सूर्य कुमार यादव बनाम सचिन तेंदुलकर

भारत और श्रीलंका के बीच 7 जनवरी, 2023 को खेेले टी-20 सीरीज के तीसरे और आखिरी मैच में जब सूर्य कुमार यादव ने 360 डिग्री घूम कर छक्का लगाया तो अचानक मुझे हिन्दी के एक मशहूर ‘क्रिकेट-प्रेमी’ संपादक की याद आयी. वह जीवित होते तो सूर्य कुमार यादव के इस चमत्कारी शतकीय-पारी पर क्या लिखते!
उन्होंने एक समय सचिन तेंदुलकर की आतिशी पारियों पर आह्लादित होेते हुए क्रिकेटर के हुनर को उसके जाति-वर्ण से जोड़कर अपने प्रबुद्ध पाठकों को हैरत में डाल दिया था. यहां तक कहा कि तेंदुलकर जिस धैर्य के साथ खेलते हैं वैसा धैर्य तो ब्राह्मणों में ही हो सकता है. यही नहीं, सुनील गावस्कर और तेंदुलकर सहित कई क्रिकेट खिलाड़ियों के खेल की प्रशंसा करते हुए अक्सर वह उनके हुनर को ‘जातिजन्य गुणों’ से जोड़ने की कोशिश करते थे.
पर मैं तो ऐसा लिखने या ऐसा सोचने के बारे में सोच भी नहीं सकता कि सूर्य कुमार यादव जिस तरह का कलात्मक क्रिकेट खेलते हैं, वैसा सिर्फ कोई यादव ही खेल सकता है! ऐसा सोचना तार्किकता और वैज्ञानिकता का संपूर्ण निषेध तो है ही, बेहद हास्यास्पद भी है.
खेल, चित्रकला, लेखन, गीत, संगीत या दुनिया किसी भी कला पर किसी देश, समुदाय, नस्ल, वर्ण, जाति या लिंग का काॅपीराइट नहीं हो सकता. प्रतिभा, अभ्यास और प्रतिबद्धता से लोग अपने-अपने क्षेत्र में हुनरमंद बनते हैं. किसी बिरादरी या इलाके के चलते वे ‘सितारा’ नहीं बनते!
प्रतिभावान लोग किसी भी देश, समाज, नस्ल, रंग, जाति या वर्ण के हो सकते हैं. प्रतिभा या योग्यता को संकीर्ण दायरे में सीमित करना वैज्ञानिकता, वास्तविकता और तार्किकता का निकृष्टतम निषेध है.
हमारे यहां अब हर समुदायों के बीच से प्रतिभाएं आ रही हैं तो इसलिए कि पहले ऐसे तमाम क्षेत्रों में हर समुदाय के लोगों के जाने की स्थितियां ही नहीं थीं. सदियों से हमारा समाज भयानक विभेदकारी वर्ण-व्यवस्था के ‘कठोर-अनुशासन’ के तहत यूं ही चल रहा था. पढ़ाई-लिखाई सहित किसी भी क्षेत्र में समाज के दलित-पिछड़ों को अपना हुनर दिखाने का अवसर ही नहीं था. एकलव्य की कथा सिर्फ एक मिथक तो नहीं है. ब्रिटिश काल में पहली बार अन्य वर्गों-वर्णों से भी कुछ लोगों को मौका मिला. स्वतंत्रता के बाद, खासकर संविधान बनने के बाद सबके लिए स्वतंत्रता और समान अवसर देने का सिद्धांत अपनाया गया. आज तक संविधान की उद्देशिका में दर्ज महान् लोकतांत्रिक मूल्यों को अपने समाज में अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका है. अपने समाज में आज भी संविधान और मनुवाद, दोनों के मूल्य और विचार समानांतर चल रहे हैं. कागज औैर शासन की संस्थाओं में संविधान की उपस्थिति तो है जमीनी स्तर पर आज भी मनुष्य-विरोधी मनुवादी मूल्य बरकरार हैं.
पर यह तो मानना ही होगा कि माहौल पहले के मुकाबले निश्चय ही बहुत-बहुत बदला है. बदलाव की प्रक्रिया को थामने की बहुस्तरीय कोशिशें भी चल रही हैं. ऐसी शक्तियों को इस बीच फौरी तौर पर कामयाबी भी मिली है. पर दोनों तरह की शक्तियों के बीच जद्दोजहद जारी है.
फिलहाल, इस वैचारिक विमर्श को यहीं रोकते हुए आइये हम सब सूर्य कुमार यादव की प्रतिभा और सफलता को सलाम करें! उसके हुनर और कामयाबी को हम हिन्दी के उन स्वनामधन्य ‘क्रिकेट प्रेमी संपादक’ की तरह किसी जाति, वर्ण या नस्ल तक सीमित करने की चेष्टा न करें!

फीफा और जी 20

जी 20 की अध्यक्षता करने की बारी इस बार भारत को मिली है। 20 देशों के इस समूह में भारत भी एक है लेकिन डंका ऐसा पीटा जा रहा कि न तो भूतकाल में कभी ऐसा हुआ और न ही कभी भविष्य में होने वाला होगा। कहा जा रहा है कि यह सब मोदी जी के प्रताप से हो रहा है। मीडिया में खूब जगह मिल रही है और प्रचार-प्रसार में अभी से खर्च बढ़ गया  है। मिलेगा क्या, जानना मुश्किल नहीं  है। जितना स्थान मीडिया और भाषणों में जी 20 की मेजबानी के लिए मिल रहा है  उतना किसान, मजदूर और भ्रष्टाचार पर रोक आदि समस्याओं को मिलता तो हम कहां से कहां पहुंचते?  किसान के  जो आलू और टमाटर कौड़ियों के भाव बिक रहे हैं , मीडिया ऐसे मुद्दे को जगह दे तो उपभोक्ता को भी लाभ और किसान का तो होगा ही। अधिकारी काम नहीं करते और रिश्वत लेते हों परंतु ऐसी बातों के लिए कहां जगह है? युवाओं को रोजगार नहीं है और महंगाई आसमान पर , ऐसी समस्याओं की बात नदारद है। जी 20 की अध्यक्षता मिली देश के लिए गर्व की बात है। वैसे 19 और देश हैं जिन्हे ऐसा अवसर मिला या मिलेगा। इस मेजबानी का लाभ उठाया जा सकता है अगर कतर जैसे कट्टर देश से भी सीख लें। भले ही फीफा और जी 20 के उद्देश्य अलग हों लेकिन निवेश और पर्यटन दोनों इनसे प्रभावित होते हैं।
            फीफा वर्ल्ड कप 20 नवंबर से शुरू हुआ। कतर को उम्मीद थी कि 18 दिसम्बर को फाइनल तक 15 लाख विदेशी पर्यटक आयेंगे जबकि 29 लाख टिकट बिक चुके थे । शुरुआत में कुछ फीफा प्रेमियों में कट्टरता के कारण हिचक थी लेकिन जो आते गए और संदेश वापिस अपने देश में दिए उससे पर्यटक बढ़ते गए। स्टेडियम में बीयर और शराब आदि पर कुछ प्रतिबंध ज़रूर लगा लेकिन व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि लोगों को आनंद मिलता रहा। फ्रांस और अन्य देशों में खेल के दौरान ऐसे कुछ प्रतिबंध लग चुके हैं। कुछ धार्मिक प्रतिबंध थे परंतु बेहतर सुविधा और अनुशासन ने माहौल खुशनुमा बनाए रखा। यूरोप की लड़कियों ने अपने देश भी ज्यादा आजादी और सुरक्षा महसूस किया। ऐसा माहौल बना कि पड़ोसी देशों का पर्यटन 200% बढ़ गया। इस बार की फीफा कमाई करीब 75000 करोड़ आंकी गई है। कतर ने भारी खर्च करके स्टेडियम और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया जो बाद में उपयोग होगा। आने वालों दिनों में पर्यटन, ट्रेड और निवेश से भरपाई हो जाएगी और  अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। एक अनुमान के  अनुसार 2030 में हर साल 60 लाख सैलानी आयेंगे। उत्तर भारत में विदेशी सैलानी क़रीब गायब हो गए। कभी कनॉट प्लेस और पहाड़ गंज सैलानियों से भरा होता था और अब तो दर्शन दुर्लभ हो रहा है। आत्मनिर्भर का असर उल्टा हो गया। चीन से आयात 100 बिलियन डॉलर से अधिक बढ़ गया। जिस उपलब्धि का डंका पीटा जाता है, होता उल्टा ही है और जी 20 सम्मेलन का भी वही हस्र होने वाला है। ट्रंप के आने से कौन सा लाभ मिला? करने वाला शोर नहीं करता बल्कि करके दिखा देता है। क्या कतर जैसे यहां होगा?  फीफा वर्ल्ड कप का इंतजाम और माहौल ऐसा हो गया कि कतर के होटलों में जगह कम पड़ गई और पड़ोसी देशों के भाग्य चमक गए। लाखों लोग उनके होटलों में रूके। 10 लाख फुटबॉल प्रेमी घूम रहें थे और कोई वारदात नहीं हुई।
फुटबॉल वर्ल्ड कप के द्वारा कतर अपनी कट्टर छवि में जबर्दस्त सुधार लाया और हमारे यहां उल्टा ही होता है। नोएडा एक्सपो में जो देश भाग लेने आए थे, कान पकड़ लिया कि दुबारा नहीं आएंगे। मूल सुविधाएं नदारद और ट्रैफिक की समस्या से चीनियों ने कहा कि अब कभी नहीं आयेंगे। फीफा  अगर हमारे यहां होता तो विदेशी लड़कियों के छेड़ने की घटना ज़रूर होती। नकली सामान बेच देते। कुछ न कुछ चोरी ज़रूर होती। ट्रैफिक की समस्या ज़रूर होती और कहीं न कहीं व्यवस्था में कमी ज़रूर होती। इस छोटे से देश ने बिना ऐसी शिकायतों के सफल पूर्वक दुनिया का सबसे बड़ा आयोजन करा दिया। आर्थिक रुप से आने वाले दिनों में कतर को बड़ा लाभ मिलने वाला है। जी 20 मेजबानी में अभी देना पड़ रहा है और आते-आते इतना खर्च हो जायेगा कि लेने के देने न पड़ जाएं। झुग्गियों और गरीब बस्तियों को ढकने में तमाम धन व्यर्थ होने लगा है। शहर सजाएं जाने लगे हैं और ये पैसे किसी और काम आते। चीन के राष्ट्रपति गुजरात में आए तो शोर मचा कि 500 बिलियन डॉलर निवेश होगा, हुआ कितना अंदाज ही लगाना ठीक होगा। वाइब्रेंट गुजरात महोत्सव होता रहता है लेकिन अर्थव्यवस्था की हालत खराब होती गई। कुछ बड़े शहरों में चमक दिखती है जो पहले से अच्छे रहे हैं बल्कि देखा जाए तो उनको और आगे होना चाहिए लेकिन ग्रामीणों की हालात बहुत ही खराब है। अतीत के ऐसे सारे कार्यक्रमों को देखते हुए हम कह सकते हैं कि फायदा किसी का होगा तो ज़रूर लेकिन न देश की अर्थव्यवस्था का और न ही जनता का। लेने के देने ही पड़ेंगें जैसे पहले होता रहा है। एक साधारण सा आयोजन जो इंडोनेशिया जैसे देश ने हाल में किया। इंडोनेशिया की मेजबानी की तैयारी के बारे में तमाम जानकारी इकट्ठा किया तो पता लगा कि उसने इसे इवेंट नहीं बनाया।यहां तो अभी से अनहोनी को होनी की तरह पेश किया जाने लगा है। किसी को कुछ प्राप्ति हो या न लेकिन मोदी जी का नाम चारो तरफ़ ज़रूर चमकेगा। मीडिया तो ऐसा पेश करेगी कि अब तो तमाम समस्याओं का समाधान हो ही जाने वाला है। काश! जी 20 सम्मेलन इवेंट न बने यही देश के भले में होगा।

करीब 7 हजार मजदूरों की कब्रों पर हो रहा है, फीफा वर्ल्ड कप का जश्न

फुटबाल विश्व कप का जश्न अपने शबाब पर है, ऐसे में यह विश्व कप भारत, नेपाल, बाग्लादेश और पाकिस्तान के जिन 7 हजार मजदूरों की कब्रों पर हो रहा है, उसकी चर्चा करना रंगे-पुते चेहरे के पीछे के घिनौने चेहरे को उघाड़ कर रख देने जैसा है, जो किसी को अच्छा नहीं लगता। वैसे मजदूरों के बारे में, यहां तक की उनकी मौत के बारे में बातें करना बीते जमाने की बात ठहरा दी गई है। इसे बैकवर्डनेस मान लिया गया है।
जब सारी दुनिया के कार्पोरेट अपने-अपने विज्ञापनों और मुनाफे, कार्पोरेटे मीडिया अपने विशालकाय कैमरों और खेल का लुत्फ उठा रहे खेल-प्रेमी जश्न में डूबे हुए हों, तो उनसे ये कहना की आप जो यह भव्य स्टेडियम देख रहे है, जो आलीशान अतिथि गृह देख रहे हैं, जो चकाचौंध कर देने वाली सड़के-पुल, होटल, हवाई अड्डों और रोशनी देख रहे हैं, उस सब को तैयार करने में भारत, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका के लाखों मजदूर कई वर्षों तक रात-दिन अमानवीय परिस्थियों ( 40 से 50 डिग्री तापमान) में खटते रहे हैं, इसमें 7 हजार मजदूरों की काम के दौरान मौत हो गई और उनकी लाशें ही वापस उनके घर आईं।
इन मजदूरों से 50 डिग्री तक के तापमान में 12 घंटे तक काम कराया जाता था। कई की हार्ट अटैक से मौत हो गई। इस मजदूरों पर कतर के श्रम कानून भी लागू नहीं होते थे। मारे गए मजदूरों को कोई मुआवजा तक नहीं दिया जाता।
ये वे मजदूर थे, जो अपने बाल-बच्चों, मां-बाप और भाई-बंधु को छोड़कर वर्षों के लिए खाड़ी देशों में थोड़ी सी बेहतर जिंदगी और अपनों के लिए थोड़े से बेहतर भविष्य की तलाश गए थे, इनमें से 7 हजार मजदूरों की लाशें ही परिवार वालों के वापस आईं।
खूब जश्न मनाईए, खूब खुशी झूमिए, कतर को इस आयोजन के लिए शाबासी दीजिए और जीतने वाली टीमों को बधाईयां दीजिए, पर हो सके तो उन्हें भी एक बार याद कर लीजिए जो कई वर्षों तक रात-दिन खटते रहे और उनमें 7 हजार के हिस्से मौत आई।
फीफा वर्ल्डकप’ पर मजदूरों के खून के छींटे हैं। एक आंकड़ा देखिये-
भारत, 2,711
नेपाल, 1,641
बांग्लादेश, 1,018
पाकिस्तान, 824  
ऐसे में गोरख पांडेय की कविता स्वर्ग से विदाई याद आती है-
भाइयो और बहनो!
अब यह आलीशान इमारत
बन कर तैयार हो गई है
अब आप यहाँ से जा सकते हैं
अपनी भरपूर ताक़त लगाकर
आपने ज़मीन काटी
गहरी नींव डाली
मिट्टी के नीचे दब भी गए आपके कई साथी
मगर आपने हिम्मत से काम लिया
पत्थर और इरादे से
संकल्प और लोहे से
बालू, कल्पना और सीमेंट से
ईंट दर ईंट आपने
अटूट बुलंदी की दीवारें खड़ी कीं
छत ऐसी कि हाथ बढ़ाकर
आसमान छुआ जा सके
बादलों से बात की जा सके
खिड़कियाँ
क्षितिज की थाह लेने वाली आँखों जैसी
दरवाज़े-शानदार स्वागत!
अपने घुटनों बाजुओं और
बरौनियों के बल पर
सैकड़ों साल टिकी रहने वाली
यह जीती-जागती इमारत तैयार की
अब आपने हरा भरा लॉन
फूलों का बग़ीचा
झरना और ताल भी बना दिया है
कमरे-कमरे में ग़लीचा
और क़दम-क़दम पर
रंग-बिरंगी रोशनी फैला दी है
गर्मी में ठंडक और ठंड में
गुनगुनी गर्मी का इंतज़ाम कर दिया है
संगीत और नृत्य के साज-सामान
सही जगह पर रख दिए हैं
अलगनियाँ प्यालियाँ
गिलास और बोतलें
सजा दी हैं
कम शब्दों में कहें तो
सुख-सुविधा और आज़ादी का
एक सुरक्षित इलाक़ा
एक झिलमिलाता स्वर्ग
रच दिया है
इस मेहनत और इस लगन के लिए
आपको बहुत धन्यवाद
अब आप यहाँ से जा सकते हैं
यह मत पूछिए कि कहाँ जाएँ
जहाँ चाहें वहाँ जाएँ
फ़िलहाल, उधर अँधेरे में
कटी ज़मीन पर जो झोपड़े डाल रक्खे हैं
उन्हें भी ख़ाली कर दें
फिर जहाँ चाहें वहाँ जाएँ
आप आज़ाद हैं
हमारी ज़िम्मेवारी ख़त्म हुई
अब एक मिनट के लिए भी
आपका यहाँ ठहरना ठीक नहीं
महामहिम आने वाले हैं
विदेशी मेहमानों के साथ
आने वाली हैं अप्सराएँ
और अफ़सरान
पश्चिमी धुनों पर शुरू होने वाला है
उन्मादक नृत्य
जाम छलकने वाला है
भला यहाँ आपकी क्या ज़रूरत हो सकती है
और वे आपको देखकर क्या सोचेंगे
गंदे कपड़े धूल में सने शरीर
ठीक से बोलने, हाथ हिलाने
और सिर झुकाने का भी शऊर नहीं
उनकी रुचि और उम्मीद को कितना धक्का लगेगा
और हमारी कितनी तौहीन होगी
मान लिया कि इमारत की
यह शानदार बुलंदी हासिल करने में
आपने हड्डियाँ गला दीं
ख़ून-पसीना एक कर दिया
लेकिन इसके एवज़ में मज़ूरी दी जा चुकी है
मुँह मीठा करा दिया है
धन्यवाद भी दे चुके हैं
अब आपको क्या चाहिए?
आप यहाँ से टल नहीं रहे हैं
आपके चेहरे के भाव भी बदल रहे हैं
शायद अपनी इस विशाल और ख़ूबसूरत रचना से
आपको मोह हो गया है
इसे छोड़कर जाने में दुख हो रहा है
ऐसा हो सकता है
मगर इसका मतलब यह तो नहीं
कि आप जो कुछ भी अपने हाथों से बनाएँगे
वह सब आपका हो जाएगा
इस तरह तो यह सारी दुनिया आपकी होती
फिर हम मालिक लोग कहाँ जाते
याद रखिए
मालिक मालिक होता है
मज़दूर मज़दूर
आपको काम करना है
हमें उसका फल भोगना है
आपको स्वर्ग बनाना है
हमें उसमें विहार करना है
अगर ऐसा सोचते हैं
कि आपको अपने काम का
पूरा फल मिलना चाहिए
तो हो सकता है
कि पिछले जन्मों के आपके काम
अभावों के नरक में ले जा रहे हों  
( यह पोस्ट तैयार करने में नागिरक अखबार और मनीष आजाद की पोस्ट से मदद ली गई है)
आंकड़ों के स्रोत-

