Written By- संजय श्रमण
आर्य जब भारत मे प्रवेश कर रहे थे तब उनके पास इन्द्र था, भारत मे वैदिक से पौराणिक काल तक आते आते उनके पास ब्रह्मा, विष्णु, शिव और अन्य हजारों पात्र आ गए। बीते दो सौ साल मे साईं बाबा और संतोषी मैया भी आ गयीं।
अब संत कबीर और रैदास भी उनके हुए जा रहे हैं, बाबा साहब को भी वे हड़पने की कोशिश मे हैं।
अब दुबारा सोचिए, जिन लोगों ने इतना व्यवस्थित षड्यन्त्र रच डाला हो क्या मूल भारतीय त्योहारों को उन लोगों ने नहीं छेड़ा होगा?
ऐसा हो ही नहीं सकता कि उन्होंने भारतीय श्रमण/ट्राइबल त्योहारों मे अपने प्रतीक और नेरेटिव न मिलाए हों।
भारत ही नहीं दुनिया के सभी त्योहार अपनी मिट्टी और अपनी एतिहासिक प्रष्ठभूमि मे उगते हैं। अभी भी पूरे ईसाई जगत मे पेगन धर्मों और संस्कृतियों के त्योहार बदले हुए नेरेटिव और प्रतीकों मे कुछ हेरफेर के साथ चलते हैं। होलोवीन और सेन्टा क्लाज़ जीसस और मोज़ेस से भी बहुत पुराने हैं। हर नया धर्म पुराने त्योहारों को अपने मेटाफिजिक्स और दर्शन के अनुरूप कस्टमाइज़ करता है। यह इतिहास सिद्ध प्रक्रियाएं हैं जिन्हे कोई नकार नहीं सकता।
इसका यह मतलब भी नहीं है कि जो लोग आज दिवाली माना रहे हैं वे अपराधी हैं, या फिर जो दीपदानोत्सव को फिर से खोज रहे हैं वे किसी से कोई बदला ले रहे हैं।
एक ही देश मे एक ही समाज मे एक ही त्योहार के कई पहलू होते हैं। समाज मे अलग अलग श्रम आधारित विभाजन हैं, कोई किसान है कोई लोहा बनाता है कोइ कपड़ा बुनता है इत्यादि इत्यादि। जब उत्सव होता है तो सभी को उसमे अपने हिस्से के आनंद की रचना करने और उसे भोगने का अधिकार मिलता है। यही संस्कृति का विराट फलक है। जो लोग एक दूसरे को मित्र या शत्रु मानते हैं ये संस्कृति उन दोनों को अपनी ममता का दूध पिलाती है।
अब मामला बस इतना है कि अगर नए धर्म ने पुराने धर्म के त्योहारों को बदलकर उसमे “शोषण” और विभाजन का कोई नेरेटिव मिला दिया है तो शोषण से बचने के मार्ग और मेथडोलोजी की रचना करते हुए उस शोषक नेरेटिव को बेनकाब करना होगा। अगर हमारे त्योहारों मे आत्मा परमात्मा पुनर्जन्म से जुड़ी कोई बीमारी मिला दी है तो हमें उस गंदगी को साफ करके अपने त्योहार को ठीक करना होगा। साथ ही उसका एक प्राचीन स्वरूप उजागर करते हुए शोषण मुक्ति की नई डिजाइन मे शेष शोषितों को शामिल करना होगा।
इसका एक अर्थ यह भी है कि प्राचीन धर्म के जिन अनुयायियों को नए धर्म ने शूद्र (ओबीसी) या अतिशूद्र/वनवासी (एससी एसटी/आदिवासी) बना दिया है वे भारत के मौजूदा त्योहारों के पीछे छुपे अपने मूल त्योहारों को खोजकर उन्हे मनाना शुरू करें।
फिर से ध्यान रखा जाए कि जो लोग नए ढंग से दिवाली मना रहे हैं वे भी भारत के नागरिक हैं। संविधान उन्हे समान स्वतंत्रता देता है। आप किसी का विरोध या अपमान किए बिना इतिहास की सच्चाई को उजागर करते हुए अपने पूर्वजों और धर्म की प्रशंसा करें और अपने त्योहार मनाएं।
लेखक संजय श्रमण विचारक हैं। स्कॉलर हैं। संपर्क- sanjayjothe@gmail.com
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