ग्वालियर (मप्र)। आज़ाद भारत के 79 साल बाद भी सरकारी दफ्तरों की दीवारों के भीतर जातीय भेदभाव की परछाई गहराई से मौजूद है। ताज़ा मामला ग्वालियर का है, जहां मध्य प्रदेश भवन विकास निगम के सहायक महाप्रबंधक सतीश डोंगरे पिछले एक साल से बिना कुर्सी-टेबल के, ज़मीन पर चटाई बिछाकर काम करने को मजबूर हैं। यह तब है जब डोंगरे निगम में सहायक महाप्रबंधक जैसे महत्वपूर्ण पद पर हैं। जबकि इसी दफ्तर में उनके साथी अफसर आरामदायक चैंबर और फर्नीचर का इस्तेमाल कर रहे हैं।
मामले को लेकर बवाल मचा तो विभाग ने फंड की कमी बताकर पल्ला झाड़ने की कोशिश की। निगम के अतिरिक्त महाप्रबंधक अच्छेलाल अहिरवार का कहना है कि फर्नीचर “फंड आने पर” उपलब्ध कराया जाएगा। हालांकि उनकी यह सफाई महज खानापूर्ति है। क्योंकि यहां बड़ा सवाल यह है कि एक अधिकारी को अपनी बुनियादी ज़रूरत के लिए एक साल तक इंतजार कराना प्रशासनिक संवेदनशीलता है या लापरवाही? और ऐसा सिर्फ एक खास वर्ग के कर्मचारी के साथ ही क्यों? जबकि उसी दफ्तर में अन्य अधिकारियों को तमाम बेसिक सुविधाएं मिली हुई हैं।
इस मुद्दे पर सतीश डोंगरे का कहना है कि, “मैं सिर्फ अपना काम करना चाहता हूँ, लेकिन एक साल से मुझे लगातार अपमान सहना पड़ा है।” डोंगरे के बयान से साफ है कि यह बयान महज़ निजी वेदना नहीं, बल्कि लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों- गरिमा, समानता और सम्मान की सीधी अनदेखी का प्रमाण है।
मामला सिर्फ एक फर्नीचर का नहीं है। यह प्रशासन की प्राथमिकताओं और जातीय संवेदनशीलता पर गहरा सवाल खड़ा करता है। जब भवन विकास निगम करोड़ों की परियोजनाओं का बजट संभालता है, तो क्या एक अधिकारी के लिए कुर्सी-टेबल का इंतजाम इतना असंभव है? यह सवाल सिर्फ ग्वालियर या मध्य प्रदेश का नहीं, बल्कि पूरे देश के उस तंत्र का आईना है जो अभी भी जाति के भेदभाव से मुक्त नहीं हो सका है। सवाल है कि, जब राज्य की एजेंसियाँ करोड़ों की परियोजनाएँ सँभाल सकती हैं, तो एक अधिकारी के बुनियादी कार्य–परिसर और सम्मानजनक कार्य–स्थितियाँ क्यों नहीं सुनिश्चित कर सकतीं?
ज्यादा दिन नहीं बीते जब आंध्र प्रदेश में दलित समाज के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. रवि वर्मा को नीचे बैठे के लिए मजबूर किया गया था।

राज कुमार साल 2020 से मीडिया में सक्रिय हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों पर पैनी नजर रखते हैं।