इसमें कोई शक नहीं कि दलितों और पिछड़ों में दूरियां बढ़ी हैं. हालांकि अतिपिछड़ा वर्ग दलितों के थोड़ा करीब दिखता है. लेकिन यह भी सोचना होगा कि जिस गंभीरता से इस विषय पर दलित बुद्धिजीवी सोचते हैं उतनी गंभीरता से पिछड़ों में चर्चा नहीं होती. आज भी पिछड़े अपने को सवर्णों के ज्यादा करीब दिखाने की कोशिश करते हैं. दलित तो शुरू से पिछड़ों को साथ लेकर चलने के हिमायती रहे हैं. चाहे बाबासाहेब का सामाजिक आंदोलन हो, चाहे बिहार में सामाजिक अधिकार की लड़ाई हो या कांशीराम साहब का उत्तर प्रदेश में 85-15 का नारा हो. सर्वदा दलितों ने पिछड़ों को साथ लेकर चलने की कोशिश की.
1927 में साइमन कमीशन के भारत आगमन के बाद जो परिस्थितियां उत्पन्न हुई उसमें बाबासाहेब चाहते थे कि पिछड़ा उनका साथ दे और दलित पिछड़ा मिलकर असमानता के खिलाफ लड़ाई लड़े लेकिन पिछड़ों को अपने को दलित कहलाना मंजूर नहीं था. बाध्य होकर बाबासाहेब को यह लड़ाई दलितों को साथ लेकर अकेले लड़नी पड़ी. मंडल कमीशन के विरोध के चलते जब मुलायम सिंह हाशिये पर आ गए थे, उन्होंने जब अपने निजी स्वार्थवश वीपी सिंह की सरकार गिराकर चंद्रशेखर को पीएम बनाने में मदद की उस समय पिछड़ा उनसे काफी हद तक दूर हो गया था. तब उन्होंने अपनी राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के लिए मान्यवर कांशीराम से समझौता किया. मुलायम सिंह अपने मकसद में कामयाब तो हो गए लेकिन लेकिन उनके अंदर की सामंतवादी सोच इस एकता में बाधक साबित हुई. नतीजा सपा बसपा का गठबंधन टूट गया.
एक बात यहां स्पष्ट करनी होगी कि उत्तर भारत में जब भी मनुवाद और सामंतवाद की लड़ाई की बात होती है, दलित बढ़-चढ़ कर पिछड़ों का साथ देते हैं लेकिन पिछड़े वर्ग के नेता दलितों को उसी मानसिकता से देखते हैं जैसे सवर्ण देखते हैं. बिहार और यूपी में सत्ता प्राप्ति के बाद से दलितों के अधिकार का जिस तरह से नव सामंतवादी सरकारों ने हनन किया है वैसा तो ब्राह्मणवादी सरकारों ने भी नहीं किया है.
बिहार में जिस प्रकार मनुवादी भाजपा के खिलाफ दलित पिछड़ा और अल्पसंख्यक एकजुट होकर लालू-नीतीश का साथ दिया, सत्ता में आने के बाद वही लालू और नीतीश ने दलितों पर अत्याचार की एक शृंखला प्रारम्भ कर दी है. जिस प्रकार अपने छात्रवृत्ति की मांग करने वाले दलित छात्रों पर पुलिसिया कार्रवाई की गई, जिस प्रकार अपनी भूमि को जातिवादी गुंडों से वापस कराने के लिए आन्दोलनरत दलित महिलाओं पर बिहार पुलिस ने नंगा करके लाठी डंडा बरसाया है, वह अप्रत्याशित है.
यूपी में जिस प्रकार दलितों के बल पर पूर्ण बहुमत की अखिलेश सरकार ने अपने पूरे पांच साल के कार्यकाल में दलित विरोधी आदेशों की श्रृंखला को अंजाम दिया. क्या वह दलित पिछड़ा एकता के लिए अच्छा कदम कहा जा सकता है? पूरे पांच साल दलितों पर अत्याचार होते रहे, गुंडागर्दी होती रही और अखिलेश सरकार मूकदर्शक बनी रही. अगर थानों पर लिखी गई दलित उत्पीड़न की केस की जांच कराई जाय तो उसमें अबतक की सबसे कम संख्या दिखेगी.
ऐसे में कोई यह कहे कि दलित पिछड़ा एकता को भंग करने में सवर्ण का हाथ है, वह वास्तविकता से मुंह चुरानेवाली बात होगी. वास्तव में इस एकता में बाधक कुछ नवसामंती मानसिकता वाले पिछड़े हैं. और जबतक वे अपनी सोच नहीं बदलते, यह एकता संभव नहीं है. अब तो एक ही रास्ता बचा है और वह यह कि दलितों को अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी होगी.

दलित दस्तक (Dalit Dastak) साल 2012 से लगातार दलित-आदिवासी (Marginalized) समाज की आवाज उठा रहा है। मासिक पत्रिका के तौर पर शुरू हुआ दलित दस्तक आज वेबसाइट, यू-ट्यूब और प्रकाशन संस्थान (दास पब्लिकेशन) के तौर पर काम कर रहा है। इसके संपादक अशोक कुमार (अशोक दास) 2006 से पत्रकारिता में हैं और तमाम मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं। Bahujanbooks.com नाम से हमारी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुक किया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को सोशल मीडिया पर लाइक और फॉलो करिए। हम तक खबर पहुंचाने के लिए हमें dalitdastak@gmail.com पर ई-मेल करें या 9013942612 पर व्हाट्सएप करें।