लालू यादव के सेहत को लेकर सिंगापुर से आई बड़ी खबर, किडनी ट्रांसप्लांट हुआ सफल

 किडनी ट्रांसप्लांट के लिए सिंगापुर के एक अस्पताल में भर्ती लालू यादव का आपरेशन सफलता पूर्वक संपन्न हो गया है। इसकी जानकारी लालू यादव के बेटे और बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने ट्विट कर के दी। तेजस्वी यादव ने ट्विटर पर इस बारे में जानकारी दी। तेजस्वी यादव ने लिखा- “पापा का किडनी ट्रांसप्लांट ऑपरेशन सफलतापूर्वक होने के बाद उन्हें ऑपरेशन थियेटर से आईसीयू में शिफ्ट किया गया। डोनर बड़ी बहन रोहिणी आचार्य और राष्ट्रीय अध्यक्ष जी दोनों स्वस्थ है। आपकी प्रार्थनाओं और दुआओं के लिए साधुवाद।”

लालू यादव का आपरेशन सिंगापुर के माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में हुआ है। उन्हें किडनी उनकी दूसरी नंबर की बेटी रोहिणी आचार्य ने डोनेट किया है, जो सिंगापुर में ही रहती हैं। पिछले महीने लालू यादव और उनकी बेटी रोहिणी की किडनी मैच हो गई थी, जिसके बाद यह प्रक्रिया शुरू हुई। पहले लालू अपनी बेटी की किडनी लेने को तैयार नहीं थे, लेकिन बाद में परिवार के दबाव और बेटी की जिद के बाद वह मान गए।

बताया जा रहा है कि अभी लालू यादव की किडनी 35 प्रतिशत काम कर रही थी। लेकिन अब किडनी के सफलता पूर्वक ट्रांसप्लांट के बाद उनकी किडनी 70 फीसदी तक काम करेगी, जिससे लालू स्वस्थ रहेंगे। आरजेडी मुखिया लालू प्रसाद यादव कई बीमारियों से ग्रसित हैं। उन्हें डायबिजिट और हाई ब्लड प्रेशर जैसी बीमारी भी है।

बता दें कि लालू यादव तमाम आरोपों में लंबे समय तक जेल में रहे। इस दौरान उनकी सेहत लगातार खराब होती गई। कई बार लालू यादव गंभीर रूप से बीमार हुए लेकिन परिवार की देख-रेख और अपनी इच्छा शक्ति के जरिये लालू यादव हर मुश्किल से बाहर आ गए। किडनी की तकलीफ से लगातार जूझ रहे लालू यादव पिछले दिनों काफी परेशान रहे। लेकिन माना जा रहा है कि अब किडनी ट्रांसप्लांट के बाद उनका स्वास्थ बेहतर हो जाएगा। इससे लालू यादव के परिवार के साथ-साथ उनके समर्थकों और पार्टी के लोगों को काफी राहत मिली है।

लालू यादव और उनका परिवार लगातार यह आरोप लगाता रहा है कि भाजपा से समझौता नहीं करने की वजह से लालू यादव को खराब सेहत के बावजूद लंबे समय तक जेल में रखा गया। साथ ही कई अन्य मामलों में जिससे उनका संबंध नहीं था, परेशान किया गया। उम्मीद है कि स्वस्थ होकर आने के बाद लालू यादव राजनीति में फिर से सक्रिय होंगे।

बौद्ध भिक्खुओं ने रचा इतिहास, जानकर याद आ जाएंगे बुद्ध

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हाथ में तथागत बुद्ध, सम्राट अशोक और बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की तस्वीर लिये… बुद्धम शरणं गच्छामि के उदघोष के साथ बौद्ध भिक्खुओं का यह दल सारनाथ से निकला है। उद्देश्य है विश्व का कल्याण। 15 नवंबर को तथागत बुद्ध की प्रथम उपदेश स्थली सारनाथ से यह धम्म यात्रा निकली है, जिसमें देश-विदेश के 101 बौद्ध भिक्खु शामिल हैं। 350 किलोमीटर की पदयात्रा कर बौद्ध भिक्खु 30 नवंबर को श्रावस्ती पहुचेंगे, जहां इस यात्रा का समापन होगा। इसे विश्व शांति पदयात्रा का नाम दिया गया है।

सारनाथ से श्रावस्ती तक इस 15 दिवसीय पदयात्रा की शुरुआत सारनाथ स्थित धम्मा लर्निंग सेंटर से हुई। सेंटर के संस्थापक एवं अध्यक्ष भिक्खु चन्दिमा हैं, जिन्होंने तथागत बुद्ध के दौर के भिक्षाटन की परंपरा को दोहराने का प्रण लिया है। अपनी इस यात्रा के दौरान भंते चन्दिमा और भिक्खु संघ विश्व कल्याण के साथ बौद्ध धम्म और तथागत बुद्ध की बातों का प्रचार प्रसार कर रहे हैं।

इस यात्रा को लेकर बौद्ध समाज के लोगों में भी खासा उत्साह है। बौद्ध भिक्खु जिस रास्ते से गुजर रहे हैं, बौद्ध उपासक उनके स्वागत के लिए उमड़ रहे हैं। इस दौरान यात्रा के पड़ाव पर भंते चंदिमा और बौद्ध भिक्खु आमजन को धम्म की शिक्षा दे रहे हैं। साथ ही तथागत बुद्ध द्वारा दिये गए उपदेश को बता रहे हैं।

15 नवंबर को सारनाथ से शुरू हुई यह धम्म यात्रा 19 नवंबर को आजमगढ़, 23 नवंबर को अंबेडकर नगर, 25 नवंबर को बस्ती, 27 नवंबर को सिद्धार्थ नगर और 30 नवंबर को श्रावस्ती पहुंचेगी, जहां इसका समापन होगा। इस दौरान बौद्ध भिक्खु रोज 20 किलोमीटर की यात्रा करेंगे।

यात्रा के शुरूआती स्थल सारनाथ के साथ श्रावस्ती भी बौद्ध धम्म का प्रमुख केंद्र है। सारनाथ में बुद्ध ने जहां पांच शिष्यों को अपना पहला उपदेश दिया था, तो वहीं श्रावस्ती स्थित जैतवन में तथागत बुद्ध ने अपना वर्षावास बिताया था। भंते चन्दिमा के नेतृत्व में निकली बौद्ध भिक्खुओं की यह पदयात्रा उस दौर की याद दिला रही है, जब तथागत बुद्ध बौद्ध भिक्खुओं के साथ हाथ में भिक्षापात्र लिये नगर-नगर भ्रमण करते हुए धम्म का प्रचार करते थे। भंते चन्दिमा और भिक्खु संघ ने उस दौर को एक बार फिर से जीवंत कर दिया है।

सवर्ण आरक्षण पर आए फैसले के पीछे है वर्ग संघर्ष में क्रियाशील सोच!

 सवर्ण आरक्षण पर हिंदू जजों के अन्यायपूर्ण फैसले से ढेरों बहुजन बुद्धिजीवी आहत व विस्मित हैं,पर मैं नहीं! यही नहीं सदियों से आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक इत्यादि, विविध क्षेत्रों में हिंदुओं अर्थात् सवर्णों ने शुद्रातिशुद्रो और महिलाओं के खिलाफ एक से बढ़कर एक अन्याय का जो अध्याय रचा है,उससे भी विस्मित नहीं होता। क्योंकि मैं इनकी समस्त गतिविधियों को मार्क्स के वर्ग संघर्ष के नजरिए से देखता हूं। वास्तव में मानव ही नहीं, प्राणी मात्र में जो सतत संघर्ष चलते रहा है,उसे यदि मार्क्स के वर्ग संघर्ष के नजरिए से देखें तो जानवरों द्वारा जानवरों का भक्षण, मानव जाति द्वारा उपभोग के साधनों पर कब्जे के लिए किये गए हर कृत्य में मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत की क्रियाशीलत नजर आएगी। वर्ग संघर्ष की व्याख्या के क्रम में मार्क्स द्वारा कही गई यह बात हर पढ़े लिखे व्यक्ति के जेहन में होगी कि दुनिया का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है: एक वर्ग वह है जिसका उत्पादन के साधनों ( दुसाध के शब्दों शक्ति के स्रोतों ) पर कब्जा है, दूसरा वह है जो इससे वंचित व बहिष्कृत exclude है। इन दोनों में दुनिया में सर्वत्र ही सतत संघर्ष चलते रहता है। प्रभुत्वशाली वर्ग अपने प्रभुत्व dominance को बनाए रखने के लिए राज्य का इस्तेमाल करता है”।

वास्तव में मानव मानव के मध्य सारा संघर्ष conflict उपभोग ( जीविकोपार्जन) के साधनों पर कब्जे के लिए, इस बात को दुनिया के तमाम प्रभुत्वशाली वर्गो में जिसने सर्वाधिक आत्मसात किया : वह हिंदू अर्थात सवर्ण रहे। इसलिए सवर्णों ने उपभोग के साधनों : शक्ति के स्रोतों पर कब्जा जमाने के लिए जिस तरह नैतिक और अनैतिक रास्तों का अवलंबन किया, वैसा कोई अन्य प्रभुत्वशाली वर्ग नहीं कर पाया। इस कारण भारत का सवर्ण समुदाय एक ऐसे विरल प्रभु वर्ग में विकसित हुआ है,जिसमें जियो और जीने दो की भावना न्यूनतम स्तर की रही।

वर्ग संघर्ष की विरल सोच के कारण ही स्वाधीन भारत के सवर्ण शासक डॉक्टर आंबेडकर की कड़ी चेतावनी के बावजूद भारत से मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या: आर्थिक और सामाजिक विषमता के उत्खात में कोई रुचि नहीं लिए।क्योंकि इसके लिए सवर्ण, एससी/ एसटी, ओबीसी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के स्त्री पुरुषों के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा करना पड़ता और ऐसा करने पर सवर्णों का उपभोग के साधनों पर एकाधिकार नहीं हो पाता। यह वर्ग सिर्फ अपने एकाधिकार का आकांक्षी रहा है, इसलिए जब 7अगस्त 1990 को मंडल की रिपोर्ट के जरिए सरकारी नौकरियों में एकाधिकार टूटने की आशंका दिखी, इसका हर तबका: छात्र और उनके अभिभावक, हरि भजन में निमग्न साधु संत, राष्ट्र के विचार निर्माण में लगे लेखक पत्रकार और धन्ना सेठों के साथ इनके तमाम राजनीतिक दलों ने जिस रवैए का परिचय दिया, दुनिया के इतिहास में उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है!

लोग भूले नहीं होंगे कि मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही भारत के ज्ञात इतिहास में एक अभिनव स्थिति पैदा हो गई। क्योंकि इससे सदियों से शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार जमाए विशेषाधिकारयुक्त सवर्णों का वर्चस्व टूटने की स्थिति पैदा हो गई। इस रिपोर्ट ने जहां जन्मजात सुविधाभोगी सवर्णों को सरकारी नौकरियों में 27% अवसरों से वंचित कर दिया,वहीं इससे दलित,आदिवासी,पिछड़ों और इनसे धर्मांतरित तबकों में जाति चेतना का ऐसा लंबवत विकास हुआ कि सवर्ण राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील हो गए। कुल मिलाकर मंडल से एक ऐसी स्थिति का उद्भव हुआ,जिससे वंचित वर्गो की स्थिति अभूतपूर्व रूप से बेहतर होने के आसार पैदा हो गए। ऐसा होते ही सवर्ण वर्ग के बुद्धिजीवी ,मीडिया,साधु संत, छात्र और उनके अभिभावक और दौलतमंदों सहित तमाम सवर्णवादी राजनीतिक दल अपना कर्तव्य स्थिर कर लिए और आरक्षण के खात्मे में जुट गए। इस के पीछे सिर्फ एक ही कारण था वर्ग संघर्ष के सोच की क्रियाशीलता!

अपने वर्गीय सोच के हाथों विवश होकर सवर्ण छात्र जहांआत्म दाह से लेकर संपदा दाह में जुट गए ,वहीं राष्ट्र के विचारों का निर्माण करने वाले तमाम लेखक पत्रकार आरक्षण के विरुद्ध फिजा बनाने में कलम तोड़ने लगे। लेकिन वर्ग संघर्ष में वर्ग शत्रुओं को नेस्तनाबूद करने के लिए साधु संतों ने जिस भयावह वर्गीय चेतना की मिसाल पेश किया, वह मानव सभ्यता के इतिहास की सबसे विरल घटनाओं में दर्ज हो गया।

 

भारतीय साधु संत सदियों से जगत मिथ्या,ब्रह्म सत्य में विश्वास करते हुए जागतिक समस्यायों से निर्लिप्त रहे। इसलिए हजारों वर्षो तक मुसलिम शासन में चली हिंदुओं की गुलामी के खिलाफ मुखर होने के बजाय वे हरि भजन में निमग्न रहे। बेशक अंग्रेज भारत में जन्मे स्वामी दयानंद, विवेकानंद,ऋषि अरविंद जैसे हिंदू शख्सियतों ने ईश्वर भक्ति से ध्यान हटाकर देशभक्ति अर्थात हिंदुओं को गुलामी से मुक्त करने में कुछ ऊर्जा लगा कर अपवाद घटित किया।पर,सहस्रों साल से शंकराचार्य, रामानुज स्वामी, तुलसी और सूरदास, रामदास कठिया बाबा,गंभीरनाथ,भोलानंद गिरी ,तैलंग स्वामी इत्यादि जैसे स्टार साधक व उनके अनुसरणकारी सारी समस्यायों से निलिप्त होकर हरि भजन में लगे रहे। किंतु 7 अगस्त ,1990को को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही इनकी तंद्रा टूट गई और गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति के नाम पर ये संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा के साथ हो लिए ,जो आरक्षण के खात्मे के लिए राम मंदिर का आंदोलन छेड़ी थी।

मंडल उत्तरकाल में साधु संतों ने अपने स्व वर्ण सवर्णों के हित में जो राजनीति खेली,उसकी मिसाल संपूर्ण इतिहास में मिलनी मुश्किल है! ऐसा इसलिए कि हिन्दुओं अर्थात सवर्णों में वर्गीय चेतना दूसरी नस्लों से कहीं ज्यादा है। इस चेतना के हाथों मजबूर होकर वे समय समय पर ईश्वर भक्ति से ध्यान हटाकर गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति के आंदोलन में कूदते रहते हैं। अगर साधु संतों ने सवर्ण हित में जगत मिथ्या,ब्रह्म सत्य की थ्योरी का मजाक उड़ाया है तो न्यायायिक सेवा पर काबिज सवर्णों ने बार बार स्व वर्णीय हित में सामाजिक न्याय का गला घोटा है,जिसका नया दृष्टांत सवर्ण आरक्षण है।

मोदी ने सत्ता में आने के बाद मंदिर आंदोलन से मिली राजसत्ता का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ सवर्णों का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार कायम करने और आरक्षण पर निर्भर वर्ग शत्रु : बहुजनों को फिनिश करने में किया है। इसीलिए उन्होंने देश की उन तमाम संस्थाओं को निजी क्षेत्र के जरिए अल्पजन सवर्णों के हाथ में देने के लिए सर्व शक्ति लगाया जहां उनके वर्ग शत्रुओं आरक्षण मिलता रहा। मोदी की तरह देश बेचने जैसा जघन्य काम विश्व में किसी भी शासक ने अंजाम नहीं दिया।ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सवर्णों जैसी निर्मम वर्ग चेतना किसी कौम में पैदा ही नहीं हुई। इस कारण ही उन्होंने संविधान का मखौल उड़ाते हुए 2019 के जनवरी में महज एक सप्ताह के भीतर ईडबल्यूएस के नाम पर सवर्णों को 10% आरक्षण दे दिया।

यह लोकतंत्र के इतिहास में राजसत्ता के जघन्यतम इस्तेमाल का विरल दृष्टांत था,जिसके खिलाफ सवर्णों का बुद्धिजीवी वर्ग कभी मुखर नहीं हुआ।कोई और देश होता तो वहां के प्रभु वर्ग के लेखक पत्रकार मोदी सरकार की आलोचना में जमीन आसमान एक कर देता पर,भारत के प्रभु वर्ग का कलमकार खामोश रहा,क्योंकि इसमें स्व वर्णीय/ वर्गीय चेतना इतनी प्रबल है कि निज वर्ण हित में देश हित और मानवता की बलि देने में इसे रत्ती भर भी विवेक दंश नहीं होता।भारत के बौध्दिक वर्ग के इसी चरित्र का अनुसरण करते हुए न्यायतंत्र पर काबिज लोगों ने मोदी के फैसले पर समर्थन को मोहर लगा दिया है।अब इस फैसले के खिलाफ वंचित बहुजन समाज के कुछ लोग कोर्ट में जाने का मन बना रहे हैं।

सवर्ण आरक्षण के फैसले के खिलाफ फिर से कोर्ट का शरणागत होने का मन बनाने वालों की एक बड़ी त्रासदी यह रही कि आदर्श आंबेडकरवावादी बनने के चक्कर में इन्होंने इतिहास को मार्क्स के वर्ग संघर्ष के नजरिए से देखा ही नहीं। उन्हें लगता है इस नजरिए से भारत के इतिहास को देखने से वे शुद्ध आम्बेडकरवादी नहीं रह जायेंगे। इसलिए उन्होंने स्वाधीन भारत में शासकों की गतिविधियों को वर्ग संघर्ष के नजरिए से देखने का कष्ट ही नहीं उठाया: अगर उठाया होता आज़ाद भारत का इतिहास भिन्न होता!उनके इस भोलेपन का लाभ उठकर भारत का जन्मजात प्रभु वर्ग अपने वर्ग शत्रुओं को प्रायः फिनिश कर चुका है। ऐसे में शेष होने के कगार पर पहुंचे बहुजन समाज को जिन्हे बचाने को चिंता है, वे यूनिवर्सल रिजर्वेशन अर्थात सर्वव्यापी आरक्षण की लड़ाई लड़ने के लिए “यूनीवर्सल रिजर्वेशन फ्रंट “निर्माण की बात सोचें,जिसके दायरे में होगा भारत के विविध समाजों के स्त्री पुरुषों के संख्यानुपात में सेना,न्यायिक व पुलिस सेवा के साथ सरकारी और निजी क्षेत्र की समस्त नौकरियों,सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों,फिल्म मीडिया, पौरोहित्य, शिक्षण संस्थानों के प्रवेश ,अध्यापन इत्यादि सहित ए टू जेड हर क्षेत्र! इस लड़ाई का यह एजेंडा हो कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में पहला अवसर सर्वाधिक वंचित दलित/ आदिवासी महिलाओं और शेष अवसर सर्वाधिक संपन्न सवर्ण पुरुषों को उनकी संख्यानुपात में मिले!

