तिक होने में ही झूठ है. उसे पता तो है नहीं ईश्वर का कुछ, और मान बैठा है. न आत्मा का कुछ पता है, और विश्वास कर लिया है. यह तो झूठ की यात्रा शुरू हो गयी. और बड़े झूठ! एक आदमी छोटे-मोटे झूठ बोलता है, उसको तुम क्षमा कर देते हो. क्षमा करना चाहिए. लेकिन ये बड़े-बड़े झूठ क्षम्य भी नहीं हैं. ईश्वर का पता है? अनुभव हुआ है? दीदार हुआ है? दर्शन हुआ है? साक्षात्कार हुआ है? कुछ नहीं हुआ. मां-बाप से सुना है. पंडित-पुरोहित से सुना है. आसपास की हवा में गूंज है कि ईश्वर है, मान लिया है. भय के कारण, लोभ के कारण, संस्कार के कारण. यह मान्यता दो कौड़ी की है. यह असली आस्तिकता थोड़े ही है. यह नकली आस्तिकता है. असली आस्तिकता असली नास्तिकता से शुरू होती है. नास्तिक कौन है? नास्तिक वह है जो कहता है, मुझे अभी पता नहीं, तो कैसे मानूं? जब तक पता नहीं, तब तक कैसे मानूं? जानूंगा तो मानूंगा. और जब तक नहीं जानूंगा, नहीं मानूंगा. मैं ऐसे ही नास्तिकों की तलाश में हूं. जो कहता है जब तक नहीं जानूंगा तब तक नहीं मानूँगा, मैं उसी के लिए हूं. क्योंकि मैं जनाने को तैयार हू. आओ, मैं तुम्हें ले चलूं उस तरफ! मैंने देखा है, तुम्हें दिखा दूं! आस्तिक को तो फिकर ही नहीं है देखने की. वह तो कहता है, हम तो मानते ही हैं, झंझट में क्या पड़ना! हम तो पहले ही से मानते हैं. यह उसकी तरकीब है परमात्मा से बचने की. उसकी परमात्मा में उत्सुकता नहीं है. इतनी भी उत्सुकता नहीं है कि इंकार करे. वह परमात्मा को दो कौड़ी की बात मानता है, वह कहता है, क्या जरूरत है फिकर करने की? असल में परमात्मा की झंझट में वह पड़ना नहीं चाहता, इसलिए कहता है कि होगा, जरूर होगा, होना ही चाहिए; जब सब लोग कहते हैं तो जरूर ही होगा. इसको बातचीत के योग्य भी नहीं मानता है. इस पर समय नहीं गंवाना चाहता है. वह कहता है, यह एक औपचारिक बात है, कभी हो आए चर्च, कभी हो आए मंदिर, कभी रामलीला देख ली-सब ठीक है. अच्छा है, सामाजिक व्यवहार है. सबके साथ रहना है तो सबके जैसा होकर रहने में सुविधा है. सब मानते हैं, हम भी मानते हैं. अब भीड़ के साथ झंझट कौन करे? और झंझट करने-योग्य यह बात भी कहां है? इसमें इतना बल ही कहां है कि इसमें हम समय खराब करें? तुम देखते हो, लोग राजनीति का ज्यादा विवाद करते हैं, बजाय धर्म के. बड़ा विवाद करते हैं कि कौन-सी पार्टी ठीक! बड़ा विवाद करते हैं कि कौन-सा सिद्धांत ठीक! धर्म का तो विवाद ही खो गया है! धर्म का विवाद ही कौन करता है? अगर तुम एकदम बैठे हो कहीं होटल में, क्लबघर में और एकदम उठा दो कि ईश्वर है या नहीं; सब कहेंगे कि भई होगा, बैठो, शांत रहो, जरूर होगा, मगर यहाँ झंझट तो खड़ी न करो। कौन इस बकवास में पड़ना चाहता