पिछले लगभग दस-बारह सालों से विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए राजनीतिक रणनीतिकार के तौर पर काम कर रहे थे। सुना है इस काम में इन्होंने काफी धन कमाया। बाद में इन्हें लगा क्यों ना सीधे ही राजनीति में ही हाथ आजमाए जाएं। तो इन्होंने लगे हाथ ‘जन सुराज’ नाम से एक बिहार केंद्रित पार्टी बना ली। इस के बाद इन्होंने बिहार में अपनी यात्रा शुरू की। लेकिन पता लगता है कि यात्रा को कोई खास समर्थन नहीं मिला। इस के बाद ये इधर-उधर की हांकने लगे। चूंकि भारतीय राजनीति जाति आधारित है, और ये जिस जाति से आते हैं प्रत्यक्ष रूप से उस का राजनीति में विलोपन होता जा रहा है। यही शायद इन का दुख था। इसी के चलते इन्होंने पिछले दिनों ‘न्यूज नेशन’ चैनल पर 23 सितंबर, 2025 को ‘हमार बिहार कान्क्लेव’ में दलितों की सबसे बड़ी जाति चमार को गाली के रूप में प्रयोग करते हुए ‘चोर चमार’ शब्द का इस्तेमाल किया। जो बेहद आपत्तिजनक है।
ऐसे लगता है चमारों ने इन्हें और इन की तथाकथित पार्टी को किसी तरह का कोई भाव नहीं दिया। इसीलिए ये फड़फड़ा रहे हैं और गाली-गलौच की भाषा पर उतर आए हैं। पता यह लगता है कि इन का पूरा नाम प्रशांत किशोर पांडे है और ये दलितों से खार खाए बैठे हैं। असल में यह बयान इन्होंने पूरे होशो-हवास में और सोच समझ कर दिया है, ताकि ये किसी भी तरह लाइमलाइट में बने रहें और खुद को अप्रासंगिक होने से बचा सकें। ऐसे बयान अक्सर जातिवादी-वर्णवादी द्विजों की तरफ से सुनने को मिलते हैं। कोई यह नहीं कह सकता कि ऐसा कहकर ये अपनी मानसिक भड़ास निकालते हैं, बल्कि यह दलितों के विरुद्ध इन की रणनीति का हिस्सा होता है। चूंकि अब दलित चिंतन पूरी तरह से ‘आजीवक धर्म चिंतन’ में बदल चुका है, इसलिए इनकी सारी तिकड़में और रणनीतियां तत्काल पकड़ में आ जाती हैं। प्रशांत पांडे के कथन में इन की मानसिक बुनावट का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। कहने वाला कह सकता है ‘पांडे के भांडे बिके नहीं, देखो कैसे बिलबिलाए।
वैसे, इन के कथन से ब्राह्मण की मानसिकता को समझा जा सकता है। तुलसी की संताने अभी भी सुधरने का नाम नहीं ले रहीं। वैसे बताया जा सकता है, आज जो इन्होंने चमार के साथ चोरी का समास जोड़ा है कल को ये किसी अन्य जाति के साथ भी ऐसे ही कर सकते हैं। यह ब्राह्मण की सदियों पुरानी आदत है। बताइए, लगभग छह सौ साल पहले पन्द्रहवीं शताब्दी में कबीर साहेब इन्हीं के पूर्वज पांडे को फटकार लगाते हुए कहा है, ”पांडे, कौन कुमति तोहि लागी?” और आज इक्कीसवीं सदी में भी पांडे को ही समझाना पड़ रहा है! इस का अर्थ हुआ कि ये सुधरने वालों में नहीं हैं। तो, कोई यह ना समझे कि पढ़ लिख कर इन जैसे जातिवादी मानसिकता से बाहर आ गए हैं। इसीलिए बार-बार बताया जाता है कि पढ़ने-लिखने से कोई ज्ञानवान और समझदार नहीं हो जाता।
इन के इस कथन से सामंत के मुंशी की मानसिकता को भी समझा जा सकता है। साहित्य में पहली बार इन्होंने ही ‘चोरी चमारी’ जैसे समास का प्रयोग किया है। ये भी उन्हीं का अनुकरण करते दिखाई देते हैं। जो लोग प्रेमचंद को प्रगतिवादी बताते रहते हैं, वे इन प्रशांत किशोर पांडे का चेहरा अच्छे से देख लें। ये सामंत के मुंशी का ही आधुनिक संस्करण हैं।
बताइए, दुनिया की सबसे शरीफ कौम को चोर कहा जा रहा है। ऐसे में इन की जाति को क्या कहा जाए? सर्वप्रथम तो इन की जाति असभ्य लोगों की श्रेणी में आ जाती है। किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि तुलसीदास कोई बहुत अच्छे लेखक थे। तुलसीदास और पांडे का डीएनए समान होता है। काफी कोशिश के बाद मैं इन के लिए कोई गाली नहीं खोज पा रहा हूं। यही कह सकता हूं कि इन की और इन जैसों की मति मारी गई है। जहां तक चोरी की बात है तो कबीर साहेब ने साफ-साफ शब्दों में कहा है :
