कोविड टीकाकरण अभियान में जातिवाद की दुर्गंध

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 कोविड-टीकाकरण के इस दौर में भी भारत की जाति-व्यवस्था ने एक बार फिर अपना घृणित चेहरा दिखाया है। कोविड-काल के शुरू में ही हम भारत का सांप्रदायिक चेहरा देख चुके हैं, जब एक तबक़े ने वायरस के प्रसार के लिए मुसलमानों को निशाना बनाया था। भारत में कोविड का पहला टीका अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में दिया गया। इसके लिए एम्स ने अपने सफ़ाई कर्मचारी मनीष कुमार को चुना। मनीष की जाति का कहीं उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन इस बात की लगभग शत-प्रतिशत दावे के साथ कही जा सकती है कि मनीष दलित या पिछड़े समुदाय से आते हैं क्योंकि भारत में सफ़ाई कर्मचारियों का लगभग शत-प्रतिशत उन दलित और पिछड़ी जातियों से आता है जिन्हें जाति-व्यवस्था के अनुसार गंदगी-संबंधी कामों को करने के लिए उपयुक्त माना गया है। अनेक अध्ययनों में यह बात सामने आती रही है कि भारत में निम्न माने जाने वाले कामों में लगे अधिकांश लोग दलित अथवा पिछड़ी जाति से आते हैं।

मनीष को टीका लगाने के बाद ही अन्य ‘बड़े लोगों’, मसलन एम्स के डायरेक्टर डॉ. रणदीप गुलेरिया और नीति आयोग के सदस्य वी.के. पॉल ने टीका लगवाया। जिस समय मनीष को टीका लग रहा था, उस समय भारत के स्वास्थ्य मंत्री वहीं मौजूद थे और तालियाँ बजा रहे थे। टीकाकरण के बाद ख़ुद मनीष भी टीवी पर कहते पाए गये कि ‘सब लोग तो डर ही रहे थे, इसलिए मैंने सर (अपने उच्चाधिकारी) को कहा कि सबसे पहले मुझे लगवाओ। अगर मुझे कुछ होगा तो सबको दिखेगा। अगर मुझे कुछ नहीं होगा तो अपने आप पीछे से सब बंदे टीका लगवाने आ जाएँगे”।

दर-अस्ल, सिर्फ़ भारत में ही नहीं, दिसंबर, 2020 में दुनिया के 15 देशों में हुए सर्वेक्षण में पाया गया था कि अधिकांश लोग कोविड का टीका लेने से हिचक रहे हैं। सिर्फ़ अमेरिका और इंग्लैंड में कोविड की वैक्सीन के प्रति विश्वास कुछ बढ़ा था, वह भी सिर्फ़ पहले की तुलना में, अन्यथा इन दोनों देशों में भी वैक्सीन पर बहुत कम लोगों ने विश्वास प्रकट किया। शेष 13 देशों में वैक्सीन पर भरोसा कम हुआ था। चर्चित मेडिकल जर्नल ‘द लांसेट’ ने भी पिछले दिनों 2015 से 2019 के बीच वैक्सीन पर लोगों के भरोसे के संबंध में एक वैश्विक अध्ययन प्रकाशित किया था, जिसमें बताया गया था कि वैक्सीन पर से दुनिया भर में लोगों का विश्वास कम हो रहा है।

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एक सर्वेक्षण के अनुसार नवंबर, 2020 तक भारत में 80 प्रतिशत लोग ऐसे थे जो टीका लेना चाहते थे, लेकिन धीरे-धीरे यह संख्या घटती गयी। दिसंबर में पाया गया कि भारत में महज़ 31 प्रतिशत लोग ही टीका लेना चाहते हैं। ग़ौरतलब है कि पिछले पखवाड़े में अनेक देशों में टीकाकरण अभियान शुरू हो चुका है, लेकिन अधिकांश जगहों पर इसे लेकर उत्साह नहीं है। इसके कारणों पर हम फिर चर्चा करेंगे।

लेकिन आपको याद होगा कि पहले सरकारें और फार्मा कंपनियाँ मीडिया में ऐसी भूमिका बाँध रही थीं मानो टीका लेने के लिए लोग उतावले हैं और मानो टीकाकरण केन्द्रों पर इतनी भीड़ उमड़ेगी कि उसे सँभालना मुश्किल हो जाएगा। कई जगहों पर तो टीका को लूट के भय से सुरक्षा बलों की देख-रेख में एक जगह से दूसरी जगह लेने जाए जाने की तस्वीरें प्रकाशित करवाई जा रही थीं, ताकि जनता में इनके प्रति उतावलापन जगाया जा सके। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो यहाँ तक कहा कि टीका पर पहला हक़ स्वास्थ कर्मियों, फ्रंटलाइन वर्कर्स और स्वच्छता कर्मियों का है। पहले चरण में सिर्फ़ इन्हें ही टीका दिया जाएगा। कोई सांसद-विधायक पंक्ति तोड़कर टीका लेने वालों की लाइन में नहीं लगेगा। भारतीय मीडिया में इसे ‘कोविड योद्धाओं’ के प्रति व्यापक उदारता के रूप में प्रदर्शित किया गया।