है? नास्तिक अभी भी उत्सुक है. नास्तिक का मतलब यह है–वह यह कहता है कि परमात्मा अभी भी विचारणीय प्रश्न है; खोजने-योग्य है; जिज्ञासा-योग्य है; अभियान-योग्य है. जाऊंगा, खोजूंगा। नास्तिक यह कह रहा है कि मैं दावं पर लगाने को तैयार हूं. समय, तो समय लगाऊंगा. मेरे अपने देखे जगत में जो परम आस्तिक हुए हैं, उनकी यात्रा परम नास्तिकता से ही होती है, क्योंकि सचाई से ही सचाई की खोज शुरू होती है. कम-से-कम इतनी सच्चाई तो बरतो कि जो नहीं जानते हो उसको कहो मत कि मानता हूं. नास्तिक की भूल कहां होती है? नास्तिक की भूल इस बात में नहीं है कि वह ईश्वर को नहीं मानता, नास्तिक की भूल इस बात में है कि ईश्वर के न होने को मानने लगता है. तब भूल हो जाती है. फर्क समझ लेना. अगर आस्तिक ईमानदार है तो वह इतना ही कहेगा कि मुझे पता नहीं, मैं कैसे कहूं कि है, मैं कैसे कहूं कि नहीं है? अपना अज्ञान घोषणा करेगा; लेकिन ईश्वर के संबंध में हां या नहीं का कोई निर्णीत जवाब नहीं देगा. यह असली नास्तिक है. जो नास्तिक कहता है कि मुझे पता है कि ईश्वर नहीं है, यह झूठा नास्तिक है. यह आस्तिक जैसा हि झूठा है. आस्तिक ने एक तरह की झूठ पकड़ा है-बिना पता हुए कहता है कि ईश्वर है, इसने दूसरी तरह की झूठ पकड़ा है–बिना पता हुए कहता है कि ईश्वर नहीं है. दोनों झूठ हैं. असली नास्तिक कहता है, मुझे पता नहीं, मैं अज्ञानी हूं, मैंने अभी नहीं जाना है, इसलिए मैं कोई भी निर्णय नहीं दे सकता, मैं कोई निष्कर्ष घोषित नहीं कर सकता. मगर यही तो खोजी की अवस्था है. यही तो जिज्ञासा का आविर्भाव है. यहीं से तो जीवन की यात्रा शुरू होती है. तुम कहते हो, ‘आत्मा-परमात्मा, पूर्वजन्म-पुनर्जन्म, मंत्र-तंत्र , चमत्कार- भाग्यादि में मेरा कतई विश्वास नहीं है. मैं निपट नास्तिक हूं.’ तो तुम ठीक आदमी के पास आ गए. अब तुम्हें कहीं जाने की कोई जरूरत न रही. मैं भी महा नास्तिक हूं. दोस्ती बन सकती है. मैं तुम्हारी ‘नहीं’ को ‘हां’ में बदल दूंगा. मगर यह बदलाहट किसी विश्वास के आरोपण से नहीं-यह बदलाहट किसी अनुभव से. और वह अनुभव शुरू हो गया है. किरण उतरने लगी है. तुम कहते हो, ‘आपके प्रवचनों में अनोखा आकर्षण है तथा मन को आनंद से अभिभूत प्रेरणाएं मिलती हैं.’ शुरू हो गयी बात, क्योंकि परमात्मा आनंद का ही दूसरा नाम है. परमात्मा कुछ और नहीं है, आनंद की परम दशा है, आनंद की चरम दशा है. परमात्मा सिर्फ एक नाम है आनंद के चरम उत्कर्ष का. शुरू हो गयी बात. तुम मुझे सुनने लगे, डोलने लगे मेरे साथ; तुम मुझे सुनने लगे, मस्त होने लगे; तुम मेरी सुराही से पीने लगे; शुरू हो गयी बात. तुम रंगने लगे मेरे रंग में. अब देर की कोई जरूरत नहीं है. तुम संन्यासी बनो. बनना ही