“बाम्मण ही सब कीन्हीं चोरी।
बाम्मण ही को लागल खोरी।।”
प्रशांत किशोर को अपने इस आपराधिक कृत्य की बिना देरी किए माफी मांगनी चाहिए। अगर किसी चमार ने कोई अप्रिय कदम उठा लिया तो कोई कुछ नहीं कर पाएगा। वैसे भी राजनीति में यह दौर जूते-चप्पल और थप्पड़ों का चल रहा है। जिस का हरगिज समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन इन जैसों के कथनों का तो बिल्कुल भी समर्थन नहीं किया जा सकता। तो, जितना जल्दी हो सके ये चमार जाति से अपना माफीनामा उसी मंच पर लेकर आए जिस पर इन्होंने ये कु-बोल कहे हैं ।
असल में, इन की दुकानदारी उठ चुकी है। कोई भी राजनीतिक दल इनकी सेवाएं नहीं ले रहा है। ऐसे में ये बेरोजगार होकर सड़क पर हैं। इसका इन्होंने जो रास्ता निकाला, वह था अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने का। उस पर भी कोई इन्हें घास नहीं डाल रहा। ऐसे में इन्होंने जो रास्ता निकाला है वह है किसी जाति को टारगेट कर अपने को प्रासंगिक बनाए रखना। इस में इन्होंने दुनिया की सबसे सभ्य और इस देश की सबसे बड़ी जाति चमार को टारगेट किया है। लेकिन, चमार इस जैसों के झांसे में आ कर प्रतिक्रियावादी बनने वाले नहीं हैं। चमार अपनी परंपरा के मूल धर्म आजीवक में आ चुके हैं। आजीवक चिंतन में इन जैसों को सभ्यता का पाठ पढ़ाया जा रहा है।
वैसे, अगर प्रशांत किशोर पांडे यह कहते कि मैं ब्राह्मण हूं चमार नहीं, तब भी बात थोड़ी समझ में आती। क्योंकि, ब्राह्मण और चमार अलग परंपरा के लोग हैं। जिन का मेल संभव नहीं है। जिसे स्वामी अछूतानंद ने हिन्दू (ब्राह्मण) और आदिहिन्दू के रूप में चिह्नित किया है। आदिहिन्दू अर्थात चमार अपनी आजीवक परंपरा में मोरलिटी पर स्थित हैं। जबकि ब्राह्मण अपनी द्विज परंपरा में जारकर्म को झेलने को अभिशप्त है। कबीर साहेब ने ब्राह्मण को यूं ही नहीं कहा, “मैं कहता सुरझावन हारी, तू राखे उरुझाय रे।”
इन्होंने ‘चोर चमार’ समास का जो आपराधिक प्रयोग किया है। इन दो शब्दों को हम ऐसे भी देख सकते हैं, चोर और चमार। चूंकि चमार चोर तो होते नहीं, ये विशुद्ध चमार होते हैं। चमार पैदा होना ‘नियति’ है। इसीलिए वे चमार होते हैं। और, नियति का अर्थ पिता की पहचान से होता है, अर्थात चमार का पिता चमार ही होता है। अब हम इस चोर चमार में से चमार को अलग कर लेते हैं। तब बचता है ‘चोर’ जो इन के के माथे पर चिपक जाता है। कोई भी कह सकता है चोर पांडे। ये कितनी कोशिश कर लें इस से बचने की लेकिन बच नहीं सकते। वैसे भी इतिहास में यह बताना मुश्किल है कि किसने यह कहा था कि मैं आपकी गालियां आप से नहीं लेता। तब वह गाली उसी देने वाले के पास ही लौट जाती है। ऐसे लगता है यह महान मक्खलि गोसाल ने ही कहा होगा। क्योंकि, गोसाल को महावीर और इन के ब्राह्मण शिष्यों ने अमोघ, मूर्ख, धूर्त और न जाने कैसी-कैसी गालियां दी हैं। जिन्हें गोसाल ने उन के पास ज्यों कि त्यों लौटा दिया। आज सामंत के मुंशी और इन पांडे जी के पास भी इन की गालियां लौट आई हैं।
इस समास का प्रयोग क्यों ना प्रशांत किशोर पांडे पर ही किया जाए। चूंकि, इनके द्वारा बोले कु-बोल में ये चमार तो हो नहीं सकते। क्योंकि जैसा बता दिया गया है, पैदा होना नियति के अधीन है। फिर, चाहे वह चमार हो या ब्राह्मण। अब बचता है चोर। तो इन के चोर होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि, चोर पकड़े जाने पर दूसरों को ही चोर-चोर कह कर चिल्लाने लगता है। ऐसे लगता है इन की कोई चोरी पकड़ी गई है। और लगता है इन की यह चोरी भी किसी चमार ने ही पकड़ी है। तभी यह ऐसे बड़बड़ा रहे हैं। सामंत के मुंशी की ऐसी चोरी महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ने पकड़ी है। जिसका ‘प्रेमचंद की नीली आंखें’ में विस्तार से वर्णन किया गया है।