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लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही थी। असली बात यह थी कि लोग टीके के प्रति बहुत सशंकित हैं। 16 जनवरी, 2021 को भारत में वैक्सीनेशन अभियान शुरू हुआ तो उसे कई राज्यों में असफलता का मुँह देखना पड़ा। पहले चरण के टीकाकरण अभियान के तहत स्वास्थ्य कर्मियों, सफ़ाई कर्मचारियों और समाज में घुल-मिलकर काम करने वाले लोगों (फ्रंट लाइन वर्कर्स) को मुफ़्त टीका दिया जाना है। इनका ख़र्च सरकार वहन करेगी। जिन लोगों को टीका दिया जाना है, उनकी सूची तैयार की गयी है तथा सरकारी अमले को उन्हें टीकाकरण केन्द्रों तक आने के लिए प्रेरित करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है। उनकी ट्रैकिंग के लिए तकनीक का भी व्यापक इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके बावजूद जिन लोगों के नाम सूची में हैं, उनमें से ज़्यादातर टीका लगवाने नहीं आ रहे।

अभी हमारे पास टीकाकरण अभियान के पहले दो दिन के कुछ आंकड़े उपलब्ध हैं। आन्ध्र प्रदेश में शुरू के दो दिनों में 58, 803 लोगों को टीका लगाने का लक्ष्य था, जिनमें से सिर्फ़ 32,149 लोग ही टीका लेने पहुँचे। कर्नाटक में 21,658 में से महज़ 13, 408 लोग ही टीका केन्द्रों पर आये। असम में पहले दिन के टीकाकरण की सूची में 6,500 लोगों के नाम थे, जिनमें से सिर्फ़ 3, 528 लोग ही टीका केन्द्रों पर पहुँचे। तमिलनाडु और उड़ीसा में वैक्सीन का प्रतिशत ज़रूर कुछ ऊँचा रहा। लेकिन कहीं भी निर्धारित लक्ष्य पूरा नहीं हो सका।

दिल्ली और महाराष्ट्र को कोविड का हॉट स्पॉट कहा जा रहा था, लेकिन महाराष्ट्र में भी 28,251 स्वास्थ कर्मियों की सूची में से महज़ 14,883 ही लोग टीकाकरण केन्द्रों पर आये। इसी प्रकार, दिल्ली में लगभग 50 प्रतिशत लोग टीका लगावाने पहुँचे ही नहीं। दिल्ली सरकार ने कहा है कि वह “लोगों को टीका लगवाने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु उपाय करेगी”। दिल्ली में तो राम मनोहर लोहिया अस्पताल के कुछ डाक्टरों ने दिए जा रहे वैक्सीन को लेकर सवाल तक उठाया।

मीडिया में भी यह सुगबुगाहट है कि टीका लेने के लिए डॉक्टर व अन्य स्वास्थ्य कर्मी नहीं आ रहे बल्कि ग़रीब स्वच्छता कर्मियों को आगे किया जा रहा है। हालांकि चूंकि मीडिया ने सरकार की ओर से आंखें बंद कर ली है, इसलिए इस पर चर्चा नहीं हो रही। सभी जानते हैं कि टीका पहले लेने का ख़तरा उठाने के लिए निम्न कही जाने वाली जातियों से आने वाले जिन स्वच्छता कर्मियों को आगे किया जा रहा है, वे सदियों से सामाजिक और आर्थिक दमन का शिकार रहे हैं। दलित-पिछड़े समुदाय से आने वाले इन लोगों को इस प्रकार खतरा लेने के लिए धकेले जाने का परिणाम क्या होता है, यह भी इस बीच देखने को मिला।

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जिन लोगों को शुरू के दो दिन में टीका लगा, उनमें से ‘कम से कम’ 447 लोगों पर वैक्सीन के दुष्प्रभावों की बात भी सरकार ने स्वीकार की। ये दुष्प्रभाव हाथ नहीं उठने से लेकर बेहोश हो जाने तक के रहे। कुछ लोगों को अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। इनमें से अधिकांश बहुत छोटे पदों पर काम करने वाले कर्मचारी, आशा वर्कर्स, वार्ड ब्वाय, सफाई कर्मचारी, आदि हैं।

