लेखक- अरविंद सिंह
एक वायरस ने दुनिया को अछूत बना दिया। इंसान इंसान के साये से भी डर रहा है। अपने पड़ोसी तक को देख के नज़रें चुरा रहा है।सोचिए कि फिर वो अछूत समाज कैसे जिया होगा जिसे इसी समाज ने 5 हज़ार साल तक दलित, शोषित, नीच, शूद्र ,हरिजन और अछूत कहके हमेशा दूर रखा । और ना उसे कभी समाज ने अपनाया ना वो कभी किसी के लिए समाज का हिस्सा कहलाया। विडम्बनाओँ के भँवर में जीता ये अछूत ना जाने कब सभ्य समाज से दूर कर दिया गया ..और उसे कभी स्वीकार नहीं किया गया। आरक्षण के उसके हक़ तक को भी उसे भीख कहके दिया गया।
इसी वैदिक परंपरा के पोषण में समाज का एक हिस्सा हमेशा लगा रहा और ये साबित करता रहा है की जो व्यवस्था आपको अछूत बताती है वो सही है समाज में आपका स्थान वही है और वो उचित ही है। पर वक़्त ने हमेशा इस समाज को थामे रखा है या यूँ कहे की इस समाज और इसी व्यवस्था के साथ रहने वाले हर उस छोटे आदमी ने इस सभ्य समाज की डौर को अपने संतुलन से एक ऐसे महीन धागे से बंधे रखा है अगर वो डोर टूट जाए तो आज ये सभ्य समाज औंधे मुँह गिर पड़ेगा या कहे तो अपने पतन को प्राप्त हो जाएगा।
जी हाँ , वक़्त हमेशा अपने को बलवान साबित करता है और इंसान का जन्म वक़्त के साथ चलकर अपनी परिणिति प्राप्त करने के लिए हुआ है। पर शायद ऐसा इस समाज के साथ नहीं है। क्योंकि राष्ट्रीय आपातकाल के जिस विनाश की और हमारा राष्ट्र बढ़ चुका है…..मुल्क कोरोना के इस सनाट्टे में जिस तरह से घरों में बैठा हुआ है ऐसे में ये ही समाज है जिसने मुल्क को इस कठिन घड़ी में अपने जज़्बे से थामा हुआ है। वो भी तब जबकि गरीब शोषित और समाज में सबसे पिछड़ा व्यक्ति इसी समाज से ताल्लुक़ रखता है और सबसे ज़्यादा मार भी इसकी ये ही समाज झेल रहा है। वो चाहे दिहाड़ी मज़दूर हो रिक्शे खोमचे वाला हो दैनिक मज़दूर हो या फिर दुकानों पे काम करने वाला। ई -रिक्शे वाला हो या खेतिहर मज़दूर सभी तो पिछड़े समाज से ही आतें हैं।
बावजूद इसके झाड़ू वाला …कूड़े वाला …सड़कों पर सफ़ाई करने वाले सरकारी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी , सभ्य समाज के रहने वाले लोगों के घरों को केमिकल से सेनेटाइज करने वाले कर्मचारी। ड्राईवर चालक हर वो व्यक्ति जो समाज में पिछड़ा है ….वो इस महामारी में उसी समाज के लिए जी जान से लगा है जिस समाज ने उसे कभी मूल्यवान नहीं समझा । देश के सबसे बड़े संकट काल में भी अपने पिछड़ेपन अपनी ग़रीबी को भूल के भी ये सभ्य समाज का अंतिम व्यक्ति ही जो दिन रात खड़ा है। बिना किसी उम्मीद के निडर।
इस भयवाह काल में सबसे ज़्यादा चूल्हा भी इसका ठंडा है । हाथ में बच्ची का शव लेकर मीलों पैदल भी इसी समाज के लोग चल रहें हैं। टीवी दिखा रहा है बता रहा है पर ये गुहार कभी नहीं लगा रहा की एक ताली इनके नाम एक दिया इनके भी नाम। आज हम उसी उच्च समाज को एक दूसरे से विमुख देख रहें हैं। कोरोना काल ने इंसान को इंसान की सही औकात का पता बता दिया है और उसे ये भी बता दिया है की जाति से …क़र्म से …वर्ण से …व्यक्ति अछूत नहीं होता बल्कि एक इंसानी नाफ़रमानी और ज़िद से भी प्रयोगशालाओं में बने वायरस के प्रसार से भी आदमी अछूत बन सकता है। और जब ये फैलता है तो इसी समाज का वो अंतिम व्यक्ति ही इस से लौहा लेने को अपने सर पे सूती पुराने चिथड़े से बना धाटा मार के निकलता है क्योंकि उसके नसीब में कोई मास्क नहीं है। ऐसे सभ्य समाज के लिए जो वक़्त बदल जाने पर एक बार फिर से उसे दुतकारने के लिए तैयार बैठा है।
- लेखक अरविंद सिंह पत्रकारिता से जुड़े हैं।

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