होगा! अब बचने का कोई उपाय भी नहीं है. अब भागने की कोई सुविधा भी नहीं है. मेरे संन्यास में आस्तिक स्वीकार है, नास्तिक स्वीकार है. आस्तिक को असली आस्तिक बनाते हैं, क्योंकि आस्तिक झूठे हैं. नास्तिक को परम नास्तिकता में ले चलते हैं, क्योंकि परम आस्तिक और परम नास्तिक एक ही हो जाते हैं. कहने-भर का भेद है. आखिरी अवस्था में ‘हां’ और ‘न’ में कोई भेद नहीं रह जाता; वे एक ही बात को कहने के दो ढंग हो जाते हैं. -ओशो

यह उत्सवी देश परम पीड़ा से गुजर रहा है

मैंने कई कारपोरेट घरानों के बड़े लोगों से निजी तौर पर बात की. सबको छह माह पहले से पता था कि हजार और पांच सौ के नोट खत्म किए जाने हैं. मुझसे किसी एक ने संपर्क नहीं किया कि उसके यहां करोड़ दो करोड़ काला धन सड़ रहा है, उसे ह्वाइट कर दे. मैंने तमाम संभावित काले धनियों को फोन किया कि अगर कुछ हो तो बताओ, अपन लोगों के पास बहुते एकाउंट है खपाने के लिए, सबने कहा- सब सेटल हो गया. यानि इस देश के भ्रष्टाचारियों, कारपोरेट घरानों, नेताओं, अफसरों सबने पैसे सेटल कर लिए थे. थोड़े बहुत जो बड़े लोगों के पास काला धन है तो उसे ह्वाइट करने के लिए दस परसेंट पर दो हजार के नोट होम डिलीवरी करने वाले पैदा हो गए हैं. विदेश में लाखों करोड़ रुपये पड़े काले धन को लाने में नाकाम और देश के सैकड़ा के करीब बड़े लोगों को जिनने हजारों करोड़ बैंक लोन गटक रखा है, को सुप्रीम कोर्ट में बचाने वाली मोदी सरकार अपने इस नोटबंदी की करतूत से जो लाभ हासिल करना चाहती है, उसके मुकाबले नुकसान बहुत ही ज्यादा है. जाने कितने हजार करोड़ का वर्किंग हावर खत्म हुआ. जगह जगह काम ठप है. लोग आत्महत्याएं कर रहे हैं. करीब दो दर्जन लोग जान दे चुके हैं. जाने कितने लोग मानसिक अवसाद में हैं. जिस योजना से सिर्फ मिडिल क्लास, लोअर मिडिल क्लास, बेहद गरीब आदि को ही परेशानी हो रही है तो उस योजना को आखिर किसके फायदे के लिए लाया गया है? अपनी अंतरात्मा में झांकिए, कुछ देर के लिए कस्बों में निकलिए. शादी ब्याह श्मशान जीवन मरण उत्सव को देख आइए, सब कुछ स्थगित-सा है या अवसाद का शिकार है.. यह उत्सवी देश परम पीड़ा से गुजर रहा है. क्या जीने का अधिकार सिर्फ बडे़ लोगों को ही है? क्योंकि उनके पास तेज दिमाग और जबरदस्त लायजनिंग क्षमता है? कितने बड़े लोगों ने जान दी? कितने बड़े लोगों ने आपसे अपना धन सफेद करने के लिए संपर्क किया? उपर वालों को सब बता दिया गया था इसलिए उन्हें कोई कष्ट नहीं. और आखिर में, अपना पक्ष हमेशा आम जनता के दुखों सुखों को ध्यान में रखकर बनाना चाहिए, न कि तकनीकी आंकड़े और जुमलों के आधार पर.. यशवंत सिंह की फेसबुक वॉल से साभार

ओशो-विचारः क्या बु‍द्ध भगवान के अवतार हैं?