वैसे, कोई ऐसा कैसे बोल सकता है जैसा इन्होंने बोला है। असल में यह मूलभूत परंपराओं का ही अंतर है। जिसे धार्मिक अंतर भी कहा जा सकता है। दलितों की परंपरा में विवाह में ‘तलाक’ अनुमत है। तलाक की स्वतंत्रता से दलित जारकर्म से बचे रहते हैं। बताया जाए, जारकर्म ही दुनिया की सबसे बड़ी चोरी होती है। जारकर्म में उलझे व्यक्ति के सामने दुनिया की बाकी चोरियां छोटी पड़ जाती हैं। असल में, जारकर्म चोरियों की मां है। सारी चोरियां जारकर्म से ही पैदा होती हैं। चूंकि दलितों में विवाह एक सामाजिक समझौता है जिस में तलाक अनुमत है। इसीलिए वे जारकर्म से बचे रहते हैं। ऐसे में किसी तरह की ‘चोरी जारी’ का सवाल ही नहीं उठता।
दलितों अर्थात आजीवकों में जारकर्म पर तलाक की परंपरा के विपरीत द्विज या ब्राह्मणी विवाह व्यवस्था में तलाक अनुमत नहीं है। इस से होता क्या है? इस से होता यह है कि बिना तलाक के विवाह में जारकर्म पीछे-पीछे चला आता है। इन के कथित पवित्र विवाह में एक बार विवाह हो गया तो तलाक दिया ही नहीं जा सकता। तब स्त्री और पुरुष कोई भी आसानी से जारकर्म में गिर सकता है। यही इन की चर्चित जीवन शैली है, जो जारकर्म से अभिशप्त है। और, जारकर्म से बड़ी चोरी कोई होती नहीं। इसलिए बाकी सब चोरियां द्विजों अर्थात वर्णवादियों के जीवन में खुद-ब-खुद चली आती हैं। इसके उदाहरणों से यह लेख कभी खत्म नहीं हो सकता।
इन्होंने जो बोला है उस मूल कहावत पर आया जाए। मूल कहावत है ‘चोरी जारी’, इस में सीधे-सीधे जार और चोर को एक बताया गया है। जो सही भी है। इस कहावत से जार सदियों से मुंह छुपाता घूम रहा है। बाद में इसने चालाकी से इसे ‘चोरी चकारी’ में बदल दिया। लेकिन इसमें भी जार ही फंसता है। क्योंकि, जार निठल्ला होता है। वह किसी तरह का कोई काम नहीं करता। जारकर्म ही उसके लिए एकमात्र काम होता है। यहां भी जार ही पकड़ा जा रहा है। वह पिंजरे में फंसे चूहे की तरह फड़फड़ाता है। आगे चलकर सामंत के मुंशी ने इसी फड़फड़ाहट से निकलने के लिए अपनी लेखनी में इसे ‘चोरी चमारी’ कर दिया। जिस की खोल-बांध महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर अच्छे से कर चुके हैं। तो, पांडे जी का फड़फड़ाना सभी को समझ आ रहा है।
इन्होंने जिस रणनीति के तहत ‘जन सुराज’ नामक पार्टी का गठन किया है उस का एक एजेंडा बिहार में भूमि सुधार या वितरण का है। ऐसे लगता है इन्होंने आचार्य विनोबा भावे के भू-दान आंदोलन का ठीक से अध्ययन कर लिया है। तभी इन्होंने भूमि वितरण को अपना एजेंडा बनाया है। यूं, इन से पूछा जा सकता है, कथित भू-दान आंदोलन में किन लोगों ने भूमि दान की थी? दान के रूप में वह भूमि किन्हें मिली थी? और, उस भूमि पर आज किन लोगों का कब्जा है? ये इस के आंकड़े सार्वजनिक कर दें, ताकि दलितों को इन के इस एजेंडे को ठीक से समझने में मदद मिल सके। तो, किसी को भ्रम ना रहे, इन की तथाकथित जन सुराज पार्टी भू-दान आंदोलन का ही बदला रूप है।
पूछना यह भी है, प्रशांत किशोर पांडे के इस असंसदीय कथन पर कहां हैं कुकुरमुत्तों की तरह फैले ‘दलित लेखक संघ’ और दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले संगठन। जो ऐसे जातिवादी लोगों को इन की सही जगह नहीं दिखाते। तब ऐसे दलित लेखक संघों और राजनीतिक संगठनों से चमारों को क्या फायदा? ऐसे संगठनों से चमारों को तत्काल प्रभाव से बाहर आ जाना चाहिए। और, नेतृत्व अपने हाथ में रखते हुए इस देश और समाज को सही दिशा दिखानी चाहिए। फिर आप देखेंगे, इनके जैसे कहां विलुप्त हो गए यह पता भी नहीं चलेगा।
इस आलेख के लेखक कैलाश दहिया दलित कवि, आलोचक और कला समीक्षक हैं।
