एक सर्वे के मुताबिक मौजूदा संसद में वंशवादी सांसदों की संख्या में 2 प्रतिशत और सरकार में ऐसे मंत्रियों की संख्या में 12 प्रतिशत की कमी आई है. ख्यात लेखक पैट्रिक फ्रेंच ने 2012 में अपनी एक किताब में भारत के बारे में लिखा था, ‘यदि वंशवाद की यही राजनीति चलती रही, तो भारत की दशा उन दिनों जैसी हो जाएगी जब यहां राजा-महाराजाओं का शासन हुआ करता था.’ वंशवादी राजनीति तो कुछ घटी है लेकिन, क्या हमारी राजनीति ने युवाओं को स्वीकार करना शुरू कर दिया है, क्योंकि युवा शक्ति की बजाय जाति-धर्म की राजनीति को चुनाव जीतने की रामबाण तरकीब मान लिया गया है. आज देश के सामने शिक्षा का गिरता स्तर, बेरोजगारों की बढ़ती संख्या और सामाजिक असंतुलन की समस्याएं हैं. इनसे निजात का कोई इलाज सियासतदानों के पास दिखता नहीं.
जब हम संविधान निर्माण में अन्य देशों से प्रेरणा ले सकते हैं तो हमारे युवाओं को राजनीतिक हक दिलवाने के मामले में विदेशों से कुछ सीख क्यों नहीं लेते? ऑस्ट्रिया के चांसलर सेबेस्टियन कुर्ज की उम्र 31 वर्ष है. न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न की उम्र सिर्फ 37 वर्ष है, जो दुनिया की सबसे युवा नेता हैं. फिर देश के राजनीतिक दल 70 साल से अधिक के नेताओं को क्यों ढो रही है? क्या राजनीति में संन्यास लेने की कोई उम्र नहीं होनी चाहिए? जब नौकरियों में आयु सीमा निर्धारित है तो राजनीति उससे अछूती क्यों?
फ्रांस के राष्ट्रपति की उम्र 39 साल है, और हमारे देश में सत्तर और अस्सी वर्ष की उम्र में मंत्री और प्रधानमंत्री बनने के ख़यालात आते हैं. ये कुछ उदाहरण हैं, जिससे हमारे देश की राजनीति काफी पिछड़ी नज़र आती है. विश्व में राजनीतिक दलों की औसत आयु 43 वर्ष है. लेकिन हमारे देश का युवा तो सड़कों पर डिग्री लेकर घूमने पर विवश है. देश में डिग्रियां बिक रही हैं, रोजगार नहीं. युवाओं पर नाज है लेकिन, राजनीति में उनका कोई स्थान नहीं. अब इस रवायत को बंद करना होगा. युवाओं की समस्या युवा नेता अच्छे तरह समझ सकते हैं, इसलिए युवाओं को राजनीति में मौका मिलना चाहिए.
महेश तिवारी, माखनलालचतुर्वेदी विश्वविद्यालय, भोपाल. यह लेख दैनिक भास्कर से साभार है.

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