Decolonising the caste question: Reservations for Dalit Muslims and Dalit Christians

As an integral part of India’s continued modernity, caste is not merely a phenomenon restricted to rural areas or in extreme cases manifested in caste-related violence. It is a part of everyday affairs in modern institutions, public spaces and community life, where it represents a contingent element in social relations.

To grapple with the unique problem of caste endemic to the subcontinent, India made explicit constitutional and legal provisions for compensatory discrimination for the advancement of the historically depressed and socially backward sections of the society. India has long strived to strike a balance between its commitment to an overarching conception of equality for all, and the imperatives of compensatory discrimination in favour of specified castes and communities who have been historically relegated to the margins of the society, and against whom the forward castes have monopolized power and resources. Compensatory discrimination, popularly known as reservation, endeavours to actualize Dr. B.R. Ambedkar’s prophetic aspiration of substantive equality. For those who thought that these two objectives are incompatible, India proved that such a course is not only feasible, but also desirable as it strengthens the democratic process itself.

More than seven decades of Indian experience of compensatory discrimination did, however, give rise to multitudinous theoretical, constitutional and legal issues vis-à-vis the contemporary reservation policy. One such question awaiting answers from the apex court, legislators and public imagination at large is that of the status of Dalit converts to Islam and Christianity. The apex court has been hearing a bunch of petitions arguing the delinking of caste reservation from religion. The progress came following a hearing in Supreme Court on August 30 where Solicitor General Tushar Mehta promised to submit the Union Government’s stance within three weeks on the possibilities of extending reservations to Dalit Muslims and Dalit Christians.

Characterizing Dalit Muslim and Dalit Christian communities

Before addressing the intricacies of a prospective inclusion of Dalit Muslim and Dalit Christian communities in the existing reservation policy, it is imperative to discern ‘Dalit Muslims’ and ‘Dalit Christians’ as authentic social groups, and the challenges inherent in presupposing that only clearly dileanated social groups exist. Despite enduring discourses about social hierarchy and socio-political activism, and a generalized have-nots versus elite rhetoric that underlies assertions of community coherence and demands for amelioration, no established, homogeneous groups can be identified as Dalit Muslims or Dalit Christians for either scholarly investigation or policy planning. Rather, diversity, status ambiguity and ongoing social change processes provide the most cogent characterization of Dalit Muslim and Dalit Christian communities in India today. Ethnic mobilizations, social stratification and issues of social justice are dominant themes in today’s sociological, anthropological and political discourses on modern India. Nowhere do these themes intermingle as exhaustively as in the expanding discourse on Dalit Muslims and Dalit Christians.

Unearthing a long pending injustice

As stated before, the plight of Dalit Muslims and Dalit Christians is falling upon sensitive ears after long because of the ongoing petitions before the Supreme Court. In response, the government of India has appointed a three-member commission headed by former Chief Justice of India and former chairperson of the National Human Rights Commission (NHRC) K G Balakrishnan to consider the inclusion of Dalit Muslims and Dalit Christians as Scheduled Castes (SCs). Earlier, the Attorney General had submitted before the Supreme Court that the government lacks data on the two minority groups. The crucial question before the constitutional bench of the apex court is the validity or lack thereof of the Constitution (Scheduled Castes) Order, 1950, sub-clause three under Article 341, which expressly forbids the inclusion of persons who follow a religion other than Hinduism, Buddhism, and Sikhism. The said clause must be assessed against the fundamental rights of equality before the law and non-discrimination based on religion, race, or caste. Under the existing condition, Dalit Muslims and Dalit Christians stand discriminated against, while Dalit converts to Sikhism and Buddhism in addition to Dalit Hindus hold eligibility for the constitutional policy of reservation.

Both the Government of India and the Supreme Court have been rendered a historic opportunity to unearth a long pending injustice. The problem endures as the colonial understanding of the relationship between caste and religion persists. The British colonial administration firmly believed that caste was an exclusively Hindu phenomenon since the scriptures of any other religion did not extend legitimacy to this birth-based hierarchy perpetuated through the apparatus of endogamy. Hence, only Hindus were allowed to be included in the Scheduled Castes as part of the Government of India Act of 1935. Consequently, in India’s post independence polity, the Presidential Order of 1950 gave a new lease of life to caste-religion congruence by relying on the same criteria. The two amendments to include Sikhs and Buddhists in 1956 and 1990 respectively, did not strike at the underlying premise. The Scheduled Castes order is a shining example of the colonial understanding of the institution of caste which is immovable even after 75 years of independence from foreign rule. Thus, there is a historic opportunity before the Supreme Court and the Government of India to decolonise the understanding of caste by quashing Clause 3 of the Presidential Order.

For decades, it has been the endeavour of the political executive to hide behind the excuse of a lack of data. It is very apparently, a vicious cycle of the absence of data paralysing policy formulation. However, once the inherent discrimination in the Constitution is removed, all other steps will follow independently. The inclusion of castes would happen on a case-to-case basis, using data collected by the Registrar General of India.

Unsurprisingly, the claim that there is no data on these caste groups is also not tenable. Several studies have underlined the persistence of caste or caste-like hierarchy among Muslims and Christians after conversion to these religions and the existence of a group of people at the bottom facing untouchability.

Previous efforts towards inclusion of Dalit converts to Islam and Christianity among SCs

After 1990, a number of Private Member’s Bills were introduced on the floor of the Parliament for the stated purpose. In 1996, a government Bill called the Constitution (Scheduled Castes) Orders (Amendment) Bill was drafted, but in view of a divergence of opinions, the Bill was not introduced in Parliament.

Additionally, the UPA government headed by Prime Minister Manmohan Singh set up two important panels: the National Commission for Religious and Linguistic Minorities, popularly known as the Ranganath Misra Commission, in October 2004; and a seven-member high-level committee headed by former Chief Justice of Delhi High Court Rajinder Sachar to study the social, economic, and educational condition of Muslims in March 2005.

The Ranganath Misra Commission, which submitted its report in May 2007, recommended that SC status should be “completely de-linked…from religion and…Scheduled Castes [should be made] fully religion-neutral like…Scheduled Tribes”.

On the other hand, the Sachar Commission Report observed that the social and economic situation of Dalit Muslims and Dalit Christians did not improve after conversion. The report was tabled in both Houses of Parliament in 2009, but its recommendation was not accepted in view of inadequate field data and corroboration with the actual situation on the ground.

Also, a detailed 2008 review-study commissioned by the National Commission of Minorities (NCM) and housed in the Sociology Department of Delhi University, authored by the Sociologist Satish Deshpande analysed the question of Dalit Muslims and Dalit Christians on multiple levels. One, what is the contemporary status of Dalit Muslims and Dalit Christians in terms of their material well-being and social status? Two, how does their situation compare with that of: a) non-Dalits of their own communities, and b) Dalits of other communities? And three, do the caste disabilities suffered by these groups justify state intervention?

The study reviewed two main kinds of available evidence, ethnographic-descriptive and macro-statistical, in addition to semi-academic NGO reports and publications. The only original part of the study was an extensive analysis of the unit-level data from the (then) latest large-sample survey of the National Sample Survey Organisation (61st Round of 2004-05).

On the basis of these studies, the courts have time and again accepted that “caste survives conversion” but complain about the lack of reliable data. There is a circularity about the lack of data that needs to be emphasised. Official national-level data – usually more reliable than other kinds – does not exist on Dalit Muslims and Dalit Christians simply because they are not recognised as Scheduled Castes.

It has been established beyond dispute that Dalit Muslims and Dalit Christians face social indignities much like their counterparts in the Hindu or Sikh communities. (The case of Buddhism is different because the overwhelming majority – around 95 per cent — of India’s Buddhists are Dalits.) As expected, there is visible and significant variation in specific practices of discrimination and segregation across regions and communities, but this is common to Hinduism and Sikhism as well.

Inconsistency in the religion-based bar on converted marginalized people

The Department of Personnel and Training (DoPT) website states, “The rights of a person belonging to a Scheduled Tribe are independent of his/her religious faith.” Moreover, following the implementation of the Mandal Commission report, several Christian and Muslim communities have found place in the central and state lists of OBCs. Thus, this religion-based bar on converted marginalized people exists only to the detriment of converted Dalits and not the STs and OBCs.

BJP, Savarkar, and a change of mind

While the BJP has always attacked Congress-led Governments with the Muslim-appeasement jibes, the political observers argue it is now BJP’s turn to prove otherwise for themselves. The far-right organisation has historically opposed such steps towards extending reservation to the Dalit converts to Islam and Christianity.

During the debates on Ranganath Mishra commission, BJP leader Nitin Gadkari slammed the then Government for appeasement and called for throwing the reports to the dustbin. Interestingly, BJP has always been against such reservations to any religious group that they consider ‘alien’.

Their ideological forefather V D Savarkar’s idea of conflating ‘holy land’ and ‘father land’ as the determining ground to be ‘Indian’ doesn’t allow Muslims and Christians to be ‘fully Indians’ despite their centuries of belonging.

Conclusively, while the step to organise this panel is being interpreted as a welcome move by many, some vociferous voices believe that it is another effort of the BJP to weaken the unity among Muslims through the caste card. They argue, it is necessary to contextualize this step as in the last few years the world has witnessed the unity of Indian Muslims several times against legislations that pitted them against the current ruling dispensation.

However, even if the motivations behind it may be murky, the move itself is welcome because the issue is crystal clear. At this juncture in India’s post independence polity, it’s a gross injustice upon the integrity of the Constitution of India to exclude marginalized groups discernible as Dalit Muslims and Dalit Christians from the constitutional policy of reservations that aspires to enable equitable conditions for progress and opportunities for every section of the society. The Supreme Court and the Government of India must assess the debate from the perspective of decolonising the question of caste through interpreting the Constitution (Scheduled Castes) Order, 1950, sub-clause three under Article 341 of the Constitution of India in the same light.

Additionally, the concepts of ‘Dalit Muslims’ and ‘Dalit Christians’ as cohesive groups remain the product of discursive processes and rhetorical pronouncements rather than well-defined consensus. In the end, what remains are enduring discourses

about social stratification and socio-political activism that construct and reinforce convoluted narratives of oppression focused on an as-yet abstrusely defined Dalit Muslim and Dalit Christian communities in India. It should be the endeavour of scholarly investigation and public policy to address these unique experiences in greater depth and preclude possibilities of homogenizing these varied experiences.

गुजरात में सैकड़ों मौतों का दोषी कौन? 

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गुजरात के मोरबी में मच्छु नदी पर बना ऐतिहासिक पुल के गिरने से 150 लोगों की मौत हो गई। पुल पर 100 लोगों की क्षमता थी। घटना के वक्त पुल पर 500 लोग थे, जिसकी वजह से यह गिर गया और कई घर उजड़ गए। गुजरात सरकार ने मृतकों के परिजनों को राज्य सरकार की ओर से चार लाख और पीएम फंड से 2 लाख देने की घोषणा हुई है। घायलों को 50 हजार दिया गया है।
1879 में इसको साढ़े तीन लाख की लागत से बनाया गया था। इसे मोरबी के राजा वाघजी रावाजी ठाकोर ने बनवाया था। यानी अब यह पुराना हो चुका था। जिसकी वजह से यह पिछले छह महीने से बंद था। मरम्मत के बाद इसे 26 अक्टूबर को फिर से खोला गया था।इस पुल के देख-रेख की जिम्मेदारी ओरेवा ग्रुप के पास है। मार्च 2022 से मार्च 2037 तक इस ग्रुप कोब्रिज की साफ सफाई, सुरक्षा, रख-रखाव और टोल वसूलने की जिम्मेदारी है। इस घटना के बाद कई सवाल खड़े हो गए हैं, जिसका जवाब गुजरात सरकार को और ओरेवा ग्रुप को देना है। (1) इस पुल पर जाने के लिए टिकट लेना पड़ता है। जब 100 लोग की क्षमता है तो 500 लोग कैसे पहुंचे। (2) 26 अक्टूबर को जब पुल खोला गया, NOC नहीं मिला था। बिना एनओसी के पुल कैसे और किसके आदेश पर खोला गया। सभी मौतों के लिए उसी को जिम्मेदार मानकर हत्या का मामला दर्ज होना चाहिए। (3) भीड़ नियंत्रित करने में ओरोवा ग्रुप और सुरक्षा व्यवस्था में लगे लोग कैसे विफल हो गए।

माता-पिता को खोकर भी हौसला नहीं ख़ोया, अपने संघर्ष की बदौलत दिवाकर बना जज

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दिनांक 10.10.2022 को बिहार लोक सेवा आयोग, पटना द्वारा 31वीं बिहार न्यायिक सेवा प्रतियोगिता परीक्षा का परिणाम जारी किया गया, जिसमें कुल 214 अभ्यर्थियों का चयन हुआ। उसमें एक नाम दिवाकर राम का भी है, जिसे कैमूर के बहुजन युवा कैमूर का कांशीराम कहते हैं। जज बनने के बाद से दिवाकर राम को बधाई देने वालों का तांता लगा हुआ है। गाँव के हर लोगों को लग रहा है कि अपना बेटा जज बना है। आखिर कौन है दिवाकर राम, आइए जानते हैं-

जन्म

 कैमूर जिला के चैनपुर प्रखण्ड के चैनपुर थाना अंतर्गत चैनपुर पंचायत के मलिक सराय गाँव के निर्धन परिवार में दिवाकर राम का जन्म हुआ। दिवाकर के पिता का नाम सुधीर राम तथा माता का नाम कुन्ती देवी था। दिवाकर के दादा का नाम महिपत राम था और उनके चार पुत्रों में से दिवाकर के पिता सबसे बड़े थे या यों कहें कि वे अपने खानदान के सभी भाइयों में सबसे बड़े थे, इसलिए उनका पूरे खानदान में मान-सम्मान रहा है। दिवाकर तीन भाई-बहन है। छोटे भाई का नाम प्रभात राम तथा छोटी बहन का नाम ज्योति कुमारी है। गाँव के लोग दिवाकर को दसवीं तक ‘पतालू’ ही कहते थे। आज भी गाँव के बुजुर्ग लोग पतालू ही कहते हैं और प्रभात को ‘डब्ल्यू’। यह तो गोपाल सर जी की महानता है कि इसके पिता जी नाम लिखाने गये तो दोनों भाइयों का नाम बदल डाले और उन्होंने दिवाकर की जन्मतिथि 01 अप्रैल, 1989 लिख दी। आज उसी तिथि को सच मानकर जन्मदिन की बधाइयां बटोरना पड़ता है। खैर, ऐसा अधिकांश ग्रामीण विद्यार्थियों के साथ हुआ है। गोपाल सर ने हमारे गाँव के कई विद्यार्थियों का नामांकन के समय निःशुल्क नामकरण संस्कार किया है।

बचपन

दिवाकर का बचपन गाँव की गलियों में ही बीता है। गाँव के सभी बच्चे लगभग एक जैसे ही पले-बढ़े हैं। बचपन में दिवाकर खेल-कूद में भी अव्वल था। चुट्टी (गोली) तथा ताश खेलने के लिए कई बार अपने बाबू जी से मार भी खाया है। क्रिकेट, फुटबॉल एवं गुल्ली डंडा खेलने पर उसके  बाबू जी नहीं बोलते थे लेकिन चुट्टी, ताश एवं जुआ पर तो तुरंत चप्पल निकाल लेते थे फिर भी बालमन खेलने से बाज नहीं आता था। छुप-छुप कर खूब खेला जाता था।

शिक्षा और संघर्ष

कक्षा छठवीं तक की पढ़ाई राजकीय कृत मध्य विद्यालय, चैनपुर तथा सातवीं से दसवीं तक की पढ़ाई गाँधी स्मारक उच्च विद्यालय, चैनपुर से किया है। बिहार विधानसभा चुनाव 2005 में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला जिसके कारण 07 मार्च को राष्ट्रपति शासन लग गया और मार्च के अंतिम सप्ताह में मैट्रिक बोर्ड की परीक्षा होती थी। दिवाकर मैट्रिक बोर्ड में फस्ट डिवीजन से परीक्षा पास किया। गाँव के सवर्ण परिवार में कुछ बच्चे पहले भी फर्स्ट डिवीजन लाये थे लेकिन दलित-पिछड़ा परिवार में पहली बार दिवाकर को ही फस्ट डिवीजन से पास होने का संयोग बना। उस समय का नौवीं कक्षा तक विद्यार्थी पढ़ाई के प्रति बेपरवाह रहते थे लेकिन दसवीं कक्षा में जाते ही मैट्रिक का लोड ट्रक के लोड जैसा महसूस होने लगता था। लगभग हर दिन बात-बात में गुरुजी लोग बोर्ड की याद दिलाते रहते थे। दिवाकर दसवीं में जाने के बाद खेलना-कूदना बहुत कम कर दिया था। सात बजे तक गोड़-हाँथ धोकर कुर्सी पर लालटेन के सामने किताब लेकर बैठ जाता था। दिवाकर इस मामले में धनी था कि गरीबी में भी उसके बाबू जी कुर्सी की व्यवस्था कर दिए थे वरना अधिकांश को तो खटिया पर या जमीन पर ही बोरा बिछाकर ढिबरी या लालटेन के सामने  बैठकर पढ़ना पड़ता था।

