Written By- अरविंद सिंह
आज अंतरराष्ट्रीय पितृ दिवस है। मैं ऐसी पीढ़ी से आता हूं जिसके पास अपने पिता की धरोहर के रूप में उनकी लिखी सैकड़ों चिट्ठियां हैं। उनको आज भी सहेज कर रखा है मैने। मौके बेमौके पढ़ता हूं तो लगता है जैसे वे मेरी तमाम चुनौतियों का जवाब तलाश देती हैं। कुछ में वैसी ही उलाहनाएं है जो मैं अपनी बेटी से करता हूं, कुछ में वैसी ही सराहनाएं हैं। कुछ में डांट फटकार है तो कुछ में ऐसी नसीहतें जो आज भी काम आ रही हैं। लेकिन संचार क्रांति के बीच जी रही हमारी नयी पीढ़ी ऐसी चिट्ठियों से वंचित है। लेकिन उसके लिए मैं उनको दोष नहीं देता। दोषी तो मैं खुद और हमारी पूरी पीढ़ी ही है। तो क्या इस पितृ दिवस से गाहे बगाहे ही सही अपने बच्चों को आप चिट्ठी लिखना आरंभ करेगे?
1980 में पिता से अलग होकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय गया तो कोई सप्ताह न जाता होगा जिसमें उनकी कोई चिट्ठी न आती रही हो। मैं भी जवाब लिखता ही था। पिताजी की हैंडराइटिंग भी बहुत अच्छी थी और उनका हर पत्र केवल घर परिवार ही नहीं पूरे इलाके का अखबार सा भी होता था। कभी कुछ रोचक चिट्ठियां साझा करूंगा लेकिन फिलहाल प्रसंग अलग है।
भारतीय डाक पुस्तक मैंने लिखी तो कई खंडों में भारतीय डाक सेवा की अधिकारी श्रीमती पी गोपीनाथ से काफी मदद मिली। बाद में वे इस विभाग की सचिव भी रहीं। एक दिन बंगलूरू में पढ़ रही अपनी बेटी को एक कार्ड में कुछ खास हिदायतें हाथ से लिख कर भेजी। कुछ दिनों बाद गयीं तो देखा कि उसने अपनी पढ़ाई के टेबुल के ठीक ऊपर करीने से लगा कर रखा था। यानि रोज देखती थी उसे। चिट्ठियों की अपनी ताकत है लेकिन हम लोगों ने ही अपने बच्चों के लिए चिट्ठी लिखना बंद कर दिया है और उसके महत्व से उनको कभी बताते नहीं तो वे क्या लिखेंगे। लेकिन दुनिया के तमाम हिस्सों में चिट्ठियों को लिखने लिखाने और एक दूसरे को चिट्ठियों से जानने समझने का आंदोलन सा चल रहा है।
हम सभी चिट्ठियों की कीमत को जानते हैं। एक पिता के लिखे पत्र की कीमत और ताकत क्या होती है, यह हम सबको पता है। नौजवान साथियों को समझना होगा कि चिट्ठियां मोबाइल से कितनी ज्यादा ताकवर हैं। अभी भी उनको लिखना जारी रखा जा सकता है क्योंकि वैसी ताकत आज भी किसी औऱ विधा में नहीं।
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद सिंह ने यह पोस्ट फेसबुक पर लिखी थी। वहां से साभार प्रकाशित।

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