कर्नाटक चुनाव प्रचार का आज (10 मई) आखिरी दिन रहा. कर्नाटक चुनाव की सरगर्मी का असर पूरा देश महसूस कर रहा है. देश के दो सबसे ताकतवर नेता प्रधानमंत्री मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कई दिनों तक कर्नाटक में जमें रहे. आलम यह है कि कर्नाटक की चुनावी गर्मी का असर दिल्ली तक में साफ दिखा. प्रदेश में भाजपा जहां अपने बूते चुनाव मैदान में है तो कांग्रेस भी बिना गठबंधन चुनाव लड़ रही है. प्रदेश की तीसरी प्रमुख पार्टी पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की जनता दल सेक्युलर यानि जेडीएस है. जेडीएस यहां बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव मैदान में है.
प्रदेश में जो स्थिति बन रही है, उसमें जेडीएस-बसपा गठबंधन मजबूत बनकर उभरा है. कर्नाटक में सामाजिक संरचना को देखें तो जेडीएस और बसपा का यह गठबंधन काफी महत्वपूर्ण है. कर्नाटक में दलित और आदिवासी समुदाय के करीब 26% वोटर हैं, जो राज्य की 100 सीटों को प्रभावित करने का माद्दा रखते हैं. इस आंकड़े को और बेहतर तरीके से समझने की कोशिश करें तो राज्य की करीब 60 सीटों पर दलित समुदाय और 40 सीटों पर आदिवासी समुदाय के वोटर असर डालते हैं. जाहिर है इसके अलावा भी हर सीट पर दलित और आदिवासी वोटों की संख्या होगी ही.
यही आंकड़ा जेडीएस और बसपा के गठबंधन को मजबूत बना रहा है तो इसी आंकड़े से भाजपा और कांग्रेस पार्टी डरी हुई है. यही वजह है कि कांग्रेस देवेगौड़ा से यह पूछती दिखी कि वह कांग्रेस की ओर हैं या फिर भाजपा की ओर तो कर्नाटक में चुनाव प्रचार करने पहुंचे पीएम मोदी लगातार देवेगौड़ा पर डोरे डालते रहे.
कर्नाटक के विधानसभा की स्थिति की बात करें तो यहां 224 विधानसभा सीटे हैं. इसमें एससी यानि दलितों के लिए 36 जबकि एसटी यानि आदिवासियों के लिए 15 सीटें सुरक्षित हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव को आधार बनाकर देखें तो विधानसभा वार सीटों पर बढ़त के लिहाज से भाजपा आदिवासियों के लिए आरक्षित 36 सीटों में से 18 जबकि कांग्रेस 16 सीटों पर आगे थी. वहीं,आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों 15 सीटों में भाजपा 8 और कांग्रेस 7 सीटों पर आगे थी. यानि दोनों में कड़ी टक्कर थी.
हालांकि यहां एक और तथ्य पर ध्यान देना होगा. कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्दारमैया भी खुद पिछड़े समुदाय से आते हैं और उन्होंने दलितों और आदिवासियों के लिए कई योजनाएं चला रखी है. सिद्दारमैया को इसका कितना लाभ मिलता है यह इस पर निर्भर है कि ये योजनाएं जमीन पर कितनी पहुंची है. जबकि भाजपा के मंत्री अनंत कुमार हेगड़े के संविधान बदलने को लेकर प्रदेश के दलित-आदिवासी भाजपा से खार खाए हुए हैं. पिछले दिनों एक बैठक के दौरान दलितों ने हेगड़े के बयान को लेकर अमित शाह का बहिष्कार कर अपनी मंशा जता दी है.
प्रदेश में नए समीकरण बनने के बाद अचानक इस सभी सीटों पर जेडीएस-बसपा गठबंधन का दावा भी मजबूत हो गया है. बसपा देश की इकलौती ऐसी पार्टी है, जिसे देश के हर हिस्से में दलितों का कमोबेश समर्थन हासिल है. जेडीएस के साथ मिलकर मजबूती से चुनाव लड़ने की स्थिति में दलित वोट बसपा के पक्ष में गोलबंद हो सकते हैं. यह स्थिति प्रदेश में सत्ता का गणित बदलने के लिए काफी है.
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अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।