दसवीं के बाद इंटरमीडिएट की पढ़ाई करने के बनारस चला गया, तब उसके पिता जी किसी जमींदार के यहाँ रहकर खेतीबारी कराते थे और ट्रैक्टर चलाते थे। बनारस में अधिकांश समय आंबेडकर छात्रावास में रहकर पढ़ाई किया। 2007 में पीसीएम (विज्ञान वर्ग) से प्रथम श्रेणी से बारहवीं करने के बाद इंजीनियरिंग की तैयारी में अभी जुटा ही था कि उसके पिता जी की तबियत खराब हो गई और बेहतर इलाज के अभाव में बनारस में ही वो चल बसे। पिता जी का जाना दिवाकर के लिए बहुत बड़ा झटका था। छोटे-छोटे भाई बहन और विकलांग माँ के साथ पेट पालना ही मुश्किल था तो फिर पढ़ाई करना तो और मुश्किल…., लेकिन दिवाकर इंटरमीडिएट में ही शिक्षा का महत्व समझ चुका था, इसलिए उसके लिए पढ़ाई छोड़ने का निर्णय लेना आसान नहीं था। उसने बनारस में काम करके पढ़ने की सोची और रिक्शा भी चलाना शुरू किया लेकिन कम उम्र और कमजोर शरीर की वजह यह सब आसान नहीं था। बहुत दिन तक चल नहीं सका। बनारस से बोरिया-बिस्तर समेट कर घर आ गया। घर आने के बाद उसे लगा कि मैं उच्च शिक्षा से विमुख हो जाऊँगा, इसलिए उसने तय किया कि जिला मुख्यालय भभुआ में रहकर टीयूशन पढाऊँ और अपनी पढ़ाई को जारी रखूं। दिवाकर भभुआ में जगजीवन राम स्टेडियम के बिल्कुल सामने वाले मकान में किराए पर कमरा लिया और छोटे भाई के साथ रहने लगा। शुरुआत में मुश्किल से एक टीयूशन मिला। भभुआ में 500 रु महीना टीयूशन पढ़ाकर गुजारा करना कितना मुश्किल होगा कोई भी आसानी से समझ सकता है। उसकी विकलांग मां बच्चों का लालन-पालन करने के लिए कटिया-बिनिया व मजूरी भी करने लगी। अपने पास खेतीबारी भी नहीं थी कि कुछ अनाज हो जाये। नाम मात्र को जमीन का एक टुकड़ा था। चावल-आंटा घर से ही ले जाता था।

एक दिन दिवाकर झोला में चावल-आंटा घर से लेकर शाम पाँच बजे के आसपास भभुआ जाने के लिए घर से निकला। गाँव के बाहर विश्वकर्मा जी के मंदिर व पोखरा के पास पहुँचा, तो तीन-चार दोस्तों को चबूतरे पर बैठ बातचीत करते देख खुद भी आकर बैठ गया। दरअसल वह भभुआ जा रहा था लेकिन उसके पॉकेट में एक रुपया भी पैसा नहीं था जबकि पाँच रु किराया था चैनपुर से भभुआ जाने का। ऐसे अधिकांशतः शरारती लड़के तो बस में मुफ़्त में ही भभुआ चले जाते थे या कोई टेढ़ा कंडक्टर मिल गया तो एक-दो रुपया दे दिया, लेकिन दिवाकर ऐसा नहीं करता था। चबूतरे पर बैठे  दोस्तों में से किसी के भी पास पाँच रुपये नहीं थे। अंततः दो घण्टे बैठकर बातचीत करने के बाद दिवाकर वहीं से झोला लेकर घर लौट गया। कुछ दिन बाद एक-दो टीयूशन और मिल गये, फिर एक स्कूल में भी पढ़ाने जाने लगा। अब उसके खाने-पीने की समस्या दूर होने लगी, लेकिन स्कूल में पढ़ाने से उसे पढ़ने का मौका नहीं मिलता इसलिए जल्दी ही स्कूल को छोड़ दिया। उसके उम्र के कई लड़के बाहर फैक्ट्रियों में कमाने लगे थे इसलिए कई लोग दबी जुबान से यह कहने से बाज नहीं आते थे कि बाप मर गया और विकलांग मां दूसरे के यहाँ मेहनत-मजूरी कर रही है और यह नालायक़ चला है कलेक्टर बनने। खैर, यह बात कोई दिवाकर के मुँह पर कहता तो भी वह बुरा नहीं मानता क्योंकि उसके भीतर अथाह सहनशीलता है। हाँ, उसका भाई बिल्कुल उसके विपरीत स्वभाव का रहा है, उधर कुछ सालों से भले सुधर गया है। उसे दिवाकर ने कभी डाँटा हो या मारा हो ऐसा भी नहीं है, बल्कि उसकी गलतियों पर हँसते हुए कहता था कि अभी बच्चा है। लेकिन धीरे-धीरे वह भी दिवाकर के साथ रहकर समाज को समझने लगा और अपने बड़े भाई की प्रतिष्ठा में ही अपनी भी खुशी तलाशने लगा। प्रभात जब इंटरमीडिएट में था तब बहुत दिनों तक दोनों भाई एक ही पैंट से काम चलाते थे। दिवाकर टीयूशन पढ़ाने या कहीं चला जाता तो प्रभात दिन भर कमरे में ही रहता या बहुत ऊबता तो हाफ पैंट पहन कर आसपास घूम लेता। दोनों एक साथ घर भी नहीं जा पाते थे। यह तो संयोग ऐसा था कि दोनों भाई का शारिरिक संरचना एक ही जैसा था, जिससे एक पैंट से भी काम चल जाता था। वह समय प्रभात को थोड़ा विचलित किया और वह कमाने के लिए सोचने लगा लेकिन दिवाकर के डर से पढ़ाई छोड़कर बाहर भी नहीं जा सकता था। बारहवीं के बाद वह स्टाम्प टिकट खरीदकर कचहरी में ब्लैक में बेचकर अपना पॉकेट खर्च चलाने लगा। कुछ दिन के बाद इधर-उधर मजदूरी करने लगा और फिर ट्रक पर खलासीगिरी में रम गया, लेकिन दिवाकर के दबाव में ग्रेजुएशन करना जारी रखा। तब तक दिवाकर 2015 में ग्रेजुएशन पूरा कर चुका था। वह 2009 में ही सरदार वल्लभ भाई पटेल महाविद्यालय, भभुआ में बीएससी मैथ ऑनर्स में एडमिशन ले लिया था। बिहार में कॉलेज की कक्षाएँ  तो तब भी नहीं चलती थीं और आज भी नहीं के बराबर ही चलती हैं।

दिवाकर ग्रेजुएशन में पढ़ रहा था तभी अपने पंचायत का विकास मित्र बन गया था, जिसमें सरकार से कुछ मासिक वेतन मिलने लगा। विकास मित्र बनने के बाद धीरे-धीरे सारा टीयूशन छोड़ दिया। टीयूशन को कभी कमाने का जरिया नहीं बनाना चाहता था। उसके खाने-पीने और पढ़ने की पूर्ति हो सके उतने की ही उसे जरूरत थी। साल 2012 में पुनः बनारस लौटने का फैसला लिया और काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में प्रवेश परीक्षा हेतु तीन आवेदन कर दिया। टीयूशन और स्कूल में पढ़ाने के बाद दिवाकर शिक्षक बनने का सपना देखने लगा था, इसलिए बीएड पाठ्यक्रम में प्रवेश परीक्षा हेतु आवेदन किया और साथ  ही लाइब्रेरी साइंस तथा एलएलबी का भी। बीएड में तो नामांकन योग्य इंडेक्स लाया नहीं, लेकिन एलएलबी में अच्छा इंडेक्स मिला। लाइब्रेरी साइंस और एलएलबी का प्रवेश परीक्षा एक ही दिन पड़ गया इसलिए लाइब्रेरी साइंस का परीक्षा छोड़ना पड़ा था। एलएलबी में नामांकन के दिन दिवाकर  को उसी के मिजाज का रूममेट मिल गया जिसे आजतक सब लंकेश ही कहते हैं। खैर, पुनः वाराणसी वापसी किया था और इसबार तो बीएचयू में भगवान दास छात्रावास मिला। लंकेश दिवाकर की लापरवाही से बहुत परेशान रहता था क्योंकि वह आये दिन कमरे की चाभी खोआ देता था और लंकेश के इंतजार किये बिना ही ताला तोड़ भी देता था। दरअसल चार सालों तक भभुआ रहा था लेकिन कभी अपने कमरे में ताला नहीं लगया था, चाहे जितना दिन भी गायब रहे। जिसका मन करे कमरे में जाये, खाना बनाये, खाये-सोए और चले जाये कोई टोकने वाला नहीं होता।

एलएलबी अभी चल ही रहा था कि दिवाकर की माँ को पैरालाइसिस (हवा/लकवा) हो गया। दिवाकर की परेशानी और बढ़ गई, उससे अधिक उसके भाई-बहन की, क्योंकि वे दोनों मां से अधिक भावनात्मक रूप से जुड़े हुए थे। प्रभात अब इधर-उधर कमाकर मां की इलाज कराने लगा। मां की बीमारी से दिवाकर की पढ़ाई  डिस्टर्ब न हो इसके लिए प्रभात सब कुछ खुद करने की कोशिश करता। उस समय तक वह ड्राइवर बन चुका था लेकिन नियमित गाड़ी नहीं चलाता था। कभी कोई बोल दिया तो लेकर चला गया लेकिन माँ की इलाज के लिए शराब से लदी गाड़ियों को रात में चलाने लगा। काम दो नम्बर का और रिस्की था इसलिए पैसे भी ठीकठाक मिल जाते थे, लेकिन जैसे ही दिवाकर को पता लगा वह छोड़ा दिया। कई माह तक मां बेड पर पड़ी रहीं और दोनों भाई-बहन दवा व सेवा करते रहे। 2015 में दिवाकर एलएलबी अंतिम वर्ष में था और उसका परीक्षा नजदीक था तभी उनकी माँ सीरियस हो गईं। उन्हें बीएचयू में भर्ती करना पड़ा। बीएचयू में सुधार नहीं हुआ तो निजी अस्पताल में ले गया लेकिन वहाँ भी सुधार नहीं दिखा और खर्च बहुत ज्यादा होने लगा जो कि उसके बस की बात नहीं थी, तो पुनः बीएचयू में लाया और कुछ दिन बाद मां भी साथ छोड़कर चली गईं। मां के जाने से दिवाकर बहुत दुःखी हुआ लेकिन वह अपना दुःख कभी चेहरे पर दिखने नहीं देता है। प्रभात और ज्योति अपनी माँ के लिए रो-रो कर बेहाल हो गए। उन्हें संभालना मुश्किल हो गया था। खैर, उनका दाह संस्कार किया गया और परीक्षा खत्म होने के बाद दिवाकर जब छात्रावास खाली कर गाँव गया तो गाँव वालों को एक मृतक-भोज दिया।

एलएलबी करने के बाद दिवाकर भभुआ में ही रहने लगा और अपनी राजनीतिक तथा सामाजिक गतिविधियों को तेज कर दिया। पूरा समय इधर उधर सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में अपने को व्यस्त रखने लगा। 29 वीं बिहार न्यायिक सेवा प्रतियोगिता परीक्षा में शामिल हुआ लेकिन मुख्य परीक्षा में कुछ अंकों की कमी से साक्षात्कार में शामिल नहीं हो सका। 2017 में पुनः बनारस लौटने का मन बनाया लेकिन इस बार बीएचयू में मौका नहीं मिला और बीबीयू, लखनऊ चला गया। वहाँ दो वर्षीय एलएलएम में नामांकन कराया। एलएलएम में था तभी किसी की शिकायत पर उसका विकास मित्र का पैसा मिलना बंद हो गया। 2019 में एलएलएम करके वहीं नेट  व जुडिशरी की तैयारी करने लगा। 30वीं बिहार न्यायिक सेवा प्रतियोगिता परीक्षा में भी शामिल हुआ था लेकिन उसमें भी मुख्य परीक्षा में मात्र एक नम्बर की वजह से साक्षात्कार देने से चूक गया था। खैर, एक काम हुआ कि यूजीसी-नेट निकाल लिया। यूजीसी-नेट निकालने के बाद इलाहाबाद में रहकर भाई के साथ कोचिंग करने लगा। अपने दोस्तों से आर्थिक सहयोग लेकर अभी कोचिंग शुरू ही किया था कि कोरोना दस्तक दे डाला। कोरोना के समय जब पूरे देश में लॉक डाउन लगा दिया गया तब सारे विद्यार्थी भी लॉज/हॉस्टल छोड़कर घर चले गए। दिवाकर भी अपने भाई के साथ घर लौट गया और भभुआ में रहने लगा। लॉक डाउन के बाद पुनः बनारस जाकर कमरा लिया। कोरोना की दूसरी लहर में पुनः बनारस का लॉज खाली करके घर लौटना पड़ा, तबतक 31 वीं बिहार न्यायिक सेवा प्रतियोगिता परीक्षा में पी. टी. दोनों भाई पास कर चुके थे। अच्छा, यह तो बताया ही नहीं कि दिवाकर प्रभात को भी ठेल ठाल कर चार साल में हरिश्चंद्र पी जी कॉलेज, वारणसी से एलएलबी करवा चुका था। इतना ही नहीं बीबीयू से लाइब्रेरी साइंस से बी लीव भी करा चुका था। बहरहाल, प्रभात दिवाकर के साथ रहकर पीटी तो पीसीएस-जे तथा एपीओ दोनों का निकाल लिया लेकिन मुख्य परीक्षा में लटक गया, जबकि तीसरी बार में ही सही पर दिवाकर इस बार मुख्य परीक्षा में सफल रहा। कोरोना आने के बाद से दिवाकर खुद को सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों से दूर रखते हुए गम्भीरता से पढ़ने लगा था। मुख्य परीक्षा का परिणाम आने से पहले ही बनारस छोड़कर पुनः भभुआ आकर रहने लगा था। दअरसल विकास मित्र का पैसा बन्द होने के बाद दिवाकर पूरी तरह दोस्तों पर निर्भर हो गया। दोस्तों की आर्थिक मदद से ही सही लेकिन अपनी पढ़ाई को निरन्तर जारी रखा और परिणाम आज सामने है। अभी दोनों का एपीओ की मुख्य परीक्षा नवम्बर में होने वाली है।

बहन का विवाह

माता-पिता के निधन के बाद इसे लगा कि अब बहन की शादी कर देनी चाहिए, क्योंकि दोनों भाई अक्सर बाहर ही रहते थे और बहन अकेले में मां को याद करके रोती रहती थी। बहन के विवाह के लिए पैसे नहीं थे तो जो जमीन का एक टुकड़ा सड़क किनारे था उसे लगभग आठ लाख में बेचकर बहन का धूमधाम से विवाह कर दिया। कई लोगों ने समझाने का प्रयास किया कि इतनी ही जमीन है, इसे क्यों बेच रहे हो तो दिवाकर ने कहा कि आज नहीं तो कल मैं बढ़िया नौकरी पा जाऊंगा और इस जमीन से अधिक जमीन भी खरीद लूँगा लेकिन क्या उस दिन बहन को बढ़िया घर-वर दे पाउँगा? इसलिए बेहतर है कि आज ही इसे बढ़िया घर-वर खोज दूँ ताकि यह सुखी रहे वरना हमेशा यही कहेगी कि मां-बाबू जी नहीं थे, तो भैया लोग ऐसे घर में विवाह कर दिए। बहरहाल, आज बहन बहुत खुशहाल रहती है।

छात्र राजनीति

इंटरमीडिएट में आंबेडकर छात्रावास में रहने के दौरान ही दिवाकर में राजनीतिक चेतना जागृत होने लगी थी। विशेष रूप से बाबा साहेब आंबेडकर और मान्यवर कांशीराम साहब के विचारों से बहुत प्रभावित हुआ। भभुआ में छात्रावासों में उसका आना-जाना शुरू से ही रहा है। एलएलबी के दौरान बीएचयू में भी आंबेडकर जयन्ती मनाने और छात्र के समस्याओं के लेकर मुखर रहा। एलएलबी करने के बाद जब भभुआ लौटा तो आंबेडकर छात्रावास, कर्पूरी छात्रावास, पाल छात्रावास, मुस्लिम छात्रावास आदि सभी में जा जाकर छात्रों से मिलना और उन्हें पढ़ाई हेतु प्रेरित करने के साथ ही सबको एक मंच पर इकट्ठा करने का प्रयास करने लगा।  छात्र संघर्ष मोर्चा बनाकर छात्र संघ चुनाव में संतुलित पैनल उतारा। कैमूर में पहली बार छत्रपति साहूजी  महाराज की जयन्ती मनाई गई, जिसमें दिल्ली से डॉ. रतन लाल और बनारस-पटना से कई वक्ताओं को बुलाया गया था। भव्य जंयती समारोह के सफल आयोजन में दिवाकर का अहम योगदान था। उससे पहले पटेल कॉलेज के छात्रावास परिसर में ही मनुस्मृति दहन दिवस पर एक कार्यक्रम में हुआ, उसमें भी वह सक्रियता रूप से शामिल था। उसके अगले साल आंबेडकर जयन्ती मनाई गई जिसमें मुख्य अतिथि व वक्ता के रूप में प्रसिद्ध आलोचक प्रो. चौथीराम यादव की गरिमामयी उपस्थिति थी। उन्हें उस मंच पर लाने में दिवाकर की महती भूमिका थी। बीबीयू, लखनऊ में जाकर तो आये दिन छात्र हित में धरना प्रदर्शन और घेराव करने लगा। वहाँ तो ऐसे भी बाबासाहेब और मान्यवर साहब को मानने वाले विद्यार्थियों की भरपूर संख्या होती है जिसके कारण और अधिक सक्रियता से छात्र राजनीति करने का संयोग बना। एससी-एसटी छात्रवृत्ति योजना बन्द होने पर बिहार विधानसभा के घेराव में भी सक्रिय सहभागिता निभाया था, जिसमें बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भी शामिल थे।

