भारत की आजादी से पहले ब्रिटिश शासन के दौरान मतदान का अधिकार सीमित और शर्तों के आधार पर था। तब केवल वे लोग वोट दे सकते थे जिनके पास संपत्ति, आय, शिक्षा या टैक्स भुगतान जैसी योग्यता होती थी। इस कारण आबादी का बड़ा हिस्सा, खासकर गरीब, महिलाएं, मजदूर, भूमिहीन किसान और निचले तबकों के लोग यानी पूरा वंचित समाज चुनाव प्रक्रिया से बाहर था। हालांकि यह चौंकाने वाली बात है कि सन् 1947 में जब देश आज़ाद हुआ तब भी सभी को तुरंत मतदान का अधिकार देने पर सबकी सहमति नहीं थी। कुछ लोग चाहते थे कि कुछ खास लोगों को ही मतदान देने का हक हो, जैसा कि अंग्रेजी शासनकाल में था।
वोट का अधिकार के संबंध में इतिहास के उस कालखंड की चर्चा हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज एक बार फिर देश में वोट बचाने की लड़ाई छिड़ चुकी है। 11 अगस्त को लुटियन दिल्ली की सड़कें भारत के जन प्रतिनिधियों यानी सांसदों से पटी पड़ी थी। भारत के इतिहास में यह संभवतः पहली बार था जब लगभग आधी संसद यानी करीब 300 सांसद एक साथ सड़क पर उतरें। यानी जितने सांसद संसद के भीतर थे, उससे ज्यादा संसद से बाहर सड़क पर थे। मुद्दा वोट चोरी का था। हाल की इसी घटना ने हमें इतिहास में जाने को मजबूर कर दिया है। क्योंकि लोकतंत्र में जो एक वोट राजा और रंक को साथ लाकर खड़ा कर देता है, और जिसके बूते भारत की 80 फीसदी आबादी खुद को ताकतवर समझती है, उससे उसका वही हथियार छिनने की साजिश रची जाने लगी है।
जब संविधान सभा बनी, तब यह सवाल उठा कि आज़ादी के बाद भारत में मतदान का अधिकार किस तरह दिया जाए। उस समय कई नेता और अधिकारी मानते थे कि भारत की जनता इतनी “अशिक्षित” और “अनुभवहीन” है कि उसे तुरंत मत देने का अधिकार देना जोखिम भरा होगा। उनका तर्क था कि पहले शिक्षा और राजनीतिक जागरूकता बढ़ाई जाए, फिर धीरे-धीरे सभी को अधिकार दिया जाए।
साल 1946 से 1949 तक के संविधान सभा की बहस के रिकॉर्ड देखने पर पता चलता है कि वंचितों को वोट देने का विरोध तीन तरह के लोग कर रहे थे।
पहला, पूर्व रियासतों और ज़मींदार वर्ग के प्रतिनिधि
दूसरा, नौकरशाह पृष्ठभूमि के रूढ़िवादी सदस्य
और तीसरा, कुछ दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक सोच वाले लोग
इसमें, पूर्व रियासतों और ज़मींदार वर्ग के प्रतिनिधियों में कई ऐसे सदस्य जो राजघरानों, बड़ी रियासतों या ज़मींदार पृष्ठभूमि से थे, उनका तर्क था कि-
– संपत्ति और शिक्षा के आधार पर ही मताधिकार होना चाहिए।
– उन्हें डर था कि भूमिहीन और गरीब बहुसंख्यक किसान, मजदूर और “अशिक्षित” जनता सत्ता में आकर उनके हितों को नुकसान पहुँचाएगी।
इसी तरह नौकरशाहों में कुछ पूर्व Indian Civil Service और प्रशासनिक अधिकारियों का कहना था कि भारत की जनता राजनीतिक रूप से अपरिपक्व है, इसलिए मताधिकार को धीरे-धीरे लागू किया जाए। कुछ दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक प़ृष्ठभूमि के लोग मानते थे कि “पढ़ा-लिखा, संपन्न और जिम्मेदार” व्यक्ति ही वोट दे सकता है। इसमें बाल गंगाधर तिलक का नाम प्रमुखता से आता है। यानी कुल मिलाकर इनके मुख्य तर्क यह थे कि-