ओशो रजनीश ने तथागत बुद्ध पर दुनिया के सबसे सुंदर प्रवचन दिए हैं. इस प्रवचन माला का नाम है “एस धम्मो सनंतनो”. लाखों देशी और विदेशी लोग हैं, जो बौद्ध नहीं है लेकिन वे तथागत बुद्ध से अथाह प्रेम करते हैं और उनकी विचारधारा अनुसार ही जीवनयापन कर रहे हैं. पढ़िए बुद्ध के संबंध में ओशो के विचारः- बौद्ध धर्म किसी दूसरे धर्म के प्रति नफरत नहीं सिखाता और न ही वह किसी अन्य धर्म के सिद्धांतों का खंडन ही करता है. बौद्ध धर्म न तो वेद विरोधी है और न हिन्दू विरोधी. तथागत बुद्ध ने तो सिर्फ जातिवाद, कर्मकांड, पाखंड, हिंसा और अनाचरण का विरोध किया था. गौतम बुद्ध के शिष्यों में कई ब्राह्मण थे. आज भी ऐसे लाखों ब्राह्मण हैं जो बौद्ध बने बगैर ही तथागत बुद्ध से अथाह प्रेम करते हैं और उनकी विचारधारा को मानते हैं. बुद्ध ने अपने धर्म या समाज को नफरत या खंडन-मंडन के आधार पर खड़ा नहीं किया. किसी विचारधारा के प्रति नफरत फैलाना किसी राजनीतिज्ञ का काम हो सकता है और खंडन-मंडन करना दार्शनिकों का काम होता है.  बुद्ध न तो दार्शनिक थे और न ही राजनीतिज्ञ. बुद्ध तो बस बुद्ध थे. हजारों वर्षों में कोई बुद्ध होता है. बुद्ध जैसा इस धरती पर दूसरा कोई नहीं. लेकिन दुख है कि कुछ लोग बुद्ध का नाम बदनाम कर रहे हैं. क्या बु‍द्ध हिन्दुओं के अवतार हैं?: बुद्ध को हिन्दुओं का अवतार मानना उचित नहीं है. उनका तर्क यह है कि किसी भी पुराण में उनके विष्णु अवतार होने का कोई उल्लेख नहीं मिलता है… … कल्किपुराण के पूर्व के अग्नि पुराण (49/8-9) में बुद्ध प्रतिमा का वर्णन मिलता है:- “भगवान बुद्ध ऊंचे पद्ममय आसन पर बैठे हैं. उनके एक हाथ में वरद तथा दूसरे में अभय की मुद्रा है. वे शान्तस्वरूप हैं. उनके शरीर का रंग गोरा और कान लंबे हैं. वे सुंदर पीतवस्त्र से आवृत हैं.” वे धर्मोपदेश करके कुशीनगर पहुंचे और वहीं उनका देहान्त हो गया. कल्याण पुराणकथांक (वर्ष 63) विक्रम संवत 2043 में प्रकाशित. पृष्ठ संख्या 340 से उद्धृत. इस वर्णन में यह कहीं नहीं कहा गया कि वे विष्णु अवतार हैं. बुद्ध किस जाति या समाज के थे ये सवाल मायने नहीं रखता. गौतम बुद्ध ने खुद को न तो कभी क्षत्रिय कहा, न ब्राह्मण और न शाक्य. हालांकि शाक्यों का पक्ष लेने के कारण कुछ लोग उनको शाक्य मानकर शाक्य मुनि कहते हैं. क्या बुद्ध खुद को किसी जाति या समाज में सीमित कर सकते हैं? बुद्ध को इस तरह किसी जाति विशेष में सीमित करना या उन्हें महज मुनि मानना बुद्ध का अपमान ही होगा. बुद्ध से जो सचमुच ही प्रेम करता है वह बुद्ध को किसी सीमा में नहीं बांध सकता. भगवान बुद्ध को जो पढ़ता समझता हैं वह किसी भी दूसरे समाज के लोगों के प्रति नफरत का प्रचार नहीं कर सकता है. यदि वह ऐसा कर रहा है तो वह विश्‍व में बौद्ध धर्म की प्रतिष्ठा को नीचे गिरा देगा. बुद्धं शरणं गच्छामि. बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय. पर्वत तो और भी हैं, हिमाच्छादित पर्वत और भी हैं, पर हिमालय अतुलनीय है. उसकी कोई उपमा नहीं है. हिमालय