Saturday, May 3, 2025
Homeओपीनियनसामंती अन्याय के विरुद्ध दलितों का ‘मूंछ आंदोलन’

सामंती अन्याय के विरुद्ध दलितों का ‘मूंछ आंदोलन’

दलित

मूंछें रखने की वजह से गुजरात के गांधीनगर में पीयूष परमार और उनके दो भाइयों की गैर दलितों द्वारा की गई पिटाई के खिलाफ आक्रोश देश भर में बढ़ता जा रहा है. इस कृत्य की राष्ट्रव्यापी निंदा की जा रही है. मूंछों की वजह से हुई इस पिटाई की प्रतिक्रिया में गुजरात के दलितों ने अपनी मूंछों के साथ सेल्फी लेकर सोशल मीडिया पर अपलोड करने की शुरुआत की, दो-तीन दिन में ही विरोध का यह तरीका देशव्यापी होने लगा है.

गुजरात से सटे राजस्थान, महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेश सहित मुल्क के कई हिस्सों के दलित युवा फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर अपनी मूंछों वाली फोटो डाल रहे हैं. अधिकांश लोगों ने फेसबुक पर अपनी प्रोफाइल पिक्चर ही मूंछों को बना दिया है. व्हाट्सएप की डीपी में भी अब मूंछें दिखाई पड़ रही हैं. विशेष रूप से दलित युवा इस प्रकार की मूंछों सहित फोटो डालते हुए लिख रहे हैं, “हम दलित हैं और मूंछे रखते हैं, आओ हम पर हमला करो.”

देखा जा रहा है कि इन दिनों सोशल मीडिया पर मूंछों वाली सर्वाधिक फोटो प्रवासी राजस्थानी अपलोड कर रहे हैं. ये प्रवासी राजस्थानी सामंती प्रभाव वाले राजस्थान के भीतरी इलाकों से निकले हैं, इन्होने या इनके पूर्वजों ने मूंछवालों के सामंती अत्याचारों को सहा है. चूंकि यहां सदैव से ही मूंछें मर्दानगी का पर्याय रही हैं और मर्दानगी दिखाने का अधिकार सवर्ण क्षत्रियों तक सीमित रहा है, इसलिए वही मूंछें रखते रहे, उन पर ताव देते रहे और लोगों को डराते रहे हैं. राजस्थान में मूंछों का सामंतशाही से बहुत गहरा रिश्ता रहा है जिससे पीढ़ियों तक जनता त्रस्त रही हैं, इसीलिए यह दलित युवा यदा-कदा उसे चुनौती देते रहते हैं.

आजकल यह देखने में आ रहा है कि दलित युवा अपना पहनावा, नाम के मध्य ‘ सिंह’ लिखना तथा सामंतों जैसी मूंछें रखना शुरू कर चुके हैं. खासतौर पर राजस्थान के मारवाड़ और मेवाड़ क्षेत्र में जारी सामंती अन्याय के विरुद्ध मूंछें उगाई जाने लगी हैं, उनको बड़ा किया जा रहा है और उनकी धार को तीखा करके ललकारा जा रहा है. मूंछों का उगना हर पुरुष के लिए स्वाभाविक बात है, यह किसी जातिविशेष का एकाधिकार नही है और न ही केवल कुछ जातियां ही मूंछों के नाम पर अपना प्रभुत्व कायम रख सकती हैं. गुजरात का मूंछ आंदोलन राजस्थान व अन्य राज्यों में एक अलग किस्म के उग्र प्रतिरोध के रूप में फूट रहा है, फल रहा है और फैल रहा है.

हालांकि दलित-बहुजन बुद्धिजीवी प्रतिक्रिया में पनप रहे इस मूंछ आंदोलन की मर्दाना छवि में कोई सार नहीं देख रहे हैं. उन्हें इसके लैंगिक स्वरूप से अच्छी खासी परेशानी है, उनको लगता है कि इन्हीं सामंतवाद व जातिवाद की प्रतीक मूंछों के खिलाफ लड़ कर दलित विमर्श समता का वितान रचता है, जो स्त्री-पुरुष समानता के विचार को पल्लवित-पोषित करता है, मगर अब प्रतिक्रिया स्वरूप आ रहा ‘मूंछवाद’ दलित आंदोलन के भीतर की पितृसत्तात्मकता को और अधिक मजबूत करेगी जो कि किसी भी रूप में शुभ संकेत नहीं है.

यह भी सही है कि यह महज प्रतिक्रिया भर है. कई दलित युवा सहजता से पहले भी मूंछें रखते आये हैं और आगे भी रखेंगे. उनके लिए मूंछें कभी कोई मुद्दा रही भी नहीं, हां, मूंछों से उन्हें वितृष्णा जरूर रही है, पहले मूंछों वाले अत्याचार करते थे, अब मूंछों के नाम पर अत्याचार हो रहा है. ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक मानी जा रही है. कुल मिलाकर दलित युवाओं में आक्रोश की अभिव्यक्ति का एक साधन बन रहा है गुजरात से पैदा हुआ दलित मूंछ आंदोलन.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं ). यह लेख आउटलुक हिंदी से साभार है.

लोकप्रिय

अन्य खबरें

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Skip to content