एम्स में मनीष नाम को जो सफाई कर्मी भारत में कोविड का पहला टीका लेने वाले आदमी बने, उनका स्वास्थ्य तो ठीक रहा, लेकिन मनीष के साथ एम्स ने अपने कई अन्य निम्न स्तरीय कर्मचारियों को भी शुरू में ही टीका लेने के लिए तैयार किया था। इनमें से एक 22 वर्षीय सुरक्षा गार्ड को टीका लगते ही उसके पूरे शरीर में दाने निकलने लगे और वह खुजली से पागल होने लगा। उसे हृदय की गति असामान्य रूप से बहुत तेज़ महसूस होने लगी, साँस रुकने लगी तथा सिर दर्द से फटने लगा। उसे तुरंत आईसीयू में भर्ती किया गया जिससे उसकी जान बच सकी।

 इन पंक्तियों के लिखे जाने तक वैक्सीन के बाद तीन लोगों की मौत हो चुकी है। हालांकि भारत सरकार ने उसे टीका से हुई मौत मानने से इनकार कर दिया, जबकि मृतकों के परिजनों ने कहा कि मृतक की तबीयत टीका लेने के तुरंत बाद बिगड़ी थी और वे पहले से स्वस्थ थे। सभी मृतक समाज के निम्न तबक़े से ही आते हैं जो बहुत कम पगार वाली नौकरियों में थे। इनमें से एक थे उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद के ज़िला अस्पताल में ‘वार्ड ब्वॉय’ के रूप में काम करने वाले 46 वर्षीय महिपाल सिंह, दूसरे कर्नाटक के बेल्लारी ज़िले के स्वास्थ विभाग में निम्न-पद पर कार्यरत कर्मचारी नागराजू और तेलांगना निर्मल जिले के 42 वर्षीय एंबुलेंस ड्राइवर बिठ्ठल।

महिपाल सिंह को पहले से निमोनिया था। उनके बेटे ने मीडिया को बताया कि “वैक्सीन देने से पहले उनकी जाँच तक नहीं की गयी। वैक्सीन पड़ने के बाद वे हाँफने लगे। इसके बावजूद उनसे नाइट ड्यूटी भी करवाई गयी। नाइट ड्यूटी के दौरान ही उनकी तबीयत और बिगड़ने लगी। उनके हृदय की धड़कन बहुत तेज़ होने लगी तथा साँस रुकने लगी। उसके बाद वे घर लौट आये। घर पहुँचने पर उनकी तबीयत और ज़्यादा बिगड़ गयी। हम लोगों ने सरकारी एम्बुलेंस के लिए फ़ोन किया, लेकिन एम्बुलेंस आने में भी काफ़ी देर लग गयी। जब तक उन्हें अस्पताल पहुँचाया गया, उनकी मौत हो चुकी थी”।

नागराजू की और विठ्ठल की भी यही कहानी रही। उनके परिजनों ने बताया कि कोरोना की वैक्सीन दिए जाने से पहले वे बिल्कुल स्वस्थ थे। वैक्सीन दिए जाने के कुछ घंटों बाद उनकी तबीयत बिगड़ने लगी। अगले दिन उनको सीने में दर्द और साँस लेने में परेशानी शुरू हो गयी। जिसके बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहाँ इलाज के दौरान उनकी मौत हो गयी। यानी अगर टीके से परेशानी नहीं भी है तो भी क्या वैक्सीनेशन से पहले बेहतर तरीके से उनकी जांच नहीं की जानी चाहिए, या फिर उन्हें पहले से कोई दिक्कत है या नहीं, उस पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए था?

सच्चाई यह है कि भारत का उच्च वर्ग, जो सामान्य तौर पर सामाजिक रूप से उच्च और शिक्षा के क्षेत्र में भी आगे है, वह ‘इंतज़ार करो और देखो’ की नीति पर चल रहा है। उसके लिए वैक्सीन की राजनीति एक ऐसा समुद्र मंथन है जिसके बारे में वह अभी कुछ तय नहीं कर पा रहा है। इस मंथन से निकले कलश में अगर अमृत साबित होगा, तभी वह उसे ग्रहण करेगा, लेकिन उससे पहले शूद्रों-अतिशूद्रों (मूल हिन्दू मिथक के अनुसार असुरों-राक्षसों) को उसे चखकर देखना होगा।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)

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