बस हिमालय जैसा है. गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध हैं. पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में वैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं. गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की वीणा को बजाया है, उतना किसी और ने नहीं. गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम- भगवत्ता उपलब्ध की है, उतनी किसी और के माध्यम से नहीं. -ओशो

गोरखनाथ मंदिर में बुद्ध और कबीर के बारे में फैलाई जा रही है भ्रांति

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गोरखपुर। संत कबीर कांशी के लहरतारा तालाब में कमल के पत्ते पर प्रकट हुए थे और बुद्ध विष्णु के अवतार थे. ऐसा हम नहीं कह रहे हैं, बल्कि संत कबीर और तथागत गौतम बुद्ध के बारे में यह पक्तियां गोरखपुर स्थित गोरखनाथ मंदिर में प्रस्थापित कबीर और बुद्ध की प्रतिमा पर लिखा हुआ है. गोरखनाथ मंदिर के महंत भाजपा नेता योगी आदित्यनाथ हैं. तथागत बुद्ध को विष्णु का अवतार बताने की बात इसलिए भी हास्यास्पद है क्योंकि तथागत बुद्ध ईश्वर पूजा के खिलाफ थे और स्वयं को भगवान मानने से इंकार करते थे. बावजूद इसके मनगढ़ंत तथ्यों का गठन कर जहां लोगों को भ्रामक जानकारी दी जा रही है तो वहीं संत कबीर और महामानव तथागत बुद्ध की विचारधारा को भी कुंद करने की कोशिश की जा रही है. ब्राह्मणवादी ताकतों द्वारा बहुजन समाज में जन्में कबीर और दुनिया को शांति, प्रज्ञा, करुणा और शील का संदेश देने वाले तथागत बुद्ध को हिन्दुवादी आवरण में भी लपेटने की कोशिश की जा रही है. इससे बौद्ध धम्म और कबीर पंथ को मानने वाले लोगों में रोष है. बहुजन और बौद्ध साहित्य को लेकर गंभीर शोध करने वाले बौद्ध चिंतक शांति स्वरूप बौद्ध इस पर रोष जताते हुए कहते हैं कि बौद्ध साहित्य में विष्णु का शब्द ही नहीं है. बौद्ध धर्म में अवतारवाद भी नहीं है. यह तो ब्राह्मणवादियों ने बौद्ध धर्म को दबाने के लिए किया है. उनका आरोप है कि  ब्राह्मणों ने बौद्ध विरासत पर डाका डाला है. शांति स्वरूप कहते हैं कि “ब्राह्मणी मान्यता के अनुसार इक्ष्वाकु राजा रामचन्द्र के आदिपुरुष माने गए हैं. जो लोग शाक्यराज ओक्काक को इक्ष्वाकु साबित करते नहीं अघाते, उन्हें यह ध्यान देना चाहिए कि राम के आदिपुरुष इक्ष्वाकु हो सकते हैं, मगर शाक्यराज ओक्काक तथागत बुद्ध (कुमार सिद्धार्थ) के पुरखे तो हैं, पर आदिपुरुष नहीं.” उन्होने आरोप लगाया कि बौद्ध विरासत को हथियाने का प्रयास सरासर ऐतिहासिक बेईमानी है. संत कबीर का कमल के पत्ते पर प्रकट होने वाली पंक्ति पर शांति स्वरूप बौद्ध ने कहा कि बच्चा कमल पर प्रकट नहीं होता है. यह सब गोरखनाथ वालो का गोरखधंधा है. ऐसा कर वो आम जनता में यह अंधविश्वास फैला रहे हैं. कमल का फूल कीचड़ में खिलता है. इसका संदर्भ इसलिए है कि यह बदबूदार जगह पर खुशबू फैलाता है. ये सब ब्राह्मणवादियों की साजिश रही है. ब्राह्मणवादी बहुजन महापुरुषों को अपना बताकर लोगों को भटका रहे हैं.

