टीकमगढ़। 21वीं सदी के भारत में भी अगर किसी दलित युवक को अपने नाम के आगे “राजा” लिखने की वजह से पीट-पीटकर अधमरा कर दिया जाए और उसका पैर तोड़ दिया जाए, तो यह सिर्फ अपराध नहीं, बल्कि जातिवादी दंभ का खुला प्रदर्शन है। यह शर्मनाक वारदात मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले के मोहनगढ़ थाने के कंचनपुरा गांव में हुई।
यहां एक दलित युवक ने अपनी इंस्टाग्राम आईडी पर नाम के आगे “राजा” शब्द जोड़ लिया। बस, इतना करना ठाकुर समाज के कुछ जातिवादी गुंडों को नागवार गुज़र गया। बुंदेलखंड में राजा शब्द को ठाकुरों की “जागीर” मानने वाली मानसिकता इतनी ज़हरीली साबित हुई कि दलित युवक से पहले धमकी दी गई- “नाम हटा लो।” और जब उसने आत्मसम्मान से झुकने से इनकार किया तो दबंगों ने सामूहिक रूप से लाठियों-डंडों से हमला कर दिया। पीड़ित का पैर टूट गया, शरीर लहूलुहान हो गया।
पुलिस की ढीली कार्रवाई, परिवार की गुहार
हमले की शिकायत दर्ज हुई, लेकिन मोहनगढ़ पुलिस ने आरोपियों पर हल्की-फुल्की धाराएँ लगाकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की। यही नहीं, आरोपी खुलेआम धमकी देते रहे और केस वापस लेने का दबाव बनाते रहे। मजबूर होकर पीड़ित परिवार को एसपी ऑफिस की चौखट पर जाकर न्याय की भीख मांगनी पड़ी।
एसपी विक्रम सिंह से शिकायत के बाद एएसपी विक्रम सिंह कुशवाहा ने बयान दिया है कि मेडिकल रिपोर्ट आने के बाद सख़्त धाराएँ जोड़ी जाएँगी। सवाल है कि क्या दलितों को न्याय भी मेडिकल रिपोर्ट पर टालमटोल का मोहताज होना चाहिए?
आज़ादी के 79 साल बाद भी सामंती सोच
यह घटना सिर्फ एक युवक की पीड़ा नहीं, बल्कि उस सामंती सोच का आईना है, जो बुंदेलखंड की मिट्टी में अब भी गहरी जड़ें जमाए बैठी है। आज़ादी को 79 साल हो गए, लेकिन जाति का अहंकार अब भी लोगों की रगों में ज़हर बनकर दौड़ रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता मनोज चौबे ने इस पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि बुंदेलखंड में शिक्षा का अभाव और राजवाड़ों की मानसिकता ने समाज को पीछे धकेला है। ब्रिटिश राज में पहली बार यहां स्कूल और स्वास्थ्य सेवाएँ आईं, लेकिन आज तक शिक्षा का स्तर बेहद खराब है। इसी अज्ञानता की वजह से सामंती सोच पनपती रही है। मनोज चौबे ने कहा कि अगर सोशल मीडिया न होता तो ऐसे मामले दबकर रह जाते। सोशल मीडिया ने न सिर्फ़ जातिवादी अपराधों को उजागर किया है, बल्कि यह साबित किया है कि दलितों और वंचितों की आवाज़ अब दबाई नहीं जा सकती।

वीरेन्द्र कुमार साल 2000 से पत्रकारिता में हैं। दलित दस्तक में उप संपादक हैं। उनकी रुचि शिक्षा, राजनीति और खेल जैसे विषय हैं। कैमरे में भी वीरेन्द्र की समान रुचि है और कई बार वीडियो जर्नलिस्ट के तौर पर भी सक्रिय रहते हैं।