प्रेरक कार्य

जब एलएलबी कर रहा था तभी एक दिन अपने भाई से फोन पर बात करते हुए अपने ही जाति के एक अनाथ भाई का हालचाल पूछा। भाई से मालूम हुआ कि वह बाहर कमाने जा रहा है तो फिर उसे बोला कि बात कराओ। उस अनाथ भाई ने बताया कि भैया कमाएंगे नहीं तो छोटी-छोटी बहनों को खिलाएंगे क्या। इतना बोलकर वह रोने लगा। दिवाकर बोला कि तुम अभी अपनी बहनों को नानी के घर भेज दो और तुम मेरे घर जाकर खाओ और वहीं रहकर बोर्ड की तैयारी करो। मैट्रिक बोर्ड के बाद कमाने जाना। अनाथ भाई ने वैसा ही किया। मैट्रिक के बाद दिवाकर उसे प्रेरित करके पॉलिटेक्निक में नामांकन करवाया और वह मेहनत करके अपना कोर्स भी पूरा किया। उसी के साथ अपने खानदान के तीन और लड़कों को प्रेरित करके पॉलिटेक्निक में नामांकन करवाया। अपने खानदान के कई और लड़के-लड़कियों को मोटिवेट करके उच्च शिक्षा की डिग्री दिलवाया। भभुआ के न जाने कितने छात्र इससे प्रेरणा लेकर पढ़ाई-लिखाई में बेहतर प्रदर्शन किए हुए हैं।

एक बार बीएचयू के लंका गेट पर कुछ काम से गया था तबतक चैनपुर के एक व्यक्ति मिल गये जिनका पैर छूकर प्रणाम किया तो भावुक हो गए क्योंकि उनका इसके परिवार से अच्छा सम्बंध था क्योंकि वो पासी जाति के थे तथा ताड़ी बेचते थे और दिवाकर के घर में तो इसे छोड़कर लगभग सब ही ताड़ी पीने वाले हैं। इसके घर में क्या, लगभग पूरे गाँव का ही माहौल ही ऐसा रहा है। खैर, वो भावुक हो गए और पूछने पर पता चला कि उनके बेटे का सरसुन्दरलाल हॉस्पिटल, बीएचयू में ऑपरेशन होना है और खून का व्यवस्था नहीं हो पा रहा है। दिवाकर बिना देर किए भाई को बुलाया और दोनों भाई जाकर बिना उनके कहे दो यूनिट खून दे दिया। इतना ही नहीं बल्कि उनके लिए फल भी खरीद कर दे आया। वह आज भी कहीं मिलते हैं तो हाथ जोड़कर खड़ा हो जाते हैं और दिवाकर उनका पैर छूकर प्रणाम करता है। दिवाकर की विनम्रता ही है कि आज भी सभी का चहेता है और अजातशत्रु भी।

भगवान दास छात्रावास में सर्वाधिक मेस बिल दिवाकर के ही नाम आता था क्योंकि यह एक बड़ा सा टिफिन रखे हुए थे और उसके गाँव या रिश्तेदारी से कोई हॉस्पिटल से आता था तो मेस से खाना जरूर पहुँचाता। इतना ही नहीं आये दिन कोई न कोई दोस्त इसके यहाँ पहुँचा रहता था।

दिवाकर हमेशा बेरोजगार जूनियरों का खाने से परहेज़ करता रहा है। वह अपने सीनियरिटी का फर्ज बखूबी निभाता था। सीनियरों का सम्मान और जूनियरों को स्नेह देने में कभी कोताही नहीं किया। अभी हाल ही मैं एक निजी महाविद्यालय में अतिथि शिक्षक के पद पर साक्षात्कार देने गया तो एक जूनियर मिल गया और बोला कि भैया जब आप दे रहे हैं तब तो मेरा नहीं होगा इसलिए मैं जा रहा हूँ। बिना देर किए दिवाकर बोला कि नहीं-नहीं तुम मत जाओ, मैं साक्षात्कार छोड़ देता हूँ। कितना भी आर्थिक संकट हो लेकिन अपना समर्पण और सहयोग वाला स्वभाव नहीं छोड़ता है।

इंटरमीडिएट में धार्मिक पाखण्ड, अंधविश्वास एवं ईश्वरीय शक्ति के साथ मोहभंग हो गया था। बहुत साल तक इसके पास मात्र एक या दो जोड़ी ही कपड़े रहे हैं लेकिन हमेशा साफ-सुथरा और आयरन करके ही पहनता था। कपड़ा अधिकांशतः रात में साफ करता और पंखे के हवा से सुखाकर सुबह आयरन करता तभी पहनता था। दाढ़ी कभी भी नहीं बढ़ने देता था, हमेशा क्लीन सेव और हंसता-मुस्कुराता चेहरा रखता रहा है।

डॉ. दिनेश पाल असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी) जय प्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा

आरएसएस का आदिवासियों को वनवासी कहने का षड़यंत्र

 यह सर्वविदित है कि आरएसएस हमेशा से आदिवासियों को आदिवासी न कह कर वनवासी कहता है। इसके पीछे बहुत बड़ी चाल है जिसे समझने की ज़रूरत है। हमें उस चाल को समझना होगा। यह आलेख उसी चाल को समझाने के लिए लिखा जा रहा है। इसके बारे में हम कुछ बिंदुओं के जरिये बात करेंगे-

कौन हैं आदिवासी

यह सभी जानते हैं कि हमारे देश में भिन्न-भिन्न समुदाय रहते हैं जिनकी अपने-अपने धर्म तथा अलग-अलग पहचान हैं। अदिवासी जिन्हें संविधान में अनुसूचित जनजाति कहा जाता है, भी एक अलग समुदाय है, जिसका अपना धर्म, अपने देवी देवता तथा एक विशिष्ट संस्कृति है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन्हें इंडिजीनियस पीपुल अर्थात मूलनिवासी भी कहा जाता है। इनके अलग भौगोलिक क्षेत्र हैं और इनकी अलग पहचान है।

हमारे संविधान में जनजाति क्षेत्र

हमारे संविधान में भी इन भौगोलिक क्षेत्रों को जनजाति क्षेत्र कहा गया है और उनके के लिए अलग प्रशासनिक व्यवस्था का भी प्रावधान है। इस व्यवस्था के अंतर्गत इन क्षेत्रों की प्रशासनिक व्यवस्था राज्य के मुख्यमंत्री के अधीन न हो कर सीधे राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधीन होती है जिसकी सहायता के लिए एक ट्राइबल एरिया काउंसिल होती है जिसकी अलग संरचना होती है। इन के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए संविधान की अनुसूची 5 व 6 भी है।

क्या है पेसा (PESA)

इन क्षेत्रों में ग्राम स्तर पर सामान्य पंचायत राज व्यवस्था के स्थान पर विशेष ग्राम पंचायत व्यवस्था जिसे Panchayats (Extension to Scheduled Areas Act, 1996) अर्थात PESA कहा जाता है तथा यह ग्राम स्वराज के लिए परंपरागत ग्राम पंचायत व्यवस्था है। इसमें पंचायत में सभी प्राकृतिक संसाधनों/खनिजों पर पंचायत का ही अधिकार होता है और उनसे होने वाला लाभ ग्राम के विकास पर ही खर्च किया जा सकता है। परंतु यह विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की सरकारों का ही षड्यंत्र है जिसके अंतर्गत केवल कुछ ही जनजाति क्षेत्रों में इस व्यवस्था को लागू किया गया है।

अधिकतर क्षेत्रों में सामान्य प्रशासन व्यवस्था लागू करके आदिवासी क्षेत्रों का शोषण किया जा रहा है, जिसका विरोध करने पर आदिवासियों को मारा जा रहा है। उन क्षेत्रों का जानबूझ कर विकास नहीं किया जा रहा है और खनिजों के दोहन हेतु आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा है। विभिन्न कार्पोरेट्स को आदिवासियों की ज़मीनें खाली कराकर पट्टे पर दी जा रही हैं और खनिजों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। फलस्वरूप पूरा आदिवासी क्षेत्र शोषण और सरकारी आतंक की चपेट में है।

इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है कि हमारे संविधान में दलित और आदिवासियों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के तौर पर सूचीबद्ध किया गया है। उन्हें राजनीतिक आरक्षण के अलावा सरकारी सेवाओं तथा शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण दिया गया है। हमारी जनगणना में भी उनकी उपजातिवार अलग गणना की जाती है।

इसके अतिरिक्त आदिवासियों पर हिन्दू मैरेज एक्ट तथा हिन्दू उत्तराधिकार कानून भी लागू नहीं होता है। इन कारणों से स्पष्ट है कि आदिवासी समुदाय का अपना अलग धर्म, अलग देवी- देवता, अलग रस्मो-रिवाज़ और अलग संस्कृति है।

आरएसएस का हिंदुत्व का मॉडल और आदिवासियों का बैर

उपरोक्त वर्णित कारणों से आरएसएस आदिवासियों को आदिवासी न कह कर वनवासी (वन में रहने वाले) कहता है क्योंकि इन्हें आदिवासी कहने से उन्हें स्वयम् को आर्य और आदिवासियों को अनार्य (मूलनिवासी) मानने की बाध्यता खड़ी हो जाएगी। इससे आरएसएस का हिंदुत्व का मॉडल ध्वस्त हो जाएगा जो कि एकात्मवाद की बात करता है। इसी लिए आरएसएस आदिवासियों का लगातार हिन्दुकरण करने में लगा हुआ है। इसमें उसे कुछ क्षेत्रों में सफलता भी मिली है जिसका इस्तेमाल गैर हिंदुओं पर आक्रमण एवं उत्पीड़न करने में किया जाता है। यह भी एक सच्चाई है कि ईसाई मिशनरियों ने भी कुछ आदिवासियों का मसीहीकरण किया है, परंतु उन्होंने उनका इस्तेमाल गैर मसीही लोगों पर हमले करने के लिए नहीं किया है।

आरएसएस का मुख्य ध्येय आदिवासियों को आदिवासी की जगह वनवासी कह कर तथा उनका हिन्दुकरण करके हिंदुत्व के माडल में खींच लाना है और उनका इस्तेमाल गैर- हिंदुओं को दबाने में करना है। इसके साथ ही उनके धर्म परिवर्तन को रोकने हेतु गलत कानून बना कर रोकना है जबकि हमारा संविधान सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है।

बहुत से राज्यों में ईसाई हुए आदिवासियों की जबरदस्ती घर वापसी करवा कर उन्हें हिन्दू बनाया जा रहा है। इधर आरएसएस ने आदिवासी क्षेत्रों में एकल स्कूलों की स्थापना करके आदिवासी बच्चों का हिन्दुकरण (जय श्रीराम का नारा तथा राम की देवता के रूप में स्थापना) करना शुरू किया है। इसके इलावा आरएसएस पहले ही बहुत सारे वनवासी आश्रम चला कर आदिवासी बच्चों का हिन्दुकरण करती आ रही है। देश के अधिकतर राज्यों में भाजपा की सरकारें स्थापित हो जाने से यह प्रक्रिया और भी तेज हो गयी है।

आरएसएस आदिवासियों को वनवासी घोषित करके उनके अस्तित्व को ही नकारने का प्रयास कर रहा है। यह न केवल आदिवासियों बल्कि पूरे देश की विविधता के लिए खतरा है। अतः आदिवासियों को आरएसएस की इस चाल को समझना होगा तथा उनकी अस्मिता को मिटाने के षड्यंत्र को विफल करना होगा।

डॉ अम्बेडकर की फोटो से भक्ति , विचार से नफ़रत

5 अक्टूबर 22 के दिन अंबेडकर भवन,नई दिल्ली में जय भीम मिशन द्वारा बौद्ध धम्म की दीक्षा दिलाई गई। यह कार्यक्रम 2 वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद सम्पन्न हुआ। जय भीम मिशन के संस्थापक दिल्ली सरकार में रहे समाज कल्याण मंत्री राजेन्द्र पाल गौतम जी थे और इन्हीं के नेतृत्व में बौद्ध धम्म की दीक्षा का आयोजन हुआ। जैसे ही भाजपा को पता लगा इस पर हमला बोल दिया कि हिन्दू धर्म का अपमान हुआ है। कार्यक्रम के नायक दबाव में आ गये। जब कार्यक्रम के कर्ता-धर्ता थे तो यह स्वीकार करने में क्यों डरे  क्यों? जिन 10 हजार लोगों ने इनके साथ दीक्षा ली, उनको नेतृत्वविहीन कर दिया और कहा कि 22 प्रतिज्ञाओं के कारण हिन्दू धर्म को ठेस पहुंचा है तो वो माफ़ी मांगते हैं। सोचा था कि माफ़ी मांगने से पीछा छूट जाएगा  लेकिन मामला बढ़ता गया।

 इस्तीफ़ा देने के बाद मामला और तूल पकड लिया और समर्थक भी सकते में आ गये। मीडिया ने भी घेरा -घारी शुरू कर दिया।  तो जवाब क्या देना था वह भी बड़ा अचम्भित करने वाला है। गौतम जी ने कहा कि उनकी पार्टी– आम आदमी पार्टी गुजरात में चुनाव लड़ रही है। उस क्षति को बचाने के लिए इस्तीफ़ा दिया यह कहते नही थके नही कि वह अपने नेता अरविन्द केजरीवाल की छवि खराब न हो इसलिए ऐसा किया। इन्हें 14 अक्टूबर 1956 में बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा बौद्ध धम्म की दीक्षा लेते समय 22 प्रतिज्ञा के साथ खड़ा  होना जरुरी नही समझा बल्कि अपने नेता को बचाना ज्यादा जरुरी लगा। कार्यक्रम के तैयारी के समय क्या इसका परिणाम के बारे नहीं सोचना था? समाज परिवर्तन करना आसान नहीं है और इसके लिए कुर्बानी भी देनी पड़ता है। यह सब करने के बाद भी यह कहना कि मिशन जारी रखेंगे तो कुछ अजीब सा ही लगता है। सही वक्त तो यही था कि कहते उन्होंने 22 प्रतिज्ञाओं की शपथ दिलाई और अगर यह गलत है तो बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ऐसी गलती पहले ही कर चुके हैं। अगर हिम्मत से खड़े रहते तो भाजपा भी पीछे हटती और बाबा साहेब की फोटो लगाने वाले हीरो केजरीवाल की भी हिम्मत ना होती कि इस्तीफ़ा मांग लेते।

भावना और प्रचार के चकाचौंध में जनता गुमराह हो जाती है। आम आदमी पार्टी दो ही महापुरुष का फोटो लगाती है। एक हैं- शहीद भगत सिंह और दूसरे डॉ. बी आर अम्बेडकर। अक्सर समर्थक फोटो देखकर ही भावविह्वल हो जाते हैं। बाबासाहेब अम्बेडकर को मानने वाले फोटो से ही प्रभावित हो रहे हैं। सवाल-जवाब नहीं कर हैं कि विचार का क्या होगा? भाजपा ने भी अम्बेडकर सर्किल बनाया जो दिल्ली, महू, नागपुर से होते हुए चैत्य भूमि बम्बई तक पहुँचता है। भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी से पूछना चाहिए कि क्या उनका फ्रेम फोटो तक ही है कि विचार से भी लेना- देना है। जब इतना सब कुछ हो गया है और जिसके लिए है उनका भी उल्लेख करना जरुरी है।

अब देखें बाबा साहेब की 22 प्रतिज्ञाएँ  –

  1. मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई विश्वास नहीं करुँगा और न ही मैं उनकी पूजा करुँगा।
  2. मैं राम और कृष्ण, जो भगवान के अवतार माने जाते हैं, में कोई आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करुँगा।
  3. मैं गौरी, गणपति और हिंदुओं के अन्य देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करुँगा।
  4. मैं भगवान के अवतार में विश्वास नहीं करुँगा।
  5. मैं यह नहीं मानता और न कभी मानूँगा कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार थे। मैं इसे पागलपन और झूठा प्रचार-प्रसार मानता हूँ।
  6. मैं श्राद्ध में भाग नहीं लूँगा और न ही पिंड-दान दूँगा।
  7. मैं बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों का उल्लंघन करने वाले तरीके से कार्य नहीं करुँगा।
  8. मैं ब्राह्मणों द्वारा कोई भी कार्यक्रम नहीं कराऊँगा।
  9. मैं मनुष्य की समानता में विश्वास करता हूँ।
  10. मैं समानता स्थापित करने का प्रयास करुँगा।
  11. मैं बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग का अनुशरण करूँगा।
  12. मैं बुद्ध द्वारा निर्धारित दस पारमिताओं का पालन करुँगा।
  13. मैं सभी जीवित प्राणियों के प्रति दया रखूँगा तथा उनकी रक्षा करुँगा।
  14. मैं चोरी नहीं करुँगा।
  15. मैं झूठ नहीं बोलूँगा।
  16. मैं कामुक पापों को नहीं करुँगा।
  17. मैं शराब, ड्रग्स जैसे मादक पदार्थों का सेवन नहीं करुँगा।
  18. मैं महान आष्टांगिक मार्ग के पालन का प्रयास करुँगा एवं सहानुभूति और प्यार भरी दयालुता का दैनिक जीवन में अभ्यास करुँगा।
  19. मैं हिंदू धर्म का त्याग करता हूँ जो मानवता के लिए हानिकारक है और उन्नति और मानवता के विकास में बाधक है। क्योंकि यह असमानता पर आधारित हैं, और स्व-धर्म के रूप में बुद्ध धम्म को अपनाता हूँ।
  20. मैं ढृढ़ता के साथ यह विश्वास करता हूँ कि बुद्ध धम्म ही सच्चा मार्ग है।
  21. मुझे विश्वास है कि मैं फिर से जन्म लें रहा हूँ (धर्म परिवर्तन के द्वारा)
  22. मैं गंभीरता एवं दृढ़ता के साथ घोषित करता हूँ कि मैं इसके (धर्म परिवर्तन के) बाद अपने जीवन का बुद्ध के सिद्धांतों व शिक्षाओं एवं उनके धम्म के अनुसार मार्गदर्शन करुँगा। बीजेपी ने जिन प्रतिज्ञा के कारण विरोध किया, उसी की सरकार ने  ये प्रतिज्ञाएँ अंबेडकर वांग्मय के हिंदी Vol-37, पेज न. 498 से 524  और अंग्रेजी Vol- 17 के पार्ट न. 3, पेज 524 से 558 में छपवा रखा है। गौतम जी यह बोलते तो भाजपा वाले भाग खड़े होते।

तर्क और सत्य के साथ खड़ा रहना सबके बस का नहीं। यही तो वक्त था जब डट कर खड़ा होना था। अब पूरे देश में सवाल खड़ा किया जाए कि क्या बीजेपी और आम आदमी पार्टी को डॉ. आंबेडकर के फोटो से ही प्रेम और विचार से इतनी नफरत। इनके अनुआयी भी जुबान से ही  22 प्रतिज्ञा की रट ना लगाएं बल्कि वो अपने जीवन में भी उतारें। अगर इनको बाबा साहेब के विचारों से इतनी ही नफरत है तो खुलकर सामने आ जाएँ। आम आदमी पार्टी अपने कार्यालय से डॉ. आंबेडकर की तस्वीर को हटा दें, भाजपा बाबा साहेब का नाम लेकर बात न करे। इन लोगों को लुका छिपी बंद कर देना चाहिए। गुजरात एवं हिमाचल के चुनाव में भी यह विमर्श को स्थान देना बनता है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2022 के आइनें में

असमानता ख़त्म करने का एक अभिनव विचार ! विश्व आर्थिक महाशक्ति बनने का ढिंढोरा पीटने वाली मोदी सरकार की पोल खोलने वाली एक और रिपोर्ट सामने आई है. वह है ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2022, जिसे मोदी सरकार ने नकार दिया है. हर वर्ष अक्तूबर के दूसरे सप्ताह के अंत में प्रकाशित होने वाली ग्लोबल हंगर इंडेक्स(जीएचआई) की ताजी रिपोर्ट 15 अक्तूबर, 2022 को प्रकाशित हुई है, जिसमे बताया गया है कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2022 में भारत की रैंकिंग 121 देशों में107है. दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान को छोड़कर तकरीबन सभी देशों से भारत लिस्ट में पीछे है. मोदी राज में किसी भी क्षेत्र में शर्मनाक परिणाम देने वाला भारत यदि पकिस्तान से थोडा भी बेहतर परिणाम दे देता है तो राष्ट्रवादी सारी बातें भूल जाते हैं. किन्तु जीएचआई की ताजी रिपोर्ट में ऐसी कोई राहत नहीं मिली है. अगर भारत के पड़ोसी मुल्कों में श्रीलंका का रैंक 64, नेपाल का 81और चीन का सामूहिक रूप से 1 से 17 के बीच है तो पाकिस्तान का रैंक भी 99 है. भारत थोड़ी राहत की सांस ले सकता कि अफगानिस्तान जैसे एक मुस्लिम देश की रैंकिग उससे कुछ बदतर है:अफगानिस्तान का रैंक 109 है!