धन पर ओशो की इस सटीक और खरी टिप्पणी को पढ़ें

धन का शास्त्र समझना चाहिए. धन जितना चले उतना बढ़ता है. चलन से बढ़ता है. समझो कि यहां हम सब लोग हैं, सबके पास सौ-सौ रुपए हैं. सब अपने सौ-सौ रुपए रखकर बैठे रहें! तो बस प्रत्येक के पास सौ-सौ रुपए रहे. लेकिन सब चलाएं. चीजें खरीदें, बेचें. रुपए चलते रहें. तो कभी तुम्हारे पास हजार होंगे, कभी दस हजार होंगे. कभी दूसरे के पास दस हजार होंगे, कभी तीसरे के पास दस हजार होंगे. रुपए चलते रहें, रुकें न कहीं. रुके रहते, तो सबके पास सौ-सौ होते. चलते रहें, तो अगर यहां सौ आदमी हैं तो सौ गुने रुपए हो जाएंगे. इसलिए अंग्रेजी में रुपए के लिए जो शब्द है वह करेंसी है. करेंसी का अर्थ होता है: जो चलती रहे, बहती रहे. धन बहे तो बढ़ता है. अमरीका अगर धनी है, तो उसका कुल कारण इतना है कि अमरीका अकेला मुल्क है जो धन के बहाव में भरोसा करता है. कोई रुपए को रोकता नहीं. तुम चकित होओगे जानकर यह बात कि उस रुपए को तो लोग रोकते ही नहीं जो उनके पास है, उस रुपए को भी नहीं रोकते जो कल उनके पास होगा, परसों उनके पास होगा! उसको भी, इंस्टालमेंट पर चीजें खरीद लेते हैं. है ही नहीं रुपए, उससे भी खरीद लेते हैं. इसका तुम अर्थ समझो. एक आदमी ने कार खरीद ली. पैसा उसके पास है ही नहीं. उसने लाख रुपए की कार खरीद ली. यह लाख रुपया वह चुकाएगा आने वाले दस सालों में. जो रुपया नहीं है वह रुपया भी उसने चलायमान कर दिया. वह भी उसने गतिमान कर दिया. लाख रुपए चल पड़े. ये लाख रुपए अभी हैं नहीं, लेकिन चल पड़े. इसने कार खरीद ली लाख की. इसने इंस्टालमेंट पर रुपए चुकाने का वायदा कर दिया. जिसने कार बेची है, उसने लाख रुपए बैंक से उठा लिए. कागजात रखकर. लाख रुपए चल पड़े. लाख रुपयों ने यात्रा शुरू कर दी! अमरीका अगर धनी है, तो करेंसी का ठीक-ठीक अर्थ समझने के कारण धनी है. भारत अगर गरीब है, तो धन का ठीक अर्थ न समझने के कारण गरीब है. धन का यहां अर्थ है बचाओ! धन का अर्थ होता है चलाओ. जितना चलता रहे उतना धन स्वच्छ रहता है. और बहुत लोगों के पास पहुंचता है. इसलिए जो है, उसका उपयोग करो. खुद के उपयोग करो, दूसरों के भी उपयोग आएगा. लेकिन यहां लोग, न खुद उपयोग करते हैं, न दूसरों के उपयोग में आने देते हैं! और धीरे—धीरे हमने इस बात को बड़ा मूल्य दे दिया. हम इसको सादगी कहते हैं. यह सादगी बड़ी मूढ़तापूर्ण है. यह सादगी नहीं है. यह सादगी दरिद्रता है. यह दरिद्रता का मूल आधार है. चलाओ! कुछ उपयोग करो. बांट सको बांटो. खरीद सको खरीदो. धन को बैठे मत रहो दबाकर! यह तो तुम्हें करना है तो मरने के बाद, जब सांप हो जाओ, तब बैठ जाना गड़ेरी मारकर अपने धन के ऊपर! अभी तो आदमी हो, अभी आदमी जैसा व्यवहार करो. कहै वाजिद पुकार, प्रवचन-९, ओशो

जमीन हड़पने के लिए सवर्णों ने की दलित वृद्ध की हत्या, पुलिस भी दे रही है साथ

