Tuesday, July 8, 2025
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बेंगलुरु यूनिवर्सिटी में जातिवाद के आरोप में 10 दलित प्रोफेसरों का इस्तीफा

विश्वविद्यालय में कार्यरत 10 दलित प्रोफेसरों ने एक साथ अपने प्रशासनिक पदों से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने यह कदम संस्थान में लगातार हो रहे जातिगत भेदभाव और अधिकारों की उपेक्षा के खिलाफ उठाया है।

बेंगलुरु। बेंगलुरु यूनिवर्सिटी एक बार फिर विवादों में है। विश्वविद्यालय में कार्यरत 10 दलित प्रोफेसरों ने एक साथ अपने प्रशासनिक पदों से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने यह कदम संस्थान में लगातार हो रहे जातिगत भेदभाव और अधिकारों की उपेक्षा के खिलाफ उठाया है। इस्तीफा देने वाले शिक्षकों का आरोप है कि वर्षों तक सेवाएं देने के बावजूद उन्हें ‘इन-चार्ज’ के अस्थायी पदों पर बनाए रखा गया, जिससे उन्हें न तो स्थायी पद का दर्जा मिला, न ही छुट्टियों और अन्य प्रशासनिक सुविधाओं का लाभ।

इन प्रोफेसरों ने कुलपति को पत्र लिखकर स्पष्ट किया है कि यह केवल प्रशासनिक असंतोष नहीं, बल्कि जाति आधारित भेदभाव का परिणाम है। उन्होंने लिखा है कि लंबे समय से विश्वविद्यालय में दलित समुदाय से आने वाले शिक्षकों को जानबूझकर पदोन्नति और स्थायी पदों से वंचित रखा जा रहा है। साथ ही, Earned Leave (EL) जैसी बुनियादी सुविधाएं भी उनसे छीन ली गई हैं, जो कि अन्य समुदायों के शिक्षकों को मिलती रही हैं।

प्रोफेसरों का कहना है कि जब संस्थान में नई कुर्सियां या पद रिक्त होते हैं, तो उच्च जातियों के उम्मीदवारों को तरजीह दी जाती है, जबकि दलित प्रोफेसर ‘इन-चार्ज’ के नाम पर काम करते रहते हैं। इससे न केवल उनका शोषण होता है, बल्कि उनकी गरिमा को भी ठेस पहुंचती है।

यह घटना तब सामने आई है जब देशभर में विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव के मामले बार-बार उठ रहे हैं। डॉ. अशोक कुमार (डीयू) और डॉ. रवि वर्मा (आंध्र प्रदेश) जैसे मामलों के बाद बेंगलुरु यूनिवर्सिटी की यह घटना इस बात को रेखांकित करती है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में दलित समुदाय के साथ संस्थागत अन्याय एक गंभीर वास्तविकता है।

अब सवाल यह है कि क्या विश्वविद्यालय प्रशासन इस विरोध को केवल “इमोशनल रिएक्शन” मानकर टाल देगा या फिर इन प्रोफेसरों की मांगों पर अमल करते हुए नीति में बदलाव करेगा? इस्तीफा देने वाले प्रोफेसरों ने चेतावनी दी है कि यदि एक सप्ताह के भीतर उन्हें स्थायी पद और उनका हक नहीं मिला, तो वे पूरी तरह से प्रशासनिक जिम्मेदारियों से खुद को अलग कर लेंगे। बेंगलुरु यूनिवर्सिटी का यह संकट न सिर्फ कर्नाटक बल्कि देशभर के उन दलित शिक्षकों की व्यथा का प्रतीक बन रहा है, जिन्हें अब भी उनकी योग्यता के बावजूद बराबरी का दर्जा नहीं मिल पा रहा है।

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