
गावों से शहरों में आकर बसे दलित वर्ग के लोग इस भ्रम में जी रहे हैं कि वक्त के साथ-साथ जाति-प्रथा कमजोर पड़ती जा रही है. यह भ्रम यूं ही नहीं पनप रहा है. इसके पीछे जो सबसे बड़ा कारण इन लोगों को दिखता है, वह है… आफिस में काम करने वाले सभी वर्गों के लोगों का एक साथ बैठकर खाना खाना… साथ-साथ काम करना… साथ-साथ बिना किसी अलगाव के बातचीत करना. किंतु मैंने कभी भी इस भ्रम प्रकार को नहीं पाला. कारण कि यह ऊपरी तौर एक प्रकार की बाध्यता का परिणाम है. जातपाँत ज्यों के त्यों ही नहीं अपितु और अधिक पुख्ता हुई है.
दलित और गैरदलितों के बीच ही नहीं अपितु दलित वर्ग के लोग अपनी-अपनी जाति के ढोल पीटने में लग गए हैं. इसके परिणाम स्वरूप जातीय संस्थओं की बाढ़ सी आ गई है. दलितों को यह नही भूलना चाहिए कि ये जो थोड़ा-बहुत परिवर्तन देखने को मिल रहा है, यह केवल शिक्षा-दीक्षा के प्रसार-प्रचार और भौगोलिक मान्यताओं में परिवर्तन होने के चलते दिख रहा है… अन्यथा नहीं. गहरे से देखा जाए तो गैर दलितों की मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं आया है जिसके प्रमाण व्यापक रूप से विद्यमान हैं. शहरी दलित यदि गावों की ओर मुंह उठाकर देखेंगे तो पाएंगे कि दलितों के साथ गैरदलितों के व्यवहार में कुछ भी तो अंतर नहीं आया है, केवल और केवल ऊपरी तौर पर कुछ नरमी देखने को मिलती है. मानसिकता कतई नहीं बदली है. अलग-अलग राज्यों से जब-तब दलित उत्पीड़न की घटनाएं सामने आती रहती हैं.
पिछले दिनों राजस्थान विधानसभा में खुद सरकार की तरफ से यह जानकारी उपलब्ध कराई गई कि तीन साल में दलित दूल्हों को घोड़ी पर चढ़ने से रोकने की 38 घटनाएं लिखा-पढ़ी में सामने आई हैं. करीब दो साल पहले मध्य प्रदेश में एक दलित दूल्हे का हेल्मेट लगाए फोटो चर्चा में आया था. उसकी वजह भी घोड़ी पर चढ़कर बारात आना था. विरोध कर रही भीड़ ने पहले उसकी घोड़ी छीन ली, फिर पथराव शुरू कर दिया. दूल्हे को घायल होने से बचाने के लिए पुलिस को उसके लिए हेल्मेट का बंदोबस्त करना पड़ा. इन्हीं घटनाओं से एक सवाल उपजता है कि दलित शादी करें, इस पर किसी को कोई ऐतराज नहीं होता है लेकिन दूल्हा घोड़ी पर बैठकर नहीं आ सकता, इस सोच की कुछ और वजह नहीं अपितु गैरदलितों की नाक का सवाल है.
मोदी जी के गुजरात में आज भी बहुत से गाँव ऐसे हैं जहाँ दलित वर्ग के लोग आज भी कुए से अपने आप पानी नहीं निकाल पाते हैं. दुखद ये भी है कि कुए से पहले गैरदलित अपने लिए पानी निकालते हैं और उसके बाद दलित वर्ग के लोगों को खुद पानी निकालकर देते हैं. इस काम में घंटा लगे या दो घंटा दलितों को पानी लेने के लिए इंतजार करना पड़ता है….. क्या शहरी दलितों को ग्रामीण दलितों की पीड़ा का कुछ भान होता है? नहीं….मुझे तो ऐसा नहीं लगता. कोई शक नहीं कि आजाद भारत में संविधान की रोशनी में समतामूलक समाज की बात होती आई है लेकिन कुछ प्रतीक ऐसे हैं जो खास वर्ग की पहचान से अभी तक जुड़े हुए हैं. खास वर्ग उन प्रतीकों को साझा करने को तैयार नहीं है. उसको लगता है कि साझा करने से उसकी ‘श्रेष्ठता’ जाती रहेगी.
ताजा खबर ये है कि कासगंज (इलाहाबाद) के निजामपुर गाँव में आज तक दलित दुल्हे की घोड़ी पर चढ़कर कोई बारात नहीं निकली है. ताजा मामला ये है कि दलित वर्ग के दुल्हे संजय कुमार घोड़ी पर सवार होकर अपनी बारात निकालना चाहते है. इसके लिए उन्होंने जिला स्तर के बड़े अधिकारियों से गुहार लगाई किंतु सब बेकार. आखिरकार संजय ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. संजय का आरोप है कि निजामपुर के सवर्ण उनके घोड़ी पर बैठकर बारात निकालने का विरोध कर रहे हैं. कानून व्यवस्था का हवाला देकर स्थानीय प्रशासन ने घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालने की इजाजत देने से इंकार कर दिया था. कोर्ट से भी संजय को निराशा ही हाथ लगी. कोर्ट ने इस बिना पर संजय की याचिका खारिज कर दी कि यदि याची को किसी प्रकार की परेशानी है तो वह पुलिस के माध्यम से मुकदमा दर्ज करा सकता है. अगर दुल्हे य दुलहन पक्ष के लोगों से कोई जोर-जबरदस्ती करें तो वह पुलिस में इसकी शिकायत कर सकते हैं. कोर्ट के इस निर्णय पर हैरत की बात ये है कि पुलिस अधिकारी तो पहले ही संजय की चाहत को यह कहकर खारिज कर चुकी है कि यदि संजय घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालता है तो ऐसा करने निजामपुर का माहौल बिग़ड़ सकता है. संजय ने अपने इस मामले को मुख्यमंत्री तक को भेजा है किंतु मुख्यमंत्री जी मौन साधे हुए हैं. वैसे वो दलित समर्थक होने का दावा करते हुए नहीं थकते हैं. इतना ही नहीं, दुल्हन के परिवार से कहा गया है कि बारात के लिए उसी रास्ते का इस्तेमाल किया जाए जिससे गांव के सभी दलितों की बारात जाती है
इस फैसले का शीतल का परिवार विरोध कर रहा है. उनका कहना है कि यह हमारे सम्मान की बात है. हम काफी जोर-शोर के साथ दूल्हे का स्वागत करना चाहते हैं और घोड़े वाली बारात चाहते हैं. गांव की सड़कें जितनी ठाकुरों की हैं उतनी ही हमारी भी हैं. इसकी वजह से जाटव (शीतल और संजय इसी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं) और ठाकुरों के बीच तनाव का माहौल है.
गांव की प्रधान ठाकुर कांति देवी का कहना है, “हमें कोई दिक्कत नहीं है. लड़की की शादी हो, ठाकुर लोगों को कोई एलर्जी नहीं है. हम बारात का तहेदिल से स्वागत करेंगे. शीतल हमारी भी बेटी है किंतु दिक्कत यह है कि कोई जबर्दस्ती हमारे रास्ते पर आएगा और परंपरा को तोड़ेगा तो वो हमें मंजूर नहीं है.”
यूपी कैडर के रिटायर्ड आईपीएस एसआर दारापुरी इन हालात के लिए दो चीजें जिम्मेदार मानते हैं. एक, समाज के अंदर सामंतवादी सोच जिंदा है जो बदलाव स्वीकार करने को तैयार नहीं. उसे लगता है कि जैसे पुरखों के जमाने से होता आ रहा है, वैसे आगे भी पुश्त दर पुश्त चलता रहे. अगर दलित भी बराबर में आ खड़े हुए तो उन्हें अतिरिक्त सम्मान मिलना खत्म हो जाएगा. दूसरी चीज, सरकारी तंत्र भी सवर्णवादी मानसिकता से उबर नहीं पा रहा है. उसे लगता है कि सवर्णों की हर बात जायज है. यूपी का ही उदाहरण लें तो वहां के कलेक्टर का यह कहना है कि ‘उस जिले में पहले कभी दलित की घुड़चढ़ी नहीं हुई’, बहुत ही हास्यास्पद है. यह सलाह कि ‘अगर घुड़चढ़ी जरूरी है तो चुपके से कर ली जाए’ यह और भी हास्यास्पद है.
हाल ही में गुजरात के भावनगर जिले में कुछ गैरदलित लोगों ने घोड़ा रखने और घुड़सवारी करने पर एक दलित की हत्या कर दी. प्रदीप राठौर (21) ने दो माह पहले एक घोड़ा खरीदा था और तब से उसके गांववाले उसे धमका रहे थे. उसकी गुरुवार देर रात हत्या कर दी गई. प्रदीप के पिता कालुभाई राठौर ने कहा कि प्रदीप धमकी मिलने के बाद घोड़े को बेचना चाहता था, लेकिन उन्होंने उसे ऐसा न करने के लिए समझाया. कालुभाई ने पुलिस को बताया कि प्रदीप गुरुवार को खेत में यह कहकर गया था कि वह वापस आकर साथ में खाना खाएगा. जब वह देर तक नहीं आया, हमें चिंता हुई और उसे खोजने लगे. हमने उसे खेत की ओर जाने वाली सड़क के पास मृत पाया. कुछ ही दूरी पर घोड़ा भी मरा हुआ पाया गया. गांव की आबादी लगभग 3000 है और इसमें से दलितों की आबादी लगभग 10 प्रतिशत है. प्रदीप के शव को पोस्टमॉर्टम के लिए भावनगर सिविल अस्पताल ले जाया गया है, लेकिन उसके परिजनों ने कहा है कि वे लोग वास्तविक दोषियों की गिरफ्तारी तक शव स्वीकार नहीं करेंगे.
ऐसी घटनाएं गैरदलितों की मानसिकता की पोल खोलने के लिए काफी हैं. अत: मेरा सबसे ये निवेदन है कि किसी प्रकार के परिवर्तन का भ्रम न पालकर समूचे समाज के भले के लिए बिना किसी वैमनस्य के जीजान से काम करें. ऐसे प्रकरण ऐसा सन्देश भी देते है कि शासन-प्रशासन के भरोसे सामाजिक एकता की कामना करना एक दिवास्वप्न जैसा ही है.
-तेजपाल सिंह ‘तेज’-