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mratमहोबा। आज यहां हम 21वीं सदी में चांद पर जाने की बात कर रहे है मगर अभी भी ऊंचनीच का बंधन अभिशाप बना हुआ है. बुंदेलखंड के महोबा में ऐसा ही एक मामला सामने आया है जिसमें एक दलित वृद्ध की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गई क्योंकि वो ब्राह्मणों के समीप अपना आशियाना बनाकर रहने की कोशिश कर रहा था. ब्राह्मणों को ये बात नगवार गुजरी और उन्होंने दलित वृद्ध की लाइसेंसी बंदुक की बटों से पीट-पीट कर हत्या कर दी. इस घटना से मृतक के परिजन सदमे में है और उन्हें अपने जीवन पर भी खतरा मंडराता दिखाई दे रहा है. देश के सभी राजनीतिक दल दलितों को बराबरी का सम्मान दिलाने की बात करते है, इसके लिए जागरूकता का काम भी किया जाता है. मगर आज भी दलितों को न केवल अपमान झेलना पड़ता है बल्कि उन्हें ऊंचनीच की भेंट चढ़ा दिया जाता है. महोबा जनपद में हुई दलित की हत्या इसी का एक उदाहरण है. दरअसल महोबा के थाना पनवाड़ी के ग्राम रूपनोल में सवर्णों का वर्चस्व है. इसी गांव में रहने वाले 55 वर्षीय दयाराम अहिरवार को पिछले वर्ष पूर्व प्रधान द्वारा आवासीय पट्टा आबंटित किया गया था. जिसके अंतर्गत कुछ जमीन पट्टे में दी गई थी. ये जमीन गांव में रहने वाले पंडित बाबूलाल के बगल में थी. दलित को जमीन पट्टे में मिली तो सवर्णो को बड़ा नागवार गुजरा. इस बात को लेकर दलित के परिवार को बाबूलाल, जगदीश और धीरेंद्र ने प्रताड़ित करना शुरू कर दिया. 20 नवंबर को सवर्णों ने दलित की जमीन पर जबरन कब्जा कर रहे थे तभी दलित दयाराम भी मौके पर पहुंच गया और उसने जमीन पर कब्जे का विरोध किया. फिर क्या था सवर्ण बाबूलाल, जगदीश और धीरेंद्र ने दलित वृद्ध को बंदूकों की बटों से पीटना शुरू कर दिया. वृद्ध चीख-पुकार सुनकर दलित का पुत्र राजेश और पत्नी राजकुमारी भी मौके पर पहुंच गए. सवर्ण उन्हें भी पीटने के लिए दौड़े मगर आस-पास के लोगों के आ जाने पर वो लोग भाग गए. वृद्ध को घायल अवस्था में थाना पनवाड़ी लाया गया. दलित ने सवर्णों द्वारा बेरहमी से पीटने का बयान दिया और उसे इलाज के लिए पनवाड़ी सामुदायिक केंद्र में भर्ती कराया गया. जहां बाद में उसने दम तोड़ दिया. दलित की मौत होने की सूचना मिलते ही पुलिस भी अस्पताल पहुंच गई और शव को कब्जे में लेकर पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया. मृतक के पुत्र राजेश का कहना है कि गांव में दलितों के कुछ ही परिवार है. ऐसे में ब्राह्मण जाति के लोग उन पर अत्याचार करते हैं और उन्हें आये दिन सताया जाता है. पट्टे की जमीन मिलने से सवर्ण नाराज थे और उन्हें आये दिन धमकी देकर जमीन छोड़ने के लिए दबाव बना रहे थे. राजेश ने कहा कि सवर्णों ने मेरे पिता की हत्या कर दी और अब हमें भी जीने नहीं देंगे. पुलिस ने भी कम धाराओं में मुकदमा दर्ज किया है और अभी तक आरोपियों को गिरफ्तार नहीं किया. पुलिस सवर्णों के प्रभाव में काम कर रही है. वहीं मृतक दलित की पत्नी राजकुमारी ने बताया की सवर्ण उन्हें काफी समय से प्रताड़ित कर रहे थे. वो पूरे परिवार को जान से मारना चाहते थे मगर हम बच गए. उन्हें अपनी सुरक्षा की चिंता सता रही है. वहीं इस मामले में पुलिस अधिक्षक गौरव सिंह का कहना है कि घटना की जांच की जा रही है. मौत कैसे हुई ये पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद ही पता चलेगा. मृतक द्वारा खुद बयान दिए जाने पर पुलिस कप्तान ने बताया कि अभी इसकी जानकारी नहीं है. जांच कराई जा रही है जो भी दोषी होगा उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. पुलिस का रवैया दलितों के प्रति न तो उदार नजर आ रहा है और न ही न्यायहित में. ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि दलित की हत्या के मामले में उसके परिवार को कितना और कब न्याय मिलेगा?