 ऐसा नहीं कि यह अचानक हुआ है: मोदी राज में लगभग हर साल यही स्थिति रही है. मोदी राज जमकर स्थापित होने के पहले भुखमरी से उबरने के लिए प्रयासरत देशों में भारत की रैंकिंग 2011, 2012, 2013 और 2014 में क्रमशः67, 66, 63 और 55 रही. मोदी राज  के ठीक से स्थापित होने के बाद यह अचानक जम्प करके 2015 में 80 ,2016में 97 और 2017 में 100 हो गयी और भारत पडोसी मुल्को से मात खाता रहा. 2021 की सूची में पड़ोसी देश- पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल भारत से आगे थे. बहरहाल जीएचआई की इस रिपोर्ट का सम्पर्क मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी से है और मोदी – राज में इससे जुड़ी हर रिपोर्ट/इंडेक्स में भारत की स्थिति बद से बदतर होती गयी है.

बहरहाल मोदी- राज  में भारत ने हंगर इंडेक्स में ही शर्मनाक रैंकिग हासिल नहीं किया है ,  विगत वर्षों में मानव विकास सूचकांक, क्वालिटी ऑफ़ लाइफ, जच्चा-बच्चा मृत्यु दर , प्रति व्यक्ति डॉक्टरों की उपलब्धता, क्वालिटी एजुकेशन इत्यादि से जुड़ी जितनी भी इंडेक्स/रिपोर्ट्स जारी होती रही हैं, उसकी स्थिति बद से बदतर ही नजर आई है. किन्तु जिस रिपोर्ट ने भारत की स्थिति सबसे शर्मनाक की है, वह है ग्लोबल जेडर गैप रिपोर्ट! वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा 2006 से हर वर्ष जो ‘वैश्विक लैंगिक अन्तराल रिपोर्ट’ प्रकाशित हो रही है, उसमें साफ़ पता चलता है कि भारत में महिलाओं की स्थिति करुण से करुणतर हुए जा रही है और भारत दक्षिण एशियाई देशों सबसे नीचले पायदान पर है. बहरहाल आधी आबादी की करुणतर स्थिति को देखते हुए ‘वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट: 2020’  में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि भारत में महिलाओं को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लग सकते हैं. यह कितनी चिंताजनक स्थिति इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इसकी 2019 की रिपोर्ट में 202 साल लगने का अनुमान लगाया गया था.लेकिन अगले एक साल में 202 से बढ़कर 257 हो गया, जो इस बात का संकेतक कि मोदी-राज में महिलाओं की स्थिति आश्चर्यजनक रूप से बद से बदतर होती जा रही है . अब यदि आधी आबादी को पुरुषों के बराबर आने में ढाई सौ साल से अधिक लग सकते हैं तो मानना पड़ेगा कि भारत में आर्थिक और सामाजिक विषमता की स्थिति अत्यंत भयावह है.

दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के रूप चिन्हित भारत विश्व के सबसे असमान देशों में से एक है. ऐसी असमानता विश्व में शायद ही कहीं और हो, इस बात पर मोहर वर्ष 2021 में लुकास चांसल द्वारा लिखित और चर्चित अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटि, इमैनुएल सेज और गैब्रियल जुकमैन द्वारा समन्वित जो ‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022’ में भी लगी. 2015 के बाद क्रेडिट सुइसे और ऑक्सफाम की प्रकाशित सभी रिपोर्टों में ही भारत में बढती भयावह आर्थिक विषमता को लेकर चिंता जाहिर की जाती रही है. पर,मोदी सरकार इसकी अनदेखी करती इसलिए हम विगत वर्षों से प्रकाशित रिपोर्टो में देश की स्थित देखकर शर्मसार हुए जा रहे हैं. बहरहाल जो लोग देश की शर्मनाक स्थिति से चिंतित हैं, उन्हें ही सारी समस्याओं की जननी आर्थिक और सामाजिक विषमता से पार पाने का कोई क्रांतिकारी उपाय ढूँढना होगा. इस मामले में काबिले गौर है कि विषमता से पार पाने के सारे उपाय विफल हो चुके हैं और यह समस्या नित नयी ऊँचाई छूती जा रही है. ऐसे में इससे पार पाने के लिए किसी अभिनव परिकल्पना पर विचार करना होगा .

आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए हमारे देश के योजनाकारों की ओर से कई प्रयास हुए पर, इस मामले में एक साधे, सब  सधे की कहावत को चरितार्थ करने का प्रयास नहीं हुआ. ऐसा करने पर विषमता-जन्य किसी खास समस्या पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ता और उस समस्या के खात्मे के रास्ते आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे का पूरा लक्ष्य पा जाते. इससे विषमता के खात्मे के कई मोर्चों पर मुस्तैद नहीं होना पड़ता. अगर लगता है कि इस बात में दम है तो हम विषमता से उपजी ऐसी किसी खास समस्या पर ध्यान करें जो सबसे गंभीर हो. और जब हम ऐसी किसी समस्या पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो सबसे पहले जेहन में उभरती है भारत की आधी आबादी की समस्या, जिसके बारे में वैश्विक लैंगिक अन्तराल 2020 में बताया गया है कि भारत की महिलाओं को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लगने हैं. ध्यान रहे हमारी आधी आबादी 66 करोड़ है,  यूरोप के प्रायः तीन दर्जन देशों से अधिक , अमेरिका की कुल आबादी का डबल और लैटिन अमेरिका की सकल आबादी के बराबर है. ऐसे में क्या हमारी आधी आबादी की आर्थिक असमानता से बड़ी कोई समस्या पूरे विश्व में है! अगर नहीं तो यदि आधी आबादी की समानता को ध्यान में रखकर विषमता के खिलाफ लड़ाई लड़ें, तो शायद बहुत ही बेहतर परिणाम दे पाएंगे!

इसमें ज्यादे मगजपच्ची की जरुरत नहीं कि भारत में आर्थिक और सामाजिक असमानता  का सर्वाधिक शिकार महिलायें हैं और महिलाओं में भी सर्वाधिक शिकार क्रमशः दलित और आदिवासी महिलाएं! यदि सवर्ण समुदाय की महिलाओं को आर्थिक समानता अर्जित करने में 250 साल लग सकते हैं तो दलित-आदिवासी महिलाओं को 350 साल से अधिक लग सकते हैं. बहरहाल भारतीय महिलाओं को 257 वर्षो के बजाय आगामी कुछेक दशकों में आर्थिक समानता दिलाना है तो इसके लिए अबतक आजमाए गए उपायों से कुछ अलग करना होगा. इस मामले में मेरे पास एक नया विचार है. इसके लिए हमें अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में दो उपाय करने होंगे. सबसे पहले यह करना होगा कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में सवर्ण पुरुषों को, जिनकी आबादी बमुश्किल 7-8 प्रतिशत होगी,उनको उनकी संख्यानुपात पर लाना होगा. इसके लिए सवर्ण पुरुषों को प्राथमिकता के साथ समस्त क्षेत्रों में उनकी संख्यानुपात में उनको आरक्षण देकर उन्हें शक्ति के स्रोतों-आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक- में 7-8 प्रतिशत सीमित कर दिया जाय  ताकि उनके हिस्से का औसतन 70 प्रतिशत अतिरक्त(Surplus) अवसर वंचित वर्गो, विशेषकर आधी आबादी में बंटने का मार्ग प्रशस्त हो सके.

दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासियों की दुर्दशा के मूल में यही कारण था कि विदेशी मूल के गोरों ने अवसरों और संसाधनों पर अपने संख्यानुपात से कई गुना कब्ज़ा जमा कर बहुसंख्य लोगों के समक्ष भयावह समस्या खड़ी कर दिया था. बाद में कानून बनाकर गोरों को संख्यानुपात पर रोकने के बाद ही वहां के मूलनिवासियों में वाजिब मात्रा में अवसर बंटने की शुरुआत हुई. बहरहाल अवसरों के बंटवारे में सवर्ण पुरुषों को उनके संख्यानुपात में सिमटाने के बाद दूसरा उपाय यह करना होगा कि अवसर और संसाधन प्राथमिकता के साथ आधी आबादी के हिस्से में जाए! इसके लिए अवसरों के बंटवारे के पारंपरिक तरीके से निजात पाना होगा. पारंपरिक तरीका यह है कि अवसर पहले जेनरल अर्थात सवर्णों के मध्य बंटते हैं,उसके बाद बचा हिस्सा वंचित अर्थात आरक्षित वर्गो को मिलता है. यदि हमें 257 वर्षो के बजाय आगामी कुछ दशकों में लैंगिक समानता अर्जित करनी है तो अवसरों और संसाधनों के बंटवारे के रिवर्स पद्धति का अवलंबन करना होगा अर्थात सबसे पहले एससी/एसटी, उसके बाद ओबीसी, फिर धार्मिक अल्पसंख्यक और शेष में जेनरल अर्थात सवर्णों को अवसर निर्दिष्ट करना होगा.

हमें भारत के विविधतामय प्रमुख सामाजिक समूहों- दलित, आदिवासी, पिछड़े, धार्मिक अल्पसंख्यकों और जेनरल अर्थात सवर्ण – को दो श्रेणियों -अग्रसर अर्थात अगड़े और अनग्रसर अर्थात पिछड़ों-  में विभाजित कर, सभी सामाजिक समूहों की महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देने का प्रावधान करना होगा.इसके तहत संख्यानुपात में क्रमशः अति दलित और दलित; अनग्रसर आदिवासी और अग्रसर आदिवासी;अति पिछड़े और पिछड़े ;अनग्रसर और अग्रसर अल्पसंख्यकों तथा अनग्रसर और अग्रसर सवर्ण महिलाओं को संख्यानुपात में अवसर सुलभ कराने का अभियान युद्ध स्तर पर छेड़ना होगा.एससी/एसटी, ओबीसी,धार्मिकअल्पसंख्यकों और सवर्ण समुदाय की अगड़ी-पिछड़ी महिलाओं को इनके समुदाय के संख्यानुपात का आधा हिस्सा देने के बाद फिर बाकी आधा हिस्सा इन समुदायों के अगड़े- पिछड़े पुरुषों के मध्य वितरित हो. यदि विभिन्न समुदायों की महिलाएं अपने प्राप्त हिस्से का सदुपयोग करने की स्थिति में न हों तो उनके हिस्से का बाकी अवसर उनके पुरुषों के मध्य ही बाँट दिया जाय: किसी भी सूरत में उनका हिस्सा अन्य समुदायों को न मिले.

यदि हमशक्ति के विविध स्रोतों – सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की,सभी प्रकार की नौकरियों, पौरोहित्य,डीलरशिप; सप्लाई,सड़क-भवननिर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन; शिक्षण संस्थानों, विज्ञापन व एनजीओ को बंटने वाली राशि,ग्राम-पंचायत,शहरी निकाय, संसद-विधानसभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट;विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद-राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादिके कार्यबल- में क्रमशः दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक, और सवर्ण समुदायों की महिलाओं को इन समूहों के हिस्से का 50 प्रतिशत भाग सुनिश्चित कराने में सफल हो जाते हैं तो भारत 257 वर्षों के बजाय 57 वर्षों में लैंगिक समानता अर्जित कर विश्व के लिए एक मिसाल बन जायेगा. तब मुमकिन है हम लैंगिक समानता के मोर्चे पर आइसलैंड, फ़िनलैंड, नार्वे, न्यूलैंड, स्वीडेन इत्यादि को भी पीछे छोड़ दें. यही नहीं उपरोक्त क्षेत्रों के बंटवारे में सर्वाधिक अनग्रसर समुदायों के महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देकर लैंगिक असमानता के साथ भारत से मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या, आर्थिक और सामाजिक के खात्मे में भी शर्तिया तौर पर सफल हो सकते हैं. कारण, सर्वाधिक पिछड़े समुदायों की महिलाओं के साथ उन समुदायों का बाकी बचा 50 प्रतिशत हिस्सा अनिवार्य रूप से उनके पुरुषों को मिलेगा. इस तरह  विविधतामय सभी समाजों को उनका शत प्रतिशत हिस्सा मिलने का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा. ऐसा होने पर कोई भी समुदाय वंचित नहीं रहेगा. सभी को उनकी महिलाओं के रास्ते उनका पूरा हिस्सा मिलने का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा. यदि हम इस अभिनव परिकल्पना को जमीन पर उतार सके तो ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट हो या ग्लोबल हंगर इंडेक्स: हम हर रिपोर्ट/इंडेक्स पर शर्मसार होने के बजाय गर्वकरने की स्थिति में आ जायेंगे!

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. संपर्क: 9654816191)

मोहन भागवत के शब्द खोखले क्यों हैं?

“वर्ण और जाति को त्याग देना चाहिए। हमारे पूर्वजों ने गलतियाँ की हैं, और उन गलतियों को स्वीकार करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए,” संघ प्रमुख डॉ मोहन भागवत ने पिछले सप्ताह नागपुर में कहा था। यह पहली बार नहीं है जब डॉ. भागवत ने ऐसी घोषणाएं की हैं।
2012 में, लोकसत्ता के साथ एक आइडिया एक्सचेंज सत्र में, डॉ भागवत ने जाति और आरएसएस में दलितों और महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर सवाल खड़े किए। वह एक सौम्य राष्ट्रवादी पिता तुल्य होने की आड़ में बंद थे, जो भेदभाव नहीं करते, फिर भी दलितों को “इन वर्गों” के रूप में संदर्भित करते हैं।
आइडिया एक्सचेंज के दौरान भागवत ने कहा कि आरएसएस जाति का समर्थन नहीं करता और जातिविहीन समाज में विश्वास करता है। “किसी भी प्रणाली को समय के साथ विकसित होना चाहिए। हम उस संरचना को लागू करने से पूरी तरह असहमत हैं जो एक हजार साल पहले चल रही थी।” उन्होंने एक बिंदु और आगे कहा, “इतने सारे लोगों के प्रयास के बावजूद जाति नहीं जा रही है क्योंकि यह लोगों के दिमाग में है। हम इस बहस में नहीं पड़ते कि वर्ण अतीत में उपयोगी था या नहीं। हम एक ऐसा समाज चाहते हैं जो समान और शोषण से मुक्त हो।” उन्होंने आर्थिक के विपरीत सामाजिक आरक्षण के प्रगतिशील तर्क को भी समझाया। “हम लोगों को बताते हैं कि एक ऐसा समूह था जिसने 2,000 वर्षों तक लाभ का आनंद लिया था, जब कोई आरक्षण नहीं था, यह समूह निरंतर लाभ का आनंद ले रहा था।”
भागवत ने जाति और वर्ण के सवाल को अपने साथी, जनेऊ धारण करने वाले, कर्मकांड में विश्वास रखने वाले हिंदुओं को संबोधित किया, जो रोजमर्रा की जिंदगी में जाति का प्रयोग करते हैं और इसे अपने पूर्वजों द्वारा संपन्न एक पवित्र मूल्य के रूप में पेश करते हैं।
दुर्भाग्य से, देश में जातिवाद और जातिगत हिंसा का सामना करने के लिए आरएसएस द्वारा अक्षम्य निष्क्रियता के कारण ये प्रेरक घोषणाएं बुरी तरह से प्रभावित हुई हैं। आरएसएस के पूर्व प्रमुख बालासाहेब देवरस ने चार दशक पहले इसी तरह की भावना व्यक्त की थी, और रिपोर्ट कार्ड दयनीय है।
जाति से छुटकारा पाने का क्या मतलब है? यह उन सभी संरचनाओं को नष्ट करना है जो समानता और समान अवसर में बाधक हैं। यह उन लोगों के लिए रास्ता बनाना है जिन पर अत्याचार किया गया है। यह उन गलतियों के बारे में नैतिक अपराधबोध की पीड़ा है जिनके परिणाम ने शीर्ष पर रहने वालों के आराम के लिए उदारतापूर्वक मार्ग प्रशस्त किया है। यह कि अपमान और चोट के बिना विविधता की अनुमति देश के धन और संसाधनों के पुनर्वितरण और संपत्ति में समानता रखने से प्रमाणित होती है। यह सभी के लिए अपनी क्षमता के अनुसार समान रूप से बढ़ने और उन्हें करदाता बनाकर राष्ट्रीय जीवन में शामिल करने के अवसर पैदा करना है।
यह सामयिक विस्फोट कहाँ से आता है? यह अंतर-ब्राह्मण प्रतिद्वंद्विता और संघर्षों में है। व्यापक समूह चितपावन, देशसस्ता, करहड़े, देवरुखे और सारस्वत हैं। प्रत्येक जाति कबीले दूसरे से श्रेष्ठ होने का दावा करती है। तटीय ब्राह्मण देशस्थ ब्राह्मणों को दक्कन के पठार में मुसलमानों के साथ दोस्ती करने के लिए हीन मानते हैं। देशस्थ ने चितपावन पर पलटवार किया।
यह पवित्रता के बारे में एक बहस है, जो जाति की स्थिति का एक प्रमुख संकेत है। इंट्रा-ब्राह्मण तनाव एक अनसुलझा संघर्ष है, जहां मध्य भारत और आंध्र देश के ब्राह्मणों ने राष्ट्रवाद का एक नया सिद्धांत तैयार किया है जिसमें वे ब्राह्मण अनुष्ठान अभिजात वर्ग के टाइटन्स द्वारा उन्हें अस्वीकार किए गए स्थान पर कब्जा कर लेते हैं।
आरएसएस को अंततः अंबेडकर, बुद्ध और अन्य गैर-ब्राह्मणवादी पूर्वजों के साहस और विद्रोही इतिहास के तहत निर्देशित दलित कौशल की ताकत के साथ आना होगा। दलित कोई भोली प्रजाति नहीं है जिसे आसानी से घुमाया जा सके। वे अपने पूर्वजों के शासन को वापस लाने के लिए काम करते हैं। जबकि प्रतिवादी बल अत्याचार करता रहता है, शासक बनने के उनके सपने प्रतिबंधित हैं।
यह देखते हुए कि आरएसएस ने सक्रिय रूप से समाज से जाति को खत्म करने की कोशिश नहीं की है, पदानुक्रमित वर्ण संरचना अभी भी अपने कार्यकर्ताओं द्वारा पवित्र है। शपथ ग्रहण करने वाले हिंदू दलितों पर हो रहे अत्याचारों को चुनौती नहीं देते। जब हाथरस जैसे मामले होते हैं, तो डॉ भागवत के शब्दों की ईमानदारी खोखली हो जाती है। वे केवल आरएसएस द्वारा भाजपा को छाया देने की कोशिश कर रहे एक पक्ष की बात है और दोहराते हैं कि वे अभी भी शॉट्स को कॉल करने वाले हैं।
इंडियन एक्सप्रेस में अंग्रेजी में प्रकाशित लेख का हिन्दी अनुवाद  एस आर दारा पुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट द्वारा किया गया है। 

In solidarity with Rajendra Pal Gautam, Strong condemnation of Delhi and central government

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NRI Ambedkarites from USA, Canada, UK, Germany, France, Nederland, Ireland, Spain, Sweden, Japan, Korea, Singapore, New Zealand, Belgium, Hungary, Australia, UAE, Oman, Qatar, Saudi Arabia, Bahrain and Malaysia condemn the manner in which Delhi’s Social Welfare minister Rajendra Pal Gautam had to resign from his post due to his presence at an event embracing Buddhism in Delhi on Wednesday October 5th 2022.Rajendra Pal Gautam attended the Ashoka Vijaya Dashami celebrations at Ambedkar Bhawan in Jhandewalan, where over 10,000 people from various religions embraced Buddhism. We condemn the manner in which mainstream Indian media villainized Mr Gautam, tried to defame him by taking some vows out of context, mischaracterizing them and attempting to divide the society.

The gathering, an annual affair held every October, was a peaceful event organized by a local social groups called the Buddhist Society of India and Mission JaiBheem. Dozens of such events take place every year all over India where thousands of people embraced peacefully to Buddhism. This event in Delhi was no different. These events commemorate the 1956 mass embracing Buddhism held at Nagpur on October 14, 1956 known as Ashok Vijaya Dashmi, where Dr. BR Ambedkar led lakhs of people in adopting Buddhism by taking the famous 22 vows. The same 22 vows were also recited peacefully at the event in Delhi, where Mr. Gautam was present. Reciting the 22 vows is a common practice in all embracing Buddhism ceremonies. These vows are nothing but a guide to an individual to stay away from superstition, not to believe in caste system and treat everyone with dignity and respect. There is nothing disrespectful to any community in the 22 vows. We condemn the attempts made by mainstream media to spread negative propaganda against the 22 vows.

During this distressing time, the NRI Ambedkarites are seething with pain, sadness and are appalled at the turn of events.  We offer solidarity to Mr. Gautam in this difficult time. We trust that the government will fulfill its constitutional obligation and prevent attempts by media and anti-social elements to divide the society. The world is watching.

https://twitter.com/AdvRajendraPal/status/1579071211497480192?s=20&t=i6-ZtGpTAyc3JFu_7ulwfA

List of endorsing organization

  1. Buddhist Council of America (BCA)
  2. Dhamma Waves, Canada
  3. Ambedkar Association of North America (AANA)
  4. Ambedkar Buddhist association of Texas (ABAT)
  5. Ambedkar International Mission, USA (AIM)
  6. B. R. Ambedkar International Mission Center, Houston Texas
  7. Ambedkar International Mission, Japan (AIM)
  8. Ambedkar International Mission, UAE (AIM)
  9. Ambedkar International Center (AIC)
  10. Boston Study Group (BSG)
  11. Coalition of Seattle Indian American’s (CSIA)
  12. Dr Ambedkar Buddhist Society ,New York
  13. International Bahujan Organization, New York
  14. International Boddhisatva Guru Ravidas Organization, New York
  15. Ambedkar Mission, Toronto, Canada
  16. Ambedkarites International Mission Society-Canada (AIMS)
  17. Ambedkar King Study Circle, USA (AKSC)
  18. Periyar International USA
  19. SamataSainik Dal HQ Deekshabhumi Nagpur (SSD)
  20. South Asian Dalit Adivasi Network Canada (SADAN)
  21. Dr Ambedkar Buddhist organisation Birmingham UK
  22. Dr Ambedkar Mission Society Glasgow Scotland
  23. Dr Ambedkar Mission Society Europe
  24. Indian Association of Minorities New Zealand.(IAM)
  25. Mulnivasi Nayak
  26. International SSD, California,USA
  27. BhimPatrika Media
  28. Ambedkar Nama
  29. Dalit Dastak
  30. Ambedkar Times
  31. Blue Morning Weekly
  32. Lokmanya Samiti, Maharashtra, India
  33. Ambedkar Chetna Parishad, Jharkhand
  34. BodhimaggoMahavihara
  35. Human Metta Foundation

डॉ.आम्बेडकर और गाँधी आमने-सामने

मोहनदास करमचंद गांधी (2 अक्टूबर 1869 – 30 जनवरी 1948) की जिस व्यक्तित्व से निरंतर वैचारिक, राजनीतिक और नैतिक टकराहट होती रही, उस व्यक्तित्व का नाम डॉ. भीम राव आंबेडकर ( 14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956 )। दोनों के पास भारत के भविष्य के भारत के निर्माण का एक मुकम्मिल स्वप्न था। जिसके प्रति दोनों पूरी तरह प्रतिबद्ध थे। दोनों आधुनिक भारत के ऐसे व्यक्तित्व थे, जो एक साथ चिंतक, विचारक,नेता और संघर्षशील कार्यकर्ता थे। जहां गांधी का यह मानना था कि ब्रिटिश औपनिवेशिक दासता से भारत की मुक्ति सबसे बड़ा कार्यभार है, यही भारत की समस्याओं की मूल जड़ है। वहीं आंबेडकर का मानना था कि वर्ण-जाति की व्यवस्था से मुक्ति का संघर्ष ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था से मुक्ति के संघर्ष जितना ही जरूरी और महत्वपूर्ण है और दोनों संघर्ष एक साथ चलाया जाना चाहिए। वर्ण-जाति व्यवस्था को ही वे ब्राह्मणवाद कहते थे। जहां गांधी आदर्श समाज के रूप में रामराज्य की कल्पना करते थे, वहीं आंबेडकर बुद्ध से प्रेरणा लेते हुए स्वतंत्रता, समता और बंधुता पर आधारित भारत के निर्माण का स्वप्न देखते थे। दोनों नैतिक प्रेरणा के लिए धर्म की आवश्कता महसूस करते थे, लेकिन जहां अन्य धर्मों को सम्मान देते हुए गांधी हिदू धर्म को अपने नैतिक प्रेरणा का स्रोत मानते थे,वहीं आंबेडकर हिंदू धर्म को पूर्णतया खाारिज करते थे। गांधी के धर्म में ईश्वर और आस्था के लिए जगह थी, जबकि आंबेडकर बुद्ध धम्म के रूप में एक ऐसे धर्म की बात करते थे, जिसमें ईश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी और जिसमेें आस्था नहीं तर्क धर्म के केंद्र में था।
जीवन शुरूआती बड़े हिस्से में गांधी वर्ण-व्यवस्था और जाति व्यवस्था दोनों का समर्थन करते रहे, बाद में उन्होंने अस्पृश्यता के साथ जााति व्यवस्था का विरोध करना शुरू कर दिया और अन्तरजातीय विवाहों का भी समर्थन करने लगे, लेकिन जीवन के अंतिम समय तक वे वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते रहे। इसके विपरीत आंबेडकर वर्ण-व्यवस्था और जाति व्यवस्था दोनों को एक दूसरे का पर्याय मानते थे और उनका कहना था कि गांधी वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करके जाति व्यवस्था के पक्ष में ही खड़े हो जाते हैं, क्योंकि वर्ण-व्यवस्था से ही जाति व्यवस्था निकली है। गांधी अछूत प्रथा के खिलाफ संघर्ष करते रहे, आंबेडकर कहते थे कि छुआछूत का खात्मा वर्ण-जाति व्यवस्था के खात्में के बिना नहीं हो सकता है।
उम्र में भले ही गांधी आंबेडकर से करीब 23 वर्ष बडे थे, लेकिन भारत में दोनों के संघर्षों की शुरूआत कमोवेश एक साथ ही होती है। गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत आते हैं जबकि उनकी उम्र करीब 46 वर्ष है और 1921 में कांग्रेस बागडोर संभालते हैं। आंबेडकर 1917 में कोलंबिया विश्विद्यालय से पी-एच.डी की डिग्री प्राप्त करके वापस भारत आते हैं और 1918 में वर्ण-जाति व्यवस्था के खिलाफ अपने संघर्षो की शुरूआत तब करते हैं, जब वे नागपुर में शोषित वर्गो के सम्मेलन में शिरकत करते हैं। भारत में संघर्षों की शुरूआत के साथ ही गांधी के निशाने पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन है, तो आंबेडकर के निशाने पर वर्ण-जाति व्यवस्था है। गांधी और आंबेडकर दोनों अपने संघर्षों की शुरूआत सत्याग्रह से करते हैं। गांधी अपने संघर्षों की शुरूआत 1918 में चम्पारण सत्याग्रह से करते हैं, तो आंबेडकर महाड़ सत्याग्रह से।
गांधी नमक सत्याग्रह के लिए जाने जाते हैं, तो आंबेडकर महाड़ सत्याग्रह के लिए। 20 मार्च 1927 को महाराष्ट्र राज्य के रायगढ़ जिले के महाड स्थान पर दलितों को सार्वजनिक चवदार तालाब से पानी पीने और इस्तेमाल करने का अधिकार दिलाने के आंबेडकर ने यह सत्याग्रह किया था। नमक सत्याग्रह की शुरूआत 12 मार्च 1930 को हुई। 12 मार्च, 1930 में गांधी ने अहमदाबाद के पास स्थित साबरमती आश्रम से दांडी गांव तक 24 दिनों का पैदल मार्च निकाला था। महाड़ सत्याग्रह अछूतों के पानी पीने अधिकार के लिए था, तो नमक सत्याग्रह नमक बनाने के भारतीयों के अधिकार के लिए था। महाड़ सत्याग्रह हजारों वर्षों की वर्ण-जाति श्रेष्ठता को चुनौती था, तो नमक सत्याग्रह ब्रिटिश साम्राज्य के लिए चुनौती था। महाड़ सत्याग्रह के साथ ही आंबेडकर और गांधी के बीच वैचारिक संघर्षों की मुखर शुरूआत हो जाती है। गांधी महाड़ सत्याग्रह को दुराग्रह कह कर उसकी आलोचना करते हैं।
दोनों के बीच पहली सीधी मुलाकत 14 अगस्त 1931 को मनीभवन मालाबार हिल, बाम्बे में होती है। आंबेडकर पहले गालोमेज सम्मेलन से लौटकर आए थे। यह 12 नवम्बर ,1930 से 13 जनवरी ,1931 तक लंदन में चला था। इस सम्मेलन में आंबेडकर शामिल हुए थे, लेकिन गांधी ने इसका बहिष्कार किया था। इस सम्मेलन में आंबेडकर ने अछूतों के अलग से प्रतिनिधित्व की मांग किया था, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर भारत की बदतर स्थिति की भी चर्चा की थी। आमने-सामने की पहली मुलाकात में गांधी ने आंबेडकर की देशभक्ति की तारीफ करते हुए, कुछ बाते कहीं और कुछ सवाल पूछे। जिनका मुकम्मिल और तीखा जवाब डॉ. आंबेडकर ने दिया।
फिर दोनों की मुलाकात द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में हुई, जहां दोनों व्यक्तित्वों के बीच तीखी बहस हुई। गांधी ने इस सम्मेलन में कहा कि पूरे भारत का प्रतिनिधत्व करते हैं, आंबेडकर ने उनका प्रतिवाद करते हुए कहा कि गांधी सिर्फ सवर्णों का प्रतिनिधित्व करते है, वे अछूतों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। इसी सम्मेलन में आंबेडकर ने अछूतों के लिए भी मुसलामनों और सिक्खों की तरह ही पृथक निर्वाचक मंडल और दोहरे मतदान के अधिकार की मांग रखी, जिसका गांधी ने तीखा विरोध किया। आखिरकार ब्रिटिश सरकार ने आंबेडकर की मांग मान ली।
अछूतों को पृथक निर्वाचन मंडल प्रदान करने के विरोध में गांधी जी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। इसके बाद आंबेडकर को गांधी के साथ 24 सिंतबर 1932 को पूना पैक्ट करना पड़ा। आंबेडकर ने परिस्थितिजन्म कारणों से पूना पैक्ट कर तो लिया, लेकिन कभी इसके लिए वे गांधी को माफ नहीं कर पाए। उन्होंने कई अवसरों पर यह कहा कि इस समझौते ने अछूतों की राजनीतिक रीढ़ तोड़ दी। पूना पैक्ट के बाद गांधी अछूतोद्धार के कार्यक्रम में चोर-शोर से लग गए। गांधी और आंबेडकर के बीच एक तीखी टकहराहट आंबेडकर की किताब ‘जाति का विनाश’ आने बाद हुए। उन्होंने इस किताब पर बड़ी टिप्पणी अपने अखबार ‘हरिजन’ में लिखी। जिसमें उन्होंने वर्ण-व्यवस्था का पक्ष लिया और हिदू धर्म पर आंबेडकर के हमले को खारिज करने की कोशिश किया, लेकिन साथ ही ‘जाति का विनाश’ किताब को हर भारतीय को पढ़ने की सलाह देते हुए कहा कि डॉ. आंबेडकर हिंदुत्व के लिए चुनौती हैं।
डा. सिद्धार्थ रामू जी की फेसबुक वाल से

तीसरे मोर्चे में शामिल होगी बसपा !, रखा यह शर्त

024 में भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता से बाहर करने के लिए तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट तेज है। पिछले दिनों नीतीश कुमार के तीन दिवसीय दिल्ली दौरे के दौरान कई नेताओं से मुलाकात ने इस चर्चा को हवा दे दी थी। हालांकि तब उत्तर प्रदेश की दोनों प्रमुख पार्टियों बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई थी। लेकिन अब बहुजन समाज पार्टी की ओर से तीसरे मोर्चे में शामिल होने के संकेत मिले हैं। बसपा तीसरे मोर्चे में शामिल होगी, लेकिन इसके लिए बसपा ने एक शर्त रख दी है।

 बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता धर्मवीर चौधरी ने एक बयान जारी कर बसपा के तीसरे मोर्चे में शामिल होने की बात कही है। लेकिन इसकी शर्त बताते हुए उन्होंने कहा कि यह तभी संभव है, जब तीसरा मोर्चा बसपा अध्यक्ष मायावती को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाएं। बसपा प्रवक्ता धर्मवीर चौधरी ने बयान जारी कर कहा कि बहन मायावती को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए तो बसपा तीसरे मोर्चे में शामिल होने के लिए तैयार है। उन्होंने कहा कि इन शर्तो के साथ तीसरे मार्चे में शामिल होने से कोई परहेज नहीं होगा। उन्होंने कहा कि वैसे भी केंद्र में सरकार बनाने के लिए यूपी की भागीदारी बहुत जरूरी है। यहां बसपा का प्रभाव बड़े वर्ग पर है। बसपा प्रवक्ता ने कहा कि प्रदेश में मायावती के कद का कोई दूसरा नेता नहीं है।

 दरअसल बसपा की ओर से यह सुगबुगाहट समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद शुरू हुई है। सपा के राष्ट्रीय सम्मेलन में पार्टी के वरिष्ठ नेता रविदास मेहरोत्रा ने अखिलेश यादव के प्रधानमंत्री बनने की बात कही। तो कई अन्य नेताओं ने इसका समर्थन किया। अखिलेश यादव ने इससे इंकार नहीं किया, हालांकि उन्होंने इतना जरूर कहा कि उनका उद्देश्य भाजपा को रोकना है। लेकिन जैसे ही सपा के नेता अखिलेश यादव के नाम को आगे बढ़ाने लगे, बसपा भी हरकत में आ गई है और उसने विपक्षी दलों को अपनी शर्त सुना दी है।

यादव शक्ति पत्रिका से अलग हुए चन्द्रभूषण सिंह यादव

पिछले कई सालों से यादव शक्ति त्रैमासिक पत्रिका से जुड़े बहुजन विचारक चंद्रभूषण सिंह यादव ने खुद को पत्रिका से अलग कर लिया है। श्री यादव संपादक राजवीर सिंह के कार्य करने के तरीके से सहमत नहीं थे। इस अलगाव की खबर खुद चंद्रभूषण सिंह यादव ने फेसबुक पर साझा किया है। उन्होंने जो लिखा है, उसे हम हू-ब-हू दे रहे हैं।

निः सन्देह “यादव शक्ति” पत्रिका उत्तर भारत में एक बहुजन पत्रिका के रुप में उभरी है। इसके सम्पादक मण्डल में प्रधान सम्पादक के रूप में कार्य करते रहने के बावजूद सम्पादक राजवीर सिंह जी द्वारा लोगों से असहज व्यवहार करने से काफी दिनों से मैं दुखी था। लेकिन पत्रिका चलती रहे तथा बहुजन जागृति का कारवां बाधित न हो इस हेतु खुद को दबा कर रखता रहा। परंतु 28 सितम्बर 2022 को दारुलशफा-लखनऊ के पत्रिका के कार्यालय में इलाहाबाद के एक साथी कलेक्टर पटेल जी से हाथ में कलावा की तरह का कुछ बांधे रखने के कारण उनसे किये गए अपमानजनक व्यवहार ने मुझे इतना आहत किया कि मैं इस निर्णय पर पँहुचने को विवश हो गया कि राजवीर सिंह जी से अलग हो जाऊं।

मेरी ऐसी धारणा है कि सामाजिक परिवर्तन का कार्य हम सामने वाले को कन्विंस कर करें, न कि उसे अपमानित करके।हम अपने तर्क व अकाट्य साक्ष्य आदि से आम आदमी को मोल्ड करें, न कि उसे लट्ठ मारकर। पर सम्पादक राजवीर सिंह जी सीधे लट्ठमार प्रहार कर लोगो को अपमानित करने में सिद्धहस्त हैं जो कत्तई उचित नहीं माना जा सकता। इसलिए बिना किसी विवाद के उनसे अलग हो जाना श्रेयस्कर रहेगा।

पुनः मैं कहूंगा कि सामाजिक परिवर्तन मिशन में निःसन्देह “यादव शक्ति” पत्रिका बेहतर असर डाल रही है परंतु सम्पादक राजवीर सिंह जी के कार्य व्यवहार से दुखी हो मैं खुद को इससे अलग कर रहा हूँ।

मेरी मंगलकामना है कि पत्रिका बेहतरीन कार्य करती रहे और इतने के बावजूद अपेक्षा रखता हूँ कि सम्पादक राजवीर सिंह जी मे सुधार हो।

-चन्द्रभूषण सिंह यादव (29 सितम्बर 2022)

असमानता, ऐतिहासिक अन्याय की जंजीरें तोड़ें

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट)

(पुनर्वितरण न्याय के अंतर्गत ऐतिहासिक अन्याय सहने वालों के लिए विशेष प्रावधान किया जाना चाहिए। दलित और अनुसूचित जनजाति दोहरे वंचित हैं। उनके साथ जन्म के आधार पर सामाजिक रूप से भेदभाव किया जाता है और अवसरों से भी वंचित किया जाता है। स्वतंत्र भारत के राजनीतिक परिदृश्य में जाति-आधारित भेदभाव जारी है।)

22 सितंबर को, सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को कोटा आवंटित करने में सरकार की समझदारी पर सवाल उठाया। इस उपाय को इस आधार पर उचित ठहराया गया है कि यह अति गरीब लोगों की मदद के लिए है। अदालत द्वारा पूछा गया कि दोहरे वंचित समुदायों के दावों को क्यों नजरअंदाज किया जाना चाहिए, जिन्होंने ऐतिहासिक अन्याय का सामना किया है और ऐसा करना आज भी जारी है?

अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग के सदस्यों को 103वें संविधान संशोधन के तहत सामान्य वर्ग को आवंटित 50 प्रतिशत में से 10 प्रतिशत कोटे से बाहर रखा गया है। एसटी आबादी का चालीस प्रतिशत हिस्सा सबसे गरीब है, लेकिन उसका कुल आरक्षण सिर्फ 7.5 प्रतिशत है। “क्या यह एक समतावादी संविधान के लिए एक अच्छा विचार है,” न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट ने पूछा, “गरीब से यह कहने के लिए कि उन्होंने अपना कोटा पूरा कर लिया है, और अन्य वर्गों को अतिरिक्त आरक्षण दिया जाएगा?” बेंच ने सुझाव दिया कि आर्थिक पिछड़ेपन का विचार अस्पष्ट है; यह एक अस्थायी घटना हो सकती है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने एक दिलचस्प तर्क दिया है जिसे समानता की ओर ले जाने के लिए विस्तारित किया जा सकता है। क्योंकि, हमारे राजनीतिक विमर्श से समानता का मानदंड गायब हो गया है, हालांकि असमानता की सीमा वास्तव में चौंका देने वाली है।

विश्व असमानता रिपोर्ट-2022 के अनुसार, लुकास चांसल द्वारा लिखित और थॉमस पिकेटी, इमैनुएल सैज़ और गेब्रियल ज़ुकमैन द्वारा समन्वित, शीर्ष 1 प्रतिशत और शीर्ष 10  प्रतिशत आबादी के पास कुल राष्ट्रीय आय का क्रमशः 22 प्रतिशत और 57 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि निचले 50 प्रतिशत लोगों के पास आय का केवल 13 प्रतिशत है।

कौन किसका मालिक है, इस पर आंकड़े असमानता की भयावहता को दर्शाते हैं। आंकड़े महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वे हमारे समाज में दो प्रकार की संरचनात्मक समस्याओं की सतह को अच्छी तरह से हटा सकते हैं – पुनर्वितरण न्याय के प्रति असावधानी और ऐतिहासिक गलतियों के लिए भरपाई। आर्थिक पिछड़ापन पूर्व को दर्शाता है और दोहरा नुकसान बाद की विशेषता है। आइए इन दो श्रेणियों को न मिलाएं। दोनों में पुनर्वितरण न्याय शामिल है, लेकिन प्रत्येक रूप का औचित्य और विभिन्न रणनीतियों के कारण विशिष्ट हैं।

आय असमानता पर आंकड़े लें जो हमारे समाज में धन और गरीबी की सीमा को दर्शाते हैं। गरीबी और धन समानांतर प्रक्रियाएं नहीं हैं; वे संबंधपरक हैं। एक महिला तब गरीब होती है जब उसके पास ऐसे संसाधनों तक पहुंच नहीं होती है जो उसे स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, कौशल, रोजगार, आवास और अन्य बुनियादी सुविधाओं का लाभ उठाने में सक्षम बनाते हैं जो सम्मान के जीवन के लिए बनाते हैं। यानी वह सिर्फ गरीब नहीं है; वह दूसरों के लिए भी असमान है। गरीबों को नीचा दिखाया जाता है क्योंकि उन्हें रोजमर्रा की जिंदगी की प्रथाओं के माध्यम से अभद्रता के अधीन किया जाता है। असमानता हाशिए पर और राजनीतिक महत्वहीनता को तेज करती है और लोगों को कम करती है। गरीब होने का मतलब समानता के स्तर से सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक लेनदेन में भाग लेने के अवसर से वंचित होना है। समानता हमें दूसरों के साथ खड़े होने की अनुमति देती है क्योंकि हम भी महत्व रखते हैं। असमानता अपर्याप्तता या इस विश्वास को तेज करती है कि हमारा कोई महत्व नहीं है।

एक न्यायसंगत समाज विभिन्न तरीकों से असमानताओं से निपटता है। पहला तरीका है वितरणात्मक न्याय। प्रगतिशील कराधान, भूमि सुधार, संपत्ति की सीमा और रोजगार के अवसरों जैसे जानबूझकर राजनीतिक हस्तक्षेप के माध्यम से संसाधनों को समृद्ध से बदतर स्थिति वालों में स्थानांतरित किया जाना है। समतावादी केवल यही माँग करते हैं कि सभी मनुष्यों को कुछ को उपलब्ध अवसरों तक पहुँचने का समान अवसर दिया जाए और यह स्वीकार किया जाए कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संस्थाएँ व्यवस्थित रूप से कई व्यक्तियों को नुकसान पहुँचाती हैं।

पुनर्वितरण न्याय के अंतर्गत ऐतिहासिक अन्याय सहने वालों के लिए विशेष प्रावधान किया जाना चाहिए। दलित और अनुसूचित जनजाति दोहरे वंचित हैं। उनके साथ जन्म के आधार पर सामाजिक रूप से भेदभाव किया जाता है और अवसरों से भी वंचित किया जाता है। सकारात्मक कार्रवाई नीतियां राज्य द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों, सार्वजनिक रोजगार और निर्वाचित निकायों में दलितों की भौतिक उपस्थिति की गारंटी के लिए तैयार की गई हैं। यह इसलिए आवश्यक है क्योंकि जाति-आधारित भेदभाव स्वतंत्र भारत के राजनीतिक परिदृश्य को लगातार प्रभावित कर रहा है। आज तक, हम किस जाति के हैं, हमारे सामाजिक संबंधों को परिभाषित करता है, असमानताओं को संहिताबद्ध करता है और अवसरों और विशेषाधिकारों तक पहुंच को नियंत्रित करता है। समाज ने नैतिक रूप से मनमाने कारणों से हमारे लोगों के एक वर्ग को नुकसान पहुंचाया है। चूंकि दोहरा नुकसान जीवन को ट्रैक करना जारी रखता है, इसलिए हमें नुकसान की भरपाई करनी होगी। हम कम से कम उन साथी नागरिकों के लिए ऋणी हैं जो ऐतिहासिक अन्याय के तहत श्रम करना जारी रखते हैं।

आर्थिक बदहाली और ऐतिहासिक अन्याय के बीच का मिश्रण पुनर्वितरण न्याय की जटिलता को दर्शाता है। आरक्षण नौकरी की गारंटी योजना नहीं है। वे दोहरे वंचितों के लिए हैं।

अंत में, क्या हम सभी गरीबी के शिकार लोगों के ऋणी हैं? क्या हमें ऐसी राजनीतिक आम सहमति बनाने की दिशा में काम नहीं करना चाहिए कि गरीबी मौलिक रूप से समानता की मूल धारणा का उल्लंघन करती है? क्या हमें इस साझा परियोजना में भागीदार के रूप में यह सोचने पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए कि समानता पर आधारित न्यायपूर्ण समाज कैसा दिखना चाहिए?

समतावादी का काम हर नुकसान के लिए आरक्षण तैयार करना नहीं है। इसका कार्य संसाधनों तक पहुंच और ऐतिहासिक अन्याय की असमानता की जंजीरों को तोड़ना और समतावादी लोकतंत्र की एक साझा दृष्टि की ओर बढ़ना है, जहां लोग न्यूनतम क्षतिपूर्ति या उपचार की धारणाओं में फंसे रहने के बजाय पूर्ण जीवन जी सकते हैं। हमें उन लोगों के लिए निबंधन दायित्वों की समानता के मूल्य को अग्रभूमि बनाने की वांछनीयता को मजबूत करना चाहिए जिनके अधिकारों को गंभीर रूप से बाधित किया गया है और अन्य नागरिकों को एक न्यायपूर्ण समाज का गठन करने वाली बहस में भाग लेने के लिए राजी करना चाहिए।

 

नीरा चंडोके राजनीति – शास्त्री

साभार: दी ट्रिब्यून

जाति बताते ही फ्लैट देने से किया इंकार, मू्र्ति छूने पर लगाया 60 हजार का जुर्माना 

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भारत के दक्षिण से जातिवाद का दो हैरान करने वाले मामला सामने आया है। तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले में जहां एक दलित शख्स को मकान मालिक ने किराए पर फ्लैट देने से इंकार कर दिया है, वहीं कर्नाटक के कोप्पल जिले में एक दलित परिवार पर 60,000 रुपए का जुर्माना महज इसलिए लगाया गया है, क्योंकि उसने मंदिर में प्रवेश कर एक हिंदू भगवान की मूर्ति को छूने का जुर्म किया था। इन दोनों मामले में से एक में आरोपियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर घटना की जांच शुरू कर दी है, जबकि दूसरे मामले में दलित परिवार ने डर के मारे पुलिस में शिकायत तक नहीं की है।

पहला मामला तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले में दलित समाज के एक शख्स से जुड़ा है। यहां उसे किराए पर मकान देने से इनकार किया गया. जानकारी के मुताबिक, अरसापिल्लईपट्टी गांव के रहने वाले वीरन ने किराए पर एक फ्लैट लेने के लिए लक्ष्मी और वेलुसामी नाम के शख्स से संपर्क किया था. वीरन और उनके साथ आए एक दूसरे आदमी को फ्लैट दिखाते हुए लक्ष्मी ने उनकी जाति पूछी थी. जब वीरन ने बताया कि वह अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखता है, तो उसने आदमी ने उसे फ्लैट किराए पर देने से साफ तौर पर इंकार कर दिया.

महिला का साफ कहना है कि वह अपना फ्लैट मुस्लिम, ईसाई या एससी/एसटी लोगों को किराए पर नहीं देगी, क्योंकि इससे उनके परिवार के देवता नाराज हो सकते है।’’ जबकि इसी जातिवादी शख्स वेलुसामी की एक थोक सब्जी की दुकान है, जिसमें वह दलितों को काम पर रखकर लाखों कमाता है। पुलिस ने लक्ष्मी के खिलाफ एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज कर इस मामले की जांच शुरू कर दी है। फिलहाल आरोपी महिला फरार है और पुलिस उसकी तलाश कर रही है।

मूर्ति को छूने पर दलित परिवार पर 60 हजार का जुर्माना

दूसरा मामला, कर्नाटक के कोप्पल जिले में एक दलित युवाक द्वारा भगवान की मूर्ति को छूने के लिए 60,000 रुपए का जुर्माना लगाया गया है। जी न्यूज की खबर के मुताबिक, दलित समाज के युवक ने मलूर तालुक के हुल्लेरहल्ली गांव में एक धार्मिक जुलूस के लिए निकाले जाने के लिए तैयार हो रही मूर्ति को छू दिया था। ग्रामीणों ने जब उसे ऐसा करते देखा तो पंचायत लगाकर उसके परिवार पर 60,000 रुपये का जुर्माना लगा दिया। जातिवादियों ने फरमान सुना दिया है कि जब तक दलित परिवार जुर्माने की रकम नहीं भर देते तब तक उनके गांव में आने पर प्रतिबंध रहेगा। इस संबंध में दलित परिवार द्वारा पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं कराया गया है।

 

 

बहनजी के बयान से सियासी हलचल तेज, बैकफुट पर योगी-मोदी

उत्तर प्रदेश में विधानसभा का सत्र चल रहा है। ऐसे में पक्ष और विपक्ष आमने सामने हैं। इस बीच 19 सितंबर को जब अखिलेश यादव योगी सरकार को घेरने के लिए सड़क पर उतरे तो भाजपा की सरकार ने अपनी पुलिस को उतार कर उन्हें रोकने की पुरजोर कोशिश की। इसको लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती ने जिस तरह भाजपा पर हमला बोला है, वह लखनऊ से लेकर दिल्ली तक चर्चा का विषय बना हुआ है। कयास लग रहे हैं कि कहीं बहनजी के मन में कोई योजना तो नहीं चल रही।

दरअसल मंगलवार 20 सितंबर की सुबह बीएसपी प्रमुख मायावती ने एक के बाद एक तीन ट्वीट कर दिए, जिसके बाद राजनीतिक गलियारों में हलचल मच गई है। इस ट्विट में उन्होंने सपा के पैदल मार्च को पुलिस का इस्तेमाल कर रोकने पर भाजपा को जमकर घेरा।

उन्होंने लिखा-  विपक्षी पार्टियों को सरकार की जनविरोधी नीतियों व उसकी निरंकुशता तथा जुल्म-ज्यादती आदि को लेकर धरना-प्रदर्शन करने की अनुमति नहीं देना भाजपा सरकार की नई तानाशाही प्रवृति हो गई है. साथ हीबात-बात पर मुकदमे व लोगों की गिरफ्तारी एवं विरोध को कुचलने की बनी सरकारी धारणा अति-घातक.

इसके बाद बहनजी ने दूसरे ट्वीट में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फीस बढ़ोतरी का मुद्दा उठा दिया। उन्होंने लिखा- इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा फीस में एकमुश्त भारी वृद्धि करने के विरोध में छात्रों के आन्दोलन को जिस प्रकार कुचलने का प्रयास जारी है वह अनुचित व निन्दनीय. यूपी सरकार अपनी निरंकुशता को त्याग कर छात्रों की वाजिब माँगों पर सहानुभतिपूर्वक विचार करेबीएसपी की माँग‘.

अपने तीसरे ट्वीट में बीएसपी सुप्रीमो ने सीधे भाजपा पर हमला बोल दिया। उन्होंने लिखा- महंगाईगरीबीबेरोजगारीबदहाल सड़कशिक्षास्वास्थ्य व कानून व्यवस्था आदि के प्रति यूपी सरकार की लापरवाही के विरुद्ध धरना-प्रदर्शन नहीं करने देने व उन पर दमन चक्र के पहले भाजपा जरूर सोचे कि विधानभवन के सामने बात-बात पर सड़क जाम करके आम जनजीवन ठप करने का उनका क्रूर इतिहास है.

बहनजी के इस बदले रुख की चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि 2019 के चुनाव के बाद यह शायद पहला मौका है, जब बहनजी ने कुछ ऐसा कहा हो, जो समाजवादी पार्टी को राहत दे सके। बहनजी के बयान को इसलिए भी अहम माना जा रहा है क्योंकि ये बयान ऐसे समय में आया है जब बिहार से लेकर दिल्ली तक विपक्षी एकता की बात कही जा रही है। हालांकि विपक्षी एकता की बात पर यूपी की दो प्रमुख पार्टियां सपा और बीएसपी इससे पूरी तरह दूरी बनाकर रखी है। लेकिन बहनजी का ताजा बयान विपक्ष के लिए उम्मीद की किरण बन सकता है।