– भारत की 80% जनता अशिक्षित है, इसलिए उन्हें वोट का अधिकार देना जल्दबाजी है।
– पहले शिक्षा और “राजनीतिक प्रशिक्षण” दिया जाए, फिर मताधिकार दिया जाए।
– संपत्ति और कर भुगतान को योग्यता मानकर मतदान का अधिकार तय हो।
– अचानक सबको अधिकार देने से राजनीतिक अस्थिरता आ सकती है।
हालांकि तब डॉ. आंबेडकर, पंडित जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और के.टी. शाह जैसे प्रगतिशील नेताओं ने विरोधियों को करारा जवाब दिया। इन्होंने विरोधियों के तर्कों को खारिज करते हुए चार प्रमुख तर्क दिये।
पहला, अशिक्षित होना अयोग्यता नहीं है।
दूसरा, लोकतंत्र का मतलब ही है सभी को समान अधिकार।
तीसरा, अगर अधिकार “धीरे-धीरे” देंगे तो जो शक्तिशाली हैं, वे इसे हमेशा टालते रहेंगे।
और चौथा, चुनाव ही राजनीतिक शिक्षा का सबसे बड़ा माध्यम हैं।
बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सहित कई अन्य प्रगतिशील नेताओं ने स्पष्ट रूप से हर वर्ग के वयस्क व्यक्ति को मत का अधिकार देने की वकालत की। इसे लोकतंत्र के लिए बेहद अहम बताया गया। कहा गया कि भारत के हर धर्म, वर्ग और जाति के हर नागरिक को मतदान का अधिकार मिलना ही चाहिए।
बहस हुई और वयस्क मताधिकार लागू किया गया। तय हुआ कि 21 वर्ष से अधिक उम्र का हर नागरिक वोट दे सकेगा। यह फैसला उस समय के लिहाज़ से बहुत क्रांतिकारी था, जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की नींव बना। बाद में सन् 1988 में संविधान के अनुच्छेद 326 में 61वां संशोधन कर के तत्कालिन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यह उम्र सीमा 18 वर्ष कर दी थी।
ऐसे में भारत के लोकतंत्र निर्माण की प्रक्रिया के दौरान जो लोग भारत की एक बड़ी आबादी को वोट के अधिकार से दूर रखना चाहते थे, आज ताकत उन्हीं के इर्ग-गिर्द घूम रही है। सत्ता को चलाने और उससे लाभ लेने वालों में उसी पृष्ठभूमि के लोग सबसे आगे हैं। इसलिए वह वर्ग चाहता है कि सत्ता उसके हिसाब से बने और चले भी। फैसले वह लिए जाएं, जो उनके हित का पोषण करती हो। यानी वोट का हक हासिल करने की यह लड़ाई पुरानी है।
हालांकि जब वोट का अधिकार किसे मिले, इसपर चर्चा चल रही थी, तब डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में स्पष्ट कहा था कि- “लोकतंत्र में वोट का अधिकार सबसे बड़ा हथियार है। इसे किसी से भी छीनना, उसे दूसरे दर्जे का नागरिक बना देना है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि हम कुछ वर्गों को मताधिकार से वंचित रखेंगे तो यह स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा के साथ धोखा होगा।”
सोचिए, आज क्या हो रहा है, जो हो रहा है वह कौन कर रहा है, और वोटों की चोरी के जरिये वो क्या करना चाहता है। यह ऐसा सवाल है, जिसे देश के हर एक वोटर को खुद से जरूर पूछना